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Wednesday, July 28, 2021

'गायब होता देश' और 'एक्सटरमिनेट आल द ब्रूटस'

 



कुछ किताबें और फिल्में ऐसी होती हैं, जहाँ समय सांस लेता है। यहां सांस के उतार-चढ़ाव और गर्माहट को आप महसूस कर सकते हैं।

रणेन्द्र का 'गायब होता देश' और इसी साल अप्रैल में HBO पर रिलीज़ हुई राउल पेक (Raoul Peck) की  'एक्सटरमिनेट आल द ब्रूटस' (Exterminate All the Brutes) ऐसी ही कलाकृतियां हैं।

रणेन्द्र और राउल पेक एक दूसरे को नहीं जानते, लेकिन अलग अलग विधा की उनकी कृतियों में ग़ज़ब की समानता है। जैसे उनके बीच कोई गुप्त समझौता हो कि लोकल लेवल पर रणेन्द्र 'गायब होता देश' में जो लिखेंगे उसे ही ग्लोबल स्तर पर अपनी 4 घंटे की डाक्यूमेंट्री में राउल पेक विस्तार देंगे।

'गायब होता देश' और 'एक्सटरमिनेट आल द ब्रूटस' दोनों ने ही आधुनिक कही जाने वाली सभ्यता पर गंभीर सवाल खड़े किए हैं।

शीर्षक भले ही 'गायब होता देश' हो, लेकिन उपन्यास के विवरण में यह साफ है कि भारत में आदिवासी समाज को उनकी संस्कृति के साथ खत्म (गायब) किया जा रहा है। ठीक उसी तरह जैसे कि 'एक्सटरमिनेट आल द ब्रूटस' में विस्तार से यह बताया गया है कि कैसे आधुनिक 'सभ्य' अमेरिका की नींव वहां के मूल निवासियों के कत्लेआम पर रखी गयी है। अभी ज्यादा वक्त नहीं गुज़रा है जब अमेरिका में कई राज्यों ने वहाँ के मूल निवासियों को मारने के एवज में इनाम की घोषणा कर रखी था। मूल निवासियों के जितने सर लाओगे, उतना ही इनाम पाओगे।

अपने देश मे नक्सलियों को मारने पर इनाम की घोषणा उसी जनसंहारक अमेरिकी नीति  की निरंतरता नहीं तो और क्या है। आखिर नक्सली भी तो आदिवासी ही हैं अपने को गायब किये जाने के खिलाफ सतत संघर्षरत।

'गायब होता देश' में 'सभ्य' समाज की आदिवासियों के प्रति राय देखिये- 'ई कोल कबाड़ चुआड़ की ई औकात, जो हमरा लेबर है, बाहर खटता है, दातून बेचता है, हमरा फ्लैट में रहेगा?' एक अन्य जगह पर एक आदिवासी इसे यूं बयां करता है-'उनके लिए तो हम म्यूज़ियम से भागे किरदार हैं।' नक्सलियों के नाम पर आदिवासियों की झूठी मुठभेड़ों का आदी थानेदार कुँवर वीरेंद्र प्रताप सिंह हमेशा 'कोल' जनजाति को 'कोल-बकलोल' या 'कोल-कुकुर' कहकर ही बुलाता है। 'ब्रूटस' (Brutes) शब्द का भी यही अर्थ है यानी भावना रहित पशु समान।

इससे जुड़ा हुआ मुझे एक किस्सा याद आ रहा है, जिसका जिक्र मशहूर पत्रकार 'हरीश चंदोला' (Harish Chandola) ने कहीं किया है। 1975 में अलग नागालैंड के लिए सशस्त्र संघर्ष छेड़ने वाले नागा नेतृत्व को दिल्ली बातचीत के लिए बुलाया गया। नागा नेतृत्व जहां ठहरा था, वहां का कमोड खराब हो गया। शिकायत करने पर संबंधित एक 'आई ए एस' अफसर की शर्मनाक टिप्पणी थी कि जंगलों में पेड़ों पर रहने वालों को अब कमोड चाहिए? 

नस्लवाद और उससे जुड़ी भयानक हिंसा के मूल में यह है कि हम कुछ लोगों को मनुष्य से कम मानते हैं। 'नीग्रो' का शाब्दिक अर्थ ही यह है कि जिसका मूल्य बहुत कम हो। इसलिए उन्हें मारने में कोई हर्ज नहीं। भारत में तो इस सोच पर धार्मिक मुहर भी लगी हुई है।

अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए जब दलितों की बस्ती से देशी घी की महक आने पर उस बस्ती पर हमला हो जाता था।

हॉवर्ड जिन तो यहां तक कहते हैं कि अमेरिका में गोरे लोग सिर्फ अपनी तलवार की धार को जांचने के लिए किसी भी काले/मूल निवासी पर तलवार चला देते थे।

इसी संदर्भ में राउल पेक ने एक परेशान कर देने वाला सवाल उठाया है। अपनी गहरी, मानो इतिहास से आ रही आवाज में राउल पेक कहते हैं कि जब योरोपियन स्टेज पर 'इनलाइटेनमेंट' और क्रांति का मंचन हो रहा था, तो पर्दे के पीछे गुलाम व्यापार का भयानक दौर चल रहा था। मूल निवासियों के देश को, उनकी संस्कृति को एक-एक कर गायब किया जा रहा था। 

योरोपियन मंच पर आज़ादी, समानता, भाईचारे के नारे लग रहे थे तो पर्दे के पीछे गुलामी, कत्लेआम, जनसंहार के नए नए चैप्टर इतिहास में जोड़े जा रहे थे।

आज हम प्रायः इतिहास में वही जानते हैं जो स्टेज पर घटित हुआ। पर्दे के पीछे की कहानी तो राहुल पेक और रणेन्द्र जैसे लोग ही सामने लेकर आते हैं।

जिन परियोजनाओं के नाम पर आदिवासियों के देश को हिंसक तरीके से गायब किया जा रहा है, उस पर रणेन्द्र की यह टिप्पणी देखिये-'अपार्टमेंट की उचाइयां और डिजाइन ऐसे, कि लगता बलात्कार करने को उद्धत।' यह पंक्ति पूंजीवादी समृद्धि और उसके क्रूर सौंदर्य को उसी तरह खारिज करती है, जैसे राउल पेक अपनी फिल्म में अमेरिकी लोकतंत्र को खारिज करते हैं जिसकी इमारत करीब 2 करोड़ मूल निवासियों और अफ्रीकी गुलामों की कब्र और उनके साथ किये गए अकथनीय बर्बरता पर खड़ी है।

रणेन्द्र भारत मे आदिवासियों के अपने गायब होने के विरुद्ध वर्तमान संघर्ष की रेखा को पीछे बढ़ाते हुए बताते हैं कि भारत के 'प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष'(1857) से करीब 100 साल पहले ही भारत के आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्व का बिगुल फूंक दिया था। लेकिन इतिहास के पन्नों में वो 100 साल कहाँ हैं?

