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Friday, February 22, 2013

The judgement — delivered while granting bail to four members of Kabir Kala Manch (KKM)


 Ultra vires regulations
Suvojit Bagchi

Freedom of speech: Sheetal Sathe, lead singer of Kabir Kala Manch.
Special Arrangement Freedom of speech: Sheetal Sathe, lead singer of Kabir Kala Manch.
Mere association with a banned outfit or studying its literature is not tantamount to being a terrorist, says a recent Bombay High Court judgement
The definition of a ‘terrorist’ and ‘terrorism’ has been a major topic of continuous debate in India especially in recent months. Can a person collecting and studying literature of a banned party be defined as a terrorist? Can a song with revolutionary lyrics — despising social inequality — be called an act of terror? Or is it that quoting Mao Tse Tung or Karl Marx in a street theatre be defined as a terrorist ploy?
A recent judgement by the Bombay High Court has stated that such acts are not terrorism. Even the judge went on to say, “... the expression of views to the effect that a change in the social order can be brought about only by a revolution would not amount to any offence.”
The judgement — delivered while granting bail to four members of Kabir Kala Manch (KKM), a Pune-based cultural group of Dalit protest singers — has been lauded by social activists and lawyers in Chhattisgarh and other States where a large number of tribals are languishing in jail allegedly for participating in Maoist rallies or providing food to the rebels. The KKM members were arrested and booked under sections of the Indian Penal Code (IPC) and the Unlawful Activities (Prevention) Act (UAPA) allegedly for being members of the banned CPI-Maoist.
The judgement by Justice Abhay Thipsey has specifically questioned Section 20 of UAPA which penalises members of ‘terrorist gangs or organisations involved in terrorist acts’ with imprisonment for life. Quoting extensively from several verdicts of the Indian and U.S. Supreme Courts, the judgement says that Section 20 of UAPA challenges Article 19 of the Indian Constitution that guarantees freedom of speech, right to form unions and assemble peacefully.
According to the judge, KKM members were arrested for practising rights guaranteed by Article 19. Moreover, the same section of IPC, 120B, which was used against Afzal Guru for allegedly abetting a criminal conspiracy, was also used against KKM members for associating with a banned outfit.
Deconstructing various sections of IPC and UAPA used to frame charges against KKM members, Justice Thipsey said, “Mere membership of a banned organisation will not incriminate a person unless he resorts to violence or incites people to violence,” quoting, inter alia, from a Supreme Court judgement.
Justice Thipsey added if “passive membership” of a banned party is criminally liable, then parts of UAPA may become ultra vires. “It is very clear from the observations made by the Supreme Court that if Section 20 were to be interpreted in that manner (passive membership as active terrorism), it would at once be considered as violative of the provisions of Article 19 of the Constitution of India, and would be struck down as ultra vires,” page 37 of the judgement stated.
Justice Thipsey has also expressed “surprise” that KKM members were arrested for organising “street plays wherein social issues such as the eradication of corruption, social inequality, widening gap between the rich and the poor, the exploitation of poor, etc.” are addressed. “There is nothing wrong in raising these social issues,” he said.
“The same views (regarding social inequality) are expressed by several national and eminent leaders and the expression for these views cannot brand a person as a member of CPI-Maoist. On the contrary, such a reasoning would indicate that these issues, which are real and important, are not addressed to by anyone else, except the CPI-Maoist, which would mean that the other parties or social organisations are indifferent to these problems faced by the society,” the judgement said. Advocating the teachings of Karl Marx or “having some faith in the Maoist philosophy” is also not criminally liable, said the judge. The judgement has also emphasised that possessing of banned literature of an outlawed political party (CPI-Maoist in this case) is not an offence.
In large parts of India, especially in States where tribals are in jail for being alleged sympathisers of the CPI-Maoist, the judgement has acted as a shot in the arm of the activists and the lawyers. “This is a landmark judgement in context of Chhattisgarh, as there are more than 2,000 tribals languishing in various jails. However, I am not sure if this verdict will be taken into cognisance while passing a judgement,” said K.K. Dubey, who represents several under-trial tribals in south Chhattisgarh. Activists in Andhra Pradesh, Odisha and Jharkhand have also welcomed Justice Thipsey’s judgement.

लोकतंत्र के लिए एक मुकम्मल दिन: अरुंधति राय:

भारत के फासीवादी राज्य द्वारा अफजल गुरु की हत्या पर लेखिका-कार्यकर्ता अरुंधति राय का लेख. अनुवाद: रेयाज उल हक. साभार: द हिंदू.



