भूमिका
साथियों, आज 1967 में हुए नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के 50 वर्ष पूरे हो चुके हैं | इस अवसर पर हम यह भाषण प्रकाशित कर रहे हैं | जिसे एक सामाजिक कार्यकर्ता ने इस आंदोलन के बारे में अपने निजी अनुभव का वर्णन किया है | यह घटना बंगाल के एक गांव नक्सलबाड़ी की है | जहां पर जमींदारों द्वारा भूमिहीन किसानों का भयानक शोषण व उन पर अत्याचार किया जाता था | इस पर भी कम्युनिस्ट पार्टी ने कुछ नहीं किया और चुनाव में लगी रही तभी स्थानीय कमेटी के नेतृत्व में जनता ने पार्टी को त्याग दिया और क्रूर जमींदारों को मारकर “जमीन जोतने वाले की” नारे के साथ जमीन पर कब्जा कर लिया | बाद में पुलिस जमींदारों के पक्ष में आकर 11 बच्चे बूढ़े और महिलाओं की गोली मारकर हत्या कर दी | चूंकि देश भर में लगभग इसी तरह की स्थिति थी और अन्य तरह के भी शोषण उत्पीड़न मौजूद थे | इसके उपरांत यह चिंगारी देशभर में आग की तरह फैली और जनता के लिए यह एक आदर्श भी था | नक्सलबाड़ी विद्रोह का ऐतिहासिक रूप से राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय महत्व है | जब 1956 में समाजवादी सोवियत रूस की कम्युनिस्ट पार्टी ने समाजवाद का रास्ता त्याग दिया या कहें कि उसमें गद्दार संशोधनवादी लोगों ने घुसपैठ कर मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धांतों को नकारने लगे | पूंजीवाद की पुनर्स्थापना करने लगे तब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने माओ के नेतृत्व में इस संबंध में महान बहस चलाया इसका असर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर भी पड़ा | दुनिया भर की ज्यादातर कम्युनिस्ट पार्टियां और उसकी संशोधनवादी रस्ते के ही प्रभाव में रहे | 1966 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रांति को आरंभ किया | इन दोनों अंतरराष्ट्रीय घटनाओं की ही कड़ी है नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह | इसने पहली बार संशोधनवाद और मुक्ति मार्ग के बीच स्पष्ट विभाजन रेखा खींच दी | भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन की दो कमियां चिन्हित करते हुए कहा कि अर्थवादी मांगों की जगह राजनीतिक सत्ता पर कब्जा करना प्रमुख है और चुनाव के रास्ते कोई परिवर्तन संभव नहीं है | भारतीय समाज का विश्लेषण एक अर्धऔपनिवेशिक-अर्धसामंती समाज के रूप में किया गया | जनता के सामने मुख्य दुश्मन के रूप में क्रमशः सामंतवाद, साम्राज्यवाद, दलाल नौकरशाह पूंजीपति वर्ग व संशोधनवाद को माना गया | जनता के सामने इलाकावार सत्ता दखल के माध्यम से नवजनवादी सशस्त्र कृषि क्रांति का कार्यभार रखा गया | इस विद्रोह का बहुत ही व्यापक प्रभाव राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय फलक पर पड़ा | देश की राजनीति में पहली बार कांग्रेस का केंद्र टूटना तथा ढेर सारे क्षेत्रीय दलों का उभार हो या भूमि सुधार का सवाल प्रमुख सवाल बनना हो या तथाकथित हरित क्रांति हो इस सब के पीछे नक्सलबाड़ी आंदोलन का ही प्रभाव रहा है | नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव से ही पहली बार देश में रेडिकल दलित आंदोलन दलित पैंथर (1972) में शुरू हुआ | इसी समय दलित साहित्य का भी उदय होता है | पहली बार कोलकाता, दिल्ली के मेडिकल-इंजीनियरिंग व अन्य कालेज दो-दो वर्ष तक बंद रहे | छात्रों-नौजवानों की एक पूरी पीढ़ी इस आंदोलन में कूद पड़ी | जो न सिर्फ शिक्षा रोजगार की समस्या में सुधार व बदलाव बल्कि पूरी राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव की ताकत रखती थी | इस आंदोलन की गर्मी ने विभिन्न राज्यों भाषाओं में ढेर सारे साहित्यकार पैदा किए | जिनके बिना साहित्य अधूरा है | जिनमें मुख्य रूप से पास, मुक्तिबोध, गोरख पांडेय, धूमिल, नागार्जुन,चेराबंडा राजू, वरवरा राव आदि हैं | आज यह नक्सलबाड़ी गांव का विद्रोह आंदोलन के रूप में विभिन्न राज्यों में ज्यादा संगठित और विस्तारित हुआ है | अपनी समीक्षा कर स्थायित्व प्राप्त कर चुका है | 1967 का यह मार्क्सवाद-लेनिनवाद माओ त्से तुंग विचारधारा का विद्रोह 1980 तक आते-आते वैश्विक स्तर पर मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद के रूप में मुक्ति का एक मुकम्मल राजनीतिक दर्शन बन चुका है | लगातार क्रूर विश्वपूंजीवादी अर्थव्यवस्था संकट में डूबती जा रही है | उबर नहीं पा रही है | जहां दुनिया के 1% लोगों के पास 50% से ज्यादा की संपत्ति संपदा केंद्रित हो चुकी है | 1% लोगों की दौलत लोगों की दौलत 99% लोगों की दौलत से ज्यादा है | वहीं भारत में 1% अमीरों के पास 73 प्रतिशत दौलत है | केवल 57 लोगों के पास 70% की संपत्ति संकेंद्रित हो चुकी है | दुनिया भर के राजनीती में ट्रंप, शिंजो अबे, नेतन्याहू, मोदी के रूप में फासीवाद का उभार हो रहा है | देश में मजदूरों, किसानों, छात्र, नौजवानों, आदिवासियों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, राष्ट्रीयताओं, दलितों, व्यापारियों, नागरिकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों व अन्य तबकों का शोषण उत्पीड़न और उन पर हमले बढ़ रहे हैं | ऐसी विशिष्ट ब्राह्मणवादी हिंदू फासीवाद की चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में क्रूर विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के खात्मे का क्या रास्ता होगा एक बार फिर हमें विद्रोह की एक छोटी सी चिंगारी को देखना चाहिए | जो जंगल में आग की तरह फैल गया था | जहां नारा था नक्सलबाड़ी एक ही रास्ता, अमार बाड़ी तोमार बाड़ी, नक्सलबाड़ी |
