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Thursday, June 25, 2020

छात्राओं की समस्याएं : कौन सुनेगा?



June 25, 2020

                                  (१)
'यह भी रोज की तरह एक सामान्य सा दिन था। मैं इंस्टाग्राम चला रही थी। अचानक मैंने देखा कैंपस के ही एक छात्र के मैसेज पड़े हुए थे और उसे मैं अच्छी तरह जानती थी। हालांकि कभी बातचीत तो नहीं हुई थी। खैर जो भी हो उसे मैं जानती थी और मैंने यह जानने के लिए मैसेज बॉक्स खोला कि उसने क्या मैसेज किया है? लेकिन मैसेज बॉक्स खोलने के बाद जब मैंने उस मैसेज को पढ़ा...मैं हतप्रभ रह गयी। मैं ऊपर से लेकर नीचे तक सिहर गयी। मेरी रूह तक काँप चुकी थी। ह्रदय की धड़कन इतनी जोर हो चली थी कि लग रहा था ह्रदय बाहर निकल पड़ेगा। मैंने मैसेज जो पढ़ा था उसे हूबहू आज भी दुहरा नहीं सकती लेकिन मैसेज का सीधा अर्थ यह था कि 'क्या तुम मुझसे यौन सम्बन्ध बनाओगी?' ' [इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एक छात्रा रुपाली(परिवर्तित नाम) के अपने अनुभवों पर आधारित जो कि उन्होंने हमसे साझा किए थे। उन्होंने यह भी बताया कि वह अकेली लड़की नहीं हैं जिनके साथ ऐसे हुआ है बल्कि कुछ और भी छात्राएं हैं, जिन्हें वह जानती हैं।]


रुपाली ने हमसे यह भी बताया कि इतना ही नहीं बल्कि वह उस मैसेज को पूरे कैंपस में लेकर टहलता रहा और लड़कों को दिखाता। वह बड़ा खुश होता और जिन-जिन लड़कों से वह शेयर करता वो बजाय उसे टोकने के खूब हँसते और उसकी पीठ थपथपाते। और जहाँ कहीं वो सब रुपाली को देखते उसके ऊपर अश्लील और भद्दे कमेंट्स करते। लेकिन रुपाली चुप रही और कुछ न कर सकी। क्योंकि उसे डर था कि अगर वो उनके खिलाफ कुछ करेगी तो उसके घरवाले उसकी पढ़ाई छुड़वा देंगे। इतना ही नहीं उसमें और भी कई किस्म के डर भी घर कर गए थे कि प्रशासनिक कार्यवाही से उग्र होकर वह छात्र कहीं उसके साथ और भी अभद्र व्यवहार न कर बैठें। रुपाली इलाहाबाद में रूम लेकर ही रहती है इस कारण वह खुद को मजबूत स्थिति में नहीं पा रही थी।


लेकिन रुपाली ही विश्वविद्यालय में ऐसी लड़की नहीं है जिसे सोशल साइट्स और कैंपस में इस प्रकार की छेड़छाड़ का सामना करना पड़ता हो। रुपाली से ही हमे पता चला कि कुछ और भी लड़कियां हैं जिन्हें इस तरह की दिक्कतें पेश आती हैं। आये दिन कुछ अराजकतावादी छात्र और बाहरी अराजकतत्वों द्वारा कैंपस के अंदर ही छात्राओं के साथ छेड़खानी होती है। हमने जिन-जिन लड़कियों से बातें की उन सभी के अनुभव बेहद बुरे थे। कुछ छात्राएं ऐसी भी मिलीं, जिन्हें हम पर भरोसा नहीं था। इसका मतलब यही था कि उनके अनुभव इतने बुरे थे कि उन्हें विश्वविद्यालय के किसी भी लड़के पर भरोसा नहीं था या उन्हें सब एक से लगने लगे थे।


