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फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्ट

पन्द्रह अगस्त के दिन दलितों पर हुए क्रूर अत्याचार की पहली रिपोर्ट.

वे जिन्हें लगता है कि जातिगत अत्याचार की घटनाएं पुरानी हो चुकी. वे जिन्हें लगता है कि समता के संवैधानिक नारों ने लोकतंत्र को अपनी पीठ पर लाद लिया है. जिन्हें लगता है कि दिन अच्छे आ गए हैं.... सवर्ण वर्चस्व और क्रूरताओं की लड़ाईयां अवशेष हो रही हैं. उन सबके लिए बिहार की यह घटना शायद फिर से सोचने को विवश करे. सवर्णों के क्रूर अत्याचारों ने पूरे एक गांव को ही नहीं तबाह किया है बल्कि पूरे समुदाय को आगाह किया है कि संविधान और लोकतंत्र से परे उनके साशन जिंदा हैं.   

बिहार
दिनांक 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस 2013 को ग्राम डडवा बडडी,  थाना शिवसागर जिला रोहतास में धर्म स्थल रबिदास मंदिर के परिसर में घुसकर र्गैर दलित राजपूत 300 के सख्या बल में आकर दलित समुदाय के  चमार जाति पर गोला-बारूद, लाठी-डंटा, भाला, गडासा के साथ एकाएक हमला बोल दिया. दलित महिला व पुरूष तथा बच्चो के साथ मारपीट किया, जिसमें एक व्यक्ति कि हत्या हो गई है, व 39 महिला व पुरूष तथा बच्चे गंभीर रूप से घायल हैं. गैर दलितों ने रबिदास का मंदिर व दलितो के घर में किरोसीन का तेल डालकर आग लगाकर जला दिया. रबिदास मंदिर को पूरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया गया है व एक दलित व्यक्ति का घर जलाकर राख का दिया गया है.
घटना का अंजाम 9 बजे सुबह में गैर दलित राजपूत गुट बनाकर आये और दलितों के रबिदास मंदिर पर हमला बोल दिया और पहले मंदिर में किरोसीन डालकर आग लगाकर जलाकर क्षतिग्रस्त कर दिया और एक दलित महिला मंजू देवी का घर भी किरोसीन तेल डालकर आग लगाकर जला दिया, जिसमे दलित महिला के लाख रूपए से ज्यादा की जान माल का क्षति हुआ है. लाखों लाख की समपत्ति का नुकसान पहुचाया गया है.
इस घटना में दलित महिला व पुरूष तथा बच्चो को मारपीट कर गंभीर रूप से घायल कर दिया है, जिसमें घायलो को पटना पी. एम. सी. एच. में इलाज के लिए रेफर किया गया हैं बाकि लोगो का सासाराम सदर हॅास्पिटल में इलाज किया जा रहा हैं. एक अन्य व्यक्ति की भी मौत हो चुकी है, 5 लोगों की हालत गंभीर बनी हुई है लेकिन 10 लोगों के मरने की संभवना है.
दलित अत्याचार के घटना के 1 घटे बाद जिला प्रशासन, जिला पदाधिकारी, पुलिस अधीक्षक, पुलिस पदाधिकारी व पुलिस बल के साथ पहुचे हैं. घटना की जांच कर अपराधी पर प्राथमिकी दर्ज की गई है. पुलिस अपराघियों को हिरासत में लेकर पूछताछ कर छोड़ दिये गए हैं.
रोहतास के पुलिस अधीक्षक ने बातचीत के द्वौरान बताया है कि हम पूरी तरह से जांच कर कारवाई कर रहे हैं. अनुसूचित जाति जनताति अत्याचार अधिनियम के अंतर्गत एफ. आई. आर. कर रहे हैं.
पुलिस पदाधिकारी, सासाराम से जन अधिकार केन्द्र, चेनारी, अध्यक्ष रविन्द्र कुमार से बातचीत में कहा है कि यहॉं के राजपूत काफी दबंग है, हम पुलिस प्रशासन के तरफ से 9 लागों को हिरासत लिया गया है. सुरक्षा के रूप में घटना स्थल पर पुलिस कैंप करेगी.
घटना का कारण: अखिल भारतीय रबिदासिया धर्म संगठन के जिला अध्यक्ष काशी राम ने बताया कि रबिदास मंदिर स्थल पर निशान सिंह की प्रतिमा बनाने को लेकर तथा निशान सिंह का झंडा लगाने को लेकर  राजपूत जाति के लोगों से दो महीने से झगडा व विवाद चल रहा था. इस विवाद की सूचना दिनांक 7, 06 2013 को जिला पदाधिकारी एवं पुलिस अधीक्षक रोहतास को दी गई थी, जिसमें जिला पदाधिकरी व पुलिसअधीक्षक ने दलितो एवं गैर दलित दोनो पक्ष को शांति बनाये रखने का आदेश निकाला था कि किसी पक्ष को धार्मिक स्थल पर झंडा नहीं फहरना है. झंडा तोलन यदि करना है, तो सहायक थाना बडडी में आकर झंडा तोलन करना है अन्यथा नहीं करना है. दिनाकं 14/8/2013 को भी दोनों पक्ष को बुलाकर सहायक थाना बडडी में शांति बनाने व झंडा तोलन करने से स्पष्ट मना किया गया था. इसके बावजूद भी राजपूत लोग दलित के धर्म स्थ्ल के परिसर में शहीद निशान सिंह के नाम से आजादी के दिन जबरदस्ती झांडा तोलन करने लगे जिसमें सभी दलित मिलकर इसका विरोध किये और झंडा तोलन रोकने का प्रयास किये तो  राजपूत जाति के लोग 300- 400 कि संख्या में गुट बनाकर दलितों के मदिर में हमला बोल दिया, और आजादी का झंडा तोलन करने के बहाने से घटना का अंजाम दिया.
इस घटना की सूचना जिला पदाधिकारी रोहतास को 7/06/2012 एवं 13/8/2013 को आवेदन के माध्यम से दिया गया था, जिसमे जिला पदाधिकारी ने यह फैसला दिया था कि धर्मिक स्थ्ल पर किसी समुदाय का झंडा नहीं फहराया जायेगा. इसके बावजूद भी राजपूतों ने जिला पदाधिकारी के आदेश को नहीं माना और दलितों की हत्या कर दी.
राजपूत लोग अपने पूर्वज निशान सिंह का स्मारक बनाना चाहते हैं इसी कारण घटना को आंजाम दिया गया. निशान सिंह का स्मारक लगाने के लिए हाई स्कूल के बच्चे व शिक्षको को भी इस्तेमाल किया जाता है, पहले शिक्षकों के द्वारा स्कूल में झंडा फहराया जाता है. इसके बाद दलितों के धार्मिक स्थ्ल में राजपूत आकर झंडा फहराना शुरू किया, इसमे आलमपुर ग्राम के छात्र को भी गोली लगने कि सूचना है.
दलित किशोरी बच्चियो के साथ छेडखानी करने का दुसाहस:
राजकीय माध्यमिक विद्यालय बडडी में झंडा तोलन करने के बाद 10 बजे राजपूत का एक लड़का आकाश कुमार व कुछ अन्य उसके सहयोगियों ने जाकर दलित समुदाय के बच्चियो के बारे में मंटू नाम के शिक्षक से पूछने लगा कि हरिजन की लडकियो को उठाकर ले जाने चाहते हैं और दबाव बनाने लगा, तभी स्कूल का गेट खुलते ही सभी दलित बच्चियां भागी तो उनके द्वारा दौड़कर पकड़ने का प्रयास किया गया. रानी कुमारी पिता रादारायन राम की लड़की व उसके साथ अन्य सभी लड़कियां जान बचाकर किसी तरह भाग गई.  15 अगस्त के दिन दलित समुदाय की लड़्कियां दूसरे गांव में भी छुपी हुई थी.
बच्चो पर हमला: घटना के समय धर्म स्थल पर उस्थित नाबालिक दलित बच्चों पर भी हमला बोला गया और सामुदायिक भवन व मंदिर के छत पर से बच्चों को उठाकर पटक दिया गया और कुछ बच्चों को उठाकर बाहर फेंक दिया गया. जिसमें कई बच्चे भी गंभीर रूप से घायल है. जिसका इलाज सदर हॉस्पीटल सासाराम में चल रहा है.
घटना का आंजाम देने वाला समूह:
    नाम              पिता का नाम
डॉ शम्भू सिंह      स्वं बच्चन सिंह
लखन सिंह          स्वं केशो सिंह
अक्षयबर सिंह      स्व कमला सिंह
विनोद सिंह        स्वजगदीश सिंह
रामअशिष सिंह   भाईजी सिंह
उमाकान्त सिंह    मुन्सी सिंह
श्री राम सिंह       स्वं जीरी सिंह
दीपक सिंह        
आकाश सिंह        रामजी सिंह
विभूति सिंह        विश्वनाथ सिंह
अक्षय सिंह          अक्ष्यबर सिंह
रणविजय सिंह     स्वं कुलवंश सिंह
प्रकाश सिंह         रामप्रवेश सिंह
चन्द्रशेखर सिंह     बिन्दा सिंह
शेखर सिंह          स्व रामेश्वर सिंह
हरिओम सिंह      स्व सिगासन सिंह
विकास सिंह        भिखारी सिंह
प्रकाश सिंह         रामप्रवेश सिहं
इस अत्याचार में अज्ञात लोग भी शामिल है.
पीड़ित महिला व पुरूष तथा बच्चों की सूचि:
  1 बेलास राम           मृत्यू हो गई, अंतिम दाससंस्कार भी करवाया है.  16 कृष्णवती देवी
                                                                             17 बिन्दू देवी 
  2 शुकिया देवी                                                       18 देवती देवी
  3 विकास कुमार        घायल, बच्चा                            19 बिमला दवी            
  4 संतोष कुमार           ,                                           20 तेतरी देवी
  5 राजेशकुमार              ,,                                        21 अस्तारनी देवी
  6 राहुल कुमार            ,,                                         22 अनिता देवी
  7 हलखोरी राम                                                     23 प्रकाशराम
  8 आकाली देवी             महिला                               24 तेजा साधु  मंदिर पुजारी
  9 मीना देवी                 ,,                                       25 राजा राम             
 10 सरस्वती देवी                                                    26 नागिना राम
 11 जोखना देवी                                                      27 दीपक राम 
 12 चम्पा देवी       र्गभवती महिला                            28 मगरू राम            
 13 शुकिया देवी                                                      29 फुलकुमारी
  14 उमरावती कुवर    15 सरोजा देवी                       30 सुदामा राम
31 रामरतल राम                                                     32  सहतूराम
33 विद्यार्थी राम                                                      34 जिज्ञासी देवी
35 सरजु राम                                                          36 मनोज राम
37 नथुनि राम                                                         38 प्यारी देवी
 40 अमित नन्दन
 39 रमेश कुमार
ग्राम बडडी: यह राजपूत बहुल गांव है दलितों की संख्या काफी कम है. यहॉं से जिला मुखयालय कि दूरी 25 किलो मीटर थाना और प्रखण्ड भी लगभग 25 किलोमीटर है, लेकिन सहायक थाना से घटना स्थल कि दूरी 200 मीटर है. सहायक थाना भी समय पर नहीं पहुचा दलितो के सुरक्षा में. केन्द्र सरकार व राज्य सरकार तथा सरकार के सभी विभाग व आयोग तथा सामाजिक संगठनो से अनुरोध है कि दलितो कि सुरक्षा में मदद, एवं अपराधियों को गिरफ्तार कर सजा दिलाने में सहयोग प्रदान किया जाये. सभी दलितों को सम्मान से जीने के अधिकार की गांरटी दी जाये.
क्या यही देश की आजादी है? लोकतंत्र के नाम पर यह क्रूर अपमान: है. 15 अगस्त के दिन लम्बे चौड़े लोकतंत्र पर दिए गए भाषण पर शर्मिंदा होना चाहिए. प्रधान मंत्री एवं मुख्य मंत्री तथा अन्य नेताओं ने जो भी कहा कि दलितो के लिए ये  कर रहे हैं और देश आज़ाद है. वो सब झूठी दलीले हैं और यह सब बकवास है. आजाद भारत देश में दलित गुलाम है, जिसे वे स्वतंत्रता का दिन कहते हैं उसी दिन राजपूतों ने संविधान का अपमान एवं मौलिक अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, अभिक्ति का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, जीवन के अधिकार का घोर उलंघन किया है.
                                          जन अधिकार केन्द्र,चेनारी रोहता, बिहार
संपर्क: 09572427099
                       साभार - दखल की दुनिया 

