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Saturday, March 24, 2018

बीएचयू में भगत सिंह की शहादत दिवस पर संगोष्ठी।

आज 23 मार्च भगत सिंह,सुखदेव,राजगुरु एवं पाश के शहादत दिवस पर एक संगोष्ठी का आयोजन"भगत सिंह छात्र मोर्चा" के बैनर तले राधाकृष्णन सभागार, बी.एच.यू के कला संकाय में हुआ।इस कार्यक्रम की शुरुआत क्रांतिकारी गीत-सूली चढ़ कर वीर भगत ने दुनिया को ललकारा है से हुआ।









वक्ता के रूप में प्रो. डी.के.ओझा ने भगत सिंह को इतिहास में खोजा और पाया की भगत सिंह एक मानवतावादी,आधुनिकतावादी,और एक क्रांतिकारी थे। आज के हालात पे चर्चा किया ।साथ की साथ प्रो.प्रमोद बागडे ने बताया की भारत का फासीवाद यूरोपीय फासीवाद से अलग है। यहाँ का फासीवाद धर्मिक रूप में है जो ब्राह्मणवादी फासीवाद के रूप अपने आप को व्यक्त करता है। उन्होंने भारत में भगत सिंह को बाकी रुढ़िवादी कम्युनिस्टों से अलग बताया और कहाँ की भगत सिंह 23 साल के जरुर थे पर उनके पास दुनिया को बेहतर बनाने का एक बेहतर दर्शन था। शोध छात्र- गौरव पाण्डेय ने विस्तार में भूमंडलीकरण को समझया की किस तरह वो हम बाज़ार में धकेल रहा है।साथ ही साथ इनका भी जोर फासीवाद पे रहा और इन्होने सांस्कृतिक फासीवाद को समझाया। अंत में रितेश विद्यार्थी ने बी.एच.यू को अपने अनुभव को साझा करते हुए बताया किस तरह पिछले 8 सालो में दुनिया और देश की राजनीति बदली जिसका परिणाम हुआ की भगत सिंह छात्र मोर्चा जैसे पुरे भारत में बने है।साथ ही उन्होंने देश और समाज को बदले के तरीके के रूप में भगत सिंह के बताये रास्ते को ही अपनाने को कहा। छात्रों- नौजवानों को गाँव-किसान-मजदूरों से जुड़ना चाहिए।अंकित साहिर,अंकित भास्कर,अभय,विनय,वरुण आदि ने भी संक्षिप्त में अपनी बात रखी। अंत में युद्देश बेमिशाल,आरती,आकांक्षा,शाश्वत,शुभम,जागृती,
मृतुन्जय ने मिलकर क्रांतिकारी गीत गए और संगोष्ठी को समाप्त किया। संचालन मुकुल और अनुपम ने किया।
भगत सिंह छात्र मोर्चा।
7317557056
इन्कलाब जिंदाबाद!

Tuesday, March 6, 2018

आदर्श ही मूर्तियां होती हैं जो कभी नहीं टूटती -अंजनी कुमार



    हां, मैं लेनिन की मूर्ती के टूटने से आहत हूं, गहरे तक वेदना है, ... बेचैनी भी। "मूर्तियां सिर्फ प्रतीक भर रह जाये तो उसे टूट जाना चाहिए", ...लेकिन मैं तब भी उसे नहीं तोड़ सकता। वह हमारे इतिहास का हिस्सा होती हैं; अपने समय का प्रतिनिधित्व करती हुई। जब आदर्श, इच्छाएं, ... मूर्तियों में अभिव्यक्त होती हैं तब उसका टूटना अपने समय का टूटना होता है, उसका विखंडन होता है। मूर्ती निर्माण एक क्रांतिकारी कदम हो सकता है। और, मूर्तिभंजन भी एक क्रांतिकारी कदम हो सकता है। सवाल यह है कि कौन है जो उसे तोड़ रहा है? और, किन इच्छाओं और आदर्शों के लिए तोड़ रहा है? इस मूर्तिभंजन को सीपीएम(एम) की बंगाल सरकार और उसके बाद त्रिपुरा और केरल सरकार की कारगुजारियों के परिणाम तक सीमित कर देना एक खतरनाक भूल होगी।



मुझे याद है यह 1995 की बात है। इलाहाबाद के एक चौराहे पर अंबेडकर की मूर्ति का सिर तोड़ दिया गया था। कौन लोग थे जिन्हांने यह काम किया था? हमारे लिए रहस्य से अधिक वह सोच परेशान कर रही थी जो अंबेडकर की मूर्ति के रूप में उपस्थिति को बर्दाश्त कर सकने की स्थिति में नहीं थे। तोड़ने वालों का उस समय पता नहीं चल पाया लेकिन उनकी मंशा बहुत साफ थी। वे ब्राम्हणवादी जाति व्यवस्था के धुर समर्थक थे और इस हद तक कि एक मूर्ति भी उन्हें बर्दाश्त नहीं था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कानून विभाग में मनु की मूर्ति जो निश्चय ही एक काल्पनिक चेहरा है, को स्थापित किया गया। वह आज भी वहां है। यह कल्पना वर्तमान समाज की एक घृणित सच्चाई को कानून के रूप में, रूल ऑफ लॉ के तौर पर स्थापित किया गया। आज भी अंबेडकर की मूर्तियों के टूटने का सिलसिला जारी है और साथ ही अंबेडकर द्वारा किया गया मनुस्मृति दहन सिलसिला भी जारी है। यह दो तरह के आदर्शां की टकराहट है। इसमें पक्षधरता ही निर्णायक पक्ष है। बीच का कोई रास्ता नहीं है।

लेनिन की मूर्तियां पहले भी टूटी हैं। जैसा कि हमारे बहुत सारे चिंतक लिख रहे हैं कि मूर्तियां टूटने के लिए ही बनती हैं। यह भी एक मिथक है। जीवन की उपस्थिति इतिहास के रूप में अपना चिन्ह छोड़ते हुए गुजरती है। चाहे वह फॉसिल के रूप में हो, भग्न मूर्तियों के रूप में या पूरी की पूरी इमारत के रूप में। वह जो इतिहास बनाते हैं अपनी गतिमान परम्परा को छोड़ते हुए जाते हैं। अशोक ईसा के पूर्व हुए। उनके बनाये हुए स्तम्भ राज्य की वैधता की निशानी बन चुके थे। मध्यकाल के शासक इस स्तम्भ से अपने राज्य की वैधता को घोषित करते हुए दिखाई देते हैं। सिक्कों के प्रचलन से लेकर सिंचाई की व्यवस्था और सड़कों तक निर्माण आगामी शासकों के लिए एक वैध मूर्तियां ही थीं जिनके बिना उनका शासन अस्वीकृति की स्थिति में होता था। 
आधुनिक समाज का अर्थ उसके आदर्श और उसकी मूर्तियों में है। आधुनिक समाज के चिंतकों को आप कैसे नकार सकते हैं! मार्क्स और एंगेल्स के बिना आधुनिक दर्शन की कल्पना क्या संभव है? लेनिन के बिना समाजवाद की कल्पना संभव है? या यह मान लिया जाय कि पूंजीवाद और फिर पूंजीवाद की साम्राज्यवादी, फासीवादी व्यवस्था ही अंतिम व्यवस्था थी, और यही अंतिम आदर्श था; और उसके बाद की सारी व्यवस्थाएं उत्तर आधुनिक हैं जो निश्चय ही अमेरीकाधीन हैं। और, यदि हम इसे नहीं मानते तब उन आदर्शों को सामने लाना क्यों जरूरी नहीं हैं, मूर्तियां, उनकी जीवनियां, उन पर लेख, उनके प्रयोग, उनके सिद्धांत, ... को प्रचारित करना क्यों जरूरी नहीं है! मेरा मानना है कि यह सारा कुछ करना जरूरी है। खासकर, 1990 के बाद मार्क्सवादी साहित्य को नक्सल साहित्य के रूप में देखना और उसी के तौर पर उसकी पुलिस द्वारा जब्ती करना, उसे अपराध की श्रेणी में डालने की परिघटना से आंख मूंद लेने से हम अपने आदर्शां पर हो रहे हमले का सामना नहीं कर सकते। यह बोलना जरूरी है कि लेनिन हमारे आदर्श थे। वह मजदूरों, किसानों और मध्यवर्ग को एक बराबरी का समाज के लिए न सिर्फ सिद्धांत पेश किये बल्कि उसके लिए एक रणनीति और कार्यनीति का निर्माण किया। उन्होंने साम्राज्यावादियों के युद्ध से रूस को निकालकर उसे एक जनवादी-समाजवादी समाज की आदर्श की ओर ले गये। यही वह जमीन थी जिस पर अपने देश में उपनिवेशवाद के खिलाफ, सामंतशाही के खिलाफ संघर्ष खड़ा हुआ। उस समय कौन लोग थे जिन्हें लेनिन पागल लगते थे? कौन लोग थे जिन्हें लोकशांति में एक खतरा दिखते थे?
मैं मानता हूं कि सीपीआई(एम) ने अपनी राज्य सरकारों को उन्हीं नीतियों की ओर ले गई जो साम्राज्यवाद की सेवा करती हैं और सामंतशाही को मजबूत करती हैं। और, सिर्फ सीपीएम ही नहीं बल्कि दर्जनों भर ऐसी पार्टियां हैं जो रणनीति और कार्यनीति के नाम पर लेनिन के आदर्शों को धूल में मिला दिया। ऑफिसों और चौराहों पर सिर्फ मूर्तियां ही रह गईं। आज यही स्थिति अंबेडकरवादियों की हो चुकी है। सचमुच संसद के गलियारे में मार्क्स और लेनिन की मूर्ती एक दुकानदार के बिकने वाले मॉल से अधिक नहीं रह गई है। यह शर्मनाक है। यह इसलिए शर्मनाक है कि हम इन्हें आदर्श मानते हैं। वे सिर्फ मूर्तियां नहीं हैं, किताब पर बिकने वाली वे सिर्फ किताबें नहीं हैं, ...वे हमारे जीवन, हमारी उम्मीद, ...के वे हर्फ हैं जिसे इस समाज में उतारे बिना हम एक तबाह होती दुनियां को देखते हुए खत्म होंगे। लेकिन हम खत्म नहीं होंगे।
त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति को तोड़ना मेरे लिए वैसे ही जैसे सीरिया पर हमला कर एक पूरी सभ्यता को नष्ट करना, इराक पर बम गिराकर एक पूरी सभ्यमा की निशानियां को खत्म करना, अफगानिस्तान पर हमला कर एक पूरी जीवन व्यवस्था को खत्म करना, ...और यह निश्चय ही मूर्तिभंजन नहीं है, हमारे दोस्त निश्चय ही इसे इस रूप में नहीं देख रहे होंगे। यह सबकुछ साम्राज्यवादी महात्वाकांक्षाओं और उसके आदर्शों, उसकी राजव्यवस्था का परिणाम है और जिसे हम पिछले तीस सालों में छलांग मारते हुए, बढ़ते हुए, जमीन पर उतरते हुए, पनपते-बढ़ते हुए देख रहे हैं। कार्यनीति और रणनीति के नाम पर उसके साथ ‘विकास’ की ओर बढ़ रहे हैं और सीमित होते जनवाद में कांग्रेस की फासीवादी जनवाद को भी स्वीकार करने तक गये हैं क्योंकि ‘विकल्प’ नहीं है। हम यानी मध्यवर्ग लेनिनवादी उसूलों और आदर्शां को छोड़ते हुए इस दूर तक जा पहुंचे हैं कि मजदूर और किसानों की जिंदगी की तबाही एक नियति मान बैठे हैं। वैसे ही जैसे ‘मूर्तियां टूटने के लिए ही बनती हैं’। नहीं, एक बार फिर, नहीं। ऐसा नहीं है। तोड़ने वालों की आकांक्षाएं और आदर्श बेहद साफ है। उनके उद्देश्य और विकल्प एकदम साफ हैं। जरूरत है लेनिन की मूर्ती को फिर से स्थापित करने की, उनके आदर्शों, उनके सिद्धांतों को समाज में लागू करने की, मार्क्सवादी-लेनिनवादी होने की, एक क्रांतिकारी पार्टी के साथ खड़ा होकर समाजवाद के निर्माण के लिए जुट जाने की। हमने यह बात अपनी पक्षधरता के साथ लिखा है और हम आपसे भी यही उम्मीद करेंगे।

