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Thursday, June 24, 2021

मुझे नागरिकता-कागज़ात की जरूरत नहीं है : चार्ली चैपलिन

 


सत्ता और ताक़त का माखौल उड़ाने वाला कलाकार


हिटलर, मित्र सेनाओं या समाजवादी सोवियत संघ से हारने से पहले एक कलाकार से बुरी तरह हार चुका था. वह कलाकार था ‘सर चार्ल्स स्पेंसर चार्ली’ यानी चार्ली चैपलिन. 


1940 में चार्ली चैपलिन ने हिटलर पर अपनी मशहूर फिल्म ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ बनायी. यह उनकी पहली बोलती फिल्म भी थी. इस फिल्म में उन्होंने दुनिया के सबसे ताकतवर तानाशाह को जिस तरह से चित्रित किया उससे फासीवाद से सताए और फासीवाद से नफ़रत करने वाले लोगों को एक तरह का ‘रिलीफ’ मिला. 


इस फिल्म को कई देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया था. 


कहते हैं कि हिटलर ने अकेले में इस फिल्म को कई बार देखा लेकिन कभी हंस नहीं पाया और हार गया. तानाशाहों में हास्यबोध कहाँ होता है. आज भी हम अपने समय के तानाशाहों का अक्स इस फिल्म में देख सकते है.


चार्ली चैपलिन ने अपनी फिल्मों से कॉमेडी को एक नई ऊंचाई दी. उनका ट्रैम्प (Tramp) चरित्र उस भूखे, बेरोजगार आम आदमी का चरित्र था जो अपनी त्रासदी को कॉमेडी में बदलने में माहिर था. त्रासदी को कॉमेडी में बदलना आसान काम नहीं है. यह एक निर्मम युद्ध है. यह युद्ध वही लड़ सकता है जिसने पूंजीवादी नियति को अस्वीकार कर दिया हो. 


याद कीजिये चार्ली चैपलिन की पहली फिल्म ‘द किड’. एक लावारिस बच्चे की सरपरस्ती के लिए बच्चे और चार्ली चैपलिन की राज्य की एजेंसी से युद्ध. जहां क्षण-क्षण कॉमेडी त्रासदी में बदलती है और त्रासदी कॉमेडी में. यह क्रूर पूंजीवादी नियमों-कानूनों पर मासूमियत की जीत की फिल्म है.


जैसा की चार्ली चैपलिन खुद कहते थे, यहाँ ‘क्लोस-अप’ में त्रासदी है तो ‘लॉन्ग शॉट’ में कॉमेडी. जीवन भी तो ऐसा ही है.


1936 में आयी उनकी फिल्म ‘मॉडर्न टाइम्स’ अपने खास अंदाज में पूंजीवादी अनुशासन और उसके ‘मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट’ की धज्जियां उड़ा देती है. पूंजीवाद में इन्सान को कल पुर्जो में बदलने के खिलाफ विद्रोह है यह फिल्म. इस फिल्म पर भी कई देशों में प्रतिबन्ध लगा दिया गया था.


किसी भी मानव द्रोही व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई सबसे पहले कला के क्षेत्र में ही जीती जाती है. चार्ली चैपलिन की फ़िल्में ऐसी ही फ़िल्में है.


अपनी इसी प्रतिबद्धता के कारण उन्हें अमेरिका में मैकार्थीवाद का भी शिकार होना पड़ा.


बहुत कम कलाकार ऐसे होते है, जिनकी कला से सभी देशों की जनता अपनापन महसूस करे. चार्ली चैपलिन की फ़िल्में भी ऐसी ही है. और यह अनायास नहीं है. 


चार्ली चैपलिन खुद को एक विश्व नागरिक समझते थे. 1942 में फासीवाद के ख़िलाफ़ कलाकारों के एक सम्मेलन में उन्होंने जो कहा, वह आज भारत में देशभक्ति और नागरिकता की बहस में बहुत ही प्रासंगिक है. चार्ली चैपलिन ने उस सम्मेलन में घोषणा की — “मैं नागरिक नहीं हूं. मुझे नागरिकता-कागज़ात की जरूरत नहीं है. इस अर्थ में मैं किसी एक देश का देशभक्त नहीं हूँ. लेकिन मैं पूरी मानवता का प्रेमी हूं. मैं एक विश्व नागरिक हूँ.” 


