'मातीगारी' आज़ादी के स्वपनभंग की दास्तान
‘मातीगारी’ उपन्यास केन्याई उपन्यासकार नगुगी वा थ्योंगो द्वारा गिकुयू भाषा मे लिखी गई पहली उपन्यास है। देशज भाषा, सरल व आम मेहनतकश जनता के सवालों से परिपूर्ण अंतरवस्तु के कारण उपन्यास ने बहुत ख्याति पाई। जो सवाल उपन्यास का नायक ‘मातीगारी मा न्जीरूंगी’ (जिसका शाब्दिक अर्थ है, वह देशभक्त जिसने गोलियां झेली हो) पूछता है, उपन्यास पढ़ने के बाद लोगो के जुबान पर वही सवाल घूमने लगता है। लोग एक दूसरे से वही सवाल पूछने लगते है। इसने पूरे केन्याई समाज में उथल पुथल मचा दिया। हालत यह हो गयी कि मातीगारी को लोग औपन्यासिक पात्र न मानकर वास्तविक चरित्र मानने लगते है। आम जनमानस में मातीगारी जुल्म और शोषण के विनाश का नायक बन गया। इस उपन्यास का असर इतना था कि केन्या के गृह मंत्रालय ने मातीगारी की गिरफ्तारी का आदेश जारी कर दिया। जब उन्हे पता चला की मातीगारी महज एक औपन्यासिक पात्र है तो उनकी बौखलाहट और भी बढ़ गयी और नतीजन उपन्यास की प्रतियाँ न केवल दुकानों और गोदामों से बल्कि लोगो के घरों पर छापे डालकर जब्त की गयी। किसी उपन्यास की इससे बड़ी उपलब्धि क्या होगी कि राजसत्ता उससे डर जाये।
इस उपन्यास की खास बात यह है कि कथा काल्पनिक है,पात्र काल्पनिक है, देश काल्पनिक है, लेकिन पाठक/श्रोताओं खासकर तीसरी दुनिया के देश जहां बढते उपनिवेश विरोधी आंदोलन, समाजवादी सोवियत रुस की उपलब्धियाँ व उसके बढते प्रभाव ने उपनिवेशवादियों को औपचारिक तौर पर राजनैतिक आज़ादी देने पर मजबूर किया लेकिन अर्थनैतिक व सामाजिक तौर पर वह उसी पुराने वर्ग का प्रतिनिधित्व है, को अपने देश काल की कहानी जैसा अनुभव कराता है। यह उपन्यास जनता के मुद्दो को समेटता है जैसे- शोषण, उत्पीड़न, उपनिवेशवाद, नवउपनिवेशवाद
अर्धसामन्ती-अर्धऔपनिवेशिक समाज, भ्रष्टाचार व राजकीय दमन।
उपन्यास की शुरुआत में हम पाते हैं कि मातीगारी ने अपनी मातृभूमि को आजाद कराने के लिए सेटेलर विलियम्स जैसे उपनिवेशवादी और उसके काले नौकर के खिलाफ जंगलों तथा पहाड़ों मे एक बाद एक लड़ाईयाँ लड़ी और उन्हे परास्त किया। उसे पता चलता है की आज़ादी मिल चुकी है। यह सोचकर वह अपने सारे हथियारों को एक पेड़ के नीचे गाड़ दिया और शांति की पेटी बाँध ली। अब वह अपने बच्चों और लोगों को ढूंढने के लिए चल पड़ा। इसी क्रम मे वह शहर मे पहुँचा जहां देखा कि देशभक्तों के बच्चे फटे चिथड़े कपड़े पहने हुये कचड़े के ढेर से समान बीन रहे थे। कोई गली टमाटर खा रहे थे, तो कोई सड़ी हुई हड्डी चूस रहे थे । कचरा बीनने के लिए भी उन्हे उस कचरा घर के मालिक को पैसे देने पड़ते और वह उस पैसे के कुछ भाग पुलिस को भी हिस्सा देता, जिससे की उसका धंधा चलता रहे। वह सोचता है कि वह संघर्ष घर, खाने, कपड़े, और बच्चों के खेलने के लिए ही तो था। वह सहम जाता है। एके -47 निकालने के लिए कमर पर अपना हाथ रखा, फिर उसे याद आया कि उसने शांति की पेटी बाँध ली है। फिर वह अर्धविक्षिप्त होकर आगे बढ़ता है फिर देखता है कि कुछ पुलिसवाले एक लड़की ‘गुथेरा’ पर कुत्ते छोड़कर आतंकित कर रहे थे तथा उसे अपने साथ सोने का दबाव बना रहे थे। इसपर मातीगारी उसे पुलिस के चंगुल से छुड़ाता है। गुथेरा बताती है कि उसके पिता एक देशभक्त तथा चर्च के उच्च अधिकारी थे। पुलिसवालों ने आतंकवादी होने का आरोप लगाकर उन्हे उठाकर ले गए। उनको बचाने की प्रार्थना पर पुलिस ने कहा कि ‘तुम अपने पिता की ज़िंदगी अपने टांगों मे लिए बैठी हो’, व्यभिचार के लिए दबाव बनाया। पिता के मृत्यु के बाद भाई-बहनों की जिम्मेवारी आ पड़ी। उसपर कठिनाइयों का पहाड़ टूटने लगा, आतंकवादी की बेटी कहकर लोग उससे दूर हो गए। परिस्थितियों ने उसे व्यभिचार कर पैसा अर्जित करने को मजबूर कर दिया। मातीगारी महिलाओं की स्थिति को देखकर व्यथित होता है और एके -47 निकालने के लिए कमर पर अपना हाथ रखा, फिर उसे याद आया कि उसने शांति की पेटी बाँध ली है।