Friday, March 2, 2018

नक्सलबाड़ी विद्रोह अपने अंदर झांकने का अवसर है : वीरा साथीदार




भूमिका
 साथियों, आज 1967 में हुए नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के 50 वर्ष पूरे हो चुके हैं | इस अवसर पर हम यह भाषण प्रकाशित कर रहे हैं | जिसे  एक सामाजिक कार्यकर्ता ने इस आंदोलन के बारे में अपने निजी अनुभव का वर्णन किया है | यह घटना बंगाल के एक गांव नक्सलबाड़ी की है | जहां पर जमींदारों द्वारा भूमिहीन किसानों का भयानक शोषण व उन पर अत्याचार किया जाता था | इस पर भी कम्युनिस्ट  पार्टी ने कुछ नहीं किया और चुनाव में लगी रही तभी स्थानीय  कमेटी के नेतृत्व में जनता ने पार्टी को त्याग दिया और क्रूर जमींदारों को मारकर “जमीन जोतने वाले की” नारे के साथ जमीन पर कब्जा कर लिया | बाद में पुलिस जमींदारों के पक्ष में आकर 11 बच्चे बूढ़े और महिलाओं की गोली मारकर हत्या कर दी | चूंकि  देश भर में लगभग इसी तरह की स्थिति थी और अन्य तरह के भी शोषण उत्पीड़न मौजूद थे | इसके उपरांत यह चिंगारी देशभर में आग की तरह फैली और जनता के लिए यह एक आदर्श भी था | नक्सलबाड़ी विद्रोह का ऐतिहासिक रूप से राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय महत्व है |  जब 1956 में समाजवादी सोवियत रूस की कम्युनिस्ट पार्टी ने समाजवाद का रास्ता त्याग दिया या कहें कि उसमें गद्दार संशोधनवादी लोगों ने घुसपैठ कर मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांतों को नकारने लगे | पूंजीवाद की पुनर्स्थापना करने लगे तब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने माओ के नेतृत्व में इस संबंध में महान बहस चलाया इसका असर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर भी पड़ा |  दुनिया भर की ज्यादातर कम्युनिस्ट पार्टियां और उसकी संशोधनवादी रस्ते के ही प्रभाव में रहे | 1966 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने महान सर्वहारा  सांस्कृतिक क्रांति को आरंभ किया |  इन दोनों अंतरराष्ट्रीय घटनाओं की ही कड़ी है नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह |  इसने पहली बार संशोधनवाद और मुक्ति मार्ग  के बीच स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी | भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन की दो कमियां चिन्हित करते हुए कहा कि अर्थवादी मांगों की जगह राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करना प्रमुख है और चुनाव के रास्ते कोई परिवर्तन संभव नहीं है |  भारतीय समाज का विश्लेषण एक अर्धऔपनिवेशिक-अर्धसामंती समाज के रूप में किया गया | जनता के सामने मुख्य दुश्मन के रूप में क्रमशः सामंतवाद, साम्राज्यवाद, दलाल नौकरशाह पूंजीपति वर्ग व संशोधनवाद को माना गया | जनता के सामने इलाकावार सत्ता दखल के माध्यम से  नवजनवादी सशस्त्र कृषि क्रांति का कार्यभार रखा गया | इस विद्रोह का बहुत ही व्यापक प्रभाव राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय फलक पर पड़ा | देश की राजनीति में पहली बार कांग्रेस का केंद्र टूटना तथा ढेर सारे क्षेत्रीय दलों का उभार हो या भूमि सुधार का सवाल प्रमुख सवाल बनना हो या तथाकथित हरित क्रांति हो इस सब के पीछे नक्सलबाड़ी आंदोलन का ही प्रभाव रहा है |  नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव से ही पहली बार देश में रेडिकल दलित आंदोलन दलित पैंथर (1972) में शुरू हुआ | इसी समय दलित साहित्य का भी उदय होता है |  पहली बार कोलकाता, दिल्ली के मेडिकल-इंजीनियरिंग  व अन्य कालेज दो-दो वर्ष तक बंद रहे | छात्रों-नौजवानों की एक पूरी पीढ़ी इस आंदोलन में कूद पड़ी | जो न सिर्फ शिक्षा रोजगार की समस्या में सुधार व बदलाव बल्कि पूरी राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव की ताकत रखती थी | इस आंदोलन की गर्मी ने विभिन्न राज्यों भाषाओं में ढेर सारे साहित्यकार पैदा किए | जिनके बिना साहित्य अधूरा है | जिनमें मुख्य रूप से पास, मुक्तिबोध, गोरख पांडेय, धूमिल, नागार्जुन,चेराबंडा राजू, वरवरा राव आदि हैं | आज यह नक्सलबाड़ी गांव का विद्रोह आंदोलन के रूप में विभिन्न राज्यों में ज्यादा संगठित और विस्तारित हुआ है | अपनी समीक्षा कर स्थायित्व प्राप्त कर चुका है | 1967 का यह मार्क्सवाद-लेनिनवाद माओ त्से तुंग विचारधारा का विद्रोह 1980 तक आते-आते वैश्विक स्तर पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद के रूप में मुक्ति का एक मुकम्मल राजनीतिक दर्शन बन चुका है | लगातार क्रूर विश्वपूंजीवादी अर्थव्यवस्था संकट में डूबती जा रही है | उबर नहीं पा रही है | जहां दुनिया के 1% लोगों के पास 50% से ज्यादा की संपत्ति संपदा केंद्रित हो चुकी है | 1% लोगों की दौलत लोगों की दौलत 99% लोगों की दौलत से ज्यादा है | वहीं भारत में 1% अमीरों के पास 73  प्रतिशत दौलत है | केवल 57 लोगों के पास 70% की संपत्ति संकेंद्रित हो चुकी है | दुनिया भर के राजनीती  में ट्रंप, शिंजो अबे, नेतन्याहू, मोदी के रूप में फासीवाद का उभार हो रहा है | देश में मजदूरों, किसानों, छात्र, नौजवानों, आदिवासियों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, राष्ट्रीयताओं, दलितों, व्यापारियों, नागरिकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों व अन्य तबकों का शोषण उत्पीड़न और उन पर हमले बढ़ रहे हैं | ऐसी विशिष्ट ब्राह्मणवादी हिंदू फासीवाद की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में क्रूर विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के खात्मे का क्या रास्ता होगा एक बार फिर हमें विद्रोह की एक छोटी सी चिंगारी को देखना चाहिए | जो जंगल में आग की तरह फैल गया था | जहां नारा था नक्सलबाड़ी एक ही रास्ता, अमार बाड़ी तोमार बाड़ी, नक्सलबाड़ी |


नक्सलबाड़ी के 50 वर्ष पर वीरा साथीदार का भाषण :                             लिप्यांतरण : आरती

