Powered By Blogger

Sunday, September 2, 2018

गाँव चलो अभियान रिपोर्ट - 2018

   

भूमिका:

"यह हम मानते है कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नही? यदि नही तो हम उस शिक्षा को निकम्मी समझते है...।”
     शहीद भगत सिंह ‘ विद्यार्थी और राजनीति’ लेख से  
     
       हमारे देश का मेहनतकश वर्ग यानी मजदूर और किसान अपने श्रम से पूरी दुनिया के लिए जरूरत की चीजों का निर्माण करता है। हम जैसे विद्यार्थियों के लिए कॉपी-कलम से  लेकर हमारे विश्वविद्यालय तक सब उनकी ही बदौलत है। परंतु न तो उनके बच्चे ऐसे विश्वविद्यालय तक पहुँच पाते हैं और न ही उनकी बनाई बड़ी-बड़ी इमारतों में उनके परिवार रह पाते हैं।
 हम छात्र-छात्राएं अलग-अलग  घरों, परिस्थितियों में रहकर ऐसे विश्वविद्यालयों में आते हैं। हममें से कई विद्यार्थी मज़दूरों-किसानों से जुड़ी इन बातों को समझ कर सहानुभूति तो रखते हैं पर चूंकि उन्होंने कभी उनके हालातों को न ही अपने आंखों से देखा होता है और न ही कभी जिया होता है, इसलिए वे उन पर हो रहे उत्पीड़न को साफ देख और समझ पाने में थोड़े असमर्थ हो जाते हैं।
ऐसे हालातों में हम जमीनी शिक्षा के महत्व को समझते हुए गाँव चलो अभियान के माध्यम से विश्वविद्यालयों से जुड़े छात्रों, नौजवानों तथा बुद्धिजीवियों को मज़दूरों-किसानों के संघर्षों एवं परिस्थितियों के साथ जुड़ने और गांवो में जाने के लिए एकजुट करते हैं।
यह एक सुखद संयोग है कि इस बार जब हमने अपना GVC(Go to Village Campaign) आयोजित किया तो इसी समय पूरी दुनिया भर में मार्क्स की 200 वीं जयंती भी मनायी जा रही थी।
आज जब पूरे देश में छात्रों, नौजवानों तथा बुद्धिजीवियों के बीच सामंती, साम्राज्यवादी संस्कृति व उत्तर आधुनिकता का प्रभाव सचेतन साम्राज्यवाद द्वारा बढ़ाया जा रहा है। इसी उत्तर आधुनिकता की वजह से छात्रों, नौजवानों, बुद्धिजीवियों के बीच मजदूरों, किसानों, दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों तथा महिलाओं आदि के संघर्षों को अलग - अलग कर के देखने की प्रवृति बढ़ती जा रही है।
साथ ही आज भी यह बहस चल रही है कि भारत पूंजीवादी है या अर्ध सामंती अर्ध औपनिवेशिक। तब ऐसे में हमारे द्वारा लिया गया यह गाँव चलो अभियान इन सभी सवालों का सटीक जवाब बन कर सामने आता है।

गाँव चलो अभियान की तैयारी और गाँव में हमारा कार्यक्रम:

     इस बार का गाँव चलो अभियान चार संगठनों का संयुक्त अभियान रहा। जिसमें बनारस से दो संगठन भगत सिंह छात्र मोर्चा (BCM) और स्टूडेंट्स फ़ॉर चेंज (SFC) IIT-BHU तथा इलाहाबाद से इंक़लाबी छात्र मोर्चा (ICM) और जाति उन्मूलन मोर्चा (CAF) शामिल थे।
"जनता से लो और जनता को दो" के सिद्धान्त को अपने व्यवहार से जोड़ने के मकसद से हम छात्र-छात्राएं 10 जून से 19 जून तक अपना गाँव चलो अभियान लेकर चंदौली जिले के 8 गाँवों में गए। हमारे इस बार के गाँव चलो अभियान में करीब 40 लोगों ने हिस्सा लिया। जिसमें 25 लोग नियमित 10 दिनों तक गाँवों में रुके।
हर बार की तरह इस बार भी हमने अपना GVC गर्मी की छुट्टियों में लिया। गर्मी के छुट्टियों के दौरान शिक्षण संस्थान भी बंद रहते हैं तथा किसान भी खेती-बाड़ी के काम से खाली हो जाते हैं।
हमने GVC से पहले एक 5 सदस्यीय गाँव चलो अभियान संयोजन समिति का निर्माण किया जिसने पूरे 20 दिनों तक, अभ्यास व GVC को संचालित किया। इस समिति के तरफ से GVC से संबंधित एक नियमावली (सर्कुलर) जारी किया गया था जिसमें गाँव में छात्र- छात्राओं के व्यवहार और रहन- सहन से जुड़े कुछ निर्देश व नियम मौजूद थे एवं जिसका पालन सभी को करना था। GVC में दिखाए जाने वाले नाटक को बनाने और गीतों के अभ्यास के लिए हमने गांव जाने के 10 दिन पहले से तैयारियां शुरू कर दी थी। हम लोग रोज़ सुबह और शाम पूर्व निर्धारित समय पर मिलते थे और रिहर्सल करते थे।
हमलोग GVC के दौरान पहले के 6 गाँवों में एक- एक दिन और आखिर के 2 गाँवों में दो-दो दिन रहे। ये दोनों गाँव पुराने गाँवों में से थे जिनमें हम पिछले GVC में रह चुके थे।
हर गाँव का सर्वे सुबह 7 बजे से 11 बजे दोपहर तक किया जाता था। सर्वे के लिए हर रोज 5 टीमें बनाई जाती थी। संयोजन समिति द्वारा तैयार किया गया एक चार्ट पेपर जिसमें कई तरह के प्रश्न होते थे जिन्हें हर घर मे पूछा जाना होता था और साथ ही एक सामान्य प्रश्नावली का पेपर जिसमें जमीनों को लेकर कुछ प्रश्न होते थे, को हर टीम को सर्वे के लिए दिया जाता था। ये सारे प्रश्न आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक सभी स्तरों के होते थे।
इसके बाद दोपहर में हम सभी अलग-अलग घरों में खाना खाने तथा थोड़े आराम के बाद हर दिन के कार्यवाही से संबंधित सकारात्मक तथा नकारात्मक समीक्षा मीटिंग होती थी। समीक्षा के दौरान निकलने वाली कमियों को जो हमारे व्यवहार, सर्वे, नाटक आदि से संबंधित होती थी, उन्हें ठीक करने का सभी साथी प्रयास करते थे और अगली बार उसी गलती को न दोहराने की कोशिश करते थे।
    शाम 4 बजे से सारे सदस्य दो टीमों में बंट कर नारे लगाते तथा डफ़ली बजाते हुए पूरे गाँव में नाटक का स्थान, समय और नाटक के बारे में सूचना देते थे। इसके बाद शाम साढ़े पांच बजे से सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू किया जाता था जिसमे सामाजिक गीत-गाने तथा नाटक दिखाया जाता था। नाटक तथा गाने समाज के विभिन्न समस्याओं पर केंद्रित होते थे। हमारा इस बार का नाटक ज़मीनों (ग्राम सभा, बंजर, सीलिंग,नादिवास आदि) के असमान वितरण, शिक्षा के निजीकरण , एन्टी भू-माफिया एक्ट के नाम पर उजाड़े जा रहे गरीबों दलितों की समस्याएं गाँव में नशाखोरी तथा इससे जुड़ी महिलाओं की समस्याएं मजदूरों की स्थिति और साथ ही आदिवासियों पर हो रहे राजकीय दमन आदि सामाजिक एवं राजनैतिक मुद्दों पर केंद्रित था।
       नाटक से पहले हमलोगों के बीच से कोई एक साथी परिचयात्मक तथा मजदूरों-किसानों के जीवन से जुड़ी समस्याओं पर भाषण देता था। उसके बाद क्रांतिकारी गीतों के साथ नाटक की शुरुआत की जाती थी। नाटक के बाद हम सभी गाँव वालों के बीच जा कर उनसे नाटक को लेकर बात करते और उनसे जुड़ने की कोशिश करते। हम में से कोई एक साथी नाटक के बाद रात के भोजन के लिए जनता से अपील करता कि हम में से एक व्यक्ति एक घर में खाना खायेगा और संभव हो तो रात को वही सोयेगा। ताकि जनता से ज्यादा से ज्यादा बातचीत हो सके।
GVC के दौरान कई तरह के खर्चे भी आते हैं जैसे पर्चे, आने जाने  और  खाने पीने में, इत्यादि। यह खर्च हमने BHU तथा IIT BHU के छात्रों, बुद्धिजीवियों, प्रोफेसरों  के आर्थिक  सहयोग से चलाया। इसके आय-व्यय का पूरा लिखित ब्यौरा संचालन समिति की तरफ से रिव्यु मीटिंग में रखा गया।

गाँव चलो अभियान से प्राप्त आंकङों तथा अध्ययन के बाद इन गाँवों का आर्थिक विश्लेषण:-

      इन गाँवों की स्थिति विभिन्न सरकारों द्वारा पिछले 70 वर्षों मे किए गए तथाकथित विकास की पोल खोल कर रख देता है। भारत में जहां साढ़े छः लाख से अधिक गाँव हैं तथा आज भी गाँव की लगभग 80 फ़ीसद आबादी खेती तथा खेतिहर मजदूरी में लगी हुई है,ऐसे में जमीन का सवाल सबसे महत्वपूर्ण सवाल बन जाता है। अपने जांच-पड़ताल एवं अध्ययन के दौरान हमने यह पाया कि हरेक गाँव में लगभग 60-80 फीसद परिवार भूमिहीन हैं। यहां ज्यादातर जमीनें जमींदारों के पास ही है और परिवार बढने की वजह से उनके बीच आपस में ही बँटी है। चूँकि यह इलाका बिहार से सटा रहा है इसलिए इन गाँवों पर नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह का भी प्रभाव रहा है तथा उससे प्रेरित जनसंघर्षों से 80 के दशक में गरीबो - दलितों के बीच कुछ जमीनों का बंटवारा हुआ है। चकबंदी,हदबंदी,सीलिंग एक्ट को आज भी गांवों में सही तरीके से लागू नहीं किया गया है। तमाम संघर्षों के बावजूद आज भी आपको इस इलाके में 200-250 बीघा(125-156  एकड़) वाले जमींदार मिल जाएंगे।       
 इन गाँवों में जहां खेती- बाड़ी ही उत्पादन तथा रोजगार का मुख्य साधन है, अतः जिनके पास खेत है उन्हीं के पास रोजगार है। बाकी सभी लोग जमींदारों के यहाँ अधिया,बटाईदारी यहां तक की चरवाही(बंधुआ मजदूरी) करने को भी विवश है। इन इलाकों में पटवन अथवा कूत पर भी खेत दिया जाता है, जिसकी दर 14000 -16000 रूपए प्रति बीघा सालाना है। अपने आकलन के आधार पर हम देखें तो एक बीघा जमीन में अगर फसल अच्छी भी हुई हो तो किसानों का लागत मूल्य निकालकर 25-30 हजार की ही आमदनी होती है। इस हिसाब से देखें तो आधे से ज्यादा हिस्सा उसे जमीन के किराए के रूप में ही देना पड़ता है और साल भर पूरे परिवार के साथ मिलकर मेहनत करके भी वह बहुत थोड़ा ही प्राप्त कर पाता है। यह दर्शाता है कि आज भी सामंती प्रथा थोड़े बहुत बदलावों के साथ कमोबेश उसी रूप में विद्यमान है। अगर कहीं फसल खराब हो जाती है तो ये खेतिहर मजदूर भारी कर्ज में डूब जाते हैं। ये लोग पटवन अथवा कूत पर खेत लेने के लिए ग्रामीण साहूकारों(जो इन्हीं जैसे जमींदार अथवा धनिक होते हैं) से 10% तक के मासिक ब्याज पर कर्ज लेते हैं। फसल खराब होने की स्थिति मे ये निरंतर कर्ज के बोझ तले दबते चले जाते हैं।
        जांच पड़ताल से यह पता चला कि लगभग 95% दलित परिवार भूमिहीन हैं। वहीं लगभग 60-70 फीसदी पिछड़ी जाति के लोग या तो भूमिहीन हैं या उनके पास बस नाममात्र की ही जमीनें हैं। पिछड़ी जातियों में भी ज्यादातर जमीनों के मालिक कुछ प्रभावशाली जातियों(जैसे यादव,मौर्या,कुर्मी) के चंद परिवार ही हैं। चूँकि इस बार हमने गाँव चलो अभियान के लिए ज्यादातर ऐसे गाँवों को चुना था जो या तो दलित बाहुल्य है या पिछड़ी जाति बाहुल्य इसलिए इन गाँवों में पिछड़ी जाति के पास भी बड़ी जोतें देखने को मिली। इन गाँवों मे सवर्ण जातियों के घर बहुत कम थें, कुछ गाँवों में तो सवर्णों के एक भी घर नही थें। इन गाँवों मे ज्यादातर जमीनों के मालिक या तो सवर्ण थे या फिर पिछड़ी जाति के लोग। आंकड़ों के रूप में हम यहाँ कुछ गाँवों के जमींदारों तथा बड़े किसानों की जमीनों का विवरण रख रहे हैं।

भुङकुङा और बटऊवा ग्राम पंचायत भुङकुङा के एवं घोङसारी और अमीलिया ग्राम पंचायत घोङसारी के गाँव हैं।

