नई सरकार के आने के बाद शिक्षा के भगवाकरण पर चिंताएं बढ़ गई हैं. लेकिन क्या इसके पहले की सरकारों के दौरान और भारतीय राज्य के तहत शिक्षा सचमुच एक धर्मनिरपेक्ष, वैज्ञानिक चेतना देने वाली रही है? ऐसा क्यों है कि हरेक नई सरकार सबसे शुरुआती कदमों के बतौर शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव लाने की कोशिशें करती है? जवाब तलाशने की कोशिश कर रही हैं रुबीना सैफी. समयांतर के फरवरी विशेषांक में प्रकाशित लेख.
भारत को अगर हम एकजुट और एकीकृत आधुनिक राष्ट्र बनाना चाहते हैं तो यहां सभी धर्मों के ग्रंथों की संप्रभुता को खत्म करना ही होगा।
-डॉ.बी.आर.अंबेडकर
बीते वर्ष सात दिसंबर को लालकिला मैदान में गीता पर आयोजित एक कार्यक्रम में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि भगवद् गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ (राष्ट्रीय पुस्तक) घोषित करने की बस औपचारिकता भर बाकी है। इससे पहले, भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में नई सरकार के आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी विदेश यात्राओं में विदेशी राष्ट्राध्यक्षों को गीता की प्रतियां भेंट करते रहे हैं। यही नहीं, सरकार की गतिविधियों में धार्मिक प्रतीकों का उपयोग दिन-प्रति-दिन बढ़ता जा रहा है। लेकिन धर्म और धार्मिक मूल्यों को प्रचारित करने की सबसे ज्यादा कोशिश शिक्षा के क्षेत्र में हो रही है। नई सरकार के आने के महीने भर के भीतर ही नए राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के गठन की बातें शुरू हुईं और कहा जाने लगा कि देश को एक नए दृष्टिकोण से पाठ्यक्रम बनाने की ज़रूरत है। इसने बड़े पैमाने पर शिक्षा के सांप्रदायीकरण और ब्राह्मणवादीकरण की आशंकाएं बढ़ा दी हैं।
सवाल यह उठता है कि सरकार बदलते ही पाठ्यक्रमों में बदलाव की कोशिशें क्यों शुरू हो जाती हैं? करिअर और ज्ञान के पहलू को फिलहाल परे भी कर दें और सिर्फ सरकारों, राजनीतिक मकसद और सामाजिक गतिविधियों का संदर्भ ही लें तो आखिर शिक्षा इतनी अहम क्यों बन जाती है?
इसका संबंध शिक्षा के कार्यभार से है, जिसके तहत वह समाज के पुनरुत्पादन में मदद करती है। यह इस पुनरुत्पादन का एक बुनियादी औजार है। इसे हम एक बच्चे के पैदा होने से लेकर एक सामाजिक इकाई के बतौर विकसित होने तक की प्रक्रिया को सामने रख कर आसानी से समझ सकते हैं।
बच्चा जब जन्म लेता है तो वह एक सामाजिक स्थिति में जन्म लेता है। वह जिस परिवार में जन्म लेता है, वह उसका बेटा या बेटी होता है। वह एक जाति में जन्म लेता है। वह एक धर्म में जन्म लेता है। वह एक खास क्षेत्र और एक खास भाषा-भाषी समुदाय में जन्म लेता है, जिसकी अपनी विशिष्ट स्मृतियां, संस्कृति और इतिहास होता है। पैदा होने के बाद बच्चा इन सारे तत्वों को एक-एक कर, धीरे-धीरे सीखने, समझने और अपनाने लगता है, जो उस समाज में उसकी अपनी जगह को और इस जगह को लेकर उसके व्यवहार, उसकी धारणा और नजरिए को निर्मित-निर्धारित करती हैं। साथ ही दूसरों के उसके प्रति नजरिए को भी निर्मित या परिवर्तित करती हैं। यानी वह उस समाज की एक ईकाई के रूप में विकसित होने लगता है, जिसे समाजीकरण की प्रक्रिया कहा जाता है। समाज में उसकी जो भूमिका होती है वह सब उसे सिखाने में परिवार जरिया बनता है। इसे प्राथमिक समाजीकरण भी कहा जाता है। उसके जन्म पर जिस तरह के रीति-रिवाज होते हैं। उसका खानपान, उसका पहनावा,उसका आचरण उसी से तय होता है, उसे किससे दोस्ती करनी चाहिए, किसके साथ खाना खाना चाहिए किसके साथ नहीं, परिवार इन सब व्यवहारों को तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यदि कोई बच्चा किसी धर्म में पैदा होता है तो उसे उसमें विश्वास करना सिखाया जाता है, ऐसा विश्वास जिसपर प्रश्न नहीं किया जा सकता। अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि एक सवर्ण हिंदू बच्चे के खेलने की रुचियां एक दलित या एक मुस्लिम बच्चे के खेलने की रुचियों या खिलौने से भिन्न होती हैं। यह उनके प्राथमिक समाजीकरण की प्रक्रिया है, परिवार जिसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। परिवार को दूसरी आस्थाओं से कोई सरोकार नहीं होता, बल्कि हमारे समाज में परिवार का पूरा ढांचा ही ऐसा होता है कि वह धर्म को ज्यों का त्यों कायम रखे। ऐसे में परिवार के भीतर बच्चे में धर्मनिरपेक्षता के मूल्य नहीं मिल सकते।