      इंसान का इंसान के द्वारा शोषण खत्म करने के लिए जिन ज्ञात और अज्ञात शहीदों ने अपनी कुर्बानियां दी उन सब शहीदों को मैं नमन करता हूं | डायस  पर बैठे हमारे वरिष्ठ मार्गदर्शक और अध्यक्षता कर रही वरलक्ष्मी जी और आप सभी साथी, सबसे पहले मैं विरसम को बधाई देना चाहूंगा कि उन्होंने नक्सलबाड़ी के 50 वर्ष के उपलक्ष्य में एक अच्छे सेमिनार का आयोजन किया | मुझे और आप लोगों को अपने अंदर झांकने का एक मौका दिया है | हम अपनी समीक्षा कर सकते हैं |
   दोस्तों, यह वर्ष केवल नक्सलबाड़ी के 50 वर्ष पूरे होने का वर्ष नहीं है | इसके अलावा अक्टूबर क्रांति के सौ वर्ष पूरे होने का भी वर्ष है | इसके अलावा हमारे महाराष्ट्र के इतिहास में, दलितों के इतिहास में, दलितों के मिलिटेंट इतिहास में, एक लड़ाई है भीमा कोरेगांव की लड़ाई |  उस भीमा कोरेगांव की लड़ाई को भी 200 वर्ष  पूरे हो रहे हैं | यह लड़ाई हमें एक दूसरे को बधाई देने का तो मौका देती है | लेकिन अपनी कमजोरियों पर सोच विचार करने का भी एक जरूरत हमें बताती है | आज हम लोग केवल अपने आंदोलन की अच्छाई पर नजर नहीं डालते हुए 50 साल पहले जो लड़ाइयां लड़ी गई, सौ साल पहले जो लड़ाइयां लड़ी गई, 200 साल पहले जो लड़ाइयां लड़ी गई, उसकी क्या कमजोरियां रही हैं | उस पर बात करेंगे |  दुश्मन अभी खत्म नहीं हुआ है |  दुश्मन का रूप बदल गया है |  आज के सेमिनार के उपलक्ष्य में हमें अपनी लड़ाई के क्या रूप बदलने होंगे? क्या नीतियां बदलने होंगे? क्या दांवपेच बदलने होंगे? इसे सोचने समझने का एक मौका है |  मैं समझता हूं आप लोग भी इसे इसी रूप में ले रहे होंगे |  
   मैं महाराष्ट्र से आया हूं | एक संगठन का कार्यकर्ता  हूं |  जिसका नाम है रिपब्लिकन पैंथर्स |  मेरे साथी सुधीर धवले कल वक्ता थे |  मुझे उम्मीद थी कि उनसे मुलाकात होगी लेकिन तबीयत ठीक नहीं होने की वजह से नहीं आ पाए | काफी कमिटेड साथी हैं |  वह 4 साल जेल में  भी रह चुके हैं | उनके अनुपस्थिति में संगठन व  उसके मैगजीन “विद्रोही” को मुझे ही संभालना पड़ा था | दोस्तों,कई बार लोग मेरा परिचय कराते समय मेरे फिल्म का जिक्र करते हैं | मेरा जिक्र एक एक्टर के रूप में करते हैं |  मेरी फिल्म काफी चर्चित रही तो उसका ज़िक्र बार-बार आता है | लेकिन मैं आप लोगों को बता दूं कि जिस आंदोलन ने मुझे पैदा किया, वह आंदोलन अगर आज नहीं होता तो मैं एक्टर भी नहीं बनता | आज मैं आपके सामने जो कुछ हूं यह उस आंदोलन की देन है |  जिसके बदौलत मैं यहां खड़ा हूं | मैं महाराष्ट्र में 1960 में पैदा हुआ | 1978 में जब जवानी में कदम रख रहा था, मैं अपने उम्र के 18 साल पूरे कर चुका था | उस समय क्योकि  बाबा साहब को तो मैंने देखा नहीं |  बाबा साहेब के आंदोलन को केवल मैंने महसूस किया है | मेरे मां-बाप की पीढ़ी ने उसे देखा है |  लेकिन मैंने जिनको देखा व महसूस किया है |  वह दो आंदोलन है एक तो है दलित पैंथर आंदोलन दूसरा है नक्सलवादी आंदोलन | मैं आज जो कुछ भी हूं वह  इन दो आंदोलनों का प्रोडक्ट हूं |  मैं जो कुछ भी आप सबके सामने रखूंगा मैंने जो कुछ देखा है, जो कुछ महसूस किया है, उसी को मैं आपके साथ साझा करना चाहूंगा |  बाकी जो बातें हैं मेरे बुजुर्ग मार्गदर्शक यहां बैठे हुए हैं | थ्योरिटिकल  बातें तो हमने 2 दिन की है |  लेकिन दिल के अंदर हम लोगों ने क्या महसूस किया है, मैं उसे रखना चाहूंगा | 
  1975-78 तक मैंने अपने गांव में गाय चराने का काम किया | मेरे बाप की बहुत ख्वाहिश थी कि मैं बाबासाहेब बनू | उस समय के हर माता-पिता की यही ख्वाहिश होती थी | हर कोई अंबेडकर नहीं बन सकता | तो मैं गाय चराने का काम करता था | मेरे बाप को बड़ा बुरा लगता था कि बाबासाहेब बनने की सोचता था और बच्चा गाय चराता है | और मुझे वह काम करना बहुत प्यारा लगता था | कोई टेंशन नहीं है | ना  आंबेडकर समझ में आए, ना फूले समझ में आए, ना भगत सिंह समझ में आए |  मार्क्स-लेनिन-माओ तो बहुत दूर की बात थी | सुबह दिन निकले तो गाय चराने जंगल में जाना है, शाम को गाय लेकर आना है |  अपने दोस्तों के साथ रात को गप्पे करना है | खाना खाकर सो जाना है | कोई टेंशन नहीं, लेकिन बात-बात की डांट डपट करने से, रोज-रोज की  गाली से मैं नागपुर भाग गया | जब फैक्ट्री में मैंने मजदूरी किया और मजदूरी करते करते मुझे फिल्में देखने का चस्का लग गया | तब  मजदूरी करता था और भूखा रहकर फिल्में देखता था | लेकिन ज्यादा दिन तक आदमी भूखा नहीं रह सकता | फिर सोचा कि  क्यों न यह खर्चीला शौक बंद कर दिया जाए और कुछ किताबें पढ़ लिया जाए | जब मैंने दिल बहलाने व  टाइम पास करने के लिए एक बार 50 पैसे की किताब खरीदी | वह थी मैक्सिम गोर्की की मां |  मुझे ताज्जुब हुआ कि इतनी साल पुरानी रूस  के कांटेस्ट में लिखी हुई किताब जिसमे पावेल जो जिंदगी जी रहा है, सासा जो जिंदगी जी रही है, निलोवना जो जिंदगी जी रही है, इससे अलग मेरी कोई अपनी जिंदगी नहीं है |  मैं भारत में 1978 में हूं, उसके बावजूद उस किताब में जो चीजें लिखी गई हैं | उस हिसाब से हमारी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आया है |  मुझे लगा मैं पावेल हूं | उस  पावेल की जो जिम्मेदारी थी वह मुझे निभानी है |  और उसके बाद मेरे सोच ने एक मोड़ लिआ | मुझे ऐसी किताबें पढ़ने का चस्का लग गया |  ऐसी किताबें जब मैं पढ़ता था तभी मुझे नींद आती थी |  अगर मैं रात को भी शिफ्ट करके आऊँ  दो पेज पढ़े बगैर मुझे नींद नहीं आती थी | अगर मुझे बहुत ही जल्दी सोना हो तो इकोनॉमिक्स की किताबें पढ़ लेता था |  मैं पढ़ा लिखा आदमी नहीं हूं | मैं कभी कॉलेज नहीं गया लेकिन मुझे पता है कि ज्ञान केवल कॉलेज से ही नहीं आता | माओ कहते हैं कि फिलोसोफी जनता के पास है | और यह फिलोसोफी कोई बड़ी चीज नहीं होती है | वह जनता के पास है ऑलरेडी | मैं तो किसान परिवार से पैदा हुआ और मजदूर बनकर जी रहा था |  तो मुझे पता था की फिलॉसफी क्या है हमारे जिंदगी में |  
    जब एक आंदोलन के दौरान कई सारे संगठनों के नेताओं से मेरा परिचय हुआ |  लोगों को लगा कि यार बच्चे में कुछ बात है | थोड़ा मिट्टी को आकार देना चाहिए तो रोज कोई न कोई मेरे घर आते थे |  चार संगठन उस समय नागपुर में काम करते थे | दलित पैंथर 1972 में बना 1976 में खत्म हो गया था |  मैं तो 1978 में नागपुर में आया था और 80 तक आते-आते मेरी समझ बढ़ गई | उस समय नागपुर में नक्सलवादी आंदोलन से जुड़े हुए 4 संगठन काम करते थे सीपीआई एम-एल लिबरेशन, सीपीआई एम-एल पिंपल्स वॉर, सीपीआई एम-एल जिसके नेता उस समय में चंद्र पुला रेड्डी  हुआ करते थे |  एक और ग्रुप काम करता था सीपीआई एम-एल सीआरसी | चारों संगठनों के साथ मेरी दोस्ती व बातचीत रही | चारों संगठनों के साथ मेरी एक समझदारी बनी | मैं एक संगठन का मेंबर बना सीपीआई एम-एल लिबरेशन |  अंडरग्राउंड पार्टी थी, पार्टी के नेता आते थे 4 से 8 दिन का हमारा क्लास लेते थे |  इकोनॉमिक्स व  फिलोसोफी पढ़ाते थे |  लेकिन समझदारी थोड़ी विकसित हुई और मार्क्सवाद क्या है पता चला, तो हमें यह भी पता चला कि मार्क्सवाद ने मुझे यह भी सिखाया कि अंधभक्त नहीं बनना है | दिमाग रख कर कार्य करना है |  और जब मैंने महसूस किया कि जिस पार्टी के लिए मैं काम कर रहा हूं, उस पार्टी ने अपना रास्ता त्याग दिया है तो मैंने भी उस पार्टी को 1985 में त्याग दिया | जब पार्टी ने ओपन होकर एक चुनावी संसदीय पार्टी का रूप धारण कर लिया | मुझे विश्वास था कि कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो का जो पहला ही सेंटेंस है कि “दुया निका जो लिखित इतिहास है यह वर्ग संघर्ष का इतिहास है” और उसका आखरी सेंटेंस है कि “मजदूरों को खोने के लिए अपने बेड़ियों के सिवा कुछ भी नहीं है और पाने के लिए पूरी दुनिया है” इन दो सेंटेंस के बीच में जो कुछ भी है |  उस मार्क्सवाद को मैं समझ चुका था |  मुझे लग रहा था कि सही संगठन को खोजना है | फैक्ट्री बंद हो गई, मैंने फिर दूसरी फैक्ट्री में मजदूरी की |  पत्रकारिता भी की, लेकिन मेरे जेहन में जो इमानदारी की एक जड़ पैदा हो चुकी थी मैंने वह ईमानदारी नहीं छोड़ी | 
