एक समय बीमारू प्रदेश कहे जानेवाले बिहार को अचानक देश में एक मॉडल के रूप में दिखाया जाने लगा है। इसकी कुलांचे भरती आर्थिक वृद्धि दर ने पिछले दिनों में काफी सुर्खियां बटोरी हैं। नव उदारवादी विकास के रथ पर सवार बिहार सरकार ने राज्य के विकास के चमकदार दावे पेष किये हैैं। लेकिन इन दावों की हवा तब निकल जाती है जब यह सामने आता है कि लगभग 70 फीसदी लोगों को रोजगार देने वाले कृषि क्षेत्र की राज्य सकल घरेलू उत्पाद में महज 21.74 फीसदी हिस्सेदारी है। पर्याप्त जल संसाधन और काफी उपजाऊ भूमि के बावजूद कृषि में ठहराव की हालत है। खेती योग्य भूमि के लगातार दूसरे कार्यांे में हस्तांतरण और घटती उत्पादकता के बीच सरकार इस क्षेत्र से ध्यान हटाकर हॉर्टीकल्चर को बढ़ावा दे रही है जिसकी वजह से ग्रामीण व्यवस्था का संकट और गहरा गया है। इस बीच सरकार ने भूमि सुधार का भी दिखावा किया और इसके लिए एक आयोग का गठन किया। लेकिन जब इस आयोग की रिपोर्ट आई तो इस सरकार का नव उदारवादी चरित्र पुख्ता ही हुआ, जिसने रिपोर्ट को स्वीकार करने से भी मना कर दिया।
यह तो तय है कि बिहार में व्यापक जनता को बदहाली से निजात दिलाने के रास्ते में सबसे पहला कदम कृषि अर्थव्यवस्था की संस्थागत बाधाओं को दूर करना है। बिहार की गरीबी का सीधा संबंध कृषि अर्थव्यवस्था की इन संस्थागत बाधाओं से है। विभिन्न अध्ययनों ने दिखाया है कि भूमि सुधार गरीबी को कम करने में मदद करता है। विश्व बैंक के एक अध्ययन का आकलन है कि भूमि सुधार गरीबी पर सीधा प्रभाव डालता है और प्रति व्यक्ति आय में 10 फीसदी तक की वृद्धि होती है ;थॉमसन, 2003रू413द्ध। इसी तरह भारत डोगरा एफएओ के एक अध्ययन का हवाला देते हैं जिसका आकलन है कि भारत में खेती की जमीन के महज 5 फीसदी पुनर्वितरण और बेहतर सिंचाई की सुविधा ग्रामीण गरीबी को पहले के बनिस्बत 30 फीसदी तक नीचे ला सकती है। बिहार में गरीबी के मुख्य कारणों के बारे में बात करते हुए भूमि आयोग (2008) की रिपोर्ट कहती है, ‘‘यह साफ है कि भूमि मालिकाने की एक भारी असमान पैटर्न और बंटाईदारी की एक लूट वाली व्यवस्था की वजह से बिहार में संस्थागत बाधा कायम है जो कृषि विकास के रास्ते में भारी बाधा उत्पन्न कर रही है।’’ हालांकि जो विष्व बैंक भूमि सुधार से गरीबी के रिष्ते के बारे में बात कर रहा था उसी ने बिहार में भूमि सुधार की सबसे पहले मुखालफत की। दरअसल यह अब बाजारों के पक्ष में सुधार का प्रवक्ता बन गया है।
कृषि के संकट की हालत कृषि की जीडीपी में घटती भूमिका से भी स्पष्ट होती है। बिहार सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण 2010-11 के अनुसार कृषि की सकल घरेलू उत्पाद में योगदान महज 21.74 फीसदी रह गया है। इसके साथ-साथ भूमिहीनता का भी गरीबी से सीधा संबंध है। 1999-2000 में एनएसएसओ द्वारा किए गए 55वें राउंड के सर्वेक्षण के अनुसार बिहार में कुल कृषि मजदूरों का 76.6 फीसदी पूरी तरह भूमिहीन हैं। इस मामले में दलितों की हालत और ज्यादा खराब है। एनएसएसओ के इसी साल के आंकड़े कहते हैं कि कुल घरों का लगभग 23.8 फीसदी दलित पूरी तरह भूमिहीन थे। ये तथ्य स्पष्ट करते हैं कि भूमिहीनता का सीधा संबंध गरीबी से है। इसके अलावा भूमि के मालिकाने में भी भारी असमानता व्याप्त है। यह भूमि सुधार के दावों के खोखलेपन को स्पष्ट करता है। एनएसएसओ की सर्वेक्षण रिपोर्ट ;त्मचवतज 191ए 2003द्ध के अनुसार जमीन के मालिकाने वाले समुदाय के लगभग 96.5 फीसदी लोग सीमांत और छोटे किसान हैं, जिनके पास कुल जमीन का लगभग 66 फीसदी है। वहीं महज 3.5 फीसदी छोटे और मध्यम किसानों के पास लगभग 33 फीसदी जमीन है। इसमें भी बड़ी जोत वाले महज 0.1 फीसदी भूस्वामियों के पास 4.63 फीसदी जमीन का मालिकाना है। इस तरह अब भी जमीन पर भूपतियों का कब्जा है। यह हालत भी तब है जब जमींदारों को अपनी जमीन को बेनामी में रूपांतरित करने का पर्याप्त मौका मिला है। मुक्ति पूर्व चीन में 1937 के एक अध्ययन का आकलन है कि सबसे गरीब 57.2 फीसदी चीनी ग्रामीणों के पास महज 23.5 फीसदी फसल योग्य जमीन थी जबकि अमीर 2.6 फीसदी लोगों के पास 28.7 फीसदी (एस्पेक्ट्स ऑफ इंडियाज इकोनॉमी, 1)। भूमि के मालिकाने में व्याप्त असमानताओं के संदर्भ में 1937 के चीन और आज के बिहार की समानताओं का अंदाजा लगाया जा सकता है।
ऐसी हालत में भूमि सुधार ही वह पहला कदम है जिसके जरिए उत्पादक शक्तियों को मुक्त किया जा सकता है। इसके बिना विकास और कृषि उत्पादकता को बढ़ाने की कोई भी बात बेमानी होगी। वास्तविक भूमि सुधार जमीन पर सामंती और अर्धसामंती मालिकाने और सामंती-अर्धसामंती शोषण का अंत करता है। यह व्यापक जनता को न केवल आर्थिक रूप से सषक्त बनाता है बल्कि यह उनको राजनीतिक रूप से जागरूकता प्रदान करता है। यह लोकतंत्र के प्रति लोगों की जागरूकता के लिए भी जरूरी है।
वास्तविक भूमि सुधार का मतलब है गरीब और निम्न मध्यम किसानों समेत भूमिहीन किसानों को मुफ्त में जमीन का वितरण करना। भूमि सुधार जमींदार के हाथों से अतिरिक्त को मुक्त करता है। इससे किसानों की क्रयक्षमता बढ़ती है जिसकी वजह से राष्ट्रीय उद्योग के लिए बाजार का विस्तार होता है। औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि के लिए किसान आवश्यक कच्चा माल उपलब्ध कराते हैं। इससे उनके लिए रोजगार मिलता है।