नक्सलबाड़ी के 50 वर्ष पर वीरा साथीदार का भाषण : लिप्यांतरण : आरती
इंसान का इंसान के द्वारा शोषण खत्म करने के लिए जिन ज्ञात और अज्ञात शहीदों ने अपनी कुर्बानियां दी उन सब शहीदों को मैं नमन करता हूं | डायस पर बैठे हमारे वरिष्ठ मार्गदर्शक और अध्यक्षता कर रही वरलक्ष्मी जी और आप सभी साथी, सबसे पहले मैं विरसम को बधाई देना चाहूंगा कि उन्होंने नक्सलबाड़ी के 50 वर्ष के उपलक्ष्य में एक अच्छे सेमिनार का आयोजन किया | मुझे और आप लोगों को अपने अंदर झांकने का एक मौका दिया है | हम अपनी समीक्षा कर सकते हैं |
दोस्तों, यह वर्ष केवल नक्सलबाड़ी के 50 वर्ष पूरे होने का वर्ष नहीं है | इसके अलावा अक्टूबर क्रांति के सौ वर्ष पूरे होने का भी वर्ष है | इसके अलावा हमारे महाराष्ट्र के इतिहास में, दलितों के इतिहास में, दलितों के मिलिटेंट इतिहास में, एक लड़ाई है भीमा कोरेगांव की लड़ाई | उस भीमा कोरेगांव की लड़ाई को भी 200 वर्ष पूरे हो रहे हैं | यह लड़ाई हमें एक दूसरे को बधाई देने का तो मौका देती है | लेकिन अपनी कमजोरियों पर सोच विचार करने का भी एक जरूरत हमें बताती है | आज हम लोग केवल अपने आंदोलन की अच्छाई पर नजर नहीं डालते हुए 50 साल पहले जो लड़ाइयां लड़ी गई, सौ साल पहले जो लड़ाइयां लड़ी गई, 200 साल पहले जो लड़ाइयां लड़ी गई, उसकी क्या कमजोरियां रही हैं | उस पर बात करेंगे | दुश्मन अभी खत्म नहीं हुआ है | दुश्मन का रूप बदल गया है | आज के सेमिनार के उपलक्ष्य में हमें अपनी लड़ाई के क्या रूप बदलने होंगे? क्या नीतियां बदलने होंगे? क्या दांवपेच बदलने होंगे? इसे सोचने समझने का एक मौका है | मैं समझता हूं आप लोग भी इसे इसी रूप में ले रहे होंगे |
मैं महाराष्ट्र से आया हूं | एक संगठन का कार्यकर्ता हूं | जिसका नाम है रिपब्लिकन पैंथर्स | मेरे साथी सुधीर धवले कल वक्ता थे | मुझे उम्मीद थी कि उनसे मुलाकात होगी लेकिन तबीयत ठीक नहीं होने की वजह से नहीं आ पाए | काफी कमिटेड साथी हैं | वह 4 साल जेल में भी रह चुके हैं | उनके अनुपस्थिति में संगठन व उसके मैगजीन “विद्रोही” को मुझे ही संभालना पड़ा था | दोस्तों,कई बार लोग मेरा परिचय कराते समय मेरे फिल्म का जिक्र करते हैं | मेरा जिक्र एक एक्टर के रूप में करते हैं | मेरी फिल्म काफी चर्चित रही तो उसका ज़िक्र बार-बार आता है | लेकिन मैं आप लोगों को बता दूं कि जिस आंदोलन ने मुझे पैदा किया, वह आंदोलन अगर आज नहीं होता तो मैं एक्टर भी नहीं बनता | आज मैं आपके सामने जो कुछ हूं यह उस आंदोलन की देन है | जिसके बदौलत मैं यहां खड़ा हूं | मैं महाराष्ट्र में 1960 में पैदा हुआ | 1978 में जब जवानी में कदम रख रहा था, मैं अपने उम्र के 18 साल पूरे कर चुका था | उस समय क्योकि बाबा साहब को तो मैंने देखा नहीं | बाबा साहेब के आंदोलन को केवल मैंने महसूस किया है | मेरे मां-बाप की पीढ़ी ने उसे देखा है | लेकिन मैंने जिनको देखा व महसूस किया है | वह दो आंदोलन है एक तो है दलित पैंथर आंदोलन दूसरा है नक्सलवादी आंदोलन | मैं आज जो कुछ भी हूं वह इन दो आंदोलनों का प्रोडक्ट हूं | मैं जो कुछ भी आप सबके सामने रखूंगा मैंने जो कुछ देखा है, जो कुछ महसूस किया है, उसी को मैं आपके साथ साझा करना चाहूंगा | बाकी जो बातें हैं मेरे बुजुर्ग मार्गदर्शक यहां बैठे हुए हैं | थ्योरिटिकल बातें तो हमने 2 दिन की है | लेकिन दिल के अंदर हम लोगों ने क्या महसूस किया है, मैं उसे रखना चाहूंगा |
1975-78 तक मैंने अपने गांव में गाय चराने का काम किया | मेरे बाप की बहुत ख्वाहिश थी कि मैं बाबासाहेब बनू | उस समय के हर माता-पिता की यही ख्वाहिश होती थी | हर कोई अंबेडकर नहीं बन सकता | तो मैं गाय चराने का काम करता था | मेरे बाप को बड़ा बुरा लगता था कि बाबासाहेब बनने की सोचता था और बच्चा गाय चराता है | और मुझे वह काम करना बहुत प्यारा लगता था | कोई टेंशन नहीं है | ना आंबेडकर समझ में आए, ना फूले समझ में आए, ना भगत सिंह समझ में आए | मार्क्स-लेनिन-माओ तो बहुत दूर की बात थी | सुबह दिन निकले तो गाय चराने जंगल में जाना है, शाम को गाय लेकर आना है | अपने दोस्तों के साथ रात को गप्पे करना है | खाना खाकर सो जाना है | कोई टेंशन नहीं, लेकिन बात-बात की डांट डपट करने से, रोज-रोज की गाली से मैं नागपुर भाग गया | जब फैक्ट्री में मैंने मजदूरी किया और मजदूरी करते करते मुझे फिल्में देखने का चस्का लग गया | तब मजदूरी करता था और भूखा रहकर फिल्में देखता था | लेकिन ज्यादा दिन तक आदमी भूखा नहीं रह सकता | फिर सोचा कि क्यों न यह खर्चीला शौक बंद कर दिया जाए और कुछ किताबें पढ़ लिया जाए | जब मैंने दिल बहलाने व टाइम पास करने के लिए एक बार 50 पैसे की किताब खरीदी | वह थी मैक्सिम गोर्की की मां | मुझे ताज्जुब हुआ कि इतनी साल पुरानी रूस के कांटेस्ट में लिखी हुई किताब जिसमे पावेल जो जिंदगी जी रहा