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Thursday, January 23, 2014

मारुति सुजुकी वकर्स यूनियन की जनजागरण पदयात्रा

Delhi- Maruti Suzuki Workers Union padayatra, Jan 15


*Appeal from revolutionary mass organisations*

*RISE AND STRENGTHEN THE MARUTI WORKERS’ FIGHT AGAINST INJUSTICE!*
*RELEASE THE FALSELY IMPLICATED 148 WORKERS DENIED BAIL FOR 18 MONTHS!!*
*JOIN THE JAN JAGARAN YATRA FROM 15TH TO 31ST JANUARY!!!*

In the midst of continuing attacks on the rights and livelihood of the workers everywhere by the desi-videsi capitalists and the central and state govts governed by political parties of different shades, workers in a number of factories in the recent times are struggling to form their unions and resist the onslaught of their employers. The struggle of Maruti Suzuki Manesar factory workers is one among the forefront of such struggles, their struggle continuing from when it came out into the open in May 2011 riding through many ups and downs, facing numerous assaults of the Maruti employer and govt.-state-machinery combine. Post the 18th july 2012 violent incident in the Maruti Manesar factory, through which the employer craftily attempted to drown the voice of protest of the Maruti workers they are busy branding the workers as criminals with open aid and collusion of the govt. Hence it has become a still tougher uphill task but the fighting Maruti workers have not given up. With 148 of their comrades in jail, bail denied to them for a long one and half years, both the labour and criminal cases lingering for months, and the workers’ families bearing great hardships, the fighting Maruti workers are continuing their struggle against great odds and repeated threats and harassments of the state machinery and Maruti management. As a part of this ongoing struggle *from this 15th of January the Maruti workers with their families and support of other trade unions, workers organizations and students have started a Jan Jagaran Yatra
appealing to the common masses to rise and lend stronger support for their fight against injustice. It has started from Kaithal in Haryana on the 15th and will pass through several districts of the state with mass meetings and demonstrations at different spots such as Rohtak, Jind, Gurgaon, and ultimately culminating in a big demonstration and presentation of memorandum to the President at Jantar Mantar, New Delhi on the 31st of January.*
*We appeal to all organisations and individuals, who feel that the banner of revolt raised by the Maruti Manesar factory workers against the assaults on their rights by the management and the state govt., like all such revolts against these capitalist class policies that are being adopted by all govts. of all kinds of established political parties from the so-called left to the right, must be supported with all possible effort,* to rally in support of the Maruti workers’ continuing endeavour to turn against the powerful tide of capitalists onslaught and particularly free their jailed
148 co-workers, who have been randomly picked up and put behind bars foisting concocted charges on them;* to participate in the true spirit of solidarity in the Padayatra specially with full strength on the 31st January demonstration and mass-meeting at Jantar Mantar bringing along with them workers of other factories and common toiling masses to further
strengthen that voice of revolt.*
*15th January 2014*
*All India Federation of Trade Unions(New), Indian Council of Trade Unions, Inquilabi Majdoor Kendra, Krantikari Naujawan Sabha, Majdoor Ekta Kendra, Majdoor Patrika, Nowruz, Sanhati, Shramik Sangram Committee, Shramjivee
Pahal, Trade Union Centre of India,and pdfi*
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MSWU_padayatra

MARUTI SUZUKI WORKERS UNION
(Registration No. 1923)
IMT Manesar, Gurgaon
Ref.No…IN17/1/2014
Date…17/1/2014

प्रेस विज्ञप्ति

जनजागरण यात्रा का तिसरा दिन

‘जुल्मी कब तक जुल्म करेगा शोषण़ के हथियारों से, हम भी उसको ध्वस्त करेंगे एकताबद्ध कतारों से।’