नहीं था क्या? मेरा मतलब, कल का दिन. दिल्ली में बसंत ने दस्तक दी. सूरज निकला था और कानून ने अपना काम किया. नाश्ते से ठीक पहले, 2001 में संसद पर हमले के मुख्य आरोपी अफजल गुरु को खुफिया तरीके से फांसी दे दी गई और उनकी लाश को तिहाड़ जेल में मिट्टी में दबा दिया गया. क्या उन्हें मकबूल भट्ट की बगल में दफनाया गया? (एक और कश्मीरी, जिन्हें 1984 में तिहाड़ में ही फांसी दी गई थी. कल कश्मीरी उनकी शहादत की बरसी मनाएंगे.) अफजल की बीवी और बेटे को इत्तला नहीं दी गई थी. ‘अधिकारियों ने स्पीड पोस्ट और रजिस्टर्ड पोस्ट से परिवार वालों को सूचना भेज दी है,’ गृह सचिव ने प्रेस को बताया, ‘जम्मू कश्मीर पुलिस के महानिदेशक को कह दिया गया है कि वे पता करें कि सूचना उन्हें मिल गई है कि नहीं.’ ये कोई बड़ी बात नहीं है, वो तो बस एक कश्मीरी दहशतगर्द के परिवार वाले हैं.

एकता के एक दुर्लभ पल में राष्ट्र, या कम से कम इसके मुख्य राजनीतिक दल, कांग्रेस, भाजपा और सीपीएम (‘देरी’ और ‘समय’ पर छोटे-मोटे मतभेद को छोड़ दें तो) कानून के राज की जीत का जश्न मनाने के लिए एक साथ आए. राष्ट्र की चेतना ने, जिसे इन दिनों टीवी स्टूडियो के जरिए लाइव प्रसारित किया जाता है, अपनी सामूहिक समझ हम पर उंड़ेल दी – धर्मात्माओं सरीखे उन्माद और तथ्यों की नाजुक पकड़ की वही हमेशा की खिचड़ी. यहां तक कि वो इन्सान मर चुका था और चला गया था, झुंड में शिकार खेलने वाले बुजदिलों की तरह उन्हें एक दूसरे का हौसला बढ़ाने की जरूरत पड़ रही थी. शायद अपने मन की गहराई में वे जानते थे कि वे सब एक भयानक रूप से गलत काम के लिए जुटे हुए हैं.

तथ्य क्या हैं?

13 दिसंबर 2001 को पांच हथियारबंद लोग इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस के साथ एक सफेद एंबेस्डर कार से संसद भवन के दरवाजों से दाखिल हुए. जब उन्हें ललकारा गया तो वो कार से निकल आए और गोलियां चलाने लगे. उन्होंने आठ सुरक्षाकर्मियों और माली को मार डाला. इसके बाद हुई गोलीबारी में पांचों हमलावर मारे गए. पुलिस हिरासत में दिए गए कबूलनामों के अनेक वर्जनों में से एक में अफजल गुरु ने उन लोगों की पहचान मोहम्मद, राणा, राजा, हमजा और हैदर के रूप में की. आज तक भी, हम उन लोगों के बारे में कुल मिला कर इतना ही जानते हैं. तब के गृहमंत्री एल.के. अडवाणी ने कहा कि वे ‘पाकिस्तानियों जैसे दिखते थे.’ (उन्हें पता होना ही चाहिए कि ठीक-ठीक पाकिस्तानी की तरह दिखना क्या होता है? वे खुद एक सिंधी जो हैं.) सिर्फ अफजल के कबूलनामे के आधार पर (जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बाद में ‘खामियों’ और ‘कार्यवाही संबंधी सुरक्षा प्रावधानों के उल्लंघनों’ के आधार पर खारिज कर दिया था) सरकार ने पाकिस्तान से अपना राजदूत वापस बुला लिया था और पांच लाख फौजियों को पाकिस्तान से लगी सरहद पर तैनात कर दिया था. परमाणु युद्ध की बातें होने लगीं थीं. विदेशी दूतावासों ने यात्रा संबंधी सलाहें जारी कर दी थीं और दिल्ली से अपने कर्मचारियों को बुला लिया था. असमंजस की यह स्थिति कई महीनों तक चली और भारत के हजारों करोड़ रुपए खर्च हुए.

