डॉ0 प्रमोद कुमार बागड़े
सहायक प्राध्यापक
दर्शन एवं धर्मविभाग
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
'राष्ट्रवाद' और 'राष्ट्र-राज्य' राजनीतिक आधुनिकता के प्रमुख उपादानों में से है। राष्ट्रवाद की अवधारणा तथा तज्जनित राष्ट्रराज्य पाश्चात्य आधुनिकता की देन है। प्रबोधन, पुनर्जागरण और धर्मसुधार की परिघटनाओं ने मध्ययुगीन रोमन साम्राज्य के दार्शनिक और आर्थिक आधार को ध्वस्त कर उनके स्थान पर छोटे-छोटे राष्ट्र-राज्यों को जन्म दिया। इन राज्यों की रचना समरूप एक नस्ल, एक भाषा और एक संस्कृति के आधार पर हुई. स्पष्ट है कि राष्ट्रवाद और राष्ट्र-राज्य की उत्पत्ति हेतु एक साम्राज्य के रूप में 'अन्य' ; व्जीमतद्ध की आवश्यकता होती है। इस 'अन्य' के परिप्रेक्ष्य में ही किसी संभावित राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता की आत्मपरिभाषा और आत्म-पहचान शक्य होती है। राष्ट्रीय चेतना का अर्थ एक विश्ोष भौगोलिक प्रक्ष्ोत्र्ा में रहने वाल्ो लोगों में परस्पर ऐक्य की भावना का विद्यमान होना है। इस ऐक्य की चेतना के आधार पर स्वराज्य; ैमस ितनसमद्ध की मांग होती है। राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय चेतना का निर्माण अनेक आधारों पर हो सकता है। धर्म, भाषा, संस्कृति, साझा ऐतिहासिक स्मृतियां, जनता के साझा दुःख आदि सभी अथवा किसी एकाधिक आधार पर राष्ट्रीय चेतना का विकास हो सकता है। अतः स्पष्ट है कि राष्ट्रवाद की विचारधारा और तज्जनित राष्ट्र-राज्य की सत्तामीमांसा 'सार्वभौम' के विरुद्ध पारिवेशिक; च्ंतजपबनसंतद्ध का विद्रोह है। यह साम्राज्य या सार्वभौम के विरुद्ध 'पारिवेशिक' की अपनी स्वतन्त्र्ाता और स्वायत्तता का उद््घोष है। राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय स्वतन्त्र्ाता आन्दोलन बीसवीं शताब्दी के मध्य दशकों तक औपनैवेशिक राष्ट्रों के दमन के खिलाफ जारी वि-औपनैवेशिकरण की परिघटना के रूप में जाने जाते हैं। कोई भी यथार्थ चाहे वह सामाजिक हो अथवा भौतिक, अन्तर्विरोधों से ग्रस्त होता है। जब राष्ट्रवादी विमर्श आकार ग्रहण करता है तो वह अपने आन्तरिक अन्तर्विरोधों का दमन करता है या उन्हें नजरअंदाज कर विमर्श से बहिष्कृत कर देता है। प्रस्तुत आल्ोख का उद्देश्य प्रभुत्वशाली; क्वउपदंदजद्ध भारतीय राष्ट्रवाद के 'जाति-प्रश्न' और 'जातिव्यवस्था' के प्रति दृष्टिकोण का विवेचन और आलोचन करना है। हमारा विश्वास है कि जाति व्यवस्था व जाति-विचारधारा के मूलोच्छेद के बिना भारतीय राष्ट्रवाद का निर्माण नहीं हो सकता। 'जाति व्यवस्था' के विनाश के बिना भारतीय राष्ट्रवाद अपनी पूर्णता एवं सार्थकता प्राप्त नहीं कर सकता। हम इस ल्ोख के माध्यम से भारतीय राष्ट्रवाद को समस्याग्रस्त करते हुए उन विमर्शों को प्रमुख स्थान देना चाहते हैं, जिन्हें मुख्य धारा का भारतीय राष्ट्रवाद अपने विमर्श से बहिष्कृत कर देता है।
