Saturday, August 31, 2013
Thursday, August 29, 2013
कामरेड हेम मिश्रा की गिरफ़्तारी पर परचा :
हेम मिश्रा,पांडू नारोटे और महेश तिर्की को तत्काल रिहा करो !
बुद्धिजीवियों एवं संस्कृतिकर्मियों पर दमन बंद करो!!
गढ़चिरौली की अहेरी पुलिस द्वारा रिवोल्यूशनरी कल्चरल फ्रंट (आरसीएफ) और जेएनयू के संस्कृतिकर्मी साथी हेम मिश्रा की गिरफ्तारी और उन्हें पुलिस रिमांड पर भेजे जाने का का विरोध करें
साथियों ,
यह कितना शर्मनाक है कि हम एक ऐसी व्यवस्था को बर्दाश्त किये हुए हैं जहाँ सांप्रदायिक हत्यारों एवं जनसंहारों के अपराधी जगदीश टाइटलर व नरेन्द्र मोदी जैसे लोग और कारपोरेट घोटालेबाज ,लूटेरे ,बलात्कारी ,बाहुबली ,माफिया जिन्हें जेल की चहारदिवारी के पीछे होना चाहिए वो खुल्लमखुल्ला घूम रहे हैं ,उन्हें जमानत मिल जा रही है ,वे सत्ता की शोभा बढ़ा रहे हैं ,सम्मानित हो रहे हैं,देशभक्ति के तमगे पा रहे हैं ,वहीं जनता के हक़-हुकूक की आवाज उठाने वाले ,जुल्म और शोषण के खिलाफ सर उठा कर चलने वाले ,उसका विरोध करने वाले, जेलों में ठूँस दिए जा रहे हैं ,उन्हें आजीवन कारावास दिया जा रहा है | आज ऐसे ही हजारों जनपक्षधर कार्यकर्ताओं से भारत की जेलें भरी पड़ी हैं | इन्हीं में से एक हैं हेम मिश्रा ,पांडू नारोटे और महेश तिर्की जिन्हें पिछले सप्ताह महाराष्ट्र पुलिस ने गिरफ्तार कर तीन दिन के अवैध हिरासत में रखा | बाद में उन्हें' नक्सली कुरियर' बताकर कोर्ट में पेश किया गया | जहाँ से कोर्ट ने उन्हें दस दिन के पुलिस रिमांड पर भेज दिया | संस्कृतिकर्मी हेम मिश्रा की गिरफ्तारी ने एक बार फिर भारतीय राज्य के फांसीवादी चरित्र को स्पष्ट कर दिया है ।
हेम मिश्रा उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जिले के धौला देवी क्षेत्र के बाणी-छीना नगरखान निवासी हैं, वे रिवोल्यूशनरी कल्चरल फ्रंट के सक्रिय कार्यकर्ता हैं और जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में चीनी भाषा के छात्र हैं । हेम मिश्रा एक फिल्मकार भी हैं, और उन्होंने उत्तराखण्ड में विस्थापन और प्रकृति के दोहन को लेकर ‘इन्द्रधनुष उदास है’ नामक फिल्म भी बनाई है । वे अपने दर्जनों गीतों और नाटकों के माध्यम से मौजूदा शासक वर्ग के जन-विरोधी, दलित, आदिवासी एवं अल्पसंख्यक विरोधी चरित्र को भी उजागर करते रहे हैं। वे साम्राज्यवाद, सामंतवाद एवं ब्राह्मणवाद के गठजोड़ का पर्दाफाश करते रहे हैं | सच्चाई यह है कि उन्हें गढ़चिरौली की अहेरी पुलिस द्वारा उस समय गिरफ्तार कर लिया गया, जब वे महाराष्ट्र के प्रख्यात गांधीवादी प्रकाश आम्टे के अस्पताल में अपने हाथ का इलाज करवाने गये थे। उनके साथ दो अन्य लोगों पांडू नारोटे और महेश तिर्की को भी गिरफ्तार किया गया है । हेम की गिरफ़्तारी की सूचना 23 अगस्त को मिली | लेकिन डेमोक्रेटिक स्टूडेन्ट यूनियन (डीएसयू) की कार्यकारिणी सदस्य बानोज्योत्सना लाहिरी का कहना है कि हेम कि गिरफ्तारी 3 दिन पहले ही हो गयी थी क्योंकि सम्पर्क करने पर उनका फोन बंद बता रहा था। उनसे मिलने गये उनके वकील और परिवार के सदस्यों को भी उनसे मिलने नहीं दिया गया ।
आज जब देश में हर तरफ जनता अन्याय ,अत्याचार और शोषण के खिलाफ गोलबंद हो रही है तब भारतीय राज्य उसके पक्ष में आवाज़ उठाने वाले बुद्धिजीवियों एवं संस्कृतिकर्मियों पर हमले तेज कर रहा है | ताकि उनके अन्दर भय का माहौल बनाया जा सके | इस कड़ी में अब तक उसने डॉ0 विनायक सेन और कबीर कला मंच के कलाकारों के अलावा विद्रोही पत्रिका के सम्पादक सुधीर धवले, अरूण फरेरा, सोनी सोरी, लिगांराम कोड़ोपी, दयामनी बारला, जीतन मरांडी, अपर्णा मंराडी, उत्पल बास्के, सीमा आजाद , विश्वविजय, प्रशांत राही, कवंल भारती आदि को गिरफ्तार कर चुकी है | इनमे से कई लोगों को तो कई सालों तक जेलों में बंद करके भीषण यातनायें भी दी गयी हैं |
लेकिन इतिहास गवाह है कि दमन कि इन्तहां संघर्ष कि धार को और पैना कर देती है | मशाल सांस्कृतिक मंच और भगत सिंह छात्र मोर्चा महाराष्ट्र पुलिस की इस क्रूरतम कार्यवाही की कड़े शब्दों में निंदा करता है तथा हेम मिश्रा,पांडू नारोटे और महेश तिर्की की तत्काल रिहाई की मांग करता है।
Thursday, August 22, 2013
Revolutionary Cultural Front's status.
Condemn the attack on Kabir Kala Manch activists and students of FTII, Pune by fascist ABVP lumpens!
Revolutionary culture and freedom of expression long live!
Yesterday (August, 21) the students of Film and Television Institute of India (FTII) had organized a cultural programme, where they had invited the members of Kabir Kala Manch, a revolutionary cultural organization to perform, along with the screening of the film Jai Bhim Comrade. After the programme the fascist lumpen brigade of ABVP, attacked the performers and organizers with sticks and helmets and grievously injured four people, two activists of KKM and two of the organizers who had to be hospitalized. The programme was organized in memory of Narendra Dabholkar, a committed activist of the anti-superstition movement, who was murdered a day before, by the same right wing fascists.
It is well known how Kabir Kala Manch activists are being regularly hounded by the state, who falsely alleges that KKM has ‘Maoist links.’ The Kabir Kala Manch is a radical Ambedkarite cultural organization, which is vocal against caste atrocities and the brahminical social order and with their songs, poetries and plays they relentlessly propagate against the anti-people policies and the malicious ‘development’ model of the state, the caste based discriminations and atrocities and advocate for annihilation of caste, land to the tiller and democratic rights of people. For this they have been branded as a ‘Maoist frontal organization’, and four of its activists Deepak Dengle, Siddharth Bhosle, Sheetal Sathe and Sachin Mali have already faced arrests, intimidation and harassment. In a recent landmark judgment however, the Maharashtra High Court observed that the activities of KKM far from being a crime is commendable. But despite this, the witch-hunting of KKM members continues. And yesterday’s incident shows how the state is using its vigilante gangs like ABVP, to harass and intimidate the revolutionary cultural activists of KKM. All democratic and progressive forces must condemn this fascist assault and stand in solidarity with KKM.
पन्द्रह अगस्त के दिन दलितों पर हुए क्रूर अत्याचार की पहली रिपोर्ट.
वे जिन्हें लगता है कि जातिगत अत्याचार की घटनाएं पुरानी हो चुकी. वे जिन्हें लगता है कि समता के संवैधानिक नारों ने लोकतंत्र को अपनी पीठ पर लाद लिया है. जिन्हें लगता है कि दिन अच्छे आ गए हैं.... सवर्ण वर्चस्व और क्रूरताओं की लड़ाईयां अवशेष हो रही हैं. उन सबके लिए बिहार की यह घटना शायद फिर से सोचने को विवश करे. सवर्णों के क्रूर अत्याचारों ने पूरे एक गांव को ही नहीं तबाह किया है बल्कि पूरे समुदाय को आगाह किया है कि संविधान और लोकतंत्र से परे उनके साशन जिंदा हैं.
बिहार
दिनांक 15 अगस्त स्वतंत्रता
दिवस 2013 को ग्राम डडवा बडडी, थाना शिवसागर
जिला रोहतास में धर्म स्थल रबिदास मंदिर के परिसर में घुसकर र्गैर दलित राजपूत 300
के सख्या बल में आकर दलित समुदाय के चमार जाति
पर गोला-बारूद, लाठी-डंटा, भाला, गडासा के साथ एकाएक हमला बोल दिया. दलित महिला व पुरूष
तथा बच्चो के साथ मारपीट किया, जिसमें एक व्यक्ति कि हत्या हो गई है, व 39 महिला व
पुरूष तथा बच्चे गंभीर रूप से घायल हैं. गैर दलितों ने रबिदास का मंदिर व दलितो के
घर में किरोसीन का तेल डालकर आग लगाकर जला दिया. रबिदास मंदिर को पूरी तरह क्षतिग्रस्त
कर दिया गया है व एक दलित व्यक्ति का घर जलाकर राख का दिया गया है.
घटना का अंजाम 9 बजे सुबह में
गैर दलित राजपूत गुट बनाकर आये और दलितों के रबिदास मंदिर पर हमला बोल दिया और पहले
मंदिर में किरोसीन डालकर आग लगाकर जलाकर क्षतिग्रस्त कर दिया और एक दलित महिला मंजू
देवी का घर भी किरोसीन तेल डालकर आग लगाकर जला दिया, जिसमे दलित महिला के लाख रूपए
से ज्यादा की जान माल का क्षति हुआ है. लाखों लाख की समपत्ति का नुकसान पहुचाया गया
है.
इस घटना में दलित महिला व पुरूष
तथा बच्चो को मारपीट कर गंभीर रूप से घायल कर दिया है, जिसमें घायलो को पटना पी. एम.
सी. एच. में इलाज के लिए रेफर किया गया हैं बाकि लोगो का सासाराम सदर हॅास्पिटल में
इलाज किया जा रहा हैं. एक अन्य व्यक्ति की भी मौत हो चुकी है, 5 लोगों की हालत गंभीर
बनी हुई है लेकिन 10 लोगों के मरने की संभवना है.
दलित अत्याचार के घटना के 1 घटे
बाद जिला प्रशासन, जिला पदाधिकारी, पुलिस अधीक्षक, पुलिस पदाधिकारी व पुलिस बल के साथ
पहुचे हैं. घटना की जांच कर अपराधी पर प्राथमिकी दर्ज की गई है. पुलिस अपराघियों को
हिरासत में लेकर पूछताछ कर छोड़ दिये गए हैं.
रोहतास के पुलिस अधीक्षक ने बातचीत
के द्वौरान बताया है कि हम पूरी तरह से जांच कर कारवाई कर रहे हैं. अनुसूचित जाति जनताति
अत्याचार अधिनियम के अंतर्गत एफ. आई. आर. कर रहे हैं.
पुलिस पदाधिकारी, सासाराम से
जन अधिकार केन्द्र, चेनारी, अध्यक्ष रविन्द्र कुमार से बातचीत में कहा है कि यहॉं के
राजपूत काफी दबंग है, हम पुलिस प्रशासन के तरफ से 9 लागों को हिरासत लिया गया है. सुरक्षा
के रूप में घटना स्थल पर पुलिस कैंप करेगी.
घटना का कारण: अखिल भारतीय रबिदासिया
धर्म संगठन के जिला अध्यक्ष काशी राम ने बताया कि रबिदास मंदिर स्थल पर निशान सिंह
की प्रतिमा बनाने को लेकर तथा निशान सिंह का झंडा लगाने को लेकर राजपूत जाति के लोगों से दो महीने से झगडा व विवाद
चल रहा था. इस विवाद की सूचना दिनांक 7, 06 2013 को जिला पदाधिकारी एवं पुलिस अधीक्षक
रोहतास को दी गई थी, जिसमें जिला पदाधिकरी व पुलिसअधीक्षक ने दलितो एवं गैर दलित दोनो
पक्ष को शांति बनाये रखने का आदेश निकाला था कि किसी पक्ष को धार्मिक स्थल पर झंडा
नहीं फहरना है. झंडा तोलन यदि करना है, तो सहायक थाना बडडी में आकर झंडा तोलन करना
है अन्यथा नहीं करना है. दिनाकं 14/8/2013 को भी दोनों पक्ष को बुलाकर सहायक थाना बडडी
में शांति बनाने व झंडा तोलन करने से स्पष्ट मना किया गया था. इसके बावजूद भी राजपूत
लोग दलित के धर्म स्थ्ल के परिसर में शहीद निशान सिंह के नाम से आजादी के दिन जबरदस्ती
झांडा तोलन करने लगे जिसमें सभी दलित मिलकर इसका विरोध किये और झंडा तोलन रोकने का
प्रयास किये तो राजपूत जाति के लोग 300-
400 कि संख्या में गुट बनाकर दलितों के मदिर में हमला बोल दिया, और आजादी का झंडा तोलन
करने के बहाने से घटना का अंजाम दिया.
इस घटना की सूचना जिला पदाधिकारी
रोहतास को 7/06/2012 एवं 13/8/2013 को आवेदन के माध्यम से दिया गया था, जिसमे जिला
पदाधिकारी ने यह फैसला दिया था कि धर्मिक स्थ्ल पर किसी समुदाय का झंडा नहीं फहराया
जायेगा. इसके बावजूद भी राजपूतों ने जिला पदाधिकारी के आदेश को नहीं माना और दलितों
की हत्या कर दी.
राजपूत लोग अपने पूर्वज निशान
सिंह का स्मारक बनाना चाहते हैं इसी कारण घटना को आंजाम दिया गया. निशान सिंह का स्मारक
लगाने के लिए हाई स्कूल के बच्चे व शिक्षको को भी इस्तेमाल किया जाता है, पहले शिक्षकों
के द्वारा स्कूल में झंडा फहराया जाता है. इसके बाद दलितों के धार्मिक स्थ्ल में राजपूत
आकर झंडा फहराना शुरू किया, इसमे आलमपुर ग्राम के छात्र को भी गोली लगने कि सूचना है.
दलित
किशोरी बच्चियो के साथ छेडखानी करने का दुसाहस:
राजकीय
माध्यमिक विद्यालय बडडी
में झंडा तोलन करने के बाद 10 बजे राजपूत का एक लड़का आकाश कुमार व कुछ
अन्य उसके सहयोगियों
ने जाकर दलित समुदाय के बच्चियो के बारे में मंटू नाम के शिक्षक से पूछने
लगा कि हरिजन
की लडकियो को उठाकर ले जाने चाहते हैं और दबाव बनाने लगा, तभी स्कूल का गेट
खुलते ही
सभी दलित बच्चियां भागी तो उनके द्वारा दौड़कर पकड़ने का प्रयास किया गया.
रानी कुमारी
पिता रादारायन राम की लड़की व उसके साथ अन्य सभी लड़कियां जान बचाकर किसी
तरह भाग गई. 15 अगस्त के दिन दलित समुदाय की लड़्कियां दूसरे
गांव में भी छुपी हुई थी.
बच्चो
पर हमला: घटना
के समय धर्म स्थल पर उस्थित नाबालिक दलित बच्चों पर भी हमला बोला गया और सामुदायिक
भवन व मंदिर के छत पर से बच्चों को उठाकर पटक दिया गया और कुछ बच्चों को उठाकर बाहर
फेंक दिया गया. जिसमें कई बच्चे भी गंभीर रूप से घायल है. जिसका इलाज सदर हॉस्पीटल
सासाराम में चल रहा है.
घटना
का आंजाम देने वाला समूह:
नाम पिता का नाम
डॉ शम्भू सिंह स्वं बच्चन सिंह
लखन सिंह स्वं केशो सिंह
अक्षयबर सिंह स्व कमला सिंह
विनोद सिंह स्वजगदीश सिंह
रामअशिष सिंह भाईजी सिंह
उमाकान्त सिंह मुन्सी सिंह
श्री राम सिंह स्वं जीरी सिंह
दीपक सिंह
आकाश सिंह रामजी सिंह
विभूति सिंह विश्वनाथ सिंह
अक्षय सिंह अक्ष्यबर सिंह
रणविजय सिंह स्वं कुलवंश सिंह
प्रकाश सिंह रामप्रवेश सिंह
चन्द्रशेखर सिंह बिन्दा सिंह
शेखर सिंह स्व रामेश्वर सिंह
हरिओम सिंह स्व सिगासन सिंह
विकास सिंह भिखारी सिंह
प्रकाश सिंह रामप्रवेश सिहं
इस
अत्याचार में अज्ञात लोग भी शामिल है.
पीड़ित महिला व पुरूष तथा बच्चों
की सूचि:
1 बेलास राम मृत्यू हो गई, अंतिम दाससंस्कार भी करवाया
है. 16 कृष्णवती देवी
17 बिन्दू देवी
2 शुकिया देवी 18 देवती देवी
3 विकास कुमार घायल, बच्चा 19 बिमला दवी
4 संतोष कुमार , 20 तेतरी देवी
5 राजेशकुमार ,, 21 अस्तारनी
देवी
6 राहुल कुमार ,,
22 अनिता देवी
7 हलखोरी राम 23 प्रकाशराम
8 आकाली देवी महिला 24 तेजा
साधु मंदिर पुजारी
9 मीना देवी ,,
25 राजा राम
10 सरस्वती देवी 26 नागिना राम
11 जोखना देवी 27 दीपक राम
12 चम्पा देवी र्गभवती महिला 28 मगरू राम
13 शुकिया देवी
29 फुलकुमारी
14 उमरावती कुवर 15 सरोजा देवी 30 सुदामा राम
31 रामरतल राम 32
सहतूराम
33 विद्यार्थी राम 34 जिज्ञासी
देवी
35 सरजु राम
36 मनोज राम
37 नथुनि राम 38 प्यारी देवी
40 अमित नन्दन
39 रमेश कुमार
ग्राम
बडडी: यह राजपूत
बहुल गांव है दलितों की संख्या काफी कम है. यहॉं से जिला मुखयालय कि दूरी 25 किलो मीटर
थाना और प्रखण्ड भी लगभग 25 किलोमीटर है, लेकिन सहायक थाना से घटना स्थल कि दूरी
200 मीटर है. सहायक थाना भी समय पर नहीं पहुचा दलितो के सुरक्षा में. केन्द्र सरकार
व राज्य सरकार तथा सरकार के सभी विभाग व आयोग तथा सामाजिक संगठनो से अनुरोध है कि दलितो
कि सुरक्षा में मदद, एवं अपराधियों को गिरफ्तार कर सजा दिलाने में सहयोग प्रदान किया
जाये. सभी दलितों को सम्मान से जीने के अधिकार की गांरटी दी जाये.
क्या यही देश की आजादी है? लोकतंत्र
के नाम पर यह क्रूर अपमान: है. 15 अगस्त के दिन लम्बे चौड़े लोकतंत्र पर दिए गए भाषण
पर शर्मिंदा होना चाहिए. प्रधान मंत्री एवं मुख्य मंत्री तथा अन्य नेताओं ने जो भी
कहा कि दलितो के लिए ये कर रहे हैं और देश
आज़ाद है. वो सब झूठी दलीले हैं और यह सब बकवास है. आजाद भारत देश में दलित गुलाम है,
जिसे वे स्वतंत्रता का दिन कहते हैं उसी दिन राजपूतों ने संविधान का अपमान एवं मौलिक
अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, अभिक्ति का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, जीवन
के अधिकार का घोर उलंघन किया है.
जन अधिकार
केन्द्र,चेनारी रोहता, बिहार
संपर्क: 09572427099
साभार - दखल की दुनिया
Thursday, August 8, 2013
भगत सिंह छात्र मोर्चा (बीसीएम) का तदर्थ घोषणापत्र, संविधान, कार्यक्रम, व तात्कालिक माँगें बहस के लिए जारी....