- मनीष आज़ाद

Monday, June 21, 2021

पूंजी ही नहीं ज्ञान का इतिहास भी रक्त-रंजित है...

 



यदि आपको यह पता चले कि मेडिकल की पढ़ाई के दौरान जिस कंकाल (Skelton) की  मदद से आपको पढ़ाया जा रहा है वह उस बच्ची का कंकाल है, जिसका एक प्यारा सा नाम था और जिसे कुछ अन्य लोगो के साथ महज कुछ दशक पहले ही राज्य की पुलिस ने बम से उड़ा दिया था, क्योंकि वे काले थे और अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे थे, तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी?

कोविड-19 के दौरान इसी फरवरी में अमेरिका की पेंसिल्वेनिया (Pennsylvania) यूनिवर्सिटी में फोरेंसिक एंथ्रोपोलॉजी (forensic anthropology) के ऑनलाइन कोर्स के दौरान यही हुआ। पढ़ाने के लिए जिन हड्डियों का इस्तेमाल किया जा रहा था, उसके बारे में टीचर ने कहा कि यह अभी भी 'जूसी' (juicy) है। 

इसके खिलाफ छात्रों और ब्लैक अधिकारों से जुड़े संगठनों की तरफ से हुए प्रदर्शनों के बाद यह जानकारी आयी कि यह 'ट्री अफ्रीका' ('मूव' आंदोलन से जुड़ा हर व्यक्ति अपना सर नेम 'अफ्रीका' रखता था) नाम की उस बच्ची के कंकाल की  हड्डी थी जिसके माता-पिता काले लोगो के एक आंदोलन 'मूव' (MOVE) से जुड़े हुए थे। 'ब्लैक पैंथर' आंदोलन के खत्म होने के बाद यह आंदोलन अस्तित्व में आया था।

13 मई 1985 को अमेरिका के फिलाडेल्फिया स्थित उनके हेडक्वार्टर को करीब 500 पुलिसकर्मियों ने घेर लिया। बिजली पानी काटकर उन्हें समर्पण के लिए बाध्य किया गया। लेकिन जब 'मूव' सदस्यों ने समर्पण करने से इंकार कर दिया तो उनके घर (जो 'मूव' का हेडक्वॉर्टर भी था) को हेलीकॉप्टर से बम गिराकर नेस्तनाबूद कर दिया गया। इसमे कुल 13 लोग मारे गए, जिसमे 5 बच्चे थे। बाद में इनकी अस्थियों (Remains) को राज्य ने उनके परिवार वालों को न देकर खुद जब्त कर लिया और बाद में उसे प्रसिद्ध फिलाडेल्फिया स्थित 'पेन म्यूज़ियम' (The Penn Museum) को सौप दिया । जहाँ से उनका इस्तेमाल गोरे लोगो को 'शिक्षित' करने में किया जाता रहा। काले लोगो के न ही जीवन का सम्मान किया जाता है और न ही उनकी मौत का। उनकी मौत के बाद भी उनका शोषण जारी रहता है। मौत के बाद उनकी अस्थियां भी म्यूज़ियम में कैद रहती हैं। इस पूरे घटनाक्रम पर एक बहुत ही अच्छी डाक्यूमेंट्री देखी जा सकती है -'Let the Fire Burn'

पेन म्यूज़ियम जैसी दुनिया के तमाम म्यूज़ियम में जो हजारों की संख्या में कंकाल और हड्डियां रखी हुई हैं, वे सब गुलामों और कालों की हड्डियां और कंकाल हैं, जो आज भी अपनी सम्मानजनक विदाई का इंतजार कर रही हैं। ये म्यूज़ियम हमें मानव विकास के निर्दोष इतिहास की नहीं बल्कि बर्बर इतिहास की जानकारी देते हैं। इस विषय पर एक महत्वपूर्ण किताब 'बोन रूम्स' (Bone Rooms: From Scientific Racism to Human Prehistory in Museums) के माध्यम से आप इतिहास के इस तहखाने की एक दुखदाई यात्रा कर सकते हैं।

अभी 1 जून को कनाडा में वहां के मूल निवासियों के जिन  215 बच्चो के कंकाल मिले है, उन्हें उनके मां बाप से छीनकर एक केथोलिक होस्टल में रखा गया था ताकि उन्हें  'सभ्य नागरिक' बनाया जा सके। यहां इन बच्चो पर 'कैलोरी-प्रयोग' (calorie experiment) भी किया जा रहा था। जिसके तहत उन्हें बहुत कम भोजन दिया जा रहा था। इसी कारण उन बच्चो की मौत हुई। आज हमें कैलोरी के बारे में जो भी जानकारी है, उसके पीछे इन मासूमों की मौत को हमे नहीं भूलना चाहिए।