14 दिसंबर, 2001 को दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल ने दावा किया कि उसने मामले को सुलझा लिया है. 15 दिसंबर को उसने दिल्ली में ‘मास्टरमाइंड’ प्रोफेसर एस.ए.आर. गीलानी और श्रीनगर में फल बाजार से शौकत गुरु और अफजल गुरु को गिरफ्तार किया. बाद में उन्होंने शौकत की बीवी अफशां गुरु को गिरफ्तार किया. मीडिया ने जोशोखरोश से स्पेशल सेल की कहानी का प्रचार किया. कुछ सुर्खियां ऐसी थीं: ‘डीयू लेक्चरर वाज टेरर प्लान हब’, ‘वर्सिटी डॉन गाइडेड फिदायीन’, ‘डॉन लेक्चर्ड ऑन टेरर इन फ्री टाइम.’ जी टीवी ने दिसंबर 13 नाम से एक ‘डॉक्यूड्रामा’ प्रसारित किया, जो कि ‘पुलिस के आरोप पत्र पर आधारित सच्चाई’ होने का दावा करते हुए उसकी पुनर्प्रस्तुति थी. (अगर पुलिस की कहानी सही है, तो फिर अदालतें किसलिए?) तब प्रधानमंत्री वाजपेयी और एल.के. आडवाणी ने सरेआम फिल्म की तारीफ की. सर्वोच्च न्यायालय ने इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने से यह कहते हुए मना कर दिया कि मीडिया जजों को प्रभावित नहीं करेगा. फिल्म फास्ट ट्रेक कोर्ट द्वारा अफजल, शौकत और गीलानी को फांसी की सजा सुनाए जाने के सिर्फ कुछ दिन पहले ही दिखाई गई. उच्च न्यायालय ने ‘मास्टरमाइंड’ प्रोफेसर एस.ए.आर. गीलानी और अफशां गुरु को आरोपों से बरी कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी रिहाई को बरकरार रखा. लेकिन 5 अगस्त, 2005 के अपने फैसले में इसने मोहम्मद अफजल को तिहरे आजीवन कारावास और दोहरी फांसी की सजा सुनाई.

कुछ वरिष्ठ पत्रकारों द्वारा, जिन्हें बेहतर पता होगा, फैलाए जाने वाले झूठों के उलट, अफजल गुरु ’13 दिसंबर, 2001 को संसद भवन पर हमला करने वाले आतंकवादियों’ में नहीं थे न ही वे उन लोगों में से थे जिन्होंने ‘सुरक्षाकर्मी पर गोली चलाई और मारे गए छह सुरक्षाकर्मियों में तीन का कत्ल किया.’ (ये बात भाजपा के राज्य सभा सांसद चंदन मित्रा ने 7 अक्तूबर, 2006 को द पायनियर में लिखी थी). यहां तक कि पुलिस का आरोप पत्र भी उनको इसका आरोपी नहीं बताता है. सर्वोच्च न्यायालय का फैसला कहता है कि सबूत परिस्थितिजन्य है: ‘अधिकतर साजिशों की तरह, आपराधिक साजिश के समकक्ष सबूत नहीं है और न हो सकता है.’ लेकिन उसने आगे कहा: ‘हमला, जिसका नतीजा भारी नुकसान रहा और जिसने संपूर्ण राष्ट्र को हिला कर रख दिया, और समाज की सामूहिक चेतना केवल तभी संतुष्ट हो सकती है अगर अपराधी को फांसी की सजा दी गई.’

संसद हमले के मामले में हमारी सामूहिक चेतना का किसने निर्माण किया? क्या ये वे तथ्य होते हैं, जिन्हें हम अखबारों से हासिल करते हैं? फिल्में, जिन्हें हम टीवी पर देखते हैं?

कुछ लोग हैं जो यह दलील देंगे कि ठीक यही तथ्य, कि अदालत ने एस.ए.आर. गीलानी को छोड़ दिया और अफजल को दोषी ठहराया, यह साबित करता है कि सुनवाई मुक्त और निष्पक्ष थी. थी क्या?