अतीत की खोज किसी भी राष्ट्रवादी परियोजना का अनिवार्य अंग होती है। किसी विदेशी औपनैवेशिक शक्ति द्वारा उपनिवेशित समाज और संस्कृति का निकृष्टीकरण; प्दमितपवतप्रंजपवदद्ध उसे अपने स्वर्णिम अतीत की खोज के लिए बाध्य करता है। प्रख्यात चिन्तक और राष्ट्रवाद के अध्येता पार्थ चटर्जी ने भारतीय राष्ट्रवाद को व्युत्पन्न; क्मतपअंजपअमद्ध राष्ट्रवाद की संज्ञा से अभिहित किया है। ख्1, चटर्जी का तर्क है कि भारतीय राष्ट्रवादी चिन्तन अपनी उत्पत्ति के लिए 'पश्चिम' पर निर्भर है। वह पश्चिम से अपने वैचारिक स्रोतों को ग्रहण करता है, परन्तु वह अपनी स्वायत्तता के प्रति भी चिन्तित है। अतः यह व्युत्पन्न राष्ट्रवाद; क्ंतपअंजपअम दंजपवदंसपेउद्ध एक प्रकार के उभयतोपाश; क्पससमउंद्ध से ग्रस्त है। एक ओर वह 'पश्चिम' से अपनी स्वायत्तता बनाये रखना चाहता है, वहीं दूसरी ओर वह 'पश्चिम' के वैचारिक-दार्शनिक स्रोतों से भी प्रभावित है। हमारा यह मत है कि राष्ट्रवाद की यह व्युत्पन्न; क्ंतपअंजपअमद्ध वैचारिक कोटि; ब्ंजमहंतलद्ध भारतीय राष्ट्रीयता और भारतीय राष्ट्रवाद के आन्तरिक अन्तर्विरोधों व जटिलताओं को समझने के लिए पर्याप्त नहीं है। भारतीय राष्ट्रवादी विचार और व्यवहार को अपनी पूरी जटिलता और समग्रता में समझने के लिए 'देसी' और 'परे' ; ठमलवदकद्ध सदृश अन्य दो वैचारिक कोटियों की आवश्यकता है।
'देसी' विचारक केवल प्राच्यवाद; व्तपमदजंसपेउद्ध के तर्क को विपर्यस्त करने के लिए ही 'पश्चिम' की आलोचना नहीं करते, बल्कि पश्चिम से अपनी स्वायत्तता और श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए आकुल है। भारतीय चिन्तन परम्परा की एक धारा को ही 'देसी' की संज्ञा दी जा सकती है। क्योंकि यह धारा आत्म संदर्भित; ैमस ितममितमदजपंसद्ध है। यह धारा इस सीमा तक आत्म संदर्भित है कि यह उन बौद्धिक परिस्थितियों में विकसित होती है, जो भारत की विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों में ही उपलब्ध होती है। औपनैवेशिक बौद्धिक-ज्ञानमीमांसीय चुनौती के कारण ही देसी विचारक आत्मसंदर्भित होने के लिए बाध्य है। औपनैवेशिक बौद्धिक-ज्ञानमीमांसीय चुनौती 'देसी' श्रेणी को अपनी वैचारिक मोहनिद्रा से जगाती है। 'देसी' की वैचारिक श्रेणी अपनी आत्मपरिभाषा के लिए 'पश्चिम' को एक 'ज्ञानमीमांसीय अन्य' अथवा 'ज्ञानमीमांसीय प्रतिच्छाया' के रूप में व्याख्यायित करती है। दूसरे शब्दों में अपनी प्रामाणिक आत्माभिव्यक्ति के लिए 'देसी' विचारकों को 'पश्चिम' की एक निष्ोधात्मक संदर्भ बिन्दु के रूप में आवश्यकता पड़ती है। 'देसी' की वैचारिक श्रेणी को 'व्युत्पन्न' ; क्ंतपअंजपअमद्ध श्रेणी जैसे किसी उपभयतोपास; क्पससमउंद्ध का सामना नहीं करना पड़ता जिसका उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं। 'देसी' नामक राष्ट्रवाद की वैचारिक श्रेणी इस अर्थ में व्युत्पन्न; क्ंतपअंजपअमद्ध श्रेणी से भिन्न है कि वह अपने दार्शनिक-वैचारिक स्रोतों को प्राचीन हिन्दू-वैदिक दर्शन परम्परा में खोजती है। देसी विचारकों को 'पश्चिम' का अनुकरण करने और साथ ही अपनी स्वायत्तता बनाये रखने की कोई आकांक्षा नहीं है। देसी विचारक स्वयं को संस्कृत भाषा के माध्यम से परिभाषित करते हैं। यह श्रेणी इस अर्थ में आत्म संदर्भित है कि वह अपनी आत्मपरिभाषा के लिए पश्चिम और पश्चिमजन्य विचारों का पूर्णतः निष्ोध करती है। 'देसी' विचारक इतने अधिक आत्मविश्वास से परिपूर्ण है कि पश्चिम की शब्दावली को अपने मस्तिष्क में प्रवेश करने की अनुमति नहीं देते। इन 'देसी' विचारकों को भीखू पारेख का अनुसरण करते हुए 'आलोचनात्मक परम्परावादी' कहा जा सकता है। ख्2, देसी चिन्तन अपने अतिशय आत्मविश्वास का इस हद तक प्रदर्शन करता है कि न केवल वह आत्मसंदर्भित बन जाता है, बल्कि दूसरों के लिए संदर्भ बिन्दु का कार्य करने लगता है। 'देसी' चिन्तन एक शास्त्र्ाीय दर्जा और कालजयी सार तत्त्व प्राप्त कर ल्ोता है। इसके इस अति-आत्मविश्वास के स्रोत को नैतिक स्रोत की संज्ञा दी जा सकती है, क्योंकि वह अन्य प्रतिस्पर्धी विचारों व चिन्तन परम्पराओं से मुक्त होकर विचरण करता है।