1994 में जब नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति बने तो उन्होंने फ्रांस से  'बार्टमन' (Baartman) नामक अफ्रीकी महिला की अस्थियां लौटाने को कहा जो फ्रांस के एक म्यूजियम में पिछले 150 सालों से कैद थी और वहाँ भी गोरे लोगों को 'शिक्षित' करने का साधन थी। नेल्सन मंडेला के इस आग्रह के बाद बहुत ना नुकुर के बाद 2002 में  'बार्टमन' की अस्थियों को वापस उनके देश दक्षिण अफ्रीका भेजा गया और 'बार्टमन' के जन्म के 200 सालों बाद उन्हें सम्मानपूर्वक दफनाया जा सका। इस घटना के बाद ही लोगों को इतिहास के इस भयावह पक्ष के बारे में थोड़ी जानकारी मिली।

अमेरिका में तो मेडिकल साइन्स का विकास और भी भयानक है। रात के अंधेरे में चोरी से कब्र से काले लोगों का मृत शरीर निकाल कर उसे चीर कर अध्ययन किया जाता था। क्योंकि गोरे लोगों का शव निकालना  तो असंभव था। इसे महापाप माना जाता था। 

आधुनिक गायनोकॉलोजी (gynecology) तो पूरी तरह गुलाम काली महिलाओं के शरीर पर हुए क्रूर प्रयोगों पर आधारित है। बड़े बड़े प्रायोगिक सर्जिकल ऑपरेशन बिना एनस्थीसिया के गुलाम-काली महिलाओं को चेन से बांधकर किया जाता था।

1932-72 के बीच काले अफ्रीकी लोगों पर किये गए  'Tuskegee Syphilis Study' को कौन भूल सकता है, जिसमे सिफलिस नामक भयंकर बीमारी से पीड़ित मरीजों का इलाज न करके उन्हें लगातार तड़पाया जाता था, ताकि बीमारी के विकास के हर चरण का अवलोकन किया जा सके। लेकिन अफसोस कि सिफलिस से पीड़ित काले लोगों को लगता था कि उनका इलाज किया जा रहा है।

सच में तमाम दवा कंपनियों ने अपनी दवाओं के एक्सपेरिमेंट के लिए कितने काले, अफ्रीकी, एशियाई लोगों की जान ली है, यह इतिहास का एक भयावह पक्ष है, जिस पर अभी बहुत कम बात  हुई है। 'हैरिएट ए वाशिंगटन' (Harriet A. Washington) की मशहूर किताब 'मेडिकल अपार्थाइड' (Medical Apartheid) में हमे जरूर इसकी एक झलक मिलती है।

जिस तरह दुनिया की तमाम दौलत और चकाचौंध हमारे खून-पसीने से है, ठीक उसी तरह दुनिया का तमाम ज्ञान -विज्ञान भी हमारे ही खून-पसीने से सींचा  गया है। 

यही दुनिया का सबसे बड़ा और अटल ज्ञान है।


#मनीष आज़ाद

'यूटोपिया' : स्थापित 'सच' के खिलाफ एक बगावती सच



‘यूटोपिया’ फिल्म इतिहास के एक ऐसे नासूर को छूती है, जिस पर आमतौर पर कोई बात करना पसंद नही करता।

 यह मुद्दा है आस्ट्रेलिया के ‘मूल निवासियों’ यानी काले लोगों का।

अमरीका की तरह ही आस्ट्रेलिया में भी यूरोपियन के आने से पहले यहाँ एक भरी पूरी सभ्यता निवास करती थी। जिन्हे जीत कर और उनकी बड़ी आबादी को मारकर ही आस्ट्रेलिया पर कब्जा किया गया था। तभी से वहां के मूल निवासी एक गुमनामी का जीवन जीते हुए गोरे आस्ट्रेलियन लोगो के तमाम अत्याचारों को सह रहे हैं। फिल्म देखकर यह समझ में आता है कि यह दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद से कही अधिक भयावह है। मजेदार बात यह है कि इस फ़िल्म के डायरेक्टर जॉन पिल्जर दक्षिण अफ्रीका में लंबे समय तक प्रतिबंधित रहे हैं। और इस प्रतिबंध का कारण था उनकी एक फिल्म जो उन्होने वहां के रंगभेद के खिलाफ बनायी थी।