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भारत जिसकी 55 करोड़ आबादी छात्र-नौजवानों की है, एक भयानक दौर से गुजर रहा है। करोड़ो-करोड़ छात्र-नौजवान आज अशिक्षा, बेकारी व बेरोजगारी से तंगहाल हैं। देश की मौजूदा सामाजिक-आर्थिक हालातों ने हम छात्र-छात्राओं के कन्धों पर एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी साैंपी है। यह जिम्मेदारी है इस लूट-दमन व दलाली के शासन पर आधारित मौजूदा समाज व्यवस्था को बदल डालने का, यह जिम्मेदारी है समाज के क्रान्तिकारी पुर्नगठन का, यह जिम्मेदारी है एक नवजनवादी-समाजवादी भारत के निर्माण का।
आज पूरे देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। बढ़ती महंगाई व साम्राज्यवादी लूट की वजह से देश भर का मजदूर-किसान, छात्र-नौजवान व अन्य मेहनतकश वर्ग बुरी तरह त्रस्त है। एक ओर जहाँ 84 करोड़ लोग 20 रूपये दैनिक से भी कम में अपना गुजर-बसर कर रहे हैं वहीं मात्र 53 अरबपतियों के पास सकल घरेलू उत्पाद के 31 प्रतिशत के बराबर की सम्पत्ति है। यूएनओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक जहाँ अफ्रीकी महाद्वीप के सर्वाधिक गरीब 26 देशों से ज्यादे गरीब लोग भारत के 8 राज्यों में निवास करते हैं वहीं केवल एक लाख परिवारांे के पास 17 लाख करोड़ से अधिक की सम्पत्ति है।
ऐसे में इस मौजूदा शोषण व गैरबराबरी पर अधारित समाज व्यवस्था को बदलने की जो ऐतिहासिक जिम्मेदारी हमारे कन्धों पर है, उसे पूरा करने के लिए हम छात्र-नौजवानों को संगठित होना होगा, क्रान्तिकारी राजनीतिक चेतना से लैश होना होगा तथा देश भर में चल रहे मजदूरों, किसानों, दलितों, महिलाओं व अन्य उत्पीड़ित वर्गों के संघर्षों से न केवल जुड़ना होगा बल्कि उनके बीच क्रान्ति की अलख जगानी होगी।
शिक्षा व्यवस्था का सरोकार पीढ़ी दर पीढ़ी के संचित ज्ञान से वर्तमान पीढ़ी को लैश कर उसके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना होता है। किसी भी समाज के विकास में सबसे प्रमुख योगदान वहाँ की मेहनतकश जनता का होता है। जबकि हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था का देश की मेहनतकश जनता के उत्थान व मुक्ति से कोई सरोकार नहीं है।
हमारे देश में हजारों-हजार वर्षों से वर्ण व्यवस्था पर आधारित एक खास तरह की शिक्षा नीति चली आ रही है। इस ब्राह्मणवादी शिक्षा नीति के तहत मुख्य रूप से केवल सवर्णों को ही शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। निम्न जातियों को हजारों वर्षाें तक शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित रखा गया। वेद का एक वाक्य सुन लेने पर उनके कान में गर्म सीसा पिघला कर डाला गया। कुल मिलाकर एक ऐसी कर्मकाण्डी, कूपमण्डूक व परलोकवादी शिक्षा पद्धति विकसित की गयी जो पूरी तरह से श्रम विरोधी व मनुष्य विरोधी थी। इस शिक्षा व्यवस्था में हमारे देश की मेहनतकश जनता के हजारों वर्षांे से संचित ज्ञान का कोई महत्व नहीं है। इस देश की शिक्षा व्यवस्था सामाजिक उत्पादन से पूरी तरह से कटी हुयी है। शिक्षा व्यवस्था सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था से मूलभूत रूप से जुड़ी होती है। चूँकि भारत एक अर्द्धसामन्ती व अर्द्धऔपनिवेशिक देश है इसलिए शासक वर्ग ने इसके अनुरूप ही शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया है।
कालान्तर में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा गुलाम बनाये जाने के बाद यहाँ की शिक्षा व्यवस्था में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव किये गये। इस देश पर अपने लूटेरे शासन को कायम रखने के लिए उन्हें प्रशासकों, क्लर्कों और पूरी तरह से औपनिवेशिक तन्त्र पर निर्भर ब्रिटिश क्राउन के वफादार लोगों की जरूरत थी। क्योंकि ब्रिटिश शासकों के लिए यह बहुत खर्चीला पड़ रहा था कि वो अब और अंग्रेज कर्मचारियों को भारत में शासन चलाने के लिये भेज सकें। इसलिए इन्हीं जरूरतों के अनुरूप एक औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था का निर्माण मैकाले ने किया। जिसका उद्देश्य एक ऐसे वर्ग की सृष्टि करना था जो रक्त और वर्ण में भारतीय होगा परन्तु पसन्द, विचार, आचरण एवं विद्वता में अंग्रेज होगा। सुनियोजित तरीके से तमाम भारतीय भाषाओं का गला घोंटकर उन्होंने अंग्रेजी को शिक्षा के माध्यम के रूप में चुना।
1947 की तथाकथित आजादी के बाद भारतीय जनता को यह उम्मीद थी कि अब सबके लिए एक जनवादी, तर्कपरक, वैज्ञानिक व सामाजिक उत्पादन से जुड़ी हुयी यानी रोजगारपरक शिक्षा निःशुल्क उपलब्ध होगी। लेकिन कथित आजादी के बाद भी हमारे देश के दलाल शासक वर्गाें ने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा बनाये गये साम्राज्यवाद परस्त शिक्षा नीति और हजारों वर्षाें से चली आ रही गैरबराबरी पर आधारित ब्राह्मणवादी शिक्षा नीति को कमोबेश उन्हीं रूपों में बनाये रखा। साम्राज्यवादी पूँजी के सहयोग से प्प्ज् और प्प्ड जैसे बड़े-बड़े संस्थान खोले गये। जो कि साम्राज्यवाद परस्त प्रशासकों और बहुराष्ट्रीय निगमों की नौकरी के लिए लालायित लोगों को पैदा करते हैं। 1947 के बाद भारतीय राज्य द्वारा शहर केन्द्रित उच्चस्तरीय विश्वविद्यालयी शिक्षा व्यवस्था को विकसित किया गया। परिणामस्वरूप गुणवत्तापरक शिक्षा प्राप्त करने के लिए हर साल लाखों छात्रों को गांव छोड़कर शहरों में आने पर विवश होना पड़ता है। शहरों में उच्च व गुणवत्तापरक शिक्षा दिलाने के लिए और अपने बच्चों के सपनों को पूरा करने के लिए माँ-बाप को अपनी गाढ़ी कमाई खर्च करनी पड़ती है। जमीन-जायदाद, गहने व घर तक गिरवी रखने पड़ते हैं, बेचने पड़ते हैं।
1947 के बाद भारतीय राज्य ने जिस साम्राज्यवाद परस्त व ब्राह्मणवादी शिक्षा पद्धति को विकसित किया, उसने ऐसे पढ़े-लिखे भारतीयों को पैदा किया जो पूरी तरह से जनता व जनसरोकारोें से कटे हुये हैं। इसका कारण यह है कि ज्ञान के जिस प्रणाली या ढ़ंाचे को भारतीय राज्य द्वारा तैयार किया गया उसके अन्तर्गत भारत की मेहनतकश जनता के परम्परागत पेशों यानि कृषि, दस्तकारी, बिनकारी आदि से जुड़े ज्ञान का कोई महत्व नही था। इसलिए शासक वर्ग द्वारा अक्सर किसानों, मजदूरों, दस्तकारांे, बुनकरों, दलितों के बच्चों को पढ़ने-लिखने में कमजोर बताया जाता है। जबकि ऐसा कतई नहीं है बल्कि सच्चाई तो यह है कि यह शिक्षा पद्धति ही कुछ खास जातियों और वर्गाे को ध्यान में रखकर बनायी गयी है एवं उन्हीं के अनूकुल है। इसलिये उन जातियों और वर्गाे के बच्चे होनहार नजर आते हैं।
आज नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने बाद से हमारे देश के दलाल शासक वर्ग ने एक नयी शिक्षा नीति को जन्म दिया है। बढ़ते साम्राज्यवादी और बाजारवादी हस्तक्षेप की वजह से बहुत तेजी से शिक्षा का निजीकरण किया जा रहा है। शिक्षा में सुधार के नाम पर फीसों मे भारी बढ़ोत्तरी, सीटों में कटौती, अंग्रेजी भाषा का बढ़ता वर्चस्व, साम्राज्यवादी संस्कृति व अर्थव्यवस्था के अनुरूप व्यवसायिक कोर्सों की स्थापना की जा रही है। यह नई शिक्षा नीति बेहद आत्मकेन्द्रित, व्यक्तिवादी, घोर करियरवादी व स्वार्थी युवक-युवतियों को पैदा कर रही है जिनका इस देश-दुनिया व समाज से कोई लेना-देना नहीं है।
भारतीय राज्य बहुत तेजी से स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयांे को सरकारी मदद व अनुदानों में कटौती कर रहा है। सरकारी शिक्षण संस्थान शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं। शैक्षणिक संसाधनों व सुविधाओं में लगातार कटौती की जा रही है। बड़े पैमाने पर निजी एवं विदेशी विश्वविद्यालय खोेले जा रहे हैं। शिक्षा में विदेशी निवेश कराया जा रहा है। शिक्षा जैसी मूलभूत चीज को पूंजी निवेश का क्षेत्र बना दिया गया है। यानी पैसा लगाइये और मुनाफा कमाइये। बहुराष्ट्रीय निगमों और दलाल औद्योगिक घरानों की जरूरतों के अनुरूप भारी फीस वसूलकर कम्प्यूटर डिप्लोमा, माडलिंग, मार्केटिंग, फैशन डिजाइनिंग, मैनेजमेण्ट, टूरिज्म, इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी जैसे नये-नये कोर्स खोले जा रहे हैं। दूसरी तरफ ब्राह्मणवादी सामंती संबंधों को बनाये रखने के लिए कर्मकाण्ड, ज्योतिष, जैसे विषय जो पूरी तरह झूठ व पाखण्ड पर आधारित हैं, को विज्ञान का दर्जा देकर विश्वविद्यालयों में नये कोर्स के रूप में शुरू किया जा रहा है।
एक तरफ शिक्षा के अधिकार की नौटंकी की जा रही है, दूसरी तरफ दोहरी शिक्षा पद्धति लागू की जा रही है। अमीरों के बच्चों के लिए अलग व गरीबों के बच्चों के लिए अलग। आज जिस तरह से प्राथमिक शिक्षा के लिए मोटी-मोटी फीस लेने वाले प्राइवेट स्कूल खोले जा रहे हैं उससे यह स्पष्ट होता है कि आम घरों के बच्चों के लिए बेहतर प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करना असम्भव है। आज भी देश के 60 प्रतिशत बच्चे शिक्षा व स्कूल से दूर है। जहां प्राथमिक शिक्षा को विश्व बैंक के रहमोकरम पर छोड़ा जा रहा है वहीं उच्च शिक्षा को निजीकरण के माध्यम से देशी-विदेशी पूंजीपतियों को सौंपा जा रहा है।
एक ओर जहाँ गरीबों के बच्चे आज उन सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने के लिए जाते हैं जहाँ से शिक्षा बिल्कुल नदारद है। बच्चों को वहाँ केवल मिड डे मिल का घटिया व स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भोजन परोसा जाता है। इन सरकारी विद्यालयों में एक तो पर्याप्त शिक्षक नहीं हैंं। दूसरे जो हैं भी वो दिन भर मिड डे मिल तैयार कराने में लगे रहते हैं। पूरे वर्ष ये शिक्षक पल्स पोलियो अभियान, जनगणना अभियान व चुनाव अभियान आदि में लगे रहते हैं। वहीं अमीरों के बच्चों के लिए पंच सितारा स्कूलो की व्यवस्था है। जहाँ पर हर तरह की सुविधायें मौजूद हैं।
शिक्षा पर भारतीय राज्य अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 2.9 प्रतिशत खर्च करता है जो कि अविकसित सब सहारन देशों से भी कम है। सरकार न तो सरकारी कालेजों-विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ा रही है और न ही बुनियादी ढ़ाँचागत विकास कर रही है। छात्रों के पास प्रयोग के लिए प्रयोगशाला नहीं है, लाइब्रेरी नहीं है, लाइब्रेरी है भी तो पुस्तकें नहीं हैं, हास्टल नहीं है। जबकि फीसें आये दिन बढ़ाई जा रही हैं।
हास्टलों की अपर्याप्त व्यवस्था की वजह से गरीब घरों के बच्चे शहर मंे टिक नहीं पाते हैं। क्योंकि शहर में किराया इतना महंगा है कि उसे अदा कर पाना उनके बजट में नहीं है। इसके कारण वो शिक्षा से वंचित रह जाते हैं या फिर उनके माँ-बाप द्वारा बचत करके रखी गयी गाढ़ी कमाई उन्हें शिक्षा दिलाने में खर्च हो जाती है। इन कालेजों-विश्वविद्यालयों से पढ़कर निकलने के बाद भयंकर बेरोजगारी मुँह बाये खड़ी रहती है। परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर छात्र या तो अवसाद के शिकार हो जाते हैं या फिर आत्महत्या करने पर विवश।
हमारे विश्वविद्यालयों में हर साल नए-नए तरह के कोर्सों की स्थापना की जा रही है। जहाँ एडमिशन के लिए भारी फीस देनी पड़ती है। इन कोर्सों में आम घरों के बच्चों का प्रवेश ले पाना सम्भव नहीं है। पेड सीटों की व्यवस्था करके आम घरों के बच्चों को कालेजों-विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने से रोका जा रहा है। इसका एक नमूना बी0एच0यू0 भी है। इस शिक्षा व्यवस्था की एक हकीकत यह भी है कि उच्च शिक्षा तक पहंुचते-पहुंचते 10 में से 9 छात्रों को पढ़ाई छोड़ना पड़ता है।
आज हमारे विश्वविद्यालयों में तमाम संकाय व विभाग शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं। लेकिन वहां शिक्षकों की नई भर्ती नहीं की जा रही है। दलित, आदिवासी व पिछड़े वर्ग के शिक्षकों के लिए आरक्षित सैकड़ों सीटें वर्षों से रिक्त पड़ी हुयी हैं। लेकिन वहाँ पर उन वर्गाें के शिक्षकों की भर्ती नहीं की जा रही है। एक आंकड़े के मुताबिक बी0एच0यू0 मे अनु0 जाति के लिए 362 सीटें आरक्षित हैं जिसमंे से 247 सीटें रिक्त पड़ी हुयी हैं। वहीं अनु0 जनजाति के लिए 187 सीटें आरक्षित हैं जिसमंे से 151 सीटें रिक्त पड़ी हुयी हैं। वहीं बी0एच0यू0 में केवल दो ऐसे अनुसूचित जाति के शिक्षक हैं जो प्रोफेसर के पद पर हैं। यहीं हालत कमोबेश सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की है।
तथ्यों से यह बात स्पष्ट होती है कि कथित आजादी के 67 वर्ष बाद भी हमारे केन्द्रीय शिक्षण संस्थानों में ब्राह्मणवादी जाति संरचना व सवर्ण वर्चस्व किस कदर हावी है।
दलित जनता के लम्बे संघर्षों के बाद भारत के दलाल शासक वर्गों द्वारा संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया। लेकिन शिक्षा और रोजगार सहित सभी क्षेत्रों में उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से आरक्षण भी अपना महत्व खोता जा रहा है। जो आरक्षण है भी, वो भी शिक्षण संस्थानों सहित अन्य संस्थानों में आज भी ब्राह्मणवादी जाति संरचना की मजबूती की वजह से सही ढंग से लागू नहीं हो पाता है।
यह भी समझने की जरूरत है कि आरक्षण की नीति और उस पर आधारित सियासत के दोहरे आयाम हैं। इसका एक पहलू तो यह है कि इसकी वजह से सदियांे से वंचित निम्न जातियों के बीच से भी एक ऐसा मध्यवर्ग विकसित हुआ है जो सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है तो दूसरा पहलू यह है कि चूँकि इस मध्यवर्ग के हित शासक वर्ग के हितों से जुड़े हुये हैं इसलिए वह शासक वर्ग के साथ मिलकर खुद के विकास को अपनी पूरी जाति के विकास के रूप में प्रचारित कर रहा है व निम्न जातियों का ध्यान उनकी वास्तविक माँगों से भटका कर उनकी माँगों को बुर्जुआ चुनावी दायरे तक सीमित कर रखा है। हाँ यह जरूर है कि इसकी वजह से जातियों का ध्रुवीकरण भी हुआ है। दलित-पिछड़ों के नाम पर जिसका लाभ बुर्जुआ चुनावबाज पार्टियाँ उठा रही हैं।
हमारे विश्वविद्यालयों में प्रशासन इस कदर निरंकुश है कि उसने परिसर के अन्दर छात्रों के धरना-प्रदर्शन करने, जुलूस निकालने व सभा-गोष्ठी करने जैसे बुनियादी जनतांत्रिक अधिकारों को भी प्रतिबंधित कर रखा है। एक ओर विश्वविद्यालय प्रशासन जहाँ जनतांत्रिक मांगों के लिए प्रदर्शन कर रहे छात्रों को गिरफ्तार करा लेता है वहीं दूसरी ओर गुण्डे तत्वों को संरक्षण प्रदान करता है। फिर गुण्डे तत्व जब प्रशासन के सह पर परिसर में अराजकता उत्पन्न करते हैं तब उसका हवाला देकर प्रशासन अराजकता कम करने के नाम पर परिसर में अपनी तानाशाही स्थापित करता है। इस तरह वह परिसर में लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्षरत छात्रों व छात्र संगठनों को भी बदनाम करता है। बी0एच0यू0 में जहाँ परिसर के अन्दर राष्ट्रीय स्वयंसेवी संघ (त्ैै) जैसे फाँसीवादी संगठन को अपनी गतिविधियों को संचालित करने की पूरी छूट है वहीं जनतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्षरत छात्र संगठनों को प्रशासन की तानाशाही का सामना करना पड़ता है।
आज बढ़ती महंगाई व साम्राज्यवादी लूट की वजह से देश में मजदूरों-किसानों व अन्य मेहनतकश वर्ग के हालात दिन-प्रतिदिन खराब होते जा रहे हैं। स्वभाविक है कि इनके घरों से कालेज-विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए आए हुए छात्र जिन्हें स्वयं कोई सुरक्षित भविष्य दिखाई नहीं पड़ रहा है, वे हाथ पर हाथ धरे बैठे तो रहेंगे नहीं। वे भी अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने की व रोजी-रोटी-रोजगार की राजनीति करेंगे ही। हमारे देश की सरकार इस बात से बुरी तरह डरी हुयी है कि कहीं भारत के छात्र-नौजवान क्रान्तिकारी राजनीति से न जुड़ने लगें। आज शासक वर्ग एक साजिश के तहत कैम्पसों को खत्म कर रहा है। दूरस्थ शिक्षा को बढ़ावा दिया जा रहा है। समेस्टर पद्धति के जरिये छात्र जीवन को बोझिल बनाया जा रहा है। तााकि छात्र पढ़ाई के बोझ से इतना दब जायें कि वो कुछ और न सोच सकें। कुल मिलाकर ऐसा प्रयास किया जा रहा है कि कोई संगठित क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलन खड़ा न हो सके। इसलिए कालेजों व विश्वविद्यालयों से छात्र संघ रूपी मंच का कमर तोड़ा जा रहा है, उसे रिढ़विहीन किया जा रहा है ताकि छात्र संघ एक क्रान्तिकारी राजनीति के मंच के रूप मे तब्दील न होनेे पाए। इसलिए छात्र संघ चुनाव कराने के लिए लिंगदोह समिति का गठन किया गया है। जिसकी संस्तुतियाँ पूरी तरह से अलोकतांत्रिक हैं। इसलिए अगर हमें एक क्रान्तिकारी छात्र आंदोलन खड़ा करना है तो मुकम्मल छात्र संघ को बहाल कराना होगा तथा छात्र संघ को क्रान्तिकारी राजनीति के मंच के रूप में तब्दील करना होगा।
भारत एक अर्द्धसामन्ती व अर्द्धऔपनिवेशिक देश है। 1947 से पहले यह सीधे ब्रिटिश औपनिवेशिक सŸाा का गुलाम था। ब्रिटेन ने हमारी प्राकृतिक संपदा को लूटकर अपने यहाँ की औद्योगिक क्रांति को सम्पन्न किया। उन्होंने भारतीय राजाओं और सामंतों के आपसी फूट का लाभ उठाया तथा देशभक्त राजाओं को कत्ल किया और अपने दलालों को या उन्हें, जिन्होंने उनके सामने घुटने टेक दिये राजा या जमिंदार के रूप में नियुक्त किया। जाति और धर्म के बंटवारे का अपने हितांे के अनुरूप इस्तेमाल किया। भारतीय कृषि और दस्तकारी को नष्ट कर उसे जबरदस्ती अपने हितों के अनुरूप ढाला। 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष इन्हीं दलाल प्रवृŸिा के राजाओं और सामंतों की गद्दारी की वजह से हारा गया।