फास्ट-ट्रेक कोर्ट में मई, 2002 में सुनवाई शुरू हुई. दुनिया 9-11 के बाद के उन्माद में थी. अमेरिकी सरकार अफगानिस्तान में अपनी ‘विजय’ पर हड़बड़ाए हुए टकटकी बांधे थी. गुजरात का जनसंहार चल रहा था. और संसद पर हमले के मामले में कानून अपनी राह चल रहा था. एक आपराधिक मामले के सबसे अहम चरण में, जब सबूत पेश किए जाते हैं, जब गवाहों से सवाल-जवाब किए जाते हैं, जब दलीलों की बुनियाद रखी जाती है – उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में आप केवल कानून के नुक्तों पर बहस कर सकते हैं, आप नए सबूत नहीं पेश कर सकते – अफजल गुरु भारी सुरक्षा वाली कालकोठरी में बंद थे. उनके पास कोई वकील नहीं था. अदालत द्वारा नियुक्त जूनियर वकील एक बार भी जेल में अपने मुवक्किल से नहीं मिला, उसने अफजल के बचाव में एक भी गवाह को नहीं बुलाया और न ही अभियोग पक्ष द्वारा पेश किए गए गवाहों का क्रॉस-एक्जामिनेशन किया. जज ने इस स्थिति के बारे कुछ पाने में अपनी अक्षमता जाहिर की.

तब भी, शुरुआत से ही, केस बिखर गया. अनेक मिसालों में से कुछेक यों हैं:

पुलिस अफजल तक कैसे पहुंची? उनका कहना है कि एस.ए.आर. गीलानी ने उनके बारे में बताया. लेकिन अदालत के रिकॉर्ड दिखाते हैं कि अफजल की गिरफ्तारी का संदेश गीलानी को उठाए जाने से पहले ही आ गया था. उच्च न्यायालय ने इसे ‘भौतिक विरोधाभास’ कहा लेकिन इसे यों ही कायम रहने दिया.

अफजल के खिलाफ सबसे ज्यादा आरोप लगाने वाले दो सबूत एक सेलफोन और एक लैपटॉप था, जिसे उनकी गिरफ्तारी के वक्त जब्त किया गया. अरेस्ट मेमो पर दिल्ली के बिस्मिल्लाह के दस्तखत हैं जो गीलानी के भाई हैं. सीजर मेमो पर जम्मू-कश्मीर पुलिस के दो कर्मियों के दस्तखत हैं, जिनमें से एक अफजल के उन दिनों का उत्पीड़क था, जब वे एक आत्मसमर्पण किए हुए ‘चरमपंथी’ हुआ करते थे. कंप्यूटर और सेलफोन को सील नहीं किया गया, जैसा कि एक सबूत के मामले में किया जाता है. सुनवाई के दौरान यह सामने आया कि लैपटॉप के हार्ड डिस्क को गिरफ्तारी के बाद उपयोग में लाया गया था. इसमें गृह मंत्रालय के फर्जी पास और फर्जी पहचान पत्र थे जिसे आतंकवादियों ने संसद में घुसने के लिए इस्तेमाल किया था. और संसद भवन का एक जी टीवी वीडियो क्लिप. इस तरह पुलिस के मुताबिक, अफजल ने सभी सूचनाएं डीलीट कर दी थीं, बस सबसे ज्यादा दोषी ठहराने वाली चीजें रहने दी थीं, और वो इसे गाजी बाबा को देने जा रहा था, जिनको आरोप पत्र में चीफ ऑफ ऑपरेशन कहा गया है.

अभियोग पक्ष के एक गवाह कमल किशोर ने अफजल की पहचान की और अदालत को बताया कि 4 दिसंबर 2001 को उसने वह महत्वपूर्ण सिम कार्ड अफजल को बेचा था, जिससे मामले के सभी अभियुक्त के संपर्क में थे. लेकिन अभियोग पक्ष के अपने कॉल रिकॉर्ड दिखातेहैं कि सिम 6 नवंबर 2001 से काम कर रहा था.

ऐसी ही और भी बातें हैं, और भी बातें, झूठों के अंबार और मनगढ़ंत सबूत. अदालत ने उन पर गौर किया, लेकिन पुलिस को अपनी मेहनत के लिए हल्की की झिड़की से ज्यादा कुछ नहीं मिला. इससे ज्यादा कुछ नहीं.