है, सासा जो जिंदगी जी रही है, निलोवना जो जिंदगी जी रही है, इससे अलग मेरी कोई अपनी जिंदगी नहीं है | मैं भारत में 1978 में हूं, उसके बावजूद उस किताब में जो चीजें लिखी गई हैं | उस हिसाब से हमारी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आया है | मुझे लगा मैं पावेल हूं | उस पावेल की जो जिम्मेदारी थी वह मुझे निभानी है | और उसके बाद मेरे सोच ने एक मोड़ लिआ | मुझे ऐसी किताबें पढ़ने का चस्का लग गया | ऐसी किताबें जब मैं पढ़ता था तभी मुझे नींद आती थी | अगर मैं रात को भी शिफ्ट करके आऊँ दो पेज पढ़े बगैर मुझे नींद नहीं आती थी | अगर मुझे बहुत ही जल्दी सोना हो तो इकोनॉमिक्स की किताबें पढ़ लेता था | मैं पढ़ा लिखा आदमी नहीं हूं | मैं कभी कॉलेज नहीं गया लेकिन मुझे पता है कि ज्ञान केवल कॉलेज से ही नहीं आता | माओ कहते हैं कि फिलोसोफी जनता के पास है | और यह फिलोसोफी कोई बड़ी चीज नहीं होती है | वह जनता के पास है ऑलरेडी | मैं तो किसान परिवार से पैदा हुआ और मजदूर बनकर जी रहा था | तो मुझे पता था की फिलॉसफी क्या है हमारे जिंदगी में |
जब एक आंदोलन के दौरान कई सारे संगठनों के नेताओं से मेरा परिचय हुआ | लोगों को लगा कि यार बच्चे में कुछ बात है | थोड़ा मिट्टी को आकार देना चाहिए तो रोज कोई न कोई मेरे घर आते थे | चार संगठन उस समय नागपुर में काम करते थे | दलित पैंथर 1972 में बना 1976 में खत्म हो गया था | मैं तो 1978 में नागपुर में आया था और 80 तक आते-आते मेरी समझ बढ़ गई | उस समय नागपुर में नक्सलवादी आंदोलन से जुड़े हुए 4 संगठन काम करते थे सीपीआई एम-एल लिबरेशन, सीपीआई एम-एल पिंपल्स वॉर, सीपीआई एम-एल जिसके नेता उस समय में चंद्र पुला रेड्डी हुआ करते थे | एक और ग्रुप काम करता था सीपीआई एम-एल सीआरसी | चारों संगठनों के साथ मेरी दोस्ती व बातचीत रही | चारों संगठनों के साथ मेरी एक समझदारी बनी | मैं एक संगठन का मेंबर बना सीपीआई एम-एल लिबरेशन | अंडरग्राउंड पार्टी थी, पार्टी के नेता आते थे 4 से 8 दिन का हमारा क्लास लेते थे | इकोनॉमिक्स व फिलोसोफी पढ़ाते थे | लेकिन समझदारी थोड़ी विकसित हुई और मार्क्सवाद क्या है पता चला, तो हमें यह भी पता चला कि मार्क्सवाद ने मुझे यह भी सिखाया कि अंधभक्त नहीं बनना है | दिमाग रख कर कार्य करना है | और जब मैंने महसूस किया कि जिस पार्टी के लिए मैं काम कर रहा हूं, उस पार्टी ने अपना रास्ता त्याग दिया है तो मैंने भी उस पार्टी को 1985 में त्याग दिया | जब पार्टी ने ओपन होकर एक चुनावी संसदीय पार्टी का रूप धारण कर लिया | मुझे विश्वास था कि कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो का जो पहला ही सेंटेंस है कि “दुया निका जो लिखित इतिहास है यह वर्ग संघर्ष का इतिहास है” और उसका आखरी सेंटेंस है कि “मजदूरों को खोने के लिए अपने बेड़ियों के सिवा कुछ भी नहीं है और पाने के लिए पूरी दुनिया है” इन दो सेंटेंस के बीच में जो कुछ भी है | उस मार्क्सवाद को मैं समझ चुका था | मुझे लग रहा था कि सही संगठन को खोजना है | फैक्ट्री बंद हो गई, मैंने फिर दूसरी फैक्ट्री में मजदूरी की | पत्रकारिता भी की, लेकिन मेरे जेहन में जो इमानदारी की एक जड़ पैदा हो चुकी थी मैंने वह ईमानदारी नहीं छोड़ी |
2004 में जब मुंबई में मुंबई प्रतिरोध हुआ | उसके आयोजकों में से मैं भी एक रहा | फिर मैंने करीब से देखा संगठन छोड़ने के 30 साल बाद 2004 में मुझे लगा कि लोग वही हैं, लोगों में ईमानदारी है, लोगों में लड़ने का जज्बा है, लोगों में सही सोच है | जितनी भी प्रतिकूल स्थिति आए हमें अपने रास्ते से नहीं हटना चाहिए | जो प्रेरणास्थान मैंने अपनी जवानी के दिनों में देखे थे | कामरेड जोहर, चेराबंडा राजू को तो हम जानते ही थे, श्री श्री को हम लोग जानते ही थे, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को हम लोग जानते ही थे जिनकी कविताओं ने हममे एक ऊर्जा भरने का काम किया था | आज भी जब निराशा घेरने लगती है तो मैं मुक्तिबोध को पढ़ता हूं | मैं पास को पढ़ता हूं, मैं चेराबंडा राजू को पढ़ता हूं और मैं अपनी निराशा को झटक देता हूं | मुझे लगता है कि निराश होना हमारा काम नहीं है | हमारा काम है लड़ना | अगर हम लोग निराश होंगे तो मेरे पीछे जो पीढ़ी है | उसके सामने मैं क्या आदर्श रखूंगा | आज हम लोगों को यह दिन मनाने की प्रेरणा कहां से आती है | एक ही समय में दलित पैंथर का भी मेंबर था और उसी समय में सीपीआईएम-एल लिबरेशन का भी मेंबर था । दोनों संगठनों की मेंबरशिप मैंने ली थी । लेकिन धीरे-धीरे मैंने यह महसूस किया कि दलित पैंथर के नेता से लेकर कार्यकर्ता तक में एक डीजनरेशन की प्रोसेस चल रही है । दूसरी तरफ क्रांतिकारी आंदोलन पर दमन भी किया जा रहा था । इसके बाद भी क्रांतिकारी आंदोलन फैलता जा रहा है । मेरे सामने यह सवाल है कि जिस आंदोलन (दलितपैंथर) पर दमन नहीं किया सरकार ने वह इतना पतित क्यों हो गया? और जिस आंदोलन कादमन किया वह आज भी चल रहा है । डिजनरेसन के बावजूद खुद सत्ता यह कहती है कि यह हमारे लिए एकआंतरिक खतरा है । वह अलग शब्द इस्तेमाल करते हैं। वह कहते हैं कि यह आंदोलन देश के लिए आंतरिक खतरा है । उनके लिए देश का मतलब है अंबानी, अडानी, मोहन भागवत। लेकिन हमारे लिए तो देश का मतलब होता है देश की जनता । इस वर्ग को,जैसा कि कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो में कहा गया है कि "एक भूत यूरोप को सता रहा है" आज भी माओवाद का भूत सता रहा है । हर कहीं इन्हें माओवाद नजर आता है । इन्हें मेधा पाटेकर भी माओवादी नजर आती है, हिमांशु कुमार भी माओवादी नजर आते हैं । हर कोई उन्हें खतरा नजर आता है अगर वह जनता की लड़ाई लड़े । गांधीवादी हो, समाजवादी हो, मार्क्सवादी हो, चाहे वह माओवादी हो ।
