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Saturday, May 30, 2015

अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्कल पर लगे प्रतिबन्ध को जल्द से जल्द हटाया जाए !


अम्बेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल,आईआईटी मद्रास को सरकार द्वारा प्रतिबन्धित कर दिया गया है । जिसका गुनाह यह था कि उस संगठन ने राजतंन्त्र में राजा के खिलाफ़ उसकी नितियों क पर्दाफ़ास किया और उसके चरित्र को बताया । इस छात्र संगठन ने कहा कि सरकार गोमांस प्रतिबन्ध और विकास के नाम पर छात्रों-युवाओं को बरगला रही है । और मोदी सरकार कारपोरेट की सरकार है । यह सच्चाई तानाशाह मोदी व उनके समुह के मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति को बर्दास्त नहीं हुआ और उसने तुरंत फ़रमान जारी कर संगठन को प्रतिबन्धित कर दिया । 

ये वही लोग है जो अम्बेडकर को कब्जाने व उनके क्रन्तिकारी विचारों को कुंद करने के लिये दलितों के हितैसी बनने का सबसे ज्यादा दिखावा कर रहें है तथा अम्बेडकर पर बडे-बडे सेमिनार कर रहे है जयंतिया मना रहे है । अम्बेडकर को एक राष्ट्रवादी नेता के रुप में पेश कर रहें है और गोलवरकर के समान बता रहें है । दुसरी तरफ़ बीएचयू में एससी-एसटी कमेटी को अम्बेडकर जयंती नहीं मनाने दिया गया ।

साथियों, इस तानाशाही रवैये व संगठन पर प्रतिबंध लगाये जाने के विरोध में उन सभी जनवादी छात्रों-बुद्धिजिवियों-नगरिको व संगठनों को आवाज बुलन्द करनी चाहिये जो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता व लोकतंत्र के पक्षधर है ।
भगत सिंह छात्र मोर्चा इस घटना का विरोध करता है और अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्कल पर लगे प्रतिबन्ध को जल्द से जल्द हटाने की मांग करता है | 

एक और खैरलांजी




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राजस्थान का नागौर जिला दलितों की कब्रगाह बनता जा रहा है. राजधानी जयपुर से तक़रीबन ढाई सौ किलोमीटर दूर स्थित अन्य पिछड़े वर्ग की एक दबंग जाट जाति की बहुलता वाला नागौर जिला इन दिनों दलित उत्पीडन की निरंतर घट रही शर्मनाक घटनाओं की वजह से कुख्यात हो रहा है. विगत एक साल के भीतर यहाँ पर दलितों के साथ जिस तरह का जुल्म हुआ है और आज भी जारी है, उसे देखा जाये तो दिल दहल जाता है, यकीन ही नहीं आता है कि हम आजाद भारत के किसी एक हिस्से की बात कर रहे है. ऐसी ऐसी निर्मम और क्रूर वारदातें कि जिनके सामने तालिबान और अन्य आतंकवादी समूहों द्वारा की जाने वाली घटनाएँ भी छोटी पड़ने लगती है. क्या किसी लोकतान्त्रिक राष्ट्र में ऐसी घटनाएँ संभव है? वैसे तो असम्भव है, लेकिन यह संभव हो रही है, यहाँ के राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचें की नाकामी की वजह से.
नागौर जिले के बसवानी गाँव में पिछले महीने ही एक दलित परिवार के झौपड़े में दबंग जाटों ने आग लगा दी जिससे एक बुजुर्ग दलित महिला वहीँ जल कर राख हो गयी और दो अन्य लोग बुरी तरह से जल गए जिन्हें जोधपुर के सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए भेजा गया. इसी जिले के लंगोड़ गाँव में एक दलित को जिंदा दफनाने का मामला सामने आया है. मुंडासर में एक दलित औरत को घसीट कर ट्रेक्टर के गर्म सायलेंसर से दागा गया और हिरडोदा गाँव में एक दलित दुल्हे को घोड़ी पर से नीचे पटक कर जान से मरने की कोशिश की गयी. राजस्थान का यह जाटलेंड जिस तरह की अमानवीय घटनाओं को अंजाम दे रहा है, उसके समक्ष तो खाप पंचायतों के तुगलकी फ़रमान भी कहीं नहीं टिकते है, ऐसा लगता है कि इस इलाके में कानून का राज नहीं, बल्कि जाट नामक किसी कबीले का कबीलाई कानून चलता है,जिसमे भीड़ का हुकुम ही न्याय है और आवारा भीड़ द्वारा किये गए कृत्य ही विधान है.
डांगावास: दलित हत्याओं की प्रयोगशाला
नागौर जिले की तहसील मेड़ता सिटी का निकटवर्ती गाँव है डांगावास, जहाँ पर 150 दलित परिवार निवास करते है और यहाँ 1600 परिवार जाट समुदाय के है. तहसील मुख्यालय से मात्र 2 किलोमीटर दुरी पर स्थित है डांगावास… जी हाँ, यह वही डांगावास गाँव है जहाँ पिछले एक साल में चार दलित हत्याकांड हो चुके है, जिसमे सबसे भयानक हाल ही में हुआ है. एक साल पहले यहाँ के दबंग जाटों ने मोहन लाल मेघवाल के निर्दोष बेटे की जान ले ली थी, मामला गाँव में ही ख़त्म कर दिया गया. उसके बाद 6 माह पहले मदन पुत्र गबरू मेघवाल के पाँव तोड़ दिये गए. 4 माह पहले सम्पत मेघवाल को जान से ख़त्म कर दिया गया, इन सभी घटनाओं को आपसी समझाईश अथवा डरा धमका कर रफा दफाकर दिया गया. पुलिस ने भी कोई कार्यवाही नहीं की.
स्थानीय दलितों का कहना है कि बसवानी में दलित महिला को जिंदा जलाने के आरोपी पकडे नहीं गए और शेष जगहों की गंभीर घटनाओं में भी कोई कार्यवाही इसलिए नहीं हुयी क्योंकि सभी घटनाओं के मुख्य आरोपी प्रभावशाली जाट समुदाय के लोग है. यहाँ पर थानेदार भी उनके है, तहसीलदार भी उनके ही और राजनेता भी उन्हीं की कौम के है, फिर किसकी बिसात जो वे जाटों पर हाथ डालने की हिम्मत दिखाये? इस तरह मिलीभगत से बर्षों से दमन का यह चक्र जारी है, कोई आवाज़ नहीं उठा सकता है, अगर भूले भटके प्रतिरोध की आवाज़ उठ भी जाती है तो उसे खामोश कर दिया जाता है.

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जमीन के बदले जान
एक और ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि राजस्थान काश्तकारी कानून की धारा 42 (बी) के होते हुए भी जिले में दलितों की हजारों बीघा जमीन पर दबंग जाट समुदाय के भूमाफियाओं ने जबरन कब्ज़ा कर रखा है. यह कब्जे फर्जी गिरवी करारों, झूठे बेचाननामों और धौंस पट्टी के चलते किये गए है, जब भी कोई दलित अपने भूमि अधिकार की मांग करता है, तो दबंगों की दबंगई पूरी नंगई के साथ शुरू हो जाती है. ऐसा ही एक जमीन का मसला दलित अत्याचारों के लिए बदनाम डांगावास गाँव में विगत 30 वर्षों से कोर्ट में जेरे ट्रायल था, हुआ यह कि बस्ता राम नामक मेघवाल दलित की 23 बीघा 5 बिस्वा जमीन कभी मात्र 1500 रूपये में इस शर्त पर गिरवी रखी गयी कि चिमना राम जाट उसमे से फसल लेगा और मूल रकम का ब्याज़ नहीं लिया जायेगा. बाद में जब भी दलित बस्ता राम सक्षम होगा तो वह अपनी जमीन गिरवी से छुडवा लेगा. बस्ताराम जब इस स्थिति में आया कि वह मूल रकम दे कर अपनी जमीन छुडवा सकें, तब तक चिमना राम जाट तथा उसके पुत्रों ओमाराम और काना राम के मन में लालच आ गया, जमीन कीमती हो गयी. उन्होंने जमीन हड़पने की सोच ली और दलितों को जमीन लौटने से मना कर दिया. पहले दलितों ने याचना की. फिर प्रेम से गाँव के सामने अपना दुखड़ा रखा. मगर जिद्दी जाट परिवार नहीं माना. मजबूरन दलित बस्ता राम को न्यायालय की शरण लेनी पड़ी. करीब तीस साल पहले मामला मेड़ता कोर्ट में पंहुचा, बस्ताराम तो न्याय मिलने से पहले ही गुजर गया. बाद में उसके दत्तक पुत्र रतनाराम ने जमीन की यह जंग जारी रखी और अपने पक्ष में फैसला प्राप्त कर लिया. वर्ष 2006 में उक्त भूमि का नामान्तरकरण रतना राम के नाम पर दर्ज हो गया तथा हाल ही में में कोर्ट का फैसला भी दलित खातेदार रतना राम के पक्ष में आ गया. इसके बाद रतना राम अपनी जमीन पर एक पक्का मकान और एक कच्चा झौपडा बना कर परिवार सहित रहने लग गया लेकिन इसी बीच 21 अप्रैल 2015 को चिमनाराम जाट के पुत्र कानाराम तथा ओमाराम ने इस जमीन पर जबरदस्ती तालाब खोदना शुरू कर दिया और खेजड़ी के वृक्ष काट लिये. रत्ना राम ने इस पर आपत्ति दर्ज करवाई तो जाट परिवार के लोगों ने ना केवल उसे जातिगत रूप से अपमानित किया बल्कि उसे तथा उसके परिवार को जान से मार देने कि धमकी भी दी गयी. मजबूरन दलित रतना राम मेड़ता थाने पंहुचा और जाटों के खिलाफ रिपोर्ट दे कर कार्यवाही की मांग की. मगर थानेदार जी चूँकि जाट समुदाय से ताल्लुक रखते है सो उन्होंने रतनाराम की शिकयत पर कोई कार्यवाही नहीं की ,दोनों पक्षों के मध्य कुछ ना कुछ चलता रहा.
निर्मम नरसंहार
12 मई को जाटों ने एक पंचायत डांगावास में बुलाने का निश्चय किया, मगर रतना राम और उसके भाई पांचाराम के गाँव में नहीं होने के कारण यह स्थगित कर दी गयी. बाद में 14 मई को फिर से जाट पंचायत बैठी. इस बार आर पार का फैसला करना ही पंचायत का उद्देश्य था. अंततः एकतरफा फ़रमान जारी हुआ कि दलितों को किसी भी कीमत पर उस जमीन से खदेड़ना है. चाहे जान देनी पड़े या लेनी पड़े. दूसरी तरफ पंचायत होने की सुचना पा कर दलित अपने को बुलाये जाने का इंतजार करते हुये अपने खेत पर स्थित मकान पर ही मौजूद रहे. अचानक उन्होंने देखा कि सैंकड़ों की तादाद में जाट लोग हाथों में लाठियां, लौहे के सरिये और बंदूके लिये वहां आ धमके है और मुट्ठी भर दलितों को चारों तरफ से घेर कर मारने लगे. उन्होंने साथ लाये ट्रेक्टरों से मकान तोडना भी चालू कर दिया.
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लाठियों और सरियों से जब दलितों को मारा जा रहा था. इसी दौरान किसी ने रतनाराम मेघवाल के बेटे मुन्नाराम को निशाना बना कर फ़ायर कर दिया लेकिन उसी वक्त किसी और ने मुन्ना राम के सिर के पीछे की और लोहे के सरिये से भी वार कर दिया जिससे मुन्नाराम गिर पड़ा और गोली रामपाल गोस्वामी को जा कर लग गयी जो कि जाटों की भीड़ के साथ ही आया हुआ था. गोस्वामी की बेवजह हत्या के बाद जाट और भी उग्र हो गये. उन्होंने मानवता की सारी हदें पार करते हए वहां मौजूद दलितों का निर्मम नरसंहार करना शुरू कर दिया.
ट्रेक्टर जो कि खेतों में चलते है और फसलों को बोने के काम आते है. वे निरीह, निहत्थे दलितों पर चलने लगे. पूरी बेरहमी से जाट समुदाय की यह भीड़ दलितों को कुचल रही थी. तीन दलितों को ट्रेक्टरों से कुचल कुचल कर वहीँ मार डाला गया. इन बेमौत मारे गए दलितों में श्रमिक नेता पोकर राम भी था जो उस दिन अपने रिश्तेदारों से मिलने के लिए अपने भाई गणपत मेघवाल के साथ वहां आया हुआ था. जालिमों ने पोकरराम के साथ बहुत बुरा सलूक किया. उस पर ट्रेक्टर चढाने के बाद उसका लिंग नोंच लिया गया तथा आँखों में जलती लकड़ियाँ डाल कर ऑंखें फोड़ दी गयी. महिलाओं के साथ ज्यादती की गयी और उनके गुप्तांगों में लकड़ियाँ घुसेड़ दी गयी. तीन लोग मारे गए ,14 लोगों के हाथ पांव तोड़ दिये गए, एक ट्रेक्टर ट्रोली तथा चार मोटर साईकलें जलाकर राख कर दी गयी, एक पक्का मकान जमींदोज कर दिया गया और कच्चे झौपड़े को आग के हवाले कर दिया गया. जो भी समान वहां था उसे लूट ले गए. इस तरह तकरीबन एक घंटा मौत के तांडव चलता रहा, लेकिन मात्र 4 किलोमीटर दूरी पर मौजूद पुलिस सब कुछ घटित हो जाने के बाद पंहुची और घायलों को अस्पताल पंहुचाने के लिए एम्बुलेंस बुलवाई, जिसे भी रोकने की कोशिश जाटों की उग्र भीड़ ने की. इतना ही नहीं बल्कि जब गंभीर घायलों को मेड़ता के अस्पताल में भर्ती करवाया गया तो वहां भी पुलिस तथा प्रशासन की मौजूदगी में ही धावा बोलकर बचे हुए दलितों को भी खत्म करने की कोशिश की गयी. यह अचानक नहीं हुआ, सब कुछ पूर्वनियोजित था.
ऐसी दरिंदगी जो कि वास्तव में एक पूर्वनियोजित नरसंहार ही था, इसे नागौर की पुलिस और प्रशासन जमीन के विवाद में दो पक्षों की ख़ूनी जंग करार दे कर दलित अत्याचार की इतनी गंभीर और लौमहर्षक वारदात को कमतर करने की कोशिश कर रही है. पुलिस ने दलितों की ओर से अर्जुन राम के बयान के आधार पर एक कमजोर सी एफआईआर दर्ज की है जिसमे पोकरराम के साथ की गयी इतनी अमानवीय क्रूरता का कोई ज़िक्र तक नहीं है और ना ही महिलाओं के साथ हुयी भयावह यौन हिंसा के बारे में एक भी शब्द लिखा गया है. सब कुछ पूर्वनियोजित था, भीड़ को इकट्टा करने से लेकर रामपाल गोस्वामी को गोली मारने तक की पूरी पटकथा पहले से ही तैयार थी ताकि उसकी आड़ में दलितों का समूल नाश किया जा सके. कुछ हद तक वो यह करने में कामयाब भी रहे, उन्होंने बोलने वाले और संघर्ष कर सकने वाले समझदार घर के मुखिया दलितों को मौके पर ही मार डाला. बाकी बचे हुए तमाम दलित स्त्री पुरुषों के हाथ और पांव तोड़ दिये जो ज़िन्दगी भर अपाहिज़ की भांति जीने को अभिशप्त रहेंगे, दलित महिलाओं ने जो सहा वह तो बर्दाश्त के बाहर है तथा उसकी बात करना ही पीड़ाजनक है ,इनमे से कुछ अपने शेष जीवन में सामान्य दाम्पत्य जीवन जीने के काबिल भी नहीं रही. इससे भी भयानक साज़िश यह है कि अगर ये लोग किसी तरह जिंदा बच कर हिम्मत करके वापस डांगावास लौट भी गये तो रामपाल गोस्वामी की हत्या का मुकदमा उनकी प्रतीक्षा कर रहा है, यानि कि बाकी बचा जीवन जेल की सलाखों के पीछे गुजरेगा, अब आप ही सोचिये ये दलित कभी वापस उस जमीन पर जा पाएंगे. क्या इनको जीते जी कभी न्याय हासिल हो पायेगा? आज के हालात में तो यह असंभव नज़र आता है.