वस्तुतः देसी चिन्तन ज्ञानमीमांसीय दृष्टि से विषमतामूलक प्रतीत होता है, क्योंकि वह अन्य प्रतिस्पर्धी वैचारिक स्रोतों / बौद्धिक परम्पराओं से भावात्मक विच्छेद; च्वेपजपअम क्पेमदहंहमउमदजद्ध पर आधारित है। 'देसी' और व्युत्पन्न; क्ंतपअंजपअमद्ध श्रेणियां दोनों इस बिन्दु पर मतैक्य रखती हैं कि परम्परा और उसके तथाकथित अन्तर्विरोध यथा-अस्पृश्यता-जातिगत उत्पीड़न, ल्ौंगिक उत्पीड़न आदि परम्परा की अववृद्धियां मात्र्ा हैं, उसका सारतत्त्व नहीं। 'परे' ; ठमलवदकद्ध की श्रेणी इन दोनों श्रेणियों से सर्वथा भिन्न प्रकार की है। यह श्रेणी भारतीय राष्ट्रवाद के आन्तरिक अन्तर्विरोधों व उसके समस्याग्रस्त; च्तवइसमउंजपबद्ध चरित्र्ा को उजागर करती है। ज्योतिबा फुल्ो, डॉ0 बाबासाहेब आम्बेडकर, रामास्वामी पेरियार, इयोथी थास प्रभृति विचारकों का चिन्तन 'परे' ; ठमलवदकद्ध की श्रेणी का प्रतिनिधित्व करता है। 'परे' की श्रेणी एक विशिष्ट पद्धतिगत मार्ग; डमजीवकवसवहपबंस तवनजमद्ध का अवलंबन करती है। भारतीय इतिहास और भारत की वैकल्पिक परिकल्पना प्रस्तुत करने वाली यह 'परे' की श्रेणी अपनी आत्माभिव्यक्ति के लिए सर्वप्रथम एक निष्ोधात्मक भाषा का आश्रय ल्ोती है। ज्योतिबा फुल्ो की शब्दावली में यह निष्ोधात्मक भाषा 'गुलामगिरी' और बाबासाहेब की शब्दावली में अस्पृश्यता, अवमानना व अस्पृश्यों के निकृष्टीकरण को व्यक्त करने वाली "बहिष्कृत भारत" और 'हीनत्व' जैसी अवधारणाओं में प्रकट होती है। यह निष्ोधात्मक भाषा अस्पृश्यता और जाति उत्पीड़न के जीवंत अनुभव का अमूर्तीकरण-दार्शनिकीकरण करते हुए सामाजिक समता, अधिकार, न्याय और मानवीय गरिमा जैसे संप्रत्ययों को प्राथमिकता प्रदान करती है। इसके विपरीत 'देसी' और 'व्युत्पन्न' सदृश राष्ट्रवादी वृत्तांत 'स्वदेशी' 'स्वराज्य' , 'राजनैतिक स्वतन्त्र्ाता' जैसी धर्म वैधानिक; ब्ंदवदपेमकद्ध भाषा का प्रयोग करते हैं। यह निष्ोधात्मक भाषा मुख्य धारा के राष्ट्रवादी विमर्श में एक ज्ञानमीमांसीय दरार; म्चमेजपउवसवहपबंस तनचजनतमद्ध उत्पन्न करती है। यह निष्ोधात्मक शब्दावली अस्पृश्यता जैसी गहरे में दफनायी गयी 'श्रेणी' को सामने लाकर मुख्य धारा के राष्ट्रवाद की दोनों श्रेणियों में "नैतिक शर्म" उत्पन्न करती है। दूसरी ओर, यह भाषा दलित 'आत्म' / 'स्व' में संघर्ष पैदा कर उसमें आत्मगौरव-आत्मसम्मान की प्राप्ति जैसी मानकीय; छवतउंजपअमद्ध आकांक्षा पैदा करती है।
उल्ल्ोखनीय है कि यह भाषा केवल निष्ोधात्मक भाषा तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि भारत की वैकल्पिक परिकल्पना प्रस्तुत करते हुए 'परे' की यह श्रेणी आत्म-अतिक्रमण करते हुए सकारात्मक दृष्टि और भाषा का आविष्कार करती है। फुल्ो 'गुलामगिरी' की भाषा का अतिक्रमण करते हुए 'सार्वजनिक सत्यधर्म' और 'बलिराज्य' जैसी स्वीकारात्मक (सकारात्मक) दृष्टि को प्रस्तुत करते हैं। वहीं डॉ0 आम्बेडकर 'बहिष्कृत भारत' जैसी अवधारणा का अतिक्रमण कर 'प्रबुद्ध भारत' सदृश भारत की भावात्मक; च्वेपजपअमद्ध वैकल्पिक अवधारणा को प्रस्तुत करते हैं। ख्3,