आज के समय में हमें सिर्फ यही सोचना है, इतिहास में देखना है कि जितने भी आंदोलन हमारे देश में हुए, दुनिया में हुए हर एक आंदोलन ने हीरो और विलेन पैदा किए । ऐसा कोई आंदोलन नहीं हुआ जहां केवल हीरो पैदा हुए । भगत सिंह का आंदोलन,विरसा मुंडा का आंदोलन,दलित पैंथर आंदोलन हो, चाहे बाबासाहेब का आंदोलन हो । बाबासाहेब जीवित थे तभी विलेन पैदा हो चुके थे । बहुत परेशान किया बाबासाहेब को इनलोगों ने । और जो विश्वासघात और भीतरघात किया है, उसका भी अपना एक इतिहास है क्रांतिकारी आंदोलन के इतिहास में । लेकिन नक्सलवादी आंदोलन एक ऐसा आंदोलन है इसमें हीरो ज्यादा पैदा हुए विलेन बहुत कम पैदा हुए । नहीं हुए ऐसी बात नहीं है । लोग बहुत पतित हुए लेकिन जनता ने उन्हें त्याग दिया है । मुझे यह लगता है कि यह आंदोलन इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि इसकी ताकत है कि इस आंदोलन में सबसे ज्यादा कुर्बानियां लोगों ने दी है । और यह कुर्बानियां हम लोगों को प्रेरणा दे रही हैं । हमें भी कुर्बानियां नहीं तो कम से कम अपने मार्ग पर अडिग रहने का हौसला देती है ।
मैं पिछले साल अक्टूबर में इसी हाल में था और एक दुखद घटना मुझे यहीं मालूम पड़ी । आंध्रा-उड़ीसा बॉर्डर पर जिनकी हत्या की गई थी । उसमें मेरा एक बहुत करीब का दोस्त प्रभाकर भी शहीद हुआ था । वह और मैं एक मंच पर गाते थे । हम लोग एक डायस पर कार्यक्रम भी किए थे । बहुत प्यारा दोस्त रहा है मेरा । मेरी भी आंखें भर आई क्योंकि वह एक इंसान नहीं था । वह केवल एक इंसान नहीं था, वह केवल एक मेरा दोस्त नहीं था, वह हम हजारों लोगों का नेता था । वह हमारा कार्यकर्ता व शहीद था । वह और प्रभाकर जैसे पता नहीं कितने शहीद इस आंदोलन में हुए । मुझे याद है, जब मैं पढ़ता हूं जिनके नाम यह बिल्डिंग है पी0 सुन्दरैय्या उनकी एक किताब है तेलंगाना पीजेंट्स स्ट्रगल। मैं समझता हूं कि नक्सलवादी आंदोलन और कोई नहीं है उस समय का जो तेलंगाना का आंदोलन था उसकी एक नईआवृत्ति है । उसका एक नया एडिशन है । मैं समझता हूं लड़ाई वही है, नक्सलवादी आंदोलन ने और कुछ नहीं किया है । तेलंगाना आंदोलन ने जहां पर हथियार डाल दिया था नक्सलवादी आंदोलन ने वहीं से हथियार उठा कर आगे बढ़ाया है । जिन लोगों ने उस रास्ते को त्याग दिया था चाहे वह तेभागा आंदोलन हो, चाहे तेलंगाना का आंदोलन हो, चाहे पुनप्पा वायलर का आंदोलन हो उन्हें इस आंदोलन पर गर्व करना चाहिए लेकिन दुख है कि उसे वह गर्व नहीं है । लोगों को और हमें भी उन पर गर्व नहीं है । मेरा संगठन अंबेडकराइट संगठन है । तीनआइकॉन हम लोग हमेशा छापते हैं फुले, आंबेडकर, भगत सिंह । हमारा अंबेडकर जो है एक रेडिकल अंबेडकर है, ट्रेडिशनल अंबेडकर नहीं है । वह पूजा करने के लिए बना हुआ अंबेडकर नहीं है । वह लड़ाई के रास्ते बताने वाला अंबेडकर है। और उसी अंबेडकर ने हमें सिखाया है कि लक्ष्य क्या है और हमारे साधन क्या है । अंबेडकर कई जगहों पर जिक्र करते हैं,अपने कार्यकर्ताओं पर दुख भरी भावना से बोलते हैं कि मेरे लोगों ने लक्ष्यों को त्याग दिया है और साधनों पर बहस करने लगे हैं । साधन बदले जा सकते हैं लक्ष्य नहीं बदले जा सकते हैं । और इस समाज में समानता का स्थापना करना, शोषण का खात्मा करना, इंसान का शोषण चाहे वह जाति के आधार पर, वर्ग के आधार पर हो, धर्म के आधार पर हो, चाहे वह लिंग के आधार पर हो,चाहे भाषा के आधार पर हो,चाहे प्रांत के आधार पर हो, चाहे किसी देश या राष्ट्र के आधार पर हो उसका खात्मा करना है । यह हमारा लक्ष्य है और उसके लिए हम किसी भी साधन का इस्तेमाल कर सकते हैं । लेकिन मैं देखता हूं कि ब्राम्हणवादी-पूंजीवादी राज्य ने जो इमेज बनाई है बाबा साहेब की । उसी बाबा साहेब की पूजा करने में लोग अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते है । हमें यह सोचना चाहिए कि राज्यसत्ता का नजरिया और परिवर्तनकामी शक्तियों का नजरिया कभी एक नहीं हो सकता ।राज्यसत्ता का हित और परिवर्तनकामी शक्तियों का हित कभी एक नहीं हो सकता। राज्यसत्ता के संसाधन, साधन, संस्थाएं और परिवर्तनकामी शक्तियों के संस्थाएं और साधन कभी एक नहीं हो सकते।उनमें दोनों में एक मजबूत अंतर्विरोध रहेगा, रहना चाहिए ।अगर नहीं है तो समझ लीजिए संघर्ष भी नहीं है । मैं बाबासाहेब को समझता हूं और बाबासाहेब के इसी नजरिए से में नक्सलवादी आंदोलन को देखता हूं । मुझे लगता है कि नक्सलवादी आंदोलन आज मेरा आंदोलन है । दलित पैंथर आंदोलन मेरा आंदोलन था । ब्लैक पैंथर आंदोलन आंदोलन मेरा था, तेलंगाना-तेभागा आंदोलन मेरा आंदोलन था । बाबासाहब एक जगह यह भी कहते हैं कि जब व्यक्ति और देश के हितों में टकराव होगा तो मैं देश के हितों को प्राथमिकता दूंगा । लेकिन जिस समाज में पैदा हुआ हूं उस समाज के हित और देश के हित में टकराव होगा तो मैं उस समाज के हित को प्राथमिकता दूंगा । हमें बाबासाहेब यह जो नजरिया देते हैं । मैं उसी नजरिए से राज्यसत्ता के चरित्र को देखता हूं और जो क्रांतिकारी आंदोलन हुए है उनको मैं देखता हूं ।
