जिसको लेकर यूएपीए के खिलाफ उनके सहपाठियों एवं अन्य साथियों द्वारा देश - विदेश भर में कम्पैन चलाया जा रहा है ...............
मेरे कानूनी मसलों और जरूरतों के विषय में समस्त जानकारी आप मेरे अधिवक्ता शिव प्रसाद सिंह से ले सकते हैं। ये उपलब्ध हैं इस फोन नंबर परः $91 8303481839; और इस ईमेल आईडी परःshivpsingh@gmail.com
-प्रशान्त राही
मेरे कानूनी मसलों और जरूरतों के विषय में समस्त जानकारी आप मेरे अधिवक्ता शिव प्रसाद सिंह से ले सकते हैं। ये उपलब्ध हैं इस फोन नंबर परः $91 8303481839; और इस ईमेल आईडी परःshivpsingh@gmail.com
-प्रशान्त राही
प्रिय दोस्तों,
संघर्षों से भरपूर एक नये साल की शुरूआत पर हार्दिक अभिनन्दन ! दुनिया भर में नागरिक (संवैधानिक) और जनवादी अधिकारों पर कुठाराघात का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। पुलिस जुल्म हमारे यहाँ एक आम नियम सा बन गया है, जबकि कुछ देशों में पुलिस की बर्बरता अपवाद होने के कारण अधिक चर्चा का विषय बन जाती है, लेकिन गौर करने की बात है कि भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में आतंकवाद-निरोधक कानूनों के चलते, उन कानूनों के चलते पुलिस जुल्म गंभीर हो गया है जो अमेरिका के सीने पर हुए 11 सितम्बर 2001 के प्रहार की प्रतिक्रिया के रूप में बने थे। जबकि 11 सितम्बर 2001 की प्रतिक्रिया में इराक और अफगानिस्तान में अमरीकी साम्राज्यवाद की जो आक्रमणकारी मुहीम चल पड़ी थी, अब वापस लिये जाने की दिशा में आगे बढ़ रही है। फिर भी पिछले 10-12 सालों से अस्तित्व में रहे ये निरंकुश कानून जस के तस रह गये हैं। जी हाँ, ....... बात यूएपीए अर्थात् विधिविरूद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम की हो रही है। यूँ तो यह कानून जब 1967 में बना था तब भी अनावश्यक था, क्योंकि हमारे देश में किसी भी गंभीर राजनैतिक प्रतिरोध और विकल्प को दबाने के लिए औपनिवेशिक गुलामी की देन भारतीय दण्ड संहिता अपने आप ही पर्याप्त दमनकारी रही है। लेकिन 2004 में यूएपीए में जो ‘आतंकवाद’ पर नयी परिभाषा के साथ नया अध्याय जोड़ दिया गया (जिसे मिनी-पोटा कहा जा सकता है), और फिर 2008 में हमारे यहाँ की 26 नवम्बर की घटना के बाद उसकी आड़ में यूएपीए में फिर बड़े जबरदस्त संशोधन करके लगभग पोटा जैसी ही स्थिति में पहुँचा दिया गया। इसी कानून के तहत मेरी दोबारा गिरफ्तारी और हिरासत में यातना और उसके पहले गिरफ्तार हुए हेम मिश्रा की यातना का जो मसला आज एक मुद्दा बना है और अखबारों से हमें आपकी ओर से हजारों-हजार चिट्ठियाँ महाराष्ट्र शासन और पुलिस को भेजे जाने की जानकारी मिली है, साथ ही हमारे उत्तराखण्ड के मुकदमें और 2007 की यातनाओं से सम्बन्धित अधिकारियों को दण्डित करने की आपने मांग की है, उस सब की भावी दिशा क्या हो, वास्तव में हमें आपकी ओर से किस तरह की मदद की जरूरत है, इस सबके विषय में मेरा यह पत्र है।
शुरूआत में कुछ ब्यौरा, जरा-सा लम्बा ही, हमारे इसी मौजूदा जुल्म के तजुर्बे के बारे में और अन्त में हमारे निष्कर्ष पेश हैं-
शुरूआत में कुछ ब्यौरा, जरा-सा लम्बा ही, हमारे इसी मौजूदा जुल्म के तजुर्बे के बारे में और अन्त में हमारे निष्कर्ष पेश हैं-
1. अहेरी में हम पर दाखिल हुआ है अपराधिक मुकदमा क्रमांक 3017/2013, जिसमें आरोप-पत्र अभी तक नहीं आया है। दरअसल हमारी गिरफ्तारी के बाद 6 महीने, जी हाँ, पूरे 6 महीने तक इसके लिए इन्तजार करना पड़ने वाला है। 2008 के बाद के यूएपीए आरोपितों के साथ ऐसा ही होता है। इस कानून की धारा 43 के आगे धारा 43;कद्ध जो जोड़ी गयी है, जिसकी उपधारा 2 में बिना आरोप लगाये ही 6 महीने तक जेल में बन्द रखने की छूट दी गई है, पुलिस को। गड़चिरोली जिले की पुलिस इस छूट को भला क्यों न प्रयोग में लाये ? इस पिछड़े, महाराष्ट्र के, जिले की अति-पिछड़ी, आदिवासी-बहुल, दूरस्थ तहसील अहेरी में तो पुलिस अपने हर विशेषाधिकार का भरपूर इस्तेमाल करती है। ‘‘आन्तरिक सुरक्षा’’ के नाम पर गड़चिरोली के इस तरफ के हिस्से को ‘‘पुलिस जिले’’ का दर्जा प्राप्त है। यानि जिला प्रशासन, ‘‘विकास कार्यों’’, न्यायपालिका आदि पर हक़ीक़त में पुलिस अधिकारियों का ही नियंत्रण है। यहाँ के कस्बों और सड़क किनारे के गाँवों पर इनका वैसा ही बोलबाला दिखायी देता है जैसा कि गुलाम देश पर आधिपत्य जमायी हुई किसी सेना का। कमाण्डो पुलिस, आरक्षित बल, सी.