कैथल (हरियाणा)। अन्याय के विरुद्ध मारुति सुजुकी वकर्स यूनियन की कल कैथल जिला सचिवालय हरियाणा के सामने से शुरू हुआ ‘जनजागरण यात्रा’ आज 17 जनवरी को किठाना से शुरू करते हुए सामदो और नागूरा गाँव समेत कैथल जिले के समस्त गांवों में अपना बात रखते हुए गयी। किठाना में सरकार के नुमाइंदो ने काफी प्रयास किया की इस गाँव में पेदल जत्थे को कही रुकने ना दिया जाए। लेकिन सरकारी दबाबो के वाबजूद गाँव के लोगो ने जोश के साथ जत्थे का स्वागत किया तथा उनके रुकने, रहने खाने का इन्तेजाम किया। किठाना में तीन नुक्कड़ सभाए की गयी। मारुति मजदूरों के हल की दास्तान सुनने के बाद गाँव के लोगो का सरकार के खिलाफ गुस्सा बढ़ा है तथा लोग ये चर्चा करने लगे की सरकार एक जापानी कंपनी की दलाली में यहाँ तक उतर आई है की वे जेल में बंद 148 मजदूरों की ज़मानत तक नहीं होने दे रही है। जत्थे का ही असर यह है की सरकार तथा उसके नुमाइंदे गाँव गाँव पहुचकर जत्थे के रह में अवरोध पैदा कर रहे है जिसके चलते हमारा समर्थन दोगुना होता जा रहा है। ‘हमारे साथियों को रिहा करो’ नारे के साथ प्रारम्भ हुई इस पदयात्रा की गूँज कैथल से दिल्ली तक 16 दिनो में हर गाँव-शहर-गली-मोहोल्ले में पहुचेगी।
सुबह किठाना से शुरू होकर, आज दोपहर हमारी पदयात्रा सामदो पहुची, जहा के वासियों ने हमे अपना समर्थन, स्नेह और साथ में लड़ने का वादे के साथ हमारे होसले को बुलंद किया। यहाँ दिन में स्थानीय लोगो के लड़ने के उत्साह के बीच एक सभा आयोजित किया गया। स्थानीय लोगो ने बोला की यह लड़ाई केवल मजदूरों की नहीं है, बल्कि अब यह लड़ाई हरियाणा की अस्मिता की भी लड़ाई बन चुकी है। क्योकि जुलाई 2012 के बाद फेक्टरियों ने हरियाणा के नौजवानों को काम पर रखना बंद कर दिया है। मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन के प्रतिनिधि रामनिवास ने बताया कि पदयात्रा के द्वारा हम न्याय पाने के अपने संकल्प को आम जनता तक ले जा रहे हैं। उन्होंने और सभा के अन्य वक्ताओं, जिनमे जनसंघर्ष मंच हरियाणा, इंकलाबी मज़दूर केन्द्र, क्रान्तिकारी नौजवान सभा, समतामूलक महिला संगठन, सहित तमाम जन संगठन शामिल रहे, ने दोहराया की यह सभी मजदूर और किसानो की संयुक्त लड़ाई है, और हरियाणा सरकार के अन्यायपूर्ण नीतियों के खिलाफ ये जारी रहेगा। इस दौरान मज़दूरों ने ऐलान किया कि ‘जुल्मी कब तक जुल्म करेगा शोषण़ के हथियारों से, हम भी उसको ध्वस्त करेंगे एकताबद्ध कतारों से।’
वक्ताओं ने कहा कि एक तरफ तो तमाम अपराधी तो सत्ता में बैठे हुए हैं, लेकिन बेगुनाह 148 मज़दूर 18 महीने से जेल में बन्द हैं। गैरकानूनी कृत्यों में लिप्त प्रबन्धन तो ऐश कर रहा है और ढाई-तीन हजार मारुति के मज़दूर बेरोजगार भटक रहे हैं। वक्ताओं ने कहा कि पिछले 18 माह के दौरान यह बात साफ तौर पर देखने में आई कि कैसे जापानी मालिकों की सेवा में लगी सरकार और उसकी पुलिस-प्रशासन-श्रम विभाग सारे कानूनो को ताक पर रख कर निर्लज्ज रूप से काम कर रही है। 18 जुलाई 2012 की दुखद घटना के वास्तविक दोषी मारुती प्रबन्धन बेगुनाह बैठा है और बेगुनाहगार मज़दूर सजाएं भुगत रहे हैं, दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं।
आज जत्था शामदो होकर नागुरा में रात को रुकेगी। मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन ने विस्त्रृत कार्यक्रम घोषित करते हुए कहा कि 17 को शमदो व नागुरा, 18 को कंडेला व जींद, 19 को बिषानपुरा व गतौली, 20 को जुलाना व जफरगढ़ 21 को लाखन माजरा व भगवतीपुर, 22 को टिटोली व रोहतक, 23 को दिघल (झज्जर), 24 को चमनपुर व गुड्डा, 25 को झज्जर व दादरी, 26 को दादरी से फारूख नगर, 27 को गढ़ी, 28 को गुडगाँव, 29 को महिपालपुर होते हुए 30 को दिल्ली और 31 जनवरी को दिल्ली जन्तर मन्तर पर व्यापक कार्यक्रम होगा। इस अभियान में मारुति श्रमिकों के परिजनों, शुभचिन्तको के साथ कई जनसंगठनों, यूनियनों का बढता समर्थन से पदयात्रा का दूसरा दिन चला।
प्रोविसोनल वर्किंग कमेटी
मारुति सुजुकी वर्कर्स यूनियन
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MSWU poster

