हमारे देश में निजीकरण ने जिस क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित किया है और जिसका दुष्प्रभाव हमें स्पष्ट दिख रहा है | उनमें शिक्ष भी एक है। शिक्षा के क्षेत्र में निजी पूंजी ने जब से प्रवेश किया है तब से प्राथमिक और माध्यमिक क्या उच्च स्तर गिरता ही जा रहा है | इसके साथ ही इन निजी स्कूलों में तर्क और प्रगतिशील विचारो के लिए कोई जगह नहीं रह गयी है | अगर कोई शिक्षक अपने छात्रों को प्रगतिशील विचारों और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सम्पन्न करना चाहता है तो उसके लिए इन निजी स्कूलों और विद्यालयों में कोई जगह नहीं है |
पिछले दिनों हम एक ऐसे ही शिक्षक से मिले | जिनका नाम वशीम अहमद है | वे चंदौली के एक ऐसे ही निजी स्कूल में पढ़ते है | इससे पहले भी वे एक निजी स्कूल में ही कुछ वर्षों से पढ़ा रहे थे | लेकिन शुरू से ही स्कूल प्रबंध के आँखों में वे खटकने लगे थे | जिसका कारण उनका प्रगतिशील होना और बच्चों को प्रश्न पूछना व तर्क करना सीखना था |
ये निजी स्कूल देश में अब छोटे-छोटे शहरों व कस्बों में भी तेजी से खुल रहे है | जो शिक्षा से ज्यादा छात्रों व शिक्षकों के शोषण के केंद्र बन गए है | इन निजी स्कूलों में एक तरफ जहाँ छात्रों से भारी फ़ीस वसूला जा रहा है | वहीं दूसरी तरफ शिक्षकों को बहुत हम वेतन दिया जा रहा है | छात्र अपने बढ़ाते फीस व भारी होते स्कूली बोझ से परेशान है तो शिक्षक स्कूल के काम के बोझ से । ऐसे में आज हमें जरुरत है कि हम इस पर सोचें कि हमारी शिक्षा व्यवस्था कहा जा रही है ।
अभी केंद्र में आई भाजपा की नई सरकार ने तो आरएसएस के एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया है । और २०१५ में नई आर्थिक नीति लागू की जा रही है । जिसमें प्रायोजित तरीके से शिक्षा में से प्रगतिशील व तार्किक सिलेबस को हटाकर शिक्षा का सम्प्रदायीकरण, ब्राम्हणीकरण व निजीकरण किया जा रहा है । शिक्षा में विदेशी कोर्सों को लाया जा रहा है, उसका बाजारीकरण व व्यवसायीकरण किया जा रहा हैं । इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा का एक सांप्रदायिक नेता सुब्रमण्यम स्वामी कहता है कि " रोमिला थापर की इतिहास की किताबों को जला देना चाहिए " यह देश ,समाज व ज्ञान को पीछे अँधेरे में ले जाया जा रहा है ।
आज के समय में छात्रों ,शिक्षकों व बुद्धिजीवियों के ऊपर एक बड़ी जिम्मेदारी आ गयी है कि वह शिक्षा के सम्प्रदायीकरण, ब्राम्हणीकरण व निजीकरण का विरोध करें । इसके लिए बौद्धिक वर्ग बड़े पैमाने पर गोलबंद होकर एक मुहीम चलाने की जरुरत है ।
पिछले दिनों हम एक ऐसे ही शिक्षक से मिले | जिनका नाम वशीम अहमद है | वे चंदौली के एक ऐसे ही निजी स्कूल में पढ़ते है | इससे पहले भी वे एक निजी स्कूल में ही कुछ वर्षों से पढ़ा रहे थे | लेकिन शुरू से ही स्कूल प्रबंध के आँखों में वे खटकने लगे थे | जिसका कारण उनका प्रगतिशील होना और बच्चों को प्रश्न पूछना व तर्क करना सीखना था |
ये निजी स्कूल देश में अब छोटे-छोटे शहरों व कस्बों में भी तेजी से खुल रहे है | जो शिक्षा से ज्यादा छात्रों व शिक्षकों के शोषण के केंद्र बन गए है | इन निजी स्कूलों में एक तरफ जहाँ छात्रों से भारी फ़ीस वसूला जा रहा है | वहीं दूसरी तरफ शिक्षकों को बहुत हम वेतन दिया जा रहा है | छात्र अपने बढ़ाते फीस व भारी होते स्कूली बोझ से परेशान है तो शिक्षक स्कूल के काम के बोझ से । ऐसे में आज हमें जरुरत है कि हम इस पर सोचें कि हमारी शिक्षा व्यवस्था कहा जा रही है ।
अभी केंद्र में आई भाजपा की नई सरकार ने तो आरएसएस के एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया है । और २०१५ में नई आर्थिक नीति लागू की जा रही है । जिसमें प्रायोजित तरीके से शिक्षा में से प्रगतिशील व तार्किक सिलेबस को हटाकर शिक्षा का सम्प्रदायीकरण, ब्राम्हणीकरण व निजीकरण किया जा रहा है । शिक्षा में विदेशी कोर्सों को लाया जा रहा है, उसका बाजारीकरण व व्यवसायीकरण किया जा रहा हैं । इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भाजपा का एक सांप्रदायिक नेता सुब्रमण्यम स्वामी कहता है कि " रोमिला थापर की इतिहास की किताबों को जला देना चाहिए " यह देश ,समाज व ज्ञान को पीछे अँधेरे में ले जाया जा रहा है ।
आज के समय में छात्रों ,शिक्षकों व बुद्धिजीवियों के ऊपर एक बड़ी जिम्मेदारी आ गयी है कि वह शिक्षा के सम्प्रदायीकरण, ब्राम्हणीकरण व निजीकरण का विरोध करें । इसके लिए बौद्धिक वर्ग बड़े पैमाने पर गोलबंद होकर एक मुहीम चलाने की जरुरत है ।
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