ठीक उसी तरह राउल पेक सवाल उठाते हैं कि 'ऐज ऑफ रेवोलुशन' (Age of Revolution) में हैती की क्रांति (1790) शामिल क्यों नहीं की जाती। जबकि यह पहला सफल ब्लैक रेवोलुशन था, जिसने गुलामी पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी थी। जबकि इंग्लिश, फ्रेंच और अमरीकन क्रांति ने गुलामी की प्रथा को बरकरार रखा था। जार्ज वाशिंगटन,जेफ़रसन आदि के पास सैकड़ों की तादाद में गुलाम थे। यह तथ्य भी कितने लोग जानते हैं कि नेपोलियन वाटरलू के पहले हैती में हारा था।

राउल पेक सही कहते हैं कि हिटलर का 'फाइनल सल्यूशन' और अमेरिका का नागासाकी/हिरोशिमा कोई अपवाद नहीं था बल्कि  निरन्तरता की एक कड़ी भर था। 

यहां वह यह  महत्वपूर्ण सवाल भी उठाते हैं कि होलोकॉस्ट को जितने लोगों ने अंजाम दिया वे आधुनिक कही जाने वाली शिक्षा से लैस थे। फिर उनकी शिक्षा ने ऐसे महत्वपूर्ण समय पर उनके साथ विश्वासघात क्यों किया?

रणेन्द्र भी 'किशनपुर एक्सप्रेस', 'टोटल चेंज' और तमाम एनजीओ की भूमिका का पर्दाफाश करते हुए इस 'लोकतंत्र' के आदिवासी-विरोधी, जन-विरोधी होने की मानो घोषणा करते हैं।

रणेन्द्र उपन्यास के अंत में 50 वें अध्याय में लोकल को ग्लोबल से जोड़ते हैं और बताते हैं कि झारखंड के इस आदिवासी क्षेत्र में आज जो हो रहा है, उसके सूत्र 1492 में कोलम्बस से जुड़ते हैं। जहां उनके शब्दों में 'सोने की एक एक अशर्फी के लिए 10-10 लाशें गिरा करती थी।' देश समाज संस्कृति के गायब होने की परंपरा इसी समय पड़ी थी।

मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि रणेन्द्र ने अमेरिका की 'हार्प' (HARP) परियोजना का भी जिक्र किया है, जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। लेकिन जानकार लोग इसे दूसरे 'मैनहटन प्रोजेक्ट' (इसके तहत ही दुनिया की नज़र से बचाकर परमाणु बम बनाया गया था) की संज्ञा देते हैं। जहां इसके घोषित उद्देश्य के विपरीत मनचाहे तरीके से भूकंप लाने या बाढ़ लाने की तकनीक विकसित की जा रही है, ताकि भविष्य में किसी भी दुश्मन देश या समाज को चंद घंटों में गायब किया जा सके। 

रणेन्द्र 'हार्प' के पीछे की मानसिकता को उसी मानसिकता से जोड़ते है जो झारखंड के आदिवासियों को उनके जल-जंगल-जमीन यानी उनके देश से बेदखल कर रही है।

रणेन्द्र अपने उपन्यास का अंत इस गायब होने के खिलाफ एक मिथकीय काव्यात्मक उलगुलान (क्रांति) से करते है, जिसमें यह उम्मीद रची-बसी है कि यह काव्यात्मक सच वास्तविक सच में चरितार्थ होगा।

 वहीं राउल पेक अपनी फिल्म का अंत एक ज्ञानमीमांसीय (epistemological) चुनौती के साथ करते हैं। वह कहते हैं-'आपके पास जानकारी की कमी नहीं है, जिस चीज की कमी है, वह है कि हम जो जानते है उसे समझने और उससे निष्कर्ष निकालने के साहस की कमी।'

और कहना न होगा कि उपरोक्त दोनों कृतियों के रचनाकारों में इतिहास को समझने और उससे निष्कर्ष निकालने के साहस की बिल्कुल भी कमी नहीं है।


#मनीष आज़ाद

Wednesday, July 21, 2021

ग़ज़ल( महेंद्र मिहोनवीं)

 ग़ज़ल आप अहबाब की नज्र

  

                 


एसे तो सवालात का हल मिल नहीं सकता

पत्थर को बिना तोड़े ही जल मिल नहीं सकता


चलना   है   लगातार  तभी  राह   मिलेगी

जो आज रुके आप तो कल मिल नहीं सकता


जब तक ये मुफतखोर हैं इस बाग़ पे काबिज़

मेहनत का यहाँ कोई भी फल मिल नहीं सकता


कहने के लिये वक़्त पे हक़ सबका बराबर

मरज़ी का हमें एक भी पल मिल नहीं सकता


बन्दूक समस्याओं का हल है नहीं लेकिन

बिन उसके भी कमज़ोर को बल मिल नहीं सकता


क्यों  ढ़ूँढ़  रहे बर्फ  में पिघला हुआ लोहा

बिन आग के तो मोम तरल मिल नहीं सकता


मंज़िल  पे  पहुँचने  के  लिये  बायें  चलेंगे

रस्ता तो कोई इससे सरल मिल नहीं सकता


          

रिपब्लिक ऑफ सर्विलांस

 




  
ग्रीक मिथक में 'पेगासस' एक सफेद पंखों वाला घोड़ा है, जो कभी भी कहीं भी जा सकता है। इसी तरह 'पेगासस' सॉफ्टवेयर भी कभी भी किसी के भी फोन में प्रवेश कर सकता है। फोन में पेगासस के प्रवेश के बाद आपका फोन आपका नहीं रह जाता। वह पेगासस रूपी घोड़े पर सवारी करने वाले 'बेलेरोफन' (Bellerophon) का हो जाता है।