   2004 में जब मुंबई में मुंबई प्रतिरोध हुआ |  उसके आयोजकों में से मैं भी एक रहा | फिर मैंने करीब से देखा संगठन छोड़ने के 30 साल बाद 2004 में मुझे लगा कि लोग वही हैं, लोगों में ईमानदारी है, लोगों में लड़ने का जज्बा है, लोगों में सही सोच है |  जितनी भी प्रतिकूल स्थिति आए हमें अपने रास्ते से नहीं हटना चाहिए | जो प्रेरणास्थान मैंने अपनी जवानी के दिनों में देखे थे | कामरेड जोहर, चेराबंडा राजू को तो हम जानते ही थे, श्री श्री को हम लोग जानते ही थे, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को हम लोग जानते ही थे जिनकी कविताओं ने हममे एक ऊर्जा भरने का काम किया था |  आज भी जब  निराशा घेरने लगती है तो मैं मुक्तिबोध को पढ़ता हूं | मैं पास को पढ़ता हूं, मैं चेराबंडा राजू को पढ़ता हूं और मैं अपनी निराशा को झटक देता हूं | मुझे लगता है कि निराश होना हमारा काम नहीं है | हमारा काम है लड़ना | अगर हम लोग निराश होंगे तो मेरे पीछे जो पीढ़ी है | उसके सामने मैं क्या आदर्श रखूंगा |  आज हम लोगों को यह दिन मनाने की प्रेरणा कहां से आती है | एक ही समय में दलित पैंथर का भी मेंबर था और उसी समय में सीपीआईएम-एल लिबरेशन का भी मेंबर था । दोनों संगठनों की मेंबरशिप मैंने ली थी । लेकिन धीरे-धीरे मैंने यह महसूस किया कि दलित पैंथर के नेता से लेकर कार्यकर्ता तक में एक डीजनरेशन की प्रोसेस चल रही है । दूसरी तरफ क्रांतिकारी आंदोलन पर दमन भी किया जा रहा था । इसके बाद भी क्रांतिकारी आंदोलन फैलता जा रहा है । मेरे सामने यह सवाल है कि जिस आंदोलन (दलितपैंथर) पर दमन नहीं किया सरकार ने वह इतना पतित क्यों हो गया? और जिस आंदोलन कादमन किया वह आज भी चल रहा है । डिजनरेसन के बावजूद खुद सत्ता यह कहती है कि यह हमारे लिए एकआंतरिक खतरा है । वह अलग शब्द इस्तेमाल करते हैं। वह कहते हैं कि यह आंदोलन देश के लिए आंतरिक खतरा है । उनके लिए देश का मतलब है अंबानी, अडानी, मोहन भागवत। लेकिन हमारे लिए तो देश का मतलब होता है देश की जनता ।  इस वर्ग को,जैसा कि कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में कहा गया  है कि "एक भूत यूरोप को सता रहा है" आज भी माओवाद का भूत सता रहा है । हर कहीं इन्हें माओवाद नजर आता है । इन्हें मेधा पाटेकर भी माओवादी नजर आती है, हिमांशु कुमार भी माओवादी नजर आते हैं । हर कोई उन्हें खतरा नजर आता है अगर वह जनता की लड़ाई लड़े । गांधीवादी हो, समाजवादी हो, मार्क्सवादी हो, चाहे वह माओवादी हो । 
     आज के समय में हमें सिर्फ यही सोचना है, इतिहास में देखना है कि जितने भी आंदोलन हमारे देश में हुए, दुनिया में हुए हर एक आंदोलन ने हीरो और विलेन पैदा किए । ऐसा कोई आंदोलन नहीं हुआ जहां केवल हीरो पैदा हुए । भगत सिंह का आंदोलन,विरसा मुंडा का आंदोलन,दलित पैंथर आंदोलन हो, चाहे बाबासाहेब का आंदोलन हो । बाबासाहेब जीवित थे तभी विलेन पैदा हो चुके थे । बहुत परेशान किया बाबासाहेब को इनलोगों ने । और जो विश्वासघात और भीतरघात किया है, उसका भी अपना एक इतिहास है क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में । लेकिन नक्सलवादी आंदोलन एक ऐसा आंदोलन है इसमें हीरो ज्यादा पैदा हुए विलेन बहुत कम पैदा हुए । नहीं हुए ऐसी बात नहीं है । लोग बहुत पतित हुए लेकिन जनता ने उन्हें त्याग दिया है । मुझे यह लगता है कि यह आंदोलन इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि इसकी ताकत है कि इस आंदोलन में सबसे ज्यादा कुर्बानियां लोगों ने दी है । और यह कुर्बानियां हम लोगों को प्रेरणा दे रही हैं । हमें भी कुर्बानियां नहीं तो कम से कम अपने मार्ग पर अडिग रहने का हौसला देती है ।
    मैं पिछले साल अक्टूबर में इसी हाल में था और एक दुखद घटना मुझे यहीं मालूम पड़ी । आंध्रा-उड़ीसा बॉर्डर पर जिनकी हत्या की गई थी । उसमें मेरा एक बहुत करीब का दोस्त प्रभाकर भी शहीद हुआ था । वह और मैं एक मंच पर गाते थे । हम लोग एक डायस पर कार्यक्रम भी किए थे । बहुत प्यारा दोस्त रहा है मेरा । मेरी भी आंखें भर आई क्योंकि वह एक इंसान नहीं था । वह केवल एक इंसान नहीं था, वह केवल एक मेरा दोस्त नहीं था, वह हम हजारों लोगों का नेता था । वह हमारा कार्यकर्ता व शहीद था । वह और प्रभाकर जैसे पता नहीं कितने शहीद इस आंदोलन में हुए । मुझे याद है, जब मैं पढ़ता हूं जिनके नाम यह बिल्डिंग है पी0 सुन्दरैय्या उनकी एक किताब है तेलंगाना पीजेंट्स स्ट्रगल। मैं समझता हूं कि नक्सलवादी आंदोलन और कोई नहीं है उस समय का जो तेलंगाना का आंदोलन था उसकी एक नईआवृत्ति है । उसका एक नया एडिशन है । मैं समझता हूं लड़ाई वही है, नक्सलवादी आंदोलन ने और कुछ नहीं किया है । तेलंगाना आंदोलन ने जहां पर हथियार डाल दिया था नक्सलवादी आंदोलन ने वहीं से हथियार उठा कर आगे बढ़ाया है । जिन लोगों ने उस रास्ते को त्याग दिया था चाहे वह तेभागा आंदोलन हो, चाहे तेलंगाना का आंदोलन हो, चाहे पुनप्पा वायलर का आंदोलन हो उन्हें इस आंदोलन पर गर्व करना चाहिए लेकिन दुख है कि उसे वह गर्व नहीं है । लोगों को और हमें भी उन पर गर्व नहीं है । मेरा संगठन अंबेडकराइट संगठन है । तीनआइकॉन हम लोग हमेशा छापते हैं फुले, आंबेडकर, भगत सिंह । हमारा अंबेडकर जो है एक रेडिकल अंबेडकर है, ट्रेडिशनल अंबेडकर नहीं है । वह पूजा करने के लिए बना हुआ अंबेडकर नहीं है । वह लड़ाई के रास्ते बताने वाला अंबेडकर है। और उसी अंबेडकर ने हमें सिखाया है कि लक्ष्य क्या है और हमारे साधन क्या है । अंबेडकर  कई जगहों पर जिक्र करते हैं,अपने कार्यकर्ताओं पर दुख भरी भावना से बोलते हैं कि मेरे लोगों ने लक्ष्यों को त्याग दिया है और साधनों पर बहस करने लगे हैं । साधन बदले जा सकते हैं लक्ष्य नहीं बदले जा सकते हैं । और इस समाज में समानता का स्थापना करना, शोषण का खात्मा करना, इंसान का शोषण चाहे वह जाति के आधार पर, वर्ग के आधार पर हो, धर्म के आधार पर हो, चाहे वह लिंग के आधार पर हो,चाहे भाषा के आधार पर हो,चाहे प्रांत के आधार पर हो, चाहे किसी देश या राष्ट्र के आधार पर हो उसका खात्मा करना है । यह हमारा लक्ष्य है और उसके लिए हम किसी भी साधन का इस्तेमाल कर सकते हैं । लेकिन मैं देखता हूं कि ब्राम्हणवादी-पूंजीवादी राज्य ने जो इमेज बनाई है बाबा साहेब की । उसी बाबा साहेब की पूजा करने में लोग अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते है । हमें यह सोचना चाहिए कि राज्यसत्ता का नजरिया और परिवर्तनकामी शक्तियों का नजरिया कभी एक नहीं हो सकता ।राज्यसत्ता का हित और परिवर्तनकामी शक्तियों का हित कभी एक नहीं हो सकता। राज्यसत्ता के संसाधन, साधन, संस्थाएं और परिवर्तनकामी शक्तियों के संस्थाएं और साधन कभी एक नहीं हो सकते।उनमें दोनों में एक मजबूत अंतर्विरोध रहेगा, रहना चाहिए ।अगर नहीं है तो समझ लीजिए संघर्ष भी नहीं है । मैं बाबासाहेब को समझता हूं और बाबासाहेब के इसी नजरिए से में नक्सलवादी आंदोलन को देखता हूं । मुझे लगता है कि नक्सलवादी आंदोलन आज मेरा आंदोलन है । दलित पैंथर आंदोलन मेरा आंदोलन था । ब्लैक पैंथर आंदोलन आंदोलन मेरा था, तेलंगाना-तेभागा आंदोलन मेरा आंदोलन था । बाबासाहब एक जगह यह भी कहते हैं कि जब व्यक्ति और देश के हितों में टकराव होगा तो मैं देश के हितों को प्राथमिकता दूंगा । लेकिन जिस समाज में पैदा हुआ हूं उस समाज के हित और देश के हित में टकराव होगा तो मैं उस समाज के हित को प्राथमिकता दूंगा । हमें बाबासाहेब यह जो नजरिया देते हैं । मैं उसी नजरिए से राज्यसत्ता के चरित्र को देखता हूं और जो क्रांतिकारी आंदोलन हुए है उनको मैं देखता हूं ।
       जो स्थितियां दलित पैंथर के साथ में बनी थी उससे भी भयानक स्थिति आज हमारे देश में मौजूद हैं। जिन स्थितियों में नक्सलवादी आंदोलन का आगाज हुआ था उससे भी भयानक की स्थितियां हमारे सामने है । बाबासाहेब के मरने के बाद उनका एक ख्वाब था कि सत्ताधारी पार्टी को एक खुला विरोध करने के लिए सब मिलकर रिपब्लिकन पार्टी जैसे एक बड़ी पार्टी बने। उनके गुजरने के बाद 1957 में जो पार्टी बनी 58 में टूट गई। उसके बाद कुछ जगहों पर उसने लड़ाइयां लड़ी । 1959 में आरपीआई ने महाराष्ट्र में कम्युनिस्टों के साथ मिलकर एक लड़ाई लड़ी थी जमीन की लड़ाई । उस समय में RPI के 17000 कार्यकर्ता जेल गए थे।1964 में उसी आरपीआई ने जमीन की लड़ाई फिर से लड़ी थी । जो देश स्तर पर लड़ी गई थी उसमें 340000 लोग जेल गए थे। यह इतिहास अगर हम लोग थोड़ा सा छोड़ दें तो उसके बाद आरपीआई के इतिहास में हमें कुछ नहीं मिलता है । लेकिन कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में हमें हर कदम कदम पर कई सफलताएं मिलती हैं और उन सफलताओं के साथ कुछ विफलताएं भी मिलती हैं । उन विफलताओं के पीछे मैं उस समय के पार्टी का चरित्र भी हमें दिखाई देता है । 
    कल मैं नहीं था सीमा आजाद को नहीं सुन सका लेकिन बैठे-बैठे मैं उनका पेपर पढ़ रहा था । यूपी में उस समय क्या चल रहा था । सीपीआई के समय में क्या चल रहा था, सीपीएम के समय में क्या चल रहा था । उसके बाद में लखीमपुर खीरी में और बाकी जगह पर क्या चल रहा था, मैं उसे पढ़ रहा था । हमारे महाराष्ट्र में भी तेलंगाना का एक अच्छा आंदोलन रहा है । नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत यहीं से हुई है। उस समय के जो नेता थे औरउन्होंने जो लाइन पकड़ी थी उस लाइन का ही नतीजा था कि आंदोलन महाराष्ट्र में गया। और आज भी महाराष्ट्र में एक बड़ा तबका इस आंदोलन की छत्रछाया में जी रहा है । एक ऐसा प्रदेश जहां पर महाराष्ट्र का सबसे घना जंगल अगर कहीं पर है तो वह पूर्व महाराष्ट्र में है चंद्रपुर, गडचिरोली, गोंदिया, भंडारा जिले में है । यहीं पर इस देश के संसाधन अभी तक छिपे हुए हैं । महाराष्ट्र सरकार ने केंद्र सरकार के साथ मिलकर साम्राज्यवादी दलालों के साथ मिलकर संसाधनों कीजो लूट पूरे देश में मचा रखी है। अभी उसकी नजर महाराष्ट्र के जंगल में जो संसाधन छिपे हुए हैं, जो सुरक्षित हैं, जहां आदिवासी लोग बसते हैं उस पर है। वहां से खनिज संपदा को खोदने का काम खास करके अडानी के लिए, अंबानी के लिए, वेदांता के लिए, एक प्लान किया गया है ।74000 एकड़ लैंड फॉरेस्ट और 21 खदान कंपनियां प्रस्तावित है । एक पहाड़ है हमारे यहां सुरजागढ़ में उस पहाड़ पर लोग आज भी लड़ रहे हैं कि हम वह पहाड़ नहीं देंगे। वह पहाड़ हमारे बड़ा ठाकुर का पहाड़ है। आप कल्पना कर सकते हैं कि 78000 एकड़ जमीन अगर फॉरेस्ट कि खत्म हो जाए। फॉरेस्ट अगर खत्म हो जाए तो केवल वहां के आदिवासी पर असर नहीं होगा। पूरे देश के पर्यावरण पर असर होगा। शहर में रहने  वाले लोगों के भी परिवार पर असर होगा । और जब आदिवासी लोग वहां लड़ते हैं। तो हमें नहीं पता होता कि वहां लड़ रहे हैं क्योंकि मीडिया जानबूझकर इस तरह की बातें हमारे सामने परोसता है कि जिसका कोई बुनियादी ही नहीं होता। 