दरअसल ‘यूटोपिया’ फिल्म जॉन पिल्जर की ही एक पुरानी फिल्म ‘दी सीक्रेट कन्ट्री’[The secret country] का विस्तार है। जॉन पिल्जर ने यह फिल्म 1985 में बनायी थी। ‘यूटोपिया’ फिल्म के प्रदर्शन के बाद एक इण्टरव्यू में जॉन पिल्जर ने कहा कि ‘दी सीक्रेट कन्ट्री’ बनाने के दौरान उन्हे बिल्कुल भी अनुमान नही था कि 25 साल बाद भी उन्हे इसी विषय पर फिल्म बनाने के लिए फिर बाध्य होना पड़ेगा, क्योकि स्थितियां तब से अब तक तनिक भी नही बदली है। वास्तव में इस फिल्म में पुरानी फिल्म के व्यूजुअल [visuals] का भी प्रयोग किया गया है। जिन्होने पुरानी फिल्म देखी है वे इसे महसूस कर सकते है। जॉन पिल्जर उन लोगो के पास भी जाते है जिनसे वे 25 साल पहले अपनी पिछली फिल्म के दौरान मिले थे। इन 25 सालों का उनका अनुभव यह बताता है कि स्थितियां और खराब ही हुई है। इस दौरान किसी ने पुलिस के हाथों अपना बेटा खो दिया है तो सरकारी एंजेसियों द्वारा बहुतों का बच्चा चुरा लिया गया है।

मूल निवासियों के बच्चों को चुराने की बात वहां बहुत सुनियोजित तरीके से घटित हुई। वहां के सामाजिक कार्यकर्ता इसे ‘पूरी पीढ़ी को चुरा लेने’[stealing a generation] की संज्ञा देते हैं। यह एक तरह से उनकी कौम को छिन्न भिन्न कर देने और खत्म कर देने की साजिश थी। चोरी किये हुए बच्चों को या तो गोरे लोगों के घरो में नौकर रख लिया जाता था या उन्हे किसी को गोद दे दिया जाता था।

दरअसल फिल्म की शुरुआत ही एक स्तब्ध कर देने वाले वक्तव्य से होती है। मूल निवासियों की ‘समस्या’ के समाधान के तौर पर एक खनन माफिया कहता है कि मूल निवासियों के पीने के पानी में ऐसा केमिकल मिला देना चाहिए कि उनकी प्रजनन क्षमता खत्म हो जाये। इस तरह कुछ समय बाद उनकी पूरी कौम ही खत्म हो जायेगी। फिल्म की शुरुआत में खनन माफिया का यह वक्तव्य बाद में और साफ हो जाता है जब यह पता चलता है कि जहां जहां ये मूल निवासी बसे हुए है कमोवेश वहीं पर युरेनियम के भंडार भी है। आस्ट्रेलिया में दुनिया का सबसे बड़ा यूरेनियम भंडार है। फिल्म का यह हिस्सा निश्चय ही आपको भारत की याद दिलायेगा। यहां भी आदिवासियों के खिलाफ एक जंग जारी है। और वजह वही है-खनिज सम्पदा।