बलिया, उ. प्र. में सामन्ती तत्वों और पुलिस के गठजोड़ द्वारा दलितों एवं अन्य श्रमिकों के दमन-उत्पीड़न पर एक रिपोर्ट :




                                     दिनांक 15 मई 2013

   जनवरी-फरवरी 2013 में बलिया पुलिस ने बिहार से सटे दीयर क्षेत्र और रसड़ा तहसील मेंडेढ़ दर्जन दलित और अन्य श्रमिक तबके के लागों को गिरफ्तार कर फर्जी मुकदमों में फँसाया। यह रिपार्ट इसी घटनाक्रम से संबंधित है।

                                  गिरफ्तारी की पृष्ठिभूमि

बलिया उत्तर प्रदेश का वह सीमांत जिला है जो 1942 में आजाद सरकार के पथ-प्रदर्शक जनप्रयोग से लेकर ‘60-‘70 के दशक में जमीन व इज्जत की लड़ाई के नये दौर की शुरूआत के क्रम में हमेशा अग्रिम पंक्ति में रहा है। आज भी इस जिले के गरीब किसान, भूमिहीन और दलित लोग वहां के आततायी सामंती तत्वों के खौफ का मुकाबला करने का माद्दा रखते हैं।यही वजह है कि वहां के शक्तिशाली सामंती तत्व, गुण्डे-बदमाश, सूदखोर और चुनावबाज नेतागण इस अन्तराल में मेहनतकश वर्ग के लोगों और उनके स्थानीय नेताओं को कुचलने के लिए बेइंतहा जुल्म और हत्या तक का सहारा लेते रहे हैं।
इसी का जीता-जागता उदाहरण सहतवार थाना क्षेत्र के अतरडरिया गांव के पूर्व सरपंच फूलमती देवी व उसका पति मुसाफिर चैहान और उनकी हत्या/हत्या के प्रयास के बाद का घटनाक्रम है।विदित है कि इन दोनों पर 2001 में स्थानीय दलित नेता संजय रंगवा की हत्या की और इसके बाद पुलिस-नेता गठजोड़ के सहयोग से उनके साथीसंजय और छाता गांव के निवासी बबलूकी भी हत्या कराने का आरोप रहा है। मुसाफिर-फूलमती की शुरुआती पृष्ठभूमि चोरी-डकैती की बतायी जाती है, जिस सिलसिले में इन पर दर्जनों मुकदमेदर्ज हुए। इसके बावजूद इनको क्षेत्रीय विधायक, सांसद और पुलिस का भरपूर संरक्षण मिलता रहा है।
18 नवम्बर 2012 की रातकथित रूप से दलित नेता संजय रंगवा की हत्या के प्रतिशोध के तौर परकिये गये एक हमले में पूर्व सरपंच फूलमती देवी की हत्या हो गई और उनके पति मुसाफिर बाल-बाल बचे।इस हमले में दो दर्जन लोग शामिल बताये जाते हैं।हमले के तत्काल बाद पुलिस ने सहतवार थाना क्षेत्र के अतरडरिया गांव के उन 5 लोगों को नामजद कर गिरफ्तार किया जिनसे फूलमती-मुसाफिर दम्पत्ति की निजी रंजिश के प्रमाण हैं। इससे मन नहीं भरा तो लगभग दोमाह बाद से रेवती थाना क्षेत्र के गायघाट गांव; बाँसडीह रोड थाना के बिशुनपुरा व बभनौली; थानादुबहर के बेयासी व सहरसपाली; कोतवालीरसड़ा के लवकरा व गौरपुरा और थाना मनियर के मुडि़यारी गांव के कुल 25 लोगों की गिरफ्तारी की मुहीम चलायी, जिन परपहले हत्या, हत्या का प्रयास, आगजनी जैसी आई.पी.सी. की धाराओं के तहत और आम्र्स एक्ट के अन्तर्गत मुकदमा दर्ज किया और फिर गैंगस्टर एक्ट के तहत भी। इनमें से 12 गिरफ्तार कर जेल भेज दिये गये, जबकि शेष पर कुर्की की कार्यवाही अभी चल रही है। अधिकतर अभियुकतों को पुलिस ने बेइन्तहां शारिरीक-मानसिक यातनाएँ दीं। शरीर के अंगोंमें बिजली का करंट दिया गया, शरीर पर बूटों से, डण्डे से, पट्टे से और राइफल के बटों, इत्यादि से प्रहार किया गया।
पुलिस रिपोर्ट के आधार पर अखबारों में पहले इस घटना मंे नक्सलवादियों का हाथ होने की आशंका जताई गई। लेकिनजब पुलिस किसी नक्सली का कोई सुराग ढूँढने में नाकाम रही, तो बाद में उसने ‘दमन मुक्ति मोर्चा’ नामक किसी संगठन का नाम सामने लाया। जो अगर कभी अस्तित्व में रहा हो तो जैसा कि वाम जनवादी दायरे की गतिविधियों का कोई भी जानकारइस तरह के नाम से बता सकता है, यह कोई खुला संगठन रहा होगा जो पुलिस के इस दमन अभियान के बाद या तो बिखर गया होगा या भूमिगत होने को विवश हुआ होगा। हमें इस संगठन से जुड़ा कोई व्यक्ति पूरे इलाके में नहीं मिला। बलिया प्रशासन ने ‘दमन मुक्ति मोर्चा’जैसे एक खुले जनवादी संगठन को ‘संगठित गिरोह’ के रूप मंे दुष्प्रचारित कर एक-एक कर इसके कथित कार्यकर्ताओंअथवा समर्थकों को फर्जी मुकदमों में फँसाना शुरू किया और किसी ठोस सबूत के बगैर गिरफ्तार किये जाने के कारण जैसे ही उनकी जमानत उच्च न्यायालय से मंजूर होने लगी, तो झट्-से गैंगस्टर एक्ट थोप कर जेल से रिहाई मुश्किल बना दी।
इनं गिरफ्तार ‘दमन मुक्ति मोर्चा’ के कथित कार्यकर्ताओं और समर्थकों पर क्या-क्या गुजरी और वर्तमान में उनकी क्या स्थिति है? इसे जानने के लिएहम कुछ छात्रों, पत्रकारों व सामाजिक कार्यकर्ताओंने एक फैक्ट-फाइंडिंग टीम बनाकर 6-8 मई 2013 तक बलिया के प्रभावित ग्रामीण इलाकों में पीडि़त परिवारों से मिलकरगहन जांच-पड़ताल करने का प्रयास किया। 6 मई की शाम बलिया शहर में प्रारंभिक पूछताछ के बाद 7 मई 2013 की सुबह हम लोगों ने थाना बाँसडीह के बभनौली गांव से अपनी जांच-पड़ताल शुरू की जो रसड़ा तहसील के प्रभावित गांवों तक चली। इससे निम्न तथ्य क्रमवार सामने आये।