परिवारों के अलावा आस-पड़ोस, समुदाय और विद्यालय आदि से भी बच्चों का समाजीकरण होता है,जिसे द्वितीयक समाजीकरण कहते हैं। परिवार के बाद बच्चे का समाजीकरण करने में विद्यालय सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह वो जगह होती है, जहां बच्चे अपने परिवार के बाद सबसे ज्यादा वक्त बिताते हैं, अपने दोस्त बनाते हैं, चीज़ों के बारे में देखना सीखते हैं और दुनिया में अपनी जगह को पहचानना और समझना सीखते हैं। व्यक्ति अपने जीवन में बहुत बाद तक, स्कूल के शिक्षकों और साथ में पढ़ने वालों के व्यवहार और नजरिए से काफी प्रभावित रहता है। इसलिए, मूल्यों और चेतना के स्तर पर एक राष्ट्र कैसा बनेगा, इसमें उस राष्ट्र की शिक्षा प्रणाली की भी बड़ी भूमिका होती है।
इस लेख की शुरुआत डॉ. बी. आर. अंबेडकर के जिस उद्धरण से की गई है, वह इस राष्ट्र के बारे में उनके सपने के बारे में बताता है। एक आधुनिक और एकजुट राष्ट्र, जिसके लिए धर्मग्रंथों की संप्रभुता खत्म की जानी थी। एक आधुनिक राष्ट्र के लिए एक ऐसी आधुनिक चेतना जरूरी है, जो बराबरी, भाईचारे, स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता तथा वैज्ञानिक और आलोचनात्मक नजरिए पर आधारित हो। भारत जैसे समाज के लिए यह इसलिए जरूरी था, क्योंकि यहां शोषण और उत्पीड़न का जो सामाजिक ढांचा सदियों से बना हुआ है और जाति व्यवस्था को जिस तरह धार्मिक और आध्यात्मिक स्वीकृति मिली हुई है, कि धार्मिक सत्ता और धर्म ग्रंथों को चुनौती दिए बिना सामाजिक बराबरी और न्याय की मांग तक नहीं की जा सकती है। हमारे यहां जाति व्यवस्था और पितृसत्ता की शोषणकारी सत्ता को इस तरह ईश्वर और मोक्ष, पाप और पुण्य के धार्मिक कथ्य में बांध दिया गया है कि साधारण लोगों के लिए जाति पर सवाल करने और उसका विरोध करने के बारे में सोचना भी असंभव है। इसलिए भारत जैसे समाज में धार्मिक संप्रभुता को नकारना, आधुनिक चेतना के विकास की पूर्वशर्त है। आजादी के बाद वादे के मुताबिक भारत को एक आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र बनना था। सामाजिक न्याय और बराबरी हासिल करनी थी। हालांकि हम जानते हैं कैसे इन सबको ही एक बहुत बड़े झूठ में तब्दील कर दिया गया है।
इसलिए अगर आज हम समाज की चेतना में बढ़ती हुई धार्मिकता और गैर बराबरी की भावना को पाते हैं, तो इसका संबंध इससे भी है कि हमारे स्कूलों में क्या पढ़ाया जाता रहा है। हमारे स्कूलों में जो पढ़ाया जाता रहा है, वह मुख्यतः इससे तय होता है कि उनसे हमारी अर्थव्यवस्था के हितों की कितनी सेवा होती है। यहां पर जानेमाने शिक्षाविद् कृष्ण कुमार का अवलोकन गौर करने लायक हैः “स्कूलों में देने के लिए जो शिक्षा उपलब्ध होती है उसका सरोकार समाज में ज्ञान और सत्ता के समग्र वर्गीकरण से होता है। स्कूल ऐसे व्यक्ति रचते हैं जिनका ज्ञान और कौशल उन्हीं के कामों के लिए उपयुक्त होता है जिन्हें अर्थव्यवस्था पैदा करती है और राजनीति और संस्कृति समर्थन देती हैं।”1 जैसा कि हम देखेंगे, यह कहानी अकेले भाजपा से शुरू नहीं होती। यह इस देश की आजादी से शुरू होती है।