जॉन पिल्जर का कैमरा जब आस्ट्रेलिया के ‘वार मेमोरियल’ में आता है तो देखकर हैरानी होती है कि यहां मूल निवासियों की तस्वीरें जानवरों मसलन हाथी, कंगारु आदि के साथ लगी हैं। जबकि गोरे आस्ट्रेलियन लोगों की तस्वीरें अलग लगी हुई हैं। यह चीज गोरे आस्ट्रेलियन लोगों की मूल निवासियों के प्रति उनकी सोच को दर्शाता है। क्या यही सोच हमारे यहां भी तमाम शहरी लोगो की अपने आदिवासी समुदाय के लोगो के प्रति नही है। इस ‘वार मेमोरियल’ में आस्ट्रेलिया द्वारा किये गये तमाम युद्धों का जिक्र है। लेकिन यहां आने वाले पहले यूरोपियनों ने जो भीषण और क्रूर युद्ध यहां के मूल निवासियों के खिलाफ छेड़ा था, उसका कहीं कोई जिक्र नही है। जॉन पिल्जर की यह फिल्म यह बताती है कि मूल निवासियों के खिलाफ यह युद्ध कभी नही रुका और बदले रुपों में यह आज भी जारी है। इस युद्ध का एक उदाहरण फिल्म में बहुत विस्तार से बताया है। 2007-08 में वहां के प्रमुख टीवी चैनल एबीसी [ABC] की तरफ से एक रिपोर्ट जारी हुई कि एक खास जगह रहने वाले सभी मूल निवासियों में उनके बच्चे सुरक्षित नही हैं क्योकि इस कौम के वयस्क ‘पेडोफिल’ [Pedophile] रोग से पीडि़त हैं और बड़े पैमाने पर ड्रग्स का इस्तेमाल करते है। ‘पेडोफिल’ से पीडि़त व्यक्ति सेक्स एडिक्ट हो जाता है और अपने आसपास के बच्चो को अपना शिकार बनाता है। रिपोर्ट को विश्वसनीय बनाने के लिए एक आदमी का इण्टरव्यू भी प्रसारित किया गया और दावा किया गया कि यह उसी कौम का आदमी है और सुरक्षा कारणों से इसका चेहरा और पहचान छुपायी गयी है। यह रिपोर्ट एबीसी न्यूज चैनल पर हमारे यहा की तरह ही 24 घण्टे दिखायी जाने लगी। इस 24 घण्टे न्यूज चैनल को जान पिल्जर ने बहुत ही सटीक नाम दिया है- व्यूजुअल च्यूनगम [visual chewing gum]।

बहरहाल इस ‘व्यूजुअल च्यूनगम’ की आड़ लेकर सरकारी एंजेसियां सक्रिय हो गयी और उस एरिया के मूल निवासियों पर पुलिस का छापा पड़ने लगा और बच्चो को बचाने के नाम पर उनसे उनके अपने बच्चे छीने जाने लगे। और उन्हे 200-300 किलोमीटर दूर के किसी अनाथालय में पहुचाया जाने लगा।

बाद में कुछ साहसी व खोजी पत्रकारों ने इस पूरे अभियान का पर्दाफाश किया और पता लगा कि यह पूरी कहानी मूल निवासियों को बदनाम करने और उन्हे उस खास जगह से हटाने के लिए रची गयी थी। क्योकि उस क्षेत्र में युरेनियम होने की संभावना बतायी जा रही थी। यह भी साफ हुआ कि इस पूरे अभियान को वहां की खनन कंपनियां प्रायोजित कर रही थी। जिस व्यक्ति को मूल निवासियों के बीच का बताकर उसका वक्तव्य लगातार प्रसारित किया जा रहा था वह सरकार का आदमी निकला और वह इस पूरे साजिश का हिस्सा था। बाद में सरकार ने तो औपचारिक माफी मांग ली लेकिन एबीसी न्यूज चैनल ने अपनी बेहयायी बरकरार रखी और कोइ बयान नही दिया। फिल्म का यह हिस्सा बहुत ही ताकतवर और स्तब्ध कर देने वाला है।

फिल्म की खास बात यह है कि यह आस्ट्रेलिया के मूल निवासियो के दुःख और दमन की ही बात नही करती बल्कि उनके प्रतिरोध को भी बहुत शानदार तरीके से रखती है। आस्ट्रेलिया में हुए ओलम्पिक खेलो के दौरान यहां के मूल निवासियों ने सुनियोजित तरीके से स्टेडियम के अंदर प्रदर्शन करके हडकम्प मचा दिया था। और तब पहली बार दुनिया को पता चला कि आस्ट्रेलिया में गोरे ही नही काले लोग भी बसते हैं। यहां हर साल ‘आस्ट्रेलिया दिवस’ मनाया जाता है। यह योरोपियनों द्वारा आस्ट्रेलिया और यहां के मूल निवासियों पर कब्जा करने का प्रतीक दिवस है। लेकिन इसी दिन मूल निवासी भी अपना विरोध दिवस मनाते हैं। और कभी कभी तो टकराव भी हो जाता है। अभी 40-50 साल पहले तक यहां के काले लोगो से गुलामों जैसा काम लिया जाता था। यहा के विगत के ‘कपास उद्योग’ और ‘कैटल उद्योग’ में बहुत कम मजदूरी पर काले लोगो को रखा जाता था। इन दोनो ही उद्योगों में काले लोगों की एतिहासिक हड़ताले हुई और फलस्वरुप स्थितियां थोड़ी बेहतर हुई। लेकिन वहां के आफिशियल इतिहास में यह सब दर्ज नहीं है।