स्थनीय सामन्त पूर्व सरपंच फूलमती देवी की हत्या और उनके पति मुसाफिर चैहान की हत्या के प्रयास आदि में झूठा फँसा कर जेल भेजे गये कुल 17 निर्दाष गंरीबोंकी कहानी उनके ग्रामीण परिजनों नेकुछ इस तरह बयां कीः-
 #  अभियुक्त का नाम-मनोज पासवान, पिता-श्री गौरीशंकर पासवान,ग्राम-बभनौली, थाना-बाँसडीह रोड; जाति -दुसाध पासी;पेशा-राजमिस्त्री; उम- 27 के करीब

मनोज पासवान की माँ सोनी देवी ने बताया कि बेटे की गिरफ्तारी से घर की हालत और भी बदतर हो गयी है। आज 7 मई को तीन दिनों बाद उनके यहाँ खाना बन पाया है। इसी तरह कभी चूल्हा जल पाता है और कभी उपवास रखना पड़ता है।
मनोज की पत्नी इंसेफलाइटिस के अटैक से दोनों आँखों की रोशनी खो चुकी हैं। उनकी दवा में घर का गहना-जेवर बिक गया। 21 हजार की भैंस, 45 हजार का सूअर बेच देना पड़ा। एक तरफ बीमारी, दवा व सही इलाज के अभाव में मनोज की पत्नी व परिवार की हालत बदतर हो चुकी है तो दूसरी तरफ मनोज पासवान की जिन्दगी को पुलिसिया दमन ने बदतर बनाकर रख दिया है।
09 फरवरी 2013 को 11 बजे रात में सोते समय पुलिस ने भेष बदलकर मनोज के सहकर्मी वशिष्ठ के सहयोग से दरवाजा खुलवाया। और उसे पटरा-बल्ली के मामले मंे बातचीत के बहाने उठा ले गयी। पिता गौरीशंकर ने बताया कि मनोज को उठाने के बाद उसे तुखीपारा नहर पर रात 12 बजे गाड़ी से उतारकर पुलिस ने बहुत मारा-पीटा। पुलिस ने मनमाफिक उत्तर नहीं मिलने पर एन्काउण्टर करने की भी धमकी दी। उस जगह पर तीन अन्य गाडि़याँभी थीं। पिता गौरीशंकर ने थाने मंे जाकर बेटे के बारे में पूछा तो पुलिस ने कुछ भी जानकारी नहीं होने की बात कही। घर के लोगों को तीन दिन के बाद 12 फरवरी 2013 को अखबार के माध्यम से मनोज के गिरफ्तार होने की सूचना मिली। पुलिस ने 48 घंटे बाद मनेाज पासवान को गिरफ्तार दिखाया और मुकदमा अपराध संख्या 280/2012 भारतीय दंड संहिता के तहत धारा 147, 148, 149, 307, 302, 427, 435, 504, 506, 120बी के तहत जेल भेज दिया।
48 घंटे तक की कहानी का पता इस बात से लगाया जा सकता है कि 2 दिन तक अज्ञात स्थान पर रखा गया और गौरीशंकर जब जेल में मनोज से मिलने गये थे, तो वह ठीक से खड़ा भी नहीं हो पा रहा था- उसेबिजली का झटका दिया गया था! गौरीशंकर व मनोज की माँ ने बताया कि उसे बहुत गंदे व अश्लील तरीके से टार्चर किया गया है। हम लोगों का लिहाज करते हुए उन्होंने अभी पूरी बात नहीं बतायी है।
मनोज के पिताजी का मानना है कि मनोज पासवान गठौली गाँव के पन्ना सुनार से अपनी जायज व बकाया मजदूरी की मांग की थी। लेकिन पन्ना सोनार मजदूरी देने के बजाय और बेगारी कराना चाहता था। इसी बात पर कहा-सुनी हो गयी थी। जिसके कारण मनोज को पुलिस ने उठाया।
गाँव के लोगों ने बताया कि मनोज बहुत मेहनती व जागरूक युवक है। उसने गाँव में किसी से कोई झगड़ा-फसाद नहीं किया। उस पर कहीं भी कोई केस नहीं है। लेकिन आज उसके माँ-बाप स्थानीय नेताओं के घर जा-जाकर चक्कर लगा-लगाकर थक चुके हैं।
गौरीशंकर के सामने कई चुनौतियाँ हैं। वह बीमार मनोज की पत्नी, जिसकी स्थिति गम्भीर है, का ईलाज करवाये या मनोज को जेल से बाहर निकाले। गौरीशंकर के पास धन बचा नहीं है और कोई उन्हें कर्जा देगा नहीं, क्योंकि उसके पास कोई सम्पत्ति ही नहीं है।

# अभियुक्त का नाम-साहेब शर्मा, पिता-बीगन शर्मा, गाँव-बभनौली, थाना-बाँसडीह रोड; पेशा-बढ़इर्;   जाति-बढ़इर्; उम्र-17 वर्ष

साहेब शर्मा पर भी मनोज पासवान वालामुकदमाऔरवही धाराएँ लगायी हैं। साहेब शर्मा के बुजुर्ग पिता बीगन शर्मा ने बताया कि जनवादी कार्यों की तरफ उनका रुझान शुरू से ही रहा है। जिसका प्रभाव उनके बेटे पर भी पड़ा। साहेब शर्मा अभी नाबालिग हैं।
उन्होंने बताया कि 15 दिनों तक लगातार पुलिस उनके घर का चक्कर काटती रही। पुलिस के डर से बीगन शर्मा व उनके सभी बेटे घर से फरार हो गये। पुलिस उनकी तलाश में घर पर आती और घर की महिलाओं के साथ गाली-गलौज व अभद्रता करती। पुलिस यहाँ तक बोलती कि‘उन सालों को जल्दी बुलाओ नहीं तो तुम्हारे बच्चों को ले जायेंगे।’ साहेब शर्मा 5वीं तक ही पढ़ पाया है और भूमिहीन मजदूर का बेटा है।वह गाँव में ही बढ़ई का काम करके जीविका चलाता था। पुलिस द्वारा लगातार महीनों तक घर की महिलाओं-बच्चों को प्रताडि़त करने और कोर्ट द्वारा कुर्की के आदेश के बाद उसने मजबूर होकर 3 महीने बाद कोर्ट में आत्मसमर्पण कर दिया। उसके आत्मसमर्पण के बाद ही उसके पिता व भाई घर आ सके। आज भी साहेब शर्मा के घर में दहशत का माहौल है।

# अभियुक्तका नाम-बड़क, पुत्र-नगीना राम-कोटेदार; संतोष राम, पुत्र-स्व. वशिष्ठ राम, पूर्व ग्राम प्रधाान; बब्बन राम, पुत्र-स्व. मोती राम, ग्राम सेवक अधिकारी,ग्राम-बिशुनपुरा,थाना-बाँसडीह रोड;जाति- हरिजन

ये तीनों अभियुक्त एक ही परिवार के सदस्य हैं। बड़क पुत्र नगीना राम को गांव से थोड़ी दूर पर गन्ने की पेराई करते समय सादी वर्दी में आयी पुलिस ने गन्ने का रस पिलाने के बहाने 9 फरवरी 2013 को जबरन उठा लिया। बड़क के दो भतीजे संतोष व बब्बन जो क्रमशः पूर्वप्रधान व ग्रामसेवक अधिकारी रहे हैं, अपने चाचा को पुलिस द्वारा उठाने का कारण पूछने गये, तो उनको भी थाने में बंद कर दिया गया। पुलिस ने तीनों को भयानक यातनाएँदीं। बिजली के झटके दिय गयेे। दो दिन बाद अखबार में गिरफ्तारी दिखायी गयी।इन तीनों कीभी मनोज के ही मुकदमे व उन्हीं धाराओं में गिरफ्तारी दिखायी गयी।
इन तीनों की 9 अप्रैल 2013 को इलाहाबाद हाईकोर्ट से जमानत हो गई। जमानत का आदेश आने से पहले ही 13 अप्रैल 2013 को गैंगस्टर एक्ट लगाकर जेल से नहीं छूटने दिया गया। पुलिस जनवादी व मौलिक अधिकारों को ताक पर रखकर लगातार उन्हें प्रताडि़त कर रही है। ये सभी लोग भूमिहीन दलित परिवार के हैं। बिशुनपुरा का यह हाल था कि बाँसडीह रोड थाने की तरफ से कोई ग्रामीण गुजरता तो पुलिस की पूछताछ होती और पूछा जाता कि किस गाँव के हो? लोग बताते -‘बिशुनपुरा’! किस जाति के हो? लोग बोलते- हरिजन-चमार! तब चल अन्दर !............. यही हाल था। इस तरह करीब दसियों लोगों को पुलिस ने उठाया और मारपीट करके प्रताडि़त करके छोड़ दिया। बड़क राम के घर राशन का कोटा था। सवर्ण जाति के लोग मनमाफिक चीनी राशन आदि मांगते थे। नहीं देने पर जो भी राशन की दुकान पर होता उसके साथ मारपीट करते। इन लोगों के बचाव व मदद में ग्रामप्रधान से लेकर विधायक तक कोई नहीं आया। उल्टे गाँव के दबंगों ने राशन की दुकान भी निरस्त करा दी। इन लोगांे का सिर्फ यही दोष था कि ये अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो रहे थे। सामाजिक भेदभाव, शोषण व अन्याय के खिलाफ बोलने लगे थे। इस कारण से गाँव के दबंग, जमींदार, सवर्णों से लेकर राजकीय व्यवस्था -सभी प्रताडि़त कर रहे हैं। महीने भर तक लगातार पुलिस परिजनों को प्रताडि़त करती रही। घर में तलाशी ली जाती, पुलिस प्रताड़ना के भय से छात्रों ने परीक्षाएँ भी छोड़ दीं। पुलिस कहती थी कि‘साले तुम लोग नक्सलाइट बन रहे हो.............!’ आज भी इस गाँव में दहशत व्याप्त है।