इस 'श्रेणी' की अन्य विश्ोषताएं, जो इसे 'देसी' और 'व्युत्पन्न' दोनों श्रेणियों से विशिष्ट करती है, वह है इसका स्थानीय शक्ति विन्यासों की सशक्त मुखालिफ़त करना। स्थानीय शक्ति विन्यास की संरचना फुल्ो के शब्दों में 'श्ोटजी' और 'भटजी' और बाबासाहेब के शब्दों में "ब्राह्मणवाद" और "पूंजीवाद" के युग्म से निर्मित होती है। औपनैवेशिक शक्तिविन्यास को ही अपने आक्रमण का केन्द्र बिन्दु बनाने के कारण मुख्य धारा के राष्ट्रवाद की दोनों श्रेणियां "भारतीय पूंजीवाद" और "ब्राह्मणवाद" को कभी भी अपनी आलोचना का विषय नहीं बनाती है। तथाकथित भारतीय राष्ट्रवाद की उपर्युक्त दोनों श्रेणियां देसी पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद का समर्थन करती हुई प्रतीत होती है। इस संदर्भ में यह उल्ल्ोखनीय है कि 'देसी' श्रेणी चूंकि अन्य प्रतिस्पर्धी बौद्धिक परम्पराओं के साथ सह अस्तित्व से इंकार कर देती है, अतएव यह श्रेणी अपने बौद्धिक अस्तित्व और दिक्कालातीत वर्चस्व को बनाये रखने के लिए उन बौद्धिक परम्पराओं को हड़प;। चचतवचतपंजमद्ध कर जाना चाहती है, जो अपने मूल स्वरूप में अशास्त्र्ाीय या असनातनी है। इसका प्राचीन उदाहरण बौद्ध, दर्शन-धर्म का ब्राह्मणीकरण और आधुनिक उदाहरण गांधी द्वारा दलित विमर्श को हड़पने का प्रयास है। 'देसी' विचार की स्वायत्तता का आधार संस्कृत भाषा पर उसका सौभाग्यशाली एकाधिकार है। संस्कृत भाषा पर एकाधिकार ही उसे वैकल्पिक सैद्धान्तिक चिन्तन के निर्माण के लिये शब्दावली प्रदान करता है। संस्कृत भाषा, दर्शन-साहित्य पर देसी विचारकों का यह खास एकाधिकार स्वतः ही 'देसी' विचार के सार्वभौमिकता और पूर्णता के दावे को संदेहास्पद बना देता है। संस्कृत भाषा और विचार की सहायता के बिना विकसित होने वाल्ो विचार-दर्शन इस श्रेणी से बहिष्कृत होने के लिए अभिशप्त है। यही कारण है कि डॉ0 आम्बेडकर, रामास्वामी पेरियार, नायकर, ज्योतिराव फुल्ो जैसे दलित-शूद्रचिन्तक इस देसी श्रेणी से बाहर रहने के लिए बाध्य हैं। वैसे ही जैसे आजादी के लगभग सात दशक बाद भी दलित गांव के बाहर रहने के लिए अभिशप्त हैं। इसी अर्थ में दलित-शूद्र चिन्तन को देसी, श्रेणी के परे; ठमलवदकद्ध का चिन्तन कहा जा सकता है।
फुल्ो आम्बेडकर कृत भारत की वैकल्पिक पुनर्कल्पना मिश्ोल फूको के शब्दों में कहूं तो यह भारतीय राष्ट्रवाद की पैरेलल प्राब्ल्ौमैटिक; च्ंततमससमस च्तवइसमउंजपुनमद्ध की ओर संकेत करती है। पैरेलल पराब्ल्ौमैटिक की अवधारणा के अनुसार वे विचार, अवधारणाएं अथवा संप्रत्यय जो किसी प्रभुत्वशाली विमर्श से बहिष्कृत कर दिये जाते हैं, उस विमर्श का ही अंगभूत हिस्सा होते हैं। ख्4,
अतः हम कह सकते हैं कि 'परे' की वैचारिक श्रेणी भी भारतीय राष्ट्रवाद की पैरेलल प्राब्ल्ौमैटिक अर्थात् बहिष्कृत किन्तु महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। इस श्रेणी की उपेक्षा कर कोई भी राष्ट्रवादी विमर्श एकांगी होे के लिए अभिशप्त है।
