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Wednesday, July 21, 2021

ग़ज़ल( महेंद्र मिहोनवीं)

 ग़ज़ल आप अहबाब की नज्र

  

                 


एसे तो सवालात का हल मिल नहीं सकता

पत्थर को बिना तोड़े ही जल मिल नहीं सकता


चलना   है   लगातार  तभी  राह   मिलेगी

जो आज रुके आप तो कल मिल नहीं सकता


जब तक ये मुफतखोर हैं इस बाग़ पे काबिज़

मेहनत का यहाँ कोई भी फल मिल नहीं सकता


कहने के लिये वक़्त पे हक़ सबका बराबर

मरज़ी का हमें एक भी पल मिल नहीं सकता


बन्दूक समस्याओं का हल है नहीं लेकिन

बिन उसके भी कमज़ोर को बल मिल नहीं सकता


क्यों  ढ़ूँढ़  रहे बर्फ  में पिघला हुआ लोहा

बिन आग के तो मोम तरल मिल नहीं सकता


मंज़िल  पे  पहुँचने  के  लिये  बायें  चलेंगे

रस्ता तो कोई इससे सरल मिल नहीं सकता


          

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