अभियुक्त-विरेन्द्र निषाद,गाँव- बेयासी, थाना-दुबहर;जाति-मल्लाह;पेशा-राजमिस्त्री

विरेन्द्र निषाद को पुलिस ने 9 फरवरी को घर से उठा लिया। पुलिस ने 12 फरवरी 2013 को गिरफ्तारी दिखायी, तीन दिन तक अज्ञात स्थान पर रख कर प्रताडि़त किया, बिजली का करंट लगाया जिससे उनके कान झुलस गये हैं। वही मुकदमा तथा वही धाराएँ थोपी गयीं जो मनोज पर। इसके बाद उन्हें जमानत भी मिल गयी लेकिन जमानती आदेश मिलने से पहले गैंगस्टर लगा दिया गया। विरेन्द्र को गिरफ्तार करने के बाद पुलिस उनके घर पर लगातार एक महीने तक दबिश देती रही। विरेन्द्र के घर पर अकेली पत्नी और पाँच छोटे-छोटे बच्चे हैं। पुलिस घर की तलाशी लेती। पत्नी सुशीला के साथ बदसलूकीकरती। पूछती कितने बच्चे हैं? सुशीला कहती -‘पाँच’! पुलिस बोलती -‘‘साले पांँच बच्चे बड़े होकर पाँच जगह छापेंगे!’’ पुलिस विरेन्द्र को गिरफ्तार करने के बाद भी विरेन्द को खोजने घर आती रही। पत्नी के विरोध करने पर पुलिस बोलती-‘साली जबान चलाती है, इसे पानी में खड़ा कर दो। इसे भी ले चलो’! पत्नी बोलती -‘ले चलो’! पुलिस गाली-गलौज करती और तलाशी लेकर चली जाती। तलाशी के समय कोई महिला पुलिस भी नहीं होती थी।
विरेन्द्र राजमिस्त्री हैं। घर में आमदनी का कोई साधन नहीं है। गिरफ्तारी के बाद फीस के अभाव में मास्टर ने नक्सली के बच्चे बताकर और फीस न देने के कारण स्कूल से निकाल दिया। गाँव के सवर्ण प्रधान ने वीरेन्द्र की पत्नी को पहचानने से मना कर दिया। आज यह हालत है कि घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं है। विरेन्द्र की कानूनी मदद अकेली सुशीला देवी बिना पैसे कैसे करे?

अभियुक्त का नाम-आनन्द शर्मा,  पिता-श्री दयाराम शर्मा,गाँव बेयासी, थाना-दुबहर; जाति बढ़ई

आनन्द शर्मा की गिरफ्तारी को लेकर भी पुलिस ने खूब कहानी रची। पहले 13 फरवरी को उनके छोटे भाई अरविन्द शर्मा को थाने ले गयी। अरविन्द को लेने शाम को आनन्द गये, तो उन्हें थाने में बैठा लिया और अरविन्द शर्मा को छोड़ दिया। सभी लोग जानते हैं कि ‘आनन्द प्रिटिंग प्रेस’ में छपाई का कार्य होता है। पुलिस उनके कम्प्यूटर को भी उठा ले गयी थी। कम्प्यूटर का ‘रैम’ बदलकर डाटा की तलाशी करकेलौटा दिया। पुलिस ने आनन्द को 16 फरवरी 2013 को सहतवार थाने के छाता रेलवे स्टेशन पर भागते हुए गिरफ्तार दिखाया है। जबकि उन्हें 13 फरवरी 2013 को ही थाने में बैठा लिया था। आनंद शर्मा को भी पुलिस ने बाकी लोगों की ही तरह प्रताडि़त किया। उन्हें भी जमानत मिल गयी थी, लेकिन गैंगस्टर एक्ट लगाकर जेल से बाहर निकलने नहीं दिया गया। उनकीसगी बहन की शादी 16 मई को है, लेकिन शादी में हथकड़ी लगाकर लाया जाना शोभनीय न होने के कारण पैरोल की अर्जी नहीं दी गयी है, जबकि आनन्द के पिताजी विकलांग हैं।

# अभियुक्त का नाम-छोटक प्रजापति, नन्दजी शर्मा, अम्बिका राम, टेलू जी, संतोष जी,ग्राम- सहरसपालीथाना-दुबहर

2013 मंे दूसरी बार कुर्की का आदेश आया है, क्योंकि ये लोग भी फरार हैं। जांच-पड़ताल से पता चला है कि 2008 के वक्त 17-18 लोग गांव के दबंग व जमींदार सोहन सिंह की हत्या के आरोप में नामजद थे। 20-22 लोगों को उस गांव में टार्चर किया गया था। 30-35 लोगों को बन्द किया गया था। 17-18 नामजद थे वो लोग आज भी मुकदमा लड़ रहे हैं। संतोष के घर जब हमारी टीम पहुंची तो पाया कि उनका घर पहले ही कुर्की से खाली पड़ा है लेकिन अब फिर से कुर्की का आदेश चस्पा किया गया है। उनके बाकी तीनो भाई-बहनों का भी सामान कुर्क कर दिया गया है। गांव पर सरकारी अफसरों और जमींदारों, दबंगों की दहशत व्याप्त है।

अभियुक्त-प्रदीप कुमार प्रजापति, पुत्र-सीताराम, रामराज राम,गांव-गायघाट,थाना-रेवती

10 फरवरी 2013 को सुबह 6-7 बजे के करीब इन्हें अपनी निजी आटा चक्की के पास से सोते समय पुलिस उठा ले गयी। प्रदीप आटे की चक्की से गुजारा करते थे। पिता सीताराम जब रेवती थाने गये तो उन्हें सहतवार थाने में होने की बात बतायी। सहतवार थाने पहंुचे तो उनको भी दो दिन थाने में बन्द रखा गया और बूट की ठोकरों से खूब मारा-पीटा गया। बाद में पुलिस ने 10 हजार रूपये लेकर पिता को छोड़ दिया।
प्रदीप प्रजापति को 13 फरवरी 2013 को सुरैया बगीचा से गिरफ्तार दिखाया गया है। प्रदीप को भी शारीरिक प्रताड़ना दी गयी। आज वह भी इसी मुकदमे व इन्हीं धाराओं में बन्द हैं। 15 अगस्त के दिन प्रदीप प्रजापति के दो भतीजे गांव में मिठाई खाकर सरकारी नल पर पानी पी रहे थे। वह सरकारी नल राजपूत जाति के द्वार पर था। एक राजपूत ने सवाल किया कि क्या कर रहे हो? लड़कों ने कहा कि ‘पानी पी रहे हैं बाबा!’ इसी पर राजपूत आदमी ने भड़ककर कहा, ‘साले! छोटी जाति का होकर बाबा कहे!’ उसने बरामदे के घर में ले जाकर दोनों लड़कों को काफी मारा-पीटा और घर में चोरी के जुर्म में जेल भी भेजवा दिया। इन लड़कों का जुर्म था कि इन्होंने ठाकुरों के यहां सरकारी नल से पानी पीने की जुर्रत की और ठाकुर साहब को बाबा कह दिया। इन्हें दलित होने की कीमत चुकानी पड़ी जिसका प्रदीप ने विरोध किया था। इसीलिए लोगों का मानना यह भी है कि पुलिस के साथ सवर्ण लोगों ने मिलकर प्रदीप को फंसाया है।
इसी गांव के कोटेदार रामराज राम को रेवती थाना व सहतवार थाना की पुलिस ने मिलकर उठा लिया और मारा-पीटा, महिलाओं को गाली दी तथा रेवती थाने के सिपाही शालिक सिंह ने गाली देते हुए कहा कि, ‘‘भोसड़ी वाले तुम्हारा एक-एक ईंट उखाड़ कर ले जायेंगे।’ वे गांव में एम. ए. तक की पढ़ाई करने वाले दलित हैं। उनको पुलिस दो बार उठा ले गयी। एकबार उठायी तो तीन दिन रखी और पूछताछ करके छोड़ दिया और उसके बाद फिर उठायी और आठ दिन रखी। 10-12 बार पट्टे से पिटाई करके छोड़ दी। 29 दिन बाद फिर उनके घर छापामारी शुरू कर दी। रामराज राम पुलिस उत्पीड़न के भय से घर छोड़ दिये। उनको भी पुलिस ने उपर्युक्त मुकदमे व धाराओं में ही अभियुक्त बनाया है और उनके घर की कुर्की का आदेश हो चुका है।
जांचपड़ताल में लोगों ने बताया कि प्रदीप प्रजापति व रामराज राम गरीबों, दलितों के सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों की बात करते थे। इनकी जागरूकता व चेतना गांव के दबंगो-सवर्णों को रास नहीं आयी। पुलिस-सामंती गठजोड़ इसी की सजा मुकदमे में फंसाकर दे रहा है।