ये आंकड़े हमें यह दर्शाते हैं कि हर गाँव की आधी से ज्यादा जमीनें चंद परिवारों के पास ही है तथा उनमे से ज्यादातर लोग कुछ खास जातियों से ही आते हैं। सैकड़ों एकड़ ग्राम सभा(GS),बंजर,नदिवास की जमीनें आज भी कुछ जमींदार अथवा बड़े किसान(उच्च जाति के) दबंगई से जोत रहें हैं तथा आज तक किसी सरकार ने इन पर कोई कार्यवाही नहीं की क्योंकि यही लोग संसद तथा विधानसभाओं में भी बैठे हैं।
     खेती के अलावा इन गाँवों में मजदूरी ही रोजगार का प्रमुख साधन है। गाँव के ज्यादातर दलित तथा पिछड़ी जाति के लोग या तो खेतिहर मजदूरी मे लगे हुए है अथवा आसपास के बाजारों(चंदौली,बनारस) में दिहाड़ी मजदूरी में। दिनभर हाड़-तोड़ मेहनत करने के बावजूद मजदूरी के रूप मे उन्हें या तो 200-250 रूपए मिलते हैं या बहुत थोड़ा अनाज। महिलाओं को समान श्रम करने के बावजूद इससे भी कम मजदूरी मिलती है। इलाके में रोजगार के साधन के रूप में ईंट-भट्ठे हैं, परन्तु इनमें बहुत कम मजदूरी मिलने तथा बहुत अधिक शोषण होने के कारण गाँव के लोग यहाँ काम नहीं करते। यहाँ ज्यादातर बिहार झारखण्ड से पलायन कर रोजगार के खोज में आये मजदूर ही काम करते हैं और ये भी इन ईंट भट्ठों में हो रहे शोषण का शिकार होते हैं। ये भट्ठे गाँव के ही उच्च जातीय दबंगों के होते हैं।इन गाँवों के ज्यादातर युवा पलायन करके दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद जैसे शहरों मे जाने को विवश हैं। प्रायः इनको शहरों मे भी मूलभूत सुविधाओं का अभाव, कम मजदूरी, दुर्गम एवं दम घुटने वाले हालातों में काम करना, सुरक्षा तथा स्वास्थ्य मानकों का उल्लंघन, काम के घंटे अधिक होना इत्यादि अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। कम मजदूरी मिलने तथा साल भर काम न मिलने के कारण ये बहुत थोड़ा पैसा ही बचा पाते है तथा खेती-बाड़ी के मौसम में गाँव वापस लौटकर रोपनी, सोहनी, मनरेगा इत्यादि के कामों में लगकर 4-5 महीने गाँव में ही रोजगार प्राप्त करते हैं।शहरों में काम करने के बावजूद ये लोग खेती से जुड़े रहते हैं और दोनों जगह अपने श्रम को बेचने के लिए विवश हैं। अतः हमारे यहाँ के खेतिहर मजदूर ही शहरों के कारखानों तथा दिहाड़ी के काम में लगे  मजदूर के रूप में मौजूद हैं। खिंलची गाँव के संजीवन राम बताते हैं कि "मनरेगा के तहत साल मे 10-15 दिन ही काम मिलता है और मजदूरी 175 रूपए, जबकि आस-पास के बाजारों मे दिहाड़ी करने पर उन्हें 200-250 रूपए तक मिलते हैं।" जाँच-पड़ताल में हमने पाया कि हरेक गाँव से आबादी के लगभग 10-20% लोग रोजगार हेतु पलायित हैं। इन मजदूरों का जीवन घोर अनिश्चितता से भरा है, अगर उन्हें 2-3 दिन लगातार काम नही मिलता तो इनके घर चुल्हा जलना भी मुश्किल हो जाता है। इस तरह से हम देखते हैं कि भारत का मजदूर वर्ग आज भी गाँवों पर निर्भर है।
        मंझोले किसानों की स्थिति भी बिल्कुल दयनीय है मगर भूमिहीनों के मुकाबले वो ठीक-ठाक हालातों में गुजर बसर कर रहे हैं। मंझोले किसान ज्यादातर पिछड़ी जातियों के ही लोग हैं तथा ब्राह्मणवादी व्यवस्था यहां की हवाओं में घुले  होने के कारण ये अपने आप को भूमिहीनों,दलितों के बजाय बड़े किसानों अथवा सामंतों के ज्यादा करीब समझते हैं। ये खेती- बाड़ी से उत्पन्न अनाजों से पहले तो अपना भरण-पोषण कर लेते थे परंतु बदलते परिदृश्य में इनकी हालत और भी बुरी होती जा रही है। आज देश भर में किसान लगातार स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने हेतु आंदोलनरत हैं क्योकिं इन्हें इनके उगाए गए फसलों का लागत मूल्य तक नहीं निकल पा रहा इसलिए अब ये अपने श्रम का एक हिस्सा फैक्टरियों और कल-कारखानों में भी बेचने को मजबूर हैं। अतः वर्तमान परिदृश्य में खेती इनके लिए बिल्कुल लाभकारी नहीं रह गई है। एक ओर तो उन्हें गाँव के ही जमींदारों तथा बड़े किसानों के शोषण का सामना करना पड़ता है क्योंकि सिंचाई के साधन, मशीनी उपकरण इत्यादि ज्यादातर इन्हीं के पास है तथा दूसरी ओर उन्हें उनके फसलों का भी उचित दाम नहीं मिलता।         
खेती से मुनाफा आज के दौर में केवल जमींदार ही उठा रहे हैं। एक ओर तो वो अधिया, पटवन पर खेत देकर धन वसूलते हैं वहीं दूसरी ओर खेतिहर मजदूरों के श्रम का भी शोषण करते हैं। इन गाँवों मे सिंचाई के समय खेत में पानी पहुंचवाने की दर 150 रूपए प्रति घन्टा है कि चूँकि पम्पिंग सेट, मोटर इत्यादि भी इन्हीं ज़मींदारों और बड़े किसानों के ही पास है इसलिए इससे धन भी यही कमाते हैं। कटाई, बुवाई के समय भी ये अपने ट्रैक्टरों तथा हार्वेस्टरों के माध्यम से अच्छी कमाई कर लेते हैं। यही लोग सबसे अधिक जमीनों के मालिक भी हैं। गाँवों का मुख्य शोषक वर्ग यही है। अपना ही परिवार बँटने की वजह से इनके पास जमीनें पहले की अपेक्षा कम हो गई है तथा खाद बीज के दाम बढ़ने एवं फसल की कीमतों के कम मिलने के कारण इनकी भी स्थिति पहले की तुलना में गिरी है। फिर भी यह गाँव का घनघोर प्रतिक्रियावादी तबका है तथा दलाल पूंजीपति वर्ग के साथ मिलकर वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखने का पक्षधर है।
            गाँव चलो अभियान के दौरान हम रामपुर गाँव में भी गए। इस छोटे से गाँव में सिर्फ चमार जाति के ही लोग बसे थें। इस गाँव के लगभग सभी परिवारों के पास 5-10 बिस्से से लेकर 2-3 बीघे तक जमीनें थी, इस कारण यहाँ के दलित शिक्षित थे और ठीक-ठाक स्थिति मे गुजर-बसर कर रहे थे। यह दर्शाता है कि भारत में जातीय उत्पीड़न आर्थिक शोषण को बरकरार रखने का ही औजार है। जांच-पड़ताल के दौरान पाए गए उपरोक्त तथ्यों से हम समझ सकते हैं कि भारत किस तरह से एक अर्ध सामंती तथा अर्ध औपनिवेशिक देश है।

सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक स्थिति:

   समाज में उत्पादन प्रणाली में जैसा आर्थिक सम्बन्ध होता है उसी के अनुरूप सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक सम्बन्ध भी होते हैं। यही हमने सर्वे के दौरान गाँव में भी देखा।
    चूंकि जिन गाँवों में हमने GVC लिया उसमें ज्यादातर गाँवों में पिछड़ी जातियां, उसमें भी मुख्य रूप से यादव (अहीर), कुर्मी, मौर्या, ही आर्थिक रूप से आगे हैं और धनी किसान हैं।अतः ये जातियां गांवों में एक हद तक सामंती भूमिका भी निभाती हैं और विशेषकर भूमिहीन मजदूरों का शोषण भी करती हैं । हालाँकि ये उच्च जातियों के सामंतों जैसे शोषणकारी, दमनकारी और वर्चस्वशाली नहीं हैं। क्योंकि पिछड़ी जातियां भी उच्च जाति के सामंतों से शोषित रही हैं और आज भी हैं।
      जांच-पड़ताल में हमने देखा की जिन गाँवों में उच्च जातियां हैं वहाँ आर्थिक असमानता और जातिय भेदभाव काफी ज्यादा है।
      आज भी गाँव पूरी तरह से जातियों में बँटे हुए हैं। दलितों की बस्तियाँ आज भी गाँव की दक्षिण दिशा में बसी हुई है। हर जाति अपने से तथाकथित छोटी जाति से घृणा करती है। दलितों व पिछड़ी जातियों में भी ये जातिगत भेदभावपूर्ण व्यवहार देखने को मिला। बल्कि दलितों में भी आपसी जातिगत ऊँच-नीच की भावना मौजूद है। छुआछूत आज भी एक सच्चाई बना हुआ है। चौका-चौकी का भेद आज भी जारी है। लोगों ने बताया कि केवल चुनाव के दौरान ही कभी कभी सवर्ण जाति के लोग दलितों के यहाँ पानी पी लेते हैं, नहीं तो आज भी न तो कोई सवर्ण दलित की थाली में खाना खाता है न ही किसी दलित को सवर्ण अपनी थाली में खिलाते हैं।
    अंतरजातीय विवाह यानी रोटी-बेटी का सम्बन्ध, जिसकी वकालत डॉ. भीमराव आंबेडकर करते हैं, इसकी बानगी तो शायद ही किसी गाँव में देखने को मिली हो। जाति व्यवस्था की मजबूत जड़ो का ही उदाहरण है कि यहाँ अंतरजातीय विवाह का कोई भी मामला देखने को नहीं मिला। साथ ही  पितृसत्तात्मक और सामंती मानसिकता की झलक इस बात से साफ़ दिखी कि गाँवों में लड़के लड़कियों के बीच कोई संवाद तक नहीं है दोस्ती तो इनके लिए दूर की बात है।
आज दलित तथा पिछड़ी जातियों का सांस्कृतिकरण (ब्राह्मणीकरण) बहुत तेज़ी से हो रहा है। वे पूजा-पाठ, शादी-विवाह, पाखंड आदि सभी कर्मकांडो में अपने से ऊंची जातियों की नक़ल कर रहे हैं। सामंती व पूंजीवादी ताकतों द्वारा सांस्कृतिकरण को नए-नए रूपों में ग्लैमराइज़ करके बढ़ावा दिया जा रहा है। आज भी झाड़-फूंक, जादू-टोना और अन्धविश्वास में लोग बुरी तरह उलझे हुए हैं।
            हमने यहां पाया कि पिछले 30-50 सालों में हुए जन विद्रोहों व संघर्षों की वजह से राजनैतिक संबंधों में काफी तेज़ी से बदलाव आए हैं। जिसके बाद से सत्ता पक्ष ने इस शोषणकारी व्यवस्था को बनाए रखने तथा और भी मज़बूत करने के लिए गाँव-गाँव तक अपने दलाल व मुखबीर पैदा किया है। दलितों तथा पिछड़ों में जिन लोगों की आर्थिक स्थिति थोड़ी मज़बूत हुई है, उनकी वर्गीय चेतना में भी बदलाव आया है। उनमें से अधिकांशतः ज़मींदारों, धनी किसानों, सवर्णों तथा विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की दलाली, मुखबीरी व चाटुकारिता में लगे हैं। आमतौर पर पाया कि अगर दलाल दलित जाति का है तो बसपा और पिछड़ी जाति का है तो भाजपा या सपा की दलाली करता है। यह चाटुकार शासक वर्ग(ज़मींदारों, विभिन्न राजनैतिक पार्टियों) के लिए आज सचेतन दलाली का काम कर रहा है। आज गाँव में  सवर्ण जातियों की उनकी जातीय एकजुटता की प्रतिक्रिया में हर जाति के अपने-अपने संगठन जैसे निषादों की पार्टी, प्रजापति समाज इत्यादि है, जिससे जाति व्यवस्था व जातीय बंटवारा और मज़बूत हो रहा है। इन सबकी वजह से आज गाँवों में मज़दूर-किसान को एकजुट होकर अपने शोषण के खिलाफ संघर्ष करने में दिक्कत आ रही है।
         गाँवों में सरकारी योजनाओं का हाल बहुत बुरा है। हर 5 साल पर सरकारें तो बदलती है पर योजनाएं जनता तक बिलकुल नहीं पहुँचती बस कुछ चुनुंदा लोगो तक सीमित रह जाती है। और तो और लोगों को प्रधान व सेक्रेटरी के पास बार-बार दौड़ना पड़ता है और घुस भी खिलाना पड़ता है ताकि उनका नाम सरकारी सुविधाओं की सूची में आ सके। हाल के कुछ सालों में जो कुछ छोटी-मोटी सुविधाएं जैसे ग़रीबों के पेंशन, वृद्धा, विधवा पेंशन आदि आ रही थी वो भी बिल्कुल बंद हो गयी है। मनरेगा में जहाँ एक साल में 100 दिनों का काम और काम ना मिलने की स्थिति में बेरोजगारी भत्ता मिलना चाहिए, वहाँ हाल ये है कि पुरे साल में किसी-किसी को ही 10-15 दिनों तक का काम मिल पाता है। बेरोजगारी भत्ते की बात तो दूर है जो काम करते हैं उनको पूरी मजदूरी भी नहीं मिलती। प्रधान-ठेकेदार मिलकर उनकी मजदूरी गबन कर जाते हैं। ये प्रधान आमतौर से उच्च जाति के सामंत ही होते हैं, जो दलितों को उनके अधिकारों से वंचित ही रखते हैं। जिन गांवों में दलित प्रधान हैं वहाँ भी दलितों की स्थिति व सरकारी योजनाओं की स्थिति में कोई अंतर नही है।
       हाल में सरकार ये दलील देकर एंटी भू-माफिया एक्ट लेकर आयी की जो लोग गाँव में सरकार व ग्राम समाजी भूमि पर कब्ज़ा बनाए हुए हैं उससे ज़मीन वापस ली जाएगी, पर सर्वे में ये बिलकुल उल्टा दिखा। सरकार भू-माफिया के नाम भूमिहीन-दलितों को उनके बसे हुए बस्ती से यह कहकर उजाड़ने पर तुली है कि यह तालाब की ज़मीन है। जबकि असल में हमने पाया कि भू-माफिया वे उच्च जाति के लोग हैं जिन्होंने गाँवों के GS, बंजर, नादिवास, खलिहाल आदि की जमीनों पर कब्ज़ा बनाए हैं। यहां तक की चकबंदी, हदबंदी, सीलिंग एक्ट से जो थोड़ी बहुत ज़मीन दलितों में एक समय में संघर्ष की वजह से बंटी थी उस पर भी ये उच्च जाति के दबंगों ने कब्ज़ा कर रखा है। सरकार उन्हें कुछ नहीं करती बल्कि उल्टा उनको शह देती है। सर्वे में एक महिला उच्च जातियों के दबंगई का जिक्र करते हुए बताती है कि उच्च जाति के दबंगों ने उसके बेटे को मारते-मारते पैर तक तोड़ दिया क्योंकि उसके बेटे ने सामंतों के खेत से चना तोड़ लिया था। FIR के बावजूद उनके ऊपर कोई कार्यवाही नहीं हुई।
      हमने गाँवों में शोषण व गुलामी के उस विभत्स रूप को देखा जिसे चारवाही (बंधुआ मजदूरी) कहते हैं। इन बंधुआ मज़दूरों की स्थिति ये है की उनको अपने मालिक के यहाँ 24 घण्टे रहकर घर से लेकर खेती बाड़ी, गाय-भैंस की देखरेख तक का सारा काम करना पड़ता है। एक साल तक के बंधुआ मजदूरी के लिए इस मज़दूर को बदले में 1 साल के लिए बस दो बीघा ज़मीन खेती के लिए मिलती है। बंधुआ मज़दूरों की हालत ये है कि वो अपने घर भी नहीं जा सकते।अगर घर में कोई बीमार या कुछ ऐसा ज़रूरी काम पड़ जाय तो कुछ घंटों के लिए घर जाते हैं और जल्द से जल्द मालिक के यहाँ लौटने की कोशिश करते हैं। एक बंधुआ मजदूर के घर में बातचीत से हमें यह पता चला की अगर उनके घर कोई मर भी जाय तो उसके पास खबर पहुँचने तक में समय लग जाता है।
सर्वे के दौरान लोगों ने हमें बताया कि इन इलाकों में जन संघर्षों व नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव के कारण सामंती/ जाति उत्पीड़न पहले की अपेक्षा कुछ हद तक कम हुआ है पर ये लोग अभी भी जन संघर्षों व आंदोलनों की ज़रुरत को महसूस करते हैं और अपने आत्मसम्मान की लड़ाई के लिए वो ज़ज़्बा भी इनमें दिखता है।

शिक्षा की स्थिति:

        गाँव में सर्वे के दौरान हमने देश की बदहाल शिक्षा व्यवस्था के निम्नतम स्तर के शिक्षा व्यवस्था को देखा।
     हमने पाया कि ज्यादातर गांवों में प्राथमिक विद्यालय तो हैं पर उसमें 2-3 ही शिक्षक हैं। वो भी विद्यालयों में पढ़ाने से ज्यादा चुनावी ड्यूटी, जनगणना आदि में उलझे रहते हैं और शिक्षा के नाम पर बच्चों को खिचड़ी खिलाई जाती है। मिडिल स्कूल की बात करें तो एक मिडिल स्कूल पर 6-7 गाँवों का बोझ है। ये मिडिल स्कूल भी शिक्षकों की भारी कमी और भ्रष्टाचार से जूझ रहे हैं। 10वीं व 12वीं तक शिक्षा के लिए स्कूल कुछ कस्बों तक ही सीमित है। गाँवों के बच्चों को पढ़ने के लिए 15-20 km तक दुरी तय करके जाना पड़ता है। विद्यालयों में बच्चों के लिए सुविधा के नाम पर सिर्फ कक्षा के लिए कमरे ही हैं। न सही-साफ़-सुथरे शौचालय, न साफ़ पीने का पानी, न पढ़ने लिखने की कॉपी किताब, न प्रयोगशाला, न कोई उपकरण, न ही खेल-कूद की कोई सुविधा है। पिछले कुछ सालों में तो गांवों के कई सरकारी विद्यालय बंद हो गए हैं।
     अपने बदहाल आर्थिक स्थिति और देश की इस निम्नतम स्तर की शिक्षा की वजह से ज्यादार बच्चे या तो अपनी पढ़ाई शुरू भी नहीं कर पाते या कुछ थोड़ा पढ़ने के बाद ही छोड़ने को मज़बूर हो जाते हैं। इन सभी सरकारी विद्यालयों में ग़रीबों, दलितों, मज़दूरों, किसानों के ही बच्चे आते हैं।
     दूसरी तरफ शिक्षा के निजीकरण के कारण निजी स्कूलों की बाढ़ सी आ गई है, जिसकी फीसें इतनी ज्यादा है कि गाँव के गरीब-मज़दूर-किसान के बच्चों का पढ़ना बहुत दूर की बात हो जाती है। इन निजी स्कूलों में सिर्फ सामंतों और छोटे-मध्यम किसान के ही बच्चे पढ़ते हैं।
      उच्च शिक्षा में प्रतियोगिता का स्तर सरकारी स्कूलों से पास हुए बच्चों के अनुरूप न होने से ये बच्चे उच्च शिक्षण संस्थानों तक पहुँच ही नहीं पाते। इस दोहरी शिक्षा नीति की वजह से 100 में से 70 बच्चे 8वीं या 10वीं तक की शिक्षा भी नहीं ले पाते और बीच में छोड़कर गाँव में या शहर में जाकर मज़दूरी करने को बेबस हैं।
     शिक्षा एक मूलभूत अधिकार है जो देश के हर बच्चे को एक समान रूप से मिलना चाहिए पर सरकार की नीतियों और सर्वे में ज़मीनी सच्चाई देखकर ये साफ़ तौर पर पता चलता है कि सरकार/सत्ता वर्ग दलित-गरीब-मज़दूर-किसान को सिर्फ मज़दूर ही बनाए रखना चाहती है और जो लोग कुछ पढ़ भी लेते हैं वो इस मनु-मैकाले शिक्षा पद्धति में क्लर्क मात्र ही बनते हैं।
      सरकार के नई शिक्षा नीति के द्वारा शिक्षा के निजीकरण से विद्यालयों के फण्ड काफी कम हो गए हैं जिसके दुष्परिणाम से शिक्षा महज़ एक वस्तु बनकर रह गयी है। जिसके पास पैसा है वो खरीदे और पढ़े, जिसके पास नहीं है वो नहीं पढ़ सकता।
   सरकारें दावा करती हैं कि इस लोकतंत्र में सबके लिए शिक्षा उपलब्ध है। पर इस गैर बराबरी वाले समाज में बच्चों, जिन्हें देश का भविष्य माना जाता है, को उनके बेहद ज़रूरी और मूलभूत अधिकार से ही महरूम रखा गया है और एक बराबरी की समाज और बेहतर भविष्य की कोरी व झूठी कल्पना की जाती है।