1947 के सत्ता हस्तांतरण और 1950 में संविधान लागू होने के बाद जब आधुनिक भारत की नींव रखने का दावा किया गया और संविधान में दर्ज बराबरी, आजादी और धर्मनिरपेक्ष समाजवादी मूल्यों के आधार पर समाज की नींव रखने की कोशिश शुरू हुई तो कोई भी यह उम्मीद करेगा कि शासन व्यवस्था ऐसी नीतियों और कार्रवाइयों की पहलकदमी करेगी, जो इस दिशा में समाज को गढ़ सके। लेकिन यह भ्रम ज्यादा देर तक नहीं टिक सका। शिक्षा का ढांचा कमोबेश वही रहा जिसमें प्रभुत्त्वशाली, ब्राह्मणवादी और सामंती शिक्षा-संस्कृति को ही बढ़ावा दिया गया। बराबरी, आजादी, धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक राष्ट्र बनाने का नारा पीछे छूटता चला गया। जहां शिक्षा में विज्ञान और वैज्ञानिकता के प्रसार की जरूरत थी, वहीं आध्यत्मिकता और धार्मिकता का प्रचार किया गया। एक तरफ विज्ञान को महज एक विषय के रूप में पढ़ाया जाता रहा और दूसरी तरफ बाकी विषय धर्म या धर्म से पैदा होने वाली नैतिक दृष्टि से संचालित होते रहे, क्योंकि ‘शताब्दियों से, पाठ्यक्रम केवल वर्चस्व रखने वाली जातियों से संबंधित ज्ञान तक सीमित रहा था।’2
जिस शिक्षा को समाज में व्यापत जातिवाद, धार्मिकता, भेदभाव को चुनौती देनी थी, वह असल में उन्हीं मूल्यों को पुनरुत्पादित करती रही और आज भी कर रही है। हमारे विद्यालय समाज के मूल्यों को ही पुनरुत्पादित करते हैं। वे न तो प्राथमिक समाजीकरण से बने धार्मिक मूल्यों को तोड़ते हैं और न ही धर्मनिरपेक्षता को उनके आचरण का हिस्सा बनाते है। इसकी बड़ी वजह यह है कि जिस शिक्षक को विद्यालय का जरूरी उपकरण माना गया है, वह स्वयं एक समाजीकरण की प्रक्रिया से होकर गुजरा है। वह एक खास समुदाय, जाति, धर्म, लिंग से संबंधित है। इसी कारण विद्यालय प्राथमिक समाजीकरण को चुनौती नहीं दे पाता, उसके प्रति विरोधाभास उत्पन्न नहीं कर पाता। शिक्षक पाठ के बतौर तो वैज्ञानिक विचार विद्यार्थियों के सामने रखता है लेकिन अपने व्यवहार में उसके उटल चीजें करता है। वह विद्यार्थियों को भौतिकवादी परिस्थितियों के बारे में पढ़ाएगा लेकिन स्वयं व्रत रखेगा, तिलक लगाएगा, हाथों में मन्नत का कलावा बांधेगा। कोई भी व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से धर्म में आस्था रख सकता है, लेकिन एक शिक्षक विद्यार्थियों के सामने एक आदर्श भी प्रस्तुत करता है। उसका व्यवहार अप्रत्यक्ष पाठ्यक्रम का हिस्सा होता है, जिसे विद्यार्थी लगातार देखते हैं और उससे प्रभावित होते हैं। इसका प्रभाव यह होता है कि बच्चे ने अपने परिवार से जो मूल्य और परंपराएं सीखी हैं, विद्यालय में भी वे उसी रूप में बनी रहती हैं। स्कूल में आम तौर पर मुस्लिम और दलित बच्चे दूसरे बच्चों के साथ अपना खाना आसानी से बांट कर नहीं खा पाते। कभी-कभी तो उन्हें खुद अन्य बच्चों से छुप कर खाना खाना पड़ता है।
भले ही विद्यालय में निश्चित लिखित पाठ्यक्रम हो, जिसमें छात्र/छात्राओं को समान बताया और दिखाया गया हो, लेकिन विद्यालय के कुछ अप्रत्यक्ष पाठ्यक्रम होते हैं। विद्यालय में किया जाने वाला व्यवहार, वहां होने वाली गतिविधियां, वहां का परिवेश, यह सभी अप्रत्यक्ष पाठ्यक्रम का हिस्सा होते हैं। इसे बच्चे लगातार देखते हैं और सीखते हैं। जैसे स्कूल की शुरूआत ही सुबह अक्सर हाथ जोड़कर भगवान की प्रार्थना से होती है। किसी कार्य के आरंभ में गणेश या सरस्वती की पूजा और दीप प्रज्ज्वलित करना एक आम बात है जिसके बारे में कोई सवाल नहीं किए जाते।
पिछले साल मैं छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले में एक प्राथमिक स्कूल में गई थी। हम स्कूल की एक कक्षा में दाखिल हुए तो देखा पूरी कक्षा मंदिर बनी हुई थी। मास्टर जी (उस विद्यालय में केवल पुरुष शिक्षक ही थे और वह लड़कियों का स्कूल था) के बैठने की मेज़ पर सरस्वती और लक्ष्मी जी विराजमान थी। और मास्टर जी हाथ बांधे खड़े थे। सारी लड़कियां चप्पल उतारकर कक्षा में दाखिल हो रही थीं। कक्षा की प्रधान छात्रा मास्टर जी को टीका लगा रही थी और प्रसाद बांट रही थी।