गार्सिया मार्खेज (García Márquez) ने कहीं कहा है कि  हर व्यक्ति के तीन जीवन होते है-  सार्वजनिक जीवन, निजी जीवन और गुप्त जीवन। अभी तक यह माना जाता था कि गुप्त जीवन के बारे में सिर्फ वह व्यक्ति जानता है, और कोई नहीं। लेकिन आज पेगासस जैसे सॉफ्टवेयर के दौर में यानी 'निगरानी पूंजीवाद' (Surveillance capitalism) के दौर में सार्वजनिक जीवन, निजी जीवन और गुप्त जीवन का फर्क खत्म हो चुका है। आपके गुप्त जीवन मे भी आपके ही फोन के माध्यम से सेंध लग चुकी है।

दरअसल पेगासस परिघटना को समझने के लिए हमें पेगासस से थोड़ा परे जाना पड़ेगा। 

2001 के बाद जिस 'डिजिटल क्रांति' का विस्फोट हुआ, वह मुख्यतः सूचना आधारित है। यानी जितनी ज्यादा सूचना उतनी ज्यादा ताकत। इसलिए कहा जाता है कि पिछली सदी में जो स्थान पेट्रोलियम तेल का था, वही स्थान आज डेटा का है। 

किसी व्यक्ति, समूह या समाज के बारे में जितना ज्यादा डेटा यानी सूचनाएं होंगी, उतना ज्यादा उस व्यक्ति, समूह या समाज के भावी व्यवहार का अनुमान लगाया जा सकता है, सटीक भविष्यवाणी की जा सकती है। (और यदि अनुमान लगाया जा सकता है तो उसे बदला यानी मैनिपुलेट भी किया जा सकता है।)

और फिर इस अनुमान या भविष्यवाणी को संबंधित व्यावसायिक कंपनी को महंगे दामों पर बेच दिया जाएगा। फिर यह कंपनी आपको लक्ष्य करके अपने सामान का प्रचार करते हुए अपने सामान आपको बेच देगी। 

इन अथाह सूचनाओं को खरीदने/हासिल करने की क्षमता कुछ ही कंपनियों की होगी, इसलिए जाहिर है हर क्षेत्र में एकाधिकार स्थापित होता जाएगा, जो आज हम हर क्षेत्र में देख रहे हैं।

यानी भविष्य में हमारा व्यवहार क्या होगा, यह हमें नहीं पता, लेकिन डेटा खनन (Data mining) करने वाली गूगल-फेसबुक जैसी विशाल कम्पनियां इसे जानती हैं। यानी हमारा भविष्य अब हमारे हाथ मे नहीं बल्कि इन डिजिटल कंपनियों की मुट्ठी में बंद है। 

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI), मशीन लर्निंग (Machine Learning) के लिए सारा डेटा हम उन्हें विभिन्न सोशल साइट्स और गूगल के माघ्यम से फ्री में उपलब्ध करा रहे हैं, और फिर यही टेक्नोलॉजी विभिन्न तरीको से हमारा सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक कत्लेआम कर रहीं हैं।

'सर्विलांस कैपिटलिज्म' जैसी बेहद महत्वपूर्ण किताब लिखने वाली 'शाशना जेबाफ' (Shoshana Zuboff) इसे धारदार तरीके से यों व्यक्त करती हैं- 'हम महज वस्तु हैं जिससे गूगल अनुमान फैक्ट्री (Google’s prediction factories) अपने लिए  कच्चा माल निकालती है। हम भविष्य में कैसा व्यवहार करेंगे, इसका पता लगाना ही गूगल उत्पाद है। लेकिन यह उत्पाद हमें नहीं बल्कि दूसरी व्यावसायिक कंपनियों को बेच दिया जाता है। हम दूसरों के लिए महज संसाधन का काम करते हैं।'

यही आज का बिजिनेस मॉडल है और यही 'सर्विलांस कैपिटलिज्म' है। 

दुनिया की तमाम सरकारों ने इसी बिज़नेस मॉडल से सीख लेते हुए अपने लिए 'सर्विलांस राजनीतिक मॉडल' विकसित किया है। यानी जिस पार्टी या नेता के पास उसके विरोधियों और जनता के व्यवहार के बारे में जितनी ज्यादा सूचनाएं होंगी अपनी सत्ता को वह उतना ही ज्यादा सुरक्षित रख पायेगा। भारत और अमेरिका के चुनावों में कैम्ब्रिज अनालिटिका (Cambridge Analytica) ने जिस तरह फेसबुक के डेटा का इस्तेमाल चुनाव को प्रभावित करने के लिए किया है, वह इसका ज्वलंत उदाहरण है। 

यानी बड़ी बिज़नेस कंपनियों और राजनीतिक सत्ताओं का गठजोड़ आज उस स्तर तक पहुँच चुका है कि पूरी दुनिया मे लोकतंत्र स्थाई रूप से 'हैक' हो चुका है। यानी आज हिटलर की तरह लोकतंत्र को खत्म करने की जरूरत नहींं है, बल्कि 'लोकतंत्र' के माध्यम से ही लोकतंत्र का गला घोंटा जा सकता है।

यानी पेगासस जैसे साफ्टवेयर इस 'सर्विलांस कैपिटलिज्म'  की 'नाज़ायज़' नहीं बल्कि जायज़ औलाद है। 

इसलिए 'सर्विलांस कैपिटलिज्म' के इस राजनीतिक-आर्थिक मॉडल के रहते पेगासस जैसी घटना से बचना असंभव है।


#मनीष आज़ाद

Friday, July 16, 2021

बीएचयू में प्रधानमंत्री की रैली को रद्द करवाने और विश्वविद्यालय खोलने को लेकर कुलपति को सौंपा ज्ञापन।


भगतसिंह छात्र मोर्चा ने बीएचयू में प्रधानमंत्री की रैली  को रद्द करवाने और विश्वविद्यालय खोलने को लेकर कुलपति को सौंपा ज्ञापन।




 दिनांक 14 जुलाई को भगत सिंह छात्र मोर्चा और अन्य छात्र-छात्राओं ने कल 15 जुलाई को  इस  कोरोना  महामारी के बीच प्रधानमंत्री की होने वाली रैली को रोकने और विश्वविद्यालय को पुनः खुलवाने की मांग की।

