जब हम 'लिब्जन' जैसी साइट्स से अपनी कोई मनपंसद किताब डाउनलोड करते हैं तो हम यह भूल जाते हैं कि इसके पीछे कई लोगों का जुझारु संघर्ष है। और यहां तक कि हमे इस ज्ञान के खजाने में सेंध लगाने का अवसर उपलब्ध कराने के लिए कई लोगों ने अपनी जान भी कुर्बान की है।
एरान स्वार्ट्ज (Aaron Swartz) एक कम्प्यूटर प्रोग्रामर, लेखक, राजनीतिक संगठनकर्ता और हैक्टिविस्ट थे। 2012 के अंत में अमरीकी खुफिया एंजेसी ‘एफबीआई’ ने उन्हे गिरफ्तार कर लिया था। उन पर आरोप था कि उन्होने अमरीका स्थित ‘एमआईटी इन्स्टीट्यूट’ की लाइब्रेरी से कई जीबी डाबा (यानी कई लाख किताबें) चुराया है। कुछ माह जेल में रहने के बाद उन्हे बेल मिल गयी थी, लेकिन उन पर जिन धाराओें में मुकदमा चलाया जा रहा था उसमें अधिकतम सजा आजीवन कारावास की थी। जेल में उन्हे तन्हाई में रखा गया था। जेल से आने के बाद वे डिप्रेशन में चले गये और 11 जनवरी 2013 को उन्होने आत्महत्या कर ली।
दुनिया में उनकी इमेज एक ‘हैकर’ के रूप में है। लेकिन यह उनका अधूरा परिचय है। 2014 में उन पर एक फ़िल्म 'The Internet’s Own Boy: The Story of Aaron Swartz' आयी थी।
इस फिल्म से पता चलता है कि एरान मुख्यतः एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे। इंटरनेट पर सरकार और बड़ी कम्पनियों के वर्चस्व के खिलाफ दुनिया भर में चल रही लड़ाई में वे अग्रिम पंक्ति में थे। अमरीकी में इंटरनेट पर बड़ी कम्पनियों के वर्चस्व को मजबूत बनाने के लिए जब ‘सोपा’ [Stop Online Piracy Act] जैसा कुख्यात कानून आया तो इसके खिलाफ एरान सड़कों पर भी उतरे और कई विरोध प्रदर्शनों को संगठित किया। अन्ततः सरकार को यह कानून वापस लेना पड़ा।
फिल्म के अंत में एरान जैसे लोगो का महत्व बहुत शिद्दत से समझ में आता है। जब 15 साल के वैज्ञानिक ‘जैक एन्ड्राका’ ने ‘पैन्क्रियाज कैन्सर टेस्ट’ में महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की तो उन्होंने अपनी सफलता का श्रेय एरान को देते हुए बताया कि यदि एरान ने सम्बन्धित जर्नलों को हैक करके नेट पर फ्री में ना डाला होता तो मै इन जर्नलों को पैसे देकर नही प्राप्त कर सकता था (जिनकी कीमत प्रायः 10 पेज के लिए 35 डालर तक होती है)। और उस स्थिति में मै यह उपलब्धि हासिल नही कर सकता था। जैक ने आगे बताया कि सभी विश्वविद्यालय और शोध केन्द्र जनता द्वारा दिये गये टैक्स से चलते है। इसलिए इसके परिणामों पर भी जनता का ही हक होना चाहिए। लेकिन होता यह है कि वैज्ञानिक अपने शोधपत्रों को निजी प्रकाशकों को बेच देते हैं और वे भारी फीस लेकर ही इसे लोगो को उपलब्ध कराते है।
एरान स्वार्ट्ज 2007 मे बनी एक अन्य महत्वपूर्ण फिल्म ‘Steal This Film’ का भी हिस्सा थे। फिल्म के शीर्षक से ही यह स्पष्ट है कि यह कापीराइट की बजाय ‘कापीलेफ्ट’ की पक्षधर है। इसमें ‘पाइरेट बे’ जैसी फाइल शेयरिंग वेबसाइट्स और ईएफएफ [eff.org] जैसी सुरक्षा से सम्बन्धित वेबसाइट्स से जुड़े लोगों के महत्वपूर्ण साक्षात्कार हैं।
एरान स्वार्ट्ज ने जुलाई 2008 में एक महत्वपूर्ण घोषणापत्र लिखा था। इससे आपको एरान के परिवर्तनकारी विचारों की एक झलक मिल जायेगी। प्रस्तुत है यह घोषणापत्र-
गुरिल्ला ओपन एक्सेस मैनीफेस्टो [Guerilla Open Access Manifesto]
सूचना एक ताकत है। लेकिन लोग सभी ताकतों की तरह इस ताकत का इस्तेमाल भी सिर्फ अपने लिए करना चाहते है। चंद निजी कंपनियां, किताबों और जर्नलों में प्रकाशित विश्व की समूची वैज्ञानिक और सांस्कृतिक धरोहर की ई-कापी तैयार कर रही हैं और उसे कापीराइट के बहाने सात तालों में बन्द कर रही हैं। वैज्ञानिक प्रयोगों के विख्यात शोधपत्रों को यदि आप पढ़ना चाहते है तो आपको ‘रीड इल्सेवियर'[Reed Elsevier] जैसे प्रकाशकों को बड़ी राशि देनी होगी।