यदि हम भारत की इस तथाकथित आजादी को विश्लेषित करें तो पायेंगे कि इस देश के नव शासक वर्ग ने संसदीय जनतंत्र के नव औपनिवेशिक ढ़ांचे को ही भारत की जनता की मुक्ति के लिए उपयुक्त समझा। उसे लगातार यह समझाने का प्रयास किया गया कि संसद और जनतंत्र एक दूसरे के पर्याय हैं। जहाँ पश्चिम में पूंजीवादी लोकतंत्र समंतवाद का नाश करके पैदा हुआ वहीं लंबे संघर्ष और अनगिनत कुर्बानियों के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने राजनीतिक सŸाा को अपने दलाल भारतीय पूंजीपतियों, सामंतों एवं रजवाड़ों के हाथों में सौंप दिया, जिनका प्रतिनिधित्व कांग्रेस पार्टी कर रही थी। जिस संविधान निर्माता कमेटी द्वारा भारत के संविधान का निर्माण किया गया और लोकतंत्र का स्वांग रचा गया ताकि साम्राज्यवादी देशों और उनके दलाल भारतीय पूंजीपतियों और सामन्तों की लूट व दलाली कायम रह सके, उसके अधिकतर सदस्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दलाल थे। भारतीय संविधान के निर्माण के लिए गठित संविधान सभा का चुनाव भी वयस्क मताधिकार पर आधारित नहीं था। बल्कि पहले से निर्वाचित प्रांतीय विधान सभाओं का उपयोग निर्वाचक निकायों के रूप में किया गया और जो संविधान सभा निर्मित भी हुई वह केवल 11 प्रतिशत बालिग मत का प्रतिनिधित्व करती थी।
भारतीय दलाल शासक वर्गों ने साम्राज्यवादी लूट को कायम रखा तथा सामन्ती भूमि सम्बन्धों और सामन्ती संस्कृति को बनाए रखा। भारत में बड़े उद्योगांें की स्थापना में साम्राज्यवादी पूंजी को नींव बनाया। भारतीय दलाल शासक वर्गों ने उस संसदीय व्यवस्था को बनाये रखा जिसकी नींव ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा डाली गयी थी। उन्होंने भारत के बहुसंख्यक मेहनतकश दलित जनता के हजारों साल के शोषण का आधार रही ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था को यथास्थिति बनाए रखा तथा उन्हें अन्य नये रूपों में बढ़ावा भी दिया। अपने तात्कालिक राजनीतिक हितों को देखते हुए उन्होंने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया जिसकी आग में हजारों बेगुनाह लोग जला दिये गये। थोड़े हेर-फेर के साथ औपनिवेशिक न्याय और प्रशासनिक व्यवस्था को भी बरकरार रखा गया। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि 1947 की आज़ादी एक नकली आज़ादी थी, एक समझौतापरस्ती थी।
भारतीय दलाल शासक वर्गों की जन हत्यारी व अधिनायकवादी चरित्र तब पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है जब कथित आज़ादी के तुरन्त बाद उसने तेलंगाना के क्रान्तिकारी आन्दोलन का सैन्य बलांे के माध्यम से नरसंहार किया और ठीक उसी समय नगालैण्ड और मणिपुर के न्यायपूर्ण संघर्षाें का नृशंसता पूर्वक दमन किया। नगालैण्ड और मणिपुर की जनता पर हवाई हमले तक किये गये।
आज़ादी की लड़ाई में भगत सिंह की धारा एवं साम्राज्यवाद विरोधी मजदूरों-किसानों की धारा ही एक ऐसी धारा थी जो सच्चे अर्थों में जनता के वास्तविक हितों, जनवादी संघर्षों और क्रान्तिकारी राजनीति का प्रतिनिधित्व कर रही थी। जो साम्यवादी सिद्धान्तों पर समाज का पुर्नगठन करना चाहती थी। जिनके साथ कांग्रेस पार्टी ने गद्दारी की खासकर भगत सिंह की धारा के साथ। फलस्वरूप एक-एक करके बहुत से क्रान्तिकारी शहीद हो गए। इसके अतिरिक्त डॉ0 अम्बेडकर की धारा भी एक महत्वपूर्ण धारा थी। जो कि हजारों साल से जातिगत भेद-भाव व उत्पीड़न की शिकार रही दलित जनता के साथ गैरबराबरी के व्यवहार की उस खास समस्या को उठा रही थी व उसके खात्मे के लिए संघर्ष कर रही थी, जिसे उस दौर में उपेक्षित किया जा रहा था और विशेष महत्व नहीं दिया जा रहा था।
ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने हमारे देश में न तो स्वतंत्र रूप से पूंजीवाद का विकास होने दिया और न तो सामन्तवाद को ही नष्ट होने दिया। इसलिए मूल रूप से भारतीय समाज का चरित्र आज भी अर्द्ध सामंती-अर्द्ध औपनिवेशिक बना हुआ है और जो अपने साथ ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था और पितृसŸाात्मक विशेषताएं भी लिए हुए है।
आज आम जनता की शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताओं के लिए भी हमारा देश साम्राज्यवादी संस्थाओं, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की भीख पर निर्भर है। 1990 के बाद से यानी जब से उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकारण (एल0पी0जी0) की नीतियां लागू हुई हैं तब से हमारे देश के शासक वर्ग का साम्राज्यवादपरस्त व दलाल चरित्र और ज्यादे स्पष्ट हुआ है। पहले से जो थोड़े-बहुत उद्योग धंधे लगे भी हुए थे, एल0पी0जी0 की नीतियों के लागू होने के बाद से उन्हें एक-एक करके बंद किया जा रहा है या निजी हाथों को सौंपा जा रहा है।
एक ऐसे देश को जहाँ की आधी आबादी आज भी घर की चहारदिवारी के भीतर कैद हो, दहेंज प्रथा लगातार बढ़ रही हो, अपनी इच्छा से अपना जीवन साथी चुनने की भी आजादी न हो, प्रेम करने की सजा मौत हो, अन्तरजातीय विवाह करने वालांे को समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता हो, छुआ-छूत और ऊँच-नीच जैसी घृणास्पद अभिव्यक्तियां खुलेआम जारी हों, दलितों के साथ जज्झर, परमकुदी (गोहाना) और खैरलांजी जैसे हत्याकांड होते हों, जहां उनकी बस्तियाँ जला दी जाती हों, घर के स्त्रियों के साथ बलात्कार किये जाते हों, उन्हें नंगा घुमाया जाता हो, ऐसे देश को एक लोकतांत्रिक देश कहना बेइमानी है। ऐसे देश में जनता के लोकतंत्र की बात तो दूर पूंजीवादी लोकतंत्र की बात करना भी फरेब है। ऐसा देश तो एक सामंती और साम्राज्यवाद परस्त देश ही हो सकता है।
भारत की 70 प्रतिशत आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है। तथाकथित आजादी के 65 वर्ष बीत जाने के बाद भी जहाँ 30 प्रतिशत भूमि मात्र 5 प्रतिशत सामंती जमींदारों के कब्जे में है वहीं 50 करोड़ गरीब व भूमिहीन किसान गुजर-बसर की भूमि के लिए भी तरस रहे हैं। साम्राज्यवादी देशों से आयातित अनाज व वस्तुओं के खपत के लिए अपने यहाँ की कृषि को जानबूझकर चौपट किया जा रहा है। साम्राज्यवादी देशों द्वारा निर्देशित खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। एक-एक करके कृषि से सब्सिडी हटाई जा रही है। पिछले कुछ वर्षों में खेती पर सरकारी मदद मेेें 25 प्रतिशत से ज्यादा की कटौती की जा चुकी है। परिणामस्वरूप पिछले 10 वर्षों में 3 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या किया है।
साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की नीति को अपनाने के बाद मंदी, छटनी और बेरोजगारी चरम की ओर जा रही है। 5 लाख छोटे उद्योग बंद हो चुके हैं। करोड़ों डिग्रीधारी नौजवान बेकार भटक रहे हैं। वहीं भारत के दलाल पूंजीपतियों, सामंतो, नेताओं व नौकरशाहों ने लाखों करोड़ रूपये का काला धन स्विस बैंकों में जमा कर रखा है।
एक ओर जहाँ करोड़ों नौजवान बेरोजगारी से तंग आकर आत्महत्या करने को विवश हैं। अपने असुरक्षित भविष्य की वजह से मानसिक विकारों के शिकार हो रहे हैं, वहीं हमारे देश के नेता-नौकरशाह-पूंजीपति आपस में गंठजोड़ करके एक के बाद एक घोटालों को अंजाम दे रहे हैं- एक लाख छिहŸार हजार करोड़ का टू जी0 स्पेक्ट्रम घोटला, 70000 करोड़़ का कामनवेल्थ गेम घोटाला, 2004-2009 के बीच 10 लाख करोड़ का सम्भावित कोयला आवंटन घोटाला। एक ओर हमारे देश के नेता व दलाल पूंजीपति अरबों के बंगलों में रह रहे हैं और अय्याशी के नित नये कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ आम जनता के लिए इस कमरतोड़ महंगाई में दो जून की रोटी भी नामुमकिन होती जा रही है।
कभी अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा पोषित एवं निर्देशित विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्थाओं द्वारा बुनियादी ढ़ांचे के विकास के नाम पर तो कभी विशेष आर्थिक क्षेत्र (ैमर््) के नाम पर बड़े पैमाने पर किसानों से उनकी जमीने छीनी जा रही हैं। लोगों को उनके घरों से विस्थापित किया जा रहा है। आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की लूट चरम पर है। इस लूट को सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुँचाने के लिए और इसके खिलाफ चल रहे संघर्षों को कुचलने के लिए ऑपरेशन ग्रीन हण्ट, ऑपरेशन अनाकोण्डा जैसे बर्बर अभियान चलाये जा रहे हैं। दमन के बर्बरतम रूपों को अपनाया जा रहा है। इन सबके खिलाफ उठने वाली अवाजों को यू0ए0पी0ए0, आफ्सपा (।थ्ैच्।), 124।, 121। सरीखे जनद्रोही कानूनों की आड़ में कुचला जा रहा है। इन आंदोलनों के दमन के लिए राज्य के समर्थन से चलने वाले सलवा जुडूम सरीखे निजी सेनाओं का प्रयोग किया जा रहा है।
भारतीय राज्य का हिन्दू फाँसीवादी चरित्र इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि एक ओर जहां आतंक के एक रूप अजमल कसाब को फाँसी दी जाती है वहीं दूसरी ओर आतंक के दूसरे व उससे ज्यादे खतरनाक रूप बाला साहेब ठाकरे के मृत शरीर को राजकीय सम्मान के साथ विदाई दी जाती है। एक ओर जहाँ संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरू को बगैर किसी ठोस सबूत के फाँसी दे जाती है और उनके लाश को भी उनके परिजनों को नहीं दिया जाता है वहीं हजारांे मुसलमानों का नरसंहार कराने वाले व गर्भवती महिलाओं का भ्रूण निकलवा लेने वाले फाँसीवादी नरेन्द्र मोदी को युवाओं के रोल मॉडल के रूप में पेश किया जा रहा है। आज आतंकवाद के नाम पर सैकड़ों बेकसूर मुस्लिम युवाओं को जेलों में बंद किया गया है। सच्चर कमेटी की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में मुसलमानों की स्थिति दलितों से भी ज्यादा बुरी है।
काश्मीर, मणीपुर, नगालैण्ड एवं पूर्वोत्तर के राष्ट्रीयताओं की मुक्ति आंदोलनों को आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट्स (आफ्स्पा) सरीखे जनद्रोही कानूनों के माध्यम से कुचला जा रहा है। लाखों की संख्या में सेना व सी.आर.पी.एफ. के जवानों को वहां पर चल रहे जनांदोलनों के दमन के लिए लगाया गया है। काश्मीर में हजारों गुमनाम कब्रें पाई गयी हैं। मणिपुर में इरोम शर्मिला स्पेशल पावर एक्ट को खत्म करने की मांग को लेकर पिछले 12 वर्षों से अनशन पर हैं। इस कथित लोकतंत्र के लिए इससे शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि 15 जुलाई 2004 को मनोरमा के बलात्कार व हत्या के विरूद्ध हुए एक सशक्त विरोध प्रदर्शन में महिलाओं के एक समूह ने 17वीं असम रायफल्स मुख्यालय के सामने निर्वस्त्र प्रदर्शन किया। आज भारतीय राज्य अपने विरोधियों का मनोबल तोड़ने के लिए बलात्कार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है।
आज वोट बैंक की राजनीति करने वाले लोग व पार्टियाँ तमाम अस्मिताआंें व जातियों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं। अस्मिता का मतलब होता है अपनी पहचान के लिए लड़ना लेकिन आज ऐसा नहीं हो रहा है। अलग-अलग अस्मिताओं का एक साझा शत्रु है, साम्राज्यवाद और राजसत्ता। इनके खिलाफ एकजुट होकर क्रान्तिकारी संघर्ष छेड़ने की जरूरत है। शासक वर्ग असली संघर्षों से ध्यान भटकाने के लिए तरह-तरह की अस्मिताओं को खड़ा कर रहा है। तथाकथित दलित-पिछड़े नेता व संगठन वास्तव में जिनका दलित व पिछड़ी जातियों की मुक्ति से कोई सरोकार नहीं है अपने वोट बैंक के लिए दलित व अन्य उत्पीड़ित जातियों का ध्यान वास्तविक संघर्षों से भटका रहे हैं। इसका कारण यह है कि तथाकथित आजादी के 6 दशक बाद सभी जातियों में एक ऐसा छोटा सा वर्ग विकसित हुआ है, जिसका हित शासक वर्ग के हितों के साथ जुड़ा हुआ है और जो अपने निहित स्वार्थों के लिए इस व्यवस्था को बनाए रखना चाहता है। जाति उन्मूलन का प्रश्न उसके एजेण्डे में दूर-दूर तक शामिल नहीं है बल्कि जातियों को बनाए रखने में ही उस वर्ग का फायदा है।
वास्तव में जितनी उत्पीड़ित अस्मिताएं हैं, चाहे वो दलित अस्मिता हो, स्त्री अस्मिता हो, आदिवासी अस्मिता हो या कोई और, सबकी पहचान व मुक्ति का कार्यभार नव जनवादी क्रांति के कार्यभार से ही जुड़ा हुआ है।
जनता अपने दुश्मनों के खिलाफ संगठित संघर्ष न कर सके इसके लिए शासक वर्गों द्वारा बड़े पैमाने पर गैर सरकारी संगठनों (छळव्) का निर्माण किया जा रहा है। ये गैर सरकारी संगठन सुधार के नाम पर जनता के संघर्षों को गलत दिशा में ले जाने व भटकाने का काम करते हैं। इसलिए जनता के बीच में इनका पर्दाफाश करने की जरूरत है।
आज हमारे देश में सामंती व साम्राज्यवादी संस्कृति का बोलबाला है। एक ओर छुआ-छूत, ऊँच-नीच, अंधविश्वास, ज्योतिष व कर्मकाण्ड पर आधारित ब्राह्मणवादी सामंती संस्कृति है तो दूसरी ओर घोर भोग-विलास व अश्लीलता पर आधारित साम्राज्यवादी-उपभोक्तावादी संस्कृति। इनके खिलाफ एक जबर्दस्त जनवादी-समाजवादी संस्कृति को विकसित किये बगैर जनता अपने मुक्ति संघर्षों को व नव जनवादी क्रांति को एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकती। हमारे देश में हमेशा दो तरह की संस्कृति रही है, एक शासक वर्ग की सवर्ण वर्चस्व पर आधारित, श्रम विरोधी, परजीवी, ब्राह्मणवादी-सामंती संस्कृति तो दूसरी तरफ आम मजदूर, किसान, दलित, आदिवासी व महिलाओं की श्रमिक संस्कृति। जहाँ पर एक जनवादी संस्कृति व समाज का भू्रण जर्बदस्त रूप मंे मौजूद है।
हमारे देश में 55 करोड़ आबादी युवाओं की है, छात्र-नौजवानों की है जो बड़े पैमाने पर शिक्षा और रोजगार से वंचित हैं। करोड़ों डिग्रीधारी नौजवान बेकार भटक रहे हैं। इस व्यवस्था में छात्र-नौजवानों के सुरक्षित भविष्य की कोई गारण्टी नहीं है। शासक वर्ग द्वारा अपने प्रचार माध्यमों से नौजवानों को झूठे सपने दिखाये जा रहे हैं। युवाओं को प्रचार माध्यमों, टेलीविजन चैनलों, अश्लील फिल्मों द्वारा भ्रष्ट किया जा रहा है, लम्पट बनाने का प्रयास किया जा रहा है। ताकि वे शोषण के विभिन्न स्वरूपों को न समझ सकें व इस शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ चल रहे क्रान्तिकारी संघर्षों से जुड़कर अपना योगदान न कर सकें।
आज देश में कोई भी ऐसी संसदीय राजनीतिक पार्टी नहीं है जो किसानों एवं आदिवासियों से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं दलाल पूंजीपतियों के हित में सरकार द्वारा उनकी जमीने छीने जाने का विरोध कर रही हो। कोई भी ऐसी सरकार नहीं है जो मजदूरो, किसानों, दलितों, महिलाओं, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, राष्ट्रीयताओं, छात्रों व उनके आंदोलनों का नृशंसता पूर्वक दमन न कर रही हो। हमारे देश की सरकारों ने चाहे वो किसी भी पार्टी की हो जल-जंगल-जमीन, खनिज, हवा, पानी, सभ्यता संस्कृति कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे साम्राज्यवादी देशों और हमारे देश के दलाल पूंजीपतियों व सामन्तों के हित में व उनके मुनाफे के लिए दाव पर न लगा दिया हो। अभी हाल ही में जनता के तमाम विरोधों के बावजूद यू0पी0ए0 की सरकार ने खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देकर एक बार फिर अपने साम्राज्यवादी आकाओं के सामने अपने स्वामीभक्ति की पुष्टी की। इसमें तथाकथित दलितवादी बसपा व समाजवादी सपा ने उनका साथ दिया। जनता के खिलाफ छेड़े गए इस प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष युद्ध में कांग्रेस नेतृत्व की यू0पी0ए0 सरकार को बी0जे0पी0 गुट की एन0डी0ए0 सहित मजदूरों-किसानों व मेहनतकश जनता की हितैशी होने का दावा करने वाली संसदीय वामपंथी पार्टियों व चौथे मोर्चे द्वारा भरपूर समर्थन दिया जा रहा है।
शोषक वर्ग के ढांचे की रक्षा करने में सभी संसदीय पार्टियाँ एक ही दलाल कुनबे की पार्टियाँ हैं। ब्राह्मणवादी बसपा को प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथी भाजपा से हाथ मिलाने में कोई गुरेज नहीं है। इन सभी पार्टियों का वर्ग चरित्र और दुष्कर्मों का इतिहास यही दुहराता है।
एक अर्द्ध सामन्ती, अर्द्ध औपनिवेशिक सामाजिक आर्थिक व्यवस्था में संसदीय रास्ते से कोई परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। वास्तविक नीतियाँ तो संसद में नहीं बल्कि सामंती जमींदारों, दलाल बड़े पूंजीपतियों व साम्राज्यवादी संस्थानों के प्रतिनिधियों की बैठक में तय की जाती हैं। संसद व विधानसभाएं तो कथित लोकतंत्र को दिखाने मात्र के आवरण और कठपुतलियों के नृत्य जैसे हैं। यह संस्थाएं शक्तिहीन व गपबाजी के अड्डे व जनता को गुमराह करने के माध्यम हैं। करोड़ों रूपये के दैनिक खर्च पर चलने वाले ये अड्डे जनता के सिर पर भारी बोझ हैं। जनता के गुस्से को निकालने और क्रान्तिकारी काम से भटकाने के लिए ये अड्डे शोषक वर्ग के पक्ष में सेफ्टी वाल्ब का काम करते हैं। इस तरह ये जन विरोधी व जन हत्यारे व्यवस्था की हिफाजत के माध्यम हैं। अन्यायपूर्ण व्यवस्था, दागी-कुख्यात अपराधी, साम्प्रदायिक फाँसीवादी, सामंती व साम्राज्यवादी दलालों, भ्र्रष्ट नेताओं आदि को संसदीय व्यवस्था में भागीदारी से वैधता प्राप्त हो जाती है।