फिर तो वही पुरानी कहानी है. ज्यादातर आत्मसमर्पण कर चुके चरमपंथियों की तरह अफजल कश्मीर में आसान शिकार थे – टॉर्चर, ब्लैकमेल, वसूली के पीड़ित. जिसको संसद पर हमले के रहस्य को सुलझाने में सचमुच दिलचस्पी हो, उसे सबूतों की एक घनी राह से गुजरना होगा, जो कश्मीर में एक धुंधले जाल की तरफ ले जाती है, जो चरमपंथियों को आत्मसमर्पण कर चुके चरमपंथियों से, गद्दारों को स्पेशल पुलिस ऑफिसरों से, स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप को स्पेशल टास्क फोर्स से जोड़ती है और यह रिश्ता ऊपर, और आगे की तरफ बढ़ता जाता है. ऊपर, और आगे की तरफ.

लेकिन अब इस बात से कि अफजल गुरु को फांसी दी जा चुकी है, मैं उम्मीद करती हूं कि हमारी सामूहिक चेतना संतुष्ट हो गई होगी. या हमारा खून का कटोरा अभी आधा ही भरा है?
          
        साभार - हाशिया ब्लॉग 

छेड़खानी व् गुंडागर्दी करने वाले परिसर में भय मुक्त घूम रहे है लेकिन इसका विरोध करने वालों को गिरफ्तार किया जाता है :

    गत 24 जनवरी को बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में सुबह आइसा के एक कार्यकर्ता को बिरला क्षात्रावास में रह रहे अभाविप के कुछ गुंडों द्वारा पिटा गया।
बीसीएम की तरफ से बतौर प्रतिनिधि शैलेश और अजय  लंका थाने  गए और ऍफ़आईआर दर्ज  करवाया गया उसी दिन शाम बिरला से गुज़र रही छात्राओं पर परिसर में तथाकथित समाजवादी ''समाजवादी छात्र सभा''से जुड़े कुछ गुंडों (सुजीत सिंह ''मेजर '',शेखर सिंह ,मृत्युंजय )ने अश्लील फ़ब्तिया कसी और उनके साथ छेड़खानी की उसके बाद बहादुर लडकियों ने पलटकर जवाब दिया।
हिंदी विभाग पहुचकर  इनके खिलाफ नारे लगाते हुए धरने पर बैठ गयी और इनके निष्कासन की मांग करने लगी। फिर ये गुंडे वहाँ पहुच कर उनको गन्दी-गन्दी गालियाँ दिए ,धमकी दिए इसके बाद प्रशासन भी उनके ऊपर लाठियां बरसाना सुरु कर दिया।तब छात्र-छात्राए वहाँ से बचते हुए वि सी आवास की तरफ बढ़ने लगे वहाँ पर भी पुलिस बैरिकेड लगाए हुए तैनात थी।
बावजूद इसके  बैरिकेड तोड़कर छात्र-छात्राएं वीसी आवास के सामने संगठित हो गए और गुंडों एवं प्रशासन के खलाफ नारे लगाते हुए धरने पर बैठ गए वे मांग कर रहे थे की गुंडों को गिरफ्तार किया जाए और उनको निष्कासित किया जाए ,वीसी बाहर निकले अपनी छात्राओ की समस्याए सुने।
     