यह सिर्फ छत्तीसगढ़ की ही बात नहीं है। देश के लगभग हरेक इलाके में स्कूलों में यह सब होता है। स्कूलों में चलने वाली ऐसी गतिविधियां बच्चों को धर्मनिरपेक्षता के बारे में तो कुछ नहीं ही सिखा पातीं, वे उनकी आलोचनात्मक समझ और पाठ्यक्रम द्वारा सिखाए जाने वाले वैज्ञानिक पहलू को भी कुंद करती हैं। तब कैसे एक बच्चा दूसरे धर्म के प्रति सद्भाव सीखेगा जबकि वह उसे जान ही नहीं पाएगा। इसके बावजूद हम एक धर्मनिरपेक्ष राज्य कहलाने में नहीं शर्माते। इसके अलावा स्कूलों में जाति, वर्ग, रंग और जेंडर आदि के आधार पर भेदभाव किया जाता है। दलित जातियों के बच्चों के साथ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह से भेदभाव किया जाता है। उन्हें साफ-सफाई की जिम्मेदारी अधिक दी जाती है। मुस्लिम, सिख, जैन जैसे अल्पसंख्यक जाति के बच्चों को सरस्वती की पूजा के लिए बाध्य होना पड़ता है। ऐसे अनगिनत उदाहरण दिए जा सकते हैं।
हमारी शिक्षा व्यवस्था की बनावट ही ऐसी है कि इसमें धर्म, वर्ग और जाति के आधार पर भेदभाव साफ दिखाई देता है। अगर हम दिल्ली की ही बात करें तो मुस्लिम बहुल इलाके जैसे सीलमपुर या दलित बस्तियों के आस-पास के सरकारी स्कूलों की हालत खस्ता है। वहीं दक्षिण दिल्ली के ऐसे इलाके जहां मध्यमवर्ग के लोग रहते है, सरकारी स्कूलों में भी ‘अच्छी पढ़ाई’होती है। यह सिर्फ एक शहर के भीतर की बात नहीं बल्कि यह देश भर का हाल है।
यह तो हुई शिक्षा व्यवस्था की बात, अब अगर हम स्कूलों में पढ़ाए जाने वाले विषयवस्तु पर ध्यान दें तो बात और साफ हो जाएगी। सबसे पहले तो पाठ्यक्रम इस तरह बनाए जाते हैं कि वे वर्चस्वशाली तबकों के मूल्यों, विचारों और परंपराओं को, उनके इतिहास और उनकी संस्कृति को, संक्षेप में कहें तो उनके नज़रिए को पेश करते हैं। वे उन्हीं नायकों और मिथकों के बारे में, उन्हीं युगों और सामाजिक संघर्षों के बारे में बताएंगे जो उनके अस्तित्व को न्यायोचित बता सकें। वे अपने सांस्कृतिक वर्चस्व को स्वीकृति दिलाने के लिए अपने त्योहारों और परंपराओं को सार्वभौम बना कर पेश करते हैं। औपनिवेशिक दौर में यह बात अंग्रेजी सभ्यता और संस्कृति के बारे में थी, आज के दौर में पाठ्यक्रम एक जातीय, सांप्रदायिक और पितृसत्तात्मक शासक वर्ग के नजरिए को पेश करते हैं।
लेकिन कई बार उन्हें भिन्न संस्कृतियों, समाजों, असहमत और विरोधी विचारों, नायकों और मूल्यों के बारे में भी बताना पड़ता है, क्योंकि वे या तो उन्हें दबा नहीं सकते या खुद को स्वीकृति दिलाने के क्रम में ऐसा करना जरूरी होता है। कई बार वे इनको खत्म करने के लिए भी शिक्षा की मदद लेते हैं। शिक्षाविद् कृष्ण कुमार लिखते हैं, “जिस राज्यतंत्र में किसी आवाज़ को जानबूझ कर दबाया नहीं जा सकता, वहां कुछ आवाज़ों को खत्म करने या उन्हें अत्यंत धीमी बनाने की दिशा में शिक्षा एक उपयोगी साधन प्रदान करती है। समाज में जिन तबकों का वर्चस्व है वे शिक्षा और विशेषकर पाठ्यक्रम, का इस्तेमाल यह सुनिश्चित करने के लिए कर सकते हैं कि उनकी आवाजों के अलावा और सभी आवाजें इतने नाकाफी, कमजोर या बिगड़े रूप में आएं कि उनकी अपील नकारात्मक हो जाए और पाठ्यक्रम के विमर्श में उनके लिए जगह ही न रह जाए।”3
इसकी मिसाल के रूप में पर्यावरण अध्ययन की किताब आस-पास के कक्षा पांच के एक पाठ को पेश किया जा सकता है, जिसमें सफाई संबंधी ‘सुधार’के बारे में गांधी के कामों पर एक संस्मरण पेश किया गया है और उसके नीचे एक गौण पाठ के रूप में डॉ. बी. आर. अंबेडकर के बचपन के एक अनुभव को पेश किया गया है। ‘कौन करेगा यह काम’नामक इस पाठ में हालांकि ऊपरी तौर पर यह भ्रम पैदा किया गया है कि यह जातिवाद विरोधी है, लेकिन गौर करने पर हम पाएंगे कि यह पाठ जाति प्रथा का समर्थन ही करता है। आज जब देशभर में जातिवाद के खिलाफ प्रतिरोध हो रहे हैं, आंदोलन चल रहे हैं, उस नजरिए को कब का खारिज किया जा चुका है जिसके तहत जाति के सवाल को सिर्फ छुआछूत के सवाल के रूप में पेश किया जाता था, ऐसे में हमारे बच्चों को यह संदेश पढ़ाया जाता है जो जातिवाद का समर्थन करता है न कि उसके उन्मूलन की बात करता है :
“नारायण जानता था कि ऐसे काम करने वाले लोगों को अछूत माना जाता है। पर वह यह नहीं समझ पा रहा था कि उनके बदले अगर हम खुद यह काम करें तो हालात कैसे बदलेंगे? उसने पूछा, ‘‘अगर गांववाले नहीं सुधरे तो क्या फ़ायदा? उन्हें तो आदत हो गई है कि उनका गंदा काम कोई और ही करे!’’ गांधी जी बोले, ‘‘क्यों इससे सफ़ाई करने वालों को फ़ायदा नहीं होता, क्या उन्हें सीख नहीं मिलती? कोई काम सीखना एक कला सीखने जैसा है। सफाई का काम भी।”4