इसी बीच सेना की ट्रक और पुलिस से भरी चार गाड़ियां गुजरती है। वे राइफल, मशीनगन, और लाठियों से लैस थे। उसे पता चलता है कि आज मजदूरों की हड़ताल है। वह बहुत ही मासूमियत के साथ पूछता है कि ‘क्या वे सचमुच मजदूरों के खिलाफ लड़ने जा रहे है?’ गुथेरा सोचती है कि यह आदमी सचमुच लंबे समय तक जंगल मे रहा है। कोई अजनबी ही होगा जिसे नहीं पता होगा कि इस देश मे हमेशा पुलिस-फौज अपने जनता के खिलाफ इस्तेमाल किए जाते है, अक्सर पुलिस छात्रों-मजदूरों के खिलाफ लड़ती है।
फिर वह अपने लोगो की खोज मे निकल पड़ा। वह बगानों के पीछे अपना घर देखता है। जब वह वहाँ पहुंचकर घर मे प्रवेश करने लगता है तो उसे विलियम सेटेलर का बेटा और उसके नौकर का बेटा, उसे अंदर जाने से रोकते है और उसे जेल भेज देते है। वह देखता है कि आज भी उनके संपत्ति पर गोरो और उनके दलालों का कब्जा है। देश को तथाकथित आज़ादी तो मिली लेकिन कुछ सतही तब्दीलियों के अलावा देश मे कुछ भी नहीं बदला। हम आज भी औपनिवेशिक भाषा मे शिक्षा क्यों लेते है? अगर हम आजाद होते तो बच्चो, मजदूरों, महिलाओं, छात्रों और आम लोग आज भी गुलाम की स्थिति मे क्यों है? ऐसे ढ़ेरो बारीक सवालों से नगुगी अर्द्धऔपनिवेशिक दौर की तस्वीर खीचते है।
उपन्यास के दूसरे भाग में मातीगारी सत्य और न्याय की खोज मे निकल जाता है। वह देश के विभिन्न तबकों- राजनेताओं, छात्रों, अध्यापकों, पादरियों, न्याययालों तथा होटलों मे, ट्रेनों मे, बसों मे, खेतो आदि जगहों पर जाकर पूछता है
मेरा सवाल यह है--
राजगीर घर बनाता है
और जो इस घर बनते हुए देखता है
अंत मे इसका मालिक बन बैठता है
लेकिन राजगीर खुले आकाश के नीचे सोता है
उसके सिर पर कोई छत नहीं है
दर्जी कपड़े सिलता है
और वह जिसे सुई मे धागा डालना तक नहीं आता
कपड़े पहनता है
और दर्जी चीथड़े पहन कर घूमता है
खेत जोतने वाला खेत में फसल उगाता है
और वो जो फसल काटता है वह कभी नहीं बोता
अधिक खाने के कारण जम्हाई लेता है
और खेत जोतने वाला खाली पेट होने के कारण जम्हाई लेता है
श्रमजीवी वस्तुओं का उत्पादन करता है
विदेशी और परजीवी उन्हे हड़प लेते हैं
और मजदूर खाली हाथ रह जाता है
इस धरती पर सत्य और न्याय कहाँ है?
सत्य और न्याय की खोज मे वह पूरे देश मे घूमा, कई बार निराश हुआ लेकिन सत्य और न्याय उसे कहीं नहीं मिला। फिर वह इस नतीजे पर पहुंचा कि दुश्मन को सिर्फ शब्दों के द्वारा नहीं भगाया जा सकता। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपका तर्क कितना मजबूत है। लेकिन सशस्त्र बल के साथ सत्य और न्याय के शब्द भी हो तो निश्चित रूप से दुश्मन को हराया जा सकता है। अपने साथी गुथेरा और मुरीउकी से कहता है कि ‘मेरी एक बात सुनो, चाहे वे हमे जेल में डाले, पकड़े या मार दे, वे हम मेहनत करने वालों को उनके खिलाफ लड़ने से नहीं रोक सकते जो केवल हमारी मेहनत पर पलते है’। अंत मे वह तय करता है कि दूसरी आज़ादी के लिए एक बार फिर हथियारों की पेटी बांधना ही पड़ेगा और जंगल की और लौट जाता है।
नगुगी अपने इस उपन्यास के जरिये तीसरी दुनिया के देशों के सामाजिक, राजनैतिक, न्यायायिक और सांस्कृतिक पहलुओं तथा इन देशों मे चल रहे संघर्षों का चित्रण करते है। यह विश्व के कई देश जैसे फिलीपींस, पेरु, चिली, तुर्की, नेपाल तथा भारत मे चल रहे संघर्ष को समझने मे मदद करता है। भारत की तथाकथित आज़ादी के बाद की स्थिति उपन्यास मे चित्रित स्थिति जैसा ही है और इसके खिलाफ शुरू से ही संघर्ष चला है। तेभागा, तेलंगाना, पुन्नपा वायलार, श्रीकाकाकुलम, नक्सलबाड़ी आंदोलन और हाल मे नंदीग्राम, सिंगुर इसी की अभिव्यक्ति है। आज भी भारत के जंगलों मे हजारो की संख्या मे मातीगारी लड़ रहे है।
(भगत सिंह छात्र मोर्चा के साथी विश्वनाथ द्वारा समीक्षा)
पुस्तक : मातीगारी
लेखक : नगुगी वा थ्योंगो
अनुवाद : राकेश वत्स
प्रकाशक : गार्गी प्रकाशन
कीमत : 110 रूपये