आर.पी.एफ. और उनका पूरा तामझाम। इस पर यहाँ तैनात होने वाले अधिकारियों को आउट-आफ टर्न (समय से पहले) पदोन्नति व डेढ़ गुना अधिक वेतन एवं भत्ते प्राप्त हैं। जिसकी पूर्ति हम सबकी गाढ़ी कमाई से ही होती है। स्थानीय आबादी के ये नये सामन्त बन बैठे हैं। यहाँ तक कि इस पूरे क्षेत्र के तीन-चार जिलों के प्रायः सभी पत्रकार इन्हीं अधिकारियों के जन-विरोधी युद्ध की प्रचारात्मक और मनोवैज्ञानिक जरूरतों की पूर्ति करते देखे जाते हैं। इनमें से एक-दो तो मानो इनके जरखरीद गुलाम ही हों। या फिर राष्ट्रीय व स्थानीय अखबारों के संवाददाता के वेश में पुलिस के प्रवक्ता ! और यहाँ जारी युद्ध, जिसका घोषित लक्ष्य ‘‘वामपन्थी उग्रवाद’’ का सफाया है, उन ‘‘जन मुक्ति’’ छापामारों को आमने-सामने की जंग में शायद ही कभी उलझा पाता है। छापामार यहाँ की आदिवासी आबादी के बीच घुलते-मिलते, भोजनादि जुटाते व संगठित करते हैं। हाथ नहीं लग पाते हैं। जिसका बदला उतारते हुए पुलिस गांव के आदिवासियों को चुन-चुनकर कानून के शिकंजे में फाँसती है और छापामारों में किसी के घर वापस लौट जाने या कमजोर पड़ जाने की खबर मिलते ही उन्हें पाला बदलकर अपना कारिन्दा बनाने की कवायद शुरू हो जाती है। इसी को यहाँ ‘सरेण्डर’ कहा जाता है। इस पूरी रणनीति को चलाने के लिए हम नागरिक अनजाने ही भारी मात्रा में अपना धन दे बैठते हैं। अहेरी इसी गड़चिरोली के विख्यात काउण्टर-इन्सरजेन्सी आपरेशन का एक आधार-क्षेत्र है। और इसी पुलिस ने हमें बाहर से उठाकर गैर-कानूनी तरीके से यहाँ लाया। एक के बाद एक दस दिन तक हुई कुल 5 लोगों की गिरफ्तारी। जिनमें दिल्ली व उत्तराखण्ड के सुदूर शहरी क्षेत्रों के होने के कारण सनसनीखेज खबरों के सिलसिले को किसी रचे-रचाये एक्शन ड्रामा के अन्दाज में चलाया गया और क्लाइमैक्स हुआ दिल्ली में, जब देश भर के अनेक पुलिस प्रमुखों की केन्द्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे की अध्यक्षता में हुई सभा में गड़चिरोली को नक्सल-विरोधी ‘‘एरिया डॉमिनेशन’’ रणकौशल के ‘‘रोल-मॉडल’’ की हैसियत अदा कर यहाँ के पुलिस अधीक्षक, हाल ही में अमेरिका, आदि की यात्रा कर आये सुवेज हक़ को नायक का दर्जा दिया गया। महाराष्ट्र और दिल्ली से लेकर उत्तराखण्ड तक कांग्रेस-नीत सरकारों की उपस्थिति की स्थिति में सम्बन्धित सारी पुलिस और खुफिया एजेन्सियों को जन-आन्दोलन के कार्यकर्ताओं के जो यात्रा-विवरण अपने छुपे हुए सूत्रों व साधनों से प्राप्त होता रहता है उसका, जाहिरा तौर पर, बखूबी दुरूपयोग किया गया ! इस तथ्य को उजागर ही नहीं होने दिया गया कि 2 सितम्बर 2013 को मुझे अपने 2007 के मुकदमा अपराध संख्या- 3222/2007, सत्र परीक्षण संख्या- 83/2008 की निर्धारित अन्तिम अभियोजन गवाही की अत्यावश्यक सुनवाई पर हाजिर होने के लिए वापस उत्तराखण्ड लौटना था !!
2. इसी 2 सितम्बर को मुझे हेम मिश्रा, आदि के खिलाफ हाल ही में दर्ज मुकदमा अपराध संख्या- 3017/2013 में वहाँ वे विवेचना अधिकारी सुहास बावचे के मार्फत अहेरी के मजिस्टेªट न्यायालय में पेश किया गया।
3. पुलिस उपाधीक्षक सुहास बावचे ने न्यायालय की आँखों में धूल झोंकते हुए यह दावा किया कि मुझे पड़ोस के गोन्दिआ जिले के एक स्थान से गिरफ्तार किया गया है जबकि महाराष्ट्र के इस क्षेत्र में न तो मेरी आने की कोई योजना थी और न ही मैंने इस क्षेत्र को टेªन से गुजरने के अलावा करीब से कभी देखा था। फिर अपनी गिरफ्तारी के स्थान तक मैं कैसे पहुँचता ?