अभियुक्तगण-गोरख पासवान, खेदन चैहान, लल्लन राजभर, गांव-गायघाट, थाना -रेवती

पुलिस ने गोरख पासवान को घर से उठाकर थाने में सात दिन तक रखा तथा गाली देकर पट्टे से पिटाई करके छोड़ा।
थाना सहतवार पुलिस खेदन चैहान को खेत में काम करते हुए पकड़ ले गयी और एक हजार रूपया लेकर छोड़ दी।
लल्लन राजभर पुत्र स्व. सुन्दर राजभर को भी पुलिस ने खेत में काम करते समय उठा लिया और सहतवार थाना में दो दिन बन्द रखकर गाली-गलौज करके छोड़ दिया। फिर दो दिन बाद दूसरी बार पूलिस सहतवार थाने में बुला ले गयी। जाने पर फिर सात दिन तक बन्द रखा।इनका मानसिक उत्पीड़न करके 600 रूपया लेकर छोड़ दिया गया।
# अभियुक्त-सूर्यनाथ राम पुत्र-स्व.अजोरराम, पेशा-शिक्षा मित्र,जाति-हरिजन,गांव-लवकरा  थाना-रसड़़ा
सूर्य नाथ राम जिन्हें लोग मास्टर साहब के नाम से जानते व पुकारते हैं। लेकिन पूरे मान-सम्मान की धज्जियां उड़ाते हुए एसओजी ने उन्हें ‘मास्टर माइंड’घोषित कर दिया। मास्टर साहब ढाई महीने बाद जमानत पर जेल से बाहर तो आ गयेहैं। लेकिन अभी भी वे पुलिसिया आतंक और बदतमीजी से बुरी तरह खौफजदा हैं।
उन्होंने बताया कि 5 फरवरी 2013 पुलिस उनको विद्यालय से मोबाइल के कागजात से सम्बन्धित किसी काम का बहाना बनाकर उठा ले गयी। दिन भर मानसिक टार्चर करती रही और शाम को छोड़ दी। पुनः 10 फरवरी 2013 को 4 बजे भोर में ही अचानक उठा ले गयी। यह काम पुलिस वालों ने बिना वर्दी पहनें अपहरणकर्ताओं की तरह किया। अज्ञात जगहों पर यातनाएं दी गयीं। चार दिन के टार्चर के बाद पांचवे दिन चालान कर दिया।
मास्टर साहब ने अपनी दास्तान सुनायी -‘‘गांव में 151 की धारा मंे भी अभी तक कोई बन्द नहीं हुआ था। यानि यह पहली घटना है। पुलिस प्रशासन में कोई मानवता नाम की चीज नहीं है। गांव में किसी से कोई विवाद नहीं रहा। कभी सोचा भी नहीं था कि यह दिन देखने पड़ेंगे। क्या ईमानदार होना, एक सामाजिक नागरिक होना इतना बड़ा अपराध हो गया है? जीवन में कभी मैं सहतवार क्षेत्र में नहीं गया था। वहां के लोगों से परिचित भी नहीं था लेकिन जबरन मुझे पूर्व ग्राम प्रधान फूलमति हत्या काण्ड का अभियुक्त घोषित कर दिया गया। थाने में पता चला कि मेरी ही तरह कई लोगों को पुलिस ने बंधक बनाया है। उनको मुझे पहचानने को कहा। लेकिन हम एक-दूसरे को पहचान नहीं पाये। फिर भी पुलिस हमसे सिर्फ ‘हां’ बुलवाने पर तुली थी। पहले एस.ओ.जी. के लोग नगरा थाने में ले गये, जहां काली पट्टी मुंह पर बांधकर कुछ लोगों को सामने पेश किया गया। फिर गड़वार थाने में ले गये। लगातार घर-परिवार की चिन्ता सता रही थी कि वहां पुलिस ने सूचना तक नहीं दी थी कि मैं कहां हूं, कैसे हूं, क्यों हूं?
‘‘गड़वार थाने में बार-बार पुलिस से गुजारिश करता रहा कि मेरे घर सूचित किया जाये, लेकिन पुलिस के लोग झूठी सांत्वना देते रहे। एस.ओ.जी. प्रभारी बी.के. चैधरी भी झूठी सांत्वना देते रहे। वे मुझे पुलिस की दूसरी गाड़ी में बिठाकर बांसडीह रोड थाना ले गये। वहां पर सी.ओ. की मीटिंग चल रही थी और वहां भी काली पट्टी से मुंह बंधे कुछ लोगों को पहचानने को कहा गया। लेकिन सभी अपरिचित थे। पुलिस ने मुझे वहां शाम को छोड़ने की बात कही। तो मैं बोला, अब रात में कैसे इतनी दूरी तय करके घर पहुंच पाऊंगा? दरअसल वे मुझे अज्ञात जगह ले जाना चाहते थे और मैंने रात में जाने का विरोध किया।
‘‘मेरा पूरा गांव थाने पर गया था। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मेरा जुर्म क्या है? कैसे मेरा जुर्म तय कर दिया गया? मुझ जैसे अध्यापक को पुलिस ‘मास्टर माइंड’ अपराधी क्यों बोल रही हैं?इन दिनों मैं कर्ज में डूब चुका हूं। अभी लड़की की शादी है और कर्जा लेकर ही जमानत हुई है।यह कैसा न्याय है? कैसी मानवता है? क्या गरीबों-दलितों का कोई मान-सम्मान नहीं है? हमारे दुःख को देखकर व पुलिसिया दमन को देखकर गांव भर में होली का त्यौहार नहीं मनाया गया।अभी जमानत मिली तो एक अखबार में खबर निकली कि ‘हत्या, डकैती, लूट में लगा गैंगस्टर।’ वाह रे कानून व्यवस्था! मनगढ़ंत कहानियां बनाकर मुझ जैसों को फंसाने का अधिकार पुलिस को कैसे मिल गया है?कैदियों को जेल में जानवरों जैसा भोजन मिलता था लेकिन कोई जांच नहीं।कैदियों को नहाने-धोने के लिए बाल्टी-लोटा तक नहीं दिया जाता। वैसे ही जमीन पर नहाना पड़ता था। हमें लगने लगा कि जेल तो गरीबों, दलितों, निर्दोषोंके साथ गाली-गलौजकरने, यातना देने के लिए ही बनी है।’’

अभियुक्त-विजय शंकर राम, पुत्र श्री यमुना राम, ग्राम-गवरपुरा, थाना-रसड़ा, पेशा-दिहाड़ी मजदूरी

विजय के घर 10 फरवरी 2013 को सुबह करीब 3 बजे छापामारी की। पुलिस ने शराब का बहाना बनाकर घर के सभी सामान तितर-बितर ंकर दिया, महिलाओं के साथ अभद्र गाली-गलौजकी तथा धमकी दी। पुलिस प्रताड़ना से डरकर विजय शंकर ने घर छोड़ दिया। घर में अकेली उनकी पत्नी सविता व तीन बच्चे मिले। पुलिस लगातार उनके घर पर आती रही है। पुलिस की एक टीम उनके घर का गहना और कीमती सामान उठा ले गयी है। विजय की पत्नी बीमार हालत में रहती हैं। उनके घर की तलाशी के वक्त कोई महिला पुलिस नहीं थी। कोई आय न होने के कारण सविता अपने पति विजय के लिए कोई कानूनी मदद भी नहीं कर पा रही है। अब पुलिस ने इसी मुकदमे और उन्हीं धाराओं में विजय के घर पर कुर्की का वारंट चस्पा कर दिया है।

#  अभियुक्त-श्रीराम राम, गांव-मुडि़यारी, थाना मनियर, जाति-चमार

श्रीराम राम के घर पर पुलिस ने तीन बार छापेमारी की। महिलाओं के साथ भी मारपीट और गाली-गलौज की। पुलिस श्रीराम की पत्नी से दो मोबाइल और एक डायरी छीनकर ले गयी। दूसरी बार जब श्रीराम को पुलिस पकड़कर ले गयी तो मनियर थाना में रखा और दरोगा ने धमकी दी कि ‘सही-सही बता दो नहींतो हाथ में हथियार दिखाकर मुठभेड़ में जान से मार दूंगा।’ गांव के प्रधान के निवेदन करने पर पुलिस ने श्रीराम को छोड़ दिया और कहा कि जब भी थाने पर बुलाया जाये तो आना पड़ेगा।

# अभियुक्त-राजेश राम, पुत्र-श्री दूधनाथ राम, ग्राम-कोटवारी, थाना-रसड़ा, जाति-चमार

राजेश राम को 11 फरवरी 2013 को घर से रात 12 बजे उठा ले गयी। रात भर थाने में पुलिस ने टार्चर किया, किन्तु सुबह जब सैकड़ों ग्रामीणों ने थाने का घेराव किया तो उनको छोड़ दिया गया। गांव के लोगों ने बताया कि पुलिस गांव के 40लोगों की लिस्ट बनाकर ले गयी है। गांव में कई बार छापेमारी चली। जिससे अधिकांश नौजवानों कोफरार होना पड़ा।

                                        निष्कर्ष

1.     बलिया में शक्तिशाली सामन्ती तत्व-गुण्डे-बदमाश, जमींदार, आदि प्रभावशाली तबकों के साथ पुलिस का गठजोड़ कायम हुआ प्रतीत होता है। परिणामस्वरूप गांवों में गरीब किसान, भूमिहीन, दलित जातियों मंे आतंक व भय व्याप्त है।
2.     मेहनतकश वर्ग के कुछ जागरूक व्यक्तियों को दबाने के लिए यहां किसी भी हद तक दमन का सहारा लिया जा सकता है।
3.     मालूम होता है कि प्रशासन किसी जागरूक, जनवादी या दमन विरोधी जन संगठन को बनने नहीं देना चाहता। इसके लिए झूठा मुकदमा तक बनाकर नक्सली या संगठित गिरोह बताकर जन संगठनों को कुचला जा सकता है।


                                       हमारी मांगें

1.     सभी निर्दोष लोगों पर से मुकदमे वापस लिये जाय।
2.     दोषी पुुलिस कर्मियों को बर्खास्त करंे।
3.     जनवादी संगठनों को ‘संगठित गिरोह’ बताना या किसी भी तरह प्रतिबन्ध लगाना बन्द हो।
4.     पुलिस द्वारा अनावश्यक छापामारी या तलाशी बन्द हो और महिला पुलिसकर्मियों को ऐसे अभियानों में अनिवार्य रूप से शामिल करें।