      मैं आपको बता दूं मेरे घर में टीवी नहीं है। मैंने अपनी पत्नी को समझाया कि भाई तुम 300रुपये महीना देती हो सेट अप बॉक्स के लिए और यह झूठ-मूठ की खबरें देखने के लिए । बंद कर दो यार नहीं देखेंगे टीवी किताब पढ़ लेंगे। मेरी पत्नी बहुत समझदार है वैसे महिलाएं जो आंदोलन में होती हैं काफी समझदार होती हैं। मुझे भी बहुत अच्छी अच्छी सलाह देती है। वह आंदोलन मेंआदमी को पहचानकर बता देती है कि यह जासूस आदमी है । आप देखिए जितने भी युवा पकड़े गए हैं महाराष्ट्र में वह सब ज्यादातर दलित है क्योंकि दलितों की अपनी समस्याएं हैं।जैसा कि मैंने पहले कहा जिस स्थितियों में दलित पैंथर बनी थी उससे भयानक स्थितियां हैं। दलित पैंथर क्यों बनी थी? बाबासाहेब के आंदोलन से जो शिक्षित वर्ग आरपीआई के रूप में एक राजनीतिक प्लेटफॉर्म बन के सामने आया था ।जिसकी लड़ाई लड़ने की जिम्मेवारी थी  ब्राह्मणवादी-पूंजीपतिवर्ग की पार्टी कांग्रेस कोमटियामेट करदेना, खत्म कर देना । उस समय जनसंघ इतना ताकतवर नहीं था। लेकिन यह जो युवा पढ़ लिख गया था यह बेरोजगार था । पढ़ने-लिखने के बावजूद वह युवा देख रहा है कि गांव में दलितों पर क्रूर रूप से अत्याचारों की संख्या बढ़ रही है । आंखें निकाल ली जाती हैं । दलितों की महिलाओं के बलात्कार किए जाते हैं और उसका विरोध करने वालों की आंखें फोड़ दी जाती हैं । जिनकी जिम्मेदारी है उनके खिलाफ लड़ने की वह राजनीतिक पार्टी आरपीआई जिस कांग्रेस के खिलाफ लड़ने के लिए बनाई गई थी उस कांग्रेस के साथ हाथ मिला रही है । ऐसी परिस्थितियों में जो गुस्सा दलित युवाओं में था उस गुस्से ने दलित पैंथर का रूप धारण कर लिया । जिन नामदेव ढ़साल,जबीं पवार, राजा ढाले को क्रेडिट देते हुए मीडिया और बाकी इंटेलेक्चुअल लोग उन्हें भी यह नहीं पता था कि दलित पैंथर का एक चिंगारी इतने बड़े जंगल की आग की तरह फैल जाएगा । उन्हें यह समझ भी नहीं आ रहा था कि यह आग की तरह फैला कैसे? लोगों का खून जो उबल रहा था उस ऊबलते हुए खून ने अंगार को जल्दी पकड़ लिया । लेकिन यह समझदारी उस समय राजा ढाले में,जबीं पवार में नहीं थी। उसी तरहआप देखिएगा तेलंगाना का जो आंदोलन रहा,तेभागा का जो आंदोलन रहा या लखीमपुर खीरी का जो आंदोलन रहा उस आंदोलन को समझने की औकात उस समय के लीडरशिप में नहीं थी । इसलिए लीडरशिप को दरकिनार करते हुए जनता आगे बढ़ी और अपना रास्ता चुना । 
      जैसा कि माओ कहते हैं कि जनता से सीखो जनता को सिखाओ तो जनता सिखाती है नेताओं को । जनता के पास वह जज्बा है, जनता के पास वह अनुभव है और जनता के पास एक नजरिया होता है क्योंकि जनता ही लड़ती है कोई आंदोलनपार्टी केवल उसको हिरावल के रूप में काम करती है। पार्टी उसको नेतृत्व देती है लेकिन लड़ने का काम जनता करती है । जनता इतिहास में हमेशा पार्टी को रास्ता दिखाती है पार्टी जनता को रास्ता दिखाती है। पार्टी जनता से सीखती है जनता पार्टी से सीखती है।इन दोनों में जोद्वंद्वात्मकसंबंध है यह एक आंदोलन का रुप ले लेती है। मैं यह समझता हूं कि महाराष्ट्र में एकसाथसमय है दलित पैंथर का और नक्सलवादी आंदोलन का।जो साहित्य बंगाल से आया 1970 के दशक में। उसके बाद जो आंध्र से महाराष्ट्र में पहुंचा ।उसका जो असर, ज्यादा अगर किसी पर हुआ तो वह हुआ है साहित्यपर। जो दलित साहित्य आया है दलित पैंथर के आंदोलन से ।क्योंकि उस समय तो कोई नेता होता नहीं था यही युवा लोग थे जो कविता भी लिखते थे।वालराइटिंग भी करते थे, पोस्टर भी लगाते थे, शाम को भाषण भी देते थे। जुलूस का नेतृत्व करते थे पुलिस की लाठियां भी खाते थे। कोई लीडरशिप स्थायी लीडरशिप नहीं थी। हर कोई लीडर था। मेरे गांव में जब मैं बच्चा था कोई लीडर नहीं पहुंचा था। लेकिन दलित पैंथर का नाम पहुंचा था। जब जमींदार के या बड़े किसान के लड़के आंखें निकाल कर उसको देखते थे।तब हम कहते थे ये आंखें नीचे कर दलित पैंथर के लोगों को बुलाएंगे हम लोग। तो उसको आंखें नीचे करनी पड़ती थी। दलित पैंथर का इतना बड़ा खौफ़ हुआ करता था। दलित पैंथर को यह ऊर्जा आई कहां से है? मैं समझता हूं कि दलित पैंथर ने भले कभी यह नहीं माना कि हमें नक्सलवादी आंदोलन से ऊर्जाली है। लेकिन ऊर्जा ली जरूर है। दलित पैंथर का जो मेनिफेस्टो है, जो 1973 में आया था। कहा जाता है कि वह नामदेव ढ़साल ने लिखा है।लेकिन मैं जानता हूं और आप जानते होंगे कि वह केवल नामदेव ढ़साल ने नहीं लिखा। उसका कोई और एक मेंबर था जो नक्सलवादी आंदोलन से आया था। तभी वह इतना अच्छा मैनिफेस्टो लिख सके। जिसका हम लोग आज भी अनुसरणकरनेकीकीकोशिशकरते हैं। दलित पैंथर पतित हो गई लेकिन दलित पैंथर का मेनिफेस्टो आज भी पतितनहीं हुआ।उस प्रोग्रामको आज भी हम कहते हैं कि पढ़िए।वह आज भी रेडिकल है। वह क्यों रेडिकल है? उसे नजरिया देने का काम नक्सलवादी आंदोलन नेकिया है। हम लोग जब कविताएं सुनते थे प्रहलादचंद्रवरकर हो या सपकालेहो, राजा ढाले हो या नामदेव ढ़साल हो। तो उसमें जो गर्मी थी एक कविता है चंद्रवरकरकीकि "जब हम लोग रास्ते पर निकलते हैं, तो पुलिस की फौज हमारे साथ चलती है, और जब हम रास्ते पर निकलते हैं तो उस दिन रास्ता हमारे बाप का होता है, राजसत्ता बंदूक साफ करती है हम अपनी लाठियों उठाते हैं" तो यह जो ऊर्जा थी कविताओं में। मैं समझता हूं यह ऊर्जा उस समय 70 के दशक में बंगाल के साहित्यनेजोऊर्जादी थी और उसके बाद श्रीकाकुलम के आंदोलन ने जो ऊर्जादी थी उसी उर्जा का वह परिणाम रहा है।द्रोणाचार्यघोष, विपुल चक्रवर्ती, चेराबंडाराजूये ऐसे नाम है मराठी इतिहास में जिससे कोई साहित्य अछूता नहीं है। जिनको पढ़े बगैर कोई साहित्य को समझ ही नहीं सकता। इसलिए आप देखेंगे कि दलित साहित्य जो आया है 72 के बाद में खास करके वह नक्सलवादी आंदोलन की देन है ।अंबेडकराईट लोग इसे नहीं मानेंगे लेकिन उस साहित्य का करैक्टर बताता है, वह साहित्य खुद बताता है कि यह नक्सलवादी आंदोलन के प्रभाव से ही इतना अच्छा बना है। आज भी एक युवा वर्ग, महाराष्ट्र का युवा अपने आप में एक रास्ता ढूंढ रहा है कि रास्ता क्या हो सकता है? उन्होंने पैंथर के लोगों को देख लिया है, उन्होंने रामदास अठावले को देख लिया है, उन्होंने BSP के लोगों को देख लिया है, और महाराष्ट्र के नक्सलवादी आंदोलन को भी वह देख रहे हैं। कहीं ना कहीं उनको लगता है कि  चूक अंबेडकरवादी आंदोलन से हो रही है। लेकिन चुक क्या हो रही है? उसको विश्लेषित करने का, संश्लेषित करने का जो नजरिया है वह अनेक पास नहीं है। नक्सलवादी आंदोलन एक रीजनल एरिया में सिमटा हुआ आंदोलन माना जाता है। वह आपकी और मेरी जिम्मेदारी है शहर में बैठा हुआ जो युवा जो सच्चे मार्ग की खोज में है उसके पास पहुंचा कर सच्चा मार्ग क्या है इसका प्रबंधन करना चाहिए। क्रांति की बात हम करेंगे क्रांति कौन करेगा? भगत सिंह तो कहते हैं कि युवा ही क्रांति करते हैं। हम जैसे बहुत कम लोग जो उम्र के 18 साल से जिस मार्ग पर चले आज भी उसी मार्ग पर हैं। इस 35 साल केसफरकेबादभी मार्ग नहीं छोड़ा है हम लोगों ने। क्योंकि हमें पता है मुक्ति का रास्ता क्या हो सकता है। एक ही रास्ता है स्लोगन तो लगाया थाना, सबको पता है एक ही रास्ता है मुक्ति का। लेकिन यह रास्ता लेकर पहुंचना पड़ेगा युवा पीढ़ी के पास शहरों में। खासकर के दलितों में दलित वह वर्ग है जो सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे पिछड़ा हुआ है आज। उसी  युवाओं मेंप्रेरणा भरने का काम आज आपको और मुझे करना पड़ेगा। जरूरी नहीं कि आप जंगल में जाकर बंदूक लेकर लड़ाई लड़े।कतई जरूरी नहीं! हमारे शहर से एक लड़का उधर गया था जंगल में। जंगल के लोगों ने वापस उसे भेज दिया। बोले कोई जरूरत नहीं यहां हम लड़ेंगे तुम शहर में देखो शहर तो खाली पड़ा हुआ है। शहर तो प्रतिक्रियावादियों के विचारों से भरा पड़ा है। अब वहां के युवाओं को समझाओ। समझा कर वापस भेज दिया जंगल से। जाओ शहरों में युवाओं के संगठन बनाओ,जाओ विद्यार्थियों का संगठन बनाओ। विद्यार्थियों को बताओकि मुक्ति का दर्शन क्या है। मुक्ति की फिलॉसफी क्या है। मुक्ति का रास्ता क्या है। मुक्ति का आंदोलन क्या है। मुक्त की पार्टी क्या है। मैं समझता हूं आज जो हमनक्सलवादीआंदोलनके50 साल मना रहे हैं, हमें अपना मूल्यांकन करना है और आलोचना-आत्मआलोचना तोहमारी जान है।