गांधी के बारे में अपेक्षाकृत लंबे संस्मरण के बाद अंबेडकर का एक छोटा सा अनुभव दे दिया गया है। यह पाठ जाति व्यवस्था पर अंबेडकर के नजरिए को रखने की कोशिश तक नहीं करता, उनके द्वारा गांधी के नजरिए को खारिज किए जाने की जानकारी देने की बात तो जाने ही दें।
एन.सी.एफ. 2005 के बाद हमारी पाठ्यपुस्तकों में बदलाव किए गए जिसमें यह कोशिश की गई कि ‘हम सारे बच्चों को जाति, धर्म संबंधी अंतर, लिंग और असमर्थता संबंधी चुनौतियों से निरपेक्ष रखते हुए स्वास्थ्य, पोषण और समावेशी स्कूली माहौल मुहैया कराएं।’5 लेकिन इस लेख में दिए गए सारे उदाहरण इन सुधारों के बाद के हैं। एनसीईआरटी द्वारा तैयार कक्षा तीन की रिमझिम के पाठ-सात ‘टिपटिपवा’में एक चित्र है जिसमें एक ‘धोबी’एक ब्राह्मण के घर जाकर पोथी बांचकर अपने गधे के बारे में पता करने के लिए कहता है। उस तस्वीर में यह साफ दिखाया गया है कि कैसे धोबी, ब्राह्मण के घर में पैर नहीं रख सकता। इसके अलावा पाठ के अंत में प्रश्नोत्तर में प्रश्न डाला गया है कि ‘जरा पोथी बांच कर बताइए कि वह कहां है? अपने शब्दों में लिखिए। इस तरह के अंधविश्वास को तीसरी कक्षा के बच्चों को अपने शब्दों में व्यक्त करना सिखाया जाता है। एक और उदाहरण एनसीईआरटी द्वारा तैयार कक्षा पांच की पाठ्यपुस्तक रिमझिम से ही लिया गया है-
“मैं तलवार खरीदूंगा मां, या मैं लूंगा तीर-कमान
जंगल में जा, किसी ताड़का
को मारूंगा राम समान
तपसी यज्ञ करेंगे, असुरों-
को मार भगाऊंगा
यों ही कुछ दिन करते-करते
रामचंद्र बन जाऊंगा”6
जब असुर की परंपरागत और रूढ़ छवि को, उचित रूप से, चुनौती दी जा रही है और बुरे प्रतीक के रूप में असुर समुदाय को पेश किए जाने का विरोध होने लगा है, तब यह कविता उन परंपरागत छवियों को ही मजबूत करेगी और असुर समुदाय को एक ऐसे तबके के रूप में पेश करेगी जिसका उन्मूलन जरूरी है और जिसके लिए बच्चों के सामने आदर्श भी पेश किए गए हैं। जाहिर है कि यह कोई तर्कसंगत, आलोचनात्मक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा नहीं देती, यह इसके उलट ही काम करती है।
ऐसे कई उदाहरण इन किताबों में मिल जाएंगे जिनमें दी गई उपमाएं, प्रतीक, बिंब, भाषा और शैली धार्मिक चेतना से निकले हुए होते हैं। जैसे कि कक्षा पांचवी की रिमझिम में हिमालय की चुनौती नामक पाठ में ‘चारों ओर हिम शिखरों से घिरे हुए मैदान को लेखक ‘देवताओं के मुकुट के समान’ पाता है।7
इसके अलावा कक्षा छठीं और सातवीं में सभी बच्चों को अनिवार्य रूप से ‘बाल राम कथा’और ‘संक्षिप्त महाभारत’पढ़ाई जाती है। इसके पीछे क्या तर्क दिए जाते हैं, यह पाठ्यपुस्तक की शुरुआत में मुझे कहीं दिखाई नहीं दिए। इसके पीछे एक तर्क यह हो सकता है कि यह हमारा उत्कृष्ट साहित्य है, इसे बच्चों को जरूर पढ़ाना चाहिए। लेकिन तब सवाल यह है कि सिर्फ राम कथा और महाभारत ही इस देश के उत्कृष्ट साहित्य में तो नहीं आते। ऐसी अनेक साहित्यिक रचनाएं मिल जाएंगी जो उत्कृष्ट भी हैं, लोकप्रिय भी हैं और एक तार्किक, बौद्धिक चेतना का भी विकास करती हैं, आखिर उन्हें क्यों इतनी प्रमुखता से पढ़ाया नहीं जा सकता? और फिर क्या किसी साहित्यिक रचना को क्या तब भी पढ़ाया जाना चाहिए, जब वह जातिवादी और स्त्रीविरोधी धार्मिक चेतना को बढ़ावा देती हो? फिर भी, अगर सवाल साहित्यिकता का भी है, तो कोई साहित्यिक कृति अपने मूल रूप में ही उत्कृष्ट होती है, फिर उसे संक्षिप्त रूप में क्यों पढ़ाया जाता है और उन्हें इतनी छोटी कक्षा में क्यों पढ़ाया जाए। इन सारी बातों के ऊपर एक बात यह भी है कि अध्यापक इन किताबों को कक्षा में एक धार्मिक साहित्य के बतौर ही पढ़ाते हैं और इन पर किसी तरह के सवाल की छूट नहीं होती है।