इस तरह वास्तविक भूमि सुधार और राष्ट्रीय औद्योगिकीकरण दोनों ही एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और पुरक हैं। एक के बिना दूसरा असंभव है। भूमि सुधार जहां बिना राष्ट्रीय औद्योगिकीकरण के अर्धसामंती बंधनों को खत्म नहीं कर सकता है वहीं राष्ट्रीय औद्योगिकीकरण बिना भूमि सुधार के हासिल नहीं किया जा सकता। राष्ट्रीय उद्योग किसानों को उत्पादन और उपभोग के समान मुहैया कराता है तो दूसरी तरफ कृषि के मशीनीकरण की वजह से मुक्त हुए लोगों और बढ़ी हुई आबादी के लिए रोजगार पैदा करता है। इस तरह भूमि सुधार का पूरा मसला गरीबी के साथ-साथ औद्योगिकीकरण के साथ भी जुड़ा हुआ है।
1930 के दशक में बिहार में किसानों का एक संघर्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में शुरू हुआ जो आगे चल कर किसानों के एक जुझारू आंदोलन के रूप में स्थापित हुआ। उसने जमींदारी उन्मूलन की मांग को एक प्रधान मुद्दा बनाया। इसके अलावा देष के विभिन्न क्षेत्रों में अकाल और जनता के बीच भारी असंतोष से भी सरकार काफी चिंतित थी। शासक वर्ग की इस चिंता को हम इस कथन से समझ सकते है, जैसा सुनीति कुमार घोष ने लिखा है, ‘‘भारत में बढ़ रही कृषि समस्याओं से अमरीका काफी चिंतित था। खासकर चीन में क्रांति और वहां से खदेड़े जाने के बाद वह कुछ ज्यादा समझदार हो गया था। पचास के दषक की षुरुआत और फिर साठ के दषक में भारत में अमरीकी राजदूत चेस्टर बाउल्स का कहना था, ‘कम्युनिज्म को रोकने का सबसे आसान तरीका है कि लोकतांत्रिक दुनिया भूमि सुधार करे, इससे पहले कि कम्युनिस्ट भूमि सुधार के अभाव को लोकतंत्र को उखाड़ फेंकने के एक बहाने के रुप में इस्तेमाल करें‘। 1952 में वह भूमि संबंधी नीतियों के विशेषज्ञ वुल्फ लेडेजिन्सकी और प्रोफेसर केनेथ पारसंस को भारत लाया। कई राज्यों के गहन अध्ययन के बाद लेडेजिन्सकी ने कहा, ‘किसानों की कटु षिकायतें उसे 1949 में कम्युनिस्ट पूर्व चीन की षिकायतों की याद दिलाती हैं। उसने कहा कि यहां भूमि असमानताएं एषिया की अन्य जगहों जितनी ही बुरी या फिर उससे भी खराब हैं।‘‘ इस तरह इन तमाम षिकायतों ने भारत में भूमि सुधार करने के लिए षासक वर्ग को बाध्य किया।
भूमि सुधार का इतिहास
बिहार में भूमि सुधार कानूनों की पूरी श्रृंखला ही रही है। यहां 1947 में पूरे देष में सबसे पहले जमींदारी उन्मूलन कानून बना। बिहार सरकार ने यह कानून राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद की झिड़कियों को नकारते हुए बनाया। 1950 में बिहार भूमि सुधार अधिनियम पास किया गया। न्यायालय में चुनौती दिये जाने के बाद उच्चतम न्यायालय की अनुषंसा पर यह 1952 तक ही लागू हो पाया। इसमें भी जमींदारों को व्यक्तिगत खेती और खास जमीन के नाम पर अतिरिक्त जमीन रखने की छूट दी गई। इसका परिणाम यह हुआ कि ढेर सारे भूस्वामियों को रैयतों को बेदखल कर व्यक्तिगत खेती के नाम पर भूमि का बड़ा हिस्सा बचाए रखने का रास्ता मिल गया। इतना ही नहीं इसमें जमींदारों को घर, आंगन, खढ़ी, बागीचा, तालाब, पुस्तकालय और पूजागृह के नाम पर भी जमीन रखने की छूट दी गई। इसके अलावा खास जमीन (ऐसी जमीन जिसपर वे खुद या मजदूरांे से, अपने मवेषी या फिर भाड़े के मवेषी द्वारा खेती करवाते थे ) और व्यापार, हैंडीक्राफ्ट, व्यापार और स्टोरेज के लिए जमीन रखने की छूट भी दी गई। 1952 तक महज 155 जमींदारों को ही नोटिस भेजा जा सका। इस देरी को देखते हुए इस कानून में कुछ सुधार किया गया और 1959 तक ही तमाम जमींदारों को नोटिस भेजा जा सका। जमींदारी उन्मूलन कानून बनने से पहले यहां 2,05,927 एस्टेट थे। लेकिन बाद में भूमि सुधार कमेटी ने सूचित किया था कि इस अधिनियम से 4,74,000 भूस्वामी प्रभावित होंगे। सीलिंग से बचने के लिए अपने एस्टेट को जमींदारों ने कई हिस्सों में बांट दिया। एक आकलन के अनुसार जमींदार कुल जमीन का लगभग 14 फीसदी हिस्सा, लगभग 15 लाख एकड़ विषेष कैटेगरी के नाम पर बचाने में सफल रहे। दरअसल भूस्वामियों और षासक को दोनों की जाति और वर्ग समान था। जैसा कि आनंद चकवर्ती ने कहा है, ‘‘राज्य में औपनिवेषिक काल में भी भूमि के पैटर्न पर मामूली नजर डालने से भी पता चलता है कि कृषि में षोषण की निर्णायक कारक जाति थी। अधिकतर जमींदार और उनके रैयत भी उंची जाति के थे। इसमें भूमिहार, ब्राह्मण और राजपूत जातियों का बहुमत था। रैयतों का उच्च स्तर भी लगभग इन्हीं जातियों से था या फिर अन्य पिछड़ी जाति कैटेगरी वाले समूह के ऊपरी हिस्सेवाले लोगों का‘। इसके अलावा रैयतों की परिभाषा भी काफी अजीब थी। मूलतः कानूनी रूप से वे लोग रैयत थे जो कम से कम 12 साल से अधिक समय से उस जमीन पर खेती कर रहे थे। इसका मतलब यह था कि 12 साल से कम समय तक खेत पर खेती करने वाले लोग रैयत नहीं थे। इसके अलावा रैयतों के पास इसका कोई लिखित कांटैªक्ट नहीं था। इस तरह पूरा कानून ही जमींदारों के पक्ष में इस्तेमाल हुआ। जमींदारों ने अपनी जमीन बचाने के लिए बड़े-बड़े धार्मिक मठ बना दिए और अन्य कई रास्तों का इस्तेमाल किया। इस तरह नौकरषाही, जमींदारांे और षासक वर्ग के पूरे तंत्र ने सामूहिक रूप से इस सीमित सुधार वाले