इसी वर्ष जनवरी में हमने भारत में बढ़ती हुई यौन हिंसा और छेड़छाड़ की घटनाओं में आती हुई बाढ़ सा देखकर तय किया कि 'यौन उत्पीड़न' पर एक कार्यक्रम होना चाहिए। ताकि कैंपस की छात्राओं और छात्रों से 'यौन उत्पीड़न और उसकी जड़ें कहाँ तक हैं'? जैसे तमाम मुद्दों पर परिचर्चा की जा सके, और इतना ही नहीं बल्कि हमने सामन्तवाद, पितृसत्तात्मक व्यवस्था को भी कटघरे में खड़ा करने को तय किया। कार्यक्रम की तिथि निश्चित हो गयी और हमने पर्चे छपवा लिए ताकि अधिक से अधिक छात्र एवं छात्राओं को जोड़ा जा सके। हमने पर्चे बाँटने शुरू कर दिए जिसमें कार्यक्रम की तिथि और बातचीत के लिए निर्धारित टॉपिक का नाम भी दिया हुआ था-'यौन उत्पीड़न और उसकी जड़ें.....'।


पर्चे बाँटते समय ही हमें कई छात्राओं के भीतर भरा गुस्सा जाहिर होने लगा था। क्योंकि हाल ही में प्रियंका रेड्डी रेप एंड मर्डर कांड हुआ था जिसमें पीड़िता के साथ रेप करके उसके शरीर को जला दिया गया था। ज़ाहिर है कि लोगों में उबाल था और हमने कैंपस में कई छात्राओं के बीच पर्चे बाँटे तो उनमें कइयों के सवाल एक से थे जिसमें गुस्सा और उनका दुःख जो उस गुस्से में शामिल था व्यक्त होता था, वे यही कहतीं-'.....इससे क्या होगा? इस परिचर्चा से क्या यह देश सुधर जाएगा? क्या आप लोग नहीं जानते कैंपस में हम लोगों के साथ रोज छेड़छाड़ नहीं होती'? जाहिर ये प्रश्न भले गुस्से भरे थे लेकिन साथ ही साथ उस विडम्बना और दुःख की अभिव्यक्ति भी थे जिसका सामना आमतौर पर हर एक लड़कियों को करना पड़ता है।


हम लोगों की परिचर्चा निर्धारित समय पर इरोम लॉन में सम्पन्न हुई। परिचर्चा का सकारात्मक रुख यह था कि पहली बार छात्राओं की अच्छी खासी सहभागिता थी। उन्होंने बेधड़क अपनी बातें रखी। इसके पूर्व की किसी भी परिचर्चा में छात्राएं इतनी संख्या में नहीं थीं। लेकिन हम आपको बता दें कि यह संख्या अन्य संगठनों के तुलना में ही अधिक थी और लगभग पन्द्रह बीस की संख्या में ही छात्राएं सम्मिलित हुईं थीं। जबकि कैंपस में छात्राओं की संख्या हजारों में है और इस प्रकार के महत्वपूर्ण मुद्दों पर इतनी कम संख्या! यह सोचने वाली बात थी क्योंकि पर्चे बाँटते समय जिन छात्राओं में आक्रोश या उबाल दिखा था, उनमें से परिचर्चा में एक भी नहीं थीं। हमने इस पर गहन विचार किया और जिससे कई पहलू निकले:


(क) कैंपस की छात्राओं को यह लगता होगा कि संगठन का उद्देश इन मुद्दों के बहाने महज अपनी राजनीति साधनी है। इसके अलावा कुछ भी नहीं।


(ख) उन्हें लगता होगा इस प्रकार के मुद्दों पर हमेशा चर्चा होती है मगर परिणाम क्या निकलता है?