जो स्थितियां दलित पैंथर के साथ में बनी थी उससे भी भयानक स्थिति आज हमारे देश में मौजूद हैं। जिन स्थितियों में नक्सलवादी आंदोलन का आगाज हुआ था उससे भी भयानक की स्थितियां हमारे सामने है । बाबासाहेब के मरने के बाद उनका एक ख्वाब था कि सत्ताधारी पार्टी को एक खुला विरोध करने के लिए सब मिलकर रिपब्लिकन पार्टी जैसे एक बड़ी पार्टी बने। उनके गुजरने के बाद 1957 में जो पार्टी बनी 58 में टूट गई। उसके बाद कुछ जगहों पर उसने लड़ाइयां लड़ी । 1959 में आरपीआई ने महाराष्ट्र में कम्युनिस्टों के साथ मिलकर एक लड़ाई लड़ी थी जमीन की लड़ाई । उस समय में RPI के 17000 कार्यकर्ता जेल गए थे।1964 में उसी आरपीआई ने जमीन की लड़ाई फिर से लड़ी थी । जो देश स्तर पर लड़ी गई थी उसमें 340000 लोग जेल गए थे। यह इतिहास अगर हम लोग थोड़ा सा छोड़ दें तो उसके बाद आरपीआई के इतिहास में हमें कुछ नहीं मिलता है । लेकिन कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में हमें हर कदम कदम पर कई सफलताएं मिलती हैं और उन सफलताओं के साथ कुछ विफलताएं भी मिलती हैं । उन विफलताओं के पीछे मैं उस समय के पार्टी का चरित्र भी हमें दिखाई देता है ।
कल मैं नहीं था सीमा आजाद को नहीं सुन सका लेकिन बैठे-बैठे मैं उनका पेपर पढ़ रहा था । यूपी में उस समय क्या चल रहा था । सीपीआई के समय में क्या चल रहा था, सीपीएम के समय में क्या चल रहा था । उसके बाद में लखीमपुर खीरी में और बाकी जगह पर क्या चल रहा था, मैं उसे पढ़ रहा था । हमारे महाराष्ट्र में भी तेलंगाना का एक अच्छा आंदोलन रहा है । नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत यहीं से हुई है। उस समय के जो नेता थे औरउन्होंने जो लाइन पकड़ी थी उस लाइन का ही नतीजा था कि आंदोलन महाराष्ट्र में गया। और आज भी महाराष्ट्र में एक बड़ा तबका इस आंदोलन की छत्रछाया में जी रहा है । एक ऐसा प्रदेश जहां पर महाराष्ट्र का सबसे घना जंगल अगर कहीं पर है तो वह पूर्व महाराष्ट्र में है चंद्रपुर, गडचिरोली, गोंदिया, भंडारा जिले में है । यहीं पर इस देश के संसाधन अभी तक छिपे हुए हैं । महाराष्ट्र सरकार ने केंद्र सरकार के साथ मिलकर साम्राज्यवादी दलालों के साथ मिलकर संसाधनों कीजो लूट पूरे देश में मचा रखी है। अभी उसकी नजर महाराष्ट्र के जंगल में जो संसाधन छिपे हुए हैं, जो सुरक्षित हैं, जहां आदिवासी लोग बसते हैं उस पर है। वहां से खनिज संपदा को खोदने का काम खास करके अडानी के लिए, अंबानी के लिए, वेदांता के लिए, एक प्लान किया गया है ।74000 एकड़ लैंड फॉरेस्ट और 21 खदान कंपनियां प्रस्तावित है । एक पहाड़ है हमारे यहां सुरजागढ़ में उस पहाड़ पर लोग आज भी लड़ रहे हैं कि हम वह पहाड़ नहीं देंगे। वह पहाड़ हमारे बड़ा ठाकुर का पहाड़ है। आप कल्पना कर सकते हैं कि 78000 एकड़ जमीन अगर फॉरेस्ट कि खत्म हो जाए। फॉरेस्ट अगर खत्म हो जाए तो केवल वहां के आदिवासी पर असर नहीं होगा। पूरे देश के पर्यावरण पर असर होगा। शहर में रहने वाले लोगों के भी परिवार पर असर होगा । और जब आदिवासी लोग वहां लड़ते हैं। तो हमें नहीं पता होता कि वहां लड़ रहे हैं क्योंकि मीडिया जानबूझकर इस तरह की बातें हमारे सामने परोसता है कि जिसका कोई बुनियादी ही नहीं होता।
मैं आपको बता दूं मेरे घर में टीवी नहीं है। मैंने अपनी पत्नी को समझाया कि भाई तुम 300रुपये महीना देती हो सेट अप बॉक्स के लिए और यह झूठ-मूठ की खबरें देखने के लिए । बंद कर दो यार नहीं देखेंगे टीवी किताब पढ़ लेंगे। मेरी पत्नी बहुत समझदार है वैसे महिलाएं जो आंदोलन में होती हैं काफी समझदार होती हैं। मुझे भी बहुत अच्छी अच्छी सलाह देती है। वह आंदोलन मेंआदमी को पहचानकर बता देती है कि यह जासूस आदमी है । आप देखिए जितने भी युवा पकड़े गए हैं महाराष्ट्र में वह सब ज्यादातर दलित है क्योंकि दलितों की अपनी समस्याएं हैं।जैसा कि मैंने पहले कहा जिस स्थितियों में दलित पैंथर बनी थी उससे भयानक स्थितियां हैं। दलित पैंथर क्यों बनी थी? बाबासाहेब के आंदोलन से जो शिक्षित वर्ग आरपीआई के रूप में एक राजनीतिक प्लेटफॉर्म बन के सामने आया था ।जिसकी लड़ाई लड़ने की जिम्मेवारी थी ब्राह्मणवादी-पूंजीपतिवर्ग की पार्टी कांग्रेस कोमटियामेट करदेना, खत्म कर देना । उस समय जनसंघ इतना ताकतवर नहीं था। लेकिन यह जो युवा पढ़ लिख गया था यह बेरोजगार था । पढ़ने-लिखने के बावजूद वह युवा देख रहा है कि गांव में दलितों पर क्रूर रूप से अत्याचारों की संख्या बढ़ रही है । आंखें निकाल ली जाती हैं । दलितों की महिलाओं के बलात्कार किए जाते हैं और उसका विरोध करने वालों की आंखें फोड़ दी जाती हैं । जिनकी जिम्मेदारी है उनके खिलाफ लड़ने की वह राजनीतिक पार्टी आरपीआई जिस कांग्रेस के खिलाफ लड़ने के लिए बनाई गई थी उस कांग्रेस के साथ हाथ मिला रही है । ऐसी परिस्थितियों में जो गुस्सा दलित युवाओं में था उस गुस्से ने दलित पैंथर का रूप धारण कर लिया । जिन नामदेव ढ़साल,जबीं पवार, राजा ढाले को क्रेडिट देते हुए मीडिया और बाकी इंटेलेक्चुअल लोग उन्हें भी यह नहीं पता था कि दलित पैंथर का एक चिंगारी इतने बड़े जंगल की आग की तरह फैल जाएगा । उन्हें यह समझ भी नहीं आ रहा था कि यह आग की तरह फैला कैसे? लोगों का खून जो उबल रहा था उस ऊबलते हुए खून ने अंगार को जल्दी पकड़ लिया । लेकिन यह समझदारी उस समय राजा ढाले में,जबीं पवार में नहीं थी। उसी तरहआप देखिएगा तेलंगाना का जो आंदोलन रहा,तेभागा का जो आंदोलन रहा या लखीमपुर खीरी का जो आंदोलन रहा उस आंदोलन को समझने की औकात उस समय के लीडरशिप में नहीं थी । इसलिए लीडरशिप को दरकिनार करते हुए जनता आगे बढ़ी और अपना रास्ता चुना ।