                     फैक्ट-फाइडिंग टीम के सदस्यगण

1.     प्रशान्त राही-स्वतन्त्र पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता
2.     राजाराम चैधरी-गोरखपुर जिला महासचिव, पी.यू.सी.एल.
3.     शिव प्रसाद सिंह-एडवोकेट, वाराणसी
4.     सुशील-डेमोक्रैटिक स्टूडेण्ट्स यूनियन, दिल्ली
5.     रोहित-भगत सिंह छात्र मोर्चा, बी.एच.यू.
6.     राधेश्याम-विधि छात्र, हरिश्चन्द्र पी.जी. कालेज, वाराणसी
7.     ओमप्रकाश-पत्रकारिता छात्र, बी.एच.यू.
8.     राजेश- छात्र युवा एकता मंच, आजमगढ़

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Chhattisgarh - Preliminary Report on the Fact Finding in Bijapur


March 16, 2013
by Democratic Students’ Union (DSU)
In the three weeks from mid-January till the first week of February, several villages in the Bijapur District of Chhattisgarh experienced the terror of the armed forces of the Indian state. The CRPF, Chhattisgarh state police, erstwhile SPO’s of the Salwa Judum along with various coercive arms of the state orchestrated a systematic targeting of villages, burnt down hundreds of homes, ostensibly in random, further, burnt down the schools built by the people, picked up villagers, young and old, and physically tortured them while their homes burned to the ground. The affected villages are Pidia, Tomnaka, Singham, Lingham, Komati, Tomudum, and Kondapadu, and in each of these between eight and thirty homes were burnt down by the armed forces. In the village of Dodi-Tumnar, a school with hostel facility for about a hundred children, both girls and boys, run by the Janatana Sarkar was looted and then burnt down by the invading forces in the last week of January. Two battalions of about 1000 CRPF personnel each, besides Koya commandos and SPO’s arrived at the village school at 9 am on that day. They systematically proceeded to destroy the school after firing into the air twice. Even as the students and the schoolmaster fled into the forest, the armed forces caught an old man on his way to the field and chopped off his hand with his own sickle. Following this, the forces looted the storeroom and the kitchen of the school, poisoned the water well, and destroyed the roof, walls, and furniture of the school before finally burning it to the ground. They then marched to the nearby village of Pidia. This village, that houses approximately 265 homes, witnessed first hand the ruthlessness with which the armed force burn down the homes and livelihood of those who stand up for their right to life and liberty. Close to thirty homes were burnt down in one part of this village alone. The charred remains of the homes, cattle sheds, storerooms, utensils can be seen littered with empty bottles of beer and other brands of alcohol. It is clear that this planned attack is part of the routine of military life that participates in wanton destruction and celebrates the impunity they enjoy.
By burning schools and homes, looting sources of livelihood, and physically torturing hundreds of adivasis, the state attempted to legitimize the violence in the name of ‘development’. This methodical burning of homes and schools reveals the carnival of violence practiced by the forces to intimidate, brutalize and squash the spirit of those living in these parts without any concern for consequences. The villagers were forced to remain in the forest for three days as the force camped in the village as well as the hills surrounding the village. A few young men were picked up by the armed force and brutally beaten. Most of the men were released while one still remains in jail. They looted the means of livelihood and sustenance in the village. Before leaving, they burnt the leftover rations and supplies of the villagers that they had looted. Traces of the violence faced by the village can be seen in the charred remains of homes, shelters, and broken utensils and fences. Here, it is the Janatana Sarkar to whom the villagers turn to in times like these. The Janatana Sarkar provided medicines and food to the affected villagers. It is now also helping them rebuild the burnt homes. Even as the bare frames of the homes are being rebuilt pillar by pillar and brick by brick, the spirit of resistance is visible for all to see.
The Indian state orchestrates these operations in states like Chhattisgarh in the name of ‘developing’ the area. These are also done as measures to counter the rise of revolutionary forces that have organized the people to stand united against such forms of oppression. These people practice policies that give primacy to the development of the people living here. Here, development does not mean filling the coffers of the state. In these policies for development, the people are the primary concern. When state sponsored forces attack the people, their homes, their schools, and their livelihood, they are attacking their right to life. This right to life that should be most fundamental and universal for all within this apparently democratic country is being denied to those who have remained historically deprived and marginalized in the fringe of the concern of the state. Today, these people are paying the price for resisting the injustice inflicted on them by being forced to live without any assurance of the most basic rights this country accords to its citizens, losing all means of livelihood, and most crucially, in blood.
In the name of developing the country the Indian state officially launched a massive operation of plunder of natural resources in 2009 by displacing thousands of communities living in the states of Jharkhand, Chhattisgarh, Orissa, Maharashtra, Andhra Pradesh and parts of Bihar, West Bengal and Karnataka. This ‘operation’, ironically called Operation Green Hunt by the corporate run media, undertaken by the current Central Government, expropriates the wealth of the country that rightfully belongs to the people for the benefit of imperialist forces. This wealth, in the form of resources of land, water and forests, is sold to exploitative multinational companies and comprador bourgeoisie. In turn, the resistance of the people has been termed an ‘internal security threat’ by the current Prime Minister who expresses his loyalty to the model of ‘development’ that feeds these corporate sharks. The revolutionary forces along with the people in these parts strive to fight this war waged by the Indian state against its own people. In keeping with the spirit of resistance against injustice, the people have consistently stood up against the machinations of the Indian state even as it signs hundreds of MOU’s that sell-out land, mineral and forest resources of the country. The price paid for these corporate deals is the blood of those who stand up for their right to life, livelihood and liberty against the oppressive Indian state. This resistance by the people represents an alternative model for people’s development, which aims at collectivization of resources in opposition to the Indian state’s model of corporate development. It is this revolutionary change that the Indian state aims to crush by calling it ‘terrorism’ and ‘internal security threat’.
The state sponsored ‘cleansing’ programme like the armed vigilante gangs of the Salwa Judum began their operations in 2005. The state officially declared its programme a ‘hunt’ in 2009. This hunt, since its inception, resulted in large-scale violence on people. There is a need to recognize the overlap between the official ‘hunt’ and the ‘cleansing’ done by these state funded vigilante groups that are nurtured and endorsed by the state to split the people from within as they stand up against the anti-people policies of the state by asserting their right to land, livelihood and resources. Even as the media projects this ‘operation’ as part of the effort to wipe out the ‘Naxal infestation’, the very form that this resistance takes militates against this projection. The resistance has roots among the people who have faced the worst atrocities at the hands of this semi-colonial Indian state. These are not mere victims of displacement, deprivation and destruction. These forms of resistance have historically taken root among people who recognize the violence inflicted on them by forces that expropriate land and resources to feed the bottomless pit of capitalist greed.
The armed forces use the government school buildings in the area as camps in the name of fighting Maoists. These schools become the centres from which the armed forces operate in the area. It creates conditions where access to education is rendered near impossible for those living in these parts. This has affected the basic right of education for the entire adivasi community and specifically the children in the region. Further, in regions where these governmental institutions do not exist and are built by the people themselves, the armed forces attack such schools, shelters, irrigation tanks, wells, and basic amenities of those living in these densely forested areas. These are wanton actions of destruction. This is not merely a question of ‘law and order’ or state control. By attacking homes, means of livelihood, and schools, the armed forces of the state inflict not merely physical violence that has become the norm in the region, but this is part of systemic violence of deprivation, displacement and destruction. This exposes the ‘development’ rhetoric of the state as an open farce.
The armed forces continue to commit such atrocities with impunity to displace the people living in the area to fulfill the State’s agenda of ‘development’ as seen in the hundreds of MOU’s signed with corporate houses, agencies, and MNCs. This clears the path to exploit the resource-rich land, water, minerals and forests. This onslaught of violence and exploitation of the people and their resources by the state machinery in the name of development and fighting revolutionary forces exposes the nexus between the state, coercive forces and the corporations that aim to exploit the land and its resources. The casualty of this ‘development model’ has been the adivasi community as they are denied the most basic rights of education, livelihood and liberty. This form of state repression on the people has been visible over the course of ‘Operation Green Hunt’ and visible in the anti-people policies adopted by the state. We must recognize the atrocities committed by the state, expose this nexus of imperialist exploitation and stand by the people who have organized themselves against the state as it attempts to displace them.
These people have resolved to fight back by developing schools, shelters, tanks, wells, and such amenities. These are everyday forms of resistance that the state aims to break, by burning down homes and schools and torturing some physically while inflicting collective violence on the lives of people. The collective development of people adopted by those fighting back the ‘model of development’ of the state provides the revolutionary alternative to the imperialist and feudal designs of corporations and the comprador bourgeoisie. As the state commits such atrocities against the people everyday and normalizes its forms of violence, the people have militantly resisted. As the state speaks the imperialist language of ‘freedom’ and ‘development’ on one hand and participates in wanton destruction of life, livelihood and liberty on another, it depends on our silence and implied consent. We need to break this silence and stand up against the injustice inflicted on the hundreds. We need to stand together with the struggling masses; the thousands of displaced and deprived people who have resolved to fight back. Today and everyday hence, we must condemn the atrocities committed by the armed forces of the state on the adivasis of Chhattisgarh and elsewhere; expose the nexus between the state, feudal landed interests and corporate houses in these resource rich areas; recognize that this war on people is being fought by those who recognize their right to jal, jangal, jameen and against the Indian state in its effort to displace people to expropriate their land, livelihood and resources for its imperialist designs.
DSU Fact Finding Team: Ayantika Das, J. K. Vidhya, Sourabh Kumar, Sushil Kumar.
Democratic Students’ Union (DSU)

मुजफ्फरनगर: सांप्रदायिक फासीवादी राज्य की जारी हिंसा

हाशिया ब्लॉग से साभार :


मुजफ्फरनगर-शामली के राहत शिविरों की स्थिति पर डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स यूनियन की प्रारंभिक रिपोर्ट

बागपत जिले के चित्तमखेड़ी से आईं महबूबा ने बिना इलाज के अपनी बच्ची को मरते हुए देखा है-महीने भर पहले. दो दिसंबर को उनकी बेटी को मलकपुर शिविर में ठंड लगी. अगले दिन उन्होंने पास के कैराना में डॉक्टर को दिखाया लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. बुखार तथा उल्टी के बाद उनकी बच्ची चल बसी. 35 साल के अनवर के साथ भी ऐसा ही हुआ. बागपत से आए भड़ल के अनवर का बेटा महज 22 दिन जीवित रह सका. ठंड से बचाव की कोई सुविधा नहीं रहने की वजह से उसे न्यूमोनिया हुआ और इलाज की कमी से उसकी मौत हो गई. महबूबा और अनवर शिविरों में रह रहे उन 30 से ज्यादा व्यक्तियों में से हैं, पिछले कुछ महीने में जिनके बच्चों की मौतें ठंड के कारण और इलाज की कमी से हुई हैं.