आज पूरी दुनिया भीषण सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। दुनिया का कोई ऐसा कोना नहीं है जहाँ पर इस मौजूदा शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष न हो रहा हो। वर्तमान विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के अर्न्तगत जो आर्थिक संकट खड़ा हुआ है उसकी वजह से पूरी दुनिया अराजकता एवं उथल-पुथल की शिकार है। इसका मूर्त रूप हमें ग्रीस, स्पेन, तुर्की, चिली व मध्य-पूर्व के देशों सहित विश्व साम्राज्यवाद के सर्वाधिक शक्तिशाली केंद्र अमरीका एवं यूरोप के देशों में दिखाई पड़ रहा है। ग्रीस, स्पेन व पुर्तगाल जैसे तमाम यूरोपीय देश दिवालिया होने के कगार पर हैं। पूरा यूरो जोन संकट में है। इन देशों में लोगों के वेतन से बड़े पैमाने पर कटौती की जा रही है, नौकरियों से छंटनी की जा रही है, उनसे सामाजिक सुरक्षा की सुविधाओं को छीना जा रहा है। अमरीकी सरकार की जनविरोधी पूंजीवादी नीतियों की वजह से वर्षों से असंतुष्ट लोग ‘वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो’, ‘हम 99 प्रतिशत हैं’ जैसे नारों के साथ सड़कों पर उतरे। इन सभी कार्यवाहियों में छात्र-नौजवानों की जर्बदस्त भूमिका है। चिली में हजारों छात्र पिछले तीन सालों से उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण की नीतियों से उपजे गहरी असमानता के विरूद्ध संघर्षरत हैं। वो देश के पूरे शैक्षणिक ढ़ाँचे में बदलाव चाहते हैं। वो चाहते हैं कि शिक्षा को बजार के हवाले न किया जाय बल्कि यह सीधे राज्य के नियंत्रण में हो। उसे मुनाफाखोरी के उद्योग के रूप में तबदील न किया जाये।
कुल मिलाकर देखें तो पूरी दुनिया में अमीरी और गरीबी के बीच जो खाई निर्मित की गयी है, फलस्वरूप जो सामाजिक-आर्थिक असमानता, बेरोजगारी-भुखमरी जैसी समस्याएं विकसित हुयी हैं, उन्होंने एक ऐसी परिस्थिति को जन्म दिया है जिससे सारी दुनिया के लोग इस वर्तमान पूंजीवादी एवं साम्राज्यवादी जुए को उतार फेंकने के लिए बेचैन हैं।
ध्यान देने वाली बात यह है कि ये साम्राज्यवादी देश अपने इस संकट को हल करने के लिए भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों पर गिद्ध दृष्टि लगाए हुए हैं एवं पहले से चल रहे अपने लूट के विभिन्न तरीकोें को और विकसित कर रहे हैं। इनकी निगाह हमारे देश के प्राकृतिक संसाधनों, सस्ते श्रम और बाजार पर है, जिन्हें लूटकर ये देश अपने आर्थिक संकट को हल करना चाहते हैं।
छात्रों ने हमेशा समाज परिर्वतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। छात्र शक्ति से बड़ी कोई ताकत नहीं होती। यही वह शक्ति है जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की कभी न डूबने वाली सूरज की आँखें निकाल ली थीं। दुनियाँ में जितने भी क्रान्तिकारी परिवर्तन हुये हैं वे छात्रों और छात्र आन्दोलनों के बगैर संभव नहीं थे। चाहे वो रूस की बोल्शेविक क्रान्ति हो, चीन में 4 मई 1919 का हुआ साम्राज्यवाद विरोधी छात्र आन्दोलन हो, चीनी नवजनवादी क्रान्ति हो, फ्रांस में 1968 में हुआ छात्र आन्दोलन हो जिसने ‘द गाल’ की तत्कालीन सरकार को हिला कर रख दिया। हमारे देश में भी क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलन का एक लम्बा गौरवशाली इतिहास हमें विरासत में मिला है। भारत के स्वतंत्रता संघर्ष का इतिहास भी छात्र-नौजवानों के संघर्षों से भरा पड़ा है। भगत सिंह, सुखदेव व उनके साथी भी जब क्रान्तिकारी आन्दोलन में शामिल हुए थे तब वे लाहौर विश्वविद्यालय के छात्र हुआ करत थे। जिन्होंने हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ (एचएसआरए) से होते हुये एआईएसएफ के गठन के जरिये साम्राज्यवाद और सामन्तवाद के खिलाफ जुझारू लड़ाइयाँ लड़ीं। इन संघर्षों में अनेक छात्रांे ने अपने जान की बाजी लगा दी।
तेलंगाना व तेभागा के क्रान्तिकारी आन्दोलनों में भी छात्रों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। 1967 में शुरू हुये नक्सलबाड़ी के महान संघर्ष में क्रान्तिकारी छात्रों व नौजवानों ने अद्वितीय भूमिका निभायी थी। हजारों नौजवानों ने अपने शानदार करियर और उच्च मध्यमवर्गीय जीवन को लात मारकर भारतीय क्रान्ति और भारत की मेहनतकश जनता के मुक्ति के संघर्षों में अपने आप को बलिदान कर दिया। रोटी-जमीन-आत्मसम्मान व बराबरी के लिए शुरू हुये इस आन्दोलन का केन्द्र की इन्दिरा गाँधी व बंगाल राज्य के संयुक्त मोर्चे की सरकार ने नृशंसता पूर्वक दमन किया। इस दमन अभियान में दसियों हजार छात्र-छात्रायें शहीद हुये। 1976 में इन्दिरा गाँधी सरकार द्वारा बर्बरतापूर्वक थोपे गये आपातकाल के विरूद्ध चले जनसंघर्षों में छात्रों की अहम भूमिका रही।
नक्सलबाड़ी आन्दोलन के प्रथम उभार में हुये छात्रों के क्रान्तिकारी आन्दोलन को बर्बरतापूर्वक कुचल दिये जाने के बाद एक बार फिर 1974 में आंध्र प्रदेश रेडिकल स्टुडेन्ट युनियन (एपीआरएसयू) के नेतृत्व में एक सशक्त क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलन झंझावात की तरह उठ खड़ा हुआ। जिसने एक बार फिर नये सिरे से क्रान्तिकारी आन्दोलन को स्थापित किया। रेडिकल स्टूडेन्ट यूनियन ने इस शोषणकारी व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए, एक नव जनवादी समाज के निर्माण के लिए एवं सामन्ती शोषण व अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष कर रहे किसानों के बीच कृषि क्रान्ति के प्रचार के लिए 1978 से 1985 के बीच गाँव चलो अभियान को संचालित किया। कुल ग्यारह सौ छात्रों ने इस अभियान में भाग लिया। एक हजार से ज्यादे सार्वजनिक सभायें की गईं और इन सात सालों में एपीआरएसयू के कार्यकर्ताओं ने कुल 1200 गाँवों के 3 करोड़ से ज्यादा लोगों को आन्दोलित किया।
असम में राष्ट्रीय मुक्ति के लिए चल रहा आन्दोलन ऑल असम स्टुडेन्ट्स युनियन (आसू) के बगैर सम्भव नहीं था। 60 के दशक में बने ऑल असम स्टुडेन्ट्स यूनियन ने आसाम के पूरे सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक व भाषायी विकास को जबरदस्त ढ़ंग से प्रभावित किया। 1979 में जब उल्फा की स्थापना हुयी तो उसके संस्थापक सदस्य छात्र ही थे।
भगत सिंह ने कहा है कि क्रान्ति से हमारा अभिप्राय मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का पूर्णरूपेण अंत हैै। आज एक बार फिर इतिहास ने हम छात्र-नौजवानों के कन्धों पर एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी सौंपी है। यह मौजूदा शोषणकारी व्यवस्था सभी तरह की बुराइयों की जड़ है। इस मौजूदा शोषणकारी व्यवस्था को बदलने के लिए एवं एक शोषणविहीन समतामूलक समाज के निर्माण के लिए एक सशक्त क्रान्तिकारी छात्र आंदोलन की जरूरत है, जो साम्राज्यवाद, सामंतवाद, दलाल पूंजीपति वर्ग और ब्राह्मणवादी-पितृसत्तात्मक व्यवस्था की जड़ों पर तीखा प्रहार करे।
भगत सिंह छात्र मोर्चा (बीसीएम) देश के समस्त छात्र-नौजवानों से यह अपील करता है कि मजदूरों-किसानों के नेतृत्व में चल रहे नव जनवादी क्रान्ति के कार्यभार को पूरा करने के लिए वे आगे आएं व अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दें। भगत सिंह छात्र मोर्चा देश भर में चल रहे क्रान्तिकारी-जनवादी संघर्षों में बढ़-चढ़ कर भागीदारी करने, उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े होने एवं एक ऐसे जनवादी-समाजवादी समाज के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है, जहाँ पर मनुष्य द्वारा मनुष्य का किसी भी प्रकार का शोषण असम्भव हो जाएगा।
कार्यक्रम
आज पूरे देश में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। बढ़ती महंगाई व साम्राज्यवादी लूट की वजह से देश भर का मजदूर-किसान, छात्र-नौजवान व अन्य मेहनतकश वर्ग बुरी तरह त्रस्त है। एक ओर जहाँ 84 करोड़ लोग 20 रूपये दैनिक से भी कम में अपना गुजर-बसर कर रहे हैं वहीं मात्र 53 अरबपतियों के पास सकल घरेलू उत्पाद के 31 प्रतिशत के बराबर की सम्पत्ति है। यूएनओ की एक रिपोर्ट के मुताबिक जहाँ अफ्रीकी महाद्वीप के सर्वाधिक गरीब 26 देशों से ज्यादे गरीब लोग भारत के 8 राज्यों में निवास करते हैं वहीं केवल एक लाख परिवारांे के पास 17 लाख करोड़ से अधिक की सम्पत्ति है।
ऐसे में इस मौजूदा शोषण व गैरबराबरी पर अधारित समाज व्यवस्था को बदलने की जो ऐतिहासिक जिम्मेदारी हमारे कन्धों पर है, उसे पूरा करने के लिए हम छात्र-नौजवानों को संगठित होना होगा, क्रान्तिकारी राजनीतिक चेतना से लैश होना होगा तथा देश भर में चल रहे मजदूरों, किसानों, दलितों, महिलाओं व अन्य उत्पीड़ित वर्गों के संघर्षों से न केवल जुड़ना होगा बल्कि उनके बीच क्रान्ति की अलख जगानी होगी।
शिक्षा व्यवस्था का सरोकार पीढ़ी दर पीढ़ी के संचित ज्ञान से वर्तमान पीढ़ी को लैश कर उसके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना होता है। किसी भी समाज के विकास में सबसे प्रमुख योगदान वहाँ की मेहनतकश जनता का होता है। जबकि हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था का देश की मेहनतकश जनता के उत्थान व मुक्ति से कोई सरोकार नहीं है।
हमारे देश में हजारों-हजार वर्षों से वर्ण व्यवस्था पर आधारित एक खास तरह की शिक्षा नीति चली आ रही है। इस ब्राह्मणवादी शिक्षा नीति के तहत मुख्य रूप से केवल सवर्णों को ही शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार था। निम्न जातियों को हजारों वर्षाें तक शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार से वंचित रखा गया। वेद का एक वाक्य सुन लेने पर उनके कान में गर्म सीसा पिघला कर डाला गया। कुल मिलाकर एक ऐसी कर्मकाण्डी, कूपमण्डूक व परलोकवादी शिक्षा पद्धति विकसित की गयी जो पूरी तरह से श्रम विरोधी व मनुष्य विरोधी थी। इस शिक्षा व्यवस्था में हमारे देश की मेहनतकश जनता के हजारों वर्षांे से संचित ज्ञान का कोई महत्व नहीं है। इस देश की शिक्षा व्यवस्था सामाजिक उत्पादन से पूरी तरह से कटी हुयी है। शिक्षा व्यवस्था सामाजिक-आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था से मूलभूत रूप से जुड़ी होती है। चूँकि भारत एक अर्द्धसामन्ती व अर्द्धऔपनिवेशिक देश है इसलिए शासक वर्ग ने इसके अनुरूप ही शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया है।
कालान्तर में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा गुलाम बनाये जाने के बाद यहाँ की शिक्षा व्यवस्था में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव किये गये। इस देश पर अपने लूटेरे शासन को कायम रखने के लिए उन्हें प्रशासकों, क्लर्कों और पूरी तरह से औपनिवेशिक तन्त्र पर निर्भर ब्रिटिश क्राउन के वफादार लोगों की जरूरत थी। क्योंकि ब्रिटिश शासकों के लिए यह बहुत खर्चीला पड़ रहा था कि वो अब और अंग्रेज कर्मचारियों को भारत में शासन चलाने के लिये भेज सकें। इसलिए इन्हीं जरूरतों के अनुरूप एक औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था का निर्माण मैकाले ने किया। जिसका उद्देश्य एक ऐसे वर्ग की सृष्टि करना था जो रक्त और वर्ण में भारतीय होगा परन्तु पसन्द, विचार, आचरण एवं विद्वता में अंग्रेज होगा। सुनियोजित तरीके से तमाम भारतीय भाषाओं का गला घोंटकर उन्होंने अंग्रेजी को शिक्षा के माध्यम के रूप में चुना।
1947 की तथाकथित आजादी के बाद भारतीय जनता को यह उम्मीद थी कि अब सबके लिए एक जनवादी, तर्कपरक, वैज्ञानिक व सामाजिक उत्पादन से जुड़ी हुयी यानी रोजगारपरक शिक्षा निःशुल्क उपलब्ध होगी। लेकिन कथित आजादी के बाद भी हमारे देश के दलाल शासक वर्गाें ने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा बनाये गये साम्राज्यवाद परस्त शिक्षा नीति और हजारों वर्षाें से चली आ रही गैरबराबरी पर आधारित ब्राह्मणवादी शिक्षा नीति को कमोबेश उन्हीं रूपों में बनाये रखा। साम्राज्यवादी पूँजी के सहयोग से प्प्ज् और प्प्ड जैसे बड़े-बड़े संस्थान खोले गये। जो कि साम्राज्यवाद परस्त प्रशासकों और बहुराष्ट्रीय निगमों की नौकरी के लिए लालायित लोगों को पैदा करते हैं। 1947 के बाद भारतीय राज्य द्वारा शहर केन्द्रित उच्चस्तरीय विश्वविद्यालयी शिक्षा व्यवस्था को विकसित किया गया। परिणामस्वरूप गुणवत्तापरक शिक्षा प्राप्त करने के लिए हर साल लाखों छात्रों को गांव छोड़कर शहरों में आने पर विवश होना पड़ता है। शहरों में उच्च व गुणवत्तापरक शिक्षा दिलाने के लिए और अपने बच्चों के सपनों को पूरा करने के लिए माँ-बाप को अपनी गाढ़ी कमाई खर्च करनी पड़ती है। जमीन-जायदाद, गहने व घर तक गिरवी रखने पड़ते हैं, बेचने पड़ते हैं।
1947 के बाद भारतीय राज्य ने जिस साम्राज्यवाद परस्त व ब्राह्मणवादी शिक्षा पद्धति को विकसित किया, उसने ऐसे पढ़े-लिखे भारतीयों को पैदा किया जो पूरी तरह से जनता व जनसरोकारोें से कटे हुये हैं। इसका कारण यह है कि ज्ञान के जिस प्रणाली या ढ़ंाचे को भारतीय राज्य द्वारा तैयार किया गया उसके अन्तर्गत भारत की मेहनतकश जनता के परम्परागत पेशों यानि कृषि, दस्तकारी, बिनकारी आदि से जुड़े ज्ञान का कोई महत्व नही था। इसलिए शासक वर्ग द्वारा अक्सर किसानों, मजदूरों, दस्तकारांे, बुनकरों, दलितों के बच्चों को पढ़ने-लिखने में कमजोर बताया जाता है। जबकि ऐसा कतई नहीं है बल्कि सच्चाई तो यह है कि यह शिक्षा पद्धति ही कुछ खास जातियों और वर्गाे को ध्यान में रखकर बनायी गयी है एवं उन्हीं के अनूकुल है। इसलिये उन जातियों और वर्गाे के बच्चे होनहार नजर आते हैं।
आज नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने बाद से हमारे देश के दलाल शासक वर्ग ने एक नयी शिक्षा नीति को जन्म दिया है। बढ़ते साम्राज्यवादी और बाजारवादी हस्तक्षेप की वजह से बहुत तेजी से शिक्षा का निजीकरण किया जा रहा है। शिक्षा में सुधार के नाम पर फीसों मे भारी बढ़ोत्तरी, सीटों में कटौती, अंग्रेजी भाषा का बढ़ता वर्चस्व, साम्राज्यवादी संस्कृति व अर्थव्यवस्था के अनुरूप व्यवसायिक कोर्सों की स्थापना की जा रही है। यह नई शिक्षा नीति बेहद आत्मकेन्द्रित, व्यक्तिवादी, घोर करियरवादी व स्वार्थी युवक-युवतियों को पैदा कर रही है जिनका इस देश-दुनिया व समाज से कोई लेना-देना नहीं है।
भारतीय राज्य बहुत तेजी से स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयांे को सरकारी मदद व अनुदानों में कटौती कर रहा है। सरकारी शिक्षण संस्थान शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं। शैक्षणिक संसाधनों व सुविधाओं में लगातार कटौती की जा रही है। बड़े पैमाने पर निजी एवं विदेशी विश्वविद्यालय खोेले जा रहे हैं। शिक्षा में विदेशी निवेश कराया जा रहा है। शिक्षा जैसी मूलभूत चीज को पूंजी निवेश का क्षेत्र बना दिया गया है। यानी पैसा लगाइये और मुनाफा कमाइये। बहुराष्ट्रीय निगमों और दलाल औद्योगिक घरानों की जरूरतों के अनुरूप भारी फीस वसूलकर कम्प्यूटर डिप्लोमा, माडलिंग, मार्केटिंग, फैशन डिजाइनिंग, मैनेजमेण्ट, टूरिज्म, इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी जैसे नये-नये कोर्स खोले जा रहे हैं। दूसरी तरफ ब्राह्मणवादी सामंती संबंधों को बनाये रखने के लिए कर्मकाण्ड, ज्योतिष, जैसे विषय जो पूरी तरह झूठ व पाखण्ड पर आधारित हैं, को विज्ञान का दर्जा देकर विश्वविद्यालयों में नये कोर्स के रूप में शुरू किया जा रहा है।
एक तरफ शिक्षा के अधिकार की नौटंकी की जा रही है, दूसरी तरफ दोहरी शिक्षा पद्धति लागू की जा रही है। अमीरों के बच्चों के लिए अलग व गरीबों के बच्चों के लिए अलग। आज जिस तरह से प्राथमिक शिक्षा के लिए मोटी-मोटी फीस लेने वाले प्राइवेट स्कूल खोले जा रहे हैं उससे यह स्पष्ट होता है कि आम घरों के बच्चों के लिए बेहतर प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करना असम्भव है। आज भी देश के 60 प्रतिशत बच्चे शिक्षा व स्कूल से दूर है। जहां प्राथमिक शिक्षा को विश्व बैंक के रहमोकरम पर छोड़ा जा रहा है वहीं उच्च शिक्षा को निजीकरण के माध्यम से देशी-विदेशी पूंजीपतियों को सौंपा जा रहा है।
एक ओर जहाँ गरीबों के बच्चे आज उन सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने के लिए जाते हैं जहाँ से शिक्षा बिल्कुल नदारद है। बच्चों को वहाँ केवल मिड डे मिल का घटिया व स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भोजन परोसा जाता है। इन सरकारी विद्यालयों में एक तो पर्याप्त शिक्षक नहीं हैंं। दूसरे जो हैं भी वो दिन भर मिड डे मिल तैयार कराने में लगे रहते हैं। पूरे वर्ष ये शिक्षक पल्स पोलियो अभियान, जनगणना अभियान व चुनाव अभियान आदि में लगे रहते हैं। वहीं अमीरों के बच्चों के लिए पंच सितारा स्कूलो की व्यवस्था है। जहाँ पर हर तरह की सुविधायें मौजूद हैं।
शिक्षा पर भारतीय राज्य अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 2.9 प्रतिशत खर्च करता है जो कि अविकसित सब सहारन देशों से भी कम है। सरकार न तो सरकारी कालेजों-विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ा रही है और न ही बुनियादी ढ़ाँचागत विकास कर रही है। छात्रों के पास प्रयोग के लिए प्रयोगशाला नहीं है, लाइब्रेरी नहीं है, लाइब्रेरी है भी तो पुस्तकें नहीं हैं, हास्टल नहीं है। जबकि फीसें आये दिन बढ़ाई जा रही हैं।