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कुछ दलित एवं मानव अधिकार जन संगठन इस नरसंहार के खिलाफ आवाज़ उठा रहे है मगर उनकी आवाज़ कितनी सुनी जाएगी यह एक प्रश्न है. सूबे की भाजपा सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी है. कोई भी ज़िम्मेदार सरकार का नुमाइंदा घटना के चौथे दिन तक ना तो डांगावास पंहुचा था और ना ही घायलों की कुशलक्षेम जानने आया. अब जबकि मामले ने तूल पकड़ लिया है तब सरकार की नींद खुली है, फिर भी मात्र पांच किलोमीटर दूर रहने वाला स्थानीय भाजपा विधायक सुखराम आज तक अपने ही समुदाय के लोगों के दुःख को जानने नहीं पंहुचा. नागौर जिले में एक जाति का जातीय आतंकवाद इस कदर हावी है कि कोई भी उनकी मर्जी के खिलाफ नहीं जा सकता है. दूसरी और जाट समुदाय के छात्र नेता, कथित समाजसेवक और छुटभैये नेता इस हत्याकाण्ड के लिए एक दुसरे को सोशल मीडिया पर बधाईयाँ दे रहे है तथा कह रहे है कि आरक्षण तथा अजा जजा कानून की वजह से सिर पर चढ़ गए इन दलितों को औकात बतानी जरुरी थी, वीर तेज़पुत्रों ने दलित पुरुषों को कुचल कुचल कर मारा तथा उनके आँखों में जलती लकड़ियाँ घुसेडी और उनकी नीच औरतों को रगड़ रगड़ कर मारा तथा ऐसी हालत की कि वे भविष्य में कोई और दलित पैदा ही नहीं कर सकें. इन अपमानजनक टिप्पणियों के बारे में मेड़ता थाने में दलित समुदाय की तरफ से एफआईआर भी दर्ज करवाई गयी है, जिस पर कार्यवाही का इंतजार है.
अगर डांगावास नरसंहार की निष्पक्ष जाँच करवानी है तो इस पूरे मामले को सीबीआई को सौपना होगा क्योंकि अभी तक तो जाँच अधिकारी भी जाट लगा कर राज्य सरकार ने साबित कर दिया है कि वह कितनी संवेदनहीन है. आखिर जिन अधिकारियों के सामने जाटों ने यह तांडव किया और उसकी इसमें मूक सहमति रही जिसने दलितों की कमजोर एफआईआर दर्ज की और दलितों को फ़साने के लिए जवाबी मामला दर्ज किया तथा पोस्टमार्टम से लेकर मेडिकल रिपोर्ट्स तक सब मैनेज किया, उन्हीं लोगों के हाथ में जाँच दे कर राज्य सरकार ने साबित कर दिया कि उनकी नज़र में भी दलितों की औकात कितनी है.
इतना सब कुछ होने के बाद भी दलित ख़ामोश है, यह आश्चर्यजनक बात है. कहीं कोई भी हलचल नहीं है. मेघसेनाएं, दलित पैंथर्स, दलित सेनाएं, मेघवाल महासभाएं सब कौनसे दड़बे में छुपी हुयी है? अगर इस नरसंहार पर भी दलित संगठन नहीं बोले तब तो कल हर बस्ती में डांगावास होगा, हर घर आग के हवाले होगा, हर दलित कुचला जायेगा और हर दलित स्त्री यौन हिंसा की शिकार होगी, हर गाँव बथानी टोला होगा, कुम्हेर होगा, लक्ष्मणपुर बाथे और भगाना होगा. इस कांड की भयावहता और वहशीपन देख कर पूंछने का मन करता है कि क्या यह एक और खैरलांजी नहीं है? अगर हाँ तो हमारी मरी हुयी चेतना कब पुनर्जीवित होगी या हम मुर्दा कौमों की भांति रहेंगे अथवा जिंदा लाशें बन कर धरती का बोझ बने रहेंगे. अगर हम दर्द से भरी इस दुनिया को बदल देना चाहते है तो हमें सडकों पर उतरना होगा और तब तक चिल्लाना होगा जब तक कि डांगावास के अपराधियों को सजा नहीं मिल जाये और एक एक पीड़ित को न्याय नहीं मिल जाये, उस दिन के इंतजार में हमें रोज़ रोज़ लड़ना है, कदम कदम पर लड़ना है और हर दिन मरना है, ताकि हमारी भावी पीढियां आराम से, सम्मान और स्वाभिमान से जी सके.
(लेखक राजस्थान में दलित, आदिवासी और घुमन्तु समुदाय के लिए संघर्षरत है)


Wednesday, May 27, 2015

झारखंड के मूलवासी - आदिवासियों का ऐलान : न जान देंगे, न जमीन देंगे !

रंजीत वर्मा की कविता ‘यह जमीन ही है’ कि शुरुआती पंक्तियां -

जरूरी है पढ़ाई-लिखाई
लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है सीखना
होती है क्या हक की लड़ाई
जरूरी है कमाई-धमाई
जोड़ना पाई-पाई
लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है
बचानी अपनी जमीन
जिसे पुरखों से
समझते आ रहे हैं हम अपनी माई

और इसी कविता की अंतिम पंक्तियां कुछ इस प्रकार है-
लेकिन पैदा करती है इसे जमीन ही
यह अंतर हम समझते हैं
कैसे बदल सकते हैं हम
जमीन को मुआवजे में ।
झारखंड में 104 एमओयू हुए, आदिवासियों ने  हर मोर्चे पर अपनी जमीन  बचने के लिए संघर्ष किया. जिसका नतीजा रहा कि कहीं पर भी कम्पनियाँ अपना प्लांट नहीं स्थापित कर पायी. प्रदेश में जितने भी महानायक हुए है जैसे तिलकामांझी, बिरसा मुंडा, सिद्धू-कान्हू आदि  उनकी लड़ाई का एजेंडा जमीन ही रहा है। झारखंड के लोग जल-जंगल-जमीन पर अपना हक नहीं छोड़ सकते क्योंकि ये लड़ाई उनके जीवन-मरण का है। पेश है झारखण्ड के भूमि आंदोलन पर रूपेश कुमार का महत्वपूर्ण आलेख;

दरअसल रंजीत वर्मा की यह कविता देश में मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ चल रहे आंदोलन का प्रतिनिधित्व करती है।
30 दिसम्बर 2014 को लोकसभा सत्र के बाद मोदी सरकार ने इस अध्यादेश को जारी किया था। हमारे देश में 1894 ई. में जब अंग्रेजी हुकूमत ने भूमि अधिग्रहण कानून बनाया, तो उसका मकसद भारतीय किसानों की जमीन का मनमाना इस्तेमाल करना ही था। इस कानून के जरिए अंग्रेजों ने भारत में बड़े पैमाने पर जमीन का अधिग्रहण किया। दरअसल यह कानून ईस्ट इंडिया कम्पनी के 1824 ई. वाले बंगाल के रेवेन्यू एक्ट का ही विस्तार था। 15 अगस्त 1947 ई. को अंग्रेजों ने अपने भारतीय दलालों के हाथों सत्ता का हस्तांतरण तो कर दिया लेकिन उनके विष्वस्त दलालों ने उनके ही कानून को यथासंभव बनाए रखा। इस बीच हमारे देश में 1894 ई. के कानून के तहत ही जमीन अधिग्रहण होता रहा, लेकिन नब्बे के दशक के पहले थोड़ी सी राहत ये थी कि अधिकांश अधिग्रहण सार्वजनिक क्षेत्रों के लिए ही किया गया लेकिन देश में आर्थिक उदारीकरण की नीति लागू होने के बाद बड़े पैमाने पर सरकार ने कारपोरेट के लिए जमीन अधिग्रहण करना शुरु किया। इसी के कारण ‘सेज’ के नाम पर हजारों एकड़ जमीन अधिग्रहित करके निजी कम्पनियों को सौंपा गया।

1894 ई. का कानून, जो जमीन के असली मालिक यानि किसान-आदिवासियों के पूर्णतः विरोधी था, ऐसे कानून को बदलने की मांग लम्बे समय से उठायी जा रही थी। उससे भी बड़ी बात ये थी कि ‘सेज’ के तहत भूमि अधिग्रहण को लेकर सिंगूर, नन्दीग्राम, लालगढ़, कलिंगनगर आदि जगहों पर उच्च स्तर का प्रतिरोध देखा गया था। छत्तीसगढ़ के कई इलाके में तो भूमि अधिग्रहण की कोशिश एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पायी। आदिवासियों व किसानों का विष्वास इस व्यवस्था से पूरी तरह से खत्म ना हो जाए, इसीलिए एक ‘लॉलीपॉप’ की तरह 2013 में ‘‘उचित मुआवजा, भूमि अधिग्रहण में पारदर्षिता, पुनर्वास व पुनर्स्थापन के अधिकार अधिनियम’’ को भारतीय संसद में पारित किया गया। हां, इस अधिनियम में किसानों का थोड़ा सा हित जरूर दिखाई पड़ा था, लेकिन नववर्श की सौगात मोदी सरकार ने देषवासियों को भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 के साथ बलात्कार के जरिए दिया।

आर्थिक उदारीकरण केे वर्त्तमान दौर में कारपोरेट ने राज्य को बाध्य कर दिया है कि वह निजी कम्पनियों और इंटरनेषनल निगमों के लिए भूमि का अधिग्रहण करे। वे न केवल औद्योगिक उत्पाद परियोजना के लिए बल्कि रियल स्टेट, खनन क्षेत्र और सार्वजनिक निजी भागीदारी की विविध परियोजनाओं के लिए भी भूमि का अधिग्रहण चाहती है। यही कारण है कि राज्य सरकारें भूमि अधिग्रहण को बढ़ावा देने की खुली दौड़ में उतर पड़ी है। आज राज्य अपनी कल्याणकारी भूमिका छोड़कर निजी क्षेत्र के हित में काम करने वाला दलाल बन गया है। इसीलिए भूमि अधिग्रहण अध्यादेष के पक्ष में रोज-ब-रोज झूठी बातें फैलाकर जनता को गुमराह करने की कोषिष जारी है, लेकिन मोदी सरकार अपने तमाम कोषिषों के बावजूद भी अभी तक अध्यादेश को कानूनी षक्ल नहीं दे पायी है। कारण स्पश्ट है कि एक तरफ स्पश्ट बहुमत का अहंकार व अपने आका पूंजीपतियों ;जिन्होंने इनकी इस स्पश्ट बहुमत के लिए अपनी तिजोरी खोल दी थीद्ध को खुश करने के लिए एवं अपने पूर्वजों के तरह ही ‘एक ही बात को इतनी बार दोहराओ कि झूठ भी सच लगने लगे’ इस पंक्ति पर विष्वास के कारण मोदी सरकार इस अध्यादेष को कानूनी शक्ल देने से पीछे हटने को तैयार नहीं है, तो वहीं दूसरी ओर विपक्षी पार्टियां इस मुद्दे को आगे बढ़ाकर जनता के बीच अपने खोए विष्वास को फिर से हासिल करने के लिए अंतिम बाजी खेलने के लिए तैयार है।

राज्यसभा में बहुमत नहीं होने के कारण इस सत्र में अध्यादेश को दुबारा 3 अप्रेल को फिर से मोदी सरकार को जारी करना पड़ा है, क्योंकि नियम के अनुरूप अध्यादेश लाने के लिए संसद का कम से कम एक सदन का सत्रावसान में होना जरूरी है। नियमानुसार कोई भी अध्यादेश 6 महीने के लिए और संसद की कार्यवाही जारी रहने की स्थिति में; संबंधित बिल पारित ना होने की स्थिति में संसद सत्र शुरु होने से अगले 6 सप्ताह तक प्रभावी रहता है। इसी वजह से अध्यादेश 5 अप्रेल को समाप्त हो रहा था।