स्वास्थ्य की स्थिति:

        अपने 10 दिनों के गाँव चलो अभियान के सर्वे के दौरान हमने यह पाया कि यहाँ भी स्वास्थ्य की स्थिति देश के बाकी हिस्सों से अलग नहीं है, अपितु पिछड़ा इलाका होने के कारण और भी बदतर स्थिति में है। स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यकता इन इलाकों में बहुत ही दयनीय हालत में है। इन गाँवों के लोगों को गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए प्रायः चंदौली अथवा बनारस ही जाना पड़ता है। नजदीकी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र इलिया तथा शहाबगंज में है, जिसकी दूरी इन गाँवों से 8 से 15 किलोमीटर तक की है। कलपुरवाँ माफी गाँव की रामसोगतिया देवी बताती हैं कि “सरकारी अस्पताल में डॉक्टर ठीक तरह से परेशानी ही नहीं सुनते, आधी बात सुनकर ही दवा लिख देते हैं।ठीक से बताते भी नहीं है कि दवा कब और कितनी बार खानी है। ज्यादातर दवाइयाँ अस्पताल से मिलती ही नहीं है, उन्हें जाकर प्राइवेट दवा दुकानों से भारी रकम खर्च करके खरीदना पड़ता है।” ऐसी ही कहानी हमें कमोबेश हरेक गाँव में सुनने को मिली।
     इन गाँवों में हमें टी बी, खून की कमी, पैरालाइसिस, कोढ़, डायबिटीज, कैंसर इत्यादि गंभीर बीमारियों से पीड़ित मरीज भी मिलें, जो उन्हीं सरकारी अस्पतालों में अपना इलाज करवाने को मजबूर है जहाँ न पर्याप्त डॉक्टर मयस्सर हैं और न ही पर्याप्त दवाइयाँ। ग्रामीण स्वास्थ्य आंकड़ों के मुताबिक मात्र 11% स्वास्थ्य उपकेंद्र ही भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य मानकों पर खरे उतरे हैं, इससे भी सरकार का ग्रामीण क्षेत्रों की स्वास्थ्य सुविधाओं के प्रति गम्भीरता का पता चलता है।
       इन गाँवों की महिलाओं से बातचीत में हमने पाया कि ये ज्यादातर महिलाएँ एनीमिया(खून की कमी) और सिरदर्द व कमर दर्द जैसी बीमारियों से जूझ रही हैं। गाँव में दलितों, मजदूरों, पिछड़ों के आधे से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं। तंगहाली के हालत होने के कारण वे न तो बेहतर खा पी सकते हैं और न ही बेहतर इलाज करवा सकते हैं। ये इलाका करैल माटी (काली मिट्टी) का होने के कारण यहां बिच्छू काटने की घटनाएं भी प्रायः घटित होते रहती है। स्वास्थ्य केंद्र दूर होने तथा इन केन्द्रों में बिच्छू के डंक का समुचित इलाज न होने के कारण वे प्रायः या तो गाँव के ही झोलाछाप डॉक्टरों के फेर में फंस जाते हैं अथवा झाड़-फूंक,ओझागिरी में। इस कारण उनका उचित इलाज नहीं हो पाता तथा वह कई तरह के संक्रमणों से पीड़ित हो जाते हैं। गंभीर बीमारियां होने पर भी इनमें से ज्यादातर लोग प्राइवेट अस्पतालों में नहीं जा पाते हैं क्योंकि उसका खर्च ये वहन करने की स्थिति में नहीं होते। बेहद गरीबी के हालातों में जब लोगों को कोई गंभीर बीमारी जकड़ लेती है तो उन्हें इलाज के लिए हजारों का कर्ज लेना पड़ता है। ऐसे में ज़्यादा ब्याज दर और न चुका पाने की स्थिति में ये उन पर एक बड़ा बोझ बन जाता है।
      भारत अपने नागरिकों की सेहत पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों में से है। इस बार भी सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद(GDP) का महज 1.3% ही स्वास्थ्य सुविधाओं की ओर खर्च किया है, जबकि वैश्विक औसत जीडीपी का 6% है। सरकारें आज भी बुनियादी सुविधाओं को ठीक करने की जगह बीमा का झुनझुना पकड़ा दे रही है। इन गाँवों के सर्वें में हमने देखा कि सरकारों ने किस तरह लगातार ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ खिलवाड़ किया है तथा कल्याणकारी राज्य होने का जो भ्रम था उसे भी समाप्त कर दिया।

महिलाओं के बारे में:

     आज भी गाँव में महिलाओं की स्थिति में कोई ख़ास गुणात्मक बदलाव नहीं आया है। गाँव में पहली चीज़ जो हमने महिलाओं के बारे में पायी वह यह थी कि बहुत ही कम उम्र से उन्हें घर के कामों में झोंक दिया जाता है। गाँवों में लडकियां घर का काम कर के ही स्कूल जा सकती हैं। लड़का- लड़की में कई तरह के भेदभाव वहाँ देखने को मिले। लड़कियों को जल्द ही घर कि चारदीवारी में कैद कर दिया जाता है। बहुत कम लड़कियां ही 8वीं के बाद स्कूल जा पाती हैं। 16 वर्ष से ज़्यादा की लड़कियां न के बराबर देखने को मिली क्योंकि इस उम्र तक आते-आते उनकी शादी करके उनके माँ बाप इस ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं। महिलाएं परिवार और ग्रामीण समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई होने के बाद भी दोहरे शोषण का शिकार हैं। पहला, समाज में मौजूद वर्ग संघर्ष में एक सर्वहारा होने के कारण शोषण। दूसरा, पितृसत्ता के द्वारा शोषण, जिसे वे घर से लेकर बाहर तक झेलती और लड़ती हुई अपनी ज़िंदगी काटती हैं। हमने GVC में देखा कि ग्रामीण उत्पादन सम्बन्ध में उनके श्रम का योगदान पुरुषों से ज़्यादा है। महिलाएं घर में काम करने के साथ-साथ खेतों में भी काम करती हैं। फिर भी कहीं भी उनके श्रम का सम्मान नहीं होता है। सदियों से आज तक महिलाओं को जातिगत भेदभाव के साथ लिंगगत भेदभाव का भी सामना करना पड़ रहा है।
   हमारे पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं कि स्थिति न ही उनके पढ़े लिखे होने से तय होती है और न ही उनके ज़्यादा गुणवान होने से; यह बात बस इस चीज़ से तय होती है कि उसका पति कैसा है या उसके ससुराल के लोग कैसे हैं। ये बात गाँव में हमें और साफ़ तरीके से समझ आयी। उन्हें देखकर ऐसा लगा कि वे एक निर्वासित जीवन जी रही हैं जिसमें कहने को तो सब उनका ही है पर हक जताने को कुछ भी नहीं।
     हमने जिन गाँवों का सर्वे किया, वहाँ की महिलाओं को दो भागों में बाँटकर उनकी स्थिति को समझा जा सकता है। एक ओर उच्च जाति और उच्च वर्ग की महिलाएं हैं, जो लगातार घरों में ही रहती हैं और आज भी सामंती परम्पराओं में जकड़ी हुई हैं। जो आज भी पितृसत्ता की चारदीवारी में कैद हैं और किसी भी तरह के फैसले लेने के लिए स्वतन्त्र नहीं हैं। चाहे वो उनके व्यक्तिगत जीवन से जुड़ा हो, या पारिवारिक या सामाजिक, वे अपने घर के पुरुषों का ही निर्णय मानने के लिए बाध्य हैं। भले ही इनका जीवन स्तर दलित महिलाओं से बहुत अच्छा और आरामदायक है, लेकिन इसके बदले जो इनसे छीन लिया गया है उसके प्रति ये बिलकुल सचेत नहीं हैं। और अस्तित्वविहीन होकर सामंती पुरुषों की तरह ही मानसिकता रखती हैं। वे अपने आप को दलित और श्रमिक महिलाओं से अलग तथा श्रेष्ठ मानती हैं। विचारों में ये उतने ही प्रतिक्रियावादी हैं जितने की ब्राह्मणवादी पुरुष। दूसरी ओर नीची जाति और निचले वर्ग की महिलाएं हैं, जिन्हें आर्थिक कारणों से घर से बाहर भी श्रम करना मजबूरी बन जाता हैI ये महिलाएं अपने परिवार को भूख की तड़प से बचाने के लिए जी तोड़ मेहनत करती हैं और सीधे समाज की अर्थव्यवस्था से जुड़ी रहती हैं। यही कारण है कि ये महिलाएं पहले श्रेणी कि महिलाओं कि तुलना में कुछ स्वतंत्र होती हैं। फिर भी पितृसत्ता इन महिलाओं का पीछा नही छोड़ती। गैर-बराबर आय, छेड़छाड़ जैसी तमाम पितृसत्तात्मक मूल्यों का सामना इन्हें करना पड़ता है। पुरुषों के जितना ही मेहनत करने के बाद भी उन्हें कम मजदूरी दी जाती है। सर्वे के दौरान कुछ महिलाओं ने बताया कि रोपनी-सोहनी में बराबर घंटे काम करने पर जहाँ एक दिन में महिलाओ को 50 रुपये दिए जाते हैं वहीं पुरुषों को 70 रुपये दिए जाते हैं।
       गांवों में महिलाओं की इन स्थितियों को देखकर यह पूर्ण विश्वास हो जाता है कि भारत के गाँव सामंतवाद के गढ़ हैं। हमने यह भी पाया कि महिलाएं पितृसत्ता को लेकर तो नहीं लेकिन उच्च जाति की सत्ता व उनके द्वारा किए जा रहे शोषण के खिलाफ सचेत दिखीं।
     संघर्ष के प्रति महिलाओं में पुरुषों के मुकाबले ज्यादा जुझारूपन देखने को मिला। अन्तिम जिन दो गाँवों में हम दो दिन रुके और लोगों के साथ मीटिंगें की उसमें महिलाओं की संख्या या तो पुरुषों के बराबर थी या उनसे ज्यादा। मीटिंग में महिलाएं सबके सामने बात रखने से झिझकती जरूर थी जो कि पितृसत्तात्मक ढांचे की देन थी पर जो महिलाएं बात रखने को राज़ी हो जाती वो बहुत ही बढ़िया बातचीत रखती और साथ ही सबसे संगठन बनाने की अपील करती। इन मीटिंगों में मुख्यतः नीची जाति की महिलाएं ही आती थी जबकि हम पूरे गाँव के लोगो को बुलाते थे। एक महिला ने हमें समझाते हुए कहा "बिटिया, हम गरीबों के पास संगठन के सिवा कोनो और ताकत नही है, कोई सरकार हमारे लिए नही आएगी ये हम बहुत पहले ही समझ गए हैं।" महिलाओ में लड़ने की यह चेतना हमें हर गाँव में देखने को मिली।

निष्कर्ष:

        गाँव में ज़मीन के सवाल को हमने मुख्य अंतर्विरोध के रूप में पाया। ज़मीन की लड़ाई के बिना जनवाद की कोई लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। आज भी ज्यादातर ज़मीने उच्च जातियों तक ही सीमित है। नीचे जाति जैसे चमार, डोम, दुसाद इत्यादि अधिकांशतः भूमिहीन हैं तथा इनमें से कुछ परिवारों के पास न के बराबर ज़मीनें (2-5 बिस्सा) ही है। आर्थिक गैरबराबरी का प्रभाव सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक स्तरों पर भी साफ़ दिखा। जो उच्च जाति के लोग जमींदार व सामंत हैं, गाँव में उन्ही की दबंगई चलती है। जिन दलित व पिछड़ी जाति के कुछ लोगों के पास थोड़ी बहुत ज़मीने है उनमें थोड़ा आत्मनिर्भरता दिखी। इस आत्मनिर्भरता की कमी स्पष्ट रूप से भूमिहीनों में दिखी जिसमें ज्यादातर दलित व पिछड़ी जाति के ही लोग थे। जनवाद की लड़ाई में भूमिहीनों के आत्मनिर्भरता के लिए उन्हें ज़मीनों के अपने अधिकार को पाना होगा। "ज़मीन जोतने वालों की" नारे के साथ उन्हें संघर्ष को बढ़ाना होगा।
हमारे इस अभियान के दौरान गाँवों में हमने एक क्षण के लिए भी नहीं देखा की लोग हमसे उबते या घृणा करते हो। लोगों ने अपने बच्चों की तरह हमारा ख्याल रखा और अपने घरों में जगह दी। खास तौर पर दलित, गरीब, शोषित, उत्पीड़ित जनता की बात हम यहाँ कर रहे हैं। हमने यह भी देखा कि जनता मूर्ख नहीं है; लोग दोस्त और दुश्मन पहचानते हैं। इसका पता नाटक के अंत में जनता का हमारे साथ व्यवहार देख कर चलता है।
    जनता के पास जीवन तथा राजनीति से संबंधित ज्ञान है, लेकिन ये ज्ञान उलझा हुआ है, साफ व्यवस्थित नहीं है। उसकी वजह है कि उनके पास संघर्ष की सही दिशा नहीं है। ताकि लोग अपने ज़मीन और रोज़गार के अधिकार के लिए तथा शोषण के खिलाफ संगठीत हो सके।
 लोग यह जानते हैं कि बिना संगठित हुए कोई लड़ाई जीती नहीं जा सकती। बस जरूरत है तो एक विकल्प की। हम छात्र- छात्राएं आप सभी छात्रों, नौजवानों, बुद्धजीवियों तथा शोषण के खिलाफ खड़े हर व्यक्ति से यह अपील करते हैं कि जनता के साथ एक राजनीतिक विकल्प की लड़ाई में साथ आएं ताकि हम देश में ज़मीन और रोज़गार के सवालों तथा जाति व्यवस्था और महिला उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने के लिए जारी जनता के संघर्षों के हिस्सेदार बन सकें और शोषण व गैरबराबरी मुक्त नवजनवादी समाज का निर्माण कर सकें।


संपर्क:+918004246042

Monday, August 13, 2018

उमर खालिद पर फासीवादी हमले के विरोध में

कांस्टीट्यून क्लब के पास JNU के पूर्व छात्र उमर खालिद पर हुए जानलेवा हमले का भगत सिंह छात्र मोर्चा निंदा करता है और साथी उमर खालिद  के साथ पूरी एकजुटता रखता है।
और इस हमले को फासीवाद के उसी हमले की कड़ी से जोड़ कर देखता है जो देश भर में अल्पसंख्यकों,दलितों,आदिवासियों और महिलाओं के ऊपर हो रहे है। साथ ही साथ भगत सिंह छात्र मोर्चा सभी जनवादी पसंद लोगों से ये अपील करता है सभी इसका मुकाबला फासीवाद के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चे बनाकर करने की जरुरत है।

हमलावार को जल्द से गिरफ्तार कर उस पर कारवाई हो!
उमर खालिद को सुरक्षा मुहैया करवाया जाय!

इन्कलाब जिंदाबाद!

भगत सिंह छात्र मोर्चा!