हास्टलों की अपर्याप्त व्यवस्था की वजह से गरीब घरों के बच्चे शहर मंे टिक नहीं पाते हैं। क्योंकि शहर में किराया इतना महंगा है कि उसे अदा कर पाना उनके बजट में नहीं है। इसके कारण वो शिक्षा से वंचित रह जाते हैं या फिर उनके माँ-बाप द्वारा बचत करके रखी गयी गाढ़ी कमाई उन्हें शिक्षा दिलाने में खर्च हो जाती है। इन कालेजों-विश्वविद्यालयों से पढ़कर निकलने के बाद भयंकर बेरोजगारी मुँह बाये खड़ी रहती है। परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर छात्र या तो अवसाद के शिकार हो जाते हैं या फिर आत्महत्या करने पर विवश।
हमारे विश्वविद्यालयों में हर साल नए-नए तरह के कोर्सों की स्थापना की जा रही है। जहाँ एडमिशन के लिए भारी फीस देनी पड़ती है। इन कोर्सों में आम घरों के बच्चों का प्रवेश ले पाना सम्भव नहीं है। पेड सीटों की व्यवस्था करके आम घरों के बच्चों को कालेजों-विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेने से रोका जा रहा है। इसका एक नमूना बी0एच0यू0 भी है। इस शिक्षा व्यवस्था की एक हकीकत यह भी है कि उच्च शिक्षा तक पहंुचते-पहुंचते 10 में से 9 छात्रों को पढ़ाई छोड़ना पड़ता है।
आज हमारे विश्वविद्यालयों में तमाम संकाय व विभाग शिक्षकों की कमी से जूझ रहे हैं। लेकिन वहां शिक्षकों की नई भर्ती नहीं की जा रही है। दलित, आदिवासी व पिछड़े वर्ग के शिक्षकों के लिए आरक्षित सैकड़ों सीटें वर्षों से रिक्त पड़ी हुयी हैं। लेकिन वहाँ पर उन वर्गाें के शिक्षकों की भर्ती नहीं की जा रही है। एक आंकड़े के मुताबिक बी0एच0यू0 मे अनु0 जाति के लिए 362 सीटें आरक्षित हैं जिसमंे से 247 सीटें रिक्त पड़ी हुयी हैं। वहीं अनु0 जनजाति के लिए 187 सीटें आरक्षित हैं जिसमंे से 151 सीटें रिक्त पड़ी हुयी हैं। वहीं बी0एच0यू0 में केवल दो ऐसे अनुसूचित जाति के शिक्षक हैं जो प्रोफेसर के पद पर हैं। यहीं हालत कमोबेश सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों की है।
तथ्यों से यह बात स्पष्ट होती है कि कथित आजादी के 67 वर्ष बाद भी हमारे केन्द्रीय शिक्षण संस्थानों में ब्राह्मणवादी जाति संरचना व सवर्ण वर्चस्व किस कदर हावी है।
दलित जनता के लम्बे संघर्षों के बाद भारत के दलाल शासक वर्गों द्वारा संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया। लेकिन शिक्षा और रोजगार सहित सभी क्षेत्रों में उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से आरक्षण भी अपना महत्व खोता जा रहा है। जो आरक्षण है भी, वो भी शिक्षण संस्थानों सहित अन्य संस्थानों में आज भी ब्राह्मणवादी जाति संरचना की मजबूती की वजह से सही ढंग से लागू नहीं हो पाता है।
यह भी समझने की जरूरत है कि आरक्षण की नीति और उस पर आधारित सियासत के दोहरे आयाम हैं। इसका एक पहलू तो यह है कि इसकी वजह से सदियांे से वंचित निम्न जातियों के बीच से भी एक ऐसा मध्यवर्ग विकसित हुआ है जो सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक विभिन्न क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है तो दूसरा पहलू यह है कि चूँकि इस मध्यवर्ग के हित शासक वर्ग के हितों से जुड़े हुये हैं इसलिए वह शासक वर्ग के साथ मिलकर खुद के विकास को अपनी पूरी जाति के विकास के रूप में प्रचारित कर रहा है व निम्न जातियों का ध्यान उनकी वास्तविक माँगों से भटका कर उनकी माँगों को बुर्जुआ चुनावी दायरे तक सीमित कर रखा है। हाँ यह जरूर है कि इसकी वजह से जातियों का ध्रुवीकरण भी हुआ है। दलित-पिछड़ों के नाम पर जिसका लाभ बुर्जुआ चुनावबाज पार्टियाँ उठा रही हैं।
हमारे विश्वविद्यालयों में प्रशासन इस कदर निरंकुश है कि उसने परिसर के अन्दर छात्रों के धरना-प्रदर्शन करने, जुलूस निकालने व सभा-गोष्ठी करने जैसे बुनियादी जनतांत्रिक अधिकारों को भी प्रतिबंधित कर रखा है। एक ओर विश्वविद्यालय प्रशासन जहाँ जनतांत्रिक मांगों के लिए प्रदर्शन कर रहे छात्रों को गिरफ्तार करा लेता है वहीं दूसरी ओर गुण्डे तत्वों को संरक्षण प्रदान करता है। फिर गुण्डे तत्व जब प्रशासन के सह पर परिसर में अराजकता उत्पन्न करते हैं तब उसका हवाला देकर प्रशासन अराजकता कम करने के नाम पर परिसर में अपनी तानाशाही स्थापित करता है। इस तरह वह परिसर में लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्षरत छात्रों व छात्र संगठनों को भी बदनाम करता है। बी0एच0यू0 में जहाँ परिसर के अन्दर राष्ट्रीय स्वयंसेवी संघ (त्ैै) जैसे फाँसीवादी संगठन को अपनी गतिविधियों को संचालित करने की पूरी छूट है वहीं जनतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्षरत छात्र संगठनों को प्रशासन की तानाशाही का सामना करना पड़ता है।
आज बढ़ती महंगाई व साम्राज्यवादी लूट की वजह से देश में मजदूरों-किसानों व अन्य मेहनतकश वर्ग के हालात दिन-प्रतिदिन खराब होते जा रहे हैं। स्वभाविक है कि इनके घरों से कालेज-विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए आए हुए छात्र जिन्हें स्वयं कोई सुरक्षित भविष्य दिखाई नहीं पड़ रहा है, वे हाथ पर हाथ धरे बैठे तो रहेंगे नहीं। वे भी अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने की व रोजी-रोटी-रोजगार की राजनीति करेंगे ही। हमारे देश की सरकार इस बात से बुरी तरह डरी हुयी है कि कहीं भारत के छात्र-नौजवान क्रान्तिकारी राजनीति से न जुड़ने लगें। आज शासक वर्ग एक साजिश के तहत कैम्पसों को खत्म कर रहा है। दूरस्थ शिक्षा को बढ़ावा दिया जा रहा है। समेस्टर पद्धति के जरिये छात्र जीवन को बोझिल बनाया जा रहा है। तााकि छात्र पढ़ाई के बोझ से इतना दब जायें कि वो कुछ और न सोच सकें। कुल मिलाकर ऐसा प्रयास किया जा रहा है कि कोई संगठित क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलन खड़ा न हो सके। इसलिए कालेजों व विश्वविद्यालयों से छात्र संघ रूपी मंच का कमर तोड़ा जा रहा है, उसे रिढ़विहीन किया जा रहा है ताकि छात्र संघ एक क्रान्तिकारी राजनीति के मंच के रूप मे तब्दील न होनेे पाए। इसलिए छात्र संघ चुनाव कराने के लिए लिंगदोह समिति का गठन किया गया है। जिसकी संस्तुतियाँ पूरी तरह से अलोकतांत्रिक हैं। इसलिए अगर हमें एक क्रान्तिकारी छात्र आंदोलन खड़ा करना है तो मुकम्मल छात्र संघ को बहाल कराना होगा तथा छात्र संघ को क्रान्तिकारी राजनीति के मंच के रूप में तब्दील करना होगा।
भारत एक अर्द्धसामन्ती व अर्द्धऔपनिवेशिक देश है। 1947 से पहले यह सीधे ब्रिटिश औपनिवेशिक सŸाा का गुलाम था। ब्रिटेन ने हमारी प्राकृतिक संपदा को लूटकर अपने यहाँ की औद्योगिक क्रांति को सम्पन्न किया। उन्होंने भारतीय राजाओं और सामंतों के आपसी फूट का लाभ उठाया तथा देशभक्त राजाओं को कत्ल किया और अपने दलालों को या उन्हें, जिन्होंने उनके सामने घुटने टेक दिये राजा या जमिंदार के रूप में नियुक्त किया। जाति और धर्म के बंटवारे का अपने हितांे के अनुरूप इस्तेमाल किया। भारतीय कृषि और दस्तकारी को नष्ट कर उसे जबरदस्ती अपने हितों के अनुरूप ढाला। 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष इन्हीं दलाल प्रवृŸिा के राजाओं और सामंतों की गद्दारी की वजह से हारा गया।
यदि हम भारत की इस तथाकथित आजादी को विश्लेषित करें तो पायेंगे कि इस देश के नव शासक वर्ग ने संसदीय जनतंत्र के नव औपनिवेशिक ढ़ांचे को ही भारत की जनता की मुक्ति के लिए उपयुक्त समझा। उसे लगातार यह समझाने का प्रयास किया गया कि संसद और जनतंत्र एक दूसरे के पर्याय हैं। जहाँ पश्चिम में पूंजीवादी लोकतंत्र समंतवाद का नाश करके पैदा हुआ वहीं लंबे संघर्ष और अनगिनत कुर्बानियों के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने राजनीतिक सŸाा को अपने दलाल भारतीय पूंजीपतियों, सामंतों एवं रजवाड़ों के हाथों में सौंप दिया, जिनका प्रतिनिधित्व कांग्रेस पार्टी कर रही थी। जिस संविधान निर्माता कमेटी द्वारा भारत के संविधान का निर्माण किया गया और लोकतंत्र का स्वांग रचा गया ताकि साम्राज्यवादी देशों और उनके दलाल भारतीय पूंजीपतियों और सामन्तों की लूट व दलाली कायम रह सके, उसके अधिकतर सदस्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दलाल थे। भारतीय संविधान के निर्माण के लिए गठित संविधान सभा का चुनाव भी वयस्क मताधिकार पर आधारित नहीं था। बल्कि पहले से निर्वाचित प्रांतीय विधान सभाओं का उपयोग निर्वाचक निकायों के रूप में किया गया और जो संविधान सभा निर्मित भी हुई वह केवल 11 प्रतिशत बालिग मत का प्रतिनिधित्व करती थी।
भारतीय दलाल शासक वर्गों ने साम्राज्यवादी लूट को कायम रखा तथा सामन्ती भूमि सम्बन्धों और सामन्ती संस्कृति को बनाए रखा। भारत में बड़े उद्योगांें की स्थापना में साम्राज्यवादी पूंजी को नींव बनाया। भारतीय दलाल शासक वर्गों ने उस संसदीय व्यवस्था को बनाये रखा जिसकी नींव ब्रिटिश उपनिवेशवादियों द्वारा डाली गयी थी। उन्होंने भारत के बहुसंख्यक मेहनतकश दलित जनता के हजारों साल के शोषण का आधार रही ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था को यथास्थिति बनाए रखा तथा उन्हें अन्य नये रूपों में बढ़ावा भी दिया। अपने तात्कालिक राजनीतिक हितों को देखते हुए उन्होंने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया जिसकी आग में हजारों बेगुनाह लोग जला दिये गये। थोड़े हेर-फेर के साथ औपनिवेशिक न्याय और प्रशासनिक व्यवस्था को भी बरकरार रखा गया। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि 1947 की आज़ादी एक नकली आज़ादी थी, एक समझौतापरस्ती थी।
भारतीय दलाल शासक वर्गों की जन हत्यारी व अधिनायकवादी चरित्र तब पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है जब कथित आज़ादी के तुरन्त बाद उसने तेलंगाना के क्रान्तिकारी आन्दोलन का सैन्य बलांे के माध्यम से नरसंहार किया और ठीक उसी समय नगालैण्ड और मणिपुर के न्यायपूर्ण संघर्षाें का नृशंसता पूर्वक दमन किया। नगालैण्ड और मणिपुर की जनता पर हवाई हमले तक किये गये।
आज़ादी की लड़ाई में भगत सिंह की धारा एवं साम्राज्यवाद विरोधी मजदूरों-किसानों की धारा ही एक ऐसी धारा थी जो सच्चे अर्थों में जनता के वास्तविक हितों, जनवादी संघर्षों और क्रान्तिकारी राजनीति का प्रतिनिधित्व कर रही थी। जो साम्यवादी सिद्धान्तों पर समाज का पुर्नगठन करना चाहती थी। जिनके साथ कांग्रेस पार्टी ने गद्दारी की खासकर भगत सिंह की धारा के साथ। फलस्वरूप एक-एक करके बहुत से क्रान्तिकारी शहीद हो गए। इसके अतिरिक्त डॉ0 अम्बेडकर की धारा भी एक महत्वपूर्ण धारा थी। जो कि हजारों साल से जातिगत भेद-भाव व उत्पीड़न की शिकार रही दलित जनता के साथ गैरबराबरी के व्यवहार की उस खास समस्या को उठा रही थी व उसके खात्मे के लिए संघर्ष कर रही थी, जिसे उस दौर में उपेक्षित किया जा रहा था और विशेष महत्व नहीं दिया जा रहा था।
ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने हमारे देश में न तो स्वतंत्र रूप से पूंजीवाद का विकास होने दिया और न तो सामन्तवाद को ही नष्ट होने दिया। इसलिए मूल रूप से भारतीय समाज का चरित्र आज भी अर्द्ध सामंती-अर्द्ध औपनिवेशिक बना हुआ है और जो अपने साथ ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था और पितृसŸाात्मक विशेषताएं भी लिए हुए है।
आज आम जनता की शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताओं के लिए भी हमारा देश साम्राज्यवादी संस्थाओं, विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की भीख पर निर्भर है। 1990 के बाद से यानी जब से उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकारण (एल0पी0जी0) की नीतियां लागू हुई हैं तब से हमारे देश के शासक वर्ग का साम्राज्यवादपरस्त व दलाल चरित्र और ज्यादे स्पष्ट हुआ है। पहले से जो थोड़े-बहुत उद्योग धंधे लगे भी हुए थे, एल0पी0जी0 की नीतियों के लागू होने के बाद से उन्हें एक-एक करके बंद किया जा रहा है या निजी हाथों को सौंपा जा रहा है।
एक ऐसे देश को जहाँ की आधी आबादी आज भी घर की चहारदिवारी के भीतर कैद हो, दहेंज प्रथा लगातार बढ़ रही हो, अपनी इच्छा से अपना जीवन साथी चुनने की भी आजादी न हो, प्रेम करने की सजा मौत हो, अन्तरजातीय विवाह करने वालांे को समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता हो, छुआ-छूत और ऊँच-नीच जैसी घृणास्पद अभिव्यक्तियां खुलेआम जारी हों, दलितों के साथ जज्झर, परमकुदी (गोहाना) और खैरलांजी जैसे हत्याकांड होते हों, जहां उनकी बस्तियाँ जला दी जाती हों, घर के स्त्रियों के साथ बलात्कार किये जाते हों, उन्हें नंगा घुमाया जाता हो, ऐसे देश को एक लोकतांत्रिक देश कहना बेइमानी है। ऐसे देश में जनता के लोकतंत्र की बात तो दूर पूंजीवादी लोकतंत्र की बात करना भी फरेब है। ऐसा देश तो एक सामंती और साम्राज्यवाद परस्त देश ही हो सकता है।
भारत की 70 प्रतिशत आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है। तथाकथित आजादी के 65 वर्ष बीत जाने के बाद भी जहाँ 30 प्रतिशत भूमि मात्र 5 प्रतिशत सामंती जमींदारों के कब्जे में है वहीं 50 करोड़ गरीब व भूमिहीन किसान गुजर-बसर की भूमि के लिए भी तरस रहे हैं। साम्राज्यवादी देशों से आयातित अनाज व वस्तुओं के खपत के लिए अपने यहाँ की कृषि को जानबूझकर चौपट किया जा रहा है। साम्राज्यवादी देशों द्वारा निर्देशित खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है। एक-एक करके कृषि से सब्सिडी हटाई जा रही है। पिछले कुछ वर्षों में खेती पर सरकारी मदद मेेें 25 प्रतिशत से ज्यादा की कटौती की जा चुकी है। परिणामस्वरूप पिछले 10 वर्षों में 3 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या किया है।
साम्राज्यवादी वैश्वीकरण की नीति को अपनाने के बाद मंदी, छटनी और बेरोजगारी चरम की ओर जा रही है। 5 लाख छोटे उद्योग बंद हो चुके हैं। करोड़ों डिग्रीधारी नौजवान बेकार भटक रहे हैं। वहीं भारत के दलाल पूंजीपतियों, सामंतो, नेताओं व नौकरशाहों ने लाखों करोड़ रूपये का काला धन स्विस बैंकों में जमा कर रखा है।
एक ओर जहाँ करोड़ों नौजवान बेरोजगारी से तंग आकर आत्महत्या करने को विवश हैं। अपने असुरक्षित भविष्य की वजह से मानसिक विकारों के शिकार हो रहे हैं, वहीं हमारे देश के नेता-नौकरशाह-पूंजीपति आपस में गंठजोड़ करके एक के बाद एक घोटालों को अंजाम दे रहे हैं- एक लाख छिहŸार हजार करोड़ का टू जी0 स्पेक्ट्रम घोटला, 70000 करोड़़ का कामनवेल्थ गेम घोटाला, 2004-2009 के बीच 10 लाख करोड़ का सम्भावित कोयला आवंटन घोटाला। एक ओर हमारे देश के नेता व दलाल पूंजीपति अरबों के बंगलों में रह रहे हैं और अय्याशी के नित नये कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ आम जनता के लिए इस कमरतोड़ महंगाई में दो जून की रोटी भी नामुमकिन होती जा रही है।
कभी अमरीकी साम्राज्यवाद द्वारा पोषित एवं निर्देशित विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्थाओं द्वारा बुनियादी ढ़ांचे के विकास के नाम पर तो कभी विशेष आर्थिक क्षेत्र (ैमर््) के नाम पर बड़े पैमाने पर किसानों से उनकी जमीने छीनी जा रही हैं। लोगों को उनके घरों से विस्थापित किया जा रहा है। आदिवासी क्षेत्रों में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों की लूट चरम पर है। इस लूट को सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुँचाने के लिए और इसके खिलाफ चल रहे संघर्षों को कुचलने के लिए ऑपरेशन ग्रीन हण्ट, ऑपरेशन अनाकोण्डा जैसे बर्बर अभियान चलाये जा रहे हैं। दमन के बर्बरतम रूपों को अपनाया जा रहा है। इन सबके खिलाफ उठने वाली अवाजों को यू0ए0पी0ए0, आफ्सपा (।थ्ैच्।), 124।, 121। सरीखे जनद्रोही कानूनों की आड़ में कुचला जा रहा है। इन आंदोलनों के दमन के लिए राज्य के समर्थन से चलने वाले सलवा जुडूम सरीखे निजी सेनाओं का प्रयोग किया जा रहा है।
भारतीय राज्य का हिन्दू फाँसीवादी चरित्र इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि एक ओर जहां आतंक के एक रूप अजमल कसाब को फाँसी दी जाती है वहीं दूसरी ओर आतंक के दूसरे व उससे ज्यादे खतरनाक रूप बाला साहेब ठाकरे के मृत शरीर को राजकीय सम्मान के साथ विदाई दी जाती है। एक ओर जहाँ संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरू को बगैर किसी ठोस सबूत के फाँसी दे जाती है और उनके लाश को भी उनके परिजनों को नहीं दिया जाता है वहीं हजारांे मुसलमानों का नरसंहार कराने वाले व गर्भवती महिलाओं का भ्रूण निकलवा लेने वाले फाँसीवादी नरेन्द्र मोदी को युवाओं के रोल मॉडल के रूप में पेश किया जा रहा है। आज आतंकवाद के नाम पर सैकड़ों बेकसूर मुस्लिम युवाओं को जेलों में बंद किया गया है। सच्चर कमेटी की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में मुसलमानों की स्थिति दलितों से भी ज्यादा बुरी है।