यहां यह उल्ल्ोखनीय है कि 'देसी' और 'व्युत्पन्न' सदृश श्रेणियों से बहिष्कृत 'परे' की यह श्रेणी अत्यधिक नैतिक महत्त्व रखती है। यह वैचारिक श्रेणी उन विपरीत परिस्थितियों में उत्पन्न होती है, जहां डॉ0 आम्बेडकर, ज्योतिराव फुल्ो जैसे विचारकों के पास देसी वैचारिक-दार्शनिक संसाधन उपलब्ध नहीं थ्ो। ये विचारक अपनी वैचारिकी के निर्माण के लिए शूद्रातिशूद्र समुदाय के सामूहिक-सांस्कृतिक-बौद्धिक व्यवहारों पर ही निर्भर थ्ो। सामाजिक-सांस्कृतिक उत्पीड़न के जीवंत अनुभव; स्पअमक मगचमतपमदबमद्ध ही उनके ज्ञान-निर्माण का आधार थ्ो, कोई शास्त्र्ा या ग्रन्थ नहीं। 'देसी' विचारकों के विपरीत उनकी अनुचिन्तनपरक बौद्धिक चेतना का आधार कोई शास्त्र्ा या ग्रन्थ नहीं थ्ो। इस प्रकार 'परे' की भारतीय चिन्तन परम्परा वह बौद्धिक धारा है, जो 'देसी' और 'व्युत्पन्न' दोनों श्रेणियों का अतिक्रमण करती है। 'परे' की यह वैचारिक श्रेणी उन अनुभवों / विचारों के प्रति अधिक संवेदनशील है, जो तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद उत्पन्न हुए हैं। 'देसी' और 'व्युत्पन्न' दोनों विचारक इस 'परे' की श्रेणी का दमन करने का प्रयास करते हैं। इसके बावजूद इस 'श्रेणी' का आविर्भाव होता है।
जैसा कि हमने पूर्व में कहा कि किसी भी राष्ट्रवादी परियोजना में 'अतीत की खोज' और उसकी पुनर्व्याख्या राष्ट्रवाद का आवश्यक अंग होती है। इस संदर्भ में यह उल्ल्ोखनीय है कि तथाकथित भारतीय राष्ट्रवाद की धाराएं-उपधाराएं भारत के अतीत की व्याख्या 'हिन्दू' के रूप में ही करती है। हिन्दू-संस्कृति और वेदों की श्रेष्ठता और महानता से न केवल 'देसी' विचारक अभिभूत है, बल्कि ई0एम0एस0 नम्बूदरीपाद और श्रीपाद अमृत डांगे जैसे ब्राह्मणवादी-मार्क्सवादी भी। इस संदर्भ में उल्ल्ोखनीय है कि डांगे ने अपने ग्रन्थ "इण्डिया: फ्राम प्रिमिटिव कॉम्युनिज्म टू स्ल्ोवरी" ख्5, में वेदों और वैदिक समाज को आदिम साम्यवाद के रूप में परिभाषित करते हुए उसका सेलीब्रेशन किया है। इसी प्रकार ई0एम0एस0 नम्बूदरीपाद ने अपनी पुस्तक "नेशनल क्वेश्चन इन केरला" ख्6, में जाति व्यवस्था का न्यायीकरण इस आधार पर किया है कि जाति संस्था के आविर्भाव ने उत्पादन को बढ़ा दिया था। ध्यातव्य है कि मार्क्स के ऐशियाई उत्पादन प्रणाली और प्राच्य निरंकुशवाद विषयक विचारों को इस आधार पर त्याग दिया गया था कि वे ब्रिटिश उपनिवेशवाद का समर्थन करते हुए प्रतीत होते हैं। प्रश्न यह है कि भारत के द्विज मार्क्सवादियों ने जाति के ऐतिहासिक भौतिकवाद को विकसित करने का प्रयत्न क्यों नहीं किया। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि भारतीय राष्ट्रवाद के 'देसी' व्युत्पन्न और मार्क्सवादी संस्करण हिन्दू-राष्ट्रवाद के दायरे में ही कार्य कर रहे थ्ो।
बहस को आगे बढ़ाते हुए यदि हम इस विमर्श को स्वतन्त्र्ाता आन्दोलन की रोशनी में देखते हैं तो ऐसा प्रतीत होता कि स्वतन्त्र्ाता आन्दोलन के दौरान राष्ट्रवाद एक प्रभुत्वशाली विमर्श और विचारधारा थी। तत्कालीन राजनीति-चिन्तन 'राष्ट्रवाद' बनाम 'साम्राज्यवाद' जैसे द्विविभाजन; ठपंदंतल कपअपेपवदद्ध पर आधारित था। हम देखते हैं कि पूरे औपनैवेशिक भारत का यह सामान्य बोध; ब्वउउवद ेमदेमद्ध था कि जो प्रभुत्वशाली राष्ट्रवाद की भाषा में बात नहीं करता, वह अनिवार्यतः साम्राज्यवाद