(ग) वह यह भी सोचती होंगी कि उन्हें इससे क्या? वे तो महज पढ़ने आईं हैं न कि कोई आंदोलन खड़ा करने। उन्हें इन सब चीज़ों से दूर रहना चाहिए।


(घ) उन्हें लगता होगा कि सारे लड़के अविश्वासी हैं और इसी प्रकार सारे संगठन भी। क्योंकि सम्भव है कुछ घटनाओं के आधार पर उन्होंने यह गलत निष्कर्ष लिया हो।


(क) और (ख) सम्भावना का उत्तर एक सा ही है। क्योंकि देश और विश्वविद्यालयों में होने वाली अवसरवादी राजनीति ने बंटाधार कर रखा है। सम्भव है इससे पूर्व किसी अवसरवादी संगठन ने ऐसे ही ढकोसले दिए हों और अपनी राजनीति चमकाकर छात्राओं के मुद्दों पर चुप्पी साध ली हो। इतना भर नहीं बल्कि प्रशासन की लापरवाही ने भी छात्राओं के मन में एक नकारात्मकता भर दी हो कि आप कितना भी अपने हित की माँग करो लेकिन हम अजगर की तरह सोते रहेंगे या हमारे कानों में जूँ नहीं रेंगने वाली। तीसरी बात (ग) भी सम्भावित है लेकिन हमें लगता है ऐसी धारणा प्रायः सभी छात्राओं में नहीं होती है और इस धारणा का जवाब यह है कि हमारे अंदर राजनीतिक चेतना शून्य होती है। हालांकि भगत सिंह ने इस प्रकार की धरणाओं का उत्तर अपने लेख 'छात्र जीवन और राजनीति' में सुंदर तरीके से दिया है। अगर हम अब अंतिम और (घ) सम्भावना पर विचार करें तो यह ऐसी सम्भावना है जिसके पीछे तथ्य नहीं होते हैं यहाँ हम पहले से ही किसी बात को सच मान लेते हैं फिर उसे ही सत्य सिद्ध कर देते हैं जैसे-गरीब वो होते हैं जो निठल्ले और कामचोर होते हैं। ठीक उसी तरह उनके दिमाग में यह धारणा बन जाती है कि जो लड़के हैं, वो लड़कियों के प्रति सही मानसिकता नहीं रखते हैं। 


अभी हम इन बिंदुओं पर बाद में चर्चा करेंगे और अब पुनः रुपाली वाले मामले की तरफ वापस चलते हैं। हमने ऊपर जैसा कि, बताया है, और भी बहुत सी छात्राएं हैं जिनके अनुभव रुपाली के अनुभव जैसे या उससे भी बुरे हैं। हमें यह लेख लिखने से पहले रुपाली जैसे एक और मामले की जानकारी हुई। 'नगमा(परिवर्तित नाम) कला संकाय की ही छात्रा है जिससे सोशल मीडिया पर एक विश्वविद्यालय के ही छात्र ने छेड़छाड़ की। छात्र ने पूरी तरह असभ्य होकर पूछा था कि क्या वह(नगमा) उससे सेक्स चैट करेगी'?


लेकिन उपरोक्त दोनों मामलों में हमारा उन छात्राओं से यही कहना था कि वे उनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करें। किन्तु हमें हैरानी हुई जब पढ़ी-लिखी होकर उन दोनों छात्राओं ने ऐसे कदम उठाने के बजाय चुप होकर सबकुछ सहना ही ठीक समझा। रुपाली के कार्यवाही न करने के तर्क को हमने स्वीकार तो कर लिया लेकिन फिर भी हम मामले की और तह तक जाना चाहते थे, और हम इसमें काफी हद तक सफल रहे। उन छात्राओं से पता चला कि मुख्य समस्या यह है कि वो उनके विरुद्ध कार्यवाही करें भी तो कैसे करें? क्योंकि उन दोनों के घरवालों को यह जानकारी नहीं थी कि दोनों छात्राओं ने सोशल मीडिया पर अपने एकाउंट्स बना रखे हैं।


पितृसत्तात्मक व्यवस्था और सामंती प्रभाव के चलते छात्राओं को घरवालों से काफी मुश्किलों का सामना का करना पड़ता है। वह उन्हें सोशल एकाउंट्स पर किसी कीमत पर नहीं देखना चाहते लेकिन इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिले के बाद प्रायः उन छात्राओं को कुछ हद तक एक खुला माहौल मिलता है जो कि उनके छोटे शहर या गाँव की तुलना में अधिक विकसित होता है। ऐसे में छात्राओं को लगता है कि उन्हें भी खुद का विकास करना चाहिए और इसी क्रम में एक नए संसार से परिचित होने और घुलने-मिलने के लिए सोशल साइट्स से खुद को जोड़ती हैं लेकिन वहाँ उन्हें वही अभद्र संसार मिलता है जिनसे उनका सामना हमेशा होता आया है।