काश्मीर, मणीपुर, नगालैण्ड एवं पूर्वोत्तर के राष्ट्रीयताओं की मुक्ति आंदोलनों को आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट्स (आफ्स्पा) सरीखे जनद्रोही कानूनों के माध्यम से कुचला जा रहा है। लाखों की संख्या में सेना व सी.आर.पी.एफ. के जवानों को वहां पर चल रहे जनांदोलनों के दमन के लिए लगाया गया है। काश्मीर में हजारों गुमनाम कब्रें पाई गयी हैं। मणिपुर में इरोम शर्मिला स्पेशल पावर एक्ट को खत्म करने की मांग को लेकर पिछले 12 वर्षों से अनशन पर हैं। इस कथित लोकतंत्र के लिए इससे शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि 15 जुलाई 2004 को मनोरमा के बलात्कार व हत्या के विरूद्ध हुए एक सशक्त विरोध प्रदर्शन में महिलाओं के एक समूह ने 17वीं असम रायफल्स मुख्यालय के सामने निर्वस्त्र प्रदर्शन किया। आज भारतीय राज्य अपने विरोधियों का मनोबल तोड़ने के लिए बलात्कार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है।
आज वोट बैंक की राजनीति करने वाले लोग व पार्टियाँ तमाम अस्मिताआंें व जातियों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं। अस्मिता का मतलब होता है अपनी पहचान के लिए लड़ना लेकिन आज ऐसा नहीं हो रहा है। अलग-अलग अस्मिताओं का एक साझा शत्रु है, साम्राज्यवाद और राजसत्ता। इनके खिलाफ एकजुट होकर क्रान्तिकारी संघर्ष छेड़ने की जरूरत है। शासक वर्ग असली संघर्षों से ध्यान भटकाने के लिए तरह-तरह की अस्मिताओं को खड़ा कर रहा है। तथाकथित दलित-पिछड़े नेता व संगठन वास्तव में जिनका दलित व पिछड़ी जातियों की मुक्ति से कोई सरोकार नहीं है अपने वोट बैंक के लिए दलित व अन्य उत्पीड़ित जातियों का ध्यान वास्तविक संघर्षों से भटका रहे हैं। इसका कारण यह है कि तथाकथित आजादी के 6 दशक बाद सभी जातियों में एक ऐसा छोटा सा वर्ग विकसित हुआ है, जिसका हित शासक वर्ग के हितों के साथ जुड़ा हुआ है और जो अपने निहित स्वार्थों के लिए इस व्यवस्था को बनाए रखना चाहता है। जाति उन्मूलन का प्रश्न उसके एजेण्डे में दूर-दूर तक शामिल नहीं है बल्कि जातियों को बनाए रखने में ही उस वर्ग का फायदा है।
वास्तव में जितनी उत्पीड़ित अस्मिताएं हैं, चाहे वो दलित अस्मिता हो, स्त्री अस्मिता हो, आदिवासी अस्मिता हो या कोई और, सबकी पहचान व मुक्ति का कार्यभार नव जनवादी क्रांति के कार्यभार से ही जुड़ा हुआ है।
जनता अपने दुश्मनों के खिलाफ संगठित संघर्ष न कर सके इसके लिए शासक वर्गों द्वारा बड़े पैमाने पर गैर सरकारी संगठनों (छळव्) का निर्माण किया जा रहा है। ये गैर सरकारी संगठन सुधार के नाम पर जनता के संघर्षों को गलत दिशा में ले जाने व भटकाने का काम करते हैं। इसलिए जनता के बीच में इनका पर्दाफाश करने की जरूरत है।
आज हमारे देश में सामंती व साम्राज्यवादी संस्कृति का बोलबाला है। एक ओर छुआ-छूत, ऊँच-नीच, अंधविश्वास, ज्योतिष व कर्मकाण्ड पर आधारित ब्राह्मणवादी सामंती संस्कृति है तो दूसरी ओर घोर भोग-विलास व अश्लीलता पर आधारित साम्राज्यवादी-उपभोक्तावादी संस्कृति। इनके खिलाफ एक जबर्दस्त जनवादी-समाजवादी संस्कृति को विकसित किये बगैर जनता अपने मुक्ति संघर्षों को व नव जनवादी क्रांति को एक कदम भी आगे नहीं बढ़ा सकती। हमारे देश में हमेशा दो तरह की संस्कृति रही है, एक शासक वर्ग की सवर्ण वर्चस्व पर आधारित, श्रम विरोधी, परजीवी, ब्राह्मणवादी-सामंती संस्कृति तो दूसरी तरफ आम मजदूर, किसान, दलित, आदिवासी व महिलाओं की श्रमिक संस्कृति। जहाँ पर एक जनवादी संस्कृति व समाज का भू्रण जर्बदस्त रूप मंे मौजूद है।
हमारे देश में 55 करोड़ आबादी युवाओं की है, छात्र-नौजवानों की है जो बड़े पैमाने पर शिक्षा और रोजगार से वंचित हैं। करोड़ों डिग्रीधारी नौजवान बेकार भटक रहे हैं। इस व्यवस्था में छात्र-नौजवानों के सुरक्षित भविष्य की कोई गारण्टी नहीं है। शासक वर्ग द्वारा अपने प्रचार माध्यमों से नौजवानों को झूठे सपने दिखाये जा रहे हैं। युवाओं को प्रचार माध्यमों, टेलीविजन चैनलों, अश्लील फिल्मों द्वारा भ्रष्ट किया जा रहा है, लम्पट बनाने का प्रयास किया जा रहा है। ताकि वे शोषण के विभिन्न स्वरूपों को न समझ सकें व इस शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ चल रहे क्रान्तिकारी संघर्षों से जुड़कर अपना योगदान न कर सकें।
आज देश में कोई भी ऐसी संसदीय राजनीतिक पार्टी नहीं है जो किसानों एवं आदिवासियों से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों एवं दलाल पूंजीपतियों के हित में सरकार द्वारा उनकी जमीने छीने जाने का विरोध कर रही हो। कोई भी ऐसी सरकार नहीं है जो मजदूरो, किसानों, दलितों, महिलाओं, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, राष्ट्रीयताओं, छात्रों व उनके आंदोलनों का नृशंसता पूर्वक दमन न कर रही हो। हमारे देश की सरकारों ने चाहे वो किसी भी पार्टी की हो जल-जंगल-जमीन, खनिज, हवा, पानी, सभ्यता संस्कृति कुछ भी ऐसा नहीं है जिसे साम्राज्यवादी देशों और हमारे देश के दलाल पूंजीपतियों व सामन्तों के हित में व उनके मुनाफे के लिए दाव पर न लगा दिया हो। अभी हाल ही में जनता के तमाम विरोधों के बावजूद यू0पी0ए0 की सरकार ने खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देकर एक बार फिर अपने साम्राज्यवादी आकाओं के सामने अपने स्वामीभक्ति की पुष्टी की। इसमें तथाकथित दलितवादी बसपा व समाजवादी सपा ने उनका साथ दिया। जनता के खिलाफ छेड़े गए इस प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष युद्ध में कांग्रेस नेतृत्व की यू0पी0ए0 सरकार को बी0जे0पी0 गुट की एन0डी0ए0 सहित मजदूरों-किसानों व मेहनतकश जनता की हितैशी होने का दावा करने वाली संसदीय वामपंथी पार्टियों व चौथे मोर्चे द्वारा भरपूर समर्थन दिया जा रहा है।
शोषक वर्ग के ढांचे की रक्षा करने में सभी संसदीय पार्टियाँ एक ही दलाल कुनबे की पार्टियाँ हैं। ब्राह्मणवादी बसपा को प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथी भाजपा से हाथ मिलाने में कोई गुरेज नहीं है। इन सभी पार्टियों का वर्ग चरित्र और दुष्कर्मों का इतिहास यही दुहराता है।
एक अर्द्ध सामन्ती, अर्द्ध औपनिवेशिक सामाजिक आर्थिक व्यवस्था में संसदीय रास्ते से कोई परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है। वास्तविक नीतियाँ तो संसद में नहीं बल्कि सामंती जमींदारों, दलाल बड़े पूंजीपतियों व साम्राज्यवादी संस्थानों के प्रतिनिधियों की बैठक में तय की जाती हैं। संसद व विधानसभाएं तो कथित लोकतंत्र को दिखाने मात्र के आवरण और कठपुतलियों के नृत्य जैसे हैं। यह संस्थाएं शक्तिहीन व गपबाजी के अड्डे व जनता को गुमराह करने के माध्यम हैं। करोड़ों रूपये के दैनिक खर्च पर चलने वाले ये अड्डे जनता के सिर पर भारी बोझ हैं। जनता के गुस्से को निकालने और क्रान्तिकारी काम से भटकाने के लिए ये अड्डे शोषक वर्ग के पक्ष में सेफ्टी वाल्ब का काम करते हैं। इस तरह ये जन विरोधी व जन हत्यारे व्यवस्था की हिफाजत के माध्यम हैं। अन्यायपूर्ण व्यवस्था, दागी-कुख्यात अपराधी, साम्प्रदायिक फाँसीवादी, सामंती व साम्राज्यवादी दलालों, भ्र्रष्ट नेताओं आदि को संसदीय व्यवस्था में भागीदारी से वैधता प्राप्त हो जाती है।
आज पूरी दुनिया भीषण सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक उथल-पुथल के दौर से गुजर रही है। दुनिया का कोई ऐसा कोना नहीं है जहाँ पर इस मौजूदा शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष न हो रहा हो। वर्तमान विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के अर्न्तगत जो आर्थिक संकट खड़ा हुआ है उसकी वजह से पूरी दुनिया अराजकता एवं उथल-पुथल की शिकार है। इसका मूर्त रूप हमें ग्रीस, स्पेन, तुर्की, चिली व मध्य-पूर्व के देशों सहित विश्व साम्राज्यवाद के सर्वाधिक शक्तिशाली केंद्र अमरीका एवं यूरोप के देशों में दिखाई पड़ रहा है। ग्रीस, स्पेन व पुर्तगाल जैसे तमाम यूरोपीय देश दिवालिया होने के कगार पर हैं। पूरा यूरो जोन संकट में है। इन देशों में लोगों के वेतन से बड़े पैमाने पर कटौती की जा रही है, नौकरियों से छंटनी की जा रही है, उनसे सामाजिक सुरक्षा की सुविधाओं को छीना जा रहा है। अमरीकी सरकार की जनविरोधी पूंजीवादी नीतियों की वजह से वर्षों से असंतुष्ट लोग ‘वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो’, ‘हम 99 प्रतिशत हैं’ जैसे नारों के साथ सड़कों पर उतरे। इन सभी कार्यवाहियों में छात्र-नौजवानों की जर्बदस्त भूमिका है। चिली में हजारों छात्र पिछले तीन सालों से उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण की नीतियों से उपजे गहरी असमानता के विरूद्ध संघर्षरत हैं। वो देश के पूरे शैक्षणिक ढ़ाँचे में बदलाव चाहते हैं। वो चाहते हैं कि शिक्षा को बजार के हवाले न किया जाय बल्कि यह सीधे राज्य के नियंत्रण में हो। उसे मुनाफाखोरी के उद्योग के रूप में तबदील न किया जाये।
कुल मिलाकर देखें तो पूरी दुनिया में अमीरी और गरीबी के बीच जो खाई निर्मित की गयी है, फलस्वरूप जो सामाजिक-आर्थिक असमानता, बेरोजगारी-भुखमरी जैसी समस्याएं विकसित हुयी हैं, उन्होंने एक ऐसी परिस्थिति को जन्म दिया है जिससे सारी दुनिया के लोग इस वर्तमान पूंजीवादी एवं साम्राज्यवादी जुए को उतार फेंकने के लिए बेचैन हैं।
ध्यान देने वाली बात यह है कि ये साम्राज्यवादी देश अपने इस संकट को हल करने के लिए भारत सहित तीसरी दुनिया के देशों पर गिद्ध दृष्टि लगाए हुए हैं एवं पहले से चल रहे अपने लूट के विभिन्न तरीकोें को और विकसित कर रहे हैं। इनकी निगाह हमारे देश के प्राकृतिक संसाधनों, सस्ते श्रम और बाजार पर है, जिन्हें लूटकर ये देश अपने आर्थिक संकट को हल करना चाहते हैं।
छात्रों ने हमेशा समाज परिर्वतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। छात्र शक्ति से बड़ी कोई ताकत नहीं होती। यही वह शक्ति है जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की कभी न डूबने वाली सूरज की आँखें निकाल ली थीं। दुनियाँ में जितने भी क्रान्तिकारी परिवर्तन हुये हैं वे छात्रों और छात्र आन्दोलनों के बगैर संभव नहीं थे। चाहे वो रूस की बोल्शेविक क्रान्ति हो, चीन में 4 मई 1919 का हुआ साम्राज्यवाद विरोधी छात्र आन्दोलन हो, चीनी नवजनवादी क्रान्ति हो, फ्रांस में 1968 में हुआ छात्र आन्दोलन हो जिसने ‘द गाल’ की तत्कालीन सरकार को हिला कर रख दिया। हमारे देश में भी क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलन का एक लम्बा गौरवशाली इतिहास हमें विरासत में मिला है। भारत के स्वतंत्रता संघर्ष का इतिहास भी छात्र-नौजवानों के संघर्षों से भरा पड़ा है। भगत सिंह, सुखदेव व उनके साथी भी जब क्रान्तिकारी आन्दोलन में शामिल हुए थे तब वे लाहौर विश्वविद्यालय के छात्र हुआ करत थे। जिन्होंने हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ (एचएसआरए) से होते हुये एआईएसएफ के गठन के जरिये साम्राज्यवाद और सामन्तवाद के खिलाफ जुझारू लड़ाइयाँ लड़ीं। इन संघर्षों में अनेक छात्रांे ने अपने जान की बाजी लगा दी।
तेलंगाना व तेभागा के क्रान्तिकारी आन्दोलनों में भी छात्रों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। 1967 में शुरू हुये नक्सलबाड़ी के महान संघर्ष में क्रान्तिकारी छात्रों व नौजवानों ने अद्वितीय भूमिका निभायी थी। हजारों नौजवानों ने अपने शानदार करियर और उच्च मध्यमवर्गीय जीवन को लात मारकर भारतीय क्रान्ति और भारत की मेहनतकश जनता के मुक्ति के संघर्षों में अपने आप को बलिदान कर दिया। रोटी-जमीन-आत्मसम्मान व बराबरी के लिए शुरू हुये इस आन्दोलन का केन्द्र की इन्दिरा गाँधी व बंगाल राज्य के संयुक्त मोर्चे की सरकार ने नृशंसता पूर्वक दमन किया। इस दमन अभियान में दसियों हजार छात्र-छात्रायें शहीद हुये। 1976 में इन्दिरा गाँधी सरकार द्वारा बर्बरतापूर्वक थोपे गये आपातकाल के विरूद्ध चले जनसंघर्षों में छात्रों की अहम भूमिका रही।
नक्सलबाड़ी आन्दोलन के प्रथम उभार में हुये छात्रों के क्रान्तिकारी आन्दोलन को बर्बरतापूर्वक कुचल दिये जाने के बाद एक बार फिर 1974 में आंध्र प्रदेश रेडिकल स्टुडेन्ट युनियन (एपीआरएसयू) के नेतृत्व में एक सशक्त क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलन झंझावात की तरह उठ खड़ा हुआ। जिसने एक बार फिर नये सिरे से क्रान्तिकारी आन्दोलन को स्थापित किया। रेडिकल स्टूडेन्ट यूनियन ने इस शोषणकारी व्यवस्था को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए, एक नव जनवादी समाज के निर्माण के लिए एवं सामन्ती शोषण व अत्याचार के विरूद्ध संघर्ष कर रहे किसानों के बीच कृषि क्रान्ति के प्रचार के लिए 1978 से 1985 के बीच गाँव चलो अभियान को संचालित किया। कुल ग्यारह सौ छात्रों ने इस अभियान में भाग लिया। एक हजार से ज्यादे सार्वजनिक सभायें की गईं और इन सात सालों में एपीआरएसयू के कार्यकर्ताओं ने कुल 1200 गाँवों के 3 करोड़ से ज्यादा लोगों को आन्दोलित किया।
असम में राष्ट्रीय मुक्ति के लिए चल रहा आन्दोलन ऑल असम स्टुडेन्ट्स युनियन (आसू) के बगैर सम्भव नहीं था। 60 के दशक में बने ऑल असम स्टुडेन्ट्स यूनियन ने आसाम के पूरे सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक व भाषायी विकास को जबरदस्त ढ़ंग से प्रभावित किया। 1979 में जब उल्फा की स्थापना हुयी तो उसके संस्थापक सदस्य छात्र ही थे।
भगत सिंह ने कहा है कि क्रान्ति से हमारा अभिप्राय मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का पूर्णरूपेण अंत हैै। आज एक बार फिर इतिहास ने हम छात्र-नौजवानों के कन्धों पर एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी सौंपी है। यह मौजूदा शोषणकारी व्यवस्था सभी तरह की बुराइयों की जड़ है। इस मौजूदा शोषणकारी व्यवस्था को बदलने के लिए एवं एक शोषणविहीन समतामूलक समाज के निर्माण के लिए एक सशक्त क्रान्तिकारी छात्र आंदोलन की जरूरत है, जो साम्राज्यवाद, सामंतवाद, दलाल पूंजीपति वर्ग और ब्राह्मणवादी-पितृसत्तात्मक व्यवस्था की जड़ों पर तीखा प्रहार करे।
भगत सिंह छात्र मोर्चा (बीसीएम) देश के समस्त छात्र-नौजवानों से यह अपील करता है कि मजदूरों-किसानों के नेतृत्व में चल रहे नव जनवादी क्रान्ति के कार्यभार को पूरा करने के लिए वे आगे आएं व अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दें। भगत सिंह छात्र मोर्चा देश भर में चल रहे क्रान्तिकारी-जनवादी संघर्षों में बढ़-चढ़ कर भागीदारी करने, उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़े होने एवं एक ऐसे जनवादी-समाजवादी समाज के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध है, जहाँ पर मनुष्य द्वारा मनुष्य का किसी भी प्रकार का शोषण असम्भव हो जाएगा।
कार्यक्रम
1. शिक्षा व्यवस्था का सरोकार पीढ़ी दर पीढ़ी के संचित ज्ञान से वर्तमान पीढ़ी को लैस कर उसके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना होता है। जबकि आज छात्र-नौजवानों को कारखानांे व वर्तमान लूटखोर व्यवस्था के संचालन के साधन के रूप में देखा जाने लगा है। आज आइएमएफ व वर्ल्ड बैंक जैसे साम्राज्यवादी संस्थाओं के निर्देश पर बहुत तेजी से शिक्षा व्यवस्था का निजीकरण एवं व्यवसायिकरण किया जा रहा है। इतना ही नहीं शासक वर्ग अपने हितों के साधक के रूप में सामंती मूल्यों और अंधराष्ट्रवाद को आधार बना कर शिक्षा का साम्प्रदायिकरण कर रहा है। अतः बीसीएम शिक्षा के निजीकरण, व्यवसायिकरण व साम्प्रदायिकरण के विरूद्ध संघर्ष करेगा तथा समस्त छात्रों को मुफ्त व अनिवार्य रूप से उनकी मातृ भाषा में सभी तरह की शैक्षणिक सुविधाओं को उपलब्ध कराने के लिए एवं एक जनवादी, तर्कपरक व वैज्ञानिक शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए संघर्षरत रहेगा।
2. इस व्यवस्था में सभी छात्रों को मुफ्त व अनिवार्य रूप से एक जनवादी, तर्कपरक व वैज्ञानिक शिक्षा उपलब्ध करा पाना नामुमकिन है। अतः बीसीएम एक नवजनवादी-समाजवादी समाज के निर्माण के लिए और नवजनवादी क्रान्ति के कार्यभार को पूरा करने के लिए छात्रों को गोलबन्द करेगा।
3. बीसीएम देश के समस्त नागरिकों को सम्मानजनक रोजगार दिलाने व रोजगार को मौलिक अधिकार बनाने के लिए संघर्ष करेगा।
4. बीसीएम छात्रों की जनवादी चेतना को कुन्द करने वाले विचारों के खिलाफ संघर्ष करेगा और छात्रों को शासक वर्ग की संसदीय राजनीति के विरूद्ध क्रान्तिकारी राजनीति के लिए प्रेरित करेगा। साथ ही साथ बीसीएम छात्रसंघ चुनावों के लिए गठित लिंगदोह समिति की सिफारिशों को अलोकतंात्रिक मानते हुए उसे रद्द करने के लिए और मुकम्मल छात्र संघ की बहाली के लिए संघर्ष करेगा।
5. आज स्वास्थ्य सेवाओं को बड़े पैमाने पर निजी हाथों को सौपा जा चुका है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में बडे़ पैमाने पर नकली दवाओं का कारोबार और कमीशनखोरी हो रही है। आम जनता की गाढ़़ी कमाई नकली दवाओं की खरीद पर खर्च हो रही है। बीसीएम मुफ्त स्वास्थ्य सेवाओं व बेहतर वातावरण के निर्माण के लिए संघर्ष करेगा।
6. उत्पीड़ित किसानोें के साथ एकीकृत होने और मजदूरों-किसानों के बीच नव जनवादी क्रान्ति की राजनीति का प्रचार करने के लिए बीसीएम सांस्कृतिक माध्यमों सहित अन्य माध्यमों से गांव चलो अभियान को संचालित करेगा।