4. वास्तव में मैं सर्वथा निरीह अवस्था में सड़क पर किसी बस या ऑटो का इन्तजार कर रहा था- महाराष्ट्र की सीमा से बहुत दूर, जब मेरा अपहरण कर लिया गया। 2 सितम्बर के पर्याप्त पहले। काले रंग के वाहन में जबरन डाला गया, जिसके शीशे भी काले थे और नम्बर प्लेट केरल के, यानि की फर्जी। अपहर्ता महाराष्ट्र पुलिस के कर्मचारी सिद्ध हुए। अपने उच्चाधिकारियों के निर्देश पर ये सी.आर.पी.सी. और उच्चतम न्यायालय के गिरफ्तारी-सम्बन्धी निर्देशों का उल्लंघन करने निकल पड़े थे। अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर, राज्यों की सीमारेखाओं की परवाह किये बिना ही। एक पूरे दिन और रात की लगातार यात्रा जबरन कराये जाने के बाद मुझे 1-2 सितम्बर की रात अहेरी पुलिस थाने के लॉक-अप में ला पटका गया।
5. मुझे उस दिन भी नहीं, कई दिन बाद मालूम हुआ कि मुझ पर आपराधिक षड़यन्त्र (120ठ आईपीसी) के आरोप के साथ ही विधि-विरूद्ध कार्य करने (13, यूएपीए), आतंकवादी संगठन का सदस्य होने (20, यूएपीए) और भाकपा (माओवादी) का समर्थन करने से सम्बन्धित (39, यूएपीए) जुर्म में शरीक होने के आरोपों के तहत गिरफ्तार किया बताया जा रहा है।
6. नवम्बर के अन्त में गिरफ्तारी के लगभग 90 दिन बाद सुहास बावचे ने गड़चिरोली के प्रधान जिला एवं सत्र न्यायाधीश के समक्ष अपनी तथाकथित जाँच की अन्तरिम रिपोर्ट पेश की। यह इसलिए कि यूएपीए की धारा 43;कद्ध2 के तहत प्राप्त अपने विशेषाधिकार के तहत मुझे 167 सी.आर.पी.सी. के तहत चार्जशीट जमा न किये जाने के आधार पर जमानत पर छूटने से रोका जा सके। इस तरह मेरी तकदीर के लेखक बावचे ने अपनी जाँच की अवधि 90 दिन और बढ़वा ली। न्यायाधीश ने मेरे इस मौखिक तर्क को सुना कि किस तरह जानबूझकर जाँच में विलम्ब किया जा रहा है और कैसे स्वयं बावचे की ही रिपोर्ट से यह सिद्ध होता है। मगर इन तर्कों को लिखित रूप में फाइल में दर्ज कराने से अधिक कोई लाभ नहीं मिल सका। अब मेरी गिनती भी उन सैकड़ों यूएपीए पीड़ितों में होगी जो चार्जशीट, यानि खुद पर लगे आरोपों की ठीक-ठीक जानकारी दिये गये बगैर ही 6 महीने तक बन्द किये गये हैं।
7. विवेचना अधिकारी (आई ओ) सुहास बावचे की अन्तरिम रिपोर्ट कहती है कि हेम मिश्रा से (कथित रूप से) जब्त 16ळठ के मेमोरी कार्ड और दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी सह-प्राचार्य डा0 जे0 एन0 साईबाबा के घर से जब्त बताये गये सामानों में 4 टेराबाइट डाटा का अध्ययन कर मेरे खिलाफ सबूत जुटाने में अधिक वक्त लग रहा है। वक्त कुछ फरार बताये गये आरोपितों तक पहुँच पाने के लिए भी लग रहा है। जिनमें डा0 साईबाबा के अलावा हैं- दो व्यक्ति जो हेम की ही तरह कुछ माह पूर्व भाकपा (माओवादी) की वरिष्ठ नेता नर्मदा अक्का से मिल आये थे; नर्मदा अक्का स्वयं, जिन्हें मेमोरी कार्ड का इन्तजार था और भाकपा (माओवादी) के महासचिव जिनसे मिलने के लिए मुझे और हेम को ‘‘साईबाबा द्वारा भेजा गया था,’’ जैसा कि पुलिस खाम ठोंक कर कह रही है।
8. हेम और उसके दो कथित सह-यात्रियों पाण्डू नरोटी और महेश तिर्की को भी चार्ज-शीट देने के लिए न्यायालय से इसी तरह कुल 180 दिनों की मोहलत ले ली गयी थी। गड़चिरोली के एक ही गांव के इन दो युवाओं को हेम के साथ 22 अगस्त 2013 को अहेरी बस स्टैण्ड से गिरफ्तार दिखाया गया था। इस समय विस्तार के लिए न्यायालय को सुहास बावचे ने हूबहू वही अन्तरिम जाँच रिपोर्ट सुपुर्द की थी जो मेरे संदर्भ में की।
9. इस प्रकार इस विवेचना अधिकारी ने हमारे मुकदमे में चार्ज-शीट जमा करने के लिए फरवरी तक की मोहलत ले ली है। चार्ज-शीट पर अभियोजन शुरू हो या न हो, इसे तय करने के लिए यूएपीए के तहत राज्य और केन्द्र के गृह विभागों को अधिकृत किया गया है। केन्द्र और राज्य के गृह विभाग बावचे की अन्तिम जाँच रिपोर्ट पुलिस से सर्वथा स्वतन्त्र जाँच कराने को बाध्य हैं; जिसके आधार पर वे अभियोजन की अनुमति रोक सकते हैं या दे सकते हैं। वह भी तब जब बावचे की अन्तिम जाँच रिपोर्ट को डी.आई.जी. या डी.आई.जी. से ऊपर के किसी पुलिस अधिकारी उचित पायें। यूएपीए जैसे घोर-गैरलोकतांत्रिक कानून लागू करने पर यही एकमात्र अंकुश है। शासन का ‘‘अंकुश !’’ अभियोजन की अनुमति एक बार दे दी जाती है और उस अनुरूप बावचे अपनी केस डायरी व्यवस्थित रूप से लिख लेते हैं, उसके बाद यूएपीए 2008 के अनुसार हमें किसी भी अदालत से जमानत मिल पाने की उम्मीद न के बराबर रह जायेगी।