का समर्थक है। आश्चर्य नहीं है कि ज्योतिबा फुल्ो, डॉ0 आम्बेडकर और पेरियार प्रभृति विचारकों को साम्राज्यवाद का दलाल निरूपित किया गया। इन विचारकों के अनुसार राजनीतिक स्वतन्त्र्ाता के बजाय सामाजिक स्वतन्त्र्ाता और मुक्ति प्राथमिक थी। फुल्ो-आम्बेडकर की वैकल्पिक राष्ट्रवादी धारा ने भारतीय इतिहास और अतीत की व्याख्या निम्नवर्गीय (सबआर्ल्टन) दृष्टि से की। इन विचारकों ने भारत के अतीत को किसी वैदिक धर्म के ब्राह्मणवादी समाज में नहीं देखा। फुल्ो के इतिहास-दर्शन के अनुसार आर्य ब्राह्मणों ने भारत के अनार्य मूल निवासियों को अपने छल, छद्म और हिंसा के बल पर अपना गुलाम बनाया और चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का सर्जन किया। ख्7, बाबा साहेब ने आर्य आक्रमण के सिद्धान्त को त्यागते हुए भारत के इतिहास को ब्राह्मणवाद और बौद्धवाद के मध्य हुए संघातक संघर्ष के रूप में देखा। उनके अनुसार भारतीय इतिहास क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति का इतिहास है। ब्राह्मणवादी वैदिक संस्कृति के विरुद्ध बुद्ध के नेतृत्व में वर्णव्यवस्था विरोधी क्रान्ति हुई. बौद्ध भारत के खिलाफ पुष्यमित्र्ा शुंग के नेतृत्व में ब्राह्मणवादी प्रतिक्रान्ति हुई. इस प्रकार डॉ0 आम्बेडकर के अनुसार "हिन्दू-भारत" कभी अस्तित्व में ही नहीं था। उनके अनुसार मुसलमानों के आगमन के पूर्व भारतीय इतिहास के तीन कालखण्ड थ्ो। प्रथम, ब्राह्मणवादी काल, जिसके अन्तर्गत वैदिक आर्य समाज सम्मिलित है। यह भारतीय इतिहास में बर्बरता का युग है।
द्वितीय, बौद्ध काल, यह युग भारतीय इतिहास में मौर्य साम्राज्य के नाम से अभिहित किया जा सकता है। यह काल भारतीय इतिहास में समता की संस्कृति और सभ्यता का काल है। तृतीय हिन्दू काल, यह ब्राह्मणवादी प्रतिक्रान्ति का समय है, जिसकी परिणति पुष्यमित्र्ा शुंग के शासन और जाति व्यवस्था के संस्थानीकरण में हुई. बाबासाहेब का अभिमत था कि भारतीय इतिहास वस्तुतः ब्राह्मणवाद और बौद्धवाद के मध्य विचारधारात्मक / मूल्यात्मक संघर्ष के साथ-साथ राजनीतिक / सामरिक संघर्ष का इतिहास है। ख्8,
इस प्रकार हम देखते हैं कि जाति-विरोधी विचारकों ने भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की प्रभुत्वशाली राष्ट्रवाद से सर्वथा भिन्न व्याख्या प्रस्तुत की। इतिहास सदैव सत्य का आख्यान नहीं होता। इतिहास सदैव 'वर्तमान' की राजनीतिक-सामाजिक दबावों / मांगों से परिचालित होता है। इतिहास वस्तुतः ज्ञान की राजनीति का युद्धक्ष्ोत्र्ा होता है। यह प्रश्न अप्रासंगिक है कि फुल्ो आम्बेडकर का इतिहास दर्शन सत्य है या असत्य। प्रासंगिक यह है कि इन विचारकों ने जाति शोषण; म्बवदवउपब मगचसवपजंजपवदद्ध और जाति उत्पीड़न; ैवबपंस व्चचतमेेपवदद्ध को 'संस्कृति' के दायरे से बाहर लाकर राजनीतिक मुद्दा बनाया।