Saturday, January 18, 2014

मुजफ्फरनगर: सांप्रदायिक फासीवादी राज्य की जारी हिंसा

हाशिया ब्लॉग से साभार :


मुजफ्फरनगर-शामली के राहत शिविरों की स्थिति पर डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन की प्रारंभिक रिपोर्ट

बागपत जिले के चित्तमखेड़ी से आईं महबूबा ने बिना इलाज के अपनी बच्ची को मरते हुए देखा है-महीने भर पहले. दो दिसंबर को उनकी बेटी को मलकपुर शिविर में ठंड लगी. अगले दिन उन्होंने पास के कैराना में डॉक्टर को दिखाया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. बुखार तथा उल्टी के बाद उनकी बच्ची चल बसी. 35 साल के अनवर के साथ भी ऐसा ही हुआ. बागपत से आए भड़ल के अनवर का बेटा महज 22 दिन जीवित रह सका. ठंड से बचाव की कोई सुविधा नहीं रहने की वजह से उसे न्यूमोनिया हुआ और इलाज की कमी से उसकी मौत हो गई. महबूबा और अनवर शिविरों में रह रहे उन 30 से ज्यादा व्यक्तियों में से हैं, पिछले कुछ महीने में जिनके बच्चों की मौतें ठंड के कारण और इलाज की कमी से हुई हैं.

हालांकि भारतीय राज्य और इसके अलग अलग हिस्सों की राय इस पर एकदम अलग है. उत्तर प्रदेश सरकार के गृह सचिव की राय में ठंड से किसी की मौत नहीं हो सकती. राहुल गांधी के मुताबिक विभिन्न शिविरों में रह रहे एक लाख से ज्यादा लोग आईएसआई के एजेंट हैं और मुलायम सिंह के मुताबिक कांग्रेस के. प्रशासन उन्हें सरकारी जमीन पर गैर कानूनी कब्जा करने और पेड़ों को काटने वाला अतिक्रमणकारी मानता है. लेकिन मुजफ्फरनगर और शामली के राहतशिविरों में रहते आए करीब एक लाख लोगों ने पिछले चार महीनों में जो कुछ देखा और सहा है, ऐसी सरकारी बयानबाजी उसका सिर्फ त्रासदी पूर्ण मखौल ही उड़ा सकती है. उन्होंने देखा है कि कैसे महज कुछ दिनों के भीतर मुजफ्फरनगर, शामली और बागपत से एक लाख से ज्यादा मुसलमानों को उनके घरों से भागने पर मजबूर कर दिया गया जिन्होंने राहत शिविरों में पनाह ली. कम से कम 80 लोगों की हत्याएं कर दी गईं (यह सरकारी आंकड़ा है, स्थानीय लोगों के मुताबिक यह संख्या 130 से अधिक हो सकती है). गांवों में हत्याएं, मुसलमानों का भारी विस्थापन, औरतों के साथ बलात्कार, राहत शिविरों में बच्चों की मौतें, जनसंहार के अपराधियों द्वारा अब तक जारी धमकियां और इन सबके बावजूद अपनी जिंदगी और आजीविका के लिए लोगों का संघर्ष इस सांप्रदायिक-फासीवादी राज्य की एक और कड़वी सच्चाई है. एक तरफ जहां भाजपा पूरे गर्व से इस जनसंहार के अपराधियों को सार्वजनिक रूप से सम्मानित कर रही है तो दूसरी तरफ सपा सरकार हमले की तरफ से आंखें मूंदे रहने के बाद अब हमलों से हुए वास्तविक नुकसान को नकार रही है. हमले की भयावहता और राज्य की भूमिका के संदर्भ में इसकी मिसाल सिर्फ 2002 के गुजरात से दी जा सकती है. अपने घरों से बेदखल कर दिए गए और राहत शिविरों में रह रहे लोगों के साथ एकजुटता जाहिर करते हुए जेएनयू, बीएचयू, इलाहाबाद विवि और एक स्वतंत्र पत्रकार की 12 सदस्यों की एक टीम ने 4 जनवरी को शामली जिले के कुछ शिविरों का दौरा किया. हमने शिविरों में बदहाली से भरी हुई उन अमानवीय स्थितियों को देखा जिनमें लोग रह रहे हैं और उनसे बातें करते हुए उस आतंक को जाना, जो सरकार और राज्य के विभिन्न धड़ों की तरफ से उन पर पिछले कुछ महीनों से थोपा जा रहा है. लोगों की कहानियां धार्मिक अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों, के उत्पीड़न और व्यवस्थित रूप से उन्हें हाशिए पर धकेले जाने की कहानी है, जो यहां के कथित धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के झूठ को उजागर करती हैं.