10. जब जमानत नहीं मिल पायेगी तब जेल में रहकर जिस तरह की सुनवाई हो रही है उसे देखते हुए हमारे मुकदमें की सुनवाई कहीं से भी न्यायसंगत हो, इसकी गुंजाइश बिल्कुल नहीं है। यहाँ हम जैसे जेलबन्दियों को ‘‘सुरक्षा’’ के नाम पर अदालत में पेश नहीं किया जा रहा है। न तो यहाँ के बन्दी वकील से मिल पाते हैं, न ही बात कर पाते हैं। मुकदमे से सम्बन्धित अपनी बातें वकील के सामने गोपनीयता का पालन करते हुए हो सके, इस बात की तो दूर-दूर तक संभावना नहीं दिखाई देती है। ऐसे में न्यायसंगत ट्रायल की गुंजाइश भी दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती है।
11. वर्तमान में कैदियों से, खासकर यूएपीए के तहत बन्द हुए कैदियों से वकीलों, रिश्तेदारों व मित्रों की मुलाकात की व्यवस्था बेहद खराब है। महाराष्ट्र कारागृह अधिनियम के प्रावधानों की आत्मा के विरूद्ध यह व्यवस्था जितनी बुरी है उतनी शायद किसी भी दूसरे प्रदेश में नहीं होगी। बन्दी अपनी बेचैनियों और तनावों से जहाँ तक हो सके, मुक्त हो पाये और सामान्य व सन्तुलित मनःस्थिति में रहते हुए अपनी ट्रायल का सामना कर सके, ऐसी स्थितियाँ कम से कम नागपुर के इस केन्द्रीय कारागृह और महाराष्ट्र पुलिस के रवैये व इन्तजामात को देखते हुए नदारद है।
12. प्रसंगवश, यह भी ध्यान देने लायक है कि सुहास बावचे के उन तमाम प्रकाशित दावों में कोई दम नहीं है कि मेरा या हेम का कोई टॉर्चर नहीं हुआ। हम सभी को बेहद अमानवीय तरीके से यातनाएँ दी गयीं। बावचे ने स्वयं अपने हाथों से पाश्विक बल का प्रयोग किया। हमारे दिमाग व शरीर पर प्रहार किये, अपमानजनक गाली-गलौज की, कई हफ्तों तक दिन ही नहीं, रात-रात तक प्रताड़ित किया। हेम, पाण्डू, महेश को गड़चिरोली जिले के अहेरी में नहीं, बल्कि चन्द्रपुर जिले के बल्लारशाह रेलवे स्टेशन परिसर से अलग-अलग उठाया गया; 20 अगस्त को । 2 दिन तक उनकी बेरहमी से पिटाई सहित यातना देने के बाद 23 अगस्त को अहेरी कोर्ट में पेशी के लिए तैयार किया गया।
13. हम पाँचों की ओर से जो भी बयान दर्ज कराये गये या जो अखबारों में छपवाये गये उनमें लेशमात्र का भी सत्य नहीं है। किसी भी पत्रकार को हमसे मिलवाया नहीं गया। यहाँ तक कि टाइम्स आफ इण्डिया की संवाददाता को भी मुझसे खुलकर बातचीत करने का मौका नहीं दिया गया। बावजूद, हमारी जो भी बातचीत हो पायी वह बेहद अधूरी और अपूर्ण थी।
14. पुलिस उपाधीक्षक सुहास बावचे ने जो हमें मानसिक व शारीरिक यातनाएँ दीं उसके अलावा इस पूरी कार्यवाही की जिम्मेदारी पुलिस उप-महानिरीक्षक रवीन्द्र कदम और अनूप कुमार नाम के एक वरिष्ठ महानिरीक्षक के कन्धों पर थी। हमारी अवैध हिरासत, फर्जी गिरफ्तारी और झूठे मुकदमें के लिए ये उच्चाधिकारी योजना बनाने से लेकर उसके अमल तक के लिए उत्तरदायी हैं।
15. इस दावे में भी कोई सत्य नहीं है कि छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले के विजय तिर्की ने मुझे उस राज्य की राजधानी में रिसीव कर अबूझमाड़ तक पहुँचाने के इरादे से महाराष्ट्र के गोंदिआ जिले के देवरी-चिचगढ़ तिराहे तक पहुँचाया था, जहाँ पुलिस ने हमें पकड़ लिया हो।
16. सच तो यह है कि विजय तिर्की को रायपुर के किसी स्थान से उठाया गया। मुझसे बिल्कुल अलग स्थान से। 1 सितम्बर को। उनकी मुझे या किसी को भी साथ ले जाने की मंशा रही हो या मेरी उनसे मिलकर साथ जाने की मंशा रही हो, कहीं भी- यह दावा सरासर झूठा है। विजय तिर्की नाम के व्यक्ति से मेरी पहली मुलाकात पुलिस की गिरफ्त में होने के दौरान हुई, अहेरी थाने के लॉक-अप में बीच रात पहुँचाये जाने के कई घण्टे बाद, सुबह होने से थोड़ा ही पहले, जब उन्हें भी उसी लॉकअप में ला पटका गया। मैं किसी वकील के लिए एक पेशेवर कार्य (अनुवाद) करने के सिलसिले में दूसरे वकील से भेंट कर आ चुका था और कुछ समय बाद उनसे कुछ कागजात उठाकर वापस उत्तराखण्ड लौटना था। ताकि उधम सिंह नगर की अपनी ट्रायल की सुनवाई के लिए हाजिर हो सकूं।