यह तो हुई हिंदी भाषा के पाठ्यपुस्तकों की बात. कोई यह उम्मीद करेगा कि दूसरे विषयों में छात्रों में आलोचनात्कम और वैज्ञानिक दृष्टि विकसित करने की कोशिश की जाएगी. लेकिन हमें वहां भी निराशा ही हाथ लगती है. मिसाल के लिए महाराष्ट्र राज्य पाठ्यपुस्तक निर्मिती व अभ्यासक्रम संशोधन मंडल, पुणे, की कक्षा चौथी की सामान्य विज्ञान की पाठ्यपुस्तक लेते हैं. सबसे पहले तो किताब का आरंभ सभी विषयों की किताबों की तरह छात्र/छात्राओं की इस प्रतिज्ञा से होती है कि ‘मुझे अपने देश से प्यार है। अपने देश की समृद्ध तथा विविधताओं से विभूषित परंपराओं पर मुझे गर्व है। मैं हमेशा प्रयत्न करूंगा/करूंगी कि उन परंपराओं का सफल अनुयायी बनने की क्षमता मुझे प्राप्त हो। मैं अपने माता-पिता, गुरुजनों और बड़ों का सम्मान करूंगा/करूंगी और हर एक से सौजन्यपूर्ण व्यवहार करूंगा/करूंगी।’
‘परंपराओं का सफल अनुयायी’ बनने की प्रतिज्ञा के साथ शुरू हुई किताब जाहिर है कि सवालों और संदेहों के लिए बहुत जगह नहीं छोड़ती। इसमें जीवन दृष्टि को विकसित करने में विज्ञान की भूमिका बहुत कम बचती है, सिर्फ उसे परीक्षा के अंकों के लिहाज से पढ़ना होता है। वहां ‘निरीक्षण, प्रस्तुतीकरण, वर्गीकरण, तुलना, निष्कर्ष तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण’ के लिए कोई जगह नहीं बचती। शायद इसीलिए यह पाठ्यपुस्तक विज्ञान की कम नैतिक शिक्षा की पुस्तक ज्यादा लगती है। यह प्रतिज्ञा महाराष्ट्र की सभी कक्षाओं और विषयों की किताबों के आरंभ में होती है और यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह बच्चों की चिंतन प्रणाली पर कैसा असर छोड़ती होगी। आगे बढ़ते हैं। हमने विज्ञान की जिस किताब से यह उद्धरण लिया है, उसके अध्याय ‘स्वास्थ्य और स्वच्छता’, हमारा शरीर, समन्वय, हमारे वस्त्र, एक स्वस्थ और स्वच्छ जीवन के उपदेश देते हुए से लगते हैं। हालांकि पुस्तक यह दावा करती है कि किताब में बच्चों में वैज्ञानिक, आलोचनात्क दृष्टि का विकास करेगी और ‘स्त्री-पुरुष समानता को उदाहरणों और चित्रों के माध्यम से विद्यार्थियों के मन में चित्रित करने का यथोचित प्रयत्न किया गया है’ लेकिन पूरी किताब में दिए गए चित्रों पर गौर करें तो समाज में श्रम संबंधी लैंगिक बंटवारे को यह किताब पुष्ट करती है: मेहनत के ज्यादातर काम स्त्रियों और लड़कियों को करते हुए दिखाया गया है, जबकि लड़के या पुरुष अधिकतर जगहों पर खेलते या ऐसे काम कर रहे हैं, जिन्हें आम तौर पर स्त्रियों को नहीं करने दिया जाता।
हमें यह समझना होगा कि वैज्ञानिक चेतना को बढ़ावा देने का काम सिर्फ विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों पर नहीं छोड़ा जा सकता। पहली बात तो यह है कि वैज्ञानिक चेतना को विकसित करने का काम साहित्य और समाज से सीधे-सीधे जुड़े विषय जितनी बखूबी कर सकते हैं, विज्ञान का विषय नहीं। क्योंकि दूसरे विषयों से बच्चे भावनात्मक रूप से जुड़ पाते हैं और उनमें निहित संदेशों, प्रतीकों और चिंतन पद्धतियों को स्वाभाविक रूप से अधिक आसानी से ग्रहण करते हैं। जबकि विज्ञान जैसे विषय ज्यादातर अमूर्त और नीरस होने के कारण कम आकर्षित करते हैं और बच्चे उनसे सीधे-सीधे बहुत आसानी से नहीं जुड़ पाते। इसलिए विज्ञान की पुस्तकें अधिक से अधिक एक वैचारिक ढांचा ही प्रदान कर सकती हैं, जिनके आधार पर अन्य विषयों की पुस्तकों को वैज्ञानिकता को प्रचारित करना चाहिए। यह काम अकेले विज्ञान का विषय कभी नहीं कर सकता। लेकिन इस सवाल का एक दूसरा पहलू भी है, जो हमारे स्कूलों में विज्ञान के विषयों को पढ़ाने के तरीकों से जुड़ा हुआ है। स्कूलों में गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान आदि विषयों को ऐसे अमूर्त रूप में पढ़ाया जाता है जिससे बच्चा उसका अपने जीवन से कोई संबंध नहीं बैठा पाता। यही कारण है कि कक्षा में बार-बार यह सीखने पर कि दिन और रात कैसे बनते हैं, बच्चे के मन में यह विचार बना रहता है कि यह सब तो भगवान करता है। यह शिक्षा बहुत हद तक उसके मन में मौजूदा अवैज्ञानिक धारणाओं के प्रति विरोधाभास और सवाल उत्पन्न नहीं कर पाती।