Wednesday, August 1, 2018

बीएचयू प्रशासन द्वारा लोकतांत्रिक आवाज उठाने वाले छात्र छात्राओं को डिबार करने के विरोध में

साथियों,
        विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा न्यायिक व्यवस्था व UGC के नियमों को ताक पर रखकर लगातार छात्रों पर जो हमला किया जा रहा है,उसके खिलाफ आज दिनांक 31 जुलाई 2018 को लंका गेट, BHU पर भगत सिंह छात्र मोर्चा द्वारा एक प्रतिरोध मार्च तथा सभा का आयोजन किया गया।
तार्किक-सैद्धांतिक-व्यावहारिक शिक्षा जो सबका बुनियादी अधिकार है उसका लगातार भगवाकरण तथा बाजारीकरण किया जा रहा हैं। इन सबके विरोध में व अपने हक-अधिकारों के लिए जो छात्र मुखर रहे हैं उनको लगातार निशाना बनाया जा रहा है। इसी कड़ी में यह "डिबार" का भी हमला है। विगत दिनों सितंबर के छात्रा आंदोलन को प्रायोजित व स्पाॅन्सर्ड कह कर जिस तरह चीफ प्रॉक्टर रोयना सिंह द्वारा बदनाम किया गया, उसके विरोध में बीएचयू के छात्र-छात्राएं उनसे यह मांग करने प्रोक्टोरियल बोर्ड ऑफिस गए थे, कि या तो आप अपनी बातों के आलोक में सबूत पेश करें या फिर माफी मांगे। लेकिन इसके उलट उनके द्वारा छात्रों पर फर्जी एफआईआर करके धारा 307 जैसे संगीन मामलों में फंसा दिया गया। इस मामले की जांच के लिए जो स्टैंडिंग कमेटी बनी उसकी एक सदस्य खुद चीफ प्रोक्टर रोयना सिंह थी। उस स्टैंडिंग कमिटी ने बिना छात्रों का पक्ष जाने उन पर तानाशाही भरा एकतरफा फैसला थोप दिया ताकि विश्वविद्यालय के मुखर रहे छात्रों को डराया जा सके। "डिबार" करके उन छात्रों का भविष्य बर्बाद किया जा रहा है। 'डिबार' किए गए छात्र अब न तो बीएचयू के आगामी कोर्सेस मे दाखिला ले सकते है और ना हि बीएचयू मे कभी नौकरी कर सकते हैं।



इससे यह साफ पता चलता है कि कैंपस मे प्रगतिशील तथा लोकतांत्रिक छात्रों पर किस तरीके से लगातार हमला किया जा रहा हैं। "भगत सिंह छात्र मोर्चा" यह मांग करता हैं कि BHU प्रशासन अपने तानाशाही भरे रवैये से बाज आये  तथा लोकतांत्रिक मूल्यों को ताक पर रखकर जो उसने छात्रों के "डिबार" का फैसला लिया है उसे वापस ले तथा विश्वविद्यालय में लोकतांत्रिक माहौल कायम करे, अन्यथा हम एक सप्ताह बाद सभी छात्रों व संगठनों के साथ मिलकर एक बड़ा आंदोलन खड़ा करेंगे। प्रदर्शन में प्रशासन के रवैये तथा शिक्षा के बाजारीकरण,भगवाकरण के  खिलाफ जमकर नारेबाजी की गई। सभा का संचालन विनय ने किया । सभा मे मुख्य रूप से आकांक्षा, दीपक, नीतीश इत्यादि ने बात रखी। मौके पर अमरदीप, राधिका, रोहित,किशन, शाश्वत,दिनेश,आशीष समेत चालीस-पचास लोग मौजूद थे।
#छात्र_एकता_जिंदाबाद
#इंकलाब_जिन्दाबाद

*भगत सिंह छात्र मोर्चा,ऊ•प्र*
सम्पर्क :- 7379731568,9122113582

Thursday, July 12, 2018

महान नक्सलबाड़ी विद्रोह के दौरान प्रेसीडेंसी जेल की कक्ष पर एक क्रांतिकारी छात्र की कविता

प्रेसीडेंसी जेल,कोलकाता की एक सेल की दीवार पर लिखी कविता जिसे सम्भवतः किसी विद्यार्थी ने महान नक्सलबाड़ी विद्रोह के समय लिखा था !

शांत!
यहां मेरा भाई सोया है
उसके लिये खड़े मत हो
एक पिला चेहरा और उदास हृदय लिये
वह तो एक मुस्कुराहट है
उसके शरीर को फूलों से मत ढको
एक फूल पर और फूल चढ़ाने से क्या फायदा ?
अगर कर सकते हो
तो उसे अपने दिल मे दफ़नाओ
तुम पाओगे की
तुम्हारे हृदय के पंक्षियों की चहचहाहट से
तुम्हारी सोई हुई आत्मा जाग गयी है
अगर कर सकते हो
तो कुछ आंसू बहाओ
और
बहा दो अपने शरीर का सारा रक्त ।

अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद-अंकित साहिर

Friday, July 6, 2018

आपातकाल और फ़ासीवाद पर सेमिनार की रिपोर्ट।


25 जून आपातकाल के अंधेरे दौर को याद करते हुए फ़ासीवाद विरोधी मोर्चा,गोरखपुर परिक्षेत्र ने 28 जून को अधिवक्ता सभागार कलेक्ट्री कचहरी गोरखपुर में  एक संगोष्ठी आयोजित किया। जिसका विषय 'भारतीय राज्य का चारित्र:आपातकाल से फ़ासीवाद तक' था।
दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के शिक्षक रहे सामाजिक कार्यकर्ता शमसुल इस्लाम ने गोष्ठी में व्यक्तव्य देते हुए कहा कि "भारत में राजनीतिक फांसीवाद समाज से अपनी ताकत हासिल करता है। ब्राह्मणवाद एक प्रवृत्ति है यह हमारे परिवार से लेकर समाज तक व्याप्त है। ब्राह्मणवाद के कारण राजनीतिक फासीवाद को आधार मिलता है । फांसीवाद भारतीय राजनीति में स्थाई प्रवृति बन गई है। वर्तमान सरकार सामाजिक एवं राजनीतिक दोनों स्तरों पर दमन बढ़ा रही है । उसके दमन से सबसे कमजोर लोग उत्पीड़ित हो रहे हैं।आरएसएस जैसे सांप्रदायिक संगठनों ने कभी लड़ाई नहीं लड़ी बल्कि उन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेजों का सहयोग किया। आपातकाल में भी माफी मांग कर जेलों से बाहर आए। इसका मुकाबला जनता को साथ लेकर और उसे प्रशिक्षित कर किया जा सकता है।

 संगोष्ठी का प्रारंभ करते हुए हिंदी के प्रोफेसर राजेश मल्ल ने कहा कि "ऐसे समय कि हमने परिकल्पना नहीं की थी। एक विशेष सांप्रदायिक संगठन के उभार के साथ पूर्वांचल की परंपरा समाप्त होने लगी है। यहां की उदार संस्कृति का सांप्रदायिकरण किया गया। पूरे समाज को बिहड़ में बदलने की कोशिश की जा रही है। जनता को इस विषय में शिक्षित किया जाना शेष है।
 शिक्षक व नेता राम प्रसाद राम ने कहा आज कि "सरकार सभी को अपने विचार व्यक्त करने से रोकती है। सरकार शिक्षा और संस्कृति का भगवाकरण करना चाह रही है ।"
शिक्षक असीम सत्यदेव ने कहा "सत्ता का पूरा जोर लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों को छीनने का है या सत्ता किसी भी प्रकार की असहमति को बर्दाश्त नहीं कर रही है। जनता जुल्म के खिलाफ एकजुट हो रही है जबकि शासन सत्ता पूंजीपतियों के हित में उनका दमन कर रही है ।
सोनू सिद्धार्थ ने कहा "देश में सामाजिक स्तर पर सैकड़ों बरस से फ़ासीवाद है। आज़ादी के बाद लोकतंत्र से दलित जनता को यह उम्मीद थी कि उन्हें सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक बराबरी मिलेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आज संविधान की धज्जियां उड़ाई जा रही है।"
 जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष वरिष्ठ पत्रकार मनोज सिंह ने कहा कि "देश में अघोषित आपातकाल है। मानवाधिकार आयोग उत्तर प्रदेश की पुलिस को कानून के हिसाब से काम न करने वाली बताया। साम्प्रदायिक,जातीय उत्पीड़न की घटनाएं तगतरब्बड़ रहीं है। कबीर के नाम पर पाखंड हो रहा है कबीर के नाम से शुरु करने से अच्छा होता उस आमी नदी को साफ किया जाता। उनके बुनकरों की दशा सुधारी जाती। यह व्यवस्था सिर्फ प्रचार कार्य में ज्यादा मशगूल है। वास्तविकता से कोई वास्ता नहीं है।
इस संगोष्ठी को बृजेश, महेंद्र, योगेंद्र, शोबिना, राजू, परदेशी बौद्ध जी ने संबोधित किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्रो.चंद्रभूषण अंकुर ने किया तथा संचालन कृपाशंकर ने किया। गोष्ठी में जनवादी गीत भी गाकर सभागार को गुंजायमान रखा गया।

Monday, May 14, 2018

बुकलेट: ब्राह्मणवादी हिंदुत्व फासीवाद को समझने के लिए..........


बेमक़सद मर जाना नहीं 
( पंजाब में वरवर राव का भाषण )


लिप्यान्तरण : जितेंद्र

“छात्र मशाल” अखबार


वरवर राव तेलगू के प्रसिद्ध कवि और रेवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट के अध्यक्ष है।
तेलगू भाषी वक्ता के हिंदी व्यक्तव्य की वजह से लिप्यान्तरण में कुछ शब्दों व वाक्यों की समस्या हो सकती है। 