7. बीसीएम संसदीय राजनीतिक पार्टियों के साम्राज्यवाद परस्त और सामन्ती राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक व्यवस्था का पर्दाफाश करेगा। संगठन समय-समय पर संसदीय चुनावों के ढ़कोसले का भी पर्दाफाश करेगा और छात्रों को इस बात के प्रति सचेत करेगा कि संसदीय राजनीतिक पार्टियाँ किस तरह अपने प्रतिक्रियावादी राजनैतिक हितों के लिए छात्रों के ऊर्जा का इस्तमाल कर रही हैं।
8. आबादी का आधा हिस्सा होने के बावजूद महिलाएँ सामंती और पितृसत्तात्मक मूल्यों के चलते अपने अधिकारों से वंचित हैं। बीसीएम महिलाओं के हर तरह के उत्पीड़न, अत्याचार, पितृसत्तात्मक विचारों, महिला विरोधी संस्कृति के खिलाफ व महिलाओं की समानता के लिए संघर्ष करेगा।
9. जातीय उत्पीड़न भारतीय समाज के हर पहलू में दिखाई देता है। छुआ-छूत, भेदभाव, जातिसूचक गालियाँ इस समाज की ज्वलंत समस्याएं हैं। बीसीएम हर तरह के दलित उत्पीड़न का विरोध करते हुए दलितों एवं अन्य उत्पीड़ित जातियों के आरक्षण का समर्थन करता है। संगठन इस घृणित ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था के खात्मे के लिए व उत्पीड़ित जातियों के जनवादी मांगों व जनवादी अधिकारों के लिए संघर्षरत रहेगा। संगठन अपने जनवादी अधिकारों के लिए संघर्षरत दलित संगठनों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर संघर्ष करेगा।
10. आज पूरे देश में हिन्दुत्व फाँसीवाद, मुस्लिम अल्पसंख्यकों को अपना निशाना बना रहा है। आए दिन अपने हितों के लिए संघर्षरत मुसलमानों को खासकर मुस्लिम युवाओं को आतंकवादी बताकर फर्जी मुठभेड़ों में माजा जा रहा है और गिरफ्तार किया जा रहा है। पूरे देश को साम्प्रदायिकता की आग में झोंका जा रहा है। सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार देश में अल्पसंख्यकों की स्थिति दलितों से भी बुरी है। बीसीएम हर तरह के साम्प्रदायिकता का विरोध करते हुए बाबरी मस्जिद को वहीं बनाने की मांग करता है। बीसीएम अल्पसंख्यकों के जनवादी अधिकारों व उनके समानता के अधिकार के लिए संघर्ष करेगा।
11. बीसीएम राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करेगा और काश्मीर, मणिपुर सहित पूरे उत्तर पूर्व से आफ्स्पा सरीखे सभी जनद्रोही कानूनों को हटाने की माँग करता है।
12. बीसीएम ब्राह्मणवादी-सामंती, पितृसत्तात्मक व साम्राज्यवादी संस्कृति के खिलाफ संघर्ष करेगा और सही मायने में जनवादी संस्कृति की स्थापना के लिए संघर्षरत रहेगा।
13. बीसीएम विश्व के तमाम देशों में साम्राज्यवाद के खिलाफ चल रहे संघर्षों का समर्थन करेगा।
14. बीसीएम दलितों, महिलाओं व अल्पसंख्यकों पर विशेष ध्यान देकर उन्हें नेतृत्वकारी भूमिका में ले आयेगा।
15. बीसीएम जल-जंगल-जमीन के लिए चल रहे आदिवासी जनता के संघर्षों, मजदूरो-किसानों के संघर्षों, दलितों, महिलाओं व अल्पसंख्यकों के जनवादी अधिकारों के लिए चल रहे संघर्षों, राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों व छात्र-नौजवानों के संघर्षों का समर्थन करता है और उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर संघर्ष करेगा।
हमारी तात्कालिक मांगे
1. मुकम्मल छात्र संघ बहाल करो। छात्रसंघ को प्रशासन की कठपुतली बनाने के लिए गठित लिंगदोह समिति को रद्द करो।
2. विश्वविद्यालय परिसर में धरना-प्रदर्शन करने व जुलूस निकालने की आजादी दो। विभिन्न संगठनों को सभा-गोष्ठी करने के लिए निःशुल्क सेमिनार हाल उपलब्ध कराओ।
3. विश्वविद्यालयों/कालेजों में व्यवसायिक कोर्सों के नाम पर मोटी फीसें वसूलना बंद करो एवं फीस वृद्धि पर तत्काल रोक लगाओ।
4. कालेजों-विश्वविद्यालयों में अध्यापक संघ व कर्मचारी संघ को बहाल करो तथा नीति निर्धारक बाडी में छात्रों, अध्यापकों व कर्मचारियों के चुने हुए प्रतिनिधियों की भागीदारी सुनिश्चित करो।
5. सभी कालेजों-विश्वविद्यालयों मंे छात्रों, शिक्षकों व कर्मचारियों के लिए हेल्थ सेंटर की सुविधा उपलब्ध कराओ।
6. सभी छात्र-छात्राओं की मासिक छात्रवृŸिा सुनिश्चित करो।
7. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए ऑन लाइन फॉर्म के साथ-साथ हाथो-हाथ फॉर्म भरने की व्यवस्था को सुनिश्चित करो।
8. लाइब्रेरी में आवश्यक पुस्तकंे तत्काल मंगायी जायें व लाइब्रेरी 24 घण्टे के लिए खोला जाये।
9. विश्वविद्यालयों व कालेजों के मेस, कैण्टीन व जलपानगृहों का निजीकरण बंद करो। खाने व नाश्ते पर उचित सब्सिडी प्रदान करो और गुणवत्ता की गारण्टी दो।
10. छात्र-छात्राओं के लिए हास्टलों की समुचित व्यवस्था करो। तब तक बाहर रह रहे छात्र-छात्राओं के रूम रेन्ट पर सब्सिडी प्रदान करो।
11. प्रतियोगी छात्र-छात्राओं से प्रवेश या नौकरी के लिए भरे जाने वाले फार्म के मार्फत भारी धन उगाही बंद करो।
12 विश्वविद्यालय में छात्राओं की भागीदारी बढाने के लिए उन्हें प्रवेश परीक्षा में 5-10 अतिरिक्त अंक प्रदान करो।
13. छात्राओं से की जाने वाली अभद्रता व शारीरिक-मांसिक हिंसा के खिलाफ कार्यवाही करो। विश्वविद्यालय/डिग्री कालेजों में ‘‘महिला उत्पीड़न विरोधी सेल’’ को सक्रिय करो व उसे ठोस अधिकार दो।
14. छात्रों को अपने शिक्षक से सन्तुष्ट न होने पर उन्हें बदलने का अधिकार दो व नियमित कक्षायें चलाओ।
15. विश्वविद्यालयों/डिग्र्री कालेजों, इण्टरकालेजों में अध्यापकों और कर्मचारियों को खाली पदों पर तत्काल नियुक्ति करो।
16. विश्ववि़द्यालयों/कालेजों में अनुसूचित जाति, जनजाति व अन्य पिछडे वर्गों के शिक्षकों व कर्मचारियों के लिए आरक्षित सीटों पर तत्काल नियुक्ति करो।
17. दलित वर्ग के शिक्षकों व कर्मचारियों के पदोन्नति में गड़बड़ झाला बंद करो। विश्वविद्यालय के उच्च पदों पर दलित शिक्षकों की नियुक्ति सुनिश्चित करो।
18. का0हि0वि0वि0 में दलित, आदिवासी, महिला अथवा अल्पसंख्यक कुलपति नियुक्त करो।
19. दलित छात्रों पर अत्याचारों के खिलाफ ‘‘अत्याचार विरोधी सेल’’ का निर्माण करो व उसे ठोस अधिकार दो।
20. शोध में प्रवेश के लिए साक्षात्कार की अपेक्षा लिखित परिक्षा ज्यादे अंकों की हो। इण्टरव्यू में पूरी पारदर्शिता बरती जाये व इण्टरव्यू की वीडियो रेकार्डिंग हो।
21. विश्वविद्यालय तथा डिग्री कालेजों के दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों यानी अस्थायी कर्मचारियों को नियमित करो। ठेका प्रथा खत्म करो। रिक्त जगहों पर तत्काल नई भर्ती सुनिश्चित करो।
22. विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में भगत सिंह व डा0 अम्बेडकर को शामिल करो।
23. विश्वविद्यालय परिसर से लगे सभी गेटों को 24 घण्टे खोला जाये।
24 ज्योतिष व कर्मकाण्ड जैसे विषय समाप्त करो।
25. विश्ववि़द्यालयों/कालेजों में प्रशासन की तानाशाही बंद करो। छात्र आंदोलनों व अन्य जनवादी आंदोलनों पर पुलिस दमन बन्द करो।
26. प्राक्टोरियल बोर्ड के जवानों की संख्या घटाओ, उनकी खाकी वर्दी हटाओ, उन्हें सादे ड्रेस उपलब्ध कराओ। विश्वविद्यालय परिसर से पुलिस व पी0ए0सी0 कैम्प हटाओ।
27. विश्वविद्यालय परिसर से पुलिस व पी0ए0सी0 कैम्प हटाओ। शिक्षण संस्थानों में पुलिस प्रवेश पर पूरी तरह पाबन्दी लगाओ।
28. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय परिसर में आर0एस0एस0 जैसे साम्प्रदायिक संगठन की शाखाओं पर प्रतिबंध लगाओ।
29. देशी-विदेशी पूंजीपतियों के हित में भूमि अधिग्रहण बंद करो। क्रांतिकारी भूमि सुधार लागू करो। कृषि के लिए जरूरी संसाधनों पर किसानों को उचित सब्सिडी प्रदान करो।
31. मजदूरों के श्रम का शोषण बंद करो। छः घंटे का कार्य दिवस लागू करो। मजदूरो को स्वास्थ्य व आवासीय सुविधाएं प्रदान करो। श्रमिक हितों के विरोधी समस्त कानूनों को रद्द करो।
31. जन आंदोलनों का दमन बंद करो और इनके दमन के लिए प्रयोग में लाए जा रहे आफ्स्पा, यूएपीए, 124ए, 121ए सरीखे समस्त जनद्रोही कानूनों को रद्द करो।
32. जल-जंगल जमीन के लिए संघर्ष कर रही जनता के दमन के लिए चलाए जा रहे ऑपरेशन ग्रीन हण्ट को तत्काल बंद करो।
33. भ्रष्टाचार बंद करो। विदेशी बैंकों में जमा किये गये काले धन को तत्काल वापस लाओ।
34. साम्राज्यवादी देशों एवं संस्थाओं की दलाली बंद करो। खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को तत्काल बंद करो।
35. विलासिता व भोग पर आधारित सामन्ती व साम्राज्यवादी संस्कृति का प्रचार-प्रसार बंद करो।
उद्देश्य
1. शिक्षा के निजीकरण व बजारीकरण के खिलाफ संघर्ष करना।
2. शिक्षा के साम्प्रदायिकरण व ब्राह्मणीकरण के खिलाफ संघर्ष करना।
3. शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार को बुनियादी अधिकार बनाने के लिए संघर्ष करना।
4. महिला, दलित व अल्पसंख्यकों के हितों के लिए संघर्ष करना।
5. जाति व्यवस्था व पितृसत्ता के उन्मूलन के लिए संघर्ष करना।
6. साम्राज्यवाद और सामन्तवाद विरोधी संघर्षों में योगदान करना।
7. नव जनवादी क्रान्ति के कार्यभार को पूरा करने के लिए एवं एक नव जनवादी-समाजवादी समाज के निर्माण के लिए छात्र-छात्राओं को गोलबंद करना।
संविधान
संकल्प! संगठन!! संघर्ष!!!
1. संगठन का नाम- भगत सिंह छात्र मोर्चा (बीसीएम)
2. उद्देश्य- भगत सिंह छात्र मोर्चा का दिशा निर्देशक सिद्धान्त शहीद भगत सिंह की विचारधारा है तथा उद्देश्य उनके सिद्धान्तों पर आधारित भारत का निर्माण करना है।
3. झण्डा- झण्डा लाल रंग का होगा। झण्डे का आकार 3ः2 होगा। झण्डे के दाहिनी ओर ऊपर तीन सितारे का चिन्ह सिल्वर रंग में होगा। सितारे संकल्प, संगठन, संघर्ष के प्रतीक है।
4. आप्तवाक्य- लड़ो पढ़ाई पढ़ने को, पढ़ो समाज बदलने को।
5. प्रतीक चिन्ह- खुली किताब के बीच तीन सितारों वाला झण्डा लिये हुये तनी हुयी मुठ्ठी।
6. सदस्यता-
1. सभी छात्र-छात्रायें जो अनौपचारिक या औपचारिक रूप से शिक्षा ग्रहण कर रहे हों, संगठन के कार्यक्रम से आमतौर पर और संविधान से सहमत हों, जो जनविरोधी कार्यों में लिप्त न हों, संगठन कें सदस्य हो सकते/सकती हैं।
2. संगठन का सदस्यता शुल्क 10/-(दस रूपया) वार्षिक होगा।
7. सदस्यों के अधिकार-
1. संगठन के किसी भी गतिविधि या फैसले के बारे में जानकारी हासिल करना और उसके सम्बन्ध में अपनी इकाई में चर्चा करना तथा उच्चस्तरीय इकाईयों को अपना सुझाव देना।
2. अपने प्रतिनिधियों को चुनने तथा खुद चुने जाने और उन्हें वापस बुलाने का अधिकार।
3. आत्मालोचना एवं आलोचना का अधिकार।
8. सदस्यों के कर्त्तव्य-
1. संगठन के उद्देश्य व कार्यक्रम का पूरी गंभीरता के साथ प्रचार तथा लक्ष्य प्राप्ति के लिए संघर्ष व संगठन के निर्माण की दिशा में बढ़ना।
2. संगठन द्वारा जारी साहित्य को पढ़ना, उस पर चर्चा करना और क्रान्तिकारी साहित्य को पढ़ना व पढ़ाना।
3. संगठन के सभी कार्यक्रमों को व्यावहारिक रूप देना।
4. संगठन के अनुशासन का पालन करना तथा बहुमत से लिए गये फैसले को स्वीकार और उच्च कमेटियों के फैसले को लागू करना।
5. नये भारत के निर्माण में सहायक सभी संघर्षों का समर्थन करना।
9. संगठन का स्वरूप-
1. प्राथमिक इकाई
2. कमेटी
3. कार्यकारिणी
4. सम्मेलन
5. पदाधिकारी
प्राथमिक इकाई-
1. संगठन की प्राथमिक इकाईयां, शैक्षणिक संस्थान, मुहल्ला स्तर पर कार्य करेंगी, जिसकी न्यूनतम सदस्य संख्या तीन होगी।
2. प्राथमिक इकाई कक्षा, विभाग स्तर पर गठित की जायेगी।
3. इकाई अपने बीच से सचिव का चुनाव बहुमत से करेगी।
4. इकाई की बैठक कम से कम महीने में एक बार अवश्य होनी चाहिए।
कमेटी-
1. स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय कमेटी स्थानीय स्तर पर प्राथमिक इकाईयों के चुुने हुए प्रतिनिधियों की होगी। सम्बन्धित स्थानीय शिक्षण संस्थान में संगठन के कार्यक्रम को लागू करने की मुख्य जिम्मेदारी कमेटी की होगी।
2. कमेटी की न्यूनतम सदस्य संख्या तीन होगी।
3. कमेटी बहुमत के आधार पर आवश्यकतानुसार इकाई सचिव, सहसचिव, कोष सचिव का चुनाव करेगी।
4. कमेटी की बैठक कम से कम महीने में एक बार अनिवार्य है।
कार्यकारिणी-
1. संगठन के कार्यक्रम को व्यवहार में उतारने की मुख्य जिम्मेदारी कार्यकारिणी की होगी।
2. दो सम्मेलनों के बीच में संगठन का सर्वोच्च निकाय कार्यकारिणी होगी।
3. कार्यकारिणी अपने 2/3 बहुमत से किसी नये सदस्य को कार्यकारिणी में शामिल या पदमुक्त (अध्यक्ष और सचिव को छोड़कर) कर सकती ळें
4. कार्यकारिणी की बैठक कम से कम महीने में एक बार अनिवार्य है।
5. कार्यकारिणी सदस्य की न्यूनतम संख्या तीन होगी और कार्यकारिणी का कोरम अपने एक तिहाई सदस्यों की उपस्थिति में पूरा होगा।
सम्मेलन-
1. संगठन का सम्मेलन संगठन की नीतियों को तय करेगा। इसकी अवधि साल में एक बार होगी। विशेष परिस्थिति में दो तिहाई सदस्यों की सहमति से इसके समय में बदलाव किया जा सकता है।
2. सम्मेलन प्रत्यक्ष रूप से अध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सहसचिव का चुनाव करेगा।
3. सम्मेलन में भागीदारी के लिए प्रत्येक इकाई अपने प्रतिनिधि भेजेगी। प्रतिनिधियों की संख्या इकाई सदस्यों की संख्या के अनुपात में कार्यकारिणी निर्धारित करेगी।
अध्यक्ष- अध्यक्ष सम्मेलन और कार्यकारिणी की सभी बैठकों की अध्यक्षता करेगा/करेगी और सभी जगहों पर संगठन का प्रतिनिधित्व करेगा/करेगी।
सचिव- सांगठनिक ढांचे को चलाने का मुख्य प्रभारी सचिव होगा/होगी। सचिव पिछले कामों की समीक्षात्मक राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट सम्मेलन में कार्यकारिणी की ओर से प्रस्तुत करेगा/करेगी। सचिव प्रत्येक कार्यकारिणी मीटिंग से पहले मीटिंग से सम्बन्धित एजेन्डा सदस्यों को देगा/देगी।
कोषाध्यक्ष- कोषाध्यक्ष पूरे संगठन के आय-व्यय का हिसाब रखेगा/रखेगी। सम्मेलन में कार्यकारिणी की ओर से आय-व्यय का ब्यौरा प्रस्तुत करेगा/करेगी और कार्यकारिणी की प्रत्येक मीटिंग में आय-व्यय का ब्यौरा प्रस्तुत करेगा/करेगी।
उपाध्यक्ष- उपाध्यक्ष अध्यक्ष के कामों में सहायता करेगा/करेगी। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में अध्यक्ष का कार्य उपाध्यक्ष करेगा/करेगी।
सहसचिव- सहसचिव सचिव के कामों में सहायता करेगा/करेगी। सचिव की अनुपस्थिति में सचिव का कार्य सहसचिव करेगा/करेगी।
10. सांगठनिक सिद्धान्त-
1. सामूहिक निर्णय, व्यक्तिगत जिम्मेदारी।
2. व्यक्ति समूह के मातहत है।
3. अल्पमत बहुमत के मातहत है।
4. निचली समितियां ऊपरी समितियों के मातहत हैं।
5. पूरा संगठन सम्मेलन के मातहत है।
11. कार्यशैली-
12. अनुशासनात्मक कार्यवाईयां-
1. यदि कोई सदस्य संगठन विरोधी, जनविरोधी काम करता/करती है अथवा संगठन के संविधान का उल्लंघन करता/करती है, उसके खिलाफ संबंधित इकाई द्वारा पदावनति करने, सदस्यता भंग करने, निलम्बन या निष्कासन की कार्यवायी सांगठनिक सिद्धान्त के अनुसार किया जा सकता है। लेकिन संबंधित इकाई को उपरोक्त कार्यवायी के लिए कार्यकारिणी की अनुमति आवश्यक होगी और आरोपित सदस्य/इकाई को अपना पक्ष रखने का अधिकार अधिकतम दो बार होगा।
2. अध्यक्ष, सचिव के संगठन विरोधी, जनविरोधी काम करने की स्थिति में कार्यकारिणी संगठन के सदस्यों की दो तिहाई बहुमत से सम्मेलन बुला सकती है और सम्मेलन अपने दो तिहाई बहुमत से निर्णय ले सकता है।
3. संगठन विरोधी गतिविधियों में लिप्त किसी भी इकाई को भंग करने का अधिकार कार्यकारिणी को होगा। साथ ही भंग इकाई को यह अधिकार होगा कि अपने ऊपर लगे आरोप की सफाई के संदर्भ में अधिकतम दो बार लिखित या मौखिक रूप से अपनी बात रख सकता है।
13. त्यागपत्र के सन्दर्भ में-
संगठन के सदस्य व पदाधिकारी अपना त्यागपत्र सांगठनिक स्वरूप के अनुसार सम्बन्धित इकाई/कमेटी/कार्यकारिणी को दे सकते/सकती हैं। सांगठनिक सिद्धान्त के अनुसार सदस्य व पदाधिकारियों के त्याग पत्र को स्वीकृत या अस्वीकृत किया जा सकता है।
इंक़लाब ज़िन्दाबाद!
31. जन आंदोलनों का दमन बंद करो और इनके दमन के लिए प्रयोग में लाए जा रहे आफ्स्पा, यूएपीए, 124ए, 121ए सरीखे समस्त जनद्रोही कानूनों को रद्द करो।
32. जल-जंगल जमीन के लिए संघर्ष कर रही जनता के दमन के लिए चलाए जा रहे ऑपरेशन ग्रीन हण्ट को तत्काल बंद करो।
33. भ्रष्टाचार बंद करो। विदेशी बैंकों में जमा किये गये काले धन को तत्काल वापस लाओ।
34. साम्राज्यवादी देशों एवं संस्थाओं की दलाली बंद करो। खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को तत्काल बंद करो।
35. विलासिता व भोग पर आधारित सामन्ती व साम्राज्यवादी संस्कृति का प्रचार-प्रसार बंद करो।
उद्देश्य
1. शिक्षा के निजीकरण व बजारीकरण के खिलाफ संघर्ष करना।
2. शिक्षा के साम्प्रदायिकरण व ब्राह्मणीकरण के खिलाफ संघर्ष करना।
3. शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार को बुनियादी अधिकार बनाने के लिए संघर्ष करना।
4. महिला, दलित व अल्पसंख्यकों के हितों के लिए संघर्ष करना।
5. जाति व्यवस्था व पितृसत्ता के उन्मूलन के लिए संघर्ष करना।
6. साम्राज्यवाद और सामन्तवाद विरोधी संघर्षों में योगदान करना।
7. नव जनवादी क्रान्ति के कार्यभार को पूरा करने के लिए एवं एक नव जनवादी-समाजवादी समाज के निर्माण के लिए छात्र-छात्राओं को गोलबंद करना।
संविधान
संकल्प! संगठन!! संघर्ष!!!
