पिछले साल अक्टूबर में भीमाकोरेगांव केस में झारखंड से गिरफ्तार किए गए 83 वर्षीय स्टेन सामी अपने छात्र जीवन के दौरान इन्हीं येलदी कमेरा के संपर्क में आये और उनकी 'लिबरेशन थीयोलोजी' (liberation theology) से बहुत प्रभावित हुए। इसके अलावा 70 के दशक में फिलीपीन्स में अपनी धार्मिक पढ़ाई के दौरान वे वहाँ के तानाशाह मार्कोस के खिलाफ सड़कों पर चल रहे छात्रों के संघर्षों से भी काफी प्रभावित थे।
स्टेन सामी भी येलदी कमेरा की तरह ही भारत में पादरी का दायित्व निभाते हुए हमेशा गरीबों विशेषकर आदिवासियों के पक्ष में निर्भीकता से खड़े रहे। संविधान की 5 वीं अनुसूची को आदिवासी इलाकों में लागू कराने को लेकर उन्होंने पूरा अभियान चलाया। इधर के दिनों में वे जेलों में बंद हजारों निर्दोष आदिवासियों के लिए चलाये जा रहे मुहिम का हिस्सा थे और मध्य भारत में विशेषकर झारखंड में जल जंगल जमीन के लिए चल रहे आदिवासियों के आंदोलन के मुखर समर्थक थे।
ठीक यही काम अपने समय में ब्राजील में येलदी कमेरा भी कर रहे थे, लेकिन उनके समय के क्रूर सैन्य शासक ने भी उन्हें गिरफ्तार नही किया। लेकिन पादरी स्टेन सामी को दुनिया के सबसे बड़े 'लोकतंत्र' की सरकार ने गिरफ्तार कर लिया और उस व्यक्ति पर आतंकवादी होने का आरोप लगा दिया जो बिना मदद के एक गिलास पानी भी नही पी सकता (उन्हें पार्किंसन बीमारी है, जिसमे अपने हाथों पर ही अपना नियंत्रण नहीं रहता)। उन्हें गिरफ्तार करके सरकार ने सबसे ज्यादा उम्र के व्यक्ति को आतंकवादी धारा में (UAPA) गिरफ्तार करने का अपना ही पिछला रिकॉर्ड तोड़ डाला। इससे पहले का रिकॉर्ड 81 साल के वरवर राव का था। उन्हें भी ' डिमेंशिया ' की बीमारी है। शायद उन्हें जेल में इसी लिए रखा जा रहा है कि उन्हें अपना 'अपराध' याद आ जाय।
इस 'लोकतांत्रिक' सरकार की क्रूरता देखिये की जेल में स्टेन सामी को पूरे एक माह तक पानी पीने के लिए सिपर और स्ट्रा (पार्किंसन बीमारी के कारण उन्हें इसी के सहारे पानी पीना पड़ता है) से वंचित रखा गया।
बहरहाल इतिहास में एक लंबी परम्परा रही है जहाँ कम्युनिस्टों-मार्क्सवादियों के नेतृत्व में चल रहे प्रतिरोध आन्दोलनों को अनेक पादरियों ने अपना सक्रिय समर्थन दिया है। लैटिन अमेरिका के आंदोलनों विशेषकर निकारागुआ के सैंडनिस्ता आंदोलन में या फासीवाद विरोधी आन्दोलनों में पादरियों और ननों की विशेषकर निचले स्तर के पादरियों व ननों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
स्टेन सामी को देखकर मुझे रोसेलिनी की मशहूर फिल्म 'रोम द ओपन सिटी' के उस पादरी की याद आती है, जो उस समय फासीवाद के खिलाफ चल रहे प्रतिरोध आंदोलन का हिस्सा था। जब उस पादरी को प्रतिरोध आंदोलन के एक अन्य महत्वपूर्ण साथी के साथ टार्चर चैंबर में लाया जाता है तो पादरी को अपनी तरफ मिलाने के लिए गेस्टापो पुलिस उसे भड़काती है कि प्रतिरोध आंदोलन का उसका साथी तो मार्क्सवादी है यानी नास्तिक है, फिर उसका साथ क्यों दे रहे हो। यहाँ पादरी का जवाब बहुत महत्वपूर्ण है। वह कहता है कि जो भी ईश्वर की संतान यानी जनता के हक के लिए लड़ता है, भगवान उसे पसंद करता है चाहे वह नास्तिक ही क्यों न हो।
मजेदार बात है कि जेल में स्टेन सामी की देखभाल व सेवा दो नास्तिक अरुण फरेरा और वरनम गोंजाल्विस ही कर रहे है, जो खुद महत्वपूर्ण मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और भीमाकोरेगांव केस के बन्दी है।
जनता के प्रतिरोध आन्दोलनों की यही तो खूबसूरती है।
जेल से अपने दोस्तों को लिखे एक भावपूर्ण पत्र में स्टेन सामी लिखते है- 'कृपया अपनी प्रार्थना में यहाँ के मेरे दोस्त-बंदियों को भी जरूर याद करें। सभी मुश्किलों के बावजूद यहाँ तलोजा जेल में मानवता फल फूल रही है।'
#मनीष आज़ाद
No comments:
Post a Comment