17. उपरोक्त सत्य की ताकत के आधार पर ही मैं सुहास बावचे और उनके उच्चाधिकारियों की इस जिद के साथ सहयोग करने से लगातार इन्कार कर सका कि उनकी मर्जी के मुताबिक कोई बयान दर्ज कराऊँ। अबूझमाड़ नाम के किसी जंगल में या कहीं भी जाकर भाकपा (माओवादी) के किसी से मिलने के किसी इरादे की बात करने का कोई सवाल ही नहीं।
18. बावचे की अन्तरिम रिपोर्ट की यह बात बेसिरपैर की है कि मैं और हेम दोनों ही साईबाबा द्वारा ‘‘भेजे गये थे।’’ हेम और साईबाबा के बीच की बातों से मुझे न तो कोई जानकारी है और न लेना-देना। जहां तक मेरी बात है, साईबाबा सिर्फ एक परिचित हैं, वे मुझे कहीं भेजें और मैं उनके कहने पर कहीं जाऊँ या जाने को बाध्य रहूँ ऐसा रिश्ता हमारे बीच नहीं है। वास्तव में 31 अगस्त से ठीक पहले या बाद में उनसे मेरी न तो कोई बातचीत हुई थी और न ही मुलाकात। ऐसे में भेजे जाने का कोई सवाल ही नहीं।
19. इतना कहने पर अब मैं अपने उत्तराखण्ड के 2007 की यातना और तब से चल रहे मुकदमे की बात करता हूँ। सन् 1991 से ही मैं उत्तराखण्ड के देहरादून में रहकर अपना काम कर रहा हूँ। 2007 के दिसम्बर में अपनी गिरफ्तारी से 2-3 महीने पहले से भी मैं वहीं पर था। 17 दिसम्बर को मुझे वहाँ के आरा घर नामक क्षेत्र की एक बड़ी सड़क से दिन-दहाड़े उठा लिया गया था। अचानक कई लोगों ने पीछे से मुझ पर हमला किया था। हाथापाई के बाद गाड़ी में बैठाया गया और आंखों पर पट्टी बाँधकर गाड़ी को तेजी से दौड़ाया गया। पहले हरिद्वार जिले के एक जंगल में शाम से शुरू हुई पिटाई रात भर चलती रही, जिस दौरान मुझे याद नहीं कि मैं कब बेहोश होकर गिर पड़ा। अगले दिन हरिद्वार के ही रोशनाबाद क्षेत्र में स्थित पी.ए.सी. बटालियन के परिसर में ‘‘पी.ए.सी. कान्फरेन्स रूम’’ में ले जाया गया जहाँ रात होने पर आँख की पट्टी पहली बार खोली गयी, जो 20 दिसम्बर तक खुली रही। इसी वजह से मैं उस प्रतिबन्धित क्षेत्र की पहचान उस स्थान पर जड़े संगमरमर के शिलापट की लिखावट, आदि से कर सका। यहाँ मुझे तरह-तरह की बर्बर यातनाएँ दी गयीं और फिर से आँख पर पट्टी लगाकर 20 की सुबह गाड़ी में बिठाकर शाम को एक जगह ले जाया गया, जहाँ 23 दिसम्बर तक एक बन्द कमरे में छुपाया गया। यह जगह उधम सिंह नगर जिले के नानकमत्ते पुलिस थाने के परिसर में स्थित थानाध्यक्ष निवास का एक कमरा था। यह जगह देहरादून से 350 किलोमीटर से अधिक दूरी पर थी। 5 दिन और 5 रात मुझे पल भर के लिए भी सोने नहीं दिया गया था। 22 की शाम को मुम्बई स्थित मेरी बेटी शिखा राही को गिरफ्तारी की सूचना दी गयी और 23 दिसम्बर को न्यायालय में पेश किया गया।
20. मेरी गिरफ्तारी दिखाने के लिए यह कहानी गढ़ी गयी कि 20 दिसम्बर की शाम (जिस वक्त मुझे हरिद्वार से नानकमत्ता लाया जा रहा था) नानकमत्ता थाने में खुफिया सूत्रों के आधार पर एक एफ.आई.आर. दर्ज हुआ कि इलाके के जंगल में 3 महीनों से 20-25 माओवादी ग्रामीणों को जंगल युद्ध रणकौशल की टेªनिंग दे रहे हैं और मुझे इन भाकपा (माओवादी) के सदस्यों का प्रमुख बताकर नामजद किया गया। इस कैम्प के लिए जंगल में काम्बिंग करते समय एकाएक मुझे 4 अन्य माओवादियों के साथ देखा गया। पकड़ने के प्रयास में बाकी सभी, यानि चारों भागने में सफल हुए; अकेला मैं ही पकड़ा गया। कुछ ही समय में मैंने उसी जंगल में पुलिस को एक टूटा-फूटा लैपटॉप, पेनड्राइव, छपी पुस्तक-पत्रिकाएँ-दस्तावेज आदि बरामद करा दिये- इस तरह की मनगढ़न्त अनेक बातों की कहानी बुनी गयी। ताकि मुकदमें को तदबीर दिया जा सके। 3 माह के सैन्य प्रशिक्षण कैम्प पर धावा बोलने के बावजूद एक भी शस्त्र बरामद नहीं दिखाया जाना, अपने आप ही इस कहानी की असलियत उजागर करने के लिए काफी है।