4 जनवरी की सुबह एक स्थानीय दैनिक अमर उजाला की एक दिन पुरानी हेडलाइन ने हमें बताया कि ‘अपना पक्का मकान होते हुए भी इमदाद के लालच में’ शहर के परिवारों ने शिविर में डेरा डाल रखा है। जबकि सरकार इन राहत शिविरों को जबरन बंद कराने का अभियान चला रही है, ऐसी खबरें इस अभियान को जायज ठहरा रही थीं. लेकिन 2 डिग्री तापमान के आसपास फटे पुराने कपड़ों और प्लास्टिक की चादरों से बनाए हुए तंबू खुद इन खबरों के झूठ को उजागर करते हैं. असल में इन ‘राहत शिविरों’ में कोई भी सार्थक सरकारी राहत नहीं पहुंची है. बस कुछ अल्पसंख्यक संगठन ही हैं जो वहां थोड़ी बहुत सुविधाएं उपलब्ध करा रहे हैं. मलकपुर के शिविर प्रभारी रईसुद्दीन बताते हैं कि सरकार इन्हें बस सिरदर्द मानते हुए इनसे छुटकारा पाना चाहती है.राहत पहुंचाने का काम कर रहे कुछ स्थानीय कार्यकर्ता बताते हैं कि सरकार ने कांडला और शामली में मदरसों की जमीन पर से भी शिविरों को जबरन हटा दिया है जो कि सरकारी जमीन पर नहीं थे. मलकपुर में, जहां 649 परिवार रह रहे हैं (शुरू में यहां 1300 परिवार थे), निवासियों ने हमें बताया कि पहले वे घर चलाने के लिए दिहाड़ी करने जाया करते थे, लेकिन जबसे शिविरों को हटाया जाने लगा है, उन्हें घर पर ही रुकना पड़ता है. इसी वजह से बच्चों को भी स्कूल जाने से रोक दिया गया है. लोगों को हमेशा सतर्क रहना पड़ता है. मर्द रातों को जाग कर सड़कों पर नजर रखते हैं. जिस दिन हम पहुंचे वह शिविरों को खाली करने के लिए सरकार द्वारा दिए गए अल्टीमेटम का आखिरी दिन था और उसके पहले वाली रात में पुलिस-प्रशासन मलकपुर शिविर को खाली कराने आया था. जब हम शिविर में थे, उस दौरान भी प्रशासन शिविर को खाली कराने आया था, लेकिन लोगों के विरोध से उसे लौट जाना पड़ा. शिविर हटा दिए जाने के हमेशा बने रहने वाले डर की वजह से लोगों को अपना रोजगार छोड़ना पड़ा है जिससे वे और बदहाल हुए हैं.