1. संगठन का नाम- भगत सिंह छात्र मोर्चा (बीसीएम)
2. उद्देश्य- भगत सिंह छात्र मोर्चा का दिशा निर्देशक सिद्धान्त शहीद भगत सिंह की विचारधारा है तथा उद्देश्य उनके सिद्धान्तों पर आधारित भारत का निर्माण करना है।
3. झण्डा- झण्डा लाल रंग का होगा। झण्डे का आकार 3ः2 होगा। झण्डे के दाहिनी ओर ऊपर तीन सितारे का चिन्ह सिल्वर रंग में होगा। सितारे संकल्प, संगठन, संघर्ष के प्रतीक है।
4. आप्तवाक्य- लड़ो पढ़ाई पढ़ने को, पढ़ो समाज बदलने को।
5. प्रतीक चिन्ह- खुली किताब के बीच तीन सितारों वाला झण्डा लिये हुये तनी हुयी मुठ्ठी।
6. सदस्यता-
1. सभी छात्र-छात्रायें जो अनौपचारिक या औपचारिक रूप से शिक्षा ग्रहण कर रहे हों, संगठन के कार्यक्रम से आमतौर पर और संविधान से सहमत हों, जो जनविरोधी कार्यों में लिप्त न हों, संगठन कें सदस्य हो सकते/सकती हैं।
2. संगठन का सदस्यता शुल्क 10/-(दस रूपया) वार्षिक होगा।
7. सदस्यों के अधिकार-
1. संगठन के किसी भी गतिविधि या फैसले के बारे में जानकारी हासिल करना और उसके सम्बन्ध में अपनी इकाई में चर्चा करना तथा उच्चस्तरीय इकाईयों को अपना सुझाव देना।
2. अपने प्रतिनिधियों को चुनने तथा खुद चुने जाने और उन्हें वापस बुलाने का अधिकार।
3. आत्मालोचना एवं आलोचना का अधिकार।
8. सदस्यों के कर्त्तव्य-
1. संगठन के उद्देश्य व कार्यक्रम का पूरी गंभीरता के साथ प्रचार तथा लक्ष्य प्राप्ति के लिए संघर्ष व संगठन के निर्माण की दिशा में बढ़ना।
2. संगठन द्वारा जारी साहित्य को पढ़ना, उस पर चर्चा करना और क्रान्तिकारी साहित्य को पढ़ना व पढ़ाना।
3. संगठन के सभी कार्यक्रमों को व्यावहारिक रूप देना।
4. संगठन के अनुशासन का पालन करना तथा बहुमत से लिए गये फैसले को स्वीकार और उच्च कमेटियों के फैसले को लागू करना।
5. नये भारत के निर्माण में सहायक सभी संघर्षों का समर्थन करना।
9. संगठन का स्वरूप-
1. प्राथमिक इकाई
2. कमेटी
3. कार्यकारिणी
4. सम्मेलन
5. पदाधिकारी
प्राथमिक इकाई-
1. संगठन की प्राथमिक इकाईयां, शैक्षणिक संस्थान, मुहल्ला स्तर पर कार्य करेंगी, जिसकी न्यूनतम सदस्य संख्या तीन होगी।
2. प्राथमिक इकाई कक्षा, विभाग स्तर पर गठित की जायेगी।
3. इकाई अपने बीच से सचिव का चुनाव बहुमत से करेगी।
4. इकाई की बैठक कम से कम महीने में एक बार अवश्य होनी चाहिए।
कमेटी-
1. स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय कमेटी स्थानीय स्तर पर प्राथमिक इकाईयों के चुुने हुए प्रतिनिधियों की होगी। सम्बन्धित स्थानीय शिक्षण संस्थान में संगठन के कार्यक्रम को लागू करने की मुख्य जिम्मेदारी कमेटी की होगी।
2. कमेटी की न्यूनतम सदस्य संख्या तीन होगी।
3. कमेटी बहुमत के आधार पर आवश्यकतानुसार इकाई सचिव, सहसचिव, कोष सचिव का चुनाव करेगी।
4. कमेटी की बैठक कम से कम महीने में एक बार अनिवार्य है।
कार्यकारिणी-
1. संगठन के कार्यक्रम को व्यवहार में उतारने की मुख्य जिम्मेदारी कार्यकारिणी की होगी।
2. दो सम्मेलनों के बीच में संगठन का सर्वोच्च निकाय कार्यकारिणी होगी।
3. कार्यकारिणी अपने 2/3 बहुमत से किसी नये सदस्य को कार्यकारिणी में शामिल या पदमुक्त (अध्यक्ष और सचिव को छोड़कर) कर सकती ळें
4. कार्यकारिणी की बैठक कम से कम महीने में एक बार अनिवार्य है।
5. कार्यकारिणी सदस्य की न्यूनतम संख्या तीन होगी और कार्यकारिणी का कोरम अपने एक तिहाई सदस्यों की उपस्थिति में पूरा होगा।
सम्मेलन-
1. संगठन का सम्मेलन संगठन की नीतियों को तय करेगा। इसकी अवधि साल में एक बार होगी। विशेष परिस्थिति में दो तिहाई सदस्यों की सहमति से इसके समय में बदलाव किया जा सकता है।
2. सम्मेलन प्रत्यक्ष रूप से अध्यक्ष, सचिव, कोषाध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सहसचिव का चुनाव करेगा।
3. सम्मेलन में भागीदारी के लिए प्रत्येक इकाई अपने प्रतिनिधि भेजेगी। प्रतिनिधियों की संख्या इकाई सदस्यों की संख्या के अनुपात में कार्यकारिणी निर्धारित करेगी।
अध्यक्ष- अध्यक्ष सम्मेलन और कार्यकारिणी की सभी बैठकों की अध्यक्षता करेगा/करेगी और सभी जगहों पर संगठन का प्रतिनिधित्व करेगा/करेगी।
सचिव- सांगठनिक ढांचे को चलाने का मुख्य प्रभारी सचिव होगा/होगी। सचिव पिछले कामों की समीक्षात्मक राजनीतिक-सांगठनिक रिपोर्ट सम्मेलन में कार्यकारिणी की ओर से प्रस्तुत करेगा/करेगी। सचिव प्रत्येक कार्यकारिणी मीटिंग से पहले मीटिंग से सम्बन्धित एजेन्डा सदस्यों को देगा/देगी।
कोषाध्यक्ष- कोषाध्यक्ष पूरे संगठन के आय-व्यय का हिसाब रखेगा/रखेगी। सम्मेलन में कार्यकारिणी की ओर से आय-व्यय का ब्यौरा प्रस्तुत करेगा/करेगी और कार्यकारिणी की प्रत्येक मीटिंग में आय-व्यय का ब्यौरा प्रस्तुत करेगा/करेगी।
उपाध्यक्ष- उपाध्यक्ष अध्यक्ष के कामों में सहायता करेगा/करेगी। अध्यक्ष की अनुपस्थिति में अध्यक्ष का कार्य उपाध्यक्ष करेगा/करेगी।
सहसचिव- सहसचिव सचिव के कामों में सहायता करेगा/करेगी। सचिव की अनुपस्थिति में सचिव का कार्य सहसचिव करेगा/करेगी।
10. सांगठनिक सिद्धान्त-
1. सामूहिक निर्णय, व्यक्तिगत जिम्मेदारी।
2. व्यक्ति समूह के मातहत है।
3. अल्पमत बहुमत के मातहत है।
4. निचली समितियां ऊपरी समितियों के मातहत हैं।
5. पूरा संगठन सम्मेलन के मातहत है।
11. कार्यशैली-
12. अनुशासनात्मक कार्यवाईयां-
1. यदि कोई सदस्य संगठन विरोधी, जनविरोधी काम करता/करती है अथवा संगठन के संविधान का उल्लंघन करता/करती है, उसके खिलाफ संबंधित इकाई द्वारा पदावनति करने, सदस्यता भंग करने, निलम्बन या निष्कासन की कार्यवायी सांगठनिक सिद्धान्त के अनुसार किया जा सकता है। लेकिन संबंधित इकाई को उपरोक्त कार्यवायी के लिए कार्यकारिणी की अनुमति आवश्यक होगी और आरोपित सदस्य/इकाई को अपना पक्ष रखने का अधिकार अधिकतम दो बार होगा।
2. अध्यक्ष, सचिव के संगठन विरोधी, जनविरोधी काम करने की स्थिति में कार्यकारिणी संगठन के सदस्यों की दो तिहाई बहुमत से सम्मेलन बुला सकती है और सम्मेलन अपने दो तिहाई बहुमत से निर्णय ले सकता है।
3. संगठन विरोधी गतिविधियों में लिप्त किसी भी इकाई को भंग करने का अधिकार कार्यकारिणी को होगा। साथ ही भंग इकाई को यह अधिकार होगा कि अपने ऊपर लगे आरोप की सफाई के संदर्भ में अधिकतम दो बार लिखित या मौखिक रूप से अपनी बात रख सकता है।
13. त्यागपत्र के सन्दर्भ में-
संगठन के सदस्य व पदाधिकारी अपना त्यागपत्र सांगठनिक स्वरूप के अनुसार सम्बन्धित इकाई/कमेटी/कार्यकारिणी को दे सकते/सकती हैं। सांगठनिक सिद्धान्त के अनुसार सदस्य व पदाधिकारियों के त्याग पत्र को स्वीकृत या अस्वीकृत किया जा सकता है।
इंक़लाब ज़िन्दाबाद!
प्रेमचंद की परम्परा और हंस : वरवर राव का दूसरा खत:
मित्रों के नाम खत- वरवर राव
''मित्रो, 31 जुलाई 2013 को प्रेमचंद जयंती पर
हुए कार्यक्रम में आयोजकों द्वारा सिद्धांतविहीन तरीके से एक हिंदू
साम्प्रदायिक व्यक्ति व वैश्वीकरण के समर्थक एक कॉरपोरेट साहित्यकार को
तर्कहीन बहस खड़ी करने की मंशा से मंच पर वरवर राव के साथ बैठाने का जो
असूचित फैसला किया गया और जिसके कारण वीवी ने इसका बहिष्कार किया, उसके
बाद शुरू हुई बहस के संदर्भ में उन्होंने अपनी दूसरी टिप्पणी भेजने के
लिए मुझे कहा है। इस बात को लेकर काफी अटकलबाज़ी हुई है कि आयोजकों ने
उन्हें यात्रा का खर्च दिया था, इसलिए यहां यह मसला साफ कर दिए जाने की
ज़रूरत है। वीवी ने आयोजकों से यात्रा का कोई खर्च नहीं लिया था। उन्हें
टिकट बुक करवा कर आयोजन में आने को कहा गया था। उन्हें आयोजन के स्वरूप
के बारे में पहली बार तब पता चला जब आयोजकों ने उन्हें लाने के लिए कार
भिजवाई। कार में उनकी सीट पर एक आमंत्रण पत्र पड़ा हुआ था जो उसमें बैठते
ही उन्हें दिखा। वे जैसे ही गंतव्य तक पहुंचे, उन्होंने वक्तव्य नहीं
देने का फैसला लिया और निकल लिए। इसके बाद उन्होंने एक पत्र के रूप में
अपना बयान जारी किया। वीवी हिंदी में नहीं लिखते हैं। वे बोलते हैं और उनके
मित्र उसे टाइप करते हैं। लेकिन भाषा के बंधन दिलो-दिमाग के अहसास को साझा
करने में आड़े नहीं आ सकते। यह वीवी का दूसरा बयान है। यह उनके पहले बयान
के बाद जनसत्ता में आई टिप्पणियों के संदर्भ में है।''
(जीएन साईबाबा द्वारा ईमेल से भेजे गए वरवर राव के दूसरे पत्र पर पाद टिप्पणी, जिसे अनुवाद कर के लगाने का अनुरोध किया गया है: जनपथ)
31 जुलाई 2013 को प्रेमचंद जयंती पर ‘हंस’ द्वारा आयोजित कार्यक्रम में हिस्सेदारी न करने का कारण उसी दिन अपने जारी पत्र में स्पष्ट कर दिया था। मैंने, मुझे सुनने आए श्रोताओं से माफी की दरख्वास्त की थी। इस पत्र के जबाब में ‘जनसत्ता’ अखबार के संपादक ने ‘हंस अकेला’ शीर्षक से संपादकीय लिख दिया। उसके दूसरे दिन अपूर्वानंद ने ‘प्रेमचंद परंपरा का दायरा’ लिख कर मेरी अनुपस्थिति की काफी सख्त पड़ताल की। ब्लॉग पर इस पत्र के आने के बाद टिप्पणीयां लिखी गई और मेरे बारे में कयास लगाया गया कि मैं किसी के उकसावे या बहकावे में आकर इस तरह का पत्र लिखा। ‘जनसत्ता’ ने तो ‘युवा लेखकों का एक गुट’ की खोज तक कर डाली। मुझे अभी तक ऐसे युवा लेखकों का ‘गुट’ नहीं मिला जो साहित्य और राजनीति में इस कदर हस्तक्षेप कर मुझे सचेत करे। मैं ऐसे किसी भी राजनीति, साहित्य और विचारधारा से लैस युवा लेखकों का जरूर स्वागत करूंगा जो मेरे होने वाली गलतियों से बचने के लिए हस्तक्षेप करे और हो गई गलतियों की आलोचना करे। यह मेरे ही नहीं बल्कि समाज के लिए भी स्वास्थ्यकर माहौल होगा जब ऐसे ‘युवा लेखकों के गुटों’ का उभार हो और नई उर्जा के साथ ठहराव को तोड़कर सर्जना की महान धारा को नेतृत्व करते हुए आगे ले जाय। निश्चय ही मुझे आगामी दिनों में जब भी दिल्ली आऊंगा तो ऐसे लेखक ‘गुटों’ और लेखकों से मिलने की बेसब्री रहेगी।
एक बार फिर मैं अपनी बात दुहरा दूं कि प्रेमचंद की जयंती के अवसर पर ‘हंस’
ने ‘अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता’ विषय पर आयोजित व्याख्यानमाला में बुलाया
था। यह बहस या संवाद का मसला नहीं था। मैं परिचर्चा, बहस, संवाद के आयोजनों
में जाता रहा हूं और अपनी बात रखता रहा हूं। वहां निश्चय ही आयोजक को
परिचर्चा में किसी को भी बुलाने की छूट रहती है और भागीदार को भी
हिस्सेदारी करने की उतनी ही छूट होती है। आयोजन का स्वरूप, समय और प्रकृति
से ही भागीदारी का अर्थ बनता है। इस कार्यक्रम का स्वरूप, समय और प्रकृति
इसमें भागीदार वक्ता और आयोजक की मंशा दोनों से ही मेल नहीं खाता। इसलिए यह
जरूरी बन गया कि मैं न केवल इसमें भागीदार न बनूं बल्कि अपना विरोध भी
दर्ज कराऊं।
प्रेमचंद के संदर्भ में परंपरा और इतिहास के हवाले मैंने जिन बातों का
पिछले पत्र में उल्लेख किया था वह सामंतवाद-साम्राज्यवाद विरोधी, फासीवाद
विरोधी धारा को साहित्य में मजबूत करने और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए सतत
संघर्ष करने से जुड़ा हुआ है। 1930 के दशक में बहुत से भगत सिंह, राम
प्रसाद बिस्मिल जैसे सैकड़ों क्रांतिकारी आर्य समाज और अन्य धार्मिक धाराओं
से प्रभावित और जुड़े रहे थे। इन क्रांतिकारियों की सीख का अर्थ आज
आर्यसमाजी होने या आर्य समाज के कार्यक्रमों में हिस्सेदारी करना नहीं है।
इतिहास और परंपराएं समय के साथ बनते और मजबूत होते हुए हमारे तक आती हैं और
आगे जाने के लिए उतनी ही जिम्मेदारी, सतर्कता और सक्रियता की मांग करती
हैं। ‘हंस’ जिस परंपरा का निर्वाह करने का दावा कर रहा है वह उसके द्वारा
आयोजित किए जा रहे पिछले कुछ कार्यक्रमों से तो फिलहाल मेल खाता नहीं दिख
रहा है। शायद यही कारण भी है जिसके चलते ये कार्यक्रम विवाद के घेरे में आ
रहे हैं। यह अच्छी बात है कि युवा लेखकों ने हर बार अपना प्रतिरोध,
प्रतिवाद दर्ज कराया और सवाल उठाकर बहस को आगे बढ़ाया। मुझे खुशी है कि मैं
इन युवा लेखकों के प्रतिरोध और प्रतिवाद का हिस्सा बन सका और उनके उठाए
बहस में हिस्सेदार बना।
यह अच्छी बात है कि ज्यादातर बहस मेरे पत्र में अशोक वाजपेयी के संदर्भ में
लिखी बातों पर हो रही है। गोविंदाचार्य के समर्थन में बातें नहीं आई हैं।
जितनी तेजी से दक्षिणपंथी ताकतों का असर बढ़ा है और उन्हें जितनी बेशर्मी
से मंच देने का प्रचलन बढ़ा है ऐसे में गोविंदाचार्य के समर्थन में बात न
आना थोड़ा आश्चर्य में डालता है। हिंदी साहित्य में दक्षिणपंथी और फासिस्ट
हिंदू ताकतों को मंच देने का मुद्दा बार बार आ रहा है और हर बार इस पर
विरोध के स्वर भी बनते दिखते हैं। इस बार ‘हंस’ के इस कार्यक्रम में
गोविंदाचार्य को बुलाने पर मुद्दा न बनना आश्चर्य में डालता है।
अशोक वाजपेयी कारपोरेट घरानों और सत्ता के गलियारे से पूरी तरह नत्थी हैं,
इस बात से अस्वीकार शायद ही किसी को है। उन्हें ‘धर्मनिरपेक्ष’ बताकर उनकी
प्रगतिशीलता सिद्ध करने का तर्क दिया गया है। विनायक सेन की रिहाई के लिए
अकादमी में जगह बुक कराने के लिए सहर्ष सहयोग के आधार पर उन्हें प्रगतिशील
बताया गया है। अशोक वाजपेयी को प्रगतिशील सिद्ध करने के आग्रह के दौरान
उतनी ही बार मुझे ‘संकीर्ण’ भी बताया गया जो सिर्फ ‘अपनों’ के बारे में बात
करता है और ‘दूसरों’ के बारे में चुप रहता है। यह तर्क और उसका निश्कर्ष
जितना गुस्से का परिणाम है उससे अधिक साहित्य और राजनीति में घट रही घटनाओं
में पक्षधरता और सक्रियता का भी परिणाम है। लगभग दो साल पहले जीतन मरांडी
को निचली अदालत द्वारा दी गई फांसी की सजा के खिलाफ संस्कृतिकर्मियों
द्वारा दिल्ली में बुलाई गई मीटींग में मदन कश्यप ने धर्मनिरपेक्षता को
वर्ग दृष्टिकोण से देखने का आग्रह किया था। वे ठीक ही इस बात को रेखांकित
कर रहे थे। मैं उनकी इस बात में इतना ही और जोड़ देना चाहता हूं कि भारत की
धर्मनिरपेक्षता में धर्म के दृष्टिकोण से भी देखने की जरूरत है। हिंदी
साहित्य में इन दिनों सीआईए द्वारा की गई ‘साहित्य सेवा’ के विवाद के
केंद्र में जो मुख्य बात दिख रही है वह यह कि साहित्य साहित्य है। यही
स्थिति देश में ‘विकास की राजनीति’ का भी है जिसे नरेंद्र मोदी करे तो
अच्छा और टाटा-अंबानी-एस्सार करे तो अच्छा, के राग पर आगे बढ़ाया जा रहा
है। यही स्थिति जन हितों की रक्षा और समाज सेवा का हो गया है जिसके
झंडाबरदार आज एनजीओ के गैंग ने उठा रखा है। इनका राजनीति, साहित्य, जनसंगठन
के स्तर पर विरोध संकीर्णता के दायरे में रखकर देखा जाने लगा है। इस
‘संकीर्णता’ को उदार लोकतत्र के जड़ में मठ्ठा डालने की तरह देखा जा रहा
है। यह एक भयावह स्थिति है। यहां तसलीमा नसरीन पर हैदराबाद में हुए हमले के
संदर्भ में मेरे ऊपर लगाए गए एक आरोप का जबाब देना जरूरी समझ रहा हूं।
तसलीमा नसरीन को हैदराबाद बुलाने वाले लोग मुस्लिम विरोधी, कम्युनिस्ट
विरोधी और अमेरीका परस्त लोग थे। यह कार्यक्रम मुस्लिम विरोध के एक खास
संदर्भ में बुलाया गया था। बहरहाल, इस हमले का मैंने और विप्लव रचितल संघम
ने इसकी भर्त्सना और साथ ही आयोजक की मंशा की आलोचना की आलोचना किया।
तेलगू और हिंदी साहित्य में हाल के दिनों में कमोबेश एक जैसी ही घटना और
विवाद से ग्रस्त रही हैं। जब यहां मारूती मजदूरों का आंदोलन हो रहा था तो
उसके सामानान्तर कान्हा रिसार्ट में वहां की परियोजना से प्रभावित होते
लोगों से बेखबर होकर कविता पाठ का आयोजन किया गया। हमारे यहां भी येनम
मजदूरों के दमन के समय गोदावरी नदी पर तैरती नावों पर पांडाल बनाकर कविता
पाठ आयोजित किया गया। हिंदी में जितना यह मुद्दा विवादित रहा उतना ही तेलगू
में भी यह विवाद जोर पकड़ा। हिंदी के विश्व सम्मेलन जैसी ही स्थिति तेलगू
की विश्व सम्मेलन की स्थिति बन गई है। इस समानता और वैभिन्नता के कई बिंदू
हैं जिसमें कारपोरेट सेक्टर, फासिस्ट ताकतों और सत्ता का घुसपैठ एक मुख्य
पहलू है। इनके हस्तक्षेप से साहित्य में तेजी से एक विभाजक रेखा पैदा हुई
है और इसका असर तेजी से फैला है। ‘उदार लोकतत्र’ के हवाले अपूर्वानंद का
तर्क ऐसे ही विभाजक स्थिति को दिखाता है: ‘राव और उनके सहयोगियों के
अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली कविता श्रीवास्तव, तीस्ता सीतलवाड़, शबनम
हाशमी या हर्ष मंदर पर हो रहे हमले उतने गंभीर नहीं हैं कि एक क्रांतिकरी
कवि अपने वक्तव्य में उन्हें अपने बगल में इनायत फरमाए। (जनसत्ता, 3 अगस्त
2013)।’ उपरोक्त मानवाधिकार कार