यदि छात्राएं सोशल साइट्स पर होने वाली इस किस्म की शिकायत भी करना चाहें तो घरवाले उन्हें ही दोष देंगे कि उन्होंने सोशल मीडिया पर एकाउंट ही क्यों बना रखा है और उन्हें चुप रहने की तथाकथित नेक सलाह देते हैं।


हमने गौर किया कि विश्वविद्यालय ने छात्राओं के लिए क्या किया है? लेकिन हमने यह पाया कि विश्वविद्यालय के बीमार प्रशासन ने छात्राओं के हित में कुछ करने के बजाय सायं 6 बजे के बाद विश्वविद्यालय में उनका प्रवेश निषिद्ध कर दिया ताकि छेड़छाड़ की घटनाएं न हों। लेकिन कुल मिलाकर विश्वविद्यालय और छात्राओं के परिवार वालों का फैसला अजीबोगरीब और एक सा रहता है जिसमें से हमे पितृसत्ता और सामंती सोच की बू आती है। यह फैसले कुछ इस किस्म के होते हैं कि-रेगिस्तान में शिकारी को देखकर शुतुरमुर्ग की तरह अपनी गर्दन ही रेत में धँसा ली जाए। यानी अगर लड़के छात्राओं के कपड़े पर अश्लील टिप्पणी करेंगे तो शायद प्रशासन उन्हें बुर्का पहनने की अपनी नेक सलाह देगा। यानी नकेल अपराधियों पर नहीं पीड़ितों पर कसी जाएगी।


इतना ही नहीं बल्कि कुछ ऐसे प्राध्यापक भी हैं जो छात्राओं को छात्रों से दूर रहने और न बोलने की सलाह देते हैं और छात्र-छात्राओं को एक ही क्लास में अलग-अलग हिस्से में बैठाकर एक बॉर्डर का निर्माण करते हैं जिसे न छात्र क्रॉस करेंगे न ही छात्राएं। ज़ाहिर है कि यह उनकी सामंती नैतिकता है जिसके मुताबिक दोनों एक भिन्न प्रकार के जीव हैं अगर छात्र छात्राओं के बीच कोई सम्बन्ध हो भी सकता है तो सिर्फ भाई-बहन का। छेड़छाड़ करने वालों छात्रों के हिसाब से छात्राओं और उनके बीच सेक्स के अलावा दूसरा कोई सम्बन्ध नहीं है और दर्जे में वो छात्राओं से ऊपर हैं।


                                  (२)


शिक्षण सस्थाओं और परिवार वालों की इस प्रकार की सोच कोई नयी बात नहीं है और ना ही वह केवल इलाहाबाद विश्वविद्यालय की समस्या है। अमूमन देश के तमाम संस्थाओं की यही समस्या है कार्यस्थल पर सेक्सुअल ह्रासमेंट की समस्या तो पूरे विश्व मे एक समान ही है। बालीवुड में चले मी टू कार्यक्रम ने तो बड़े बड़े हस्तियों की कलई खोल कर रख दिया। समाचार पत्रों मे बहुत जोर शोर के साथ सुर्ख़ियों में रहा और नित्य नये मुखौटे उजागर हो रहे थे। वह व्यवस्था के अंतर व्याप्त विक्षिप्त मानसिकता और वीभत्सता को उजागर कर रहे थे ..लेकिन यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि यह मामला केवल पेपर की सुर्खियां बन पाया और धरातल से इसके पैर गायब थे। समस्याओं की जड़ों पर कोई चर्चा नहीं थी। आम लोगों ने तो इसको एक समस्या के रूप मे तो लिया ही नहीं ,उन्होंने बालीवुड जैसी इतनी बड़ी इंटस्ट्री का यही चरित्र बताया। ऐसे मसलों पर वह केवल एक ही राय रखते हैं कि सिनेमा की दुनिया रोमांस की दुनिया है, इसमें यह घटना सामान्य बात है। सिनेमा में विभिन्न प्रकार के अभिनय किये जाते हैं जिसमें रोमांटिसिज्म का अपना एक स्थान है लेकिन अभिनय और रोमांटिसिज्म को यौन उत्पीड़न की सामग्री बताना भद्र पुरुषों की यह बात हमें कभी समझ नहीं आई । कुल मिलाकर इस मी टू आंदोलन का ठीक वही परिणाम भी निकला जो इस तरह की यौन हिंसा से संबंधित हर मसले का निकला है। एक तो सभी लोग खुलकर सामने नहीं आएं और जो सामने आये तो उन्हें ही कटघरे में खड़ा किया गया और तरह-तरह के आरोप उन्हीं पर मढ़े जाने लगे कि पहले तो उन्होंने कैरियर बनाने के लिए विरोध तो नहीं किया और अब बेवजह शरीफों के दामन को दागदार कर रहे हैं।