मुआवजे को सरकार शिविरों को खाली कराने के एक और तरकीब के रूप में इस्तेमाल कर रही है. लोगों ने बताया कि शिविर में रह रहे किसी भी व्यक्ति को मुआवजा नहीं मिला है. बाजिदपुर गांव की संजीदा ने कहा कि मुआवजा तो छोड़ दें, सरकार आज तक इससे इन्कार करती आई है कि बागपत जैसी अनेक जगहों पर कोई हमला हुआ था. जिन कुछेक लोगों को 5 लाख रु का मुआवजा मिला भी है, उन्हें एक हलफनामे (एफिडेविट) पर दस्तखत करने पड़े कि वे लौट कर अपने गांव या घर नहीं जाएंगे. साफ है कि इसके जरिए सरकार इन इलाकों में आबादी की संरचना में बदलाव करना चाहती है. हालांकि हमने यह भी पाया कि सरकार कुछ परिवारों को मुआवजे दे कर पूरे शिविर को हटाने की कोशिश कर रही है.लख गांव के मुस्तकीम ने बताया कि दो दिन पहले अधिकारियों ने उनसे आकर शिविर खाली करने को कहा क्योंकि उनके पिता को मुआवजा दिया जा चुका है. सरकार मुआवजे की बड़ी राशि को लेकर बड़े दावे कर रही है. लेकिन यह कितना खोखला है, मुस्तकीम की बातों से यह जाहिर होता है. सरकार घरों के आधार पर मुआवजा दे रही है. अगर एक घर में कई दंपती और उनके बच्चे हों तो यह मुआवजा भी नाकाफी साबित होता है. कई बार तो यह सिर्फ एक ही व्यक्ति को मिलता है और उसी घर के बाकी लोगों के हाथ कुछ नहीं आता, जबकि वे भी उतने ही तबाह हुए होते हैं. मुस्तकीम के पिता को मुआवजा मिला, लेकिन वे और उनके भाई (दोनों शादीशुदा हैं और उनके बच्चे हैं) को कुछ भी नहीं मिला और वे आज खाली हाथ हैं. उन्होंने हमें सरकारी अधिकारियों के साथ हुई बातचीत के बारे में बताया, ‘जब अधिकारियों ने मुझसे यह कहते हुए शिविर छोड़ने को कहा कि मेरे अब्बा को मुआवजा मिल चुका है, मैंने उनसे पूछा कि मैं अपने बच्चों को लेकर कहां जाऊं? उन्होंने मुझसे पास के जंगल में चले जाने को कहा. मैंने उनसे पूछा कि कहां, क्या हमें दूसरे देश चले जाना चाहिए?’

सुविधाओं के अभाव, ठंड, बीमारी और बदहाली के बावजूद लोग शिविर छोड़ कर नहीं लौटना चाहते तो इसकी सबसे बड़ी वजह लगातार मिलने वाली धमकियां, असुरक्षा की भावना और डर है. ‘हम गांव लौटने के बजाए सड़कों पर रह लेंगे. हमारे हत्या रे खुले घूम रहे हैं. वे हमें भी मार सकते हैं,’ बाजिदपुर की समीना बताती हैं. सरकार ने सुरक्षा देने का दिखावा तक नहीं किया है. मलकपुर शिविर में एक बुजुर्ग औरत कहती हैं कि उन्हें डर है कि फिर से हमला हुआ तो सरकार की उसमें भी मिलीभगत होगी. सरकारी की हमलावर सांप्रदायिक फासिस्टों के साथ मिलीभगत और उनकी सरपरस्ती लोगों के लिए बहुत साफ है. हमले के सारे मुख्य कर्ता-धर्ता अपने खिलाफ एफआईआर दर्ज होने के बावजूद खुलेआम घूम रहे हैं और उनका सार्वजनिक सम्मान तक किया जा रहा है. ऐसे में कैसे मुसलमानों से वापस लौट जाने की उम्मीद की जा सकती है? शिविर के एक और निवासी इरशाद ने इसे बहुत साफ शब्दों में कहा, ‘जब अपराधी खुले घूम रहे हैं वे जांच कैसे होने देंगे? वे खुद ही प्रशासन हैं, वे खुद ही अपराधी हैं.’ अनेक गांववालों ने एफआईआर तक दर्ज नहीं कराई क्योंकि इससे उन्हें गांव लौट कर जाने की जरूरत पड़ती. अनेक लोगों ने टीम को बताया कि जब वे गांव गए तो उन्हें धमकियों की वजह से लौट कर शिविर आना पड़ा. नूरपुर खुरगान शिविर में मो. दिलशाद ने बताया कि दो परिवार गांव के प्रधान के कहने पर कुरमल गांव लौटे लेकिन उन्हें शिविर लौट आना पड़ा क्योंकि प्रभुत्वशाली जाट समुदाय के लोग पेट्रोल के साथ उन्हें धमकाने आए थे. काकडा, कुतबा-कुतबी और अनेक गांवों के निवासी जब अपने गांवों में सामान लेने के लिए लौटे तो पाया कि स्थानीय प्रभुत्वशाली तबकों और पुलिस द्वारा उनके घर जला दिए गए हैं, सामान लूट लिया गया है.