कानून का भी मखौल उड़ाया। जमींदारी उन्मूलन कानून के तहत सरकार ने जमींदारों को मुआवजा देकर बिचौलियों के सबसे उच्च स्तर के हित में काम किया, जबकि इसका बोझ व्यापक हद तक किसानों पर पड़ा। इस तरह जमींदारी उन्मूलन की इस पूरी कसरत ने न सिर्फ जमींदारों को अपनी जोत को बेनामी और फर्जी बना लेने का पर्याप्त मौका ही दिया बल्कि एक तरह से भूमिहीन और वास्तविक खेतिहरों के खिलाफ भी काम किया। जमींदारी उन्मूलन के दौरान मुक्त की गई जमीन को खरीदने के लिए किसानों को प्रोत्साहित किया गया। इसकी वजह से केवल अमीर किसान ही जमीन हासिल कर सकते थे और गरीब किसानों को अपनी जमीन खो देनी पड़ी। इस तरह से गरीब किसान या तो बंटाईदार या फिर कृषि मजदूर बन गए। भूमि सुधार के पहले दौर में कृषि मजदूरों की संख्या में वृद्धि में इसके संकेत मिलते हैं। इस तरह जमींदारी उन्मूलन से मूलतः उच्च किसानों और मध्य जातियों के उच्च वर्गों को ही फायदा मिला।
सीलिंग से संबंधित कानून
बिहार में सीलिंग से संबंधित कानून 19 अप्रैल, 1962 को अस्तित्व में आया। इसमें कुछ सुधार कर इसे अगस्त, 1963 में प्रकाषित किया गया। इसमें सीलिंग का निर्धारण भूमि के वर्गीकरण के आधार पर 20-60 एकड़ तक किया गया। इसमें यह भी प्रावधान किया गया कि भूस्वामी अपनी जमीन अपने बेटे, बेटियों, अपने बेटे के बेटों एवं बेटियों या अन्य दूसरे लोगों तथा ऐसे लोगों जिनको यह जमीन भूस्वामित्व के मृत्युपरांत प्राप्त होगा- को उपहार के रूप मेें प्रदान कर सकता है। इस तरह से सीलिंग कानून में भी जमींदारों को अपनी जमीन बचाए रखने के पर्याप्त मौके प्रदान किए गए। यह भी एक त्रासदी ही है कि जमींदारी उन्मूलन कानून बनने के 12 साल बाद ही सीलिंग कानून बना, वह भी इतना उदार कि जमींदार अपने हित के अनुरूप इसका इस्तेमाल कर सकें। जमींदारी उन्मूलन कानून बनने के बाद से ही जमींदारो को पता था कि अब जल्दी से सीलिंग कानून आएगा। इस दौरान जमींदारों ने अपनी जमीन बचाने के तमाम कानूनी छिद्रों का इस्तेमाल किया। सीलिंग में भी जमीन, घर, चारागाह और प्लांटेशन के नाम पर जमीन रखने की छूट दी गई थी। केंद्र सरकार की भूमि सुधार लागू करने वाली कमेटी की बैठक में 26 जून, 1964 को बिहार के तात्कालिन मुख्यमंत्री केबी सहाय ने बताया कि वे कानून की पुनर्जांच करेंगे और पुनर्वितरण के लिए पर्याप्त जमीन उपलब्ध कराने के लिए उपयुक्त उपाय किए जाएंगे। लेकिन इस कमेटी की 1966 में रिपोर्ट आने तक इसमें कोई भी प्रगति नहीं हुई थी, न ही कोई ऐसा कानून बनाया गया। हालांकि जिस मुख्यमंत्री ने इस काम पर रोक लगायी उन्होंने ही 1955 में राजस्व मंत्री के रूप में सीलिंग कानून की वकालत की थी। उसी समय इस विभाग की एक रिपोर्ट बिहार एग्रीकल्चरल लैंड (सीलिंग एंड मैनेजमेंट बिल, 1955) का कहना था, ‘‘अधिकतर भूस्वामी खुद अपनी सारी जमीनें नहीं जोतते हैं बल्कि इसके लिए वे उप-रैयतों का सहारा लेते हैं। ...ऐसी व्यवस्था जिसमें भूमि के व्यापक हिस्से पर उप-रैयतों द्वारा खेती की जाती हो, प्रभावी कृषि उत्पादन के लिए उपयुक्त नहीं है। ...अनुभव से पता चला है कि जब तक खेती करने वालों को उसका मालिकाना नहीं दिया जाता, उत्पादन के प्रति उनका लगाव एक आदर्ष बिंदु तक नहीं पहुँचता है।...यदि अतिरिक्त जमीन को जमींदारों से लेकर भूमिहीन किसानों या फिर गैर आर्थिक आकार वाले जोतदारों को बांट दिया जाता है तो यह कृषि उत्पादन को बढ़ाने में मददगार होगा।’’ख्1, लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद इस पूरी प्रक्रिया को के.बी. सहाय ने खुद ही ठंडे बस्ते में डाल दिया । भारत में योजना आयोग ने पांच जिलों के पॉकटों में जमीन पर मालिकाने की हालत को समझने के लिए 1963 में लेडेजिन्सकी को आमंत्रित किया। इन पांच जिलों में फोर्ड फाउंडेशन के सहयोग से 1960 में इंटेंसिव एग्रीकल्चरल डेवलपमेंट प्रोग्राम ;प्।क्च्द्ध की शुरुआत की गई थी। इस अध्ययन का आकलन था कि पांच जिलों में से तमिलनाडु के तंजाउर, आंध्र प्रदेश के पश्चिमी गोदावरी, पंजाब के लुधियाना और बिहार के शाहाबाद (अब भोजपुर, रोहतास, भभुआ और बक्सर) में भूमि का मालिकाना बड़े पैमाने पर असमान था और 50 फीसदी या इससे अधिक किसान पूरी या फिर थोड़े कम पट्टे पर खेती करते थे। इनमंे से अधिकतर पट्टे मौखिक थे। इनसे भारी लगान वसूला जाता था और इनको भूमि पर खेती से संबंधित कोई सुरक्षा प्राप्त नहीं थी। इस तरह भूमि सीलिंग कानून महज ‘कागजी कथन’ बनकर रह गया।ख्2,
1960 के दशक का अंतिम दौर भारी हलचल से भरा था। बिहार सहित देश के अन्य कोनों में बड़े पैमाने पर संघर्ष शुरू हो गए। इन संघर्षांे ने सरकार को फिर से कानून में संशोधन करने को बाध्य किया। 1971 और 1973 में भी इस सीलिंग कानून में सुधार कर सीलिंग को और नीचे लाया गया। इसमें 5 सदस्यों की एक परिवार को ही इकाई माना गया और सीलिंग को घटाकर 95 से 45 एकड़ कर दिया गया। इसके बावजूद यह नहीं लागू किया गया। जो जमींदार 1962 में सीलिंग कानून के तहत आ गए थे उन्हेें भी 1970 में ही नोटिस भेजा गया। पहले दौर में महज 125 भूस्वामियों को नोटिस भेजा गया। राजस्व और भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार अक्तूबर, 2007 तक राज्य में 3,67,808.24 एकड़ जमीन ली गई और 3,54,752 लाभान्वितों के बीच 2,71,138.3 एकड़ जमीन वितरित की गई। 1,07,677.25 एकड़ के 1175 मामले अभी भी अधर में हैं। इस तरह कुल अधिगृहित जमीन 4,75,485.44 एकड़़ है।