हालांकि भारतीय राज्य और इसके अलग अलग हिस्सों की राय इस पर एकदम अलग है. उत्तर प्रदेश सरकार के गृह सचिव की राय में ठंड से किसी की मौत नहीं हो सकती. राहुल गांधी के मुताबिक विभिन्न शिविरों में रह रहे एक लाख से ज्यादा लोग आईएसआई के एजेंट हैं और मुलायम सिंह के मुताबिक कांग्रेस के. प्रशासन उन्हें सरकारी जमीन पर गैर कानूनी कब्जा करने और पेड़ों को काटने वाला अतिक्रमणकारी मानता है. लेकिन मुजफ्फरनगर और शामली के राहतशिविरों में रहते आए करीब एक लाख लोगों ने पिछले चार महीनों में जो कुछ देखा और सहा है, ऐसी सरकारी बयानबाजी उसका सिर्फ त्रासदी पूर्ण मखौल ही उड़ा सकती है. उन्होंने देखा है कि कैसे महज कुछ दिनों के भीतर मुजफ्फरनगर, शामली और बागपत से एक लाख से ज्यादा मुसलमानों को उनके घरों से भागने पर मजबूर कर दिया गया जिन्होंने राहत शिविरों में पनाह ली. कम से कम 80 लोगों की हत्याएं कर दी गईं (यह सरकारी आंकड़ा है, स्थानीय लोगों के मुताबिक यह संख्या 130 से अधिक हो सकती है). गांवों में हत्याएं, मुसलमानों का भारी विस्थापन, औरतों के साथ बलात्कार, राहत शिविरों में बच्चों की मौतें, जनसंहार के अपराधियों द्वारा अब तक जारी धमकियां और इन सबके बावजूद अपनी जिंदगी और आजीविका के लिए लोगों का संघर्ष इस सांप्रदायिक-फासीवादी राज्य की एक और कड़वी सच्चाई है. एक तरफ जहां भाजपा पूरे गर्व से इस जनसंहार के अपराधियों को सार्वजनिक रूप से सम्मानित कर रही है तो दूसरी तरफ सपा सरकार हमले की तरफ से आंखें मूंदे रहने के बाद अब हमलों से हुए वास्तविक नुकसान को नकार रही है. हमले की भयावहता और राज्य की भूमिका के संदर्भ में इसकी मिसाल सिर्फ 2002 के गुजरात से दी जा सकती है. अपने घरों से बेदखल कर दिए गए और राहत शिविरों में रह रहे लोगों के साथ एकजुटता जाहिर करते हुए जेएनयू, बीएचयू, इलाहाबाद विवि और एक स्वतंत्र पत्रकार की 12 सदस्यों की एक टीम ने 4 जनवरी को शामली जिले के कुछ शिविरों का दौरा किया. हमने शिविरों में बदहाली से भरी हुई उन अमानवीय स्थितियों को देखा जिनमें लोग रह रहे हैं और उनसे बातें करते हुए उस आतंक को जाना, जो सरकार और राज्य के विभिन्न धड़ों की तरफ से उन पर पिछले कुछ महीनों से थोपा जा रहा है. लोगों की कहानियां धार्मिक अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों, के उत्पीड़न और व्यवस्थित रूप से उन्हें हाशिए पर धकेले जाने की कहानी है, जो यहां के कथित धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के झूठ को उजागर करती हैं.

4 जनवरी की सुबह एक स्थानीय दैनिक अमर उजाला की एक दिन पुरानी हेडलाइन ने हमें बताया कि ‘अपना पक्का मकान होते हुए भी इमदाद के लालच में’ शहर के परिवारों ने शिविर में डेरा डाल रखा है। जबकि सरकार इन राहत शिविरों को जबरन बंद कराने का अभियान चला रही है, ऐसी खबरें इस अभियान को जायज ठहरा रही थीं. लेकिन 2 डिग्री तापमान के आसपास फटे पुराने कपड़ों और प्लास्टिक की चादरों से बनाए हुए तंबू खुद इन खबरों के झूठ को उजागर करते हैं. असल में इन ‘राहत शिविरों’ में कोई भी सार्थक सरकारी राहत नहीं पहुंची है. बस कुछ अल्पसंख्यक संगठन ही हैं जो वहां थोड़ी बहुत सुविधाएं उपलब्ध करा रहे हैं. मलकपुर के शिविर प्रभारी रईसुद्दीन बताते हैं कि सरकार इन्हें बस सिरदर्द मानते हुए इनसे छुटकारा पाना चाहती है.राहत पहुंचाने का काम कर रहे कुछ स्थानीय कार्यकर्ता बताते हैं कि सरकार ने कांडला और शामली में मदरसों की जमीन पर से भी शिविरों को जबरन हटा दिया है जो कि सरकारी जमीन पर नहीं थे. मलकपुर में, जहां 649 परिवार रह रहे हैं (शुरू में यहां 1300 परिवार थे), निवासियों ने हमें बताया कि पहले वे घर चलाने के लिए दिहाड़ी करने जाया करते थे, लेकिन जबसे शिविरों को हटाया जाने लगा है, उन्हें घर पर ही रुकना पड़ता है. इसी वजह से बच्चों को भी स्कूल जाने से रोक दिया गया है. लोगों को हमेशा सतर्क रहना पड़ता है. मर्द रातों को जाग कर सड़कों पर नजर रखते हैं. जिस दिन हम पहुंचे वह शिविरों को खाली करने के लिए सरकार द्वारा दिए गए अल्टीमेटम का आखिरी दिन था और उसके पहले वाली रात में पुलिस-प्रशासन मलकपुर शिविर को खाली कराने आया था. जब हम शिविर में थे, उस दौरान भी प्रशासन शिविर को खाली कराने आया था, लेकिन लोगों के विरोध से उसे लौट जाना पड़ा. शिविर हटा दिए जाने के हमेशा बने रहने वाले डर की वजह से लोगों को अपना रोजगार छोड़ना पड़ा है जिससे वे और बदहाल हुए हैं.

मुआवजे को सरकार शिविरों को खाली कराने के एक और तरकीब के रूप में इस्तेमाल कर रही है. लोगों ने बताया कि शिविर में रह रहे किसी भी व्यक्ति को मुआवजा नहीं मिला है. बाजिदपुर गांव की संजीदा ने कहा कि मुआवजा तो छोड़ दें, सरकार आज तक इससे इन्कार करती आई है कि बागपत जैसी अनेक जगहों पर कोई हमला हुआ था. जिन कुछेक लोगों को 5 लाख रु का मुआवजा मिला भी है, उन्हें एक हलफनामे (एफिडेविट) पर दस्तखत करने पड़े कि वे लौट कर अपने गांव या घर नहीं जाएंगे. साफ है कि इसके जरिए सरकार इन इलाकों में आबादी की संरचना में बदलाव करना चाहती है. हालांकि हमने यह भी पाया कि सरकार कुछ परिवारों को मुआवजे दे कर पूरे शिविर को हटाने की कोशिश कर रही है.लख गांव के मुस्तकीम ने बताया कि दो दिन पहले अधिकारियों ने उनसे आकर शिविर खाली करने को कहा क्योंकि उनके पिता को मुआवजा दिया जा चुका है. सरकार मुआवजे की बड़ी राशि को लेकर बड़े दावे कर रही है. लेकिन यह कितना खोखला है, मुस्तकीम की बातों से यह जाहिर होता है. सरकार घरों के आधार पर मुआवजा दे रही है. अगर एक घर में कई दंपती और उनके बच्चे हों तो यह मुआवजा भी नाकाफी साबित होता है. कई बार तो यह सिर्फ एक ही व्यक्ति को मिलता है और उसी घर के बाकी लोगों के हाथ कुछ नहीं आता, जबकि वे भी उतने ही तबाह हुए होते हैं. मुस्तकीम के पिता को मुआवजा मिला, लेकिन वे और उनके भाई (दोनों शादीशुदा हैं और उनके बच्चे हैं) को कुछ भी नहीं मिला और वे आज खाली हाथ हैं. उन्होंने हमें सरकारी अधिकारियों के साथ हुई बातचीत के बारे में बताया, ‘जब अधिकारियों ने मुझसे यह कहते हुए शिविर छोड़ने को कहा कि मेरे अब्बा को मुआवजा मिल चुका है, मैंने उनसे पूछा कि मैं अपने बच्चों को लेकर कहां जाऊं? उन्होंने मुझसे पास के जंगल में चले जाने को कहा. मैंने उनसे पूछा कि कहां, क्या हमें दूसरे देश चले जाना चाहिए?’