21. मुकदमा दर्ज किया गया आई.पी.सी. की धारा 121 (राज्य के विरूद्ध जंग छेड़ने या जंग में सहायता करने), 121। (राज्य के खिलाफ षड़यन्त्र करने), 124। (राजद्रोह- कानून द्वारा स्थापित सरकार को पलटने), 153ठ (देश की एकता-अखण्डता व सम्प्रभुता को खतरा पहुँचाने), 120ठ (उपरोक्त अपराधों को अंजाम देने की साजिश रचने) और यूएपीए 2004 की धारा 20 (ये सारे अपराध आतंकवादी संगठन के सदस्य के रूप में करने) के तहत।
22. तीन साल 8 महीनों तक जेल काटने के बाद मैं उक्त मुकदमें में जमानत पर इसलिए रिहा हो पाया कि मुझ पर यूएपीए का 2004 का संस्करण लागू था; 2008 का संशोधन गिरफ्तारी के बाद हुआ है। मेरी गिरफ्तारी के बाद 3 अन्य लोग गिरफ्तार हुए- दिनेश पाण्डे और गोपाल भट्ट जो अपने-अपने घर पर ही रहकर रोजगार करते थे, और अन्त में चन्द्रकला, जिसकी गिरफ्तारी काशीपुर रेलवे स्टेशन, उत्तराखण्ड में दिखायी गयी। ये तीनों उत्तराखण्ड के जाने-पहचाने सामाजिक कार्यकर्ता रह चुके हैं और चन्द्रकला आज भी सक्रिय हैं। इन तीनों की जमानत पर रिहाई के बाद 21 अगस्त 2011 को मेरी रिहाई हुई।
23. इस मुकदमा अपराध संख्या 3222/2007 की ट्रायल मेरी गिरफ्तारी के 8 महीने बाद एस.टी.नं. 83/2008 के बतौर शुरू हो सकी, जो अभी तक चल रही है। अगर अभी इस दूसरे मुकदमे में मेरी गिरफ्तारी नहीं हुई होती, तो 2013 के अन्त तक इस उत्तराखण्ड के मुदकमे में हम सब के बरी हो जाने की प्रबल संभावना थी।
24. नागपुर के केन्द्रीय कारागृह में सितम्बर 21, 2013 को दाखिल किये जाने के बाद से एक बार भी उत्तराखण्ड के मेरे मुकदमे की सुनवाई के लिए पेश नहीं किया गया। महाराष्ट्र पुलिस उस अदालत के द्वारा हर बारी जारी होने वाले पेशी वारण्ट पर तामील करने से इन्कार करती रही है। कब तक ऐसा ही चलता रहेगा, अभी कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।
25. उत्तराखण्ड और महाराष्ट्र केे मेरे इन दो मुकदमों के विवेचना अधिकारी (आई.ओ) और उनके उच्चाधिकारी अपने-अपने अभियोजन के प्रयास में दूसरे मुकदमें का प्रयोग अपने यहाँ के मुकदमे का वजन बढ़ाने के लिए प्रयोग करना शुरू कर चुके हैं और आगे भी करेंगे।
उपरोक्त तथ्य, परिस्थितियाँ और आवश्यक सारी बातें जरूरी समझकर मैंने आपके सामने पेश कर दी हैं। आप सब दोस्तों से मेरी यही विनम्र गुजारिश है कि जो भी तकलीफें हमारे हिस्से आयी हैं उनके मूल कारणों पर गौर करना और उन मूल कारणों के उन्मूलन के लिए अपनी ऊर्जा केन्द्रित करना ज्यादा श्रेयस्कर होगा बजाय इसके कि आप महाराष्ट्र या उत्तराखण्ड राज्य में मुझे और हेम को यातना देने से रोकने, न्यायसंगत ट्रायल सुनिश्चित करने और दोषी पुलिस अधिकारियों को दण्डित करने के लिए की गई अपनी अपीलों पर ध्यान दिये जाने की उम्मीद करें। यह मुद्दा भले ही नागरिक और लोकतांत्रिक अधिकारों, अथवा मानव अधिकारों का हो, फिर भी यह सब इस तरह होता क्यों है, इसके कारण आखिर राजनीतिक ही हैं, इस बात को ध्यान में रखते हुए अपनी अपीलों को राजनीतिक स्वरूप के साथ आगे और अधिक विस्तार देने की जरूरत है। भारतीय राज्य और उसके विभिन्न अंगों के जन-विरोधी चरित्र को सामने लाने की जरूरत है। क्या यह काबिले गौर नहीं है कि देश में जब अभी आम चुनाव के द्वारा संसद को नये सिरे से गठित किया जाना है, तब एक भी वोट-बटोरू पार्टी ऐसी नहीं है, ‘‘रक्तहीन इन्क्लाब’’ लाने वाली आम आदमी पार्टी भी नहीं, जो जनता के विरूद्ध राज्य की सैनिक कार्यवाहियों को जरा भी धीमा करने की बात करती हो और गत 8-10 वर्षों की इस देन को उलटने का आश्वासन देती हो। 8-10 वर्षों से 3000 से अधिक तथाकथित माओवादियों को जो जेल हुई है, जिनमें से अधिकांश को फर्जी मुकदमों में फंसाया गया है, बर्बर यातनाएँ दी गयी हैं और अमानवीय बर्ताव किया गया है- पुलिस हिरासत में और न्यायिक हिरासत में भी- उस गति को रोकने और उलटने का मुद्दा उठाती हो, ऐसी ताकत कौन हो सकती है, सिवाय स्वय आप के ?