हालांकि सीलिंग के तहत आनेवाली जमीन के बारे में अलग-अलग अध्ययन हैं। 1972 में सीलिंग अधिनियम में सुधार के दौरान बोलते हुए तत्कालीन राजस्व मंत्री चंद्रशेखर सिंह ने विधानसभा में घोषणा की थी कि लगभग 18 लाख एकड़ जमीन सीलिंग के तहत वितरित करने के लिए हासिल किए जायेगी। 1970-71 की कृषि जनगणना के आंकड़ों के आधार पर नवंबर, 1990 में एक प्रषासनिक सेवा अकादमी के एक अध्ययन के अनुसार यह आंकड़ा करीब 17.76 लाख एकड़ है। इसमें 30 एकड़ सीलिंग रखी गई थी और भूमि की केवल एक ही कैटेगरी रखी गई थी। अगर झारखंड विभाजन के बाद इस अध्ययन के आंकड़े को नए बिहार के आधार पर समझें तो यह आंकड़ा करीब 17.76 लाख एकड़ का है। इस अध्ययन के लिहाज से 11.91 लाख एकड़ जमीन हासिल की जा सकती है। अब यदि इस अधिग्रहण की जा सकने वाली जमीन से वितरित जमीन की तुलना करें तो यह बिल्कुल नगण्य है। इस तरह यह कसरत भी पूरी तरह जनता के लिए एक झांसा बनकर रह गया।
जमीन का वितरण करने में भी दलितों के साथ भेदभाव किया गया। जहानाबाद में जारी तनाव और हिंसा पर वहां के जिलाधिकारी द्वारा भेजी गई एक गोपनीय रिपोर्ट के अनुसार 1986-87 के अंत तक वहां 581 एकड़ जमीन सीलिंग कानून के तहत अतिरिक्त घोषित की गई। इसमें से 428 एकड़ जमीन अधिगृहित की गई और इसे 516 परिवारों के बीच विभक्त किया गया। इसमें जहां 320 दलित परिवारों को 228 एकड़ जमीन दी गई वहीं अन्य जातियों के 216 परिवारों को 200 एकड़ जमीन प्रदान की गई। इस तरह जहां हरेक दलित परिवार को 0.71 एकड़ जमीन दी गई वहीं अन्य जातियों के लोगों को प्रति परिवार औसतन 0.92 एकड़ जमीन दी गई (इंदु भारती, ई.पी.डब्ल्यूण् 26 नवंबर, 1988)। इस तरह बिहार में नौकरशाही के अंदर के इस जातीय पूर्वाग्रह को समझा जा सकता है।
बंटाईदारी
बंटाईदारी भी भूमि सुधार से संबंधित तक महत्वपूर्ण मसला था। बिहार में यह बिहार टेनेंसी एक्ट, 1885 के तहत नियंत्रित होता था। इसके अलावा 1961 के सीलिंग एक्ट में भी इससे जुड़े कुछ प्रावधान किए गए। टेनेंसी एक्ट, 1885 के तहत किसी भी टेनंेट को जमीन पर मालिकाना हक प्राप्त हो जाता है यदि वह 12 साल तक इस पर लगातार खेती करता है। दूसरे टेनेंटों को, जो लिखित पट्टे के आधार पर जमीन प्राप्त करते हैं, समय सीमा समाप्त होने के बाद जमीन से बेदखल करने का अधिकार रैयतों को प्राप्त था। मौखिक पट्टे वाले टेनेंट्स को लगान नहीं चुकाने या फिर भूमि का उचित उपयोग नहीं किए जाने पर ही जमीन से हटाया जा सकता था ;प्उचसमउमदजंजपवद व िस्ंदक त्मवितउ त्मचवतजए ल्मंत 1966द्ध। इसी रिपोर्ट में कहा गया कि तमाम पट्टे मौखिक और कानून के अनुसार सही थे। लेकिन बंटाईदारी का कानून भी पूरी तरह विफल रहा।
योजना आयोग के भूमि सुधार निदेशक ने फरवरी, 1965 में राज्य का दौरा किया। इसके अनुसार फसल बंटवारे की प्रक्रिया व्यापक रूप से प्रचलित थी। 1961 की जनगणना के अनुसार लगभग 25 फीसदी खेती करने वाले अर्धमालिकाने वाले खेतिहर हैं और दूसरे 7.5 फीसदी पूरे तौर टेनेंट्स हैं। टेनेंसी के तमाम नियम व्यवहार में अप्रभावी हैं। टेनेंट्स को मुख्य रूप से कुल उत्पादन का आधा, कई मामलों 65 फीसदी तक भूस्वामी को दे देना पड़ता है। टेनेंट्स को लगातार बदला जाता रहता है, ताकि कानूनी रूप से खेत का अधिकार उनको न प्राप्त हो जाए । अब तक टेनेंट्स के रिकार्ड जमा करने का काम बहुत ही कम हुआ है। यहां तक कि बुझारत के नाम से 10 साल से अधिक से चलाए जा रहे अभियान में मालिकाने से जुड़े मामले की ही जांच की गई, न कि टेनेंट्स (रैयत और बंटाईदार) की। इस तरह केंद्रीय सरकार की इस रिपोर्ट से ही समझा जा सकता है कि बंटाईदारी पर मामूली कामकाज भी नहीं हुआ। यहां तक कि बंटाईदारों को रिकार्ड भी नहीं किया गया।
10 जुलाई, 1964 को बिहार सरकार द्वारा अधीन रैयतों ;न्दकमत त्ंपललंजद्ध को रिकॉर्ड करने के लिए विशेष अभियान चलाने का निर्देश दिया गया। इसे दो चरणों में पूरा किया जाना था। पहले चरण में बुझारत और अन्य रिकार्ड जमा करने थे वहीं दूसरे चरण में अधीन रैयतों का रिकार्ड जमा करना था और इसे 1 दिसंबर, 1964 से शुरू करके 31 मार्च, 1965 तक पूरा करना था। लेकिन अचानक 12 सितंबर, 1964 को बिहार सरकार ने गोपनीय पत्र जारी किया (पत्र सं॰-ैक्/208/ 64-8603) जिसमें कहा गया, ‘‘अधीन रैयतों को हटाये जाने और कृषि से जुड़े अन्य तनावों की रिपोर्ट मिल रही है। सरकार चाहती है कि रैयत और अधीन रैयतों के बीच शांतिपूर्ण संबंध बनाए रखने के तमाम प्रयास किए जाने चाहिए और कोई भी ऐसे कदम नहीं उठाए जाने चाहिए जिससे अशांति पैदा हो। इसके लिए रिकॉर्ड जमा करने का काम फिलहाल रोक देना चाहिए।’’ख्3, इस तरह सरकार ने खुद ही अधीन रैयतों के रिकॉर्ड जमा करने का काम रुकवा दिया। हालांकि इसी दौरान एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी का आकलन था कि बहुमत अधीन रैयतों के रिकॉर्ड बनाने के काम में कोई गंभीर कठिनाई नहीं है, खासकर वैसे गांवों में जहां एक बड़े हिस्से पर अधीन रैयतों द्वारा खेती की जाती है। इसी अधिकारी का कहना था कि एक बार यदि राजनीतिक स्तर पर अधीन रैयतों के रिकॉर्ड जमा करने के दृढ़ निर्णय ले लिए जायेंगे और इसका व्यापक प्रचार किया जाएगा तो प्रभावित लोगों के प्रतिरोध खुद ही कम हो जायेंगे और फिर अधीन रैयतों का सही रिकॉर्ड जमा करना संभव हो पाएगा’ ;प्उचसमउमदजंजपवद व िस्ंदक त्मवितउ च्संददपदह ब्वउउपेेपवदए 1966रू च्ंहम 51द्धख्4,।