  
         बेमक़सद मर जाना नहीं, हमारा एक मकसद है। आज BJP के आने के बाद देश में क्या होने वाला है? क्या बीजेपी के आने से ही इस देश में हिंदुत्व की मानसिकता आयी है। या पहले से ही हिंदुत्व की मानसिकता आयी है। आज BJP के रूप में खास करके मोदी के रूप में या कहा जाता है कि मोदीत्व के रूप में या और आगे जाकर भी कहा जाता है कि मोबामा के रूप में। यह जो अभिव्यक्ति हो रही है। इसकी जड़ कहां है? क्योंकि ऐसा नहीं है कि बीजेपी या मोदी के आने से पहले यह देश बहुत धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक था। यह बहुत जनतंत्रवादी था। Bjp के आने से ही यह देश बदल गया है ऐसी बात तो नहीं है। पर हमारी खास करके मिडिल क्लास और बुद्धिजीवियों की जो मानसिकता है। उदास होने के कारण हो या नहीं समझने के कारण हो। जो भी है वहां से यहां तक हमको लाया है। यह सोचे बगैर इतिहास को जाने के बगैर हम आज के बीजेपी या इसके हिंदुत्व के बारे में नहीं समझ सकते हैं। जब तक नहीं समझ सकते हैं तब तक इसके विरोध में संघर्ष भी नहीं खड़ा कर सकते हैं।
 जैसा अभी साथी ने कहा कि हिटलर का फांसीवाद 1930 के साम्राज्यवादी संकट से गुजर कर आया। जर्मनी में इटली में जापान में हिटलर, मुसोलिनी, तोजो यह तीन नियंता थे। यह तीनों साम्राज्यवादी संकट के आगे रखे हुए प्रतिनिधि थे। 1930 की स्थिति आज फिर से एक बार आई है। जैसा मार्क्स कहता है इतिहास दोबारा प्रतिबिंबित होता है यह ट्रेजडिक रूप में आता है। आज उसी ट्रेजडी का दौर आ रहा है। 1930 में साम्राज्यवाद भयानक मंदी में गया था। उससे उबरने के लिए जितने भी रास्ते रूजवेल्ट के नेतृत्व में ढूंढे थे, वह चार बार चुना गया फिर भी हल नहीं कर पाया। तो उससे निकलकर स्पेनिश युद्ध आया था। उससे निकलकर दूसरा विश्वयुद्ध आया था। तब तक अपने संकट से उबरकर बाहर आने के लिए एक हिटलर के रूप में फासीवाद को आगे लाए थे। उस समय में उससे टक्कर लेने के लिए एक समाजवादी सोवियत संघ था। उसके नेतृत्व में पूरी दुनिया के जितने भी फासिस्ट विरोधी लोग थे वह खड़े हुए थे। उसके नेतृत्व में संघर्ष किए थे, जनयुद्ध भी हुआ था। उसमें फासीवादी ताकतें हार गई थी। और लोकतांत्रिक ताकतें उभरकर सामने आई थी। स्थिति तो वही है पर हमको नेतृत्व देने वाला एक सोशलिस्ट शिविर नहीं है। बहुत से लोगों के मन में यह भावना है। पर इसी समय में हम सबको मालूम है कि उस समय से अगर आज की तुलना किया जाए तो दुनिया भर में लोकतंत्र व समाजवाद जानने वाले 1940 से लेकर बहुत लोग बढ़ गए हैं। इराक के युद्ध के समय में द हिंदू में एक कार्टून आया था। बच्चा पूछता है डैडी से कि पूरे दुनिया मे जितनी भी सरकार हैं अमेरिका के समर्थन में खड़ी है। पर जितनी भी जनता है वह अमेरिका के विरोध में खड़ी है। इसको कौंसिलिडेट करना है। ऐसा शिविर कहीं है तो उसको ढूंढना है। हमने 1976 तक चीन में ढूंढ़ा था, 2006 तक नेपाल में भी ढूंढ रहे थे और अभी भी फिलीपींस, टर्की जैसे देशों में साम्राज्यवाद से टक्कर लेने वाले एक जनयुद्ध की तरफ भी हम देख रहे हैं। 
    इस समय पूरी दुनिया एक तरफ देख रही है। जो भारत में फासीवाद-साम्राज्यवाद-ब्राह्मणीय सामंतवाद से टक्कर लेने वाली एक नई दुनिया दंडकारण्य में बन रही है। जहां एक करोड़ लोग रहते हैं। आदिवासी लोग रहते हैं। क्रांतिकारियों के नेतृत्व में एक जनताना सरकार को बना रहे हैं। उसके विरोध में जो 2006 से लेकर ऑपरेशन ग्रीन हंट चलाया जा रहा है। पहले तो सलवा जुडूम था और दमन हुआ था जैसा ईस्ट इंडिया कंपनी के समय में आदिवासियों के ऊपर होता था। महिलाओं के ऊपर अत्याचार, गांव जलाना यह सब होता था। ऐसा सलवा जुडूम के लोग करते थे। बाद में ऑपरेशन ग्रीन हंट आकर आज तक जो चल रहा है। वहां 3,00,000 पैरामिलिट्री फोर्सेज को भेजा गया है। चाहे बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स, नागा बटालियन, सीआरपीएफ जो भी नाम लीजिए जितने भी पैरामिलिट्री फोर्स हैं उन सबको भेजा गया है। और उनको पूरा मिलिट्री का इंफ्रास्ट्रक्चर दे दिया गया है। इजराइल से लाए हुए मिसाइल का प्रयोग कर रहे हैं। ग्रेनेड प्रयोग कर रहे हैं। सैकड़ों लोगों को मार डाल रहे हैं। महिलाओं के ऊपर अत्याचार हो रहा है फिर भी वहां के आदिवासी लोग उत्पादन में भाग लेते हुए अपनी एक सरकार जहां एक करोड़ जनता रहती है वहां बना लिए हैं। आपके लिए खास बात है कि भारत के इतने बड़े इलाके में लाखों किसान खुदकुशी कर चुके हैं लेकिन दंडकारण्य में एक भी किसान खुदकुशी नहीं किया है। आप मीडिया और सरकार के भी आंकड़े देख सकते हैं। क्योकि वे एक  वैकल्पिक लोकतंत्र बना लिए हैं।
 क्योंकि आज हमारा सवाल है कि bjp आने से लोकतंत्र को खतरा है। पहली बात यह है कि इन्हें हमारी मनस्थिति को बदलना है। जैसा कि पाउलो फ्रेरे बोलकर एक बड़ा शिक्षाविद कहता है। अब तक जो सीखे हैं वह भूल जाना है। अब तक हमें जो सिखाया गया है कि इस देश को राम से लेकर जितने अवतार हैं उन्होंने बनाया है। या इस देश को राजा लोगों ने बनाया है। या नेहरू से लेकर प्रकाश सिंह बादल तक ने बनाया है। हमें कोई यह नहीं बताया कि इस देश को इस देश की जनता ने बनाया है। वैसे ही इस देश को अगर शासन देना है तो एक संसद बनाना है। उस संसद में बैठे हुए लोग ही देश को चलाते हैं, शासन करते हैं। 121 करोड़ जो जनता इनका काम सिर्फ इतना है कि साल में एक बार वोट दें। बस लोकतंत्र बन गया। इसको लेकर बहुत चर्चा चलती है। लेकिन लोगों के जीवन में जो लोकतंत्र होता है। जो संस्कृति में लोकतंत्र होता है। आपस में जो लोकतंत्र होता है। गांव में रहने वाले लोगों में जो इंसानियत के संबंध होते हैं। इसको हम नहीं समझते हैं। यानी इस दिए हुए पार्लियामेंट्री फ्रेमवर्क से बाहर हम नहीं सोचते है। यानी हम खुद अपने ऊपर एक सरकार को लाकर रख लिए हैं। और यह मनःस्थिति बन गई है कि ये सरकार हमें चलाएगी। इससे बाहर आ करके अपना राज हम ही चला सकते हैं। अपनी चीजें हम खुद ही तय कर सकते हैं। जमीनी स्तर से, गांव के स्तर से हमको जो चाहिए वह हम तय कर सकते हैं। जितने भी आदिवासी इलाके की जमीन है। वे बांट लिये है। कोई भी आदिवासी परिवार नहीं है दंडकारण्य में जिसके पास जमीन नहीं है।
 सौ साल पहले ब्रिटिश काल में 10 फरवरी को गुंडाधूर के नेतृत्व में वहां  जो भूमकाल क्रांति आई है । वैसे तो बहुत आदिवासी इतिहास सुनते हैं आप सिद्धू कान्हू, बिरसा मुंडा आदि। उन्होंने कहा अपना गांव में अपना राज। वे राजाओ के खिलाफ भी लड़े है, ब्रिटिश के खिलाफ भी लड़े है। और फाँसी पर चढ़े है। आदिवासी लोग जबसे ऑस्ट्रेलिया में या अमेरिका में पूंजी ने प्रवेश किया है तब से पूंजी के विरोध में संघर्ष किये है। यह कोई नई बात नहीं है। 500 सालों से लड़ रहे हैं। कोलंबस के समय से, भारत में वास्कोडिगामा के समय से वे साहस से लड़े हैं मगर हार गए थे। लेकिन पहली बार भारत में ही ऐसे संघर्ष को नक्सलबाड़ी में आदिवासी के संघर्ष को यानी आदिवासी-किसान संघर्ष को एक विश्व दर्शन का नेतृत्व मिला। एक सिद्धांत का नेतृत्व मिला। तब से लेकर वह आदिवासी संघर्ष चला रहा है। इसलिए तो साम्राज्यवाद सामंतवाद इस संघर्ष को मिटा नहीं पा रहा है। हमारी समझ है, जो रेवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट की समझ है कि ऐसा जो लोकतंत्र होता है वह क्रांति से आने वाला लोकतंत्र होता है। वह कोर्ट से, संसद से आने वाला बुर्जुआ लोकतंत्र नहीं होता है। बुर्जुआ लोकतंत्र का भी आप इतिहास पढ़ सकते हैं बहुत शोध हुआ है। औद्योगिक क्रांति के बाद फ्रांस की क्रांति के बाद बुर्जुआ लोकतंत्र भी प्रदेश में आना मुमकिन नहीं है। इंग्लैंड और फ्रांस दो ही देश है जहां सामंतवाद को ध्वस्त करके पूंजीवाद आया है। रूल ऑफ़ लॉ की बात इंग्लैंड में हो सकती है। समानता स्वतंत्रता बंधुता की बात फ्रांस में हो सकती है। पूंजी और भी आगे जाकर एक एकाधिकार बनती है। एक साम्राज्यवाद बनता है। तो कहीं भी साम्राज्यवाद बुर्जुआ लोकतंत्र को नहीं आने देता है। यह है हमारा अनुभव 1857 में। उससे उभर कर जो आया है हमारे यहां तो इसको  ब्राह्मणीय सामंतवाद से समर्थन मिला है। कुछ लोग ब्राह्मणवाद कहते हैं। कुछ लोग सामंतवाद कहते हैं। मगर भारत में जो है वह ब्राह्मणीय सामंतवाद है। 
राम के समय से लेकर वर्ण समाज के समय से लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी के आने तक इस देश में जो चला है वह ब्राह्मणीय सामंतवाद है। उसकी रक्षा करने के लिए जितना भी रामायण लिखा गया है। पुराण पढ़िए रामायण पढ़िए। ऋषि व क्षत्रियों के बीच में जो तालमेल है। क्षत्रीय राज को निभाने के लिए ब्राह्मण यज्ञ करते हैं। क्षत्रिय लोग ऋषियों को सैकड़ों एकड़ जमीन दे कर के उसका पाल पोस करते हैं। जो भी पौराणिक ग्रंथ पढ़िए एक एक ऋषि के पास सैकड़ों एकड़ जमीन रहता है। बड़ा आश्रम मेंटेन करता है। एक तरफ तो वह सन्यासी है। क्यों? ये जो पुरोहित वर्ग है क्षत्रियों का जो शासन चल रहा है। जितना भी सामंतवाद का दमन चल रहा है। उसका समर्थन करने के लिए एक बौद्धिक वर्ग आज हम जिसे नौकरशाही कहते हैं वैसा एक नौकरशाही बनाए हैं। आज भी सरकार जो विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ) बना रही है,भूमि अधिग्रहण कानून के माध्यम से उसी समय की तरह जमीन देने की बात कर रही है और वो राम क्या किया है? जंगल में जाकर आदिवासियों को मार डाला है राक्षस के नाम से। बस फर्क इतना है कि उस समय मे दंडकारण्य से होकर श्रीलंका को गया था। आज भी सरकार श्रीलंका से होते हुए दंडकारण्य में आयी है। यानी यह ब्राह्मणीय सामंतवाद ईस्ट इंडिया कंपनी आने के बाद, 1857 होने के बाद दलाल बन गया है साम्राज्यवाद का। अंग्रेज लोग भी यह सीख लिए कि इंग्लैंड में जो प्रयोग किए हैं या फ्रांस में जो प्रयोग किए हैं कि सामंतवाद को ध्वस्त करके पूंजीवाद ला सकते हैं। यह भारत में नहीं चलेगा। इससे हम दोस्ती करेंगे, इसको हम कोऑप्ट करेंगे। 1857 में तय कर लिया है। क्योंकि पूरी रियासतों,संस्थानों के ऊपर युद्ध था। आपको तो मालूम है पूरा इतिहास । बहादुर शाह के नेतृत्व में झांसी की रानी हो, चाहे तात्या टोपे हो जितने भी लोग लड़े हैं वह सब रियासत के प्रतिनिधि थे राजा थे। वह राजा के नेतृत्व में जो सामंतवाद है उसको ध्वस्त करके यहां पूंजी लगाना चाहते थे। मगर यह तय कर लिया है कि यह होने वाला नहीं है। जब यह होने वाला नहीं है तब इनको कोऑप्ट करेंगे। इनको दोस्त बनाएंगे यह हमारे दलाल बनेंगे और बना लिया है। वह भी लोग सोचे कि हमें अंग्रेजों से टक्कर नहीं लेना है दोस्ती करना है। क्योंकि यह समझ लिया है कि हमारा जो ब्राह्मणीय सामंतवाद है उसको यह खत्म करने वाला नहीं है बल्कि उसको नए ढंग से निभाने वाला है। तब तक तो भारत की पूरी जनता, जो लड़ी हैं वर्दी पहनकर वह सब किसान के बेटे थे। मार्क्स पहला आदमी है जो कहता है 1857 का युद्ध पहला स्वतंत्रता संग्राम है। बाद में अंग्रेजों ने किसानों को हिंदू-मुस्लिम में बांट दिया है। भारत की जनता कभी भी अपने आपको हिंदू मुस्लिम नहीं समझी। अपने आपको किसान समझी या अलग-अलग क्षेत्रों में रहने वाली समझी है। यहां की आम जनता जो खेती में भाग लेने वाली अपने आपको किसान समझी है अपने आप को इंसान समझी है। अपने आप को इंसान और किसान समझने वाली पूरी भारत की जनता को अंग्रजों ने हिंदू मुस्लिम में बांट दिया । ऐसा नहीं कि संघर्ष नहीं किया है। जब से वर्ग समाज बना है तब से लेकर आज तक संघर्ष होता रहा है। जो मैं रामायण की बात बोला हूं तब से चारवाक लोग थे, लोकायत लोग थे, नास्तिक लोग थे। जब तक वर्ग समाज रहता है तब तक वर्ग संघर्ष होता रहता है। मगर 1857 में शासक वर्ग ने उससे आगे जाकर विभाजन किया है।
 वैसे तो पंजाब में ही सबसे ज्यादा, जो लोग अमेरिका, कनाडा में जाकर पढ़े हैं वे लोग साम्राज्यवाद के विरोध में गदर पार्टी बनाये थे। सबसे पहले जो क्रांति की कोशिश हुई है वह पंजाब में हुआ है। गदर पार्टी आयी है एक सतत संघर्ष चलाया है। और भी पीछे जाकर अगर देखें तो जो हिंदुत्व द्वारा जितने भी दमन हुए है उसके विरोध में संघर्ष करने वाले आपके गुरु नानक थे। गुरु नानक से लेकर गदर तक यह भी तय किए कि अगर लोग या जनता चाहे तो संघर्ष के स्वरूप के बारे में कोई हिचकिचाहट नहीं हो सकती है। तलवार लेकर भी लड़ भी सकते हैं। ऐसा नहीं है कि पार्लियामेंट्री फ्रेमवर्क में ही संघर्ष बना रहेगा। धर्म के ऊपर जो संघर्ष आया है वैसा पूरे देश में मैं दिखा सकता हूं भक्ति के आंदोलन के समय में। खैर! वह अभी छोड़िए । एक राजनीतिक संघ के रूप में देखे तो 100 साल पहले एक गदर पार्टी बनी थी और आज भी जैसा की विपिन चंद्र ने कहा है कि लेनिन ने भगत सिंह को बनाया है किसान मजदूर राज लाने के लिए भी यहां संघर्ष किया है। पर ब्रिटिश सरकार ने जो मुख्यधारा के इतिहास को आगे लाया है। वह सभी पार्टियों से ज्यादा खासकर कांग्रेस पार्टी। अब इसमें देखिए बाल गंगाधर तिलक के समय से लेकर राजीव गांधी तक अगर उनकी राजनीति का विश्लेषण करें तो तबसे हिंदुत्व भावना को राजनीति में लाना शुरू कर दिए है। तिलक भगवत गीता का बात करता है। गांधी भगवत गीता का बात करता है। तिलक को भगवत गीता में हिंसा दिखता है। गांधी को भगवत गीता में अहिंसा दिखता है। हिंदू धर्म एक ऐसा धर्म है कि आप जो भी चाहे व्याख्या कर सकते हैं। पर मूल रूप उसमें हिंसा ही है। दुनिया में एक भी ऐसा धर्म नहीं है जो अपने मूल में ही हिंसा का उत्प्रेरण देता है। वह हिंदुत्व है वह गीता खुद कहता है। जिसे अवतार माना जाता है खुद कृष्ण कहता है कि मारो भाई हो दोस्त हो गुरु हो जो भी हो मारो। मैं हूं यहां मैं देख लूंगा। जीसस क्राइस्ट ने ऐसा नही कहा है। वो खुद अवतार नही है परमात्मा का व्याख्याकार है। मोहम्मद ने ऐसा नहीं कहा है। उसको भी हम अवतार नहीं मानते हैं भगवान नहीं मानते वह भी ऐसा नहीं कहा है। खुद जो अवतार है जिसे भगवान मानते हैं वह भगवान कहता है कि हिंसा करो। तुमको कुछ होने वाला नहीं है मैं हूं मैं देख लूंगा। धर्म कहता है कृष्ण परमात्मा है। और यह भी कहता है कि यह समाज समान समाज नहीं है। ब्राह्मण सिर से आया है शुद्र पैर से आया है। 