सुविधाओं के अभाव, ठंड, बीमारी और बदहाली के बावजूद लोग शिविर छोड़ कर नहीं लौटना चाहते तो इसकी सबसे बड़ी वजह लगातार मिलने वाली धमकियां, असुरक्षा की भावना और डर है. ‘हम गांव लौटने के बजाए सड़कों पर रह लेंगे. हमारे हत्या रे खुले घूम रहे हैं. वे हमें भी मार सकते हैं,’ बाजिदपुर की समीना बताती हैं. सरकार ने सुरक्षा देने का दिखावा तक नहीं किया है. मलकपुर शिविर में एक बुजुर्ग औरत कहती हैं कि उन्हें डर है कि फिर से हमला हुआ तो सरकार की उसमें भी मिलीभगत होगी. सरकारी की हमलावर सांप्रदायिक फासिस्टों के साथ मिलीभगत और उनकी सरपरस्ती लोगों के लिए बहुत साफ है. हमले के सारे मुख्य कर्ता-धर्ता अपने खिलाफ एफआईआर दर्ज होने के बावजूद खुलेआम घूम रहे हैं और उनका सार्वजनिक सम्मान तक किया जा रहा है. ऐसे में कैसे मुसलमानों से वापस लौट जाने की उम्मीद की जा सकती है? शिविर के एक और निवासी इरशाद ने इसे बहुत साफ शब्दों में कहा, ‘जब अपराधी खुले घूम रहे हैं वे जांच कैसे होने देंगे? वे खुद ही प्रशासन हैं, वे खुद ही अपराधी हैं.’ अनेक गांववालों ने एफआईआर तक दर्ज नहीं कराई क्योंकि इससे उन्हें गांव लौट कर जाने की जरूरत पड़ती. अनेक लोगों ने टीम को बताया कि जब वे गांव गए तो उन्हें धमकियों की वजह से लौट कर शिविर आना पड़ा. नूरपुर खुरगान शिविर में मो. दिलशाद ने बताया कि दो परिवार गांव के प्रधान के कहने पर कुरमल गांव लौटे लेकिन उन्हें शिविर लौट आना पड़ा क्योंकि प्रभुत्वशाली जाट समुदाय के लोग पेट्रोल के साथ उन्हें धमकाने आए थे. काकडा, कुतबा-कुतबी और अनेक गांवों के निवासी जब अपने गांवों में सामान लेने के लिए लौटे तो पाया कि स्थानीय प्रभुत्वशाली तबकों और पुलिस द्वारा उनके घर जला दिए गए हैं, सामान लूट लिया गया है.

पिछले सितंबर में लोगों को जिस आतंक का सामना करना पड़ा, वह इतना भयावह है कि वे आने वाले समय में उसी जगह पर लौटने की सोच नहीं सकते. कई लोगों ने बताया कि कैसे डरावने तरीकों से गांवों में बूढ़ों और बच्चों को मारा गया. इन हमलों की एक विशेषता मुसलिम समुदाय की औरतों पर हुए यौन हमले भी थे. हालांकि शुरू-शुरू में लोग इन पर बात करने से हिचके लेकिन बाद में अनेक लोगों ने टीम को भयावह घटनाओं के ब्योरे दिए. अनेक महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हुए, कइयों को निर्वस्त्र होकर शीशे के टुकड़ों पर नाचने को मजबूर किया गया. एक ग्रामीण ने एक औरत के बारे में बताया जिसे अगवा कर लिया गया और फिर उसका कुछ पता नहीं लगा. एक दूसरी महिला अपनी छोटी बहन को बीच से दो टुकड़ों में काट कर मार दिए जाने के बारे में बताया. जिन महिलाओं के साथ गांवों में यौन हिंसा हुई या जिन्होंने दूसरों के साथ ऐसा होते देखा वे इन शिविरों में अधिक महफूज महसूस करती हैं. यहां बस पुलिस का डर है लेकिन शिविरों के बीच सड़कों पर गश्त लगाते लोगों और कार्यकर्ताओं के कारण वे थोड़ी सुरक्षा महसूस कर पा रहे हैं. जो थोड़े से लोग रिश्तेदारों के यहां कोई बंदोबस्त करने में कामयाब हुए हैं, वे शिविर से चले गए हैं लेकिन अपने गांवों को कोई नहीं लौटा है. वैसे भी उनकी जो थोड़ी बहुत संपत्ति वगैरह थी, उस पर स्थानीय प्रभुत्वशाली तबके ने कब्जा कर लिया है और अब लौटने के लिए कुछ बचा नहीं है. लख गांव की वसीला पहले ईंट भट्ठे पर काम करती थीं. उन्होंने बताया कि हमलावर भीड़ ने उनके गहने लूटे, फिर 10 क्विंटल अनाज जला दिया और फिर घर में आग लगा दी. अब जबकि मुसलमान गांवों को लौट जाने में सक्षम नहीं हैं, एक नए तरह का घेट्टोकरण दिख रहा है- नया इस अर्थ में कि यह अब तक शहरों में होता आयाहै जो अब गांवों में भी फैल रहा है.

इन इलाकों में मुसलमानों पर हमला मुसलमानों को व्यापक तौर पर हाशिए पर धकेले जाने की ऐतिहासिक प्रक्रिया का ही हिस्सा है. शिविरों में रह रहे लोगों में एक छोटा सा हिस्सा कारीगरों, बुनकरों और दुकान चलाने वालों का था, बाकी के ज्यादातर लोग दिहाड़ी मजदूर हैं. वे या तो ईंट भट्ठों पर काम करते हैं या निर्माण कार्यों में या फिर यहां प्रभुत्वशाली जाट समुदाय के गन्ने के खेतों में. उनमें बहुत कम के पास अपनी जमीन थी. दूसरी तरफ प्रभुत्वशाली जाट समुदाय के पास, जिसने इन हमलों से सबसे ज्यादा लाभ उठाया, न केवल सबसे ज्यादा जमीन की मिल्कियत है बल्कि वे सूदखोर भी हैं जो 10 फीसदी की ऊंची दरों तक पर ब्याज वसूलते हैं.मिसाल के लिए कुरमल गांव के मो. दिलशाद ने 2003 में 40000 हजार रुपए एक जमींदार सूदखोर से लिए थे, जिसके बदले में उनपर 2006 में एक लाख 80 हजार रुपए की देनदारी थी. पैसा न चुका पाने की हालत में उन्हें जमींदारों के यहां बंधुआ मजदूर के रूप में काम करना पड़ता है, जो ज्यादातर मामलों में पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है. इस प्रभुत्वशाली तबके का कानूनी और साथ साथ कानून के बाहर की राजनीतिक-सामाजिक संगठनों पर पूरा कब्जा होता है-चाहे वह पंचायतों के सरपंच हों, मुखिया हों या प्रधान या फिर खाप पंचायतें हों. उनका पुलिस और स्थानीय प्रशासन पर पूरा नियंत्रण होता है. दिशलाद ने मुसलमानों द्वारा झेले जा रहे सामंती उत्पीड़न और हमले के डर के बारे में बताया, ‘अगर हम नए कपड़े पहनें तो वे हमें गाली देते हैं और सूअर कहते हैं. वे हमारे साथ गाली के बगैर बात ही नहीं करते...और तो और वे किसी को भी कभी भी गिरफ्तार करा सकते हैं.’ दिलशाद ने कहा कि यह शिविर तो उनके लिए ‘जन्नत’ है भले यहां दिक्कतें हैं लेकिन यहां जलालत और हमले का डर तो नहीं है.’

अपने प्यारों को खो चुके, अपनी आजीविका गंवा चुके और इन शिविरों में बदतरीन हालात में रहने को मजबूर कर दिए गए लोग अपनी मौजूदा हालत को ‘आजादी’ भरी बताते हैं. क्योंकि इंसानी जिंदगी की कीमत महज आजीविका से ही नहीं लगाई जा सकती. यह बुनियादी इंसानी इज्जत से भी बनती है, जिससे मुजफ्फरनगर के मुसलमानों को व्यवस्थित रूप से महरूम रखा गया. सिर्फ इन जनसंहारों के दिनों में ही नहीं, बल्कि उसके पहले के दशकों तक. वे जिस संपत्ति को, घरों, जगहों, मजहबी जगहों को छोड़ आए हैं, उन पर उसी सामंती प्रभुत्वशाली तबके ने कब्जा कर लिया है, जो हमलों के लिए जिम्मेदार है. जैसा कि शिविर में रह रहे शहजाद सैफी ने बताया, मुसलमानों को 20 साल पीछे धकेल दिया गया है. राठौड़ा गांव की एक दूसरी महिला का, जिसके परिवार के तीन मकान थे, कहना था, ‘इन घरों का फायदा क्या जब हमारी जिंदगियों पर खतरा बना रहता है...इसलिए हम यहां ठीक हैं भले हमारे पास कोई घर नही है.’ मुजफ्फरनगर और आसपास के इलाकों में ये घटनाएं फिर से इसे साबित करती हैं कि सत्ता में चाहे कोई पार्टी रहे, किस तरह सांप्रदायिक फासीवाद उन सामाजिक संबंधों और उत्पीड़नकारी संरचनाओं का हिस्सा है, जिन पर यह भारतीय राज्य टिका हुआ.

अगले हफ्ते हम एक विस्तृत रिपोर्ट भी जारी करेंगे. दौरे पर गई टीम का हिस्सा थे: आश्वती, भावना, रजत, रेयाज, शामला, उफक, उमर (सभी डीएसयू, जेएनयू), मिशाब, अब्दुर्रहमान (एसआईओ, जेएनयू), नीरज (इन्कलाबी छात्र मोर्चा, इलाहाबाद विवि), शैलेश (भगत सिंह छात्र मोर्चा, बीएचयू) और चंद्रिका (स्वतंत्र पत्रकार)

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