यही वह चिन्ताएँ हैं जिनके कारण ऐसा लग रहा है कि महाराष्ट्र शासन और महाराष्ट्र पुलिस को लिखे आपके हजारों-हजार पत्रों में हेम और मेरे प्रति व्यक्त हुए आपके नैतिक समर्थन के क्रम में नई दिल्ली, मुंबई, देहरादून, रायपुर, रांची, पटना, कोलकाता, लखनऊ, चण्डीगढ़, भोपाल, अहमदाबाद, हैदराबाद, बंगलुरू, भुवनेश्वर, चेन्नई, तिरूवनन्तपुरम और गुवाहाटी में सत्तासीन सरकारों पर लाखों-करोड़ों पत्रों और नारों के साथ टूट पड़ना व्यापक हित में होगा जिनमें निम्न मांगें अंकित हों:-
उपरोक्त तथ्य, परिस्थितियाँ और आवश्यक सारी बातें जरूरी समझकर मैंने आपके सामने पेश कर दी हैं। आप सब दोस्तों से मेरी यही विनम्र गुजारिश है कि जो भी तकलीफें हमारे हिस्से आयी हैं उनके मूल कारणों पर गौर करना और उन मूल कारणों के उन्मूलन के लिए अपनी ऊर्जा केन्द्रित करना ज्यादा श्रेयस्कर होगा बजाय इसके कि आप महाराष्ट्र या उत्तराखण्ड राज्य में मुझे और हेम को यातना देने से रोकने, न्यायसंगत ट्रायल सुनिश्चित करने और दोषी पुलिस अधिकारियों को दण्डित करने के लिए की गई अपनी अपीलों पर ध्यान दिये जाने की उम्मीद करें। यह मुद्दा भले ही नागरिक और लोकतांत्रिक अधिकारों, अथवा मानव अधिकारों का हो, फिर भी यह सब इस तरह होता क्यों है, इसके कारण आखिर राजनीतिक ही हैं, इस बात को ध्यान में रखते हुए अपनी अपीलों को राजनीतिक स्वरूप के साथ आगे और अधिक विस्तार देने की जरूरत है। भारतीय राज्य और उसके विभिन्न अंगों के जन-विरोधी चरित्र को सामने लाने की जरूरत है। क्या यह काबिले गौर नहीं है कि देश में जब अभी आम चुनाव के द्वारा संसद को नये सिरे से गठित किया जाना है, तब एक भी वोट-बटोरू पार्टी ऐसी नहीं है, ‘‘रक्तहीन इन्क्लाब’’ लाने वाली आम आदमी पार्टी भी नहीं, जो जनता के विरूद्ध राज्य की सैनिक कार्यवाहियों को जरा भी धीमा करने की बात करती हो और गत 8-10 वर्षों की इस देन को उलटने का आश्वासन देती हो। 8-10 वर्षों से 3000 से अधिक तथाकथित माओवादियों को जो जेल हुई है, जिनमें से अधिकांश को फर्जी मुकदमों में फंसाया गया है, बर्बर यातनाएँ दी गयी हैं और अमानवीय बर्ताव किया गया है- पुलिस हिरासत में और न्यायिक हिरासत में भी- उस गति को रोकने और उलटने का मुद्दा उठाती हो, ऐसी ताकत कौन हो सकती है, सिवाय स्वय आप के ?