यानी बाद में जो अंबेडकर यहां के समाज के बारे में श्रेणीक्रम समाज कहते है। वह श्रेणीक्रम समाज की बात भगवत गीता में है और आगे जाकर मनु ने कहा है। वह हिंदू समाज के लिए पहला संविधान है। जो आज भी समाज में लागू है वह मनुस्मृति है। अम्बेडकर का संविधान तो सिर्फ पढ़ने व देखने के लिए है। आज आरएसएस वाले मनुस्मृति को मान रहे है। आरएसएस बीजेपी कहती है भारत मे रहने वाले... ये तो भारत नहीं है ये हिंदुस्तान है। हिंदुस्तान में रहने वाला हिन्दू ही हो सकता है। जितने भी हिंदुस्तान में लोग है वे सब हिन्दू है अगर और कोई है चाहे मुस्लिम हो,सिक्ख हो,ईसाई हो वे सब धर्मांतरण है। और फिर वे कहते है कि "घर वापसी" आइये अपने घर आइये आप हिन्दू है हिंदुस्तान में आइये। ये सिर्फ धर्म की बात नहीं करते ये हिन्दू राष्ट्र की बात करते है।  हिंदुस्तान एक देश है हिंदुस्तान में रहने वाले हिन्दू है । ऐसा बीजेपी ने सिर्फ नही कहा है। इससे पहले इंदिरा गांधी ने भी कहा है। एक देश है एक पार्टी है एक नेता है। एक ही देश है भारत एक ही पार्टी है कांग्रेस एक ही नेता है इंदिरा गांधी। वही इमरजेंसी ला सकता है।  वही शासन कर सकता है। आज जो साम्राज्यवाद के बारे हम कहते है कि एकाधिकार, यही ब्राह्मणीय भाव है। दूसरी तरफ हम देखे तो ब्राम्हण धर्म मे अस्पृश्यता है। मैं न किसी को छू सकता हूं। और न मुझे कोई छू सकता है। खाना खाते समय आप देख नही सकते। हमे दृष्टिदोष भी है और स्पर्षदोष भी है। एक ब्राम्हण खाता है तो एक क्षत्रिय भी नही देख और छू सकता है। यानी देश में 3 प्रतिशत ऐसे सोचने वाले लोग है।  वे आ जाते है हमको कहने की आप हिंदुस्तान में पैदा हुए है आप हिन्दू है।  जिस आदिवासी का कोई धर्म ही नही है उसे कहते है कि तुम हिन्दू हो। ये जो भावना फिर से उभरकर आ रहा है। 1930 में जो भी भावना थी। उस समय यहां के लोग कहते हैं कि जर्मनी में लोग यहां से वेद चुरा कर ले गए हैं। वही जर्मनी में हिटलर लागू कर रहा है। बात वो नहीं है फर्क इतना है कि जर्मनी में जो आर्य समाज है। आज तो इतिहास फिर से लिखना शुरु कर रहे हैं कि आर्य बाहर के लोग नहीं हैं यहां के लोग हैं। अब जो भी है यहां के लोग हैं। यहां के लोग हैं इसके बारे में इरफान हबीब,आरएस शर्मा,कौशाम्बी जैसे लोग गलती बातें लिखे हैं। यह सब यहां के लोग हैं। आर्य भी यहां के लोग हैं। जो आर्यावर्त कहते हैं यही आर्यावर्त है। असली बात ये है जो जर्मनी के.... साथी ने कहा भी है कि जब साम्राज्यवाद का संकट आया, जब हिटलर चुनाव में गया तो उसका पहला नारा और वादा था कि मैं राष्ट्रीय समाजवाद लाऊंगा। सत्ता में आने के बाद उसने संसद को जलाया है और युद्ध में गया है। आर्यावर्त का जो प्रतीक है स्वास्तिक। हिटलर ने जब आत्मकथा लिखा है उसी समय में हेडगेवार ने यहां RSS शुरू किया। हेडगेवार और गोलवलकर वहां जाकर के इटली के मुसोलिनी से मिला है। वे यहां स्वास्तिक का प्रतीक लाये हैं। आप देख सकते हैं कि आज पूरे संघ परिवार के लोग उस स्वास्तिक प्रतीक का प्रयोग कर रहे है। यानी जर्मनी में जो फांसीवाद.... उनका मानना था कि  जिसमें आर्य का रक्त बहता हो वही पूरी दुनिया पर शासन कर सकता हैं। हिटलर तो यही चाहता था। नहीं हुआ है दूसरी बात है। हिटलर वही चाहा था आज वही हिटलर के फ़ासीवाद से प्रेरित होकर, वही स्वास्तिक का प्रतीक लेकर, वही आर्य की बात लेकर के आज जो सरकार में बीजेपी के लोग जो संघ परिवार के लोग आए हैं। जो कहते हैं ये हिंदुस्तान है यहां हिंदू ही रहेगा। जो गैर हिंदू  है उसको इसमें शामिल होना है। उनको घर वापस आना है। और आगे कहते है कि देश में जितने भी मुस्लिम लोग हैं उनको वोट का अधिकार नहीं देना है। वोटरलिस्ट से उनको निकाल देना है। हिंदू लोग ही वोट करेंगे।
  BJP के लोग भूमिअधिग्रहण अध्यादेश लाना चाहते हैं। पहली बार नहीं हो सका है दूसरी बार कोशिश कर रहे हैं। शायद राज्यसभा में उसको बहुमत नहीं मिलता है तो क्या करेगा? संसद को उलट सकता है। इंदिरा गांधी ने वही किया है 1975 में। मैं इसलिए कह रहा हूं कि ये सिर्फ मोदी की बात नहीं है। यह बात जो साम्राज्यवाद सामंतवाद की सोच विचार के शासक है उसकी समस्या है। जब तक यह नहीं समझेंगे इसलिए तो मैं कह रहा  था कि दंडकारण्य में जो जनताना सरकार चल रही है। उस समय जो दो पार्टियों का एकता हुआ है। जो 2007 में एकता सम्मेलन हुआ था। उसका ऐलान था कि, आम जनता को आवाज दे दिया कि हमारे सामने दो मुद्दा हैं। साम्राज्यवाद के विरोध में हथियारबंद संघर्ष कीजिए वो हमारे लिए पहला खतरा है और दूसरा है जो हिंदुत्व ताकतें है उसके विरोध में हथियारबंद संघर्ष खड़ा कीजिए। क्योंकि खासकर हमारे देश में जब साम्राज्यवाद का दलाल होकर के ब्राह्मणीय हिंदुत्व हमारा शासन कर रहा है। यह अलग-अलग बात नहीं है। आप सिर्फ ब्राह्मणवाद के बारे में समझते हैं तो वह एक भावना है। उसको आप नहीं तोड़ सकते क्योंकि वह भावना दलितों तक गया है। क्योंकि अनुसूचित जाति में ही एक जाति का दूसरे जाति के विरोध में संघर्ष हैं। ब्राह्मणीय विचारधारा ऐसी होती है जैसे साम्राज्यवादी,एकाधिकारवाद का विचार होता है। उसकी भावना है कि अपनी मुट्ठी में ज्ञान रहे। अपनी मुट्ठी में शासन रहे। जो कुछ गांव के लिए कहना है मैं ही कह सकता हूं। जो पुरोहित कहता है जो पटवारी कहता है गांव में वही बात चलेगी दूसरी  कोई बात नहीं चल सकती है। एक ब्राह्मण की भावना है कि पूरा ज्ञान अपने मुट्ठी में रहे। वैसे ही पूंजी भी जब एकाधिकार बनता है। तो वही सब कुछ कर सकता है और कोई कुछ नहीं कर सकता। इसलिए इन दोनों भावना में मेल हो गया। तेलुगु में एक ड्रामा लिखा है। उसमें कहते हैं जो ब्राह्मण अंग्रेजी लोगों को उपेक्षा करते और अछूत कहते थे। वैसे ब्राह्मण जो संस्कृत और वेद को ही मानते थे। वे जब अंग्रेजो के दलाल बन गए तो जितनी भी इंग्लिश क्लास हैं उसमें पानी में मछली जैसे आ गए। आज आप दिल्ली से चेन्नई तक देखे तो पूरे नौकरशाही में वे लोग है। अंग्रेजी भाषा हो, अंग्रेजी शासन हो, उसकी व्याख्या हो आज देश में कौन कर सकता है? ब्राह्मण कर सकता है। ये मैं केवल एक जाति के बारे नहीं कह रहा हूं। एक भावना के बारे में कह रहा हूं। यह भावना संपत्ति से जुड़ा हुआ भावना है। आज जैसे-जैसे सम्पत्तिधारी बनते जाते हैं वैसे वैसे ब्राह्मण बनते जाते हैं। ब्राम्हणवादी विचारधारा के बनते जाते हैं। 
पहली बार 1947 में हिंदुत्व की अभिव्यक्ति बहुत जोर से जनसंहार के रूप में  हुआ है । 1947 के देश विभाजन के समय मे जितने दंगे फसाद हुए है। मैंने कल ही सुना था कि पंजाब में 12,00,000 लोग मारे गए हैं। हजारों महिलाओं के ऊपर अत्याचार हुआ है। परिवार बांटा गया है पाकिस्तान में और पंजाब में या भारत में। पहली बार जो धर्म के रूप में, हिंदू मुस्लिम के रूप में जो दंगा हुआ है या 1947 में सिख-मुस्लिम के रूप में जो दंगा हुआ है । यानी पूरी राजनीति मे धर्म का आना। तिलक लाया है, गांधी लाया है, नेहरु लाया है, इंदिरा गांधी ने लाया है। हमारे जमाने में जो लोग यहां बैठे हैं हमारे अनुभव में तो सबसे ज्यादा राजीव गांधी लाया हैं। 1947 के बाद बड़े पैमाने पर जो जनसंहार हुआ है वह पंजाब में 1984 में हुआ है। उनकी राजनीति जो भी हो। वो बहाने लेकर, मौका लेकर जो इंदिरा गांधी ने  अमृतसर स्वर्ण मंदिर के ऊपर सेना का हमला करवाया है। अब यह बात जब तक आप राज्य के विरोध में नहीं सोचते हैं तो इस खतरे में हम फंस जाएंगे। हमारे साथ तेलंगाना में ये हुआ है । तेलंगाना में  जब कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में किसान मजदूर लोग सशस्त्र संघर्ष में थे। 3,000 गांव में 10 लाख एकड़ जमीन को मुक्ति करके एक तरह के राज्य बनाए थे। उस समय 1947 में जब दिल्ली में राज्य बना तो नेहरू-पटेल निजाम नवाब का बहाना लेकर यानी वह तो बहुत तानाशाह है, सामंतवाद को लागू कर रहा है। उसके विरोध में लोग कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में लड़ रहे थे मगर दखल देकर के तेलंगाना में सेना को भेजा था। भाइयों सुनिए इतिहास के बारे में तब तक न संविधान बना था। 1948 की बात कर रहा हूं। तब तक न पार्लियामेंट बना है। मगर नेहरू पटेल ने तय किया कि हैदराबाद रियासत के ऊपर सेना भेजेंगे। कश्मीर की रियासत के ऊपर सेना भेजेंगे। हम खुश थे, हम खुश इसलिए थे कि वहां का नवाब मुस्लिम है कश्मीर की जनता मुस्लिम है।  हममें ये जो मानसिकता है हम हिंदू धर्म में पैदा हुए हैं इसलिए हम हिंदू हैं। जितनी भी पढ़ाई हो, जितनी भी चेतना हो, जो बाहर की दुनिया देख रहे हैं हम। पर यह नहीं समझते हैं कि हम इंसान हैं। हम एक इंसान होकर पैदा हुए हैं नंगा पैदा हुए हैं। ना हिंदू होकर पैदा हुए हैं ना सिक्ख होकर पैदा हुए हैं ना मुस्लिम होके पैदा हुए हैं। हम यह नहीं सोचते हैं खास करके बुद्धिजीवी लोग। हैं तो इंसान है नहीं तो किसान मजदूर लोग हैं। काम करने वाले लोग हैं। धर्म तो अपनाए है। वो तो कोई पानी,भोजन,स्वास नहीं है। वो अपनाई हुई एक संस्कृति है। उसे नकार कर भी हम जी सकते है। इंसान नही होके नहीं जी सकते है। कोई उत्पादन में भाग नहीं लेकर के नहीं रह सकते है। हम अपने आपको किसी जाति से, किसी धर्म से संबंधित होकर देखते है। एक इंसान के तौर पर नही देखते है। ऐसा बांटा गया है हमको। यह मानसिकता साम्राज्यवाद सामंतवाद की साजिश है। खासकर आज जो बात हम RSS या BJP सरकार के आने के बाद कह रहे हैं इसका 1984 में ही शुरूआत हो चुका था ।
 आज भी इतिहास में खासकर संसदीय इतिहास को अगर देखा जाए तो सोचिये आज एक बार फिर इतिहास दोहराव हो रहा है। एक ट्रैजिटिक रिपिटेसन है।  1984 में स्वर्ण मंदिर के ऊपर हमला हुआ था । दिल्ली और आसपास में 31 अक्टूबर से लेकर 3 नवंबर तक हजारों सिख लोग मारे गए थे । वही 1984 के 7 दिसंबर को भोपाल गैस त्रासदी हुआ । जिसमें 3,000 लोग मर गए । एक बार सोचिए कि कैसे भूमंडलीयकरण के साथ साथ हिंदुत्व चल रहा है। एक बार याद कर लीजिए। उस तरफ भोपाल गैस त्रासदी जैसा एक मल्टीनेशनल कंपनी 3,000 लोगों को मारता हैं । फिर भी इलेक्शन चलता है। इलेक्शन आगे नहीं बढ़ता है और राजीव गांधी कहता है कि खासकर हिन्दू राज्यों में कहता है कि हिंद करेगा हिंदू राज! हम क्या किए हैं? इसलिए मैं मानसिकता की बात बोल रहा हूं।  भारतीय संसदीय इतिहास में किसी को भी उतना वोट नहीं आया है जितना राजीव गांधी को आया । राजीव गांधी 401 लोकसभा सीट जीत लिया है । यह तो लोकतंत्र है क्योंकि आप सब मानते हैं ना कि संसद से लोकतंत्र आता है।  यह कैसा लोकतंत्र है जो हिंद करेगा हिंदू राज कहता है फिर भी चुनाव में जीतता है। सोचिये आप सब बुद्धिजीवी लोग है क्या यह संसदीय लोकतंत्र हो सकता है? उसी समय बाबरी मस्जिद का दरवाजा खोल दिया गया हैं। क्योंकि वहां राम का, बाल राम का, रामलला की मूर्ति मिली है यह बोल के पी वी नरसिम्हा राव ने उसका दरवाजा खुलवा दिया है । तब से यह शुरु हुआ है।  1885 में ही ह्यूम के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी बनी है। उस कांग्रेस पार्टी में अगर कोई राष्ट्रीय पूंजीपति था तो वो एक ही दादाभाई नरौजी है जो बाद में प्रसिडेंट बना था ।  उसके बाद जो भी लोग आए हैं वे सब दलाल लोग हैं। एजेंट आये है कांग्रेस पार्टी में। तो 1985 में वो मुंबई में जाकर कहता है कि मैं इस देश को 21वीं सदी में ले जाऊंगा। ये है हमारी 21 वीं सदी। यानी मेरा कहना है कि जो मोदी राज में आया है वो राजीव गांधी का एक और अवतार है। इसलिए मैं कहता हूं कि 1884 से 1984 में खासकर आज पंजाब में वो बात गुजरा है, सिक्खों के साथ गुजरा है, वो बात बाबरी मस्जिद में गुजरा है, जब राम लला की मूर्ति के नाम पर दरवाजा खोल दिया गया  या भोपाल गैस त्रासदी में जो हुआ है और बाद में 1991की नई आर्थिक नीति आयी है । उसपे कहने की एक और बात है। जैसा बीजेपी और संघ परिवार जबरदस्त बनकर आ रहा है इसमें हमारी भूमिका क्या है? और देखे वो कैसे समय को इस्तेमाल किया है।  इमरजेंसी में इंदिरा गांधी ने सभी संगठन को बैन कर दिया। हम सब पूरे इमरजेंसी जेल में थे। देश में 1,50,000 लोग जो सफेद कपड़े पहनने वाले इमरजेंसी के समय जेल में थे। आदिवासी लोग, दलित लोग, मुस्लिम अल्पसंख्यक, संघर्ष में रहने वाले लोगों के लिए जेल में रहना कोई नई बात नहीं थी। खासकर नक्सलबाड़ी-श्रीकाकुलम के समय से। जेल में रहना तो ऐसा था कि हम जिंदा बचे थे। नहीं तो एनकाउंटर में मार डालते अगर नक्सलाइट है तो। मगर हम जैसे लोगों को भी जेल में जाना पड़े ऐसा इमरजेंसी में आया है। तो इमरजेंसी के इंदिरा गांधी का विरोध करने वाले BJP के लोग भी जेल में थे। पर अगर आपको याद हो तो RSS के लीडर ने इमरजेंसी के बारे में कहा कि ये अनुशासन पर्व है। होना चाहिए इमरजेंसी। इमरजेंसी से अनुशासन आता है। रेल समय पर चल रहा है, मार्केट अच्छा चल रहा है। लोग अनुशासन में रह रहे है इसलिए ये होना चाहिए यह बोलकर RSS वालों ने ऐलान किया है। बिनोवा भावे ने इमरजेंसी का सपोर्ट किया है। जब मौका आये तो किसको समर्थन करता है एक बार याद कर लीजिए। बिनोवा भावे इंदिरा गांधी का समर्थन किया है। अनुशासन पर्व बोलके RSS वाले समर्थन किये है। उस समय जो जेल में BJP के लोग और RSS वाले थे उनसे जितने भी लोग जेल में थे वे सब दोस्ती किये है। जॉर्ज फर्नांडिस जैसे लोग BJP से दोस्ती किये है। इमरजेंसी खत्म होने के बाद जो BJP पहली बार जनता पार्टी के नाम से आया है और वो तय किये की इंफॉर्मेशन, एजुकेशन, विदेश, उद्दोग यह अपने हाथों में रखेंगे।  लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, वाजपेयी विदेश, उद्दोग, इंफॉर्मेशन, एजुकेशन मिनिस्टर बने हैं। तब से देखिये 1977 से लेकर आज तक देशभर के मीडिया में एजुकेशन में इंफॉर्मेशन में RSS के लोग भरे हुए है। शिक्षा को लेकर 1977 में जो  शुरू हुआ है कि रोमिला थापर की किताब, आरएस शर्मा की किताब, कोसांबी की किताब, इरफान हबीब की किताब भारत का इतिहास नहीं हो सकता है इसको रद्द कर दीजिए । यानी अधिरचना को अपने विचार से प्रभावित करने की जो कोसिस हुई हैं। वह 1977 से शुरू हुई है।  इमरजेंसी के कारण संघ परिवार को जो लेजिटिमेसी मिला है। बाबरी मस्जिद तो आप जानते हैं। मध्यप्रदेश में आदिवासी महिला लोगों का सामूहिक अत्याचार करके उसका वीडियो बनाकर बजरंग दल के लोग कहते हैं कि हमारे साथ औरंगजेब के समय में ऐसा हुआ था इसका बदला लेने के लिए हमको भी ऐसा ही करना है। गुजरात के समय में ऐसा हुआ है। मुजफ्फरनगर के समय में हुआ है। आज भी आरएसएस कर रहा है यह बहाना करके कि हमारे साथ भी ऐसा हुआ है इसलिए हम जो चाहे अत्याचार कर सकते हैं। आज दलितों के साथ कुछ भी कर सकते हैं। आदिवासियों के साथ कुछ भी कर सकते हैं। ये आज संघ परिवार के सीडी और वीडियो में बताया जा रहा है। आज आप गढ़चिरौली या दंडकारण्य में जाकर देखिए यही बात माओवादियों के साथ भी हो रहा हैं। यही बात वहां के आदिवासियों के साथ भी हो रहा है। आदिवासियों के गांव जला के, आदिवासियों की महिला के साथ अत्याचार करके, आदिवासी महिला लोगों के ऊपर वहां की जो पैरामिलिट्री फोर्स है वह अत्याचार कर रही है।  हाल ही में 3 आदिवासी महिलाओं के साथ हुआ है । वे एक वीडियो बनाये है और उसको टैक्सी ड्राइवर को दे दिये है कि जो टूरिस्ट आते हैं उनको बताओ। एक फैक्ट फाइंडिंग टीम ने जाकर के इसे देख लिया  है। मीडिया को दे रहे हैं। आप सुने होंगे सायद 3 महिलाओं को नंगा करके, अत्याचार करके, मारने के बाद उसी पुलिस ने फोटो निकाल करके मध्यप्रदेश छत्तीसगढ़ के न्यूज़ पेपर में दे दिया है। एक मैगजीन ने छाप भी दिया है। ये करेंगे बोलकर के यानि कल तक ऐसा काम करने को जो हम गुनाहगार समझते थे, दोषी समझते थे, उसके विरोध में खड़े होते थे लेकिन धीरे-धीरे TV के संस्कृति से,  साम्राज्यवाद की संस्कृति से हमारा मन जो वैसा बन गया है कि ऐसे चीजो को देखना तो आदत बन गई है। इंसानियत को मारने का यह जो चीज है सबसे ज्यादा साम्राज्यवाद और ब्राह्मणवादी सामंतवाद की देन है। तो आज वह कुछ भी कह सकता है। आज घर वापसी कह सकता है। आज मुस्लिम को वोट नहीं देना है कह सकता है। परिवार नियोजन की बात कह सकता है। 