1967 में बिहार में संयुक्त मोर्चे की सरकार बनी। इस सरकार में इंद्रदीप सिन्हा राजस्व और भूूमि मंत्री बने। उन्होंने 1964 में के.वी. सहाय द्वारा जारी किए गए सर्कुलर को रद्द करके फिर बंटाईदारों और जमीन पर मालिकाने का रिकॉर्ड जमा करने का सर्कुलर जारी किया। इसके तुरंत बाद जनसंघ ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और सरकार पर राजनीतिक संकट आ गया। इतना ही नहीं, इसने खुलेआम आह्वान किया कि बिहार के नागरिक और किसान अपने जीवन, संपत्ति और खेत की रक्षा के लिए पुलिस पर निर्भर रहने के बजाए अपने हाथ में लाठी लेकर निकलें। इस तरह यह सरकार भी इस काम को पूरा नहीं कर सकी।
अधीन रैयतों की लगातार बेदखली के बाद भी कोई शिकायत दर्ज नहीं होने की समीक्षा करते हुए डी. बंद्योपाध्याय की अध्यक्षता वाले आयोग का ठीक ही आकलन है, ‘‘बंटाईदारों को राज्य के पूरे शासन तंत्र में विश्वास नहीं रह गया है। अब उनको अहसास हो गया है कि वे व्यवस्था से कोई भी राहत हासिल नहीं कर सकते हैं, अतः वे अपना समय, श्रम और साधन इसके पीछे भागकर खत्म नहीं करना चाहते। यह संकेत खतरनाक है। यदि वे कानूनी-प्रक्रिया के जरिए अपनी शिकायतों का हल नहीं करवाते तब या तो वे अपने भूस्वामियों के खिलाफ शिकायत करने से डरते हैं या फिर उन्होेंने न्याय पाने का कोई वैकल्पिक रास्ता तलाश लिया है।’’ख्5,
जाहिर है कि भूमि सुधार के पहले के तमाम कानून महज कागजी कसरत बनकर रह गए। इसके बाद बिहार में लालू प्रसाद की सरकार ने भी भूमि सुधार के दावे किए, लेकिन वो भी सरकार बाद में मुकर गई। इसके बाद मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार की सरकार ने बाजाब्ता भूमि सुधार आयोग का गठन किया, लेकिन इसकी सिफारिशों को मानने की बात तो दूर इसकी रिपोर्ट को भी स्वीकार नहीं किया।
भूमि सुधार आयोग (2006-2008)
भूमि सुधार आयोग ने बिहार में भूमि से जुड़े सवालों का गहन अध्ययन किया और उन कमियों को दूर करने की कोशिश की जिसका फायदा जमींदार उठाते थे। इसने भूमि सुधार को लागू करने के लिए ग्राम पंचायत से लेकर भूमि सुधार आयुक्त तक का एक तंत्र भी सुझाया। इसने बंटाईदारों की रक्षा के लिए उनके रिकॉर्ड जमा करने और फिर उसे पर्चा प्रदान करने की बात करते हुए कहा कि भू-धारी तभी बंटाईदारों को हटा सकता है जब भूस्वामी व्यक्तिगत रूप से उस जमीन पर खेती करे या फिर मृत बंटाईदार के बेटे इस पर खेती करने से इनकार कर दें। बंटाईदारों के उत्पादन खर्च वहन करने की स्थिति में बंटाईदारों को उत्पादन का 70-75 फीसदी हिस्सा और भूस्वामी के उत्पादन व्यय में सहयोगी बनने की हालत मंे बंटाईदारों को 60 फीसदी हिस्सा देने की सलाह दी गई।
सीलिंग कानून में सुधार की वकालत करते हुए कहा गया कि कृषि तथा गैर कृषि भूमि के बीच अंतर खत्म किया जाना चाहिए। इसने 5 सदस्यों वाले एक परिवार के लिए 15 एकड़ सीलिंग निर्धारित करने तथा 1950 से विद्यमान मठों, मंदिर, चर्च सहित तमाम धार्मिक संस्थानों के लिए भी 15 एकड़ की सीलिंग निर्धारित की। 15 एकड़ सीलिंग मानकर आयोग ने यह निष्कर्ष निकाला कि बिहार सरकार अनुमानित रूप से लगभग 20.95 लाख जमीन हासिल कर पाएगी। रिपोर्ट कहती है कि 2001 की जनगणना के आधार पर 2007 मंे गणना करने पर लगभग 56.55 लाख कृषि मजदूर थे। इनमें से 16.68 लाख लोग सबसे निचले पायदान पर हैं। यदि एक एकड़ के हिसाब से भी इनको जमीन दी जाए तो यह आंकड़ा 16.68 लाख एकड़ तक पहुंचता है। कोई समस्या पैदा होने की हालत में इसे एक एकड़ से घटाकर 0.66 एकड़ किया जा सकता है। इसके आधार पर लगभग 10.30 लाख एकड़ जमीन की जरूरत पड़ेगी। आयोग ने बंटाईदारों को पर्चे के आधार पर बैंक से ऋण देने की भी वकालत की। आयोग का कहना है कि ‘कॉन्टेªक्ट फार्मिंग’ के सभी पहलुओं को समाहित करते हुए एक कानून होना चाहिए, ताकि किसानों विशेषकर, मध्यम, लघु तथा सीमांत कृषकांे को कॉरपोरेट संगठनोें द्वारा शोषण एवं दमन से सुरक्षा दी जा सके। जैसा कि हम बता चुके हैं, सरकार ने इस रिपोर्ट को स्वीकार नहीं किया और यह राज्य में भूमि सुधार के अधूरे अध्यायों में एक और अध्याय बन कर रह गया।
भूमि और संघर्ष