जैसा कि माओ कहते हैं कि जनता से सीखो जनता को सिखाओ तो जनता सिखाती है नेताओं को । जनता के पास वह जज्बा है, जनता के पास वह अनुभव है और जनता के पास एक नजरिया होता है क्योंकि जनता ही लड़ती है कोई आंदोलनपार्टी केवल उसको हिरावल के रूप में काम करती है। पार्टी उसको नेतृत्व देती है लेकिन लड़ने का काम जनता करती है । जनता इतिहास में हमेशा पार्टी को रास्ता दिखाती है पार्टी जनता को रास्ता दिखाती है। पार्टी जनता से सीखती है जनता पार्टी से सीखती है।इन दोनों में जोद्वंद्वात्मकसंबंध है यह एक आंदोलन का रुप ले लेती है। मैं यह समझता हूं कि महाराष्ट्र में एकसाथसमय है दलित पैंथर का और नक्सलवादी आंदोलन का।जो साहित्य बंगाल से आया 1970 के दशक में। उसके बाद जो आंध्र से महाराष्ट्र में पहुंचा ।उसका जो असर, ज्यादा अगर किसी पर हुआ तो वह हुआ है साहित्यपर। जो दलित साहित्य आया है दलित पैंथर के आंदोलन से ।क्योंकि उस समय तो कोई नेता होता नहीं था यही युवा लोग थे जो कविता भी लिखते थे।वालराइटिंग भी करते थे, पोस्टर भी लगाते थे, शाम को भाषण भी देते थे। जुलूस का नेतृत्व करते थे पुलिस की लाठियां भी खाते थे। कोई लीडरशिप स्थायी लीडरशिप नहीं थी। हर कोई लीडर था। मेरे गांव में जब मैं बच्चा था कोई लीडर नहीं पहुंचा था। लेकिन दलित पैंथर का नाम पहुंचा था। जब जमींदार के या बड़े किसान के लड़के आंखें निकाल कर उसको देखते थे।तब हम कहते थे ये आंखें नीचे कर दलित पैंथर के लोगों को बुलाएंगे हम लोग। तो उसको आंखें नीचे करनी पड़ती थी। दलित पैंथर का इतना बड़ा खौफ़ हुआ करता था। दलित पैंथर को यह ऊर्जा आई कहां से है? मैं समझता हूं कि दलित पैंथर ने भले कभी यह नहीं माना कि हमें नक्सलवादी आंदोलन से ऊर्जाली है। लेकिन ऊर्जा ली जरूर है। दलित पैंथर का जो मेनिफेस्टो है, जो 1973 में आया था। कहा जाता है कि वह नामदेव ढ़साल ने लिखा है।लेकिन मैं जानता हूं और आप जानते होंगे कि वह केवल नामदेव ढ़साल ने नहीं लिखा। उसका कोई और एक मेंबर था जो नक्सलवादी आंदोलन से आया था। तभी वह इतना अच्छा मैनिफेस्टो लिख सके। जिसका हम लोग आज भी अनुसरणकरनेकीकीकोशिशकरते हैं। दलित पैंथर पतित हो गई लेकिन दलित पैंथर का मेनिफेस्टो आज भी पतितनहीं हुआ।उस प्रोग्रामको आज भी हम कहते हैं कि पढ़िए।वह आज भी रेडिकल है। वह क्यों रेडिकल है? उसे नजरिया देने का काम नक्सलवादी आंदोलन नेकिया है। हम लोग जब कविताएं सुनते थे प्रहलादचंद्रवरकर हो या सपकालेहो, राजा ढाले हो या नामदेव ढ़साल हो। तो उसमें जो गर्मी थी एक कविता है चंद्रवरकरकीकि "जब हम लोग रास्ते पर निकलते हैं, तो पुलिस की फौज हमारे साथ चलती है, और जब हम रास्ते पर निकलते हैं तो उस दिन रास्ता हमारे बाप का होता है, राजसत्ता बंदूक साफ करती है हम अपनी लाठियों उठाते हैं" तो यह जो ऊर्जा थी कविताओं में। मैं समझता हूं यह ऊर्जा उस समय 70 के दशक में बंगाल के साहित्यनेजोऊर्जादी थी और उसके बाद श्रीकाकुलम के आंदोलन ने जो ऊर्जादी थी उसी उर्जा का वह परिणाम रहा है।द्रोणाचार्यघोष, विपुल चक्रवर्ती, चेराबंडाराजूये ऐसे नाम है मराठी इतिहास में जिससे कोई साहित्य अछूता नहीं है। जिनको पढ़े बगैर कोई साहित्य को समझ ही नहीं सकता। इसलिए आप देखेंगे कि दलित साहित्य जो आया है 72 के बाद में खास करके वह नक्सलवादी आंदोलन की देन है ।अंबेडकराईट लोग इसे नहीं मानेंगे लेकिन उस साहित्य का करैक्टर बताता है, वह साहित्य खुद बताता है कि यह नक्सलवादी आंदोलन के प्रभाव से ही इतना अच्छा बना है। आज भी एक युवा वर्ग, महाराष्ट्र का युवा अपने आप में एक रास्ता ढूंढ रहा है कि रास्ता क्या हो सकता है? उन्होंने पैंथर के लोगों को देख लिया है, उन्होंने रामदास अठावले को देख लिया है, उन्होंने BSP के लोगों को देख लिया है, और महाराष्ट्र के नक्सलवादी आंदोलन को भी वह देख रहे हैं। कहीं ना कहीं उनको लगता है कि चूक अंबेडकरवादी आंदोलन से हो रही है। लेकिन चुक क्या हो रही है? उसको विश्लेषित करने का, संश्लेषित करने का जो नजरिया है वह अनेक पास नहीं है। नक्सलवादी आंदोलन एक रीजनल एरिया में सिमटा हुआ आंदोलन माना जाता है। वह आपकी और मेरी जिम्मेदारी है शहर में बैठा हुआ जो युवा जो सच्चे मार्ग की खोज में है उसके पास पहुंचा कर सच्चा मार्ग क्या है इसका प्रबंधन करना चाहिए। क्रांति की बात हम करेंगे क्रांति कौन करेगा? भगत सिंह तो कहते हैं कि युवा ही क्रांति करते हैं। हम जैसे बहुत कम लोग जो उम्र के 18 साल से जिस मार्ग पर चले आज भी उसी मार्ग पर हैं। इस 35 साल केसफरकेबादभी मार्ग नहीं छोड़ा है हम लोगों ने। क्योंकि हमें पता है मुक्ति का रास्ता क्या हो सकता है। एक ही रास्ता है स्लोगन तो लगाया थाना, सबको पता है एक ही रास्ता है मुक्ति का। लेकिन यह रास्ता लेकर पहुंचना पड़ेगा युवा पीढ़ी के पास शहरों में। खासकर के दलितों में दलित वह वर्ग है जो सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे पिछड़ा हुआ है आज। उसी युवाओं मेंप्रेरणा भरने का काम आज आपको और मुझे करना पड़ेगा। जरूरी नहीं कि आप जंगल में जाकर बंदूक लेकर लड़ाई लड़े।