 विश्वविद्यालय पिछले डेढ़ साल से बंद है और सभी अकादमिक गतिविधियां बंद है । लेकिन बीएचयू और जिला  प्रशासन सभी कानूनों और नियमों को ताक पर रख कर विश्वविद्यालय के अंदर राजनीतिक रैली को करवाया जा रहा है । छात्रों ने कहा कि विश्वविद्यालय हम छात्रों का है , किसी पार्टी या कुलपति की जागीर नहीं है।

  कल यही प्रशासन ने कोरोना का हवाला देकर सभी शिक्षण संस्थान को बंद कर दिया था लेक़िन वहीं दूसरी तरफ विश्वविद्यालय प्रशासन किसी राजनेता या फिर किसी पार्टी की रैली करने के लिए क्यों अनुमति दे रहा है ?  6000 की संख्या में बाहरी व्यक्तियों को कैंपस में महामारी फैलाने के लिए क्यों बुलाया जा रहा है, जबकि कोरोना की तीसरी लहर आने वाली है  । यह रैली कोरोना के नियमों का खुला उल्लघंन करती हैं । विश्वविद्यालय प्रशासन इस तरह से छात्रों और  कर्मचारियों का और बनारस शहर का  जीवन संकट में क्यों डाल रहा है ।

  भगतसिंह छात्र मोर्चा के सदस्यों ने वाइस चांसलर से मिलकर कहा कि इस रैली को तुरंत रद्द करवाया जाय और विश्वविद्यालय के कक्षाओं और हास्टल को पूरी क्षमता के साथ खोला जाय। इस दौरान ज्ञापन देन वालो में  सुमित , अंबुज , राहुल , शुभम ,लोकेश,पवन,उमेश ,शशांक ,अविनाश , अमन, अविनव,अजीत , इप्शिता आदि उपस्थित रहे।

Wednesday, July 14, 2021

उनके बच्चे बच्चे और हमारे बच्चे जनसंख्या...

 


एक बार राकफेलर परिवार के ही किसी पूंजीपति से एक पत्रकार ने पूछा कि इस धरती के लिए कितनी जनसंख्या पर्याप्त होगी। राकफेलर का उत्तर था- 5 प्रतिशत। 

फिर ये 95 प्रतिशत लोग कौन हैं जो स्त्री-पुरूष प्यार की वजह से नहींं, बल्कि 'जनसंख्या विस्फोट' के कारण अस्तित्व में आ गए। इसी 95 प्रतिशत को नियंत्रित करने के लिए अमेरिका में पिछली सदी की शुरुआत में एक प्रतिक्रियावादी आंदोलन ने जन्म लिया। इसका नाम था यूजेनिक्स (Eugenics) आंदोलन। मजेदार बात यह है कि  चार्ल्स डार्विन के एक रिश्तेदार  फ्रांसिस गॉल्टन (Francis Galton) की प्रेरणा से यह शुरू हुआ। इसके अनुसार श्रेष्ठ नस्ल के लोगों को ही आपस में संतानोत्पत्ति का अधिकार है। जाहिर है यूरोपीयन गोरे लोग अपने आप को ही श्रेष्ठतम नस्ल मानते थे। उनके बीच यह माना जाने लगा कि अगर काले लोगों, एशियाई, अफ्रीकी, और लैटिन लोगों की जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं किया गया तो भविष्य में ये 'बर्बर-असभ्य लोग' गोरे लोगों की सभ्यता को वैसे ही नष्ट कर देंगे जैसे कभी बर्बर जर्मन कबीलों ने रोम साम्राज्य को नष्ट कर डाला था।

इसके साथ ही जुड़ी थी नस्ल की 'शुद्धता' का सिद्धांत। इस कारण अमेरिका के अधिकांश राज्यों ने गोरे और काले लोगों के बीच शादियों को अपराध घोषित कर रखा था। 

इस प्रतिक्रियावादी आंदोलन के परिणामस्वरूप काले, अफ्रीकन-अमेरिकन व लैटिन अमेरिकन लोगों विशेषकर उनकी महिलाओं का बड़े पैमाने पर जबरन नसबंदी कर दी गई। अमेरिका का 'मेडिकल साइंस' काली औरतों के प्रति इस जघन्य अपराध में लिप्त रहा है। 

हालांकि इसका चरम व वीभत्स रूप हमें हिटलर के 'फाइनल सल्यूशन' में दिखा। जिसमे 60 लाख से ज्यादा यहूदियों का कत्लेआम किया गया।

बहरहाल समाजवाद के असर, अमेरिका व दुनिया में सिविल राइट्स मूवमेंट के उभार के बाद यूजेनिक्स (Eugenics) बहुत बदनाम हो गया और इसे विज्ञान से बेदखल कर दिया गया।

 लेकिन कुछ ही समय बाद यह नाम बदलकर फिर से लौट आया। इस बार इसका नाम था- 'जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम'। तब से तीसरी दुनिया मे विश्व बैंक का यह एक स्थायी एजेंडा बन गया।

यूजेनिक्स (Eugenics) आंदोलन को फंड करने वाले अमेरिका के दो बड़े पूंजीवादी घराने 'राकफेलर फाउंडेशन' और 'फोर्ड फाउंडेशन' अब 'जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम' को फंड कर रहे हैं। 

अभी पिछले साल ही प्रसिद्ध डार्विनवादी रिचर्ड डॉकिन्स ने भी जनसंख्या नियंत्रण के लिए 'यूजेनिक्स' के व्यवहारिक महत्व पर जोर देकर अच्छा खासा बवाल पैदा कर दिया था।

उत्तर प्रदेश का 'जनसंख्या नियंत्रण बिल' और कुछ नहीं इसी यूजेनिक्स (Eugenics) का जूठन है। 'लव जेहाद' को इसके साथ मिलाकर देखेंगे तो यह जूठन और साफ दिखाई देगा। वहां की नस्लीय श्रेष्ठता यहां जातीय व धार्मिक श्रेष्ठता में बदल जाता है।

वहाँ के अफ्रीकी-अमेरिकी की तरह यहां निशाने पर गरीब, दलित, मुस्लिम हैं। 1975 की इमरजेंसी में इसी 'यूजेनिक्स' (Eugenics) के तहत जिन 80 लाख लोगों की जबरन नसबंदी कराई गई उसमे बहुतायत गरीब, मुस्लिम और दलित थे।