अध्यादेश करेगा झारखंड में आग में घी का काम 

अध्यादेश की घोशषणा होते ही पूरे देश में इसकी खिलाफत होनी शुरु हो गई थी। भाजपा को छोड़ के तमाम राजनीतिक पार्टियों ने इस अध्यादेश का विरोध किया, यहां तक कि एनडीए में शामिल शिव सेना, अकाली दल व लोजपा ने भी अध्यादेश के कुछ बिन्दुओं पर सवाल उठाए। देश के विभिन्न जगहों पर काम कर रहे स्वतंत्र संगठनों के साथ-साथ कई एनजीओकर्मी भी अध्यादेश के खिलाफ एक मंच पर आए। मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचानेवाले अन्ना हजारे जैसे लोग भी इसकी खिलाफत में आगे आए। पूरे देश में आंदोलन अपने-अपने तरीके से आज भी चल रहा है। इन आंदोलनों को एक मंच से चलाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं, लेकिन झारखंड में तो इस अध्यादेश ने जल-जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई लड़ रहे लोगों के दिल में जो असंतोश की आग सुलग रही थी, उसमें घी देने का ही काम किया है।

मोदी सरकार द्वारा भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की घोषणा होते ही झारखंड के आंदोलनकारी, जो कि आंदोलन की धीमी गति से थोड़े से सुस्त हो गए थे, इस अध्यादेश को आंदोलन के लिए इंधन समझकर इसके खिलाफ उठ खड़े हुए। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ झारखंड के बुद्धिजीवियों, समाजकर्मियों, पत्रकारों व स्वतंत्र आंदोलनकारियों ने ‘‘भूमि अधिग्रहण विरोधी मोर्चा’’ का गठन किया तो वहीं दूसरी तरफ 2007 में ही गठित ‘‘विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन’’ ने 20-21 जनवरी को वृहत रणनीति बनाने के लिए अपने दूसरे राज्य सम्मेलन की घोषणा की।

विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन के झारखंड के संयोजक दामोदर तूरी बताते हैं कि ‘‘भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की घोषणा के तुरंत बाद ही हमने पूरे झारखंड के आंदोलनकारियों की बैठक बुलायी और उसी बैठक में 20-21 जनवरी को रांची में राज्य सम्मेलन का निर्णय लिया गया व सम्मेलन के प्रचार के दौरान इस काले अध्यादेश की जन विरोधी बातों को पर्चा व पोस्टर के माध्यम से जनता के बीच ले जाया गया। सम्मेलन में झारखंड के विभिन्न जिले के 400 प्रतिनिधि शामिल हुए और देश के महत्वपूर्ण आंदोलनकारियों ने भी हिस्सा लिया। इस पूरे सम्मेलन में हमलोगों ने यही चर्चा की कि कैसे इस अध्यादेश के खिलाफ चल रही लड़ाई को झारखंड के जल-जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई से जोड़ा जाए। अंततः हमने फैसला लिया कि हम गांव स्तर पर जाकर सभा करेंगे, बैठक करेंगे और जनता को हर लड़ाई के लिए तैयार करने की कोशिश करेंगे।

सम्मेलन के बाद सभी प्रतिनिधियों के साथ मिलकर हमने अध्यादेश की प्रति को जलाया। 30 मार्च को हजारों की संख्या में हमने राजभवन मार्च किया। गांव में बैठकों का दौर जारी है। 7 मई को गुमला के पालकोट में हुई रैली व आमसभा में 5000 लोग शामिल हुए, यहां ‘‘वन प्राणी आश्रयणी’’ के नाम पर सरकार 83 मोजा की जमीन को अधिग्रहित करने की कोशिश कर रही है, लेकिन वहां की जनता की एकता के कारण अभी तक ये संभव नहीं हो पाया है।’’

हालांकि, भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की घोषणा के बाद ही झारखंड में भाजपा को छोड़कर तमाम पार्टियों ने विरोध-प्रदर्षन शुरु कर दिया था, एक दैनिक अखबार की मानें तो जनवरी से लेकर अब तक तीन दिन के अंतराल पर किसी न किसी पार्टी का कहीं ना कहीं विरोध-प्रदर्षन हो रहा है। लेकिन भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के सबसे पहले बड़ा कदम उठाया भाकपा (माओवादी) ने। माओवादियों ने 10 से 12 फरवरी तक तीन दिवसीय विरोध-प्रदर्षन का एलान झारखंड व बिहार में किया और इस विरोध-प्रदर्षन के अंतिम दिन यानि 12 फरवरी को बिहार-झारखंड बंद का एलान किया। उनके इस विरोध-प्रदर्षन को जबरदस्त जनसमर्थन मिला। इधर झारखंड की राजधानी रांची में तमाम आंदोलनकारी ताकतों को एक करने की कोशिश भी शुरु हो गई।

झारखंड के वरिष्ठ पत्रकार व समाजकर्मी फैसल अनुराग बताते हैं कि ‘16 मई 2014 के बाद देश में एक रेडिकल चेंज हुआ है, 16 मई के पहले की सरकार यानि कांग्रेस व भाजपा की आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है, लेकिन उन नीतियों को लागू करने में दोनों सरकारों में गुणात्मक फर्क है। वर्त्तमान सरकार में तमाम क्षेत्रों में सरकार की आक्रामकता बढ़ी है, सारे पूंजीपति सरकार के पक्ष में गोलबंद है, किसी भी स्तर के विरोध के स्वर को निर्मम तरीके से दबाया जा रहा है, सांप्रदायिक ताकतें सभी जगह अपना पैठ बना रही है। ऐसे समय में समय की मांग है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद व मोदी सरकार के संयुक्त हमले से टक्कर लेने के लिए हम सभी विपक्षी ताकतों को एक मंच पर लाएं। इसी सोच के साथ झारखंड में एक संयुक्त मोर्चा बनने की शुरुआत हुई, भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ में। पहली बैठक में ही बहुत सारी पार्टियां आई और 4 मई को झारखंड बंद का एलान किया गया, जो कि आष्चर्यजनक रूप से सफल हुआ।

हम वैचारिक मतभेद रखते हुए भी इस सवाल पर एकजुट हुए हैं और जो पार्टियां इस मोर्चे में अब तक नहीं है, उन्हें भी शामिल करने की कोशिश की जा रही है।’’ आगे वे कहते हैं कि ‘‘एक बात साफ है कि झारखंड की जनता अब जमीन नहीं देगी, जमीन को बचाने की लड़ाई झारखंड में कोई नई बात नहीं है, अब जनता इतनी सचेत हो गई है कि वो जनता का महत्व समझने लगे हैं।’’ वे उदाहरण देकर बताते हैं कि ‘‘11 मई को रांची में ‘ग्रेटर रांची’ के नाम पर हो रहे जमीन अधिग्रहण के खिलाफ 7-8 हजार लोगों ने बिना किसी नेता के सड़क पर उतरकर प्रदर्षन किया और साफ शब्दों में जमीन देने से मना कर दिया। यहां तक कि जिन दलाल नेताओं ने मंच पर जाकर भाषण देना चाहा, उन्हें हूट करके भगा दिया गया।’’

बोकारो के स्वतंत्र पत्रकार विशद कुमार दूसरी तरफ हमारा ध्यान दिलाते हैं, वे कहते हैं कि ‘‘झारखंड में बहुफसली जमीन की मात्रा ऐसे ही कम है और सरकार अगर वो भी ले लेगी तो हम खाएंगे क्या ? बड़े-बड़े उद्योगों के लिए जमीन लेने के बजाए सरकार छोटे उद्योग क्यों नहीं खोलती ? पठारी क्षेत्रों को छोटे उद्योग के लिए क्यों नहीं उपयोग में लाया जाता है ? बात साफ है कि सरकार बड़े पूंजीपतियों की चाकरी कर रही है।’’ वे कहते हैं कि ‘‘अनाज के उत्पादन के सवाल पर कोई भी पार्टियां कुछ नहीं बोल रही है, यहो तक कि वामपंथी पार्टियां भी। लेकिन एक बात साफ है कि 1956 ई. में जब बोकारो में स्टील प्लांट के लिए जमीन का अधिग्रहण हुआ, तो किसी ने कुछ नहीं बोला, लेकिन अब स्थिति वैसी नहीं है, अब लोग लड़ेंगे, वे अपनी जमीन छीनने का तमाशा नहीं देखेंगे।’’

झारखंड में एक बात तो साफ है कि तिलकामांझी, बिरसा मुंडा, सिद्धू-कान्हू आदि जितने भी महानायक हुए हैं, उनकी लड़ाई का एजेंडा जमीन ही रहा है। झारखंड के लोग जल-जंगल-जमीन पर अपना हक नहीं छोड़ सकते क्योंकि ये लड़ाई उनके जीवन-मरण का है। लेकिन सबसे बड़ी बात ये है कि आखिर इस लड़ाई का नेतृत्व कौन करेगा ? क्या बिना नेतृत्व के लड़ाई लड़ी जा सकेगी ?

वरिष्ठ पत्रकार व समाजकर्मी फैसल अनुराग संयुक्त मोर्चे पर जोर देते हैं, वहीं विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन के झारखंड संयोजक दामोदर तूरी कहते हैं कि ‘‘कल तक जिसने आदिवासियों की जमीन छीनी, अधिग्रहण के खिलाफ चल रहे आंदोलन पर लाठी-गोली बरसायी, ऐसे लोगों के साथ मिलकर लड़ाई कैसे लड़ी जा सकती है ? ये तो मौके के यार हैं, कल जैसे ही इनके हाथ में सत्ता आएगी, ये और भी तेजी से भूमि अधिग्रहण करेंगे।’’ वे बताते हैं कि ‘‘झारखंड में जो 104 एमओयू हुए थे, उसमें सबसे अधिक तो पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के शासनकसल में हुआ था और फिर जब अर्जुन मुंडा और झामुमो की संयुक्त सरकार बनी तब अधिग्रहण हुआ, तो फिर बाबूलाल और झामुमो कैसे लड़ेंगे भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लड़ाई ?’’  वहीं बोकारो के स्वतंत्र पत्रकार विशद कुमार कहते हैं कि ‘‘संयुक्त मोर्चा सिर्फ एक राजनीतिक स्टंट है। एक दूसरे के खिलाफ हमेशा लड़ने वाली पार्टियां कभी ए मंच पर सच्चे दिल से नहीं आ सकती, ये सिर्फ जनता में भ्रम फैलाना है और वामपंथी तो अपने राजनीतिक जनाधार खत्म होने के डर से व आंदोलन में दिखने के लिए ही सिर्फ संयुक्त मोर्चे का राग अलापती है।’’

खैर, एक बात झारखंड के विभिन्न जिले का दौरा करने पर मैंने जो अनुभव किया, वह ये है कि आंदोलन किसी नेता का मोहताज नहीं है और झारखंड की जनता ने गद्दार नेताओं की एक पूरी फौज देखी है, इसलिए अब वो जल्दी किसी पर भी विष्वास नहीं कर पाती है। लेकिन उनका लड़ने का जज्बा अपने पूर्वजों से भी अधिक है। एक वाकया बताता हूं, मैं एक दिन एक गांव में कुछ लोगों से बात कर रहा था, तभी 15-16 वर्ष का एक लड़का मेरे पास आया और बोला ‘‘मेरे पास एक एकड़ जमीन है, एक छोटा सा घर है, 2 भाई और 2 बहन हैं, पापा-मम्मी इसी जमीन में मेहनत करके हमारा पालन-पोषण करते हैं और हमलोगों को पढ़ाते भी हैं। अगर सरकार हमें कल हमारी जमीन से हटने को बोलेगी तो क्या हम हट जाएंगे, कुछ पैसे लेकर ? हरगिज नहीं, हम ऐसा बोलने वालों की जान ले लेंगे, पर जमीन नहीं देंगे।’’

स्पष्टत: कहा जा सकता है कि झारखंड में ज्यों-ज्यों इस अध्यादेश के बारे में लोगों को पता चल रहा है, उनका झुकाव झारखंड में लम्बे समय से चली आ रही जल-जंगल-जमीन बचाने की लड़ाई के प्रति बढ़ रहा है। उन्हें लगने लगा है कि अब हमें मिलकर लड़ना ही होगा क्योंकि इस अध्यादेश का कानूनी शक्ल लेना सिर्फ आदिवासियों की ही नहीं बल्कि उनकी अपनी जिन्दगी भी तबाह हो जाएगी।
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शिक्षा के गैर-आधुनिक अंतर्विरोध



नई सरकार के आने के बाद शिक्षा के भगवाकरण पर चिंताएं बढ़ गई हैं. लेकिन क्या इसके पहले की सरकारों के दौरान और भारतीय राज्य के तहत शिक्षा सचमुच एक धर्मनिरपेक्ष, वैज्ञानिक चेतना देने वाली रही है? ऐसा क्यों है कि हरेक नई सरकार सबसे शुरुआती कदमों के बतौर शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव लाने की कोशिशें करती है? जवाब तलाशने की कोशिश कर रही हैं रुबीना सैफी. समयांतर के फरवरी विशेषांक में प्रकाशित लेख. 