आत्मआलोचना करने में हमें कोई हिचकिचाहट नहीं करना चाहिए।हम जब आलोचना करते हैं नेताओं की तो हमें भी अपनी आलोचना करनीचाहिएकि हम अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं? जो लोग लड़ रहे हैं, जो लोग अपनी जान कुर्बान कर रहे हैं वह तो कर ही रहे हैं तभी तो हमें हौसला मिल रहा है। यह सेमिनार करने का लेकिन केवल उनकी कुर्बानियों पर हमको इतराने का कोई हक नहीं है। कुर्बानी उनकी है हमने नहीं दी है। कुर्बानी हम नहीं दे सकते लेकिन कम से कम उन लोगों की कुर्बानियां जिन्होंने हमारे लिए दी है, मैं कई लोगों को जानता हूं जिन लोगों ने हमें प्रेरित किया है। उनका नाम है अनुराधा गांधी और मेरे एक मित्र हैं कोबाडगांधी।मैंलिबरेशन में था जरूर लेकिन सबसे मेरे रिलेशन थे, बातचीत होती थी। हम समझते थे, समझने की कोशिश करते थे कि सही रास्ता क्या हो सकता है? उन लोगों की जो कुर्बानियां है, अनुराधा गांधी कीजोकुर्बानीहैवहहमें बर्बाद होने नहीं देना है। तो हमें शहरों में रहकर, अपनी फैक्ट्रियों में, अपने ऑफिस में, अपने कॉलेज में, कोर्ट में अगर वकील है तो जहां भी हम काम कर रहे हैं वहां पर अपने विचारों का बीज बोते रहना है। जहां जहां हम लोग पौधों को पानी दे सकते हैं इन विचारों के पौधों को जिंदा रखना है। एक बड़े पेड़ और एक नए क्रांतिकारी युवा हम लोगों को खड़े करने हैं। अगर हम लोग यह जिम्मेदारी निभा रहे हैं अपने घरों में रहकर, अपने ऑफिस में रहते हुए, अपना जो समय है वह हम लोग दे रहे हैं तो मैं समझता हूं हम अपने शहीद नेता के अपने सभी साथियों के काम किसी न किसी रूप में बढ़ा रहे हैं। अगर हम यह नहीं कर रहे हैं तो आज हम 50 साल पर सेमिनार कर रहे हैं,फिर 100 साल पर सेमिनार करेंगे। जैसा कुछ पार्टियां 2025 में करने वाली हैं वह सौ साल मनाएंगे पार्टी की स्थापना के। मैं अपने दोस्तों को कहता हूं क्या तुम्हें शर्म नहीं आएगी? बिना किसी क्रांति के सौ साल मना रहे हो? मेरे लिए तो बहुत शर्मनाक बात होगी। शायद दुनिया की यह पहली पार्टी होगी कि बिना कुछ किए और खासकर के आंदोलन के साथ गद्दारी के वह सौ साल मनाएंगे।1953 तक तो ठीक है जब तक तेलंगाना आंदोलन चला। उसके बाद क्या है ?उसके बाद ऐसी कोई बात नहीं है कि मुझे गर्व महसूस हो।1953 तक तो हम कहते हैं कि एक लड़ाई लड़ी है पार्टी ने ।कुर्बानियां दी है लेकिन उसके बाद में जो इतिहास रहा है वह गद्दारी का ही इतिहास रहा है। उस गद्दारी से सबक सीख कर उस आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम अगर किसी ने किया है। तो वही हमारे शहीद साथी हैं। जो आज हमारे आंदोलन को लीड कर रहे हैं। यह लोग यंग लड़के हैं। मुझे जब जंगलमेंरहनेवालाकोई यंग लड़का बताता हैकि दादा आपने यह फिल्म नहीं देखी? इस फिल्म को देखो तो मुझे अपने आप पर शर्म आने लगती है कि मैंशहरमेंरहताहूं ,फिल्मों में काम करता हूं। वह जंगल में रहने वाला बच्चा मुझे यह बोलता है कि दादा आपने यह फिल्म नहीं देखी? आपइसको जरूर देखिए। कितना अपडेट है।इकोनॉमिक्स के बारे में अपडेट है। कल्चर के बारे में अपडेट है। दुनिया में कौन सी फिल्म अच्छी आ रही है इससे अपडेट है। नागपुर से कुछ पत्रकारलोगनेताओंसेमिलनेकेलिएहमारेएरियामेंगए थे। कोई नेता नहीं मिला थर्ड रैंक के कार्यकर्ता से बात करके आए और थर्ड रैंक के कार्यकर्ता को वह नेता समझ बैठे। क्योंकि थर्ड रैंक के कार्यकर्ता की बातें इतनी महत्वपूर्ण लगी उन लोगों को। उन्हें यह लगा कि अगर थर्डरैंक का कार्यकर्ता एकोनोमिक्स पर,फिलॉसफीपर, आंदोलन पर अगर यह बात कर सकता है तो नेता तो अलग चीज है। थर्ड रैंककाजो कार्यकर्ता है उसे नेताओं ने बनाया है। यही एक पार्टी है, यही एक ऐसाआंदोलन है अगर नेता जेल जाता है या शहीद होता है तो उसकी जगह खाली नहीं होती है। उसकी जगह लेने के लिए दूसरेकतारके लोग खड़े हैं ।दूसरीकतारका अगर कोई शहीद होता है या जेल में जाता है तो तीसरीकतार तैयार हैउसकीजगहलेनेकेलिए। एक फौजहै जगह खाली नहीं है।आखिरी पंक्ति में खड़ा हुआ कार्यकर्ता भी इसीलिए लड़ रहा है कि उसे पता है कि मेरे आगे 10 लोग लड़ रहे हैं मेरी मुक्ति के लिए।यहएकमात्र आंदोलन है जो हौसला दे रहा है ।और क्या है जिंदा रहने के लिए केवल रोटी की जरूरत नहीं होती हैइंसानको। प्रेरणाओं की भी जरूरत पड़ती है बाबा साहब ने प्रेरित किया था हमारे बाप की पीढ़ी को। लेकिन मेरे लिए प्रेरणा देने वाला कोईनहीं है।रामदासअठावलेया मायावती नहीं पैदा हुई यह तो पतितलोग थे। मैं किस से प्रेरणा लेता हर व्यक्ति प्रेरणाओं पर जीता है। प्रेरित करता है भगत सिंह आज भी हम लोग को क्योंकि भगत सिंह एक ईमानदार कुर्बानी देने वाला शख्स रहा है हमारे इतिहास में। केवल शहीद नहीं है वह एक विचारक रहा है। उसने कम उम्र में भी भांपलिया है कि देश में किस तरह की पार्टी होगी। किस तरह की विंग होगी। क्रांति कैसे होगी। क्रांतिकारी वर्ग क्या होगा। उसके गुप्त रूप क्या होगा। खुला रूप क्या होगा। इस तरह कीविजुअलाइज करने की छमता जो थी वह भगत सिंह में थी। इसलिए हम भगत सिंह को शहीद ए आजम बोलते हैं। केवल वहअकेले शहीद नहीं थे। उनके पहले भी शहीद हुए और उनके बाद में भी शहीद हुए। ऐसे भगत सिंह  की फौज इस आंदोलन ने पैदा की है। और यही फौज हमें मजबूर कर रही है आज यहां बात-चीत करने के लिए। केवल मजबूर नहीं कर रही है वह प्रेरणा भी दे रही है। राजसत्ता कितनी भी सीना तान कर आए हम उससेस नहीं डरते असलियत यह है कि राज्यसत्ता हमसे डरती है। मैं आपको सही बता रहा हूं  अगर डरते तो यहां बैठते नहीं मैं यहां आता ही नहीं।राज्यसत्ता डरती है हमसे। हमारे यहां जो एंटी नक्सलसेल के आईजी हैं पंकज गुप्ता उन्होंने तोखुलेरुपसेबोल दिया हैकि इनकी बंदूक से नहीं डरते हम इनकी फिलॉसफीसे डरते हैं।यह जोदर्शन है जनता के मुक्ति का दर्शन है। अगर सत्ताधारी वर्ग अगर नहीं डरेगा तो समझ लीजिए इस दर्शन में दम नहीं है। सत्ताधारी वर्ग डरता है उसका मतलब है दर्शन में दम है, उस रास्ते में दम है। वह मुक्ति का मार्ग है। मैं समझता हूं इस मुक्ति के मार्ग पर कितनी भी प्रतिकूल स्थितियों मेंखड़ेरहनाहै। मुझे तो एक संगठन ने मुंबईमेंएकफाइवस्टारहोटलमेंबेस्ट एक्टर का अवार्ड भी देने का घोषित कर दिया था।मुझे यह ताजुब लगा कि मेरा कोई संबंध नहीं है इन लोगों के साथ वह मुझे बेस्ट एक्टर का अवार्ड क्यों दे रहे हैं।मेरे एक मित्र है उनको फोन करके पूछा कि देखो यार ज़रा जन्म कुंडली निकालो कौन लोग हैं। पता चला कि रोहिणी करके एक वकील है उसके पति उस कमेटी में है। तो मैंबोला अच्छा रोहिणी सलीम फिर तोवह पुरस्कार लेने के लिए मैं नहीं जाऊंगा। क्योंकि आपके सामने कई सारे प्रलोभन पद के हैं, पैसे के, प्रतिष्ठा के प्रलोभन भी दिए जाएंगे। अगर नहीं दिएजाएंगेतो आपको प्रताड़ित किया जाएगा। इसके बावजूद भगत सिंह की वह जोचिट्ठी थी जो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त को लिखी थी उसे पढ़ लेना अगर आपको लगे कि आपके कदम डगमगाने लगे हैं। भगत सिंह उसमें कहते हैं बटुकेश्वर दत्त को (क्योंकि दोनों गए थे बम डालने के लिए) कि मुझे बहुत आसान सजा दी गई है सजा-ए-मौत। मैं तो मुक्त हो जाऊंगा इस सारी झंझट से। जब मैं फांसी पर लटकुंगा तो मेरी सारी अपनी जिंदगी की खत्म हो जाएंगी और तुम्हें तो आजीवन कारावास मिला है। लेकिन तुम्हें यह दिखा देना है कि क्रांतिकारी लोग केवल फांसी पर नहीं लटकते वह जिंदा रहते हुए भी एक क्रांतिकारी जीवन जीते हैं। यह तुम्हें दिखाना है । आप देखिए उसके बाद बटुकेश्वरदत्त1930से1947तक17 साल जेल में रहे।और 1947 के बाद फिर 17 साल जिए एक क्रांतिकारी कीतरहजिए। हमें अपनो को नहीं बुलाना है। उनसे प्रेरणाऔए ऊर्जा ग्रहण करना है। साथियों जब भी आपके कदम डगमगाए आपचेराबंडा राजू को याद करिए। आप पास को याद करिए, भगत सिंह को याद करिए। आप अपने मुक्ति का रास्ता नहीं छोड़ेंगे। उम्मीद है आप मेरी भावनाओं को समझ रहे होंगे! मैंने अपने शब्द अपनी भावनाएं आपके सामने रखने की कोशिश की। मुझे तेलुगु नहीं आती, मैं आपसे माफ़ी चाहूंगा। पढ़ा लिखा नहीं हूं, तो अंग्रेजी भी नहीं आती। लेकिन आप मेरी भावनाएं समझ गए होंगे। मुझे आयोजकों ने बुलाया और आपके सामने मेरी भावनाएं व्यक्त करने का मौका दिया। मैं आयोजकों का धन्यवाद अदा करता हूं। फिर एक बार सब लोगों को बधाई देता हूं। इस नक्सलबाड़ी के 50 वर्ष के उपलक्ष्य में, अक्टूबर क्रांति के 100 वर्ष के उपलक्ष्य में और भीमा कोरेगांव के 200 साल के उपलक्ष्य में। भीमा कोरेगांव के बारे में मैंने नहीं बोला है। भीमा कोरेगांववहइतिहास है ईस्ट इंडिया कंपनी की छोटीसीफौज के साथ 500 महार थे। उसमें 500 महार और 25000 की फौज पेशवाओं कीथी। कैप्टन नेभागने की तैयारी कर ली थी। लेकिन महार सैनिकों ने कहा नहीं भागना है, हम लड़ेंगे। 500 महारोंने 25000 पेशवाओंकी सेना को पराजित कर दिया। और पेशवाई खत्म करने का अंतिम कील ठोक दिया है। वह है इतिहास।इस लड़ाई को हमें अपनी लड़ाई समझकर इस पूरे आंदोलन को आत्मसात करते हुए अपनी आलोचना भी हमें करनी चाहिए। इतना बोल कर मैं आपसे विदा लेता हूं।