इस बात को हम पूर्व में ही रेखांकित कर चुके हैं कि स्वतन्त्र्ाता आन्दोलन में साम्राज्यवाद को ही मुख्य अन्तर्विरोध माना गया। जब डॉ0 आम्बेडकर ने बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में अपने सामाजिक आन्दोलन का सूत्र्ापात किया, उस समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को भारतीय राष्ट्रवाद का निर्विवाद संवाहक माना जाता था। कांग्रेस को साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष का पर्याय माना गया। यह विश्वास तत्कालीन समाज का राजनीतिक सहज बोध; ब्वउउवद ेमदेमद्ध बन गया था। साम्यवादी और समाजवादी भी कांग्रेस को साम्राज्यवाद-विरोधी संयुक्त मोर्चे के रूप में व्याख्यायित करते हुए उसके भीतर से ही कार्य कर रहे थ्ो। इस परिस्थिति में डॉ0 बाबासाहेब आम्बेडकर ही एकमात्र्ा नेता और विचारक थ्ो, जिन्होंने कांग्रेस के वर्ग-जाति चरित्र्ा को भलीभांति पहचाना। डॉ0 आम्बेडकर के अनुसार कांग्रेस मूलतः ब्राह्मण बनिया वर्गों / जातियों का प्रतिनिधितव करने वाली और जमींदार-पूंजीपति वर्ग का हित-साधन करने वाली पार्टी थी। इसलिए डॉ0 आम्बेडकर को यह आवश्यकता महसूस हुई कि एक स्वतन्त्र्ा राजनीतिक दल चाहिए जो वास्तविक रूप से साम्राज्यवाद-पूंजीवाद, सामंतवाद-ब्राह्मणवाद से लड़ सके. इसी उद्देश्य से उन्होंने 1936 में अपनी पहली राजनीतिक पार्टी का गठन किया, जिसका नाम " इण्डिपेन्डेन्ट ल्ोबर पार्टी'ख्9, रखा गया। आई0पी0एल0 का मुख्य कार्यक्रम साम्राज्यवाद के साथ-साथ भारतीय सामंतवाद, पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष करना था। आई0पी0एल0 में डॉ0 बाबासाहेब के नेतृत्व में महाराष्ट्र के कोंकण क्ष्ोत्र्ा में खोत जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के लिए क्रान्तिकारी संघर्ष चलाया। खोत जमींदार चितपावन ब्राह्मण थ्ो, जो दलित व अन्य शूद्र जातियों के किसानों और ख्ोत मजदूरों का शोषण करते थ्ो। कांग्रेस के चितपावन ब्राह्मण नेताओं ने खोत जमींदारों का पक्ष लिया व जमींदारी उन्मूलन के आई0पी0एल0 द्वारा चलाये गये आन्दोलन की निन्दा की। इससे कांग्रेस के वास्तविक जाति-वर्ग चरित्र्ा का स्पष्ट उद््घाटन होता है। सन् 1936-42 का दौर आई0पी0एल0 के रेडिकल संघर्षों का दौर है। डॉ0 आम्बेडकर के नेतृत्व में औद्योगिक विवाद विध्ोयक के खिलाफ एक दिन की आम हड़ताल हुई. इस हड़ताल में साम्यवादियों ने भी डॉ0 आम्बेडकर का साथ दिया। इस प्रकार आई0पी0एल0 ने साम्राज्यवाद-पूंजीवाद, सामंतवाद और जाति व्यवस्था के विरुद्ध आक्रामक संघर्षों का नेतृत्व किया। डॉ0 आम्बेडकर के अनुसार ब्राह्मणवाद-जातिवाद और पूंजीवाद भारतीय उत्पीड़ित समाज के दो शत्र्ाु हैं। आई0पी0एल0 की स्थापना एक वास्तविक साम्राज्यवाद-पूंजीवाद, सामंतवाद और ब्राह्मणवाद विरोधी मंच की स्थापना का प्रयास था। इस दौर में साम्यवादी आन्दोलन ने दलित आन्दोलन को समझने और जाति की विशिष्टता; ैचमबपपिबपजलद्ध को सिद्धान्तीकृत करने की कोशिश नहीं की। उनके लिए कांग्रेस ही भारतीय राष्ट्रवाद की वास्तविक वाहक और साम्राज्यवाद विरोधी थी। इसके दो ही कारण हो सकते हैं। प्रथम, साम्यवादी नेतृत्व द्विज जातियों के हाथ में था। साम्यवादियों की द्विज-जातीय सामाजिक अवस्थिति; ैवबपंस सवबंजपवदद्ध के कारण उनके लिए जातिगत उत्पीड़न-शोषण के अनुभव को समझना और व्याख्यायित करना असंभव था। द्वितीय, उन्होंने रूढ़िवादी, एकप्रवाही, पोथीनिष्ठ, ऐतिहासिक भौतिकवाद का आश्रय ल्ोकर' जाति'को मात्र्ा अधिरचना; ैनचमत। ेजतनबजनतमद्ध का हिस्सा माना और वर्तमान में भी मानते हैं। इससे' जाति' एक महत्त्वहीन विचारधारा मात्र्ा सिद्ध होती है।
जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की रचना डॉ0 आम्बेडकर का स्वप्न था। जाति-विनाश के लिए डॉ0 आम्बेडकर ने अपने ग्रन्थ "स्टेट एण्ड माइनॉरिटीज" ख्10, में राज्य समाजवाद की कल्पना प्रस्तुत की। डॉ0 आम्बेडकर की दृढ़ मान्यता थी कि जाति-समस्या का एक अनिवार्य पहलू भूमि और तज्जन्य उत्पादन सम्बन्धों से निर्मित है और दूसरा पहलू जाति-व्यवस्था के धार्मिकीकरण और सांस्कृतिक न्यायीकरण से जुड़ा हुआ है। अतः जाति उन्मूलन के लिए भूमि सम्बन्धों के आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। इसके लिए डॉ0 आम्बेडकर ने भूमि के पुनर्वितरण के बजाय भूमि के राष्ट्रीयकरण का प्रस्ताव दिया। इसी प्रकार उद्योगों के राष्ट्रीयकरण को बाबासाहेब दलित मुक्ति के लिए आवश्यक मानते थ्ो। दूसरी ओर, जाति-व्यवस्था का धार्मिक-सांस्कृतिक पहलू हिन्दू धर्मग्रन्थों में जाति व्यवस्था के न्यायीकरण, महिमामंडन और दलितों-शूद्रों के निकृष्टीकरण में निहित है। इसे हम जाति का 'सांस्कृतिक तर्क' भी कह सकते हैं। इस प्रकार जाति-विनाश के लिए हिन्दू धर्मशास्त्र्ाों द्वारा जनित 'प्रदूषण-शुद्धता' की विचारधारा से निरन्तर विचारधारात्मक संघर्ष की आवश्यकता है। अतः हम निष्कर्षतः यह कह सकते हैं कि भारतीय राष्ट्रवाद के निर्माण के लिए 'जाति' के विभिन्न आर्थिक-सांस्कृतिक पहलुओं से निरंतर आमूल संघर्ष आवश्यक है। दूसरे शब्दों में, जाति-उन्मूलन के बिना भारतीय राष्ट्रवाद का चरितार्थन असंभव है।
संदर्भ ग्रन्थ सूची
1. आम्बेडकर, बी0आर0, बाबासाहेब आम्बेडकर राइटिंग्स एण्ड स्पीचेज, गवर्नमेण्ट ऑफ महाराष्ट्र एजुकेशन डिपार्टमेण्ट, 1987
2. आयल्ौया, कांचा, द वेपन ऑफ दी अदर, पियर्सन, 2011
3. आम्वेट, गेल, दलित्स एण्ड द डेमोक्रेटिक रेवोल्यूशन, सेज पब्लिकेशन्स, दिल्ली, 1994
4. चटर्जी, पार्थ, नेशनलिस्ट थॉट अण्ड कॉलोनिअल वर्ल्ड: अ डेरिवेटिव डिस्कोर्स, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1986
5. चटर्जी, पार्थ, नेशन अण्ड इट्स फ्रैगमेन्ट्स, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1996
6. गुरु, गोपाल, दी आइडिया ऑफ इण्डिया, इकोनॉमक एण्ड पोलिटिकल वीकली, दिल्ली, नवम्बर, 2011
ऽ
ख्1, चटर्जी, पार्थ, नैशनलिस्ट थॉट अण्ड कॉलोनिअल वर्ल्ड: अ डेरिवेटिव डिस्कोर्स, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1986
ख्2, पारेख, भीखू, कॉलोनियलिज्म, ट्रेडीशन एण्ड रिफार्म: एन एनालिसिस ऑफ गांधीज् पॉलिटिकल डिस्कोर्स, दिल्ली, सेज, 1989, पृ0 228
ख्3, प्रबुद्ध भारत, डॉ0 आम्बेडकर द्वारा संपादित मासिक पत्र्ा का नाम है। प्रबुद्ध भारत की कल्पना जाति विहीन, वर्ग विहीन समाज की कल्पना है।
ख्4, फूको मिश्ोल, दि आर्डर ऑफ थिंग्स: एन आर्कियलाजी ऑफ ह्यूमन साइंसेस, लंदन, रूटल्ोज, 1989
ख्5, डांगे, एस0ए0 इण्डिया: फ्रॉम प्रिमिटिव कॉम्युनिज्म टू स्ल्ोवटी, पिपल्स पब्लिशिंग हाउस, 1972
ख्6, नम्बूदरीपाद, ई0एम0एस0, नेशनल क्वेश्चन इन केरला, 1965
ख्7, ज्योतिराव फुल्ो, समग्र वाङ्मय, महाराष्ट्र सासन, 1991, पृ0 307
ख्8, आम्बेडकर, बी0आर0, डॉ0 बाबासाहेब आम्बेडकर राइटिंग्स एण्ड सपीचेज, वाल्यूम-3, पृ0 419-20
ख्9, अब से आई0पी0एल0
ख्10, डॉ0 आम्बेडकर, बी0आर0, डॉ0 बाबासाहेब आम्बेडकर राइटिंग्स एण्ड स्विचेज, महाराष्ट्र शासन, 1978, वाल्यूम 1