भारत को अगर हम एकजुट और एकीकृत आधुनिक राष्ट्र बनाना चाहते हैं तो यहां सभी धर्मों के ग्रंथों की संप्रभुता को खत्म करना ही होगा।
-डॉ.बी.आर.अंबेडकर

बीते वर्ष सात दिसंबर को लालकिला मैदान में गीता पर आयोजित एक कार्यक्रम में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि भगवद् गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ (राष्ट्रीय पुस्तक) घोषित करने की बस औपचारिकता भर बाकी है। इससे पहले,  भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में नई सरकार के आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी विदेश यात्राओं में विदेशी राष्ट्राध्यक्षों को गीता की प्रतियां भेंट करते रहे हैं। यही नहीं, सरकार की गतिविधियों में धार्मिक प्रतीकों का उपयोग दिन-प्रति-दिन बढ़ता जा रहा है। लेकिन धर्म और धार्मिक मूल्यों को प्रचारित करने की सबसे ज्यादा कोशिश शिक्षा के क्षेत्र में हो रही है। नई सरकार के आने के महीने भर के भीतर ही नए राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के गठन की बातें शुरू हुईं और कहा जाने लगा कि देश को एक नए दृष्टिकोण से पाठ्यक्रम बनाने की ज़रूरत है। इसने बड़े पैमाने पर शिक्षा के सांप्रदायीकरण और ब्राह्मणवादीकरण की आशंकाएं बढ़ा दी हैं।
सवाल यह उठता है कि सरकार बदलते ही पाठ्यक्रमों में बदलाव की कोशिशें क्यों शुरू हो जाती हैं? करिअर और ज्ञान के पहलू को फिलहाल परे भी कर दें और सिर्फ सरकारों, राजनीतिक मकसद और सामाजिक गतिविधियों का संदर्भ ही लें तो आखिर शिक्षा इतनी अहम क्यों बन जाती है?
इसका संबंध शिक्षा के कार्यभार से है, जिसके तहत वह समाज के पुनरुत्पादन में मदद करती है। यह इस पुनरुत्पादन का एक बुनियादी औजार है। इसे हम एक बच्चे के पैदा होने से लेकर एक सामाजिक इकाई के बतौर विकसित होने तक की प्रक्रिया को सामने रख कर आसानी से समझ सकते हैं।
बच्चा जब जन्म लेता है तो वह एक सामाजिक स्थिति में जन्म लेता है। वह जिस परिवार में जन्म लेता है, वह उसका बेटा या बेटी होता है। वह एक जाति में जन्म लेता है। वह एक धर्म में जन्म लेता है। वह एक खास क्षेत्र और एक खास भाषा-भाषी समुदाय में जन्म लेता है, जिसकी अपनी विशिष्ट स्मृतियां, संस्कृति और इतिहास होता है। पैदा होने के बाद बच्चा इन सारे तत्वों को एक-एक कर, धीरे-धीरे सीखने, समझने और अपनाने लगता है, जो उस समाज में उसकी अपनी जगह को और इस जगह को लेकर उसके व्यवहार, उसकी धारणा और नजरिए को निर्मित-निर्धारित करती हैं। साथ ही दूसरों के उसके प्रति नजरिए को भी निर्मित या परिवर्तित करती हैं। यानी वह उस समाज की एक ईकाई के रूप में विकसित होने लगता है, जिसे समाजीकरण की प्रक्रिया कहा जाता है। समाज में उसकी जो भूमिका होती है वह सब उसे सिखाने में परिवार जरिया बनता है। इसे प्राथमिक समाजीकरण भी कहा जाता है। उसके जन्म पर जिस तरह के रीति-रिवाज होते हैं। उसका खानपान, उसका पहनावा,उसका आचरण उसी से तय होता है, उसे किससे दोस्ती करनी चाहिए, किसके साथ खाना खाना चाहिए किसके साथ नहीं, परिवार इन सब व्यवहारों को तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यदि कोई बच्चा किसी धर्म में पैदा होता है तो उसे उसमें विश्वास करना सिखाया जाता है, ऐसा विश्वास जिसपर प्रश्न नहीं किया जा सकता। अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि एक सवर्ण हिंदू बच्चे के खेलने की रुचियां एक दलित या एक मुस्लिम बच्चे के खेलने की रुचियों या खिलौने से भिन्न होती हैं। यह उनके प्राथमिक समाजीकरण की प्रक्रिया है, परिवार जिसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परिवार को दूसरी आस्थाओं से कोई सरोकार नहीं होता, बल्कि हमारे समाज में परिवार का पूरा ढांचा ही ऐसा होता है कि वह धर्म को ज्यों का त्यों कायम रखे। ऐसे में परिवार के भीतर बच्चे में धर्मनिरपेक्षता के मूल्य नहीं मिल सकते। 
परिवारों के अलावा आस-पड़ोस, समुदाय और विद्यालय आदि से भी बच्चों का समाजीकरण होता है,जिसे द्वितीयक समाजीकरण कहते हैं। परिवार के बाद बच्चे का समाजीकरण करने में विद्यालय सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह वो जगह होती है, जहां बच्चे अपने परिवार के बाद सबसे ज्यादा वक्त बिताते हैं, अपने दोस्त बनाते हैं, चीज़ों के बारे में देखना सीखते हैं और दुनिया में अपनी जगह को पहचानना और समझना सीखते हैं। व्यक्ति अपने जीवन में बहुत बाद तक, स्कूल के शिक्षकों और साथ में पढ़ने वालों के व्यवहार और नजरिए से काफी प्रभावित रहता है। इसलिए, मूल्यों और चेतना के स्तर पर एक राष्ट्र कैसा बनेगा, इसमें उस राष्ट्र की शिक्षा प्रणाली की भी बड़ी भूमिका होती है।
इस लेख की शुरुआत डॉ. बी. आर. अंबेडकर के जिस उद्धरण से की गई है, वह इस राष्ट्र के बारे में उनके सपने के बारे में बताता है। एक आधुनिक और एकजुट राष्ट्र, जिसके लिए धर्मग्रंथों की संप्रभुता खत्म की जानी थी। एक आधुनिक राष्ट्र के लिए एक ऐसी आधुनिक चेतना जरूरी है, जो बराबरी, भाईचारे, स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता तथा वैज्ञानिक और आलोचनात्मक नजरिए पर आधारित हो। भारत जैसे समाज के लिए यह इसलिए जरूरी था, क्योंकि यहां शोषण और उत्पीड़न का जो सामाजिक ढांचा सदियों से बना हुआ है और जाति व्यवस्था को जिस तरह धार्मिक और आध्यात्मिक स्वीकृति मिली हुई है, कि धार्मिक सत्ता और धर्म ग्रंथों को चुनौती दिए बिना सामाजिक बराबरी और न्याय की मांग तक नहीं की जा सकती है। हमारे यहां जाति व्यवस्था और पितृसत्ता की शोषणकारी सत्ता को इस तरह ईश्वर और मोक्ष, पाप और पुण्य के धार्मिक कथ्य में बांध दिया गया है कि साधारण लोगों के लिए जाति पर सवाल करने और उसका विरोध करने के बारे में सोचना भी असंभव है। इसलिए भारत जैसे समाज में धार्मिक संप्रभुता को नकारना, आधुनिक चेतना के विकास की पूर्वशर्त है। आजादी के बाद वादे के मुताबिक भारत को एक आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र बनना था। सामाजिक न्याय और बराबरी हासिल करनी थी। हालांकि हम जानते हैं कैसे इन सबको ही एक बहुत बड़े झूठ में तब्दील कर दिया गया है।
इसलिए अगर आज हम समाज की चेतना में बढ़ती हुई धार्मिकता और गैर बराबरी की भावना को पाते हैं, तो इसका संबंध इससे भी है कि हमारे स्कूलों में क्या पढ़ाया जाता रहा है। हमारे स्कूलों में जो पढ़ाया जाता रहा है, वह मुख्यतः इससे तय होता है कि उनसे हमारी अर्थव्यवस्था के हितों की कितनी सेवा होती है। यहां पर जानेमाने शिक्षाविद् कृष्ण कुमार का अवलोकन गौर करने लायक हैः “स्कूलों में देने के लिए जो शिक्षा उपलब्ध होती है उसका सरोकार समाज में ज्ञान और सत्ता के समग्र वर्गीकरण से होता है। स्कूल ऐसे व्यक्ति रचते हैं जिनका ज्ञान और कौशल उन्हीं के कामों के लिए उपयुक्त होता है जिन्हें अर्थव्यवस्था पैदा करती है और राजनीति और संस्कृति समर्थन देती हैं।”1  जैसा कि हम देखेंगे, यह कहानी अकेले भाजपा से शुरू नहीं होती। यह इस देश की आजादी से शुरू होती है।
1947 के सत्ता हस्तांतरण और 1950 में संविधान लागू होने के बाद जब आधुनिक भारत की नींव रखने का दावा किया गया और संविधान में दर्ज बराबरी, आजादी और धर्मनिरपेक्ष समाजवादी मूल्यों के आधार पर समाज की नींव रखने की कोशिश शुरू हुई तो कोई भी यह उम्मीद करेगा कि शासन व्यवस्था ऐसी नीतियों और कार्रवाइयों की पहलकदमी करेगी, जो इस दिशा में समाज को गढ़ सके। लेकिन यह भ्रम ज्यादा देर तक नहीं टिक सका। शिक्षा का ढांचा कमोबेश वही रहा जिसमें प्रभुत्त्वशाली, ब्राह्मणवादी और सामंती शिक्षा-संस्कृति को ही बढ़ावा दिया गया। बराबरी, आजादी, धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक राष्ट्र बनाने का नारा पीछे छूटता चला गया। जहां शिक्षा में विज्ञान और वैज्ञानिकता के प्रसार की जरूरत थी, वहीं आध्यत्मिकता और धार्मिकता का प्रचार किया गया। एक तरफ विज्ञान को महज एक विषय के रूप में पढ़ाया जाता रहा और दूसरी तरफ बाकी विषय धर्म या धर्म से पैदा होने वाली नैतिक दृष्टि से संचालित होते रहे, क्योंकि ‘शताब्दियों से, पाठ्यक्रम केवल वर्चस्व रखने वाली जातियों से संबंधित ज्ञान तक सीमित रहा था।’2 
जिस शिक्षा को समाज में व्यापत जातिवाद, धार्मिकता, भेदभाव को चुनौती देनी थी, वह असल में उन्हीं मूल्यों को पुनरुत्पादित करती रही और आज भी कर रही है। हमारे विद्यालय समाज के मूल्यों को ही पुनरुत्पादित करते हैं। वे न तो प्राथमिक समाजीकरण से बने धार्मिक मूल्यों को तोड़ते हैं और न ही धर्मनिरपेक्षता को उनके आचरण का हिस्सा बनाते है। इसकी बड़ी वजह यह है कि जिस शिक्षक को विद्यालय का जरूरी उपकरण माना गया है, वह स्वयं एक समाजीकरण की प्रक्रिया से होकर गुजरा है। वह एक खास समुदाय, जाति, धर्म, लिंग से संबंधित है। इसी कारण विद्यालय प्राथमिक समाजीकरण को चुनौती नहीं दे पाता, उसके प्रति विरोधाभास उत्पन्न नहीं कर पाता। शिक्षक पाठ के बतौर तो वैज्ञानिक विचार विद्यार्थियों के सामने रखता है लेकिन अपने व्यवहार में उसके उटल चीजें करता है। वह विद्यार्थियों को भौतिकवादी परिस्थितियों के बारे में पढ़ाएगा लेकिन स्वयं व्रत रखेगा, तिलक लगाएगा, हाथों में मन्नत का कलावा बांधेगा। कोई भी व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से धर्म में आस्था रख सकता है, लेकिन एक शिक्षक विद्यार्थियों के सामने एक आदर्श भी प्रस्तुत करता है। उसका व्यवहार अप्रत्यक्ष पाठ्यक्रम का हिस्सा होता है, जिसे विद्यार्थी लगातार देखते हैं और उससे प्रभावित होते हैं। इसका प्रभाव यह होता है कि बच्चे ने अपने परिवार से जो मूल्य और परंपराएं सीखी हैं, विद्यालय में भी वे उसी रूप में बनी रहती हैं। स्कूल में आम तौर पर मुस्लिम और दलित बच्चे दूसरे बच्चों के साथ अपना खाना आसानी से बांट कर नहीं खा पाते। कभी-कभी तो उन्हें खुद अन्य बच्चों से छुप कर खाना खाना पड़ता है।
भले ही विद्यालय में निश्चित लिखित पाठ्यक्रम हो, जिसमें छात्र/छात्राओं को समान बताया और दिखाया गया हो, लेकिन विद्यालय के कुछ अप्रत्यक्ष पाठ्यक्रम होते हैं। विद्यालय में किया जाने वाला व्यवहार, वहां होने वाली गतिविधियां, वहां का परिवेश, यह सभी अप्रत्यक्ष पाठ्यक्रम का हिस्सा होते हैं। इसे बच्चे लगातार देखते हैं और सीखते हैं। जैसे स्कूल की शुरूआत ही सुबह अक्सर हाथ जोड़कर भगवान की प्रार्थना से होती है। किसी कार्य के आरंभ में गणेश या सरस्वती की पूजा और दीप प्रज्ज्वलित करना एक आम बात है जिसके बारे में कोई सवाल नहीं किए जाते।
पिछले साल मैं छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले में एक प्राथमिक स्कूल में गई थी। हम स्कूल की एक कक्षा में दाखिल हुए तो देखा पूरी कक्षा मंदिर बनी हुई थी। मास्टर जी (उस विद्यालय में केवल पुरुष शिक्षक ही थे और वह लड़कियों का स्कूल था) के बैठने की मेज़ पर सरस्वती और लक्ष्मी जी विराजमान थी। और मास्टर जी हाथ बांधे खड़े थे। सारी लड़कियां चप्पल उतारकर कक्षा में दाखिल हो रही थीं। कक्षा की प्रधान छात्रा मास्टर जी को टीका लगा रही थी और प्रसाद बांट रही थी। 
यह सिर्फ छत्तीसगढ़ की ही बात नहीं है। देश के लगभग हरेक इलाके में स्कूलों में यह सब होता है। स्कूलों में चलने वाली ऐसी गतिविधियां बच्चों को धर्मनिरपेक्षता के बारे में तो कुछ नहीं ही सिखा पातीं, वे उनकी आलोचनात्मक समझ और पाठ्यक्रम द्वारा सिखाए जाने वाले वैज्ञानिक पहलू को भी कुंद करती हैं। तब कैसे एक बच्चा दूसरे धर्म के प्रति सद्भाव सीखेगा जबकि वह उसे जान ही नहीं पाएगा। इसके बावजूद हम एक धर्मनिरपेक्ष राज्य कहलाने में नहीं शर्माते। इसके अलावा स्कूलों में जाति, वर्ग, रंग और जेंडर आदि के आधार पर भेदभाव किया जाता है। दलित जातियों के बच्चों के साथ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह से भेदभाव किया जाता है। उन्हें साफ-सफाई की जिम्मेदारी अधिक दी जाती है। मुस्लिम, सिख, जैन जैसे अल्पसंख्यक जाति के बच्चों को सरस्वती की पूजा के लिए बाध्य होना पड़ता है। ऐसे अनगिनत उदाहरण दिए जा सकते हैं। 
हमारी शिक्षा व्यवस्था की बनावट ही ऐसी है कि इसमें धर्म, वर्ग और जाति के आधार पर भेदभाव साफ दिखाई देता है। अगर हम दिल्ली की ही बात करें तो मुस्लिम बहुल इलाके जैसे सीलमपुर या दलित बस्तियों के आस-पास के सरकारी स्कूलों की हालत खस्ता है। वहीं दक्षिण दिल्ली के ऐसे इलाके जहां मध्यमवर्ग के लोग रहते है, सरकारी स्कूलों में भी ‘अच्छी पढ़ाई’होती है। यह सिर्फ एक शहर के भीतर की बात नहीं बल्कि यह देश भर का हाल है। 
यह तो हुई शिक्षा व्यवस्था की बात, अब अगर हम स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले विषयवस्तु पर ध्यान दें तो बात और साफ हो जाएगी। सबसे पहले तो पाठ्यक्रम इस तरह बनाए जाते हैं कि वे वर्चस्वशाली तबकों के मूल्यों, विचारों और परंपराओं को, उनके इतिहास और उनकी संस्कृति को, संक्षेप में कहें तो उनके नज़रिए को पेश करते हैं। वे उन्हीं नायकों और मिथकों के बारे में, उन्हीं युगों और सामाजिक संघर्षों के बारे में बताएंगे जो उनके अस्तित्व को न्यायोचित बता सकें। वे अपने सांस्कृतिक वर्चस्व को स्वीकृति दिलाने के लिए अपने त्योहारों और परंपराओं को सार्वभौम बना कर पेश करते हैं। औपनिवेशिक दौर में यह बात अंग्रेजी सभ्यता और संस्कृति के बारे में थी, आज के दौर में पाठ्यक्रम एक जातीय, सांप्रदायिक और पितृसत्तात्मक शासक वर्ग के नजरिए को पेश करते हैं।
लेकिन कई बार उन्हें भिन्न संस्कृतियों, समाजों, असहमत और विरोधी विचारों, नायकों और मूल्यों के बारे में भी बताना पड़ता है, क्योंकि वे या तो उन्हें दबा नहीं सकते या खुद को स्वीकृति दिलाने के क्रम में ऐसा करना जरूरी होता है। कई बार वे इनको खत्म करने के लिए भी शिक्षा की मदद लेते हैं। शिक्षाविद् कृष्ण कुमार लिखते हैं, “जिस राज्यतंत्र में किसी आवाज़ को जानबूझ कर दबाया नहीं जा सकता, वहां कुछ आवाज़ों को खत्म करने या उन्हें अत्यंत धीमी बनाने की दिशा में शिक्षा एक उपयोगी साधन प्रदान करती है। समाज में जिन तबकों का वर्चस्व है वे शिक्षा और विशेषकर पाठ्यक्रम, का इस्तेमाल यह सुनिश्चित करने के लिए कर सकते हैं कि उनकी आवाजों के अलावा और सभी आवाजें इतने नाकाफी, कमजोर या बिगड़े रूप में आएं कि उनकी अपील नकारात्मक हो जाए और पाठ्यक्रम के विमर्श में उनके लिए जगह ही न रह जाए।”3 
इसकी मिसाल के रूप में पर्यावरण अध्ययन की किताब आस-पास के कक्षा पांच के एक पाठ को पेश किया जा सकता है, जिसमें सफाई संबंधी ‘सुधार’के बारे में गांधी के कामों पर एक संस्मरण पेश किया गया है और उसके नीचे एक गौण पाठ के रूप में डॉ. बी. आर. अंबेडकर के बचपन के एक अनुभव को पेश किया गया है। ‘कौन करेगा यह काम’नामक इस पाठ में हालांकि ऊपरी तौर पर यह भ्रम पैदा किया गया है कि यह जातिवाद विरोधी है, लेकिन गौर करने पर हम पाएंगे कि यह पाठ जाति प्रथा का समर्थन ही करता है। आज जब देशभर में जातिवाद के खिलाफ प्रतिरोध हो रहे हैं,  आंदोलन चल रहे हैं, उस नजरिए को कब का खारिज किया जा चुका है जिसके तहत जाति के सवाल को सिर्फ छुआछूत के सवाल के रूप में पेश किया जाता था, ऐसे में हमारे बच्चों को यह संदेश पढ़ाया जाता है जो जातिवाद का समर्थन करता है न कि उसके उन्मूलन की बात करता है :
“नारायण जानता था कि ऐसे काम करने वाले लोगों को अछूत माना जाता है। पर वह यह नहीं समझ पा रहा था कि उनके बदले अगर हम खुद यह काम करें तो हालात कैसे बदलेंगे? उसने पूछा, ‘‘अगर गांववाले नहीं सुधरे तो क्या फ़ायदा? उन्हें तो आदत हो गई है कि उनका गंदा काम कोई और ही करे!’’ गांधी जी बोले, ‘‘क्यों इससे सफ़ाई करने वालों को फ़ायदा नहीं होता, क्या उन्हें सीख नहीं मिलती? कोई काम सीखना एक कला सीखने जैसा है। सफाई का काम भी।”4 