आप लोगों को याद होगा कि इमरजेंसी ने पहली बार (वर्ल्ड बैंक का प्रोग्राम लागू करने के लिये इमरजेंसी आयी) मूलभूत अधिकार का उलंघन किया है। उस समय जो असंवैधानिक अधिकारी था संजय गांधी। संजय गांधी को वर्ल्ड बैंक ने दो प्रोग्राम दिया था। एक है फैमिली प्लानिंग लागू करना। दूसरी बात है नगरों का सुंदरीकरण करना। आज जो पूरे देश और दुनिया में हो रहा है। जितने भी मजदूरों के झोपड़पट्टी थी उसके ऊपर ट्रक चलाकर पूरी की पूरी बस्ती को खत्म कर दिया गया हैं। सुंदरीकरण के नाम से पहली बार 1975 में हुआ है। आज तो पूरे देश में भी चल रहा है। आज तो इतना विस्थापन हो रहा है कि कहो ही मत। झोपड़पट्टी वाले लोगों का, मजदूर लोगों का, बस्तियों का, आदिवासियों का, दलितों का इतना विस्थापन देश में हो रहा है कि सरकार को जमीन चाहिए। सरकार को मतलब कंपनी को जमीन चाहिए। जमीन ना किसान को देना है जो हल चलाता है और ना ही रहने वाले को देना है। किसी को जमीन नहीं देना है। आज कंपनी वालों को जमीन चाहिए मैदान में ही नही, जंगल में भी चाहिए। सबसे पहले जंगल मे चाहिए क्योंकि जमीन के साथ प्राकृतिक संसाधन भी होना चाहिए जमीन के साथ खनिज भी होना चाहिए जमीन के साथ नदिया होना चाहिए, जमीन के साथ पहाड़ होना चाहिए। क्योंकि कंपनी वालों को वहां जितने भी प्राकृतिक संसाधन हैं उनको लूट करके ले जाना है । सरकार किसलिए बनी है? उसके एजेंट के रूप में काम करने के लिए बनी है। हम सरकार को पार्टियों को कुछ भी नाम दे कांग्रेस बोल के, बीजेपी बोल के, और अकाली दल बोल के या और बहुत कुछ बोल के जो भी नाम दे हम मगर आज कोई भी राजनीतिक पार्टी नहीं है। सभी पार्टी कंपनी की दलाल बन के रह गई है । एक अडानी का हो सकता है, एक अंबानी का हो सकता है, टाटा का हो सकता है या वेदांता का हो सकता है या सब मिलकर सबका हो सकता है। ऐसी कोई राजनीतिक पार्टी आज नहीं है। इसमें फर्क की कोई बात नहीं है। कुछ दिखावटी है तो कुछ छुपे हुए हैं। मगर जितने भी है सब साम्राज्यवाद के दलाल है हिंदुत्व के दलाल है । ये नहीं समझेंगे तो हम इससे टक्कर भी नही ले सकते है। इसपे मेरा कहना है कि अलग से मत सोचिए कि बीजेपी का सरकार में आना, हिंदुत्व आना है। साम्राज्यवाद की सेवा करने वाला हिंदुत्व में राज में आया है यह सोचिए।  वो खुद मोदी ने कहा है। मुझे लेकर आप गुजरात में हत्या और जनसंहार दिखा रहे है। पर मैं अच्छे दिन लाऊंगा, मैं आके इस देश का विकास करुंगा। मैं आके मेक इन इंडिया... मेक इन इंडिया कहता है यानी यहां के लोग यहां उत्पादन करें यह नहीं कहता है बल्कि दुनियाभर के जितने भी मल्टीनेशनल कंपनी है आइये यहां अपना पूंजी लगाइए। यहां आपके लिए प्राकृतिक संसाधन है, जमीन है, जो  भी चाहिए सब दे देंगे पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर देंगे। यहां आइए यह बोलने के लिए पूरी दुनिया भर में घूम रहा है। उसमे बात क्या है कि जो मनमोहन सिंह कल तक नहीं कर सका। वह (अमेरिका) बोल भी रहा है और वहां की पत्रिका में लिखा है 2004 से लेकर 2014 तक मनमोहन सिंह को एक प्रोग्राम दिया गया था अमेरिका ने, साम्राज्यवाद ने दिया था। उस प्रोग्राम को जितना जोर से लागू करना था उतना जोर से वो लागू नहीं कर सका। इसलिए मोदी को लाया है। अगर मोदी उतने जोर से नहीं कर सके तो मोदी को भी हटाएंगे। जैसा 2004 में हमने देखा हैं 6 महीना भी नहीं हुआ कि मोदी को कारपोरेट मीडिया ने बहुत प्रमोट किया । दिल्ली में 3 महीने भी नहीं हुआ कि केजरीवाल को प्रमोट किया गया। यानी यहाँ जो भी शासक हैं साम्राज्यवाद के हाथों में खिलौना बन गया है।  इसमें हम देश भक्त लोगों को सोचने की बात है।  क्योंकि जितने भी शासन में जो लोग आए हैं उसमें कोई देशभक्त नहीं है। देशभक्ति का नारा तो खास कर सबसे ज्यादा संघ परिवार के लोग देते हैं। अगर यह लोग देशभक्त हैं तो क्यों इस देश को बेच रहे हैं? इंटरनेशनल मार्केट में क्यों बेच रहे हैं? बाहर के जितने भी मल्टीनेशनल नेशनल कंपनी हैं, बड़ी कंपनी है इनको बेचने के लिए क्यों उसका आमंत्रण दे रहा है? क्यों यहां FDI ला रहा है?  क्यों सेना में निजीकरण की बात कर रहा है? क्यों रेलवे को निजीकरण करने की बात कर रहा है?  पूरे जमीन को बेचने लिए भूमिअधिग्रहण कानून ला रहा है। देश को बेचने वाले आदिवासी लोग है या देश को बेचने वाले आज जो शासन में बैठे हैं वे लोग है? ये सोचना है। इसलिए तो आज फासीवाद के विरोध में जैसा 1930 में सभी लोकतांत्रिक ताकतें इकट्ठा हुई थी आज वैसे ही एक अवसर है एक मौका है। देशभक्त, लोकतांत्रिक, हिंन्दुत्व विरोधी, क्रांतिकारी, धर्मनिरपेक्ष इन सबको इकट्ठा होकर इसके विरोध लड़ना है।  ऐसी बात नहीं है कि हमारे पास दिशा नहीं है।
कुछ लोग दिशा की बात को अब तक पार्लियामेंट के ढांचे में देखते है तो उनको नही दिखता है। इसलिए मैंने पहले ही कहां कि इसके बाहर देखिये। क्योंकि आपके पंजाब में भी नक्सलबड़ी का लहर आया था। कवि लोग, कलाकार अवतार सिंह पास, लाल सिंह दिल जैसे कवि आये थे। कृतिपाल रंधावा जैसा छात्र नेता आया था। वैसे बुद्धिजीवी लोग उसमे शामिल हुए थे। पंजाब में जो नक्सलवादी आंदोलन इमरजेंसी के समय मे प्रवेश किया है। आंध्र, पंजाब, और अन्य समेत में जो इतना बड़ा नक्सलबाड़ी का लहर आया था। वो लहर आज भी  पूरे देश चालू है। वैसे आज देखा जाए तो कोई ऐसी पार्लियामेंट्री पार्टी नहीं है देश के जितने राज्यो में माओवादी पार्टी है। छत्तीसगढ़ में, उड़ीसा में है, झारखंड में, तेलंगाना में है, आंध्रा में, तमिलनाडु, केरला, कर्नाटक, पंजाब यानी खुद मनमोहन सिंह ने कहा है कि 12 राज्यों में, यह तो सबसे बड़ा आंतरिक खतरा है। माओवादी पार्टी का नाम लेकर  मनमोहन सिंह ने खुद कहां है। आज जो सरकार में आया है वह भी ऐसा ही कह रहा है। इसलिए तो 3,00,000 सेना को छत्तीसगढ़ में भेजा है। इसीलिए यूएपीए लागू कर रहा है। ऐसा नहीं है कि बहुत मजबूत सत्ता में आया है। ऐसा होता तो फिर कश्मीर में सेना क्यों रहती है? नागालैंड में क्यों रहती है? देश में इतना बड़ा हिस्सा सेना के शासन में हैं। देश में पूरब और मध्य भारत के पूरे जितने भी जंगल, आदिवासी है वहां जो शासन चल रहा है पैरा मिलिट्री फोर्सेज का शासन चल रहा है। कहाँ है डेमोक्रेसी? कहां रूल ऑफ़ लॉ है? आज यूएपीए है एक समय में टाडा था। तो ऐसी स्थिति में इसके विरोध में जो क्रांतिकारी संघर्ष चल रहा है और क्रांतिकारी संघर्ष चलाते हुए 6 साल से  वैकल्पिक विकास नीति लेके जो जनताना सरकार चला रहे है। इसलिए तो हम 2006 में जो रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट बनाये है। हमारा कार्यक्रम ये है कि आप जो डेमोक्रेसी समझते हैं, जो पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी समझते हैं, वो बुर्जुआ (पूंजीवादी) डेमोक्रेसी नहीं होता है। वो साम्राज्यवाद और सामंतवाद की एक तानाशाही होती है। उसके विरोध में जनता का क्रांति से एक जनतंत्र बन रहा है, नीचे से बन रहा है, जमीनी स्तर से बन रहा है। आदिवासी, दलित लोग बना रहे है। किसान मजदूर लोग बना रहे हैं। महिलाएं बना रही हैं। अल्पसंख्यक बना रहा है। ये क्रांति से ही जनतंत्र बनेगा।  ये प्रचार करने के लिए हम रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट बनाए हैं। आंध्रा में तो उसका सम्मेलन होते ही उसको प्रतिबंधित कर दिया गया। मैं उसका राष्ट्रीय अध्यक्ष हूं। हमारे उपाध्यक्ष को मार डाला गया है। गंटी प्रसादम जो 30 साल क्रांति में काम किया था, फिर उपाध्यक्ष बना था। वेल्लूर में रात को उसको मार डाले है। और जनरल सेक्रेटरी साईं बाबा को जो 90% विकलांग हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाने वाले हैं। बुद्धिजीवी है, पूरे देश विदेश में घूमा है। रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेसी के बारे में बात करते हुए, या लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ते हुए, दिल्ली यूनिवर्सिटी में दलितों के आरक्षण के लिए लड़ते हुए, जितने भी 20 साल से लोकतांत्रिक आंदोलन जहां चल रहा है उसमें वो शामिल रहा है। उस साईं बाबा को एक साल से नागपुर में अंडा सेल में रखा है, तनहाई में रखा है।  और कहता है कि सबसे खतरनाक बुद्धिजीवी है जो दंडकारण्य में आंदोलन चल रहा है उससे उसका संबंध है। उनको अगर कोर्ट में ले जाते है तो सैकड़ो पुलिस उसके साथ जाते है। पैरामिलिट्री फोर्सेस उनके साथ जाते हैं उनके सामने लैंड्स माईन लेकर चलते है। उसको ऐसे बताना चाहते हैं कि कोई खतरनाक आतंकवादी है। पूरा मुस्लिम इस देश का आतंकवादी है। पूरे आदिवासी लोग यहां माओवादी है। सरकार मध्यमवर्ग की ये जो चेतना  बनाने के लिए कोशिश कर रही है। और हम चुनाव के खिलाफ में जो पर्चे बांटे हैं तो उसमें उत्तराखंड में जो हमारा सदस्य है जीवन चंद्र उसको गिरफ्तार किया गया है। केरल में RDF द्वारा  प्रो. जगमोहन को, प्रोसेसर अमित भट्टाचार्य, प्रो. हरगोपाल को बुलाकर एक सेमिनार करने पर वहां के एक साथी पर देशद्रोह का मुकदमा लगा दिया गया।  फिर भी इतना झेलते हुए भी हमें ये कहना है कि दोस्तों साथियों अगर आप एक वास्तविक लोकतंत्र में जीना चाहते हैं किसान मजदूर के लिए, अल्पसंख्यक के लिए, मेहनतकश लोगों के लिए एक अच्छे समाज का एक सपना देखना चाहते हैं तो क्रांति से ही होने वाला है। सिर्फ क्रांति ही साम्राज्यवाद का, ब्राम्हणीय सामंतवाद का, हिंदुत्व का विरोध करने वाला है।
 इसलिए आज जो पार्लियामेंट में बैठे हैं, शासन में बैठे हैं। तो मोदी को देखकर डरने की कोई बात नहीं है। मोदी तो एक विशेष अभिव्यक्ति है। इतने साल से जो गुजर रहा है उसका विरोध करने में.. क्योंकि वैसे तो मुट्ठी भर का शासन हैं हम तो एक सौ बीस करोड़ जनता है, मेहनतकश जनता है। काम करने के लिए है यह हाथ और यह हाथ हथियार लेने के लिए भी है। तो ऐसे संसदीय फ्रेमवर्क से जो बाहर चल रहा है इसके बारे में सोचिए। दंडकारण्य में जो हो रहा है वहां आकर खुद देखिए। वैसे वहां जाकर लिखे है अरुंधति राय जैसे लोग है, बीडी शर्मा खुद जो गांधीवादी है। बस्तर में जो आदिवासी संघर्ष कर रहे हैं जीवन भर उसके समर्थन में रहे क्योंकि वो खुद बस्तर का कलेक्टर रहा है। बस्तर के कलेक्टर से लेकर जो आज लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए काम करने वाले है वह समझ रहे है कि बस्तर के आदिवासियों का जो संघर्ष है वह एक न्यायपूर्ण संघर्ष है। प्रोफ़ेसर जगमोहन हैं वहां जो हो रहा है उसका समर्थन दे रहा है।  ऐसा नहीं है कि सब माओवादी लोग हैं । तो सोचिए यहां की मीडिया के लोग भी हो सकते हैं, बुद्धिजीवी लोग हो सकते हैं। अपना अपना विचार होते हुए भी आज समझने की बात यह है कि न्याय और अन्याय के बीच में एक संघर्ष चल रहा है। इस संघर्ष में एक पक्ष लेने का समय है। जैसा फासीवाद के विरोध में 1930 में एक पक्ष लेने का समय आया था, बुद्धिजीवियों के लिए आया था। जैसा गोर्की ने लिखा है कि बुद्धिजीवी लोग आप किसके साथ है? इसलिए तो सब बुद्धिजीवी लोग, सभी कवि कलाकार लोग उसके पक्ष में आए हैं। आज भी ऐसा समय आया है। आप देखिए जब एक ओबामा अमेरिकन प्रेसिडेंट बना तो मीडिया ने लिखा कि पहली बार श्वेत अमेरिका में एक आधा अश्वेत आधा मुस्लिम अध्यक्ष बना है। इससे क्या होना है? सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जाने वाले देश मे खुद मोदी कह रहा है और उसका समर्थन करने वाले भी कह रहे हैं कि चाय बेचने वाला, बैकवर्ड कास्ट से आने वाला है। चूँकि यहां ब्राह्मण के शासन थे। जवाहरलाल नेहरू हो, इंदिरा गांधी हो और बहुत सारे जितने भी थे ब्राह्मण प्रधानमंत्री थे इसलिए पहली बार चाय बेचने वाला, पिछड़ी जाति का प्रधानमंत्री आया है। यानी अपनी उंगली अपनी आंख पे रखो। काला मुस्लिम होते हुए भी ओबामा के शासन में अमेरिका में हथियारों का व्यापार जितना हुआ उतना किसी प्रेसिडेंट के समय में नहीं हुआ था । हथियारों का प्रोडक्शन हो रहा है, बेच रहा है, युद्ध करा रहा है, यमन के ऊपर सऊदी अरेबिया के ऊपर हथियारों का इस्तेमाल करता है। अमेरिका का काम यही है अमेरिका का अस्तित्व यही है कि हथियारों को बेचो युद्ध छेड़ो और धनी बन जाओ। आज हमारे देश में भी यही चल रहा है। तो हमारी उंगली को हमारे ही आंखों में रखने की कोशिश जो पार्लियामेंट्री सिस्टम में हो रहा है उसके विरोध में एक विश्व दर्शन लेकर क्रांति बनाने की एक दिशा चल रही है। उस दिशा की तरफ देखिए सोचिए और आलोचना कीजिए। ये कहने के लिए मुझे आपने जो मौका दिया है, खासकर रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट की तरफ से आभार व्यक्त करते हुए लाल सलाम!