पिछले सितंबर में लोगों को जिस आतंक का सामना करना पड़ा, वह इतना भयावह है कि वे आने वाले समय में उसी जगह पर लौटने की सोच नहीं सकते. कई लोगों ने बताया कि कैसे डरावने तरीकों से गांवों में बूढ़ों और बच्चों को मारा गया. इन हमलों की एक विशेषता मुसलिम समुदाय की औरतों पर हुए यौन हमले भी थे. हालांकि शुरू-शुरू में लोग इन पर बात करने से हिचके लेकिन बाद में अनेक लोगों ने टीम को भयावह घटनाओं के ब्योरे दिए. अनेक महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हुए, कइयों को निर्वस्त्र होकर शीशे के टुकड़ों पर नाचने को मजबूर किया गया. एक ग्रामीण ने एक औरत के बारे में बताया जिसे अगवा कर लिया गया और फिर उसका कुछ पता नहीं लगा. एक दूसरी महिला अपनी छोटी बहन को बीच से दो टुकड़ों में काट कर मार दिए जाने के बारे में बताया. जिन महिलाओं के साथ गांवों में यौन हिंसा हुई या जिन्होंने दूसरों के साथ ऐसा होते देखा वे इन शिविरों में अधिक महफूज महसूस करती हैं. यहां बस पुलिस का डर है लेकिन शिविरों के बीच सड़कों पर गश्त लगाते लोगों और कार्यकर्ताओं के कारण वे थोड़ी सुरक्षा महसूस कर पा रहे हैं. जो थोड़े से लोग रिश्तेदारों के यहां कोई बंदोबस्त करने में कामयाब हुए हैं, वे शिविर से चले गए हैं लेकिन अपने गांवों को कोई नहीं लौटा है. वैसे भी उनकी जो थोड़ी बहुत संपत्ति वगैरह थी, उस पर स्थानीय प्रभुत्वशाली तबके ने कब्जा कर लिया है और अब लौटने के लिए कुछ बचा नहीं है. लख गांव की वसीला पहले ईंट भट्ठे पर काम करती थीं. उन्होंने बताया कि हमलावर भीड़ ने उनके गहने लूटे, फिर 10 क्विंटल अनाज जला दिया और फिर घर में आग लगा दी. अब जबकि मुसलमान गांवों को लौट जाने में सक्षम नहीं हैं, एक नए तरह का घेट्टोकरण दिख रहा है- नया इस अर्थ में कि यह अब तक शहरों में होता आयाहै जो अब गांवों में भी फैल रहा है.