गांधी के बारे में अपेक्षाकृत लंबे संस्मरण के बाद अंबेडकर का एक छोटा सा अनुभव दे दिया गया है। यह पाठ जाति व्यवस्था पर अंबेडकर के नजरिए को रखने की कोशिश तक नहीं करता, उनके द्वारा गांधी के नजरिए को खारिज किए जाने की जानकारी देने की बात तो जाने ही दें।
एन.सी.एफ. 2005 के बाद हमारी पाठ्यपुस्तकों में बदलाव किए गए जिसमें यह कोशिश की गई कि ‘हम सारे बच्चों को जाति, धर्म संबंधी अंतर, लिंग और असमर्थता संबंधी चुनौतियों से निरपेक्ष रखते हुए स्वास्थ्य, पोषण और समावेशी स्कूली माहौल मुहैया कराएं।’5 लेकिन इस लेख में दिए गए सारे उदाहरण इन सुधारों के बाद के हैं। एनसीईआरटी द्वारा तैयार कक्षा तीन की रिमझिम के पाठ-सात ‘टिपटिपवा’में एक चित्र है जिसमें एक ‘धोबी’एक ब्राह्मण के घर जाकर पोथी बांचकर अपने गधे के बारे में पता करने के लिए कहता है। उस तस्वीर में यह साफ दिखाया गया है कि कैसे धोबी, ब्राह्मण के घर में पैर नहीं रख सकता। इसके अलावा पाठ के अंत में प्रश्नोत्तर में प्रश्न डाला गया है कि ‘जरा पोथी बांच कर बताइए कि वह कहां है? अपने शब्दों में लिखिए। इस तरह के अंधविश्वास को तीसरी कक्षा के बच्चों को अपने शब्दों में व्यक्त करना सिखाया जाता है। एक और उदाहरण एनसीईआरटी द्वारा तैयार कक्षा पांच  की पाठ्यपुस्तक रिमझिम से ही लिया गया है-
“मैं तलवार खरीदूंगा मां, या मैं लूंगा तीर-कमान
जंगल में जा, किसी ताड़का
को मारूंगा राम समान
तपसी यज्ञ करेंगे, असुरों-
को मार भगाऊंगा
यों ही कुछ दिन करते-करते 
रामचंद्र बन जाऊंगा”6
जब असुर की परंपरागत और रूढ़ छवि को, उचित रूप से, चुनौती दी जा रही है और बुरे प्रतीक के रूप में असुर समुदाय को पेश किए जाने का विरोध होने लगा है, तब यह कविता उन परंपरागत छवियों को ही मजबूत करेगी और असुर समुदाय को एक ऐसे तबके के रूप में पेश करेगी जिसका उन्मूलन जरूरी है और जिसके लिए बच्चों के सामने आदर्श भी पेश किए गए हैं। जाहिर है कि यह कोई तर्कसंगत, आलोचनात्मक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा नहीं देती, यह इसके उलट ही काम करती है।
 ऐसे कई उदाहरण इन किताबों में मिल जाएंगे जिनमें दी गई उपमाएं, प्रतीक, बिंब, भाषा और शैली धार्मिक चेतना से निकले हुए होते हैं। जैसे कि कक्षा पांचवी की रिमझिम में हिमालय की चुनौती नामक पाठ में ‘चारों ओर हिम शिखरों से घिरे हुए मैदान को लेखक ‘देवताओं के मुकुट के समान’ पाता है।7
 इसके अलावा कक्षा छठीं और सातवीं में सभी बच्चों को अनिवार्य रूप से ‘बाल राम कथा’और ‘संक्षिप्त महाभारत’पढ़ाई जाती है। इसके पीछे क्या तर्क दिए जाते हैं, यह पाठ्यपुस्तक की शुरुआत में मुझे कहीं दिखाई नहीं दिए। इसके पीछे एक तर्क यह हो सकता है कि यह हमारा उत्कृष्ट साहित्य है, इसे बच्चों को जरूर पढ़ाना चाहिए। लेकिन तब सवाल यह है कि सिर्फ राम कथा और महाभारत ही इस देश के उत्कृष्ट साहित्य में तो नहीं आते। ऐसी अनेक साहित्यिक रचनाएं मिल जाएंगी जो उत्कृष्ट भी हैं, लोकप्रिय भी हैं और एक तार्किक, बौद्धिक चेतना का भी विकास करती हैं, आखिर उन्हें क्यों इतनी प्रमुखता से पढ़ाया नहीं जा सकता? और फिर क्या किसी साहित्यिक रचना को क्या तब भी पढ़ाया जाना चाहिए, जब वह जातिवादी और स्त्रीविरोधी धार्मिक चेतना को बढ़ावा देती हो? फिर भी, अगर सवाल साहित्यिकता का भी है, तो कोई साहित्यिक कृति अपने मूल रूप में ही उत्कृष्ट होती है, फिर उसे संक्षिप्त रूप में क्यों पढ़ाया जाता है और उन्हें इतनी छोटी कक्षा में क्यों पढ़ाया जाए। इन सारी बातों के ऊपर एक बात यह भी है कि अध्यापक इन किताबों को कक्षा में एक धार्मिक साहित्य के बतौर ही पढ़ाते हैं और इन पर किसी तरह के सवाल की छूट नहीं होती है।
यह तो हुई हिंदी भाषा के पाठ्यपुस्तकों की बात. कोई यह उम्मीद करेगा कि दूसरे विषयों में छात्रों में आलोचनात्कम और वैज्ञानिक दृष्टि विकसित करने की कोशिश की जाएगी. लेकिन हमें वहां भी निराशा ही हाथ लगती है. मिसाल के लिए महाराष्ट्र राज्य पाठ्यपुस्तक निर्मिती व अभ्यासक्रम संशोधन मंडल, पुणे, की कक्षा चौथी की सामान्य विज्ञान की पाठ्यपुस्तक लेते हैं. सबसे पहले तो किताब का आरंभ सभी विषयों की किताबों की तरह छात्र/छात्राओं की इस प्रतिज्ञा से होती है कि ‘मुझे अपने देश से प्यार है। अपने देश की समृद्ध तथा विविधताओं से विभूषित परंपराओं पर मुझे गर्व है। मैं हमेशा प्रयत्न करूंगा/करूंगी कि उन परंपराओं का सफल अनुयायी बनने की क्षमता मुझे प्राप्त हो। मैं अपने माता-पिता, गुरुजनों और बड़ों का सम्मान करूंगा/करूंगी और हर एक से सौजन्यपूर्ण व्यवहार करूंगा/करूंगी।’ 
‘परंपराओं का सफल अनुयायी’ बनने की प्रतिज्ञा के साथ शुरू हुई किताब जाहिर है कि सवालों और संदेहों के लिए बहुत जगह नहीं छोड़ती। इसमें जीवन दृष्टि को विकसित करने में विज्ञान की भूमिका बहुत कम बचती है, सिर्फ उसे परीक्षा के अंकों के लिहाज से पढ़ना होता है। वहां ‘निरीक्षण, प्रस्तुतीकरण, वर्गीकरण, तुलना, निष्कर्ष तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ के लिए कोई जगह नहीं बचती। शायद इसीलिए यह पाठ्यपुस्तक विज्ञान की कम नैतिक शिक्षा की पुस्तक ज्यादा लगती है। यह प्रतिज्ञा महाराष्ट्र की सभी कक्षाओं और विषयों की किताबों के आरंभ में होती है और यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह बच्चों की चिंतन प्रणाली पर कैसा असर छोड़ती होगी। आगे बढ़ते हैं। हमने विज्ञान की जिस किताब से यह उद्धरण लिया है, उसके अध्याय ‘स्वास्थ्य और स्वच्छता’, हमारा शरीर, समन्वय, हमारे वस्त्र, एक स्वस्थ और स्वच्छ जीवन के उपदेश देते हुए से लगते हैं। हालांकि पुस्तक यह दावा करती है कि किताब में बच्चों में वैज्ञानिक, आलोचनात्क दृष्टि का विकास करेगी और ‘स्त्री-पुरुष समानता को उदाहरणों और चित्रों के माध्यम से विद्यार्थियों के मन में चित्रित करने का यथोचित प्रयत्न किया गया है’ लेकिन पूरी किताब में दिए गए चित्रों पर गौर करें तो समाज में श्रम संबंधी लैंगिक बंटवारे को यह किताब पुष्ट करती है: मेहनत के ज्यादातर काम स्त्रियों और लड़कियों को करते हुए दिखाया गया है, जबकि लड़के या पुरुष अधिकतर जगहों पर खेलते या ऐसे काम कर रहे हैं, जिन्हें आम तौर पर स्त्रियों को नहीं करने दिया जाता। 
हमें यह समझना होगा कि वैज्ञानिक चेतना को बढ़ावा देने का काम सिर्फ विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों पर नहीं छोड़ा जा सकता। पहली बात तो यह है कि वैज्ञानिक चेतना को विकसित करने का काम साहित्य और समाज से सीधे-सीधे जुड़े विषय जितनी बखूबी कर सकते हैं, विज्ञान का विषय नहीं। क्योंकि दूसरे विषयों से बच्चे भावनात्मक रूप से जुड़ पाते हैं और उनमें निहित संदेशों, प्रतीकों और चिंतन पद्धतियों को स्वाभाविक रूप से अधिक आसानी से ग्रहण करते हैं। जबकि विज्ञान जैसे विषय ज्यादातर अमूर्त और नीरस होने के कारण कम आकर्षित करते हैं और बच्चे उनसे सीधे-सीधे बहुत आसानी से नहीं जुड़ पाते। इसलिए विज्ञान की पुस्तकें अधिक से अधिक एक वैचारिक ढांचा ही प्रदान कर सकती हैं, जिनके आधार पर अन्य विषयों की पुस्तकों को वैज्ञानिकता को प्रचारित करना चाहिए। यह काम अकेले विज्ञान का विषय कभी नहीं कर सकता। लेकिन इस सवाल का एक दूसरा पहलू भी है, जो हमारे स्कूलों में विज्ञान के विषयों को पढ़ाने के तरीकों से जुड़ा हुआ है। स्कूलों में गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान आदि विषयों को ऐसे अमूर्त रूप में पढ़ाया जाता है जिससे बच्चा उसका अपने जीवन से कोई संबंध नहीं बैठा पाता। यही कारण है कि कक्षा में बार-बार यह सीखने पर कि दिन और रात कैसे बनते हैं, बच्चे के मन में यह विचार बना रहता है कि यह सब तो भगवान करता है। यह शिक्षा बहुत हद तक उसके मन में मौजूदा अवैज्ञानिक धारणाओं के प्रति विरोधाभास और सवाल उत्पन्न नहीं कर पाती।
पाठ्य पुस्तकें पढ़ाई जाने वाली सामग्री पर नियंत्रण स्थापित करती है। उनसे क्या करवाना है इसी से पाठ्यक्रम तय होता है। बच्चों को मानव संसाधन की तरह इस्तेमाल किया जाता है। बच्चे सिर्फ संसाधन बन जाते हैं। उन्हें अलग-अलग उत्पादन क्षेत्रों के अनुसार तैयार किया जाता है। उन्हें जो ज्ञान दिया जा रहा है, उसका मकसद उनको विषय की प्रकृति को समझना और उसके अनुसार व्यवहार करना नहीं है। क्योंकि यह शासक वर्ग के हितों के विरुद्ध जाता है। इसलिए बच्चों को ऐसी ही और इतनी ही शिक्षा दी जाती है जो शासक वर्ग के हितों के लिए जरूरी हो। 
आजकल व्यावसायिक शिक्षा का इतना चलन है जिसमें विद्यालय केवल मशीनें चलाने वाले वर्ग या कर्मचारी को पैदा करता है। वह ऐसे ज्ञान का निर्माण नहीं करती जिससे वह अपने समाज के प्रति सचेत व्यक्ति बना सके। यही कारण है कि हमें ऐसे कई विज्ञान के विद्यार्थी मिल जाएंगे जो विज्ञान की शिक्षा पाकर डॉक्टर या इंजीनियर तो बन जाते है लेकिन उनकी जीवनशैली उतनी ही अवैज्ञानिक और पोंगापंथी होती है। वह दूसरों जितने ही धार्मिक और अंधविश्वासी होते हैं। स्कूलों में बच्चों द्वारा सीखे गए विचार बाहरी जीवन से प्राप्त ज्ञान से मेल नहीं खाते। स्कूली विषय के तौर पर विज्ञान की अलग पहचान सीखने वाले के लिए प्रयोग करने की जरूरत के कारण होती है।8 लेकिन स्कूलों में प्रयोगशालाएं और इसके लिए जरूरी उपकरण अक्सर नहीं पाए जाते और न ही उन्हें मुहैया कराने पर जोर दिया जाता है। सारा जोर सिर्फ नियमों को रटने और परीक्षा में अधिक से अधिक अंक लाने पर होता है।
इस संदर्भ में एक तीसरी बात अहम यह है कि विज्ञान को मूल्यों और सामाजिक चेतना से काट कर नहीं पढ़ाया जा सकता है, वरना वह तार्किकता, लोकतांत्रिकता और आधुनिक चेतना विकसित करने के बजाए शासक वर्गीय मूल्यों को पूरा करने का औजार भर बन कर रह जाएगा। कृष्ण कुमार ने इस खतरे को रेखांकित करते हुए लिखा है - “विज्ञान की पढ़ाई के संबंध में यह माना जाता है कि वह धर्मनिरेपक्ष मूल्यों को बढ़ावा देगा क्योंकि वह आरोपित सत्ता को निरर्थक बना देता है। लेकिन विज्ञान को पारंपरिक तरीके से पढ़ाया जाए, उसमें पाठ्यपुस्तक और शिक्षक के शब्दों की संप्रभुता को स्वीकार किया जाए और उसमें प्रयोग का कोई अवसर न दिया जाए, तो उसका सेक्युलर चरित्र और महत्व नहीं रह जाएगा। पुराने चले आ रहे पढ़ाई के तरीकों को लागू रखने के कारण अगर विज्ञान का मूल चरित्र खत्म होता है, तो विज्ञान कक्षा में और फिर समाज में तानाशाही का हथियार भी बन सकता है।”9 
हम अपने देश के संदर्भ में इस खतरे को पूरा होते हुए देख भी रहे हैं, कि कैसे आईआईटी और वैज्ञानिक तथा तकनीकी शिक्षा संस्थान ब्राह्मणवादी, सामंती और धार्मिक मूल्यों और राजनीतिक नजरिए के गढ़ बने हुए हैं।
इसलिए शिक्षा के जनवादीकरण और इसमें वैज्ञानिक नजरिए को स्थापित करने का संघर्ष जरूरी बन जाता है। लेकिन यह समझ लेना कि शिक्षा का जनवादीकरण कर देने से और उसमें वैज्ञानिक नजरिया स्थापित कर देने से बच्चों में वैसी चेतना का विकास हो जाएगा, सही नहीं है। इसकी वजह बच्चे के समाजीकरण की प्रक्रियाओं में छिपी है, जिसके बारे में हम इस लेख की शुरुआत में चर्चा कर चुके हैं। थोड़े समय के लिए हम फिर से वहीं लौटते हैं। जैसा कि हमने देखा, बच्चे स्कूल आने की उम्र होने से पहले अपना समय परिवार और अपने आस पास के परिवेश के बीच में बिताते हैं। जब वे स्कूल जाना शुरू करते हैं तब भी, स्कूल से बचा हुआ समय भी वे परिवार के बीच ही बिताते हैं। इस तरह परिवार द्वारा किया गया समाजीकरण स्कूलों द्वारा किए गए समाजीकरण की अपेक्षा ज्यादा असरदार होता है। यानी प्राथमिक सामाजिक द्वितीयक समाजीकरण की अपेक्षा ज्यादा प्रभावशाली होता है क्योंकि वह बच्चे के व्यक्तित्व के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाता है। हमारे यहां द्वितीयक समाजीकरण में बहुत हद तक प्राथमिक समाजीकरण के प्रति विरोधाभास नहीं दिखता है। जैसा कि हम देख चुके हैं, भारतीय समाज में आम तौर पर द्वितीयक समाजीकरण, प्राथमिक समाजीकरण को चुनौती नहीं देता है। यानी जो कुछ बच्चा अपने परिवार में सीखता है, उन्हीं मूल्यों को किसी न किसी रूप में वह अपने स्कूल और आस-पड़ोस आदि से भी सीखता है। 
ऐसे में सवाल यह उठता है कि शिक्षा की जरूरत क्या है? अगर जरूरत है तो कैसी शिक्षा की।जो सिर्फ रोजगार मुहैया कराए? जीवन स्तर में सुधार करने में मदद करे? या फिर शिक्षा का अर्थ लोगों को उस विश्व का ज्ञान कराना है, जिसमें वे रहते हैं - उन्हें यह बताना है कि यह विश्व उन्हें किस तरह आकार देता और वे किस तरह विश्व को आकार देते हैं। अपने समाज में वह किस भूमिका में है? कैसे वे सामाजिक परिवेश को बदलने में भूमिका निभा सकते हैं। कैसे वह ऐसे ज्ञान का निर्माण कर सकते हैं जिसका उसके जीवन में औचित्य हो। 
इस तरह हम देखते हैं कि शिक्षा मौजूदा व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उपकरण के रूप में काम कर रही होती है, लेकिन धीरे-धीरे वह मौजूदा हालात में सामाजिक बदलाव का हथियार भी बन जाती है। शिक्षा और साम्राज्यवाद के रिश्तों पर अरसे से लिखते आ रहे लेखक न्गुगी वा थ्योंगो कहते हैं कि “वर्गीय समाजों में दरअसल दो तरह की शिक्षा के बीच भीषण संघर्ष चलता है जो दो परस्परविरोधी संस्कृतियों का प्रसार करती हैं और दो परस्परविरोधी चेतना अथवा विश्वदृष्टि अथवा विचारधाराओं की वाहक हैं।”10 इसमें एक तरफ वह शिक्षा है जिसे राज्य एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करता है। जिसपर उसका पूरा अधिकार है। पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक बनाने से लेकर शिक्षकों के प्रशिक्षण तक में इन मूल्यों को ध्यान रखा जाता है। जिससे राज्य के हित सुरक्षित रहें। भले ही उसमें ज्यादातर लोगों का हित शामिल हो या न हो। लेकिन दूसरी ओर समाज में ऐसे तत्व हमेशा से मौजूद रहे हैं जो उन मूल्यों के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं। जिसके जरिए भी एक सीखने-सिखाने की प्रक्रिया चलती रहती है। एक शिक्षा वह भी है जो अनौपचारिक रूप से समाज में चलती रहती है। सामाजिक संघर्षों से माध्यम से विकसित होती रहती है। 
धर्मनिरपेक्ष और तर्कसंगत चेतना के लिए तथा राजनीतिक और सामाजिक बदलाव के लिए बच्चों को स्कूलों में भेजना भर काफी नहीं है बल्कि उन्हें ऐसी शिक्षा देना जरूरी है जो उन्हें अपनी स्थिति को समझने में मदद करे। जो उन्हें ऐसा ज्ञान दे जिसका उपयोग वह सामाजिक परिस्थितियों को बदलने में लगा सके। हमें सिर्फ एक धर्मनिरपेक्ष और जनवादी राजनीतिक चेतना वाली शिक्षा ही नहीं चाहिए, बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष, आधुनिक और वैज्ञानिक चेतना वाला समाज भी चाहिए। इसे सिर्फ शिक्षा के जरिए ही हासिल नहीं किया जा सकता, बल्कि इसे व्यापक सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष के जरिए ही हासिल किया जा सकता है। हमें जैसी शिक्षा की जरूरत है, वह तभी हासिल हो पाएगी जब ऐसी शिक्षा और ऐसे समाज के लिए संघर्ष को तेज किया जाए। इसके बिना न शिक्षा आधुनिक रह पाएगी और न ही समाज।
 अगर शासक वर्ग शिक्षा को अपने वजूद को बनाए रखने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है तो जिन वर्गों के शोषणमुक्त, इंसाफ पर आधारित भविष्य के लिए सामाजिक बदलाव जरूरी है, यह उन वर्गों और उनके सहयोगियों की जिम्मेदारी बनती है कि वे बदलाव के हथियार के रूप में शिक्षा के विकास के संघर्ष छेड़ें और उसे आगे बढ़ाएं। 
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1. कृष्ण कुमार, शैक्षिक ज्ञान और वर्चस्व, पृ.18
2. वही, पृ.20
3. वही, पृ.22
4. आस-पास, कक्षा पांच, पाठ-16, कौन करेगा यह काम, पृ.151
5. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005, पृ. viii
6. रिमझिम-5, पाठ-3, खिलौनेवाला, पृ.21
7. वही, पाठ-18, चुनौती हिमालय की, पृ.141
8. कृष्ण कुमार, वही, पृ.27
9. वही, पृ.27
10. न्गुगी वा थ्योंगो, भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता, पृ.109 