कतई जरूरी नहीं! हमारे शहर से एक लड़का उधर गया था जंगल में। जंगल के लोगों ने वापस उसे भेज दिया। बोले कोई जरूरत नहीं यहां हम लड़ेंगे तुम शहर में देखो शहर तो खाली पड़ा हुआ है। शहर तो प्रतिक्रियावादियों के विचारों से भरा पड़ा है। अब वहां के युवाओं को समझाओ। समझा कर वापस भेज दिया जंगल से। जाओ शहरों में युवाओं के संगठन बनाओ,जाओ विद्यार्थियों का संगठन बनाओ। विद्यार्थियों को बताओकि मुक्ति का दर्शन क्या है। मुक्ति की फिलॉसफी क्या है। मुक्ति का रास्ता क्या है। मुक्ति का आंदोलन क्या है। मुक्त की पार्टी क्या है। मैं समझता हूं आज जो हमनक्सलवादीआंदोलनके50 साल मना रहे हैं, हमें अपना मूल्यांकन करना है और आलोचना-आत्मआलोचना तोहमारी जान है।आत्मआलोचना करने में हमें कोई हिचकिचाहट नहीं करना चाहिए।हम जब आलोचना करते हैं नेताओं की तो हमें भी अपनी आलोचना करनीचाहिएकि हम अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं? जो लोग लड़ रहे हैं, जो लोग अपनी जान कुर्बान कर रहे हैं वह तो कर ही रहे हैं तभी तो हमें हौसला मिल रहा है। यह सेमिनार करने का लेकिन केवल उनकी कुर्बानियों पर हमको इतराने का कोई हक नहीं है। कुर्बानी उनकी है हमने नहीं दी है। कुर्बानी हम नहीं दे सकते लेकिन कम से कम उन लोगों की कुर्बानियां जिन्होंने हमारे लिए दी है, मैं कई लोगों को जानता हूं जिन लोगों ने हमें प्रेरित किया है। उनका नाम है अनुराधा गांधी और मेरे एक मित्र हैं कोबाडगांधी।मैंलिबरेशन में था जरूर लेकिन सबसे मेरे रिलेशन थे, बातचीत होती थी। हम समझते थे, समझने की कोशिश करते थे कि सही रास्ता क्या हो सकता है? उन लोगों की जो कुर्बानियां है, अनुराधा गांधी कीजोकुर्बानीहैवहहमें बर्बाद होने नहीं देना है। तो हमें शहरों में रहकर, अपनी फैक्ट्रियों में, अपने ऑफिस में, अपने कॉलेज में, कोर्ट में अगर वकील है तो जहां भी हम काम कर रहे हैं वहां पर अपने विचारों का बीज बोते रहना है। जहां जहां हम लोग पौधों को पानी दे सकते हैं इन विचारों के पौधों को जिंदा रखना है। एक बड़े पेड़ और एक नए क्रांतिकारी युवा हम लोगों को खड़े करने हैं। अगर हम लोग यह जिम्मेदारी निभा रहे हैं अपने घरों में रहकर, अपने ऑफिस में रहते हुए, अपना जो समय है वह हम लोग दे रहे हैं तो मैं समझता हूं हम अपने शहीद नेता के अपने सभी साथियों के काम किसी न किसी रूप में बढ़ा रहे हैं। अगर हम यह नहीं कर रहे हैं तो आज हम 50 साल पर सेमिनार कर रहे हैं,फिर 100 साल पर सेमिनार करेंगे। जैसा कुछ पार्टियां 2025 में करने वाली हैं वह सौ साल मनाएंगे पार्टी की स्थापना के। मैं अपने दोस्तों को कहता हूं क्या तुम्हें शर्म नहीं आएगी? बिना किसी क्रांति के सौ साल मना रहे हो? मेरे लिए तो बहुत शर्मनाक बात होगी। शायद दुनिया की यह पहली पार्टी होगी कि बिना कुछ किए और खासकर के आंदोलन के साथ गद्दारी के वह सौ साल मनाएंगे।1953 तक तो ठीक है जब तक तेलंगाना आंदोलन चला। उसके बाद क्या है ?उसके बाद ऐसी कोई बात नहीं है कि मुझे गर्व महसूस हो।1953 तक तो हम कहते हैं कि एक लड़ाई लड़ी है पार्टी ने ।कुर्बानियां दी है लेकिन उसके बाद में जो इतिहास रहा है वह गद्दारी का ही इतिहास रहा है। उस गद्दारी से सबक सीख कर उस आंदोलन को आगे बढ़ाने का काम अगर किसी ने किया है। तो वही हमारे शहीद साथी हैं। जो आज हमारे आंदोलन को लीड कर रहे हैं। यह लोग यंग लड़के हैं। मुझे जब जंगलमेंरहनेवालाकोई यंग लड़का बताता हैकि दादा आपने यह फिल्म नहीं देखी? इस फिल्म को देखो तो मुझे अपने आप पर शर्म आने लगती है कि मैंशहरमेंरहताहूं ,फिल्मों में काम करता हूं। वह जंगल में रहने वाला बच्चा मुझे यह बोलता है कि दादा आपने यह फिल्म नहीं देखी? आपइसको जरूर देखिए। कितना अपडेट है।इकोनॉमिक्स के बारे में अपडेट है। कल्चर के बारे में अपडेट है। दुनिया में कौन सी फिल्म अच्छी आ रही है इससे अपडेट है। नागपुर से कुछ पत्रकारलोगनेताओंसेमिलनेकेलिएहमारेएरियामेंगए थे। कोई नेता नहीं मिला थर्ड रैंक के कार्यकर्ता से बात करके आए और थर्ड रैंक के कार्यकर्ता को वह नेता समझ बैठे। क्योंकि थर्ड रैंक के कार्यकर्ता की बातें इतनी महत्वपूर्ण लगी उन लोगों को। उन्हें यह लगा कि अगर थर्डरैंक का कार्यकर्ता एकोनोमिक्स पर,फिलॉसफीपर, आंदोलन पर अगर यह बात कर सकता है तो नेता तो अलग चीज है। थर्ड रैंककाजो कार्यकर्ता है उसे नेताओं ने बनाया है। यही एक पार्टी है, यही एक ऐसाआंदोलन है अगर नेता जेल जाता है या शहीद होता है तो उसकी जगह खाली नहीं होती है। उसकी जगह लेने के लिए दूसरेकतारके लोग खड़े हैं ।