दरअसल जिस तरह एक  पुरुष स्त्री के शरीर पर अधिकार के किसी भी मौके को नहीं चूकना चाहता, ठीक उसी तरह सरकारें भी जनता पर नियंत्रण के किसी भी मौके को नहीं चूकती। चाहे वह 'कोरोना' हो या फिर 'जनसंख्या नियंत्रण'। 'जनसंख्या नियंत्रण कानून' दरअसल 'नागरिक नियंत्रण कानून' है।

यह अजीब बात है कि जिस 'माल्थस के सिद्धांत' का हवाला देकर 'जनसंख्या विस्फोट' का खौफ पैदा किया जाता है, वह पूरा सिद्धान्त ही गलत आंकड़ों पर आधारित था। 

दुनिया मे जो गरीबी बेरोजगारी भुखमरी है वो 'जनसंख्या विस्फोट' के कारण नहीं बल्कि 'आदमी द्वारा आदमी के शोषण' पर टिकी इस अमानवीय व्यवस्था के कारण है।

जिसने भी 'रॉबिन्सन क्रूसो' पढ़ी होगी वे इस बात को समझ सकते हैं कि बिना इस अमानवीय व्यवस्था को बदले यदि धरती पर दो लोग भी बचे तो एक मालिक होगा और दूसरा उसका गुलाम।

हमें यह बात समझनी होगी कि मानवता का सबसे बड़ा लक्ष्य स्त्री-पुरुष की पूर्ण समानता है और स्त्री-पुरुष समानता ही सबसे बड़ा गर्भ-निरोधक भी है।

#मनीष आज़ाद

Monday, July 12, 2021

जनसंख्या नियंत्रण कानून आरएसएस की सांप्रदायिक तानाशाही का एजेंडा है।




 उत्तर प्रदेश जनसंख्या नियंत्रण कानून 2021 का नाम सुनते ही हर बार दिमाग में इमर्जेंसी के समय इंदिरा गांधी की नसबंदी नीति दिमाग में कौंध जाती है।सवाल आता है कि ऐसा क्यों है कि तानाशाह सरकारें जनसंख्या को जबरन रोकने की नीति बनती हैं? 

उत्तर प्रदेश में लाया गया यह कानून आरएसएस की  सांप्रदायिक तानाशाही का एजेंडा है।

 2019 के स्वतंत्रता दिवस के भाषण में प्रधानमंत्री ने "बेतहाशा जनसंख्या विस्फोट" का हवाला देते हुए राज्यों से स्थिति पर नियंत्रण के लिए एक्शन लेने को कहा था। ( कांग्रेसी पी चिदंबरम ने भी अपनी इस पुरानी नीति का अनुसरण करते हुए प्रधानमंत्री की इस बात के समर्थन में लिखा) 

बीजेपी आईटी सेल ने ये अतार्किक मेसेज बांटना शुरू कर दिया कि मुसलमानों की इतनी आबादी तेजी से बढ़ रही है कि वे एक दिन हिन्दुओं से भी अधिक हो जाएंगे।

 इस तरह " जनसंख्या विस्फोट और मुसलमान विरोध" आपस में फिर से  जुड़ गए। अब जब ये नया जनसंख्या नियंत्रण कानून उत्तर प्रदेश में आया है तो हिन्दू आबादी खुश है कि ये कानून उनके लिए नहीं मुसलमानों के खिलाफ है।

सच्चाई ये है कि -

1-सरकारी नौकरियां है सरकार पैदा ही नहीं कर रही, तो लोगों को नौकरी के अयोग्य घोषित करने का एक बहाना ये भी बन गया।

2-दरअसल सरकार ने सरकारी नौकरियों की नसबंदी कर उस पर नियंत्रण लगा दिया है, जिस ओर से ध्यान हटाने के लिए "जनसंख्या विस्फोट"  (अघोषित तौर पर मुस्लिम जनसंख्या विस्फोट)का विचार हिन्दू अहम को सहलाने और मूल समस्या से ध्यान हटाने में कारगर होगा।

3-जैसा कि हिन्दू राष्ट्र में विश्वास रखने वालों को भ्रम है  इस कानून का प्रभाव केवल मुसलमानों पर न पड़ कर दलित आदिवासी पिछड़े और सभी गरीब तबकों पर होगा, जो किसी तरह से अब सरकारी नौकरी तक अपनी पहुंच बना रहे थे। 

4- मनुवाद हिन्दू संस्कृति के कारण सदियों से समाज के हाशिए पर धकेल दिए गए लोग एक झटके में सरकारी नौकरियों पदोन्नतियों के के बाहर कर दिए जाएंगे। क्योंकि अशिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच न होने के कारण उनके आमतौर पर दो से अधिक बच्चे हैं। (जिसमें परिवार नियोजन के उपाय भी शामिल हैं) इस तरह यह कानून भारत के संविधान द्वारा दिए गए आरक्षण के अधिकार के विरोध का कानून है। इस तरह यह संविधान विरोधी कानून है।

5- क्योंकि यह देश सामंती पितृसत्तात्मक है, इसलिए इस कानून का बहुत बुरा असर महिलाओं पर होगा। बेटे की चाहत और दो बच्चों के दबाव में उन्हें बार बार अबोर्शन के लिए मजबूर किया जाएगा, कन्या भ्रूण हत्या में बढ़ोत्तरी होगी, महिलाओं को बेटा पैदा करने के लिए प्रताड़ित किया जाएगा। यह महिला विरोधी कानून है।

इस तरह ऊपर से हिन्दू राष्ट्र का सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने वाला उत्तर प्रदेश जनसंख्या नियंत्रण कानून दरअसल दलित, आदिवासी, गरीब, महिला विरोधी और संविधान विरोधी है। ऐसा कानून तानाशाह फासीवादी सरकारें ही ला सकती हैं।

जनसंख्या नियंत्रण करने की सचमुच अगर सरकार की मंशा है तो उसे देश प्रदेश से गरीबी ख़तम करने के उपाय करने चाहिए, ताकि स्वास्थ्य सुविधा और परिवार नियोजन के साधन सब तक आसानी से पहुंच सकें, उसे देश प्रदेश में लोगों को शिक्षित करने के उपायों पर ध्यान देना चाहिए, ऐसी जनवादी शिक्षा जो पितृसत्तात्मक विचार को भी खत्म करें। उसे ऐसी अर्थव्यवस्था लाने पर काम करना चाहिए जो संपत्ति की पितृसत्तात्मक व्यवस्था को खत्म करे। ताकि सिर्फ बेटा पैदा करने की चाहत खत्म हो।