प्रस्तावित फासीवाद-विरोधी मोर्चे का परिप्रेक्ष्य



‘‘साम्प्रदायिकता को सीधे सामने आने में लाज लगती है, इसलिए वह राष्ट्रवाद का चोला ओढ़कर आती है।’’                                                           -प्रेमचंद
‘‘यदि हिन्दू राज बनता है तो इस बात में कोई सन्देह नहीं कि यह देश के लिए सबसे बड़ी विपत्ति होगी। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हिन्दू क्या कहते हैं, लेकिन हिन्दूवाद स्वतंत्रता, समानता व भाईचारे केे लिए बहुत बड़ा खतरा हैं। इस तरह से यह लोकतंत्र का विरोधी है। हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।’     - डाॅ. भीमराव अम्बेडकर

      प्रेमचन्द और डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर की उपरोक्त बातें इस समय हमारे देश में चरितार्थ हो रही हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने राजनीतिक संगठन भाजपा के माध्यम से 2014 में केन्द्रीय सत्ता पर कब्जेदारी करके ‘‘राष्ट्रवाद’’ ‘‘धार्मिक उन्माद’’ व ‘‘हिन्दू राष्ट्र’’ के नाम पर समाज व देश में कलह व विघटनकारी गतिविधि को बढ़ावा दे रही है। उसने उत्तर-प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में एक मठ के महंत को सत्ता सौंप कर अपने फाॅसीवादी मंशा को जाहिर कर दिया है। गुजरात में 2000 से ऊपर मुस्लिमों के नरसंहार के मामले में संदेह के दायरे में आये नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना और हमेशा मुस्लिम विरोधी उग्र-विचार रखने वाले और हिन्दू युवा वाहिनी जैसीे निजी गुण्डा वाहिनी के संचालक योगी आदित्यनाथ का उत्तर-प्रदेश का मुख्य मंत्री बनना भारतीय ‘‘संवैधानिक लोकतंत्र’’ के फासीवाद में नग्न रूपान्तरण का परिचायक है।
फासीवाद 
जब इटली में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर की सत्ता आयी थी तो विश्व फाॅसीवाद के सबसे चरम रूप का साक्षी बना था। उस समय विश्व मानवता के सामने  इतिहास के सबसे संकटकारी युद्ध का खतरा मंडराने लगा था। तब फाॅसीवाद के खिलाफ मोर्चे बनाये गये थे। इस प्रकार अब तक फाॅसीवाद की जो समझ बनी है उसके अनुसार ’’फासीवाद वित्तीय पूंजी के सबसे ज्यादा प्रतिक्रियावादी, सबसे ज्यादा अंधराष्ट्रवादी और सबसे ज्यादा साम्राज्यवादी तत्वों का खुला आतंककारी शासन होता है।’’
’फासीवाद‘ और ‘पंूजीवादी जनवाद’ वित्तीय पूंजी द्वारा शासन के दो रूप हैं। जब पंूजीवादी राज्य के विस्तार करने का कुछ हद तक संभावना रहती है तब वह शासन के थोड़ा उदारवादी रूप पूंजीवादी जनवाद का इस्तेमाल करता है। परंतु जब वित्तीय संकट गहरा जाता है और इसके फलस्वरूप जनता भी आन्दोलन के लिए आगे आने लगती है, तब वह नग्न आतंकी रूप फासीवाद का इस्तेमाल करता है क्योकि मजदूर वर्ग और जनवादी अधिकार आंदोलनों को कुचलने के लिए उदार पंूजीवादी-जनवादी शासन अपर्याप्त हो जाता है। 
फासीवाद जिस भी देश में आता है उस देश की अपनी विशिष्टता को लिए होता है। परंतु उसका सामान्य चरित्र ‘‘उग्र-अंधराष्ट्रवादी’’ और ‘‘धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग’’ अथवा ‘‘भाषाई, आदिम समुदाय अथवा भारत जैसे देश में उत्पीड़ित जातियों’’ जैसे तबकों के खिलाफ उन्माद फैलाने का रहता है।
पृष्ठभूमि
प्रथम विश्व युद्ध के बाद सोवियत संघ में समाजवादी मजदूर क्रान्ति की सफलता के बाद और जर्मनी में क्रान्ति की असफलता के चलते वार्सा संधि से उपजी विश्व परिस्थिति ने फासीवाद के माहौल को तैयार किया था। विश्व में आर्थिक असमानता 1913 में अपने चरम पर पहुंच चुका था। इटली-जर्मनी-जापान में बढ़ रहे वित्त पूंजी को रियायत देने से ब्रिटिश-अमरीकी-फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों ने इन्कार कर दिया था। नतीजतन ‘‘उग्र राष्ट्रवाद’’ की भावना भड़काकर मुसोलिनी और हिटलर के नेतृत्व में फासीवाद का दानव उत्पन्न हुआ। इसने विश्व के ऊपर मानव इतिहास के सबसे प्रलंयकारी युद्ध को थोप दिया था। इसने दमन के बर्बर रूपों को भी मात दिया और जर्मनी में यहूदी लोगों की 60 लाख आबादी को गैस चेम्बरों में मार दिया था। इस युद्ध में लोगों ने अपने ही जैसे 5 करोड़ लोगों की हत्या कर दिया था। अमरीका ने नागासाकी-हिरोशिमा में परमाणु बम का पहली बार परीक्षण करके दो लाख लोगों को मिनटों में जला दिया था और अपने दादागीरी को दुनिया में स्थापित किया था। स्टालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ की जनता ने अपने दो करोड़ लोगों की आहुति देकर दुनिया को इस दानव से मुक्ति दिलायी थी। उस समय विश्व भर में फासीवाद के खिलाफ कम्युनिस्टों-समाजवादियों-जनवाद पसंद लोगों और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों के बीच साझा मोर्चा बना था जो सफल हुआ था।
उसके बाद विश्व भर में सोवियत समाजवादी संघ में समाजवाद का विकास पथ पर बढ़ता कदम विश्व पंूजीवादी-साम्राज्यवाद के सामने गंभीर चुनौती पेश किया था और शक्ति-संतुलन को जनता के पक्ष में मोड़ दिया था। इसी समय सोवियत संघ के खुलेआम समर्थन, कमजोर होते औपनिवेशिक शक्तियों और गुलाम देशों में मजदूर व मुक्ति आंदोलनों की मजबूती ने भी अमरीकी नीत पंूजीवादी-साम्राज्यवाद के समक्ष चुनौती पेश किया था और वर्ग-शक्ति संतुलन को जनता के पक्ष में रखा था। इसी दौर में यूरोप व जापान की विश्वयुद्ध में हुई तबाही ने भी उनके समक्ष पुर्ननिर्माण का कार्यभार रखा था। इन तीनों कारकों ने मिलकर उस समय समाजवाद व ‘जनकल्याणकारी’ राज्य का विकल्प खड़ा किया। नतीजतन 1960 तक विश्व में आर्थिक असमानता कम होता रहा। परंतु 1960 के बाद विश्व में पुनः वित्तीय संकट आने लगा। सोवियत रूस सामाजिक साम्राज्यवाद में र्पितत होने लगा था। समाजवादी खेमा चीन के नेतृत्व में 70 के दशक के मध्य तक संघर्ष किया था। वियतनाम ने अमरीका को परास्त करके उसके साम्राज्यवाद को तगड़ा झटका दिया था। 1973 में डालर का स्वर्ण मानक से अलग होना संकटों के दौर की चरम था। उसके बाद विश्व पंूजीवाद संकटों के चक्र में फंसता गया। राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन अभी भी चुनौती थे। परंतु समाजवादी खेमे के खात्मे के बाद ये कमजोर होते गये थे। और 1990 तक आते-आते विश्व भर में वर्ग शक्ति संतुलन जनता के पक्ष में कमजोर हो गया था। ऐसी स्थिति में विश्व व्यवस्था ने जन-विरोधी, मजदूर-विरोधी, किसान-विरोधी, राष्ट्र मुक्ति-विरोधी नीतियों को ‘‘उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण’’ के नारे के साथ आम जनता व उत्पीड़ित राष्ट्रों पर थोप दिया था। परंतु इसके बाद भी वित्त पूंजी का संकट और विश्वभर में आर्थिक असमानता बढ़ता ही गया। और 2008 में अमरीका में ‘सब प्राइम’ संकट के नाम से प्रस्फुटित आर्थिक संकट ने 1929 के संकट की गहनता से भी भयावह रूप ले लिया। यह संकट विश्वव्यापी वित्तीय संकट को जन्म दिया है। वैश्विक स्तर पर आर्थिक असमानता पुनः 1913 के स्तर पर आ गया है। दुनिया भर की 71 प्रतिशत आबादी के पास दुनिया की संपदा का मात्र 3 प्रतिशत हिस्सा है। जबकि दुनिया की आधी संपत्ति पर ऊपरी 1 प्रतिशत लोगांे का कब्जा है।                                                               
हमारे देश की परिस्थिति
भारतीय पूंजीपति वर्ग अपने जन्म से ही साम्राज्यवाद पर निर्भर रहा है। साम्राज्यवाद की छींक से इसे बुखार आने लगता है। इसलिए समाजवाद के छलावे के नाम पर भारत के सामंतों, बड़े पूंजीपतियों और साम्राज्यवादियों के हित में खड़ी व्यवस्था ने लगातार जनता के श्रम, संपदा को उनके हितों में लगाया है। साम्राज्यवादियों व देशी बड़े पूंजीपतियों (अंबानी-अडानी-टाटा-बिडला जैसों) की बढ़ती पिपासु वित्तीय पंूजी की हवस  के लिए निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकरण के नाम पर नई आर्थिक नीति को लागू किया गया। वित्त पूंजी की हवस को ही शांत करने हेतु ‘नोटबंदी’ और ‘जीएसटी’ जैसा कदम उठाया गया ताकि पूंजी का और ज्यादा एकत्रीकरण दैत्याकार कंपनियों के हाथ में हो सके। इन कदमों ने संकट को घटाने की जगह और बढ़ा दिया है। देश में आर्थिक असमानता बढ़ते हुए भयंकर होता जा रहा है। नवम्बर, 2016 में भारत दुनिया के सबसे ज्यादा असमानता वाले देशों में रूस के बाद दूसरे स्थान पर था। आबादी के सबसे धनी 1 प्रतिशत लोगों के पास देश की 58.4 प्रतिशत संपत्ति है। मात्र 57 सबसे धनी लोगों के पास आधी आबादी के बराबर संपत्ति है। इस आर्थिक गैरबराबरी, वित्तीय संकट, वित्तीय घरानों और साम्राज्यवादी देशों की पूंजी कब्जेदारी की भूख ने वर्तमान में वैश्विक व घरेलू फासीवाद के लिए उर्वर जमीन तैयार किया है। इसी पृष्ठभूमि में अमरीका में फासीवादी ट्रम्प का सत्ता में आना, आधुनिक क्रान्ति के प्रथम देश फ्रांस में ली-पेन का उभार सहित सभी पूंजीवादी व साम्राज्यवादी देशों में अंधराष्ट्रवाद का उभार आया है।