सच तो यह है कि सुनियोजित तरीके से यहां के मूल निवासियों के प्रति हुए अत्याचारों के चिन्ह को मिटाया जा रहा है। प्रधानमंत्री ‘जान हावर्ड’ के शासन काल में यह बखूबी हुआ। 51 मूल निवासियों को फांसी पर चढ़ाने से पहले जिस जगह उन्हे रखा गया था वहा एक आलीशान होटल बना दिया गया है। उनके एक सामूहिक कब्रगाह को ‘टूरिस्ट प्लेस’ में बदल दिया गया। यह सामूहिक कब्रगाह इतिहास में हुए उनके एक सामूहिक नरसंहार का साक्षी था। उनके प्रतीक चिन्हो, उनकी संस्कृति, उनकी भाषा को सुनियोजित तरीके से नष्ट कर दिया गया है।

यह फिल्म देखकर आपको ‘हावर्ड जिन’ की याद आ सकती है। उन्होने अपनी किताब ‘पीपल्स हिस्ट्री आफ अमरीका’ में वहां के मूल निवासियों का विस्तार से वर्णन किया है। और यह सिद्ध किया है कि आज की अमरीकन सभ्यता वहां के मूल निवासियों की सभ्यता को नेस्तनाबूद करके ही खड़ी हुई है। ‘जार्ज वाशिंगटन’ और ‘जैफरसन’ की डेमोक्रैसी वहां के मूल निवासियों के लिए नही थी।

आस्ट्रेलिया की कहानी भी इससे अलग नही है।

जॉन पिल्जर भी हावर्ड जिन की परम्परा से ही आते हैं। अपनी लगभग 50 बेहतरीन डाक्यूमेन्ट्री फिल्मों में वे ऐसे ही ‘लहुलुहान सवालों’ को उठाते हैं और ‘स्थापित सत्य’ के विरोध में ‘बगावती सत्य’ को लाकर खड़ा करते हैं। उनकी यह फिल्म भी इसी परम्परा की मजबूत कड़ी है।

‘यूटोपिया’ सहित उनकी सभी फिल्में आप वीमियो [vimeo.com] पर देख सकते हैं। 


#मनीष आज़ाद

Sunday, June 20, 2021

'एरान स्वार्ट्ज’: एक गुरिल्ला इंटरनेट योद्धा




जब हम 'लिब्जन' जैसी साइट्स से अपनी कोई मनपंसद  किताब डाउनलोड करते हैं तो हम यह भूल जाते हैं कि इसके पीछे कई लोगों का जुझारु संघर्ष है। और यहां तक कि हमे इस ज्ञान के खजाने में सेंध लगाने का अवसर उपलब्ध कराने के लिए कई लोगों ने अपनी जान भी कुर्बान की है।

एरान स्वार्ट्ज (Aaron Swartz) एक कम्प्यूटर प्रोग्रामर, लेखक, राजनीतिक संगठनकर्ता और हैक्टिविस्ट थे। 2012 के अंत में अमरीकी खुफिया एंजेसी ‘एफबीआई’ ने उन्हे गिरफ्तार कर लिया था। उन पर आरोप था कि उन्होने अमरीका स्थित ‘एमआईटी इन्स्टीट्यूट’ की लाइब्रेरी से कई जीबी डाबा (यानी कई लाख किताबें) चुराया है। कुछ माह जेल में रहने के बाद उन्हे बेल मिल गयी थी, लेकिन उन पर जिन धाराओें में मुकदमा चलाया जा रहा था उसमें अधिकतम सजा आजीवन कारावास की थी। जेल में उन्हे तन्हाई में रखा गया था। जेल से आने के बाद वे डिप्रेशन में चले गये और 11 जनवरी 2013 को उन्होने आत्महत्या कर ली।

दुनिया में उनकी इमेज एक ‘हैकर’ के रूप में है। लेकिन यह उनका अधूरा परिचय है। 2014 में उन पर एक फ़िल्म 'The Internet’s Own Boy: The Story of Aaron Swartz' आयी थी।