★★★

Friday, May 11, 2018

मुठभेड़ के पर्दे में नरसंहार: गढ़चिरौली में विकास हेतु राज्य की नई नीति

जांच कमेटी की रिपोर्ट कहती है गढ़चिरौली मुठभेड़, एक फर्जी सोचा-समझा जनसंहार है। टीम इस पर यकीन नहीं करती कि यह हत्याएं अलग-थलग घटनाएं हैं। यह इस क्षेत्र में पुलिस क्रूरता की एक व्यापक परंपरा का हिस्सा लगता है।
-अंग्रेजी से अनुवाद: असीम सत्यदेव

प्रेस विज्ञप्ति 
मुठभेड़ के पर्दे में नरसंहार: गढ़चिरौली में विकास हेतु राज्य की नई नीति 
    
      महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले की मामरागढ़ तहसील में बोरिया-कासनासुर में 22 अप्रैल 2018 की सुबह एक तथाकथित मुठभेड़ हुई। अगले दिन पुलिस ने जब प्रेस नोट के साथ 16 लोगों की सूची यह कहते हुए जारी की कि नक्सली मारे गए हैं। 24 अप्रैल को पुलिस ने दावा किया कि इंद्रावती नदी में 14 और लाशें मिली हैं। और इस तरह मरने वालों की संख्या 40 से अधिक हो गई। गढ़चिरोली जिले में इस तथाकथित मुठभेड़ के स्थानों पर 12 राज्यों के 44 लोगों की एक जांच कमेटी टीम पहुंची। जिसमें तीन प्रमुख मानवाधिकार संगठनों और मंचों के लोग थे। यह तीन संगठन: कोआर्डिनेशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स आर्गेनाईजेशन (c d r o) इंडियन एसोसिएशन ऑफ पीपल्स लेयर्स ( IAPL) और वूमेन अगेंस्ट स्टेट रिप्रेशन एंड सेक्सुअल वायलेंस (w s s) थे। हमने हाल ही में हुए सभी पुलिस हिंसा तथा मुठभेड़ों के स्थानों का भी दौरा किया। 5 से 7 मई 2018 तक 3 दिनों तक तथ्यों की जांच की गई और इस टीम की सहायता भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के स्थानीय प्रतिनिधियों, स्थानीय निर्वाचित प्रतिनिधियों, ग्राम सभा सदस्यों, वकीलों और पत्रकारों ने की। जांच में हमारा निष्कर्ष यह निकला कि जिन घटनाओं के लिए मुठभेड़ शब्द इस्तेमाल किया जा रहा है दरअसल वह सारा फर्जी मुठभेड़ है। 
घटना की जांच से जो तथ्य सामने आया कि कि-60 पुलिस तथा CRPF ने चारों तरफ से माओवादियों को घेर लिया और फिर उनकी हत्या करने के इरादे से आधुनिक हथियारों जैसे अंडर बैरल ग्रेनेड लांचर (यूबीजीएल) से अंधाधुंध फायरिंग की। इस तरह यह एक सोचा समझा जनसंहार है। तथाकथित मुठभेड़ से संबंधित पुलिस की कहानी पर जांच टीम ने सवाल उठाए। मरने वालों की अंतिम संख्या पर ध्यान दिया जाए तो पता चलता है कि सी-60 पुलिस ने फौरन ही लासें बरामद नहीं की। मुठभेड़ के बाद कई दिनों तक इससे संबंधित महत्वपूर्ण सबूत जैसे पत्र, फोटोग्राफ, पहचान पत्र पड़े रहे। 22 अप्रैल 2018 को पुलिस द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति के दौरान असली स्थानों का कोई फोटोग्राफ या लाशों का कोई फोटो जारी नहीं किया गया। केवल चुने हुए पत्रकारों को मुठभेड़ स्थान की जानकारी दी गई। और उनकी यह बात भी संदेह पैदा करती है कि इस तथाकथित मुठभेड़ के 2 दिन बाद 24 अप्रैल को उसी जगह से 15 लाशें बरामद होती हैं। यह संदेश इसलिए है क्योंकि घायल लोग मजबूरन पूरे इलाके में फैल जाते हैं। गौर करने लायक दिलचस्प बात यह है कि पूरी कार्यवाही में ही सी-60 टीम को कोई गंभीर चोट नहीं आई।
 टीम को विदेशी पर्यटक जैसा सूचित किया गया और उसके लिए लोगों से संपर्क साधना मुश्किल किया गया। जब हम बोरिया पहुंचे तो वहां गांव में बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों की मौजूदगी थी। ऐसा लगा कि जांच टीम के लोगों से बात करने से ध्यान दूसरी ओर बताने के लिए पुलिस फोर्स तैनात की गई है। लोगों को अहेरी से कंसूर पुलिस द्वारा इसलिए लाया गया था कि वे लोग जांच टीम की उपस्थिति के खिलाफ प्रदर्शन करें। जांच टीम रात में गट्टेपल्ली गई और वहां उसने असामान्य रूप से सुरक्षा बलों की मौजूदगी देखी। पिछले 3 दिनों से बिजली नहीं आने की वजह से गांव में पूरा अंधेरा था। गांव वालों ने हमें बताया कि उसी दिन से पुलिस बल यहां तैनात है और उनके सामने बात करने से लोगों को डर लगता है। जांच टीम के इर्द-गिर्द भी पुलिस बल मंडराता रहा जिससे बातचीत में कई मुश्किल पैदा हुई। घटना से जुड़ा हुआ गट्टेपल्ली ऐसा गांव है जहां 22 अप्रैल से 8 लोगों के गायब होने की रिपोर्ट है। वह शादी में शामिल होने गांव से बाहर गए थे। उनमें से केवल एक अवयस्क रासु चाको माडवी की पहचान हो पाई। गांव वालों ने उसकी लाश की पहचान उन लाशों में से की जिनके मारे जाने का दावा बोरिया-कासनासूर मुठभेड़ स्थल पर पुलिस ने किया था। बाद के दिनों में पुलिस के विवरण लगातार बदलते गए। गुमशुदा लोगों के परिवार वाले जब पुलिस के पास पहुंचे तब पुलिस ने यह स्थापित करने की कोशिश की कि वे माओवादी पार्टी के नए-नए भर्ती रंगरूट थे।

 जब सवाल उठे कि उनके शव यूनिफॉर्म में क्यों थे तो पुलिस का विवरण बदल गया कि कैसे एक महीने पहले उनकी भर्ती हुई थी। यह भी उचित नहीं लगता कि गुमशुदा लोगों के आधार कार्ड जब्त कर लिए गए हैं और आज की तारीख तक लौटाए नहीं गए। राजाराम खंडाला  में 24 अप्रैल की रात की घटना में पुलिस के बयान परस्पर विरोधी हैं। 24 अप्रैल को जिमलगट्टा पुलिस स्टेशन से उनके बयानों के अनुसार घटना राजाराम खंडाला में घटी। 25 तारीख को नंदू का शव उसके परिवार को सौंपते हुए एसपी ने एक पत्र जारी किया जिसमें यह कहा गया कि वह कोपेवंचा कोउटारम जंगल में मारा गया। मारे गए लोगों में चार महिलाएं थी। जांच टीम ने राजाराम खण्डला में मुठभेड़ स्थल का दौरा किया और नंदू के परिवार वालों से मुलाकात भी की। 23 तारीख की सुबह नंदू के परिवार और गांव वालों को स्थानीय पुलिस ने खबर दी कि अन्य लोगों के साथ नंदू को भी पिछली रात बोरिया-कासनासुर से उठा लिया गया है। परिवार ने  पकड़े गए लोगों की तलाश में पुलिस स्टेशनों और शिविरों का चक्कर लगाया लेकिन उन्हें खोज नहीं सका। अगले दिन उन्हें सूचना दी गई कि नंदू तथा अन्य लोग 23 तारीख की शाम को नयनार जंगल में मुठभेड़ में मारे गए।
 जांच टीम ने नैनार जंगल में मुठभेड़ स्थल की पहचान की। वहां जमीन पर खून के धब्बे, रबड़ के दस्तानों का एक खुला पैकेट, पेड़ के तनों पर गोलियों के निशान और दो खाली डिब्बे थे। ऐसा लगा कि पुलिस ने नंदू को पहले यातना दी और फिर जानबूझकर मार डाला। अन्य कुछ तथ्यों के साथ हमारी टीम ने ध्यान दिया कि परिवार को कोई पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं दी गई। 25 अप्रैल को जब पिता ने शव हासिल किया तो वह खराब होता जा रहा था। लेकिन तब भी उसके दाहिने कंधे पर कुल्हाड़ी से किए वार पता चल रहा था। उसके शरीर पर गोली का निशान नहीं था। आस पड़ोस के लोगों ने आमतौर पर मुठभेड़ों के दौरान बंदूक चलने की आवाज नहीं सुनी लेकिन अलग थलग कुछ गन शॉट की आवाज उस रात सुनाई दी थी। परिवार को आशंका है कि सभी छह लोगों को पुलिस हिरासत में यातनाएं दी गई और फिर मार डाला गया। टीम को आश्चर्य हुआ कि नंदू तथा अन्य लोगों को उठा लेने के बाद उन्हें गिरफ्तार कर क्यों नहीं अदालत में पेश किया गया और जब सारे सबूत और गवाहों से यह पता चल रहा है  कि उन्हें हिरासत में लेकर यातना दी गई है और फिर मार डाला गया है। तो कैसे पुलिस इसे मुठभेड़ में हुई मौत का दावा कर रही है।
 हमने ध्यान दिया कि कोरापल्ली गांव में परिवार तथा पड़ोसियों को सुरक्षाबलों तथा स्थानीय पुलिस द्वारा लगातार परेशान किया जाता रहा है और धमकाया गया है। यह हत्याएं कोई अलग-थलग घटनाएं नहीं लगती बल्कि इस क्षेत्र में पुलिस की बुरी करतूतों की व्यापक परंपरा का हिस्सा लगती हैं। ऐसा लगता है कि बड़ी संख्या में पुलिस शिविरों तथा सुरक्षा बलों द्वारा इस क्षेत्र में रहने वालों के मन में डर का वातावरण तैयार किया जा रहा है। उदाहरण के लिए 5 फरवरी को कोयनवरसा गांव के दो नवयुवक रामकुमार और प्रेमलाल चिड़ियों के शिकार पर गए थे। उन्हें सुरक्षाबलों ने उठा लिया उन्हें अलग-अलग ले जाकर पूछताछ की गई और लगातार उन पर यह दबाव डाला जाता रहा कि वह खुद को माओवादी मान लें। जब उन्होंने इस आरोप से इनकार कर दिया तो उन्हें जबरदस्ती पकड़े रखा गया। उनमें से एक प्रेम लाल सौभाग्य से बच निकलने में कामयाब हो गया और जांच टीम को उससे सारी बातें बताई 6 फरवरी को गांव वाले उस जगह गए जहां से इन आदमियों को उठाया गया था। वहां उन्हें खून के धब्बे रामकुमार की वोटर पहचान पत्र का जला हुआ टुकड़ा और उन लोगों के द्वारा शिकार की गई चिड़िया के अवशेष मिले। इससे उन्हें रामकुमार के मार दिए जाने का संदेह हुआ। जब वह गडचिरोली पुलिस स्टेशन पहुंचे तो उन्हें वहां रामकुमार की लाश मिली। कोयनवरसा गांव के लोगों ने दावा किया कि उनके गांव में ऐसा पहली बार हुआ है और पुलिस का उन पर दबाव था कि कोई आरोप ना लगाएं। गांव वालों को चुप रहने के लिए पुलिस वालों ने घूस देने का प्रस्ताव रखा। परिवार हेदरी पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराने गया तो वहां एक पत्र पर उनके अंगूठे का निशान लगवा लिया गया। जिसमें यह लिखा था कि वे लोग माओवादियों से जुड़े थे।
     एक मजिस्ट्रेट स्तर की जांच हो रही है लेकिन ऐसा नहीं लगता कि अब कुछ हो पाएगा। 2016 में सूरजगढ़ क्षेत्र में लायड माइनिंग कारपोरेशन ने अपना बेस तैयार किया था। जिस दिन से लॉयड को पत्ते पर जमीन दी गयी थी। उसी दिन से इस क्षेत्र में लोगों ने खदान का विरोध शुरू कर दिया था। घमकुंडवानीऔर सूरजगढ़ खदानों के पास के गांवों के लोग लोगों के ऊपर लगातार पुलिस की हिंसक कार्यवाही चलती गई और उन्हें परेशान करने पीटने और गिरफ्तारी का काम होता रहा।
      मोहुन्दी और गुडनसुर मैं इसे साफ तौर पर देखा जा सकता है। जहां गट्टा पुलिस द्वारा पहले 2 और फिर 5 लोगों को गांव से उठा लिया गया।  जब गांव वालों ने इसका विरोध किया उन्हें पुलिस ने बेरहमी से इस हद तक पीटा कि अब तक उनके बदन पर पुलिस हिंसा के निशान मौजूद हैं। हिरासत में लिए गए लोगों में से एक की मां का हाथ तोड़ दिया गया। जिससे अभी हाथ से काम करने में तकलीफ होती है। जिन 8 लोगों को उठाया गया उनमें सात न्यायिक हिरासत में है। जिनमें दो किशोरावस्था के हैं और एक के बारे में कोई खबर नहीं है। पुलिस का कहना है कि गुमशुदा दिनेश फरार है लेकिन परिवार वालों को डर है कि पुलिस ने शायद उसे मार ही डाला हो। 29 मार्च 2018 को रेकनर गांव के एक युवक संसु मिर्चा उसेंडी ने जानवरों को पकड़ने के लिए जाल बिछाया। 30 मार्च को वह जाल का हाल लेने पहुंचा तो उस पर CRPF ने पीछे से हमला बोल दिया। उसे सुरक्षा बल द्वारा पीटा गया, घसीटा गया और फिर मार डाला गया। 1 अप्रैल को उसके परिवार वालों ने उसकी तलाश शुरू की और पुलिस स्टेशन गए। उसके मारे जाने की खबर उन्हें नहीं दी गई। 3 अप्रैल को उसकी तलाश में यह लोग पुलिस स्टेशन के आस पास जमा हुए तो पुलिस ने कथित मुठभेड़ में मारे जाने की बात उनसे कही। 6 अप्रैल को SP ऑफिस के सामने परिवार और गांव वालों ने इस हत्या के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। 
इस क्षेत्र में धमकुंडवानी और सूरजगढ़ माइनिंग प्रोजेक्ट बढ़ती पुलिस हिंसा के केंद्र बनते हुए प्रतीत हो रहे हैं। 2006-07 जहां खदान प्रस्तावित हुई थी वह स्थानीय समुदाय के विरोध के चलते रोक दी गई थी। अब एक बार फिर से पुलिस और अर्धसैनिक बलों के शिविरों की संख्या बढ़ाई गई है और आस-पास के गांव के लोगों को परेशान किया जा रहा है। पिछले कटु अनुभव के कारण महिलाएं पुलिस हिंसा के डर से जंगल में जाने से डरती हैं क्योंकि पहले उन्हें परेशान किया गया था और सुरक्षा बलों द्वारा रातों-रात उठा लिया गया था। पुलिस द्वारा उठा लिए जाने के डर से पुरुष बाजार जाना बंद कर चुके हैं। कारपोरेशन तथा पुलिस के दबाव के चलते तेंदूपत्ता और बांस खरीदने वाले ठेकेदारों ने यहां आना बंद कर दिया है। गांव वालों की गिरफ्तारी तथा हत्याएं और इन मामलों पर न्यायिक प्रतिक्रिया और कार्यवाही के अभाव लोगों के अंदर डर और गुस्से का भाव पैदा कर रहा है। 
     महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और झारखंड के आदिवासियों के लिए धमकुंडवानी पहाड़ी एक पवित्र स्थान है और खनन से उनके सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन पर हिंसक प्रभाव पड़ेगा। गढ़चिरोली जिले की स्थिति को समझने के लिए जांच टीम ने 3 दिनों में कई गांव वालों और सैकड़ों लोगों से मुलाकात की। हमारे सामने यह बात बिल्कुल साफ है कि इस सरकार द्वारा विकास का मापदंड जो निर्धारित किया गया है उसमें लोगों के हितों को नजरअंदाज कर दिया गया है। अपनी जमीनों पर हिंसक तरीके से अधिग्रहण और उनके जीविका के साधनों को छीनते देखकर लोग दृढ़ता से खड़े हो गए हैं और फलस्वरुप बर्बर राजकीय दमन का सामना कर रहे हैं जिसमें लोगों को जान से हाथ धोना पड़ रहा है। जांच टीम सरकार द्वारा मुठभेड़ में की जाने वाली हत्याओं की नीति की भर्त्सना करती है और मांग करती है कि :

  1. बोरिया-कासनासुर, राजाराम खंडाला, कोयन वरसी और रेखानेर में हुए फर्जी मुठभेड़ों की न्यायिक जांच हो।
  2.  पुलिस क्रूरता के खिलाफ बोलने वाले सिविल सोसाइटी के सदस्यों के ऊपर दर्ज सारे झूठे केस वापस लिए जाएं फर्जी मुठभेड़ों की योजना बनाने वालों तथा पुलिस बल का अंधाधुंध इस्तेमाल करने के लिए जिम्मेदार लोगों पर केस दर्ज किए जाएं।
  3.  इलाके से पुलिस तथा अर्धसैनिक बल हटाए जाएं।
  4.  ग्राम सभा के लिए PESA एक्ट में संशोधन को वापस लिया जाए।
  5. तेंदूपत्ता और बांस एकत्र करने के काम को बिना किसी बाधा के संचालित होने तथा वाजिब दाम की सरकार को बिक्री के लिए जंगलों को सुरक्षित किया जाए।


कोआर्डिनेशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स आर्गेनाईजेशन (c d r o)
इंडियन एसोसिएशन ऑफ पीपल्स लायर्स ( i a p l)
 वूमेन अगेंस्ट स्टेट प्रिपरेशन एंड सेक्सुअल वायलेंस (w s s)