हम जानते हैं ये सरकारें ऐसा नहीं करने वाली, फिर जनसंख्या नियंत्रण का नाम लेकर वे किस मंशा को पूरा करती हैं, खुद समझ  लीजिए।

- Seema Azad

Sunday, July 11, 2021

क्लाड इथरली : एक लहूलुहान चेतना

 




परमाणु बम की प्रचंड 'आग' से अमेरिका में भी एक आदमी सालों झुलसता रहा। उसका नाम था- 'क्लाड इथरली' (Claude Eatherly)। क्लाड इथरली 1945 में उस 90 सदस्यीय टीम का सदस्य था, जिसने हिरोशिमा-नागासाकी पर परमाणु बम गिराया था। 6 अगस्त 1945 को क्लाड इथरली ने हिरोशिमा के ऊपर जहाज से मौसम का जायजा लिया और रिपोर्ट भेजी कि मौसम साफ है। बम गिराया जा सकता है। इस रिपोर्ट के मिलने के तुरंत बाद हिरोशिमा पर परमाणु बम गिरा दिया गया। बम गिराने वाले पायलटों ने जब पीछे मुड़कर नीचे की ओर देखा तो उन्हें लगा कि जैसे उन्होंने एक सूरज नीचे गिराया हो, आग का तूफान उठ रहा था। इन पायलटों ने अपनी सर्विस में कई बम गिराए थे, लेकिन यह उन सबसे अलग था। 

क्लाड इथरली सहित 90 सदस्यीय इस टीम को बाद में पता चला कि इस आग के तूफान में 70 हजार लोग तुरन्त भस्म हो गए, इनमें वे हजारों मासूम बच्चे भी थे, जिन्हें मांएं धूप से भी बचाने के लिए अपने सीने से लगाये रखती थी। ये बच्चे 1000 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा तापमान में मिनटों में मानो धुआं हो गए। पूरे 3 माह बाद उन्हें पता चला कि जिस बम को गिराने वाली टीम के वे सदस्य थे, वह कोई सामान्य बम नही, बल्कि दुनिया का पहला परमाणु बम था। 

प्रोमेथियस ने जब ईश्वर से आग चुराकर मनुष्य को सौंपी होगी तो उस वक़्त यह कल्पना भी नहीं की होगी कि मनुष्यों में से ही कुछ ताकतवर बर्बर लोग इस आग का दावानल बनाकर इसमें अपने ही जैसे दूसरे मनुष्यों को  भून देंगे।

बहरहाल इसके बाद उस टीम के 89 लोगों ने तो अपने आपको सुविधा जनक तर्क से यह समझा लिया कि हमें तो पता ही नहीं था कि यह परमाणु बम है, या कि हम नहीं होते तो कोई और होता।

 लेकिन क्लाड इथरली अपने को नहीं समझा पाए। और वह अपने आपको इस जघन्य अत्याचार का दोषी मानने लगे। उधर क्लाड इथरली को 'वार हीरो' का सम्मान मिल रहा था। यह सम्मान उन्हें और बेचैन करने लगा। यह उनपर एक असहनीय बोझ की तरह हो गया।  इस सम्मान के जाल से निकलने के लिए उन्होंने छोटे छोटे अपराध भी किये, छोटी छोटी चोरियां भी की क्योंकि वे अपने आपको दंड देना चाहते थे। लेकिन हर बार जब कोर्ट में उनकी मंशा उजागर हो जाती थी तो आमतौर से जज केस निरस्त कर देता। उन्होंने कई बार आत्महत्या करने की भी कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए। वे अपनी कमाई का अच्छा-खासा हिस्सा हिरोशिमा के पीड़ितों को भेजने लगे। लेकिन उनकी बेचैनी बढ़ती ही गयी और अंततः पागलपन की स्थिति में ही 1 जुलाई 1978 को उनकी मौत हो गयी। अपने इसी अंतर्द्वंद्व पर उन्होंने एक किताब 'Burning Conscience' भी लिखी।

प्रोमेथियस को आग चुराने की सजा उसे 'अंतहीन यातना' के रूप में मिली। लेकिन आग को दावानल बनाकर लाखों लोगों को मारने वाले बर्बर अमरीकी साम्राज्यवादियों को हम आज तक सजा नहीं दे पाए। पागल तो क्लाड इथरली हुआ। लेकिन बर्बर साम्राज्यवादी आज भी नए-नए हिरोशिमा-नागासाकी बनाने की योजना पर बदस्तूर काम कर रहे हैं।

मुक्तिबोध ने क्लाड इथरली पर  इसी नाम से ही एक शानदार कहानी लिखी है। इसमे वे लिखते है-'जो आदमी अंतरात्मा की आवाज को कभी-कभी सुन लिया करता है, और उसे बयान करके उससे छुट्टी पा लेता है, वह लेखक हो जाता है। जो अन्तरात्मा की आवाज को बहुत ज़्यादा सुनने लगता है और वैसा करने भी लगता है वह समाज विरोधी तत्वों में शामिल हो जाता है। और जो आत्मा की आवाज सुनकर बेचैन हो जाता है और उसी बेचैनी में भीतर के हुक्म का पालन करने लगता है, वह पागल हो जाता है।उसे पागलखाने भेज दिया जाता है।'

अंत मे कहानी का मानो सार प्रस्तुत करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं-'हमारे मन-मस्तिष्क-हृदय में ऐसा ही एक पागलखाना है, जहाँ हम उन उच्च पवित्र और विद्रोही विचारों और भावों को फेंक देते हैं जिससे कि धीरे-धीरे या तो वह खुद बदलकर समझौतावादी पोशाक पहनकर सभ्य भद्र हो जाये यानी दुरुस्त हो जाएं या फिर उसी पागलखाने में पड़े रहें।

हम सबके भीतर एक 'क्लाड इथरली' है। हम उसे बाहर लाते हैं या उसे तहखाने के पागलखाने में सड़ने के लिए छोड़ देते है, यह निर्णय हमारा होता है।


#मनीष आज़ाद

Monday, July 5, 2021

फादर स्टेन सामी: एक कम्युनिस्ट संत

 