बिहार मंे किसानों के संघर्ष का गौरवशाली इतिहास रहा है। स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व मंे 30 का दशक किसानों के लड़ाकू जनसंघर्षों का दशक था। जमींदारी उन्मूलन का नारा सबसे पहले स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में किसान सभा ने ही दिया। 1947 के बाद भी कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में अलग-अलग कई भूमि आंदोलन हुए लेकिन 1970 के दषक में यह संघर्ष का मुल एजेंडा हो गया। 1960 के दशक तक साफ हो गया कि ‘जोतने वालों को जमीन’ का कांग्रेसी नारा और अन्य सरकारी कानून और कुछ नहीं बल्कि आम भूमिहीनों के साथ धोखाधड़ी हैं। 1960 के दशक के अंत तक दुनिया के स्तर पर ‘कीन्सीय अर्थशास्त्र’ का जादू भी खत्म हो रहा था। अब पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था एक नए तरह से संकट के मुहाने पर खड़ी थी। इसने भूमिहीन मेहनतकषों के संकट को और बढ़ाया। इसी दौर में 1967 में कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच बहस ने एक नया अध्याय देश के आंदोलन में जोड़ दिया। सीपीआई (एम) के अंदर ही चारू मजुमदार के नेतृत्व मंे एक नई बहस शुरू हुई और इसने भारतीय कृषि को अर्धसामंती करार दिया। इस तरह ‘जमीन जोतनेवालांे की’ के नारे को बलपूर्वक लागू करने की एक नई दिशा सामने आई। बंगाल के नक्सलबाड़ी में भूमिहीन किसानों ने जमींदार के खेत पर कब्जा किया। यह संघर्ष पूरे देश के कई हिस्से में फैल गया। बिहार के मुसहरी और पुनपुन में भी भूमिहीनों ने जमींदारों की फसलों पर कब्जा करना शुरू कर दिया। इस दौरान जमींदारों का सामाजिक बहिष्कार संघर्ष का एक महत्वपूर्ण पहलू था। इसके साथ-साथ सीलिंग से अधिक जमीन, गैरमजरूआ जमीन पर भी दलित-भूमिहीनों ने कब्जा करना शुरू किया। यह संघर्ष फिर भोजपुर के एकवारी तक फैला। एकवारी में यह संघर्ष सामंती उत्पीड़न के खिलाफ शुरू हुआ। नक्सलवादी आंदोलन के नाम से चर्चित इस आंदोलन ने समाज के अर्धसामंती आधार और इसकी अधिरचना दोनों पर बलपूर्वक प्रहार शुरू किया। यह संघर्ष पटना, भोजपुर, मुजफ्फरपुर और कुछ अन्य जिलों में जंगल के आग की तरह फैल गया। सामंती उत्पीड़न पर करारे प्रहारों से एक तरफ भूमिहीन दलितों ने राहत की सांस ली तो दूसरी तरफ उन्होंने एक नई तरह की आजादी महसूस की। अर्धसामंती ताकतों ने अपने बाहुबल से इस आंदोलन को कुचलने की कोशिश की लेकिन भूमिहीन मेहनतकषों ने इसका हथियारबंद प्रतिकार किया। इसके बाद सामंतांे ने संगठित प्रतिक्रिया शुरू की। पुलिस और प्रशासन की मदद से भी गरीबों पर भारी अत्याचार किया गया। संघर्ष का नेतृत्व करने वालों को पकड़कर फर्जी मुठभेड़ में मार दिया गया। इस भारी दमन की वजह से 1970 के मध्य तक यह आंदोलन कुछ कमजोर पड़ गया। हालांकि इस पूरे आंदोलन से भूमिहीनों में एक नई तरह की लोकतांत्रिक चेतना का विस्तार हुआ।
इस नई तरह की जनवादी चेतना ने इस प्रतिरोध को फिर से संगठित करने में मदद की और 1980 के दशक की शुरुआत से ही यह संघर्ष पुनः भोजपुर, पटना, जहानाबाद (तत्कालीन गया) तथा गया जिले के कई पॉकेटों में सामंतवाद विरोधी संघर्ष के रूप में संगठित हो गया। इसने ग्रामीण इलाकों मेें सामंती प्रभुत्व पर एक मजबूत चोट की। इसके बाद सामंती शक्तियों ने संगठित होकर कई निजी सेनाएं गठित कीं। इन्होंने प्रशासन की सक्रिय मदद से दलितों पर अपना हमला जारी रखा। इसी दौरान 1987 में पुलिस ने जहानाबाद जिले के अरवल में एक शांतिपूर्ण सभा को घेरकर गोलियां चलाईं। इसमें 23 लोग मारे गए और करीब 60 से अधिक लोग घायल हुए। इसे ‘आजाद’ भारत का दुसरा जालियांवाला बाग कहा गया। जब जमींदारों और पुलिस का गठजोड़ इस आंदोलन को कुचलने में सफल नहीं हुआ तो सामंती निजी सेनाओं के जरिए भूमिहीन दलितों का नरसंहार किया गया। शासक वर्ग ने इस पूरे संघर्ष को महज जातीय संघर्ष के रूप में प्रचारित किया। लेकिन वास्तव में यह एक वर्ग संघर्ष था, इसलिए कि बिहार के ग्रामीण इलाकों में जाति और वर्ग के बीच विभाजन रेखा बहुत पतली है।
किसानों का कहना था कि पट्टे पर खेत लेने की होड़ की वजह से यह राशि बढ़ती जा रही है। पट्टे की राशि में वृद्धि का मामला सिंचित और असिंचित दोनों क्षेत्रों में आम है। यहां तक कि इन इलाकों में गैर-मजरूआ जमीन पर अभी भी भूस्वामियों का कब्जा बरकरार है। इसी अध्ययन के दौरान भोजपुर के एक गांव से गिरफ्तार कर मुझपर फर्जी मुकदमा लगा दिया गया था।
ये तथ्य यह बताते हैं कि प्रतिरोध कमजोर पड़ने की वजह से भूस्वामी न केवल कब्जा की गई जमीन को पुलिस की मदद से वापस छीन रहे हैं बल्कि वे पर्चाधारियों की जमीन पर भी काबिज हो रहे हैं। यह तथ्य दिखाता है कि भूमि सुधार का सीधा संबंध राजसत्ता के सवाल के साथ जुड़ा हुआ है।
भूमि सुधार और राजसत्ता
अब तक के अनुभवों से साफ पता चलता है कि भूमि सुधार का सवाल सीधे तौर पर राजसत्ता के सवाल के साथ जुड़ा हुआ है। कानून दर कानून बनते रहे लेकिन जनता की बदहाली में कोई बदलाव नहीं हुआ। कानून बनानेवालों ने ही कानून लागू करने में कोई दिलचस्पी नहीं ली बल्कि इसको रोक दिया। भूमि सुधार कानून या फिर न्यूनतम मजदूरी के भुगतान से जुड़े कानून को, जिन्हें सैद्धांतिक रूप से कमजोर वर्गोें के हितों को ध्यान मंे रखकर बनाया गया था, जान-बूझ कर लागू होने से रोका गया। क्योंकि इससे राज्य के राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों के अंतर्निहित स्वार्थ जुड़े थे। जहां भी निम्न वर्गाें को उनके हितों के लिए बनाए गए कानून को लागू करने के लिए राजनीतिक रूप से गोलबंद किया गया, उनके ऊपर दबंग जातीय गिरोहों और पुलिस द्वारा संयुक्त रूप से बर्बर दमन किया गया। ;म्च्ॅए ।