Tuesday, May 19, 2015

कविता जंजीरों की कैद को नहीं मानती





रंजीत वर्मा ने हाशिया का ध्यान इस बात की तरफ दिलाया है कि उनकी लिखी जिस पोस्ट कोकविता:16 मई के बाद का आधार वक्तव्य बता कर अंजनी कुमार ने 'एक हिस्सेदार के बतौर' उसकी आलोचना अब जाकर लिखी है, वह आठ माह पुरानी है. इसी संदर्भ में उन्होंने हाशिया को उस आधार वक्तव्य की जानकारी दी है, जो इस अभियान की वेबसाइट पर 15 मई 2015 को प्रकाशित हुआ है. यहां पेश है यही आधार वक्तव्य, जो कविता: 16 मई के बाद की मौजूदा राजनीतिक और सांस्कृतिक समझदारी को जाहिर करता है. मालूम हो, कि यह अंजनी कुमार के लेख का, रंजीत वर्मा द्वारा दिया गया जवाब नहीं है, बल्कि पहले से ही तैयार किया जा चुका आधार वक्तव्य है, जिसे ‘17 मई 2015 के कार्यक्रम में पढ़ा जाना है और परिप्रेक्ष्‍य निर्माण के लिए इसका अग्रिम प्रकाशन’ किया गया है. 17 मई को होने वाले कार्यक्रम के बारे में द हिंदू की यह खबर भी देखी जा सकती है.