पाठ्य पुस्तकें पढ़ाई जाने वाली सामग्री पर नियंत्रण स्थापित करती है। उनसे क्या करवाना है इसी से पाठ्यक्रम तय होता है। बच्चों को मानव संसाधन की तरह इस्तेमाल किया जाता है। बच्चे सिर्फ संसाधन बन जाते हैं। उन्हें अलग-अलग उत्पादन क्षेत्रों के अनुसार तैयार किया जाता है। उन्हें जो ज्ञान दिया जा रहा है, उसका मकसद उनको विषय की प्रकृति को समझना और उसके अनुसार व्यवहार करना नहीं है। क्योंकि यह शासक वर्ग के हितों के विरुद्ध जाता है। इसलिए बच्चों को ऐसी ही और इतनी ही शिक्षा दी जाती है जो शासक वर्ग के हितों के लिए जरूरी हो।
आजकल व्यावसायिक शिक्षा का इतना चलन है जिसमें विद्यालय केवल मशीनें चलाने वाले वर्ग या कर्मचारी को पैदा करता है। वह ऐसे ज्ञान का निर्माण नहीं करती जिससे वह अपने समाज के प्रति सचेत व्यक्ति बना सके। यही कारण है कि हमें ऐसे कई विज्ञान के विद्यार्थी मिल जाएंगे जो विज्ञान की शिक्षा पाकर डॉक्टर या इंजीनियर तो बन जाते है लेकिन उनकी जीवनशैली उतनी ही अवैज्ञानिक और पोंगापंथी होती है। वह दूसरों जितने ही धार्मिक और अंधविश्वासी होते हैं। स्कूलों में बच्चों द्वारा सीखे गए विचार बाहरी जीवन से प्राप्त ज्ञान से मेल नहीं खाते। स्कूली विषय के तौर पर विज्ञान की अलग पहचान सीखने वाले के लिए प्रयोग करने की जरूरत के कारण होती है।8 लेकिन स्कूलों में प्रयोगशालाएं और इसके लिए जरूरी उपकरण अक्सर नहीं पाए जाते और न ही उन्हें मुहैया कराने पर जोर दिया जाता है। सारा जोर सिर्फ नियमों को रटने और परीक्षा में अधिक से अधिक अंक लाने पर होता है।
इस संदर्भ में एक तीसरी बात अहम यह है कि विज्ञान को मूल्यों और सामाजिक चेतना से काट कर नहीं पढ़ाया जा सकता है, वरना वह तार्किकता, लोकतांत्रिकता और आधुनिक चेतना विकसित करने के बजाए शासक वर्गीय मूल्यों को पूरा करने का औजार भर बन कर रह जाएगा। कृष्ण कुमार ने इस खतरे को रेखांकित करते हुए लिखा है - “विज्ञान की पढ़ाई के संबंध में यह माना जाता है कि वह धर्मनिरेपक्ष मूल्यों को बढ़ावा देगा क्योंकि वह आरोपित सत्ता को निरर्थक बना देता है। लेकिन विज्ञान को पारंपरिक तरीके से पढ़ाया जाए, उसमें पाठ्यपुस्तक और शिक्षक के शब्दों की संप्रभुता को स्वीकार किया जाए और उसमें प्रयोग का कोई अवसर न दिया जाए, तो उसका सेक्युलर चरित्र और महत्व नहीं रह जाएगा। पुराने चले आ रहे पढ़ाई के तरीकों को लागू रखने के कारण अगर विज्ञान का मूल चरित्र खत्म होता है, तो विज्ञान कक्षा में और फिर समाज में तानाशाही का हथियार भी बन सकता है।”9
हम अपने देश के संदर्भ में इस खतरे को पूरा होते हुए देख भी रहे हैं, कि कैसे आईआईटी और वैज्ञानिक तथा तकनीकी शिक्षा संस्थान ब्राह्मणवादी, सामंती और धार्मिक मूल्यों और राजनीतिक नजरिए के गढ़ बने हुए हैं।
इसलिए शिक्षा के जनवादीकरण और इसमें वैज्ञानिक नजरिए को स्थापित करने का संघर्ष जरूरी बन जाता है। लेकिन यह समझ लेना कि शिक्षा का जनवादीकरण कर देने से और उसमें वैज्ञानिक नजरिया स्थापित कर देने से बच्चों में वैसी चेतना का विकास हो जाएगा, सही नहीं है। इसकी वजह बच्चे के समाजीकरण की प्रक्रियाओं में छिपी है, जिसके बारे में हम इस लेख की शुरुआत में चर्चा कर चुके हैं। थोड़े समय के लिए हम फिर से वहीं लौटते हैं। जैसा कि हमने देखा, बच्चे स्कूल आने की उम्र होने से पहले अपना समय परिवार और अपने आस पास के परिवेश के बीच में बिताते हैं। जब वे स्कूल जाना शुरू करते हैं तब भी, स्कूल से बचा हुआ समय भी वे परिवार के बीच ही बिताते हैं। इस तरह परिवार द्वारा किया गया समाजीकरण स्कूलों द्वारा किए गए समाजीकरण की अपेक्षा ज्यादा असरदार होता है। यानी प्राथमिक सामाजिक द्वितीयक समाजीकरण की अपेक्षा ज्यादा प्रभावशाली होता है क्योंकि वह बच्चे के व्यक्तित्व के निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाता है। हमारे यहां द्वितीयक समाजीकरण में बहुत हद तक प्राथमिक समाजीकरण के प्रति विरोधाभास नहीं दिखता है। जैसा कि हम देख चुके हैं, भारतीय समाज में आम तौर पर द्वितीयक समाजीकरण, प्राथमिक समाजीकरण को चुनौती नहीं देता है। यानी जो कुछ बच्चा अपने परिवार में सीखता है, उन्हीं मूल्यों को किसी न किसी रूप में वह अपने स्कूल और आस-पड़ोस आदि से भी सीखता है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि शिक्षा की जरूरत क्या है? अगर जरूरत है तो कैसी शिक्षा की।