चतपस.28ए 2001द्ध। इतना ही नहीं भूस्वामियों की निजी सेनाओं के साथ नौकरशाही और राजनीतिज्ञों के रिश्तों की बात के खुलासे की वजह से अमीरदास आयोग की रिपोर्ट को भी नीतीश सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया। सामंती निजी सेनाओं से तमाम राजनीतिक दलों के संबंध उजागर हुए। इतना ही नहीं तमाम शासक वर्गीय पार्टियों ने भूमि सुधार के मामले की मुखालिफत की। पुलिस-प्रशासन न केवल जमींदार के हितैषी के रूप में काम करते रहे, बल्कि सामंती निजी गिरोहों को प्रोत्साहन भी देते रहे। शासक वर्ग की यह एक महत्वपूर्ण राजनीति थी। ‘दरअसल ये तमाम सामंती निजी गिरोह राजसत्ता के ही एक मजबूत औजार थे। षासक वर्ग और राज्य के बीच का अलगाव बुर्जुआ तंत्र का चरित्र है और बिहार में यह हासिल होने से काफी दूर है। यहां जमींदार न केवल षासक वर्ग हैं बल्कि अपने आदेषों को मनवाने के लिए राज्य मषीनरी पर काबिज हैं। वे राज्य का हिस्सा हैं या फिर उसका विस्तार हैं। बिहार में राज्य मषीनरी में न केवल आधिकारिक तंत्र षामिल है, बल्कि जमींदारों और उनके हथियारबंद गिरोहों के .गैर आधिकारिक औजार हैं‘ख्6,
दरअसल अंग्रेजों ने कृषि से संचय के लिए एक तंत्र बनाया था। हमें ध्यान रखना चाहिए कि किसी खास तरह के संचय के लिए एक खास तरह के राजनीतिक तंत्र की जरूरत होती है। यह राजनीतिक तंत्र भी फिर उस खास तरह के संचय को बनाए रखने में मदद करता है। भारत से अंग्रेजों के जाने के बाद कृषि में उत्पादन संबंध अर्धसामंती बने रहे। इसके साथ ही साथ औपनिवेषिक षोषण अब अर्ध-औपनिवेषिक ढांचे मंे ढल गया। इस तरह से पुराने उत्पादन संबंधों को कायम रखते हुए अंग्रेजों ने खुद अपने साम्राज्यवादी हित भी बरकरार रखे। अब चूंकि नए राजनीतिक तंत्र (जो अपनी अंतर्वस्तु में पुराना है) के लिए भी उसी पुराने कृषि उत्पादन संबंध को बरकरार रखना जरूरी था, इसलिए इसने विद्रोह के दबाव में कानून तो बनाए लेकिन इसे कभी लागू नहीं किया। इस तरह ग्रामीण इलाकों में कुछ मामूली बदलावों के साथ बुनियादी रूप से पुराने षोषण तंत्र को ही बरकरार रखा गया।
भूस्वामी खेतांे से बड़ी मात्रा में अधिषेष वसूलते हैं और फिर इसे बड़े पूंजीपतियों के हवाले करते हैं। इसका कारण यह है कि भूस्वामी उत्पादन के तमाम साधनों के आयात पर निर्भर हैं। इस तरह खेती से उत्पादित अधिषेष पूंजी के रूप में आयात-निर्यात उद्योग का एक औजार बनता है। इसी प्रकिया में साम्राज्यवादी ताकतें भी अपना हिस्सा ले जाती हैं। इस तरह जमींदार बड़ी पूंजी के एक सहयोगी के रूप में ही काम करते हैं। अर्धसामंती ताकतें यानी धनी किसान, ग्रामीण सूदखोर और वैसे जमींदार जो कृषि उपकरणों के जरिए ग्रमीण अधिषेष हड़पते हैं, ग्रामीण इलाकों में अर्धसामंती षर्तों से जुड़े हैं। ग्रामीण इलाकों में इस तरह एक नए तरह के जमींदार पुराने जमींदारों की जगह ले रहे हैं जो रोब-दाब में वैसे ही सामंती हैं। इसे हम बिहार में पिछले 20 सालों में ग्रामीण इलाकों में देख सकते हैं।
1947 के बाद तमाम पार्टियों की सरकारें बनीं। पिछड़े और दलितों के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले लोग भी सत्ता में आए लेकिन तमाम लोग एक ही लीक पर चलते रहे। यहां तक कि भूमि सुधार आयोग की रिपोर्ट के खिलाफ तमाम षासक वर्गीय पार्टियां न केवल एकजुट हो गयीं बल्कि दलित और पिछड़ों के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले भी ऊंची जातियों को गोलबंद करने में जुट गए। यह भूमि सुधार के खिलाफ षासक वर्गीय पार्टियों की गोलबंदी को साफ करता है।
दरअसल किसानों की बदहाली की एक मुख्य वजह अर्धऔपनिवेषिक और अर्धसामंती षोषण का बरकरार रहना है। अर्धऔपनिवेषिक परिस्थिति अर्धसामंती संबंधों को बरकरार रखती है। इसलिए अर्धऔपनिवेषिक परिस्थिति में अर्धसामंतवाद का खात्मा संभव नहीं है। इसका मतलब यह है कि जमींदार, साम्राज्यवादी ताकतों और बड़ी पूंजी की सत्ता इस पूरे षोषण तंत्र का नियंत्रण करती है और बनाए रखती है। ऐसे में बड़ा सवाल सामने आता है कि क्या षासक वर्ग खुद अपने ही हितों के खिलाफ काम करेगा? जाहिर है कि नहीं करेगा। भूमि सुधार के प्रति षासक वर्ग का पूर्वाग्रह इस बात को साबित करता है।
इसके साथ-साथ यह भी समझने की जरूरत है कि सरकार को भूमि सुधार से आपति नहीं है बल्कि उसे भूमिहीनों को जमीन देने से आपत्ति है। बड़े कॉरपोरेषन और बड़ी पूंजी के पक्ष में भूमि सुधार करने में उसे कोई दिक्कत नहीं है। वे लगातार निगमों की राह में रुकावट बनने वाले तमाम कानूनों को रद्द कर उन्हें जमीन देने में अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं। हाल में फारबिसगंज में फायरिंग की घटना भी इसको स्पष्ट करती है।