खैर यहाँ हमारा ध्येय मी टू कार्यक्रम की सफलता या असफलता को निर्धारित करना बिल्कुल नहीं है। हम अभी इस पहलू पर भी गौर नहीं करेंगे कि समाज के एक बड़े हिस्से द्वारा मी टू कार्यक्रम का विरोध करना गलत था। हम इस मसले को विश्वविद्यालय के संदर्भ में देखना चाहते हैं। क्यों यहाँ पर मी टू जैसा बड़ा कैंपेन विश्वविद्यालय के स्तर पर ही सही, क्यों नहीं खड़ा हो सका? क्या रुपाली और नगमा के साथ हुई घटना यौन हिंसा से इतर कुछ और थी? क्या यहाँ की छात्राएं शिक्षित नहीं हैं? ज़ाहिर है, ऐसा नही है। यह एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है जो कि यूजी से नीचे कोई कोर्स नहीं कराता। तो साफ है कि छात्राओं में यौन हिंसा के प्रति एक कम पढ़ी लिखी लड़की या महिला से अधिक जागरूकता है। लेकिन शायद यहाँ की छात्राओं के बीच उस चेतना का अभाव है जिसके चलते मी टू जैसे कैंपेन खड़े हो सके। मी टू कितना सफल रहा या नहीं लेकिन कम से कम उस कैंपेन ने कार्यस्थलों पर हो रही महिलाओं के हिंसा को तो उजागर किया। मी टू कैंपेन से यह भी पता चला कि कैंपेन करने वाली नारियों में चेतना आ चुकी है और भविष्य में वे सतर्क रहेगीं।


हम इस चीज को समझने में सफल रहे हैं कि पढ़े-लिखे होने के बावजूद यहाँ की छात्राओं में अपने अधिकारों के प्रति अनिभिज्ञता है। उनके सामने आधुनिक होने के पैमाने लगभग वहीं हैं जो कि सामन्तवाद-आधुनिकता के खिचड़ी से तैयार होता है। हमने कई ऐसी छात्राओं को भी देखा है जिनके लिए आधुनिकता का मायने यही है कि अवधी-भोजपुरी-हिंदी में चलने वाली गालियों को अंग्रेजी में बको और पुरुषवादी धारणा जैसी श्रेष्ठता की सोच रखो। उनका यह भी मानना है कि लड़के तो होते ही ऐसे हैं! यह भी ठेठ पुरुषवादी धारणा है। उनका ध्यान कभी इस तरफ नहीं जाता है कि सारी गालियाँ होती नारीविरोधी ही हैं। कुछ छात्राएं तो सामन्तवादी और पुरानी धारणाओं के प्रति इतनी कटिबद्ध होती हैं कि उनका यही मानना है कि छात्राओं को छात्रों से बात नहीं करनी चाहिए और सोशल साइट्स का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। इस अजीबोगरीब तर्क का इस्तेमाल पितृसत्तात्मक परिवारों में कैसे होता है, इसका उल्लेख हम पहले कर आये हैं।