इन सब को बदलने की लड़ाई भी चल रही है। ‘ओपन एक्सेस मूवमेन्ट’ ने बहादुरी से यह लड़ाई लड़ी है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वैज्ञानिक अपना कापीराइट प्रकाशकों को ना बेचे। इसके बजाय इसे इंटरनेट पर इस रूप में प्रकाशित करें कि कोई भी जरूरतमंद इसे आसानी से हासिल कर सके।
आज इन शोध पत्रों के लिए जिस राशि की मांग की जाती है, वह बहुत ज्यादा है। अपने ही सहयोगियों के शोध पत्रों को पढ़ने के लिए पैसे खर्च करने पड़ते है। कैसी अजीब बात है। समूची लाइब्रेरी का स्कैन करके उन्हे सिर्फ गूगल पर पढ़ने की अनुमति देना क्या जायज है ? वैज्ञानिक शोध पत्रों को सिर्फ विकसित दुनिया के अभिजात्य विश्वविद्यालयों में काम कर रहे लोगों को पढ़ने देना और तीसरी दुनिया के बच्चों को इससे वंचित रखना कहां का इंसाफ है। यह बिल्कुल भी स्वीकार करने योग्य नही है।
‘बहुत से लोग कहेंगे कि मैं इससे सहमत हूं। लेकिन हम क्या कर सकते है। कंपनियों के पास कापीराइट है और वे शोध पत्रों के लिए बड़ी राशि चार्ज करती हैं। और यह कानूनन सही है। हम उन्हें रोकने के लिए कुछ नही कर सकते।’ लेकिन हम कुछ तो कर सकते हैं। और यह शुरू भी हो चुका है। हम इसके खिलाफ लड़ सकते हैं।
छात्र, लाइब्रेरियन और वैज्ञानिक इस काम के लिए थोड़ा ज्यादा सक्षम हैं। आप ज्ञान की टोकरी में अपने अपने संसाधनों को पूल कर सकते हैं। निश्चित रूप से आप अपने अपने संसाधनों, ज्ञान को सिर्फ अपने तक सीमित नही रखेंगे। यह नैतिक रूप से भी ठीक नही है। आप का यह कर्तव्य है कि आप इसे दुनिया के साथ सांझा करें। आप अपने सहयोगियों के साथ सम्बन्धित पासवर्ड को शेयर कर सकते हैं और दोस्तों की डाउनलोड की मांग को पूरा कर सकते हैं।
जिन्हे ताला लगे इस ज्ञान के भवन से बाहर रखा गया है, उन्हे चुप बैठने की जरूरत नही हैं। उन्हे इसके छिद्रों से अन्दर झांककर और इस भवन की बाउन्ड्री पर चढ़कर प्रकाशकों द्वारा बन्द किये गये ज्ञान को मुक्त कराने और इसे दोस्तों के बीच सांझा करने की जरूरत है।
लेकिन यह सब काम अभी तक अंधेरे कोनो में और गुप्त तरीके से चल रहा है। इसे चोरी या पायरेसी का नाम दिया जाता है, जैसे कि ज्ञान का आदान प्रदान करना और एक जहाज को लूटना और उसके चालक की हत्या करना एक बराबर है। ज्ञान को बांटना अनैतिक नही है। बल्कि उल्टे यह एक नैतिक अनिवार्यता है। लालच से अंधा व्यक्ति ही अपने दोस्त को कापी करने की इजाजत नही देगा।
बड़ी कम्पनियां निश्चित रूप से लालच से अंधी हैं। वे जिन कानूनों के तहत काम करती हैं वे भी ऐसे ही हैं। उनके शेयर धारक भी लालच में अंधे है। इसमें कुछ भी बदलाव होने पर वे विद्रोह कर देंगे। राजनीतिज्ञों को इन्होने खरीद रखा है। इसलिए वे उनके समर्थन में ऐसे कानून पास करते हैं ताकि इसका अधिकार उनके पास रहे कि कौन कापी करेगा और कौन नहीं।
अन्यायपूर्ण नियमों को मानना न्याय नही है। अब समय आ गया है कि हम अंधेरे कोनों से निकल कर प्रकाश में आयें और नागरिक अवज्ञा की अपनी महान परंपरा के अनुसार जन-संस्कृति की इस निजी चोरी के खिलाफ अपना पक्ष घोषित करें।
ज्ञान जहां भी एकत्र हो, हम उसे हासिल करें, उसकी कापी बनायें और दुनिया के साथ उसे बांटे। कापीराइट के बाहर जो भी चीजे है उन्हे तुरन्त हासिल करें और उसे अपनी आर्काइव का हिस्सा बनायें। गुप्त डाटा बेस को खरीदकर उसे नेट पर डालने की जरूरत है। वैज्ञानिक जर्नलों को डाउनलोड करके उसे फाइल शेयरिंग नेटवर्क पर डालने की जरूरत है। हमें ‘गुरिल्ला ओपन एक्सेस’ के लिए लड़ने की जरूरत है।
पूरी दुनिया में यदि हम ज्यादा से ज्यादा संख्या में हो जाये तो हम न सिर्फ ज्ञान के निजीकरण के खिलाफ एक कड़ा सन्देश देंगे वरन् ज्ञान के निजीकरण को अतीत की वस्तु बना देंगे। क्या आप हमारा साथ देंगे।
#मनीष आज़ाद