पिछले साल 11 अक्टूबर को दिल्ली के प्रेस क्लब में ’कविता: 16 मई के बाद’ का पहला आयोजन हुआ था और तब से अब तक दिल्ली समेत उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पंजाब में कुल नौ कार्यक्रम किये जा चुके हैं। सभी कार्यक्रमों में लोगों की बड़ी संख्या में भागीदारी और उत्साह को देखकर कहा जा सकता है कि यह आयोजन अब एक आंदोलन का रूप ले चुका है और अब समय आ गया है कि पूरे देश में जल-जंगल-जमीन के सवाल के साथ-साथ सांप्रदायिकता, सामाजिक-आर्थिक नाइंसाफी और काॅर्पोरेट लूट के खिलाफ जो आंदोलन चल रहे हैं, उनसे कविता को सीधे जोड़ा जाए ताकि कविता को आचार्यों और मठाधीशों के चंगुल से मुक्ति मिले और वह दूरदराज के गांवों और गलियों की उठती धूल से अपना निर्माण कर सके। कविता अगर रोटी और आजादी पाने की लड़ाई है तो फिर कविता वैसे लोगों के पास क्या कर रही है जिनके पेट और गोदाम अनाजों से भरे पड़े हैं? उसे तो वहां उनके पास होना चाहिए जो रोटी और इंसाफ के मोर्चे पर रात दिन डटे हुए हैं। कविता यदि वहां नहीं है तो क्यों? उन्होंने कविता को जंजीरों में क्यों जकड़ रखा है? ’कविता: 16 मई के बाद’ मानवता और कविता दोनों की मुक्ति की लड़ाई है। 




हिंदी साहित्य के इतिहास की यह आमफहम घटना है जहां हम देखते हैं कि जरूरतमंद करोड़ों लोगों को कविता के आसपास भी फटकने नहीं दिया जाता। वे तो वैसी कविताओं को भी बाहर का रास्ता दिखा देते हैं जो कविता मेहनतकशों की बस्तियों की तरफ निकल पड़ती है। यह सब वे कविता की पवित्रता के नाम पर करते हैं जबकि असल मकसद कला और अभिव्यक्ति की दुनिया में अपना वर्चस्व बनाए रखना होता है। ’कविता: 16 मई के बाद’ उनके इस मकसद पर हमले की तरह है। प्रतिरोध की कविता को साहित्य में कभी वह स्थान नहीं दिया गया जो किसी भी साहित्यिक वाद, जैसे कि छायावाद, प्रतीकवाद, प्रयोगवाद, अकवितावाद आदि इत्‍यादि में समा जाने वाले कवियों की खराब कविताओं को भी प्राप्त है। फिर यह सवाल भी दिमाग को मथता है कि एक कवि की तीस, चालीस या पचास साल के अंतराल में लिखी गई तमाम कविताएं क्या एक ही साहित्यिक वाद के अंतर्गत आ सकती हैं? क्या निराला पूरे के पूरे छायावादी हैं? क्या धूमिल को पूरा का पूरा अकवितावाद का कवि माना जा सकता है? मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर या रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना किस साहित्यिक वाद के कवि थे? अंतिम वाद के तौर पर जब अकवितावाद खत्म हुआ और उपरोक्त कवियों के प्रतिरोध का स्वर कविता में मुखर हुआ और आगे चलकर इसी स्वर को आगे बढ़ाते हुए नक्सलबाड़ी आंदोलन से निकले कवि या बाद में उस धारा से जुड़े जो कवि आए, उन सब को कहां रखा जाए? 




यह तो तय है कि विशुद्ध साहित्यिक वाद में अंटने वाले कवि ये नहीं हैं। खैर, वे इस प्रतिरोध को किसी वाद का नाम दें या नहीं लेकिन पिछले पचास साल से कविता का मुख्य स्वर राजनैतिक चेतना से लैस जनपक्षधर कविताओं का ही रहा है। भले ही इस दौरान जनपक्षधरता के स्वर को दबा देने की भरपूर कोशिश की जाती रही हो, लेकिन अब 16 मई 2014 के बाद सत्ता में पहुंची फासीवादी सरकार के खिलाफ कविता में प्रतिरोध का जो विस्फोट उभरा है उसे दबा देना सत्ता या साहित्य के किसी भी मठाधीश के लिए संभव नहीं रहा। फिर भी जाहिर है कि कोशिश उनकी जारी रहेगी क्योंकि प्रतिरोध को वे एक साजिश के तहत नकारते हैं। दरअसल, प्रतिरोध की कविता को नकार कर वे सत्ता के प्रति अपनी वफादारी निभाते हैं। सत्ता प्रतिष्ठानों को तब ऐसी कविताओं से बचने में बहुत मदद मिलती है। उसे कविता में पूछे गए सवाल का जवाब देना भी जरूरी नहीं लगता क्योंकि वैसी कविताओं की तो साहित्य के अंदर ही कोई मान्यता नहीं है, फिर वह क्यों परेशान हो। परेशान तो कविता खुद हो जाती है। उसे अपनी ताकत का बड़ा हिस्सा साहित्य के अंदर खुद को साबित करने में झोंक देना पड़ता है। मुक्तिबोध की कविताएं इसका उदाहरण हैं। दूसरी ओर साजिश रचने वाले अपने इस कुकर्म के एवज में सत्ता से हमेशा कुछ न कुछ पाने की स्थिति में होते हैं।    




बहरहाल, अब समय आ गया है कि कविता की इस मुहिम को राजधानियों और शहरों से निकाल कर दूरदराज के इलाकों और वहां की जिंदगानियों के बीच ले जाया जाए। यह कोई आसान काम नहीं है, इसके बावजूद साहित्यकारों को यह काम करना होगा चाहे इसमें जो भी जोखिम हो क्योंकि जोखिम नहीं उठाने वाला जो दूसरा रास्ता है वहां साहित्यकारों को अपनी सफलता, समृद्धि और रोशनी की जगमगाहट भले दिखाई दे लेकिन वहां खुद साहित्य के बचे रहने की संभावना नहीं होती।




इस बात पर शायद ही किसी को संदेह हो कि 16 मई के बाद सब कुछ उसी तरह सामान्य नहीं रह गया है जैसा कि सत्ता की तमाम बुराइयों और राजनीतिक आपदाओं के बाद भी पहले रहा करता था। अब तो यह लगता ही नहीं कि यह कोई चुनी हुई सरकार है जो हमारे भले के लिए कुछ करने का सोच भी रही है। इसका तो एकमात्र काम लगता है हम पर नजर रखना, हमें किसी भी तरह अपराधी साबित करना और जो कुछ भी हमारे पास है उसे किसी भी बहाने छीन लेना। कागज़ात के पुलिंदे तैयार किये जा रहे हैं एक-एक व्यक्ति के लिए। बिना कागज़ात के नागरिक को नागरिक नहीं माना जाएगा, उसकी संपत्ति को उसकी संपत्ति नहीं माना जाएगा, आपको पति-पत्नी होने का प्रमाण भी अपने पास रखना होगा नहीं तो इस देश की सबसे बड़ी अदालत भी आपके संबंध को जायज नहीं ठहरा पाएगी। जाहिर है कि आने वाले दिनों में राज्यसत्ता को यह हक होगा कि वह आपको जब जी चाहे आपकी जमीन से, संबंधों से दर बदर दे। इस सरकार के एक साल पूरे होते-होते जिस तरह के भयानक दृश्य सामने दिखाई दे रहे हैं, उसे देखकर भी किसी की नींद न टूटे तो उसे अपनी नींद पर शर्म आनी चाहिए क्योंकि उसकी यह नींद हजारों-लाखों मौतों की वजह बन सकती है। क्या इन सबके बाद भी आपको लगता है कि जोखिम नहीं उठाने का कोई विकल्प है आपके सामने? जाहिर है कि नहीं है। 




फिर भी कुछ साहित्यकार हैं जो चकित होकर पूछते हैं कि ऐसा क्या हो गया 16 मई के बाद कि हम पुरस्कारों, विभिन्न सरकारों द्वारा प्रायोजित साहित्यिक आयोजनों-उत्सवों, संस्थानों-अकादमियों द्वारा दिये जाने वाले वजीफों, विदेश यात्राओं के अवसरों और सरकारी रियायतों को शक की निगाह से देखें और उनका बहिष्कार करें। कुछ लोग तो खैर ऐसे हैं जो जनता के पैसे का हवाला देकर जयपुर और फिर लखनऊ, बनारस, पटना तक चले जाते हैं। उन्हें लगता ही नहीं कि वहां जाकर वे कोई गलत काम कर रहे हैं। वे समझ ही नहीं पा रहे या समझ कर भी नहीं समझना चाह रहे कि इस तरह वे आम जन की पीड़ा से दूर होते जा रहे हैं। बिहार सरकार द्वारा प्रायोजित कथा उत्सव के बीच भूकंप आ जाता है और पचास से ज्यादा लोगों की मृत्यु बिहार में हो जाती है। नेपाल की तो बात ही जाने दीजिए- वहां का तो कहना मुश्किल है कि कितने लोग मरे, बेघर हुए। इस सब के बीच कहानी पाठ अनवरत चलता रहता है। कुछ लेखक कसमसाए, लेकिन सरकार के आश्वासन पर कि सब ठीक है, शांत होकर बैठ गए। एक मिनट के लिए भी उन्होंने नहीं सोचा कि सरकार के आश्वासन पर वे शांत कैसे हो गए। उनकी संवेदना का यह कैसा विचलन है? जनता का लेखक ऐसा नहीं कर सकता। फिर वे किसके लेखक हैं?




क्या 16 मई के बाद जो दूसरी बची खुची सरकारें हैं इस देश में यानि कि जो गैर-भाजपा सरकारें हैं, क्या वे भी ऐसी हैं कि उन पर भरोसा किया जा सके? विकास और सांप्रदायिकता के बीच आज जिस तरह की लय और ताल नजर आ रही है, उसके बीज वहीं तलाशे जाने चाहिए जब भाजपा सत्ता में नहीं थी। यह भी याद रखने की जरूरत है कि इन्हीं स्थितियों ने और इन्हीं दूसरी सरकारों की पार्टियों ने भाजपा के सत्ता में आने की जमीन तैयार की। आज उन्हीं की वजह से पूरा देश अफवाह, घृणा, लूट और हिंसा की भाजपाई गिरफ्त में जा फंसा है। भाजपा बेहद खतरनाक इरादों के साथ आई है सत्ता में, बल्कि कहना यह चाहिए कि उसके खतरनाक इरादों को देखते हुए ही उसके सत्ता में आने की जगह बनाई गई। बीसवीं शताब्दी के शुरू में नीत्‍शे ने कहा था कि ’कोई भी नई व्यवस्था भयानक और हिंसक शुरूआत के बिना पनप नहीं सकती।’ आगे उसने विलाप करते हुए पूछा था ’कहां हैं बीसवीं शताब्दी के बर्बर?’ जवाब के रूप में तब हिटलर सामने आया था। फिर कार्ल जुंग भावावेश में हिटलर का वर्णन करते हुए उसे लगभग भगवान का अवतार ही कह बैठा था। कुछ वैसी ही पृष्ठभूमि और वैसी ही गुहार पर यहां भी मोदी का आगमन हुआ है और अब ऐसे भी लोग आ गए हैं जिनका साफ मानना है कि इस देश का उद्धार मोदी ही कर सकता है। बस समझ लीजिए कि बर्बरता आपके दरवाजे पर खड़ी है, लेकिन आपके लिए उसे चिन्हित कर पाना इतना आसान नहीं होगा। वह हमेशा पर्दे में होता है। यही उसकी सफलता की वजह भी है। ग्राम्शी लिखते हैं, ’’फासीवाद इसलिए सफल हुआ क्योंकि वह अपने अस्पष्ट और धुंधले राजनीतिक आदर्शों पर रंगरोगन के साथ ही आवेश, घृणा और इच्छाओं के हिंसक भावोद्गार को एक बिना चेहरे वाली भीड़ के पीछे छिपाए रखने में समर्थ था।’’    




कन्हर बांध को लेकर समाजवादी सरकार जिस बर्बरता पर उतरी हुई है क्या वह पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार से कहीं से भी कम नजर आती है? ये वही लोग हैं जो जनता परिवार की बात करते हैं। इन्हीं के भाई बंधु बिहार में बैठे हैं। किस जनता को बचा रहे हैं वे? जब राम मंदिर के ताले खोले जा रहे थे, जब शाहबानो केस के फैसले पलटे जा रहे थे, जब भूमंडलीकरण के लिए देश के दरवाजे खोले जा रहे थे, जब दुनिया का एकध्रुवीकरण होना शुरू हो गया था और कम्युनिस्ट आंदोलनों के दिन खत्म होने की घोषणाएं की जाने लगी थीं, उन्हीं दिनों जो जनसंहार हुए थे, दंगे हुए थे उन्हीं सब पर पिछले दो-तीन वर्षों में दसियों फैसले आए लेकिन इतने साल बाद भी एक को भी मुजरिम नहीं ठहराया जा सका। अदालत तक को गुमराह करके अपराधियों को बचा रही हैं तमाम सरकारें! यह पुराने अपराधियों को बचाने और नये अपराधों को अंजाम देने का राजनैतिक वक्त है और इसमें सभी सरकारें समान ढंग से लिप्त हैं। किसी को भी कम करके नहीं आंका जा सकता। अदालत ले जाते वक्त ये हथकड़ियों में बंधे मासूमों को गोलियों से उड़ा देते हैं, चंदन तस्कर के नाम पर ये गरीब मजदूरों को मार गिराते हैं। आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों और माओवाद के नाम पर आदिवासियों को मारने का सिलसिला अनवरत चल रहा है इस देश में। क्या हिंदी कविता में दर्ज किया किसी कवि ने यह सब? क्या किसी ने सरकार से पूछा कि गोविंद पानसरे के हत्यारे अभी तक क्यों नहीं पकड़े गए? नरेंद्र दाभोलकर के हत्यारे किस बिल में जा छिपे हैं कि सरकार की तमाम खुफिया एजेंसियां और पुलिस उन्‍हें ढूंढ नहीं पा रही? पिछले दिनों भरत पाटनकर को जान से मार डालने की धमकी ठीक वैसे ही दी गई जैसे पानसरे को हत्या से पहले दी गई थी। क्यों नहीं पकड़ में आ रहा धमकी देने वाला? पाटनकर को धमकी देने वाले कहीं दाभोलकर और पानसरे के हत्यारे ही तो नहीं? अभी पिछले दिनों गिरीश कर्नाड को हिंदुत्ववादी शक्तियों ने नाटक खेलने नहीं दिया क्योंकि उन्होंने गोमांस पर महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाये जाने के खिलाफ आवाज उठाई थी। प्रोफेसर साईंबाबा को साल भर पहले दिल्ली की सड़कों से वे उठा ले गए और नागपुर सेंट्रल जेल के अंडा सेल में फेंक आए। तो क्या वे किसी को बोलने नहीं देंगे? क्या किसी को जीने नहीं देंगे? क्या यह बजरंगियों और कोडनानियों का देश है? जयललिता जब कोर्ट से बरी होती हैं तो प्रधानमंत्री मोदी उन्हें मुबारकबाद देने वाले पहले व्यक्ति होते हैं। वे क्यों इतने उतावले होकर चाह रहे थे कि जयललिता बरी हो जाएं? उन्होंने चाहा और वे बरी हो भी गईं, आखिर कैसे? क्या दो करोड़ की चोरी, चोरी नहीं होती? उच्च न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष का काम सिर्फ आरोप लगाना नहीं है बल्कि लगाए गए आरोप को साबित भी करना है जबकि यहां अभियुक्त को ही कहा जा रहा है कि वह साबित करे कि लगाए गए आरोप निराधार हैं। बस इसी बात पर छोड़ दी गईं जयललिता। 