हाल में इसी लेख को लिखते समय हमने कई छात्राओं से सम्पर्क किया ताकि वे अपने अनुभवों को बता सकें। हमारा सम्पर्क इसी दौरान ऐसी छात्रा से हुआ जिसने अजीबोगरीब चौकाने वाली बात खोली। हम सुनने के बाद अचंभित थे। हमे अब तक यही लगता था कि छात्राओं के छेड़छाड़ के मसले को रखकर हम इतिश्री कर लेंगे। लेकिन उसने हमसे इस बात का खुलासा किया कि विश्वविद्यालय में जातिगत उत्पीड़न की भी समस्या है। ऐसा नहीं है कि हम जातिवाद से अपरिचित हैं। हम बखूबी उसके स्वरुप और ढाँचे को समझते हैं। विश्वविद्यालय में बरकार सामन्तवाद ने जातिवाद की जड़ों को इतनी गहराई में उतार दिया है कि उनको समझने में हमे उसकी तह तक जाना पड़ेगा। जातिवाद का यह ढाँचा विश्वविद्यालयों में किस प्रकार काम करता है, इसके लिए हम एक स्वत्रंत अध्याय में चर्चा करेंगे।


जातिवाद ने भी नारीविरोधी मानसकिता को पनपने में भरपूर खाद परोसी है, क्योंकि इस ढाँचे के सबसे निचले पायदान पर स्त्रियां हीं होती हैं। विश्वविद्यालयों में गुरुकुल की यह व्यवस्था आरक्षण के विरुद्ध कोरे कुतर्कों का निर्माण करती है और जिससे प्रतिगामी सोच के छात्रों का जन्म होता है जो दलित छात्र-छात्राओं को हेय दृष्टिकोण से देखते हैं। उनका दृष्टिकोण अल्पसंख्यक समुदाय के समुदाय के साथ भी इसी किस्म का होता है, क्योंकि वो म्लेच्छ होते हैं! स्वर्ण छात्राओं के प्रति भी वह कोई पवित्र और पावन दृष्टिकोण नहीं अपनाते हैं।


छात्राओं को छात्रों के तुलना में सामन्तवाद-जातिवाद का शिकार अधिक होना पड़ा है। इसका स्पष्ट कारण है कि दोनों व्यवस्थाओं ने उनका स्थान पाताललोक में नियत कर दिया है और छात्राओं के मस्तिष्क में इन किस्म की धारणाएं बद्ध कर दी गयी हैं कि उनका स्थान इन सोपानों में सबसे निकृष्ट ईश्वर ने बनाया है।


लेख लिखने से पूर्व हमारी यही धारणा थी कि हम विषय 'छात्राओं की समस्या' तक केंद्रित रखेंगे। लेकिन अब ऐसा जान पड़ता है कि और भी कई समस्याएं हैं जिनका सम्बन्ध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस विषय से है। इस लेख में बहुत सी बातों के छूट जाने की सम्भावना है। अभी भी हमें कुछ छात्राओं के सुझाव आ रहे हैं लेकिन हम यहाँ उनका विस्तार नहीं करेंगे। हमने तय किया है कि हम सिर्फ इलाहाबाद विश्वविद्यालय ही नहीं बल्कि अन्य विश्वविद्यालयों के छात्र एवं छात्राओं के एक सी समस्याओं को विषयवार तरीके से लिखेंगे ताकि यह एक पुस्तक का रूप ले सके।


इस प्रक्रिया में हमने कई विषयों का चुनाव किया है जैसे-'छात्रायें और राजनीति', 'जाति-प्रथा की जकड़नों में हमारे विश्वविद्यालय', 'छात्रसंघ की जरूरतें'.....इत्यादि-इत्यादि।



-मोहम्मद उमर, सोनू निश्चय
(इंक़लाबी छात्र मोर्चा, इलाहाबाद)



'उन समस्त छात्राओं को धन्यवाद जिन्होंने हमारा सहयोग किया।'

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