 हद तो तब हो गयी जब गुंडे वहा पर भी आ धमके अश्लील इशारे करते गालियाँ देने लगे और धरने को हटाने का पूरा प्रयास किये और बीसीएम के सचिव रितेश विद्यार्थी को धमकी भी दी गई वही   प्रशासन के डेढ़ सौ से अधिक जवान होने के बावजूद उन्हें कुछ नहीं किया गया बल्कि उनको कहते  शांत हो  जाओ कुछ नहीं होगा। उल्टे  छात्राओ  को मर्यादा में रहने की हिदायत देते हैं मामला साफ़ है इनकी सत्ता है प्रशासन की सह पर गुंडे ऐसा कर पा रहे है पांच घंटे तक धरने पर बैठे छात्राओं से  वीसी मिलने नहीं आये तब पांच छात्राए मिलने के लिए गयी और  केवल आश्वासन देकर भेज दिया गया तब जाकर साढ़े  सात बजे धरना समाप्त हुआ।
इसी मामलें को लेकर  बीसीएम ने निर्णय लिया की ३० जनवरी को विश्वविद्यालय परिसर में छेड़खानी व् गुंडागर्दी के खिलाफ एवं परिसर को भय मुक्त बनाने के लिए छात्र-छात्राओं एवं बुद्धिजीवियों का संकल्प मार्च किया जायेगा।
उसी सिलसिले में पुरे कैम्पस में पोस्टर लगाए  गए और पर्चे भी बांटे गए चीफ प्राक्टर के घूम-घूम कर पोस्टर फाड़ने पर दोबारा पोस्टर लगाएं गए। लेकिन जैसे ही बीसीएम के कार्यकर्त्ता निकलने के लिए हिंदी विभाग चौराहे पर अपने बैनर और तक्थियाँ लेकर पहुचते है उन्हें आधुनिक और लोकतान्त्रिक मूल्यों के केंद्र में और गाँधी के शहादत दिवस के दिन पुलिस और प्रोक्टोरियल बोर्ड के जवान गिरफ्तार करके बर्बरता पूर्वक पुलिस वेंन  में ठूस दिया गया।
गिरफ्तार होने वालों में संगठन के सचिव रितेश विद्यार्थी ,सुनील कुमार ,अरुण ,उज्जवल शामिल थे। छेड़खानी व् गुंडागर्दी करने वाले परिसर में भय मुक्त घूम रहे है लेकिन इसका विरोध करने वालों को गिरफ्तार किया जाता है भगत सिंह छात्र मोर्चा के नेताओं की गिरफ़्तारी के बाद पूरा परिसर उबल पड़ा। विभिन्न संगठनो ने इस गिरफ़्तारी को परिसर में लोकतंत्र की ह्त्या और गुंडा तत्वों को संरक्षण देने वाला कदम बताते हुए मुख्य द्वार बीएचयू  से मार्च निकाला , लंका थाने का घेराव किया और धरना दिया। 
 थाना प्रभारी के कहने पर की तुम्हारे साथी रिहा हो गए और इसकी पुष्टि हो जाने पर देर शाम धरना समाप्त हुआ जिसमें बीसीएम ,अनुसूचित जाति - जनजाति छात्र संगठन ,अईसा ,एसऍफ़आई  संगठन शामिल थे।
अभी तक दोसियों पर कोई कार्यवाही नहीं हुई।

Friday, February 1, 2013

'' दस्तक '' पत्रिका का लोकार्पण और विचार गोष्टी .........

5 जनवरी को इलाहबाद विश्वविद्यालय के निराला सभागार में दस्तक पत्रिका का ढाई वर्ष के अन्तराल के बाद पुन: प्रकाशित होने पर लोकार्पण किया गया। इस अवसर पर पहले सत्र में प्रतिरोध की गज़ले के अंतर्गत जन गज़लकार महेंद्र मिहोनवी  ने अपने गजलो का लयबद्ध पाठ किया। जिसमे श्रोताओ द्वारा  इन ग़ज़लों को काफी पसंद किया गया। हैं जो अँधेरी रात बढ़ाते चलो कदम ,आएँगी मुश्किलात बढ़ाते चलो कदम / फूलों के इंतजार में ठहरोगे कब तलक ,काँटों पे रख के लात बढ़ाते चालों कदम / पानी भी रस्ते में जो मांगोगे तुम कही ,पूछेंगे पहले जात बढ़ाते चलों कदम .इनसे पहले जनगायक युद्धेश ने रामाज्ञा शशिधर के गीत ( वे सारे हमारे कतारों में शामिल ) को गाकर कार्यक्रम की सुरुआत की।
  अगले सत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रतिरोध की पत्रिकाएं पर विचार गोष्ठी हुई।जिसके मुख्या वक्ता और अतिथि प्रसिद्ध कवि नीलाभ  और समकालीन तीसरी दुनियाँ  के संपादक आनंद स्वरुप वर्मा थे। लेकिन दोनों लोग किन्ही कारणों से नहीं आ सके उन्होंने अपने लिखित व्यक्तव्य ई -मेल से भेजा जिसका पाठ संध्यां निवोदिता और रितेश विद्यार्थी ने किया। उनकी बाते वर्त्तमान व्यवस्था की नीतियों से उत्पन्न समस्याए और जन पक्षधर पत्रिकाओ की भूमिका पर केन्द्रित थी। इसके बाद इलाहबाद के नामचीन बुद्धिजीवियों ने दिल्ली सामूहिक रेप केस पर सरकार को दोषी ठहराते हुए इसकी कड़ी शब्दों में निंदा की और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एवं प्रतिरोध की पत्रिकाओं पर अपने-अपने व्यक्तव्य दिए।जिसमे मुख्य रूप से राजेंद्र कुमार ,जिया -उल और रवि किरण जैन थे।
कार्यक्रम का संचालन ''दस्तक '' पत्रिका की संपादक सीमा आज़ाद ने किया। 
             -विनोद शंकर