क्या उच्च न्यायालय का यह फैसला उन लोगों पर भी लागू होगा जिन्हें माओवादी कह कर उन्होंने जेल में डाल रखा है? वहां भी तो सिर्फ आरोप हैं, कोई पुष्टि नहीं और यहां भी उनसे कहा जा रहा है कि वे खुद को बेगुनाह साबित करें। यहां एक और बात है वो यह कि माओवाद एक विचार है, फिर इसमें अपराधी होने वाली क्या बात हुई? शायद इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि सिर्फ माओवादी कह देने भर से कोई गुनहगार नहीं हो जाता। यह बताना होगा कि उसने किया क्या है। फिर भी बड़ी संख्या में ऐसे लोग जेल में सड़ रहे हैं। अब तो वे उन्हें अदालत भी पहुंचने नहींं देते। रास्ते में ही मार गिराते हैं। कई बार तो आरोप बाद में लगाते हैं, गोलियों से पहले ही उड़ा देते हैं। आपराधिक न्याय व्यवस्था का यह कैसा लोकतंत्र है? यह क्लास इंटरेस्ट का खुला खेल नहीं तो और क्या है? सलमान खान का मामला ही देखिये- सजा हो जाने के बाद भी वे मिनट भर को जेल नहीं जाते। यह व्यक्ति विशेष का मामला भर नहीं है। सत्ता को सेलेब्रिटी चाहिए, इसलिए वह उन्हें तैयार भी करती है और बचाती भी है। उसे हर क्षेत्र से सेलेब्रिटी चाहिए। खिलाड़ी और अभिनेता से लेकर लेखक-कवि तक। इन दिनों साहित्य में सेलेब्रिटी बनाने का काम जोर-शोर से चल रहा है। बड़ी राशियों वाले पुरस्कारों की घोषणाएं और साहित्यिक उत्सवों में भारी खर्च जो इधर देखने को मिल रहा है, उसके पीछे सरकार की यही मंशा काम कर रही है। सरकार चाहती है कि अब लेखक-कवि भी उसके संरक्षण में रहें। वे बाहर टेरेस पर निकलें और हाथ उठा कर नीचे खड़ी भीड़ का अभिवादन करें।     




हिंदी के कवियों को अपनी मध्यवर्गीय मानसिकता से बाहर निकलना होगा। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्रियों से पुरस्कार पाकर या हाथ मिलाकर खुद को धन्य समझने से ऊपर उठना होगा। उसे शासकों पर अंगुली उठाने का साहस अपने भीतर पैदा करना होगा। पिछले दिनों हिंदी के वयोवृद्ध आलोचक नामवर सिंह को ज्ञानपीठ सम्मान समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ हंसते-बतियाते पाया गया। किस बात पर वे हंस रहे थे? क्या उन्होंने प्रधानमंत्री से पूछा कि आपके आने के बाद देश की एक बड़ी आबादी असहज हो गई है, किसान बड़ी संख्या में आत्महत्याएं करने लगे हैं और आप हैं कि ऐसे नाजुक समय में उन्हें ढांढस बंधाने की जगह उनकी जमीन छीनने में लगे हैं? उन्हें कहना चाहिए था कि लोगों को सच बोलने से रोका जा रहा है और फिर भी जो बोलने का हिम्मत दिखा रहे हैं आपके लोग उनकी हत्याएं तक कर दे रहे हैं? इसके बावजूद आपकी चुप्पी क्यों नहीं टूट रही है जबकि आप सबसे ज्यादा बोलने वाले प्रधानमंत्री माने जाते हैं? शिक्षा का भगवाकरण किया जा रहा है, तमाम महत्वपूर्ण पदों पर अयोग्य, बेईमान और यहां तक कि जाति प्रथा मानने वाले लोगों को बिठाया जा रहा है, कला और साहित्य से जुड़ी संस्थाओं तक को नहीं छोड़ा जा रहा है फिर भी आप कोई कार्रवाई क्यों नहीं कर रहे हैं? ऐसे ही कुछ सवाल नामवर सिंह को पूछने चाहिए थे, लेकिन अगर उन्होंने नहीं पूछे तो वहां जो दूसरे लोग उपस्थित थे वही पूछ लेते। ज्ञानपीठ वालों से तो ऐसी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे पूछते। मीडिया भी अब जड़ पर चोट करने वाले सवाल नहीं पूछता। ऐसे में साहित्यकारों की जवाबदेही और बढ़ जाती है।

   

मोदी सरकार के एक साल पूरे हो रहे हैं। उन्होंने घोषणा करते हुए कहा था कि वे हर रोज एक कानून खत्म करेंगे और इस तरह 1700 कानूनों को वे अपने इस कार्यकाल में समाप्त करेंगे लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि वे किस तरह के कानून को समाप्त करने जा रहे हैं? कहीं उन कानूनों को तो खत्म नहीं किया जा रहा है जो धनकुबेरों, लुटेरों और ताकतवरों के खतरनाक इरादों पर थोड़ा बहुत ही सही लेकिन अंकुश लगाते रहे हैं? वे कानून जो कमजोरों और वंचितों को घनघोर अभावों के बीच जीने के लिए कुछ स्पेस देते हैं? जब ऐसे कानून ही नहीं रहेंगे तो अदालतें भी उन्हें कैसे बचा पाएंगी? क्या संवैधानिक समाज को जंगल राज में बदल देने की योजना पर उन्होंने काम शुरू कर दिया है? देखने में तो यही आ रहा है कि मगरमच्छों से मासूम जान को बचाने वाले जो भी छोटे-मोटे प्रावधान हैं उनको रोज एक-एक कर वे खत्म करते जा रहे हैं और दूसरी ओर वे नित ऐसे नए कानून बनाने में लगे हैं जिससे कॉर्पोरेट घरानों को मुफ्त में करोड़ों का मुनाफा हो जाए। टेलिकाॅम मंत्रालय ने जो नई लाइसेंसिंग व्यवस्था तैयार की है उससे मुकेश अंबानी की रिलायंस जिओ कंपनी को कैग के अनुसार 3,367.29 करोड़ का मुनाफा होगा, वहीं जिस सलवा जुड़ूम को 2011 में सर्वोच्च न्यायालय अवैध और असंवैधानिक ठहरा चुका है उसी सलवा जुड़ूम को 26 मई से फिर शुरू करने की घोषणा कर दी गयी है ताकि आदिवासियों की जान पर बन आए। एक तरफ वे काॅर्पोरेट घरानों को टैक्स में छूट देकर देश पर 62 हजार करोड़ रुपए का बोझ डाल देते हैं और दूसरी तरफ भूमि हथियाने का षडयंत्र रच कर गरीब आदमी का जीना दूभर कर देते हैं।



इस भूमि अधिग्रहण कानून के बहाने स्थितियों की परत दर परत व्याख्या जरूरी है ताकि समझा जा सके कि आखिर इन सबका अभिप्राय क्या है क्योंकि दुश्मन भले ही सामने साफ दिखायी दे, लेकिन लड़ाई उसी तरह सीधी और साफ नहीं है। सूचना अधिकार कार्यकर्ता वेंकटेश नायक के आवेदन पर वित्‍त मंत्रालय ने जवाब दिया कि फरवरी 2015 तक प्राप्त आंकड़े के अनुसार कुल 804 परियोजनाएं रुकी पड़ी हैं जिसका सिर्फ आठ प्रतिशत यानि कि कुल 804 रुकी पड़ी परियोजनाओं में से सिर्फ 66 परियोजनाएं भूमि अधिग्रहण समस्या के कारण रुकी पड़ी हैं। बाकी के रुके पड़े रहने की वजहें कुछ और हैं। जैसे कि 39 प्रतिशत परियोजनाएं इसलिए रुकी पड़ी हैं क्योंकि या तो फंड की कमी है या कच्‍चा माल उपलब्ध नहीं है। 4.2 प्रतिशत पर्यावरण विभाग से हरी झंडी नहीं मिलने की वजह से रुकी हुई हैं। 34 प्रतिशत क्यों रुकी हैं, यह वित्‍त मंत्रालय को भी नहीं मालूम। सोचिये, इसके बावजूद सरकार सिर्फ इस बात पर जोर दे रही है कि उपयुक्त भूमि अधिग्रहण कानून के न होने के कारण देश आगे नहीं बढ़ रहा है। इसी सरकार के वित्‍त मंत्रालय ने आरटीआई आवेदन पर जो जवाब दिया है क्या उसके बाद कोई यह मानेगा कि भूमि अधिग्रहण कानून को बनने से जो रोक रहे हैं वे विकास के बाधक हैं? नहीं, कोई नहीं मानेगा। फिर विकास के बहाने भूमि अधिग्रहण का यह खेल क्या है? क्या इस बहाने सरकार तमाम प्राकृतिक संसाघनों पर पूंजीपतियों का कब्जा चाहती है? क्या सरकार जनता को दो धड़े में बांटने के लिए यह रास्ता अख्तियार की हुई है?  




जिनके पास कुछ नहीं है, उनको भी वाजिब हिस्सा पृथ्वी पर मिले ऐसी लड़ाई अब कहां है? हर तरफ बचाने की लड़ाई चल रही है यानि कि वे लड़ रहे हैं जिनके पास थोड़ा-बहुत कुछ है और जिसे वे बचाना चाहते हैं। फिर इस लड़ाई में वे क्यों शामिल होंगे जिनके पास कुछ नहीं है बचाने को? क्या करेंगे वे इस बचाने की लड़ाई में शामिल होकर? क्या यह हाशिये पर पड़े लगभग एक ही स्थिति में जी रहे दो लोगों को एक-दूसरे से अलगा कर उन्हें कमजोर करने की साजिश नहीं है जिसे भूमि अधिग्रहण के जरिये सरकार रच रही है? क्या इस तरह यह सरकार लोगों को टुकड़ों में बांट कर संघर्ष को कमजोर नहीं कर रही है? क्या इसके पीछे यह मंशा नहीं है कि जनता आपस में बंट कर कमजोर बने और दूसरी ओर तमाम संसाधनों के मालिक बनकर पूंजीपति मजबूत बनें? यह सरकार का पुराना खेल है। बेहद खतरनाक दौर से गुजर रहा है हमारा समय। कई स्तरों पर बंट जाते हैं हम अनजाने ही। जिनके पेट में भात के दो-चार दाने हैं वे अगर भूखों की लड़ाई को अपने खिलाफ मानेंगे तो जो भूखे हैं वे कैसे अपनी लड़ाई जीत सकते हैं? जमीन की लड़ाई में उन्हें भी शामिल होना होगा जिनके पास अपनी कोई जमीन नहीं है। उर्दू और हिंदी जब तक दो नदियों की तरह मिल कर नहीं बहेंगी वे अपनी लडाई कभी जीत नहीं सकतीं। दलित का सवाल जब तक सिर्फ दलित उठाते रहेंगे तब तक उन्हें मुक्ति नहीं मिल सकती। हो सकता है एक समुदाय के रूप में और अपने समुदाय के भीतर वे मजबूत दिखें लेकिन बाहर उनकी स्थिति नगण्य ही रहेगी। जैसे कि जब यह कहा जाता है कि अमुक दलित कवि श्रेष्ठ हैं तो इसका मतलब सीधा यही होता है कि दलित कवियों में वो श्रेष्ठ हैं। यहीं उनकी सीमा तय हो जाती है। आप जिस भाषा में लिखते हैं, आपको उस भाषा का श्रेष्ठ कवि होना है तो इसके लिए जरूरी है कि आप सबसे पहले खुद को उस भाषा का कवि कहें।




आज की तारीख में रचनाकारों का सबसे बड़ा दायित्व है कि वह लोगों को बताए कि इन सरकारों को ध्वस्त करने का एक ही तरीका है कि वे आपस के सारे भेदभाव भूलकर एकजुट हों क्योंकि ये सारे भेदभाव थोपे हुए हैं और तमाम सरकारों के खिलाफ युद्ध का एलान कर दें। रचनाकार न सिर्फ युद्ध का एलान करने की बात करे बल्कि वह खुद उनके हाथ में झंडा बन कर, उनकी जुबान पर नारा बन कर, उनकी दृष्टि में कविता बन कर दमक उठे और हवा में लहराए उनकी मुट्ठियां बन कर।