दूसरीकतारका अगर कोई शहीद होता है या जेल में जाता है तो तीसरीकतार तैयार हैउसकीजगहलेनेकेलिए। एक फौजहै जगह खाली नहीं है।आखिरी पंक्ति में खड़ा हुआ कार्यकर्ता भी इसीलिए लड़ रहा है कि उसे पता है कि मेरे आगे 10 लोग लड़ रहे हैं मेरी मुक्ति के लिए।यहएकमात्र आंदोलन है जो हौसला दे रहा है ।और क्या है जिंदा रहने के लिए केवल रोटी की जरूरत नहीं होती हैइंसानको। प्रेरणाओं की भी जरूरत पड़ती है बाबा साहब ने प्रेरित किया था हमारे बाप की पीढ़ी को। लेकिन मेरे लिए प्रेरणा देने वाला कोईनहीं है।रामदासअठावलेया मायावती नहीं पैदा हुई यह तो पतितलोग थे। मैं किस से प्रेरणा लेता हर व्यक्ति प्रेरणाओं पर जीता है। प्रेरित करता है भगत सिंह आज भी हम लोग को क्योंकि भगत सिंह एक ईमानदार कुर्बानी देने वाला शख्स रहा है हमारे इतिहास में। केवल शहीद नहीं है वह एक विचारक रहा है। उसने कम उम्र में भी भांपलिया है कि देश में किस तरह की पार्टी होगी। किस तरह की विंग होगी। क्रांति कैसे होगी। क्रांतिकारी वर्ग क्या होगा। उसके गुप्त रूप क्या होगा। खुला रूप क्या होगा। इस तरह कीविजुअलाइज करने की छमता जो थी वह भगत सिंह में थी। इसलिए हम भगत सिंह को शहीद ए आजम बोलते हैं। केवल वहअकेले शहीद नहीं थे। उनके पहले भी शहीद हुए और उनके बाद में भी शहीद हुए। ऐसे भगत सिंह की फौज इस आंदोलन ने पैदा की है। और यही फौज हमें मजबूर कर रही है आज यहां बात-चीत करने के लिए। केवल मजबूर नहीं कर रही है वह प्रेरणा भी दे रही है। राजसत्ता कितनी भी सीना तान कर आए हम उससेस नहीं डरते असलियत यह है कि राज्यसत्ता हमसे डरती है। मैं आपको सही बता रहा हूं अगर डरते तो यहां बैठते नहीं मैं यहां आता ही नहीं।राज्यसत्ता डरती है हमसे। हमारे यहां जो एंटी नक्सलसेल के आईजी हैं पंकज गुप्ता उन्होंने तोखुलेरुपसेबोल दिया हैकि इनकी बंदूक से नहीं डरते हम इनकी फिलॉसफीसे डरते हैं।यह जोदर्शन है जनता के मुक्ति का दर्शन है। अगर सत्ताधारी वर्ग अगर नहीं डरेगा तो समझ लीजिए इस दर्शन में दम नहीं है। सत्ताधारी वर्ग डरता है उसका मतलब है दर्शन में दम है, उस रास्ते में दम है। वह मुक्ति का मार्ग है। मैं समझता हूं इस मुक्ति के मार्ग पर कितनी भी प्रतिकूल स्थितियों मेंखड़ेरहनाहै। मुझे तो एक संगठन ने मुंबईमेंएकफाइवस्टारहोटलमेंबेस्ट एक्टर का अवार्ड भी देने का घोषित कर दिया था।मुझे यह ताजुब लगा कि मेरा कोई संबंध नहीं है इन लोगों के साथ वह मुझे बेस्ट एक्टर का अवार्ड क्यों दे रहे हैं।मेरे एक मित्र है उनको फोन करके पूछा कि देखो यार ज़रा जन्म कुंडली निकालो कौन लोग हैं। पता चला कि रोहिणी करके एक वकील है उसके पति उस कमेटी में है। तो मैंबोला अच्छा रोहिणी सलीम फिर तोवह पुरस्कार लेने के लिए मैं नहीं जाऊंगा। क्योंकि आपके सामने कई सारे प्रलोभन पद के हैं, पैसे के, प्रतिष्ठा के प्रलोभन भी दिए जाएंगे। अगर नहीं दिएजाएंगेतो आपको प्रताड़ित किया जाएगा। इसके बावजूद भगत सिंह की वह जोचिट्ठी थी जो उन्होंने बटुकेश्वर दत्त को लिखी थी उसे पढ़ लेना अगर आपको लगे कि आपके कदम डगमगाने लगे हैं। भगत सिंह उसमें कहते हैं बटुकेश्वर दत्त को (क्योंकि दोनों गए थे बम डालने के लिए) कि मुझे बहुत आसान सजा दी गई है सजा-ए-मौत। मैं तो मुक्त हो जाऊंगा इस सारी झंझट से। जब मैं फांसी पर लटकुंगा तो मेरी सारी अपनी जिंदगी की खत्म हो जाएंगी और तुम्हें तो आजीवन कारावास मिला है। लेकिन तुम्हें यह दिखा देना है कि क्रांतिकारी लोग केवल फांसी पर नहीं लटकते वह जिंदा रहते हुए भी एक क्रांतिकारी जीवन जीते हैं। यह तुम्हें दिखाना है । आप देखिए उसके बाद बटुकेश्वरदत्त1930से1947तक17 साल जेल में रहे।और 1947 के बाद फिर 17 साल जिए एक क्रांतिकारी कीतरहजिए। हमें अपनो को नहीं बुलाना है। उनसे प्रेरणाऔए ऊर्जा ग्रहण करना है। साथियों जब भी आपके कदम डगमगाए आपचेराबंडा राजू को याद करिए। आप पास को याद करिए, भगत सिंह को याद करिए। आप अपने मुक्ति का रास्ता नहीं छोड़ेंगे। उम्मीद है आप मेरी भावनाओं को समझ रहे होंगे! मैंने अपने शब्द अपनी भावनाएं आपके सामने रखने की कोशिश की। मुझे तेलुगु नहीं आती, मैं आपसे माफ़ी चाहूंगा। पढ़ा लिखा नहीं हूं, तो अंग्रेजी भी नहीं आती। लेकिन आप मेरी भावनाएं समझ गए होंगे। मुझे आयोजकों ने बुलाया और आपके सामने मेरी भावनाएं व्यक्त करने का मौका दिया। मैं आयोजकों का धन्यवाद अदा करता हूं। फिर एक बार सब लोगों को बधाई देता हूं। इस नक्सलबाड़ी के 50 वर्ष के उपलक्ष्य में, अक्टूबर क्रांति के 100 वर्ष के उपलक्ष्य में और भीमा कोरेगांव के 200 साल के उपलक्ष्य में। भीमा कोरेगांव के बारे में मैंने नहीं बोला है। भीमा कोरेगांववहइतिहास है ईस्ट इंडिया कंपनी की छोटीसीफौज के साथ 500 महार थे। उसमें 500 महार और 25000 की फौज पेशवाओं कीथी। कैप्टन नेभागने की तैयारी कर ली थी। लेकिन महार सैनिकों ने कहा नहीं भागना है, हम लड़ेंगे। 500 महारोंने 25000 पेशवाओंकी सेना को पराजित कर दिया। और पेशवाई खत्म करने का अंतिम कील ठोक दिया है। वह है इतिहास।इस लड़ाई को हमें अपनी लड़ाई समझकर इस पूरे आंदोलन को आत्मसात करते हुए अपनी आलोचना भी हमें करनी चाहिए। इतना बोल कर मैं आपसे विदा लेता हूं।
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