इस फिल्म से पता चलता है कि एरान मुख्यतः एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे। इंटरनेट पर सरकार और बड़ी कम्पनियों के वर्चस्व के खिलाफ दुनिया भर में चल रही लड़ाई में वे अग्रिम पंक्ति में थे। अमरीकी में इंटरनेट पर बड़ी कम्पनियों के वर्चस्व को मजबूत बनाने के लिए जब ‘सोपा’ [Stop Online Piracy Act] जैसा कुख्यात कानून आया तो इसके खिलाफ एरान सड़कों पर भी उतरे और कई विरोध प्रदर्शनों को संगठित किया। अन्ततः सरकार को यह कानून वापस लेना पड़ा।

फिल्म के अंत में एरान जैसे लोगो का महत्व बहुत शिद्दत से समझ में आता है। जब 15 साल के वैज्ञानिक ‘जैक एन्ड्राका’ ने ‘पैन्क्रियाज कैन्सर टेस्ट’ में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की तो उन्होंने अपनी सफलता का श्रेय एरान को देते हुए बताया कि यदि एरान ने सम्बन्धित जर्नलों को हैक करके नेट पर फ्री में ना डाला होता तो मै इन जर्नलों को पैसे देकर नही प्राप्त कर सकता था (जिनकी कीमत प्रायः 10 पेज के लिए 35 डालर तक होती है)। और उस स्थिति में मै यह उपलब्धि हासिल नही कर सकता था। जैक ने आगे बताया कि सभी विश्वविद्यालय और शोध केन्द्र जनता द्वारा दिये गये टैक्स से चलते है। इसलिए इसके परिणामों पर भी जनता का ही हक होना चाहिए। लेकिन होता यह है कि वैज्ञानिक अपने शोधपत्रों को निजी प्रकाशकों को बेच देते हैं और वे भारी फीस लेकर ही इसे लोगो को उपलब्ध कराते है।

एरान स्वार्ट्ज 2007 मे बनी एक अन्य महत्वपूर्ण फिल्म ‘Steal This Film’ का भी हिस्सा थे। फिल्म के शीर्षक से ही यह स्पष्ट है कि यह कापीराइट की बजाय ‘कापीलेफ्ट’ की पक्षधर है। इसमें ‘पाइरेट बे’ जैसी फाइल शेयरिंग वेबसाइट्स और ईएफएफ [eff.org] जैसी सुरक्षा से सम्बन्धित वेबसाइट्स से जुड़े लोगों के महत्वपूर्ण साक्षात्कार हैं। 

एरान स्वार्ट्ज ने जुलाई 2008 में एक महत्वपूर्ण घोषणापत्र लिखा था। इससे आपको एरान के परिवर्तनकारी विचारों की एक झलक मिल जायेगी। प्रस्तुत है यह घोषणापत्र-


गुरिल्ला ओपन एक्सेस मैनीफेस्टो [Guerilla Open Access Manifesto]

सूचना एक ताकत है। लेकिन लोग सभी ताकतों की तरह इस ताकत का इस्तेमाल भी सिर्फ अपने लिए करना चाहते है। चंद निजी कंपनियां, किताबों और जर्नलों में प्रकाशित विश्व की समूची वैज्ञानिक और सांस्कृतिक धरोहर की ई-कापी तैयार कर रही हैं और उसे कापीराइट के बहाने सात तालों में बन्द कर रही हैं। वैज्ञानिक प्रयोगों के विख्यात शोधपत्रों को यदि आप पढ़ना चाहते है तो आपको ‘रीड इल्सेवियर'[Reed Elsevier] जैसे प्रकाशकों को बड़ी राशि देनी होगी।

इन सब को बदलने की लड़ाई भी चल रही है। ‘ओपन एक्सेस मूवमेन्ट’ ने बहादुरी से यह लड़ाई लड़ी है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वैज्ञानिक अपना कापीराइट प्रकाशकों को ना बेचे। इसके बजाय इसे इंटरनेट पर इस रूप में प्रकाशित करें कि कोई भी जरूरतमंद इसे आसानी से हासिल कर सके।

आज इन शोध पत्रों के लिए जिस राशि की मांग की जाती है, वह बहुत ज्यादा है। अपने ही सहयोगियों के शोध पत्रों को पढ़ने के लिए पैसे खर्च करने पड़ते है। कैसी अजीब बात है। समूची लाइब्रेरी का स्कैन करके उन्हे सिर्फ गूगल पर पढ़ने की अनुमति देना क्या जायज है ? वैज्ञानिक शोध पत्रों को सिर्फ विकसित दुनिया के अभिजात्य विश्वविद्यालयों में काम कर रहे लोगों को पढ़ने देना और तीसरी दुनिया के बच्चों को इससे वंचित रखना कहां का इंसाफ है। यह बिल्कुल भी स्वीकार करने योग्य नही है।