जब मैं किसी गरीब को खाना देता हूँ तो वे मुझे संत कहते हैं। लेकिन जब मैं पूछता हूँ कि वे गरीब क्यो हैं तो वे मुझे कम्युनिस्ट कहते हैं --येलदी कमेरा (ब्राजील के एक कैथलिक पादरी)

पिछले साल अक्टूबर में भीमाकोरेगांव केस में झारखंड से गिरफ्तार किए गए 83 वर्षीय स्टेन सामी अपने छात्र जीवन के दौरान  इन्हीं येलदी कमेरा के संपर्क में आये और उनकी  'लिबरेशन थीयोलोजी' (liberation theology) से बहुत प्रभावित हुए। इसके अलावा 70 के दशक में फिलीपीन्स में अपनी धार्मिक पढ़ाई के दौरान वे वहाँ के तानाशाह मार्कोस के खिलाफ सड़कों पर चल रहे छात्रों के संघर्षों से भी काफी प्रभावित थे। 

स्टेन सामी भी येलदी कमेरा की तरह ही भारत में पादरी का दायित्व निभाते हुए  हमेशा गरीबों विशेषकर आदिवासियों के पक्ष में निर्भीकता से खड़े रहे। संविधान की 5 वीं अनुसूची को आदिवासी इलाकों में लागू कराने को लेकर उन्होंने पूरा अभियान चलाया। इधर के दिनों में वे जेलों में बंद हजारों निर्दोष आदिवासियों के लिए चलाये जा रहे मुहिम का हिस्सा थे और मध्य भारत में विशेषकर झारखंड में जल जंगल जमीन के लिए चल रहे आदिवासियों के आंदोलन के मुखर समर्थक थे। 

ठीक यही काम अपने समय में ब्राजील में येलदी कमेरा भी कर रहे थे, लेकिन उनके समय के क्रूर सैन्य शासक ने भी उन्हें गिरफ्तार नही किया। लेकिन पादरी स्टेन सामी को दुनिया के सबसे बड़े 'लोकतंत्र' की सरकार ने गिरफ्तार कर लिया और उस व्यक्ति पर आतंकवादी होने का आरोप लगा दिया जो बिना मदद के एक गिलास पानी भी नही पी सकता (उन्हें पार्किंसन बीमारी है, जिसमे अपने हाथों पर ही अपना नियंत्रण नहीं रहता)। उन्हें गिरफ्तार करके सरकार ने सबसे ज्यादा उम्र के व्यक्ति को आतंकवादी धारा में (UAPA) गिरफ्तार करने का अपना ही पिछला रिकॉर्ड तोड़ डाला। इससे पहले का रिकॉर्ड 81 साल के वरवर राव  का था। उन्हें  भी  ' डिमेंशिया ' की बीमारी है। शायद उन्हें जेल में इसी लिए रखा जा रहा है कि उन्हें अपना 'अपराध' याद आ जाय।

इस 'लोकतांत्रिक' सरकार की क्रूरता देखिये की जेल में स्टेन सामी को पूरे एक माह तक पानी पीने के लिए सिपर और स्ट्रा (पार्किंसन बीमारी के कारण उन्हें इसी के सहारे पानी पीना पड़ता है) से वंचित रखा गया।

बहरहाल इतिहास में एक लंबी परम्परा रही है जहाँ कम्युनिस्टों-मार्क्सवादियों  के नेतृत्व में चल रहे प्रतिरोध आन्दोलनों को अनेक पादरियों ने अपना सक्रिय समर्थन दिया है। लैटिन अमेरिका के आंदोलनों विशेषकर निकारागुआ के सैंडनिस्ता आंदोलन में या फासीवाद विरोधी आन्दोलनों में पादरियों और ननों की विशेषकर निचले स्तर के पादरियों व ननों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।  

स्टेन सामी को देखकर मुझे रोसेलिनी की मशहूर फिल्म 'रोम द ओपन सिटी' के उस पादरी की याद आती है, जो उस समय फासीवाद के खिलाफ चल रहे प्रतिरोध आंदोलन का हिस्सा था। जब उस पादरी को प्रतिरोध आंदोलन के एक अन्य महत्वपूर्ण साथी के साथ टार्चर चैंबर में लाया जाता है तो पादरी को अपनी तरफ मिलाने के लिए गेस्टापो पुलिस उसे भड़काती है कि प्रतिरोध आंदोलन का उसका साथी तो मार्क्सवादी है यानी नास्तिक है, फिर उसका साथ क्यों दे रहे हो। यहाँ पादरी का जवाब बहुत महत्वपूर्ण है। वह कहता है कि जो भी ईश्वर की संतान यानी जनता के हक के लिए लड़ता है, भगवान उसे पसंद करता है चाहे वह नास्तिक ही क्यों न हो। 

मजेदार बात है कि जेल में स्टेन सामी की देखभाल व सेवा दो नास्तिक अरुण फरेरा और वरनम गोंजाल्विस ही कर रहे है, जो खुद महत्वपूर्ण मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और भीमाकोरेगांव केस के बन्दी है। 

जनता के प्रतिरोध आन्दोलनों की यही तो खूबसूरती है।

जेल से अपने दोस्तों को लिखे एक भावपूर्ण पत्र में स्टेन सामी लिखते है- 'कृपया अपनी प्रार्थना में यहाँ के मेरे दोस्त-बंदियों को भी जरूर याद करें। सभी मुश्किलों के बावजूद यहाँ तलोजा जेल में मानवता फल फूल रही है।'

#मनीष आज़ाद


Sunday, July 4, 2021

'मादथी' : एक 'अदृश्य जाति' की लहूलुहान कहानी

 



'अछूत' जाति से भी नीचे एक ऐसी जाति है, जिसका दिखना मना है (unseeables)।

 इन्हें अपना सारा काम रात के अंधेरे में निपटाना होता है ताकि दिन में ये किसी अपने से ऊंची जाति के लोगों के सामने न पड़ जाय और फलतः उनके क्रोध और धार्मिक दंड का शिकार न हो जाय। पिछले साल आयी तमिल फिल्म 'मादथी' (Maadathy: An Unfairy Tale ) तमिलनाडु की ऐसी ही एक जाति 'पुथिरै  वन्नार' (Puthirai Vannars) में पैदा हुई 14-15 साल की लड़की 'योसाना' की एक त्रासद लोककथा के माध्यम से भारतीय सामाज के सीवर के ढक्कन को उठाती है और जाति की सडांध के साथ साथ सतह के नीचे बह रहे जहर को भी बखूबी सामने लाती है। 