इन इलाकों में मुसलमानों पर हमला मुसलमानों को व्यापक तौर पर हाशिए पर धकेले जाने की ऐतिहासिक प्रक्रिया का ही हिस्सा है. शिविरों में रह रहे लोगों में एक छोटा सा हिस्सा कारीगरों, बुनकरों और दुकान चलाने वालों का था, बाकी के ज्यादातर लोग दिहाड़ी मजदूर हैं. वे या तो ईंट भट्ठों पर काम करते हैं या निर्माण कार्यों में या फिर यहां प्रभुत्वशाली जाट समुदाय के गन्ने के खेतों में. उनमें बहुत कम के पास अपनी जमीन थी. दूसरी तरफ प्रभुत्वशाली जाट समुदाय के पास, जिसने इन हमलों से सबसे ज्यादा लाभ उठाया, न केवल सबसे ज्यादा जमीन की मिल्कियत है बल्कि वे सूदखोर भी हैं जो 10 फीसदी की ऊंची दरों तक पर ब्याज वसूलते हैं.मिसाल के लिए कुरमल गांव के मो. दिलशाद ने 2003 में 40000 हजार रुपए एक जमींदार सूदखोर से लिए थे, जिसके बदले में उनपर 2006 में एक लाख 80 हजार रुपए की देनदारी थी. पैसा न चुका पाने की हालत में उन्हें जमींदारों के यहां बंधुआ मजदूर के रूप में काम करना पड़ता है, जो ज्यादातर मामलों में पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है. इस प्रभुत्वशाली तबके का कानूनी और साथ साथ कानून के बाहर की राजनीतिक-सामाजिक संगठनों पर पूरा कब्जा होता है-चाहे वह पंचायतों के सरपंच हों, मुखिया हों या प्रधान या फिर खाप पंचायतें हों. उनका पुलिस और स्थानीय प्रशासन पर पूरा नियंत्रण होता है. दिशलाद ने मुसलमानों द्वारा झेले जा रहे सामंती उत्पीड़न और हमले के डर के बारे में बताया, ‘अगर हम नए कपड़े पहनें तो वे हमें गाली देते हैं और सूअर कहते हैं. वे हमारे साथ गाली के बगैर बात ही नहीं करते...और तो और वे किसी को भी कभी भी गिरफ्तार करा सकते हैं.’ दिलशाद ने कहा कि यह शिविर तो उनके लिए ‘जन्नत’ है भले यहां दिक्कतें हैं लेकिन यहां जलालत और हमले का डर तो नहीं है.’

अपने प्यारों को खो चुके, अपनी आजीविका गंवा चुके और इन शिविरों में बदतरीन हालात में रहने को मजबूर कर दिए गए लोग अपनी मौजूदा हालत को ‘आजादी’ भरी बताते हैं. क्योंकि इंसानी जिंदगी की कीमत महज आजीविका से ही नहीं लगाई जा सकती. यह बुनियादी इंसानी इज्जत से भी बनती है, जिससे मुजफ्फरनगर के मुसलमानों को व्यवस्थित रूप से महरूम रखा गया. सिर्फ इन जनसंहारों के दिनों में ही नहीं, बल्कि उसके पहले के दशकों तक. वे जिस संपत्ति को, घरों, जगहों, मजहबी जगहों को छोड़ आए हैं, उन पर उसी सामंती प्रभुत्वशाली तबके ने कब्जा कर लिया है, जो हमलों के लिए जिम्मेदार है. जैसा कि शिविर में रह रहे शहजाद सैफी ने बताया, मुसलमानों को 20 साल पीछे धकेल दिया गया है. राठौड़ा गांव की एक दूसरी महिला का, जिसके परिवार के तीन मकान थे, कहना था, ‘इन घरों का फायदा क्या जब हमारी जिंदगियों पर खतरा बना रहता है...इसलिए हम यहां ठीक हैं भले हमारे पास कोई घर नही है.’ मुजफ्फरनगर और आसपास के इलाकों में ये घटनाएं फिर से इसे साबित करती हैं कि सत्ता में चाहे कोई पार्टी रहे, किस तरह सांप्रदायिक फासीवाद उन सामाजिक संबंधों और उत्पीड़नकारी संरचनाओं का हिस्सा है, जिन पर यह भारतीय राज्य टिका हुआ.

अगले हफ्ते हम एक विस्तृत रिपोर्ट भी जारी करेंगे. दौरे पर गई टीम का हिस्सा थे: आश्वती, भावना, रजत, रेयाज, शामला, उफक, उमर (सभी डीएसयू, जेएनयू), मिशाब, अब्दुर्रहमान (एसआईओ, जेएनयू), नीरज (इन्कलाबी छात्र मोर्चा, इलाहाबाद विवि), शैलेश (भगत सिंह छात्र मोर्चा, बीएचयू) और चंद्रिका (स्वतंत्र पत्रकार)