यही वह चिन्ताएँ हैं जिनके कारण ऐसा लग रहा है कि महाराष्ट्र शासन और महाराष्ट्र पुलिस को लिखे आपके हजारों-हजार पत्रों में हेम और मेरे प्रति व्यक्त हुए आपके नैतिक समर्थन के क्रम में नई दिल्ली, मुंबई, देहरादून, रायपुर, रांची, पटना, कोलकाता, लखनऊ, चण्डीगढ़, भोपाल, अहमदाबाद, हैदराबाद, बंगलुरू, भुवनेश्वर, चेन्नई, तिरूवनन्तपुरम और गुवाहाटी में सत्तासीन सरकारों पर लाखों-करोड़ों पत्रों और नारों के साथ टूट पड़ना व्यापक हित में होगा जिनमें निम्न मांगें अंकित हों:-
1. यूएपीए को वापस लो ! कम से कम 2008 और 2004 में हुए अन्यायपूर्ण संशोधनों को तो तत्काल ही वापस लो !
2. वंचित और गरीबी की गर्त में धकेले गये लोगों की आवाज बुलन्द करने के प्रयास में लगे किसी भी संगठन को, चाहे वह राजकीय दमन का जवाब प्रतिहिंसा से देने की बात ही क्यों न करें, प्रतिबन्धित संगठनों की सूची में न रखें। जिसे रखा गया हो उसका नाम हटा दें।
3. आतंकवाद की सन् 2000 से हुई परिभाषाओं पर पुनर्विचार कर कानूनी संशोधन करें। दुनिया पर बुश-ओबामा, पुतिन, अंजला, और मनमोहन सिंह व नरेन्द्र मोदी जैसों ने जो परिभाषाएँ लाद दी हैं उस दायरे से मुक्त हों। क्रान्तिकारी हिंसा को आतंकवाद के रूप में परिभाषित करना बन्द करें।
4. निरंकुश कानूनों एवं कानून में हुए संशोधन के चलते जेलों में सड़ रहे सभी कथित माओवादी बन्दियों और एटीएस, आईबी, एनआईए जैसी तमाम खुफिया संस्थाओं के शीर्ष अधिकारियों की षड़यन्त्रकारी कोशिशों के तहत अथवा राजनैतिक कारणों से फँसाये गये तमाम बेगुनाह मुसलमानों को रिहा करें !
5. जिन पर यूएपीए के तहत अभी जाँच जल रही हो और अभियोजन के लिए अनुमोदन (सैंक्शन) न दिया गया हो, खासकर उनके संदर्भ में जो युद्ध की कार्रवाई में सीधे शामिल होने के आरोप में विचाराधीन न हों या जो गाँव की आम आबादी का हिस्सा हों, आदिवासी या दलित हों या साधारण महिला हो, उनके ऊपर लगे मुकदमे में अभियोजन के लिए सभी सरकारें सैंक्शन देना तत्काल बंद कर दें।
6. सभी यूएपीए के मुल्जिमों की ट्रायल त्वरित गति से चलायें ! अभियोजन के गवाहों को एक के बाद एक या एक साथ तत्काल और अविलम्ब पेश करना शुरू करें !
7. यूएपीए के तहत जिस किसी के खिलाफ किसी भी प्रदेश के किसी भी जिले की अदालत में जो भी मुकदमा दर्ज हो, ऐसे हरेक मुकदमें में उसे हर तारीख पर बिना चूके पेश किया जाय। ‘‘सुरक्षा कारणों’’ जैसा कोई भी आधार बताकर उनकी पेशी न करना और ट्रायल में देर करना या ट्रायल से वंचित करना बंद करें !
8. सभी प्रदेशों में ‘पश्चिम बंगाल करेक्शनल सर्विसेज ऐक्ट’ के मूल संस्करण की तर्ज पर राजनीतिक बन्दी का दर्जा मान्य किया जाय।
9. सभी प्रदेशों के जेल मैन्युअल को ‘पश्चिम बंगाल करेक्शनल सर्विसेज ऐक्ट’ के अनुसार संशोधित किया जाय !
10. अदालतों में मुकदमों के विचारण (ट्रायल) के लिए वीडियो कान्फरेन्स के साधन का प्रयोग न हो जहां भी ऐसा हो रहा हो उसे तत्काल बंद किया जाय।
11. जेल मुलाकात के लिए सुरक्षा के नाम पर तैयार किये गये अवरोधों, जैसे जाली, शीशे की दीवार आदि को हटाया जाय। जेल की मुलाकातें मानव की गरिमा और इंसानियत के मानदण्डों के अनुरूप हों। यूएपीए के मुल्जिमों को प्रेस के समक्ष अपना पक्ष रखने व प्रकाशन का अधिकार दिया जाय।
12. नागरिक एवं राजनैतिक अधिकारों, कैदियों के अधिकारों और निरूद्धि केन्द्रों के विषय में हुए अन्तर्राष्ट्रीय समझौतों (कोवेनण्ट्स) को अविलम्ब लागू करें।
इस मांग पत्र को संशोधित-संयोजित करने के लिए खुला रखें। कृपया अपनी कार्यवाहियों से मुझे सूचित करते रहें। इतना ही,
इस मांग पत्र को संशोधित-संयोजित करने के लिए खुला रखें। कृपया अपनी कार्यवाहियों से मुझे सूचित करते रहें। इतना ही,
विचाराघीन केैदी
बैरकनव 8ए मघ्यवर्ती कारागृहए
नागपुर. 440020
एकजुटता के साथ, आपका
(प्रशांत राही)
............................ इंगलिश में भी ............................
बैरकनव 8ए मघ्यवर्ती कारागृहए
नागपुर. 440020
एकजुटता के साथ, आपका
(प्रशांत राही)
............................ इंगलिश में भी ............................
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Tel. +918303481839; Email : shivpsingh@gmail.com
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