इस फ़िल्म की डायरेक्टर लीना मनीमेकलाई (Leena Manimekalai) युवा कवि और एक्टिविस्ट भी हैं। और इसका प्रभाव उनकी इस फ़िल्म में बखूबी दिखता है, जहाँ फ़िल्म सामान्य 'नरेशन' की बजाय फ्रेम दर फ्रेम अलग अलग रंग की कविता में आगे बढ़ती है, जो कभी तो आंखों को सुकून देती है लेकिन प्रायः आंखों के रास्ते हमारे अंदर उतर कर विस्फोट भी करती है और हमारी धर्म, नैतिकता, सभ्यता की चिन्दी चिन्दी उड़ा देती है।

योसाना, उसके माँ-पिता और दादी को गाँव से दूर जंगल के करीब एक छोटी नदी के किनारे बसाया गया है। यहाँ रहकर वे अपने से ऊंची जाति के लोगों के कपड़े धोते है, जिसमे महिलाओं के माहवारी के कपड़े भी होते हैं। इन कपड़ों को नदी किनारे पत्थर पर धोते समय एक तरफ पानी रक्तिम हो रहा होता है दूसरी तरफ योसाना की मां का गुस्सा यह बताता है कि इस अन्याय को हम कब तक ढोएंग। फ़िल्म की डायरेक्टर लीना मनीमेकलाई के शब्दों में, जो इस ब्रह्मांड की अशुद्धियों की धुलाई कर रहा है, उसे ही समाज अशुद्ध मान रहा है। 

इस दृश्य से तुरन्त पहले ही ऊंची जाति के एक व्यक्ति ने योसाना की माँ से इसी नदी के किनारे बलात्कार किया था। लेकिन यह इतनी 'नार्मल' घटना है कि कुछ भी नही रुकता। न नदी रुकती है न हवा रुकती है। यहां तक कि उसका कपड़ा धुलना भी नहीं रुकता। वह इतना ही कर सकती है कि अपना गुस्सा इन कपड़ों पर निकाले और इन्हें पत्थर पर पटकते पटकते फाड़ दे। फ़िल्म में यह फ्रेम बहुत ही पावरफुल है।

हमने अब तक यही सुना है कि राज्य की हिंसा की मूकदर्शक बनने के कारण हमें नदी से शिकायत हैं (पाल रॉबसन)। लेकिन यहां ये छोटी छोटी नदियां हजारों सालों से दलित महिलाओं के प्रति हो रहे अत्याचारों की साक्षी हैं, लेकिन आज तक इनका पानी लाल नही हुआ। आज तक ये सूखी नहीं।

बहरहाल योसाना की माँ को अब योसाना की चिंता है। उसे इन गिद्ध निगाहों से कैसे बचाये। 'पुथिरै  वन्नार' जाति में जन्म के समय लड़की को मारने की प्रथा है। लेकिन यह प्रथा उच्च जाति के लोगों की तरह पुत्र की चाहत के कारण नही है, बल्कि लड़कियों को ऊंची जाति के लोगों के सेक्सुअल अत्याचारों से बचाने के लिए है। यही बात याद दिलाकर वह योसाना को कोसती है और उससे 'जिम्मेदार' बनने की अपील करती है। लेकिन योसाना अभी अपनी जाति परम्परा में ढली नही है। और न ही ढलना चाहती है। वह तो प्रकृति का हिस्सा है। जंगल पहाड़ नदी पशु-पक्षी उसके दोस्त हैं। अभी उसने 'सभ्यता के राजमहल' में प्रवेश नही किया है। अभी वह खुद की तलाश में है। इसी तलाश की प्रक्रिया में नदी में नंगे नहाते एक लड़के को देखकर  पहली बार उसे अपनी यौनिकता का अहसास होता है। तमिल फिल्म में शायद पहली बार पुरुष नग्नता को दर्शाया गया है। लेकिन यहीं पर सेक्स के प्रति परंपरागत पुरुष नजरिये (male gaze) और स्त्रीवादी नज़रिये (female gaze) का फर्क साफ नजर आता है। यहाँ लीना मनीमेकलाई के कैमरे का फोकस पुरुष नग्नता की डिटेलिंग पर नही, बल्कि योसाना की आंखों से होते हुए उसके अंदर की उस आदिम जिज्ञासा पर है, जिस पर अभी सभ्यता और बाजार की चाशनी नहीं चढ़ी हैं। बहरहाल अपने से ऊंची जाति के गाँव के इस युवक को योसाना मन ही मन चाहने लगती है और उसकी एक झलक के लिए बेताब रहती है। 

लेकिन फ़िल्म इस तरह टर्न लेती है कि जिस रात गांव में देवी मादथी की स्थापना हो रही है उसी रात योसाना अपनी हद लांघ कर उसी लड़के की एक झलक पाने चुपके से गाँव के अंदर दाखिल हो जाती है। और इस प्रक्रिया में गांव के पाँच लड़कों द्वारा गैंग रेप का शिकार हो जाती है। पाँचवा लड़का वही है, जिसे वह मन ही मन चाहने लगी थी। यहां पर अंधेरे में स्क्रीन पर योसाना की महज एक आंख उभरती है और इस पाँचवे युवक को देखकर उसकी इस आंख में जो दर्द और बेबसी उमड़ती है, मानो वह सब कुछ अपनी एक आंख रूपी 'ब्लैक होल' में खींच लेती है। फिर कुछ नही बचता- न धर्म, न नैतिकता न सभ्यता न मानवता और न ही यह फ़िल्म।

लेकिन अभी एक चमत्कार बाकी था। बलात्कार के कारण योसाना की मृत्यु के बाद बहुत तेज़ बारिश हुई। सब कुछ तबाह हो गया। उस सैलाब में सब कुछ बह गया। गाँव के सभी लोग अंधे हो गए और अचानक ही देवी मादथी का चेहरा योसाना के चेहरे में बदल गया। फ़िल्म की टैगलाइन आंखों में चुभने लगी- 'भारत मे हर देवी के पीछे औरतों के प्रति अन्याय-अत्याचार-क्रूरता की अनंत कथाएं हैं।'


#मनीष आज़ाद