‘बहुत से लोग कहेंगे कि मैं इससे सहमत हूं। लेकिन हम क्या कर सकते है। कंपनियों के पास कापीराइट है और वे शोध पत्रों के लिए बड़ी राशि चार्ज करती हैं। और यह कानूनन सही है। हम उन्हें रोकने के लिए कुछ नही कर सकते।’ लेकिन हम कुछ तो कर सकते हैं। और यह शुरू भी हो चुका है। हम इसके खिलाफ लड़ सकते हैं।

छात्र, लाइब्रेरियन और वैज्ञानिक इस काम के लिए थोड़ा ज्यादा सक्षम हैं। आप ज्ञान की टोकरी में अपने अपने संसाधनों को पूल कर सकते हैं। निश्चित रूप से आप अपने अपने संसाधनों, ज्ञान को सिर्फ अपने तक सीमित नही रखेंगे। यह नैतिक रूप से भी ठीक नही है। आप का यह कर्तव्य है कि आप इसे दुनिया के साथ सांझा करें। आप अपने सहयोगियों के साथ सम्बन्धित पासवर्ड को शेयर कर सकते हैं और दोस्तों की डाउनलोड की मांग को पूरा कर सकते हैं।

जिन्हे ताला लगे इस ज्ञान के भवन से बाहर रखा गया है, उन्हे चुप बैठने की जरूरत नही हैं। उन्हे इसके छिद्रों से अन्दर झांककर और इस भवन की बाउन्ड्री पर चढ़कर प्रकाशकों द्वारा बन्द किये गये ज्ञान को मुक्त कराने और इसे दोस्तों के बीच सांझा करने की जरूरत है।

लेकिन यह सब काम अभी तक अंधेरे कोनो में और गुप्त तरीके से चल रहा है। इसे चोरी या पायरेसी का नाम दिया जाता है, जैसे कि ज्ञान का आदान प्रदान करना और एक जहाज को लूटना और उसके चालक की हत्या करना एक बराबर है। ज्ञान को बांटना अनैतिक नही है। बल्कि उल्टे यह एक नैतिक अनिवार्यता है। लालच से अंधा व्यक्ति ही अपने दोस्त को कापी करने की इजाजत नही देगा।

बड़ी कम्पनियां निश्चित रूप से लालच से अंधी हैं। वे जिन कानूनों के तहत काम करती हैं वे भी ऐसे ही हैं। उनके शेयर धारक भी लालच में अंधे है। इसमें कुछ भी बदलाव होने पर वे विद्रोह कर देंगे। राजनीतिज्ञों को इन्होने खरीद रखा है। इसलिए वे उनके समर्थन में ऐसे कानून पास करते हैं ताकि इसका अधिकार उनके पास रहे कि कौन कापी करेगा और कौन नहीं।

अन्यायपूर्ण नियमों को मानना न्याय नही है। अब समय आ गया है कि हम अंधेरे कोनों से निकल कर प्रकाश में आयें और नागरिक अवज्ञा की अपनी महान परंपरा के अनुसार जन-संस्कृति की इस निजी चोरी के खिलाफ अपना पक्ष घोषित करें।

ज्ञान जहां भी एकत्र हो, हम उसे हासिल करें, उसकी कापी बनायें और दुनिया के साथ उसे बांटे। कापीराइट के बाहर जो भी चीजे है उन्हे तुरन्त हासिल करें और उसे अपनी आर्काइव का हिस्सा बनायें। गुप्त डाटा बेस को खरीदकर उसे नेट पर डालने की जरूरत है। वैज्ञानिक जर्नलों को डाउनलोड करके उसे फाइल शेयरिंग नेटवर्क पर डालने की जरूरत है। हमें ‘गुरिल्ला ओपन एक्सेस’ के लिए लड़ने की जरूरत है।

पूरी दुनिया में यदि हम ज्यादा से ज्यादा संख्या में हो जाये तो हम न सिर्फ ज्ञान के निजीकरण के खिलाफ एक कड़ा सन्देश देंगे वरन् ज्ञान के निजीकरण को अतीत की वस्तु बना देंगे। क्या आप हमारा साथ देंगे।


#मनीष आज़ाद