इसके साथ-साथ, अकेले भूमि सुधार भी भूमिहीनों की बदहाली को दूर नहीं कर सकता। साम्राज्यवादी नीतियों की वजह से खेती का संकट सर्वव्यापी है। इसलिए एक राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का निर्माण भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसमें किसानों को सिंचाई और उत्पादन के अन्य लागतों की उचित व्यवस्था हो। जहां तक षासक वर्ग की दमनकारी भूमिका और निजी सेनाओं का सवाल है तो मजदूर और किसानों का उत्पीड़ित तबका जब तक ऐसी मांगें पेष नहीं करता जो षासक वर्गों के हितों के खिलाफ हांे तब तक राजसत्ता जनता के लिए एक षांतिपूर्ण संस्था के रूप में काम करता है। लेकिन जैसे ही षोषित वर्गों की मांगें षोषक वर्ग के हितों के साथ टकराव में आती हैं, यहां तक कि मजदूरों या फिर किसानों के षांतिपूर्ण प्रतिरोधों में भी षामिल होने पर षासक वर्ग अपने असली रूप में सामने आ जाता है। विभिन्न कानूनों के जरिए भी राजसत्ता संघर्षरत जनता को षांत रखने में असफल होती है तो षोषक वर्ग निजी सेनाओं या फिर निजी गिरोहों द्वारा बर्बर दमन का सहारा लेता है। यह बिहार के ग्रामीण इलाकों में सर्वविदित है। दरअसल हमेषा से ही कानूनों को जनविद्रोहों को षांत करने की सहयोगी भूमिका के रूप में ही इस्तेमाल किया जाता रहा है। इसको हम भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा कांग्रेस के नागपुर अधिवेषन में दिए गए भाषण से भी समझ सकते है। उनका कहना था कि ‘हालांकि सीलिंग को लागू करने से जमींदारों का एक बहुत छोटा हिस्सा ही प्रभावित होगा, और इसके व्यावहारिक लाभ बहुत नहीं हैं, लेकिन इसके भावनात्मक लाभ बहुत अधिक हैं।’ख्7,
ये तमाम तथ्य इसकी तरफ इषारा करते हैं कि भूमि सुधार का कोई भी कानूनी रास्ता संभव नहीं है। जनता के संघर्ष ही भूमि सुधार के लिए रास्ता साफ कर सकते हैं। इसके साथ-साथ संघर्ष की बदौलत ही वे जमीन का मालिकाना हासिल कर सकते हैं। इसके लिए जरूरी है कि भूमि के लिए संघर्ष का विस्तार राजसत्ता के सवाल तक किया जाए। एक सही मायने में स्वत्रतंत्र और आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था ही गरीबों की बेहतरी का रास्ता प्रषस्त कर सकती है।
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[1][1] " most of the landholders do not cultivate all their
lands themselves and employ sub tenants to bring the same under
cultivation...... Such an arrangement by which large areas of land are
cultivated through sub tenants is not conducive to efficient agricultural
production. It has been found by experience that unless the land is owned by
the tiller, his incentive to production does not reach the optimum point......
If surplus lands are taken away from the landholders and distributed to
landless workers or holders of uneconomic fragments it will contribute to
efficiency in agricultural production" [Statement of Objects and Reasons:
Bihar Agricultural Lands (Ceiling and Management) Bill, 1955.]
[3][3]
Reports have been received about the eviction of under-raiyats and other agrarian
disturbances. Government desire that every effort should be made to maintain
peaceful relations between the raiyat
and the under-raiyat and requisite steps should be taken to avoid any action
which may give rise to disorder. In order to achieve the same, the collection
of details to that extent should be kept in abeyance
[4][4]
There should be no serious difficulty in recording the majority of under-raiyats, particularly in
villages where substantial areas are cultivated by them. I am of the view that
once a firm decision is taken at political level for recording under-raiyats,
and it is made widely known, agitation by affected interests may itself subside
and the preparation of a fairly accurate record of under-raiyats become
possible
[5][5]
bataidars have lost faith in the
whole system of governance in the state. They are, perhaps, convinced that they
could get no relief from the system and therefore, they did not want to waste
their time, labour and resources chasing a mirage. Portents are dangerous .If
they did not want to redress their grievances through the legal process, then
either they are so afraid and oppressed that they did not dare file any
complaint against their lord and masters- the landowners or they have found out
some alternate source where they could find some rough and ready justice.
(Bihar land reform commission-2008, page 52)
6 The separation
between ruling classes
and state, characteristic of
a bourgeois system, is
far from being
achieved in Bihar.
Land- lords are not
just a ruling
class, getting the
state,machinery to do
their bidding, but
are themselves part of, or
extensions of, the state.
The state machinery
in Bihar comprises not
only its official apparatus,
but also the non-official
apparatus of landlord and
their armed gangs
(militias formed by dominant
castes)... (Quoted in Anand Chakravati Economic and Political Weekly April
28, 2001)
7 ‘...though the imposition of ceilings would affect only an
infinitesimal minority of landlords, and though its actual practical gains
would not be much, the sentimental gains would be tremendous.’ lquhfr dqekj ?kks’k n~okjk mn~/k`r]
Imperialism’s Tightening Grip on Indian Agriculture, 1998, Pp11-12
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