हमारे देश में फासीवाद की विशिष्टता उसका आधार और उसके हमले के निशाने
2014 से हमारा देश जिस फासीवाद के गिरफ्त में आया है उसका विशिष्ट चरित्र है वर्ण-वर्चस्व वाली ब्राह्मणवादी हिन्दूत्व विचारधारा। जिसका बीज लगभग शताब्दी पहले हिन्दू महासभा व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के रूप में हेडगेवार व सावरकर जैसे लोगों द्वारा बोया गया था। इस विचारधारा में जाति-घृणा आधारित श्रेणीक्रम और धर्म श्रेष्ठता दोनों समाये हुए हैं। सामान्यतौर पर हमारे देश के शासक वर्ग में दलाल प्रवृत्ति वाले बड़े पूंजीपति और सामंती तत्व शामिल हैं। इनके द्वारा ही फासीवादी शासन को लागू किया जाता है। ये दोनों वर्ग मनुवादी दण्ड विधान में विश्वास करने वाले ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था के सवर्ण जातियों से प्रधानतः आते हैं। अतः भारतीय फासीवाद दलाल प्रवृत्ति के बड़े पूंजीपति व सामंती वर्गों के उग्र प्रतिक्रियावादी एवं अन्ध राष्ट्रवादी उच्च जातीय हिन्दू तत्वों की तानाशाही है। इसी  कारण हमारे देश के अम्बानी-अडानी-बिरला-अग्रवाल जैसे बड़े पूंजीपतियों ने अपने संसाधनों से भातीय प्रतिक्रियावादी मनुवादी हिन्दुत्व के प्रतीक बन चुके मोदी के पक्ष में मीडिया को एकजुट किया है। इसलिए भारतीय फासीवाद को मनुवादी हिन्दूत्व फासीवाद कहना ज्यादा उचित होगा।
परंतु हम भारत के इतिहास को 1947 से ही देखें तो पाते हैं कि हमारे देश में कभी मुकम्मल जनवाद आ ही नहीं पाया। 1947 में सत्ता हस्तान्तरण के द्वारा सत्ता में आयी कांग्रेस पार्टी हमेशा से वर्णवर्चस्ववादी तत्वों के प्रभाव में रही। वह हमेशा उदार हिन्दुत्व की पोषक रही। इसमें मालवीय जैसे कट्टर मनुवादी हिन्दुत्व समर्थक लोग भी शामिल थे जिन्होंने हिन्दू महासभा की सदस्यता भी ले रखी थी। इससे भिन्न हो भी नहीं सकता था क्योंकि जिस वर्ग का प्रतिनिधित्व कांग्रेस करती थी उसका निर्माण उच्चवर्गीय जातियों से ही हुआ था। जे डी बिरला का उदाहरण हमारे सामने है जिनकी प्रशंसा आरएसएस के बी. एस. मुंजे (जो मार्च,1931 में मुसोलिनी से मिलने इटली भी गये थे।) किया करते थे क्योंकि वे हिन्दुत्व संगठनों से रिश्ता रखते थे। धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद के खोल में पं0 जवाहरलाल नेहरू का चरित्र भी साफ था। उन्होंने तेलंगाना में न केवल क्रान्तिकारी किसान आन्दोलन को कुचलने में पटेल का साथ दिया था, बल्कि उसी समय हैदराबाद और जम्मू में भी सुरक्षा बलों द्वारा मुसलमानों के संहार भी उन्ही की सरकार की नाक के नीचे हुआ। भारतीय राज्य शुरू से ही कश्मीर, पूर्वाेत्तर एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन के लिए फासीवादी आतंक का सहारा लेता रहा है। कांग्रेस पार्टी की भूमिका आरएसएस को केन्द्रीय सत्ता तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण रही है। चाहे गाॅधी की हत्या के बाद भी हिन्दुत्व शक्तियों पर रोक लगाने का मामला रहा हो, चाहे बाबरी मस्जिद में राम की मूर्ति स्थापना (1949), बाबरी मस्जिद का ताला खोलना (1986) व बाबरी मस्जिद का विध्वंश (1992) रहा हो सबमें कांग्रेस की भूमिका हिन्दुत्ववादी शक्तियों के प्रति बढ़ावा देने का ही रहा था। मुस्लिमों के खिलाफ साम्प्रदायिक दंगों में सुरक्षा बलों के हमले, दलित जातियों के ऊपर सामंती निजी सेनाओं के हमले (रणवीर सेना, सन लाइट सेना इत्यादि), आदिवासियों पर सुरक्षा बलों एवं सलवा जुडूम, सेण्ड्रा इत्यादि का हमला या नइमुद्दीन गिरोहांे जैसों के हमले के मामले में भी कांग्रेस का हाथ हमेशा खून से रंगे रहे हैं। 1975 में इन्दिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाकर विपक्ष क्रान्तिकारी व जनान्दोलनों पर दमन और मौलिक अधिकारों का निलम्बन करना फासीवाद से कम नहीं था। भारतीय समाज का ग्रामीण हिस्सा 1947 के बाद भी मनुवादी विधान वाले जाति व्यवस्था से ही संचालित होता रहा था। डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर के प्रयास के बावजूद कांग्रेस व नेहरू ने हिन्दूकोड बिल पास नहीं होने दिया जो भारत में एक समान नागरिक संहिता के लिए पृष्ठभूमि तैयार करता। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों, दलित/दमित जातियों, महिलाओं, आदिम जातियों, कश्मीर, पूर्वोत्तर राज्यों तथा मजदूर-किसानों के क्रान्तिाकारी संघर्षों के दमन के मामले  भारतीय राज्य 1947 के बाद से ही फासीवादी बना हुआ है। शहरी आबादी, बुद्धिजीवी तबकों इत्यादि के लिए सीमित मात्रा में मिले जनवादी अधिकारों को भी विविध सरकारें मीसा, टाडा, पोटा अफ्स्पा, यूएपीए तथा जन सुरक्षा अधिनियम जैसे फासीवादी कानूनों के माध्यम से छीनती व प्रतिबंधित करती रही हैं। इनमें संसदीय वाम पार्टियों तथा मध्यमार्गी पार्टियों की सरकारें भी शामिल रहीं हैं। संसदीय कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपनी समझौतापरस्त नीतियों के कारण हिन्दुत्व फासीवादियों के लिए जमीन उर्वर किया है। इस पृष्ठभूमि में भारतीय शासकों की सबसे वफादार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की पार्टी भाजपा मोदी के नेतृत्व में सत्ता में आयी है। यह संकटग्रस्त बड़े पूंजीपतियों व भू-स्वामियों की तीव्र गति से सेवा आम जनता  की आजीविका को छीनते हुए कर रही है और जनता  का ध्यान बंटाने के लिए  ‘‘उग्र राष्ट्रवाद’’ ‘‘हिन्दू राष्ट्र’’ ‘‘गौ रक्षा’’ वन्देमातरम्’’ ‘‘राष्ट्रगीत’’ ‘‘मुस्लिम-विरोध’’ इत्यादि के रूप में जहरीले विचार का सहारा ले रही है।
2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने और 2017 में योगी की ताजपोशी ने अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों में असुरक्षा की भावना को बढ़ा दिया है। गोरक्षा के नाम पर व गोमांस के नाम पर अखलाक, पहलू खां, जुनैद और हाल ही में अलवर में एक और मुस्लिम की हत्या इस स्थिति को बताने के लिए पर्याप्त है कि फासीवादी हिन्दुत्व की गैंगों को केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा अलिखित सहमति दे दी गयी है कि वे किसी भी मुस्लिम को गोमांस, गोरक्षा के नाम पर मार सकते हैं। उत्तर-प्रदेश में योगी ने आते ही जिस प्रकार अवैध बुचड़ खानों के नाम पर गुण्डों को हिंसा करने की छूट दे दी उससे न केवल मुसलमानों पर हमले बढ़े बल्कि पशुधन के रूप में आम किसानों का पशु व्यापार बुरी तरह प्रभावित हुआ है। भारतीय इतिहास में एक समय स्वयं गोमांस भक्षण करने वाले आज लोगों के खाने के मौलिक अधिकार पर हमले कर रहे हैं। इससे सभी अल्पसंख्यक तबकों विशेषकर मुस्लिमों का विश्वास भारतीय राज्य से उठ रहा है। उन्हें भारतीय सुरक्षा के लिए खतरे के रूप में संघी एजेन्सियां पेश कर रही हैं और पूरे देश में मुस्लिम युवाओं को ‘‘आतंकवाद’’ के नाम पर जेलों में डाला जा रहा है अथवा फर्जी इन्काउन्टर में मार दिया जा रहा है। इस प्रकार लगभग 20 करोड़ आबादी को संदेह के दायरे में लाकर देश के माहौल को विषैला कर दिया गया है।
मुस्लिमों के बाद हिन्दुत्व फासीवादियों के निशाने पर दलित/दमित जातियां हैं। मद्रास में अम्बेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल पर रोक, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अम्बेडकर छात्र संघ के छात्रों को निलंबित कर रोहित वेमुला जैसे मेधावी व संवेदनशील छात्र को आत्महत्या के लिए बाध्य करना, गुजरात के ऊना में गौहत्या के नाम पर दलितों पर हमला, सहारनपुर में दलित बस्ती पर राजपूत परिवारों द्वारा हमला और  अभी हाल में बलिया के श्रीनगर गांव में अद्भुत बाबा के स्थान पर दलित नौजवानों के चढ़ने-बैठने के कारण पूरे दलित बस्ती पर तलवार, लाठी, बैटों से हमला इत्यादि तो मात्र कुछ घटनाएं हैं जो प्रकाश में आ पाती हैं। दलित लड़कों द्वारा सवर्ण/उच्च वर्गीय लड़कियों से प्रेम के कारण कई दलित परिवारों/लड़कों की ‘‘आॅनर किलिंग’’ तो पहले से भी होते रहे हैं। उत्तर-प्रदेश में एक महंत की ताजपोशी होते ही उसका राजपूत गौरव जाग गया और मीडिया द्वारा पूरे देश को बताया जाने लगा था कि वे राजपूत जाति के हैं। इससे यह समझना मुश्किल नहीं है कि संघियों का हिन्दू राष्ट्र के क्या मायने हैं। मोदी के संविधान व अम्बेडकर की दुहाई के बावजूद मोहन भागवत का संविधान को भारतीय संस्कृति के अनुकूल बनाने की बात करने के गंभीर निहितार्थ हैं। इनकी नजर में भारतीय संस्कृति के मायने जाति-भेद के आधार पर सत्ता व गांवों के संचालन से ही है। जहां एकलव्य से अंगूठा मांगा जायेगा और शम्बूक की हत्या की जायेगी। मोदी-योगी के नेतृत्व में संघी शासन के दमन से दलित समुदाय उद्वेलित है।
आदिवासी क्षेत्रों में संघी फासिस्टों ने उनके जल-जंगल-जमीन व खनिज को कौड़ियांे के मोल टाटाओं-कारपोरेटों-बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देने के लिए आदिवासी लोगों पर दमन बढ़ा दिया है। संविधान में पांचवी अनुसूची के तहत मिले अधिकारों को पूरी तरह छीन लिया गया है। केन्द्रीय सुरक्षा बटालियनों व सलवा जुडूम जैसे निजी सेनाओं के द्वारा उनके गांवो को जलाकर जबरन खाली कराया जा रहा है। इसलिए पांचवीं अनुसूची को लागू करने के लिए व फासिस्ट दमन के खिलाफ आदिवासी एकजुट हो रहे हैं।
हिन्दुत्व फासीवादियों के निशाने पर महिलाएं भी हैं। मनुवादी सिद्धांत के आधार पर महिलाओं को सिर्फ पुरूषों की माता, बहन, बेटी और पत्नी के रूप में ही रहना है। संविधान में किसी भी जाति-धर्म, राष्ट्रीयता में शादी करने व प्रेम विवाह करने की अनुमति व अधिकार मिलने के बावजूद संघी गिरोहांे द्वारा ‘‘लव जेहाद’’ के नाम पर लड़कियों द्वारा मुस्लिम युवाओं से प्रेम करने के अधिकार को छीना जा रहा है तथा योगी सरकार ने एण्टी रोमियों स्क्वैड का गठन करके किसी भी लड़की को किसी पुरूष मित्र, भाई, रिश्तेदार या प्रेमी के साथ रहने-चलने पर प्रतिबंध लगाने का काम किया है। पहले से ही संघी गिरोह वैलेन्टाइन दिवस पर लड़के-लड़कियों का दमन करते रहे हैं। मोदी-योगी की सत्ता के बाद इन गिरोंहों को जैसे सरकारी लाइसेंस मिल गया है। पुलिस विभाग संघी गिरोहों एबीवीपी, राम सेने, हिन्दु युवा वाहिनी, गोरक्षा दल, बजरंग दल, वीएचपी, सनातन सेने इत्यादि के इशारे पर काम करने लगा है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने लड़कियों को आदर्श भारतीय नारी के रूप में प्रशिक्षण देने हेतु दुर्गा वाहिनी का गठन किया है। इनके नजर में नारी को किचन में रहना है और हिन्दू युवा पैदा करना है। कुल मिलाकर हिन्दुत्व फासीवाद महिलाओं को मानव के रूप में एक नागरिक मानने की जगह उन्हें ‘हिन्दू आदर्श नारी बनाना चाहता है। उनका समान नागरिक संहिता भी हिन्दू नागरिक संहिता ही है।
मनुवादी हिन्दुत्व फासीवाद के हमले के सबसे बड़े निशाने शिक्षा व शोध संस्थान हैं। 2014 के बाद उसने जे0एन0यू0, रामजस कालेज, मद्रास यूनिवर्सिटी, एच0सी0यू0, पंजाब विश्वविद्यालय तथा हाल ही में बी0एच0यू0 में छात्रों-छात्राओं के ऊपर ‘‘राष्ट्रवाद’’ के नाम पर हमला बोला है। सभी शिक्षा संस्थानों में एबीवीपी को खुली छूट दी जा रही है। शोध संस्थानों, विश्वविद्यालयों के मुख्य पदों पर संघी प्रचारकों को बैठाकर शिक्षा व कालेजों/विश्वविद्यालयों का तेजी से भगवाकरण किया जा रहा है। इतिहास को  बदलने का प्रयास चल रहा है। विश्वविद्यालयों/कालेजों को पुलिस/सैनिक छावनी में बदला जा रहा है। जेएनयू में टैंक रखने की बात की जा रही है। देश की आजादी के लिए कभी भी साम्राज्यवादियों से न लड़ने वाले आज सभी छात्रों/नौजवानों/बुद्धिजीवियों व देश के नागरिकों को ‘देशभक्ति’ सीखना चाहते हैं। उनकी नजर में मुस्लिम-विरोध, पाकिस्तान-विरोध, भारत माता की जय, उठते-बैठते राष्ट्रगान गाना, वन्देमातरम् गाना, गौमाता की पूजा करना ही राष्ट्र भक्ति है। 2014 के बाद गोविन्द पानसारे की हत्या, कुलबुर्गी की हत्या, दाभोलकर की हत्या, घण्टी प्रसादम की हत्या और हाल में पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या हिन्दुत्व फासीवाद गैंगों द्वार कर दी गयी है। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि इन हिन्दुत्व फासीवादियों के खास निशाने पर जनवादी-प्रगतिशील-अन्ध श्रद्धा निर्मूलन कार्यकर्ता हैं।
हमारे देश की न्यायपालिका का पहले भी जनवादी मूल्यों, अल्पसंख्यक हितों, महिलाओं, दलित जातियांे, मजदूर-किसान वर्गो के हितों, छात्र-बुद्धिजीवी तबकों के हितों की रक्षा के मामले में कोई अच्छा रिकार्ड नहीं रहा है। परंतु सन् 2000 के बाद से और विशेषकर 2014 के बाद से इस पर संघी विचार वालों का प्रभाव बढ़ता देखा जा सकता है। गुजरात में मुस्लिमों के नरसंहार करने वाले सभी न्यायपालिका द्वारा छोड़ दिये गये हैं। राष्ट्रगान को सिनेमा हालों में गाने व उसके सम्मान में खड़े होने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हिन्दुत्व फासीवादियों के अनुकूल निर्णय आये हैं। अब न्यायपालिका में संघी मानसिकता वाले जजों की संख्या बढ़ती जा रही है। बारों में तो इनकी पकड़ बनी ही हुई है। यह विडम्बना ही है कि न्यायपालिका की नाक के नीचे ही और उसकी मौन सहमति से संविधान की मूल आत्मा धर्मनिरपेक्ष और मौलिक अधिकारों को प्रतिबंन्धित किया जा रहा है।
अखण्ड भारत और राष्ट्रीय एकता के नाम पर सेना को गौरवान्वित करने का अन्धाधुन्ध प्रचार चल रहा है। कश्मीर की जनता का दमन रोज-ब-रोज अखण्ड भारत के साथ-साथ मुस्लिम कारणों से और बढ़ता जा रहा है। दिल्ली सहित देशभर के शहरों में कश्मीरी, मणिपुरी, नागा सहित पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों/युवाओं को दमन-उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। 
मनुवादी हिन्दुत्व फासीवाद- विरोधी मोर्चे का गठन और कार्यभार
उपरोक्त विवेचना से स्पष्ट है कि वर्तमान दौर में हमारा देश मनुवादी हिन्दुत्व फासीवादियों के आतंक के चपेट में है। ऐसे में यह अत्यन्त जरूरी कार्यभार है कि इस फासीवाद के खिलाफ विशेष तौर पर तथा भारतीय राज्य के फासीवाद के खिलाफ सामान्य तौर पर संघर्षरत सभी शक्तियांे को एक मोर्चे में लाया जाये। इस मामले में यह भी स्पष्ट है कि इस फासीवाद का कारक भारत के बड़े पूंजीपतियों, भू-स्वामियों एवं उनके विदेशी आकाओं का बढ़ता वित्तीय संकट ही है। इसलिए फासीवाद के खिलाफ निर्णायक लड़ाई को मजदूर व किसान वर्ग के नेतृत्व में ही लड़ा जा सकता है। अतः मोर्चे का कोर मजदूर व किसान वर्ग से बनेगा। मोर्चे का मुख्य कार्यभार निम्नलिखित होगा-
  • यह मोर्चा मनुवादी हिन्दुत्व फासीवाद और भारतीय राज्य के फासीवाद के खिलाफ संघर्षरत सभी संगठनों/समूहों/व्यक्तियों को एकजूट करेगा।
  • यह मोर्चा मुस्लिमों सहित अल्पसंख्यकों, महिलाओं और दलितों-आदिवासियों के ऊपर संघ परिवार, मनुवादी-ब्राह्मणिक व पितृसत्तावादी शक्तियों और भारतीय राज्य द्वारा किये गये हमले का प्रतिरोध करेगा।
  • यह मोर्चा संघ परिवार और भारतीय राज्य के फासीवादी चरित्र के खिलाफ सघन प्रचार अभियान चलायेगा।
  • यह मोर्चा संघ परिवार के क्रूरतम् चरित्र को सामने लायेगा और मुस्लिमों एवं धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ नकारात्मक प्रचार का पर्दाफाश करेगा।
  • यह मोर्चा भाजपा व संघ परिवार के छद्म-राष्ट्रवाद का पर्दाफाश करेगा और साम्राज्यवाद एवं बड़े पूंजीपतियों-भूस्वामियों की सेवा करने के उसके असली चरित्र को सामने लायेगा।
  • यह मोर्चा शिक्षा जगत, अकादमियों, मीडिया और सांस्कृतिक वातावरण के भगवाकरण का प्रतिरोध करेगा और वैकल्पिक जनवादी-प्रगतिशील संस्कृति, इतिहास इत्यादि को स्थापित करने का प्रयास करेगा।
  • इस मोर्चे में मनुवादी फासीवाद एवं भारतीय राज्य के फासीवादी आतंक के खिलाफ संघर्षरत प्रगतिवादी व कट्टरता-विरोधी दलित एवं धार्मिक अल्पसंख्यक संगठन भी शामिल हो सकेंगे जो किसी धर्म मात्र के विरूद्ध न हांे।
  • यह मोर्चा धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलितों, महिलाओं एवं प्रगतिशील लोगों के ऊपर फासिस्ट गुण्डा वाहिनियों के हमले, दंगे व फासीवादी हमले के वक्त सीधे प्रतिरोध कार्यवाई के लिए विद्यार्थियों, युवा-युवतियों, मजदूरों, महिलाओं और समाज के अन्य लोगों/तबकों/वर्गों को गोलबंद करके प्रतिरोध आन्दोलन खड़ा करेगा।
  • यह मोर्चा भारतीय राज्य और भाजपा संघ परिवार सहित सभी शासक वर्गीय पार्टियों के मजदूर-विरोधी, किसान-विरोधी, जन-विरोधी, पूंजी व मुनाफा केन्द्रित विकास माडल के खिलाफ प्रतिरोध करेगा और वैकल्पिक श्रम-केन्द्रित जन पक्षधर विकास माडल का प्रचार करेगा।