जो सिर्फ रोजगार मुहैया कराए? जीवन स्तर में सुधार करने में मदद करे? या फिर शिक्षा का अर्थ लोगों को उस विश्व का ज्ञान कराना है, जिसमें वे रहते हैं - उन्हें यह बताना है कि यह विश्व उन्हें किस तरह आकार देता और वे किस तरह विश्व को आकार देते हैं। अपने समाज में वह किस भूमिका में है? कैसे वे सामाजिक परिवेश को बदलने में भूमिका निभा सकते हैं। कैसे वह ऐसे ज्ञान का निर्माण कर सकते हैं जिसका उसके जीवन में औचित्य हो।
इस तरह हम देखते हैं कि शिक्षा मौजूदा व्यवस्था को बनाए रखने के लिए उपकरण के रूप में काम कर रही होती है, लेकिन धीरे-धीरे वह मौजूदा हालात में सामाजिक बदलाव का हथियार भी बन जाती है। शिक्षा और साम्राज्यवाद के रिश्तों पर अरसे से लिखते आ रहे लेखक न्गुगी वा थ्योंगो कहते हैं कि “वर्गीय समाजों में दरअसल दो तरह की शिक्षा के बीच भीषण संघर्ष चलता है जो दो परस्परविरोधी संस्कृतियों का प्रसार करती हैं और दो परस्परविरोधी चेतना अथवा विश्वदृष्टि अथवा विचारधाराओं की वाहक हैं।”10 इसमें एक तरफ वह शिक्षा है जिसे राज्य एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करता है। जिसपर उसका पूरा अधिकार है। पाठ्यचर्या, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक बनाने से लेकर शिक्षकों के प्रशिक्षण तक में इन मूल्यों को ध्यान रखा जाता है। जिससे राज्य के हित सुरक्षित रहें। भले ही उसमें ज्यादातर लोगों का हित शामिल हो या न हो। लेकिन दूसरी ओर समाज में ऐसे तत्व हमेशा से मौजूद रहे हैं जो उन मूल्यों के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं। जिसके जरिए भी एक सीखने-सिखाने की प्रक्रिया चलती रहती है। एक शिक्षा वह भी है जो अनौपचारिक रूप से समाज में चलती रहती है। सामाजिक संघर्षों से माध्यम से विकसित होती रहती है।
धर्मनिरपेक्ष और तर्कसंगत चेतना के लिए तथा राजनीतिक और सामाजिक बदलाव के लिए बच्चों को स्कूलों में भेजना भर काफी नहीं है बल्कि उन्हें ऐसी शिक्षा देना जरूरी है जो उन्हें अपनी स्थिति को समझने में मदद करे। जो उन्हें ऐसा ज्ञान दे जिसका उपयोग वह सामाजिक परिस्थितियों को बदलने में लगा सके। हमें सिर्फ एक धर्मनिरपेक्ष और जनवादी राजनीतिक चेतना वाली शिक्षा ही नहीं चाहिए, बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष, आधुनिक और वैज्ञानिक चेतना वाला समाज भी चाहिए। इसे सिर्फ शिक्षा के जरिए ही हासिल नहीं किया जा सकता, बल्कि इसे व्यापक सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष के जरिए ही हासिल किया जा सकता है। हमें जैसी शिक्षा की जरूरत है, वह तभी हासिल हो पाएगी जब ऐसी शिक्षा और ऐसे समाज के लिए संघर्ष को तेज किया जाए। इसके बिना न शिक्षा आधुनिक रह पाएगी और न ही समाज।
अगर शासक वर्ग शिक्षा को अपने वजूद को बनाए रखने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है तो जिन वर्गों के शोषणमुक्त, इंसाफ पर आधारित भविष्य के लिए सामाजिक बदलाव जरूरी है, यह उन वर्गों और उनके सहयोगियों की जिम्मेदारी बनती है कि वे बदलाव के हथियार के रूप में शिक्षा के विकास के संघर्ष छेड़ें और उसे आगे बढ़ाएं।
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1. कृष्ण कुमार, शैक्षिक ज्ञान और वर्चस्व, पृ.18
2. वही, पृ.20
3. वही, पृ.22
4. आस-पास, कक्षा पांच, पाठ-16, कौन करेगा यह काम, पृ.151
5. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005, पृ. viii
6. रिमझिम-5, पाठ-3, खिलौनेवाला, पृ.21
7. वही, पाठ-18, चुनौती हिमालय की, पृ.141
8. कृष्ण कुमार, वही, पृ.27
9. वही, पृ.27
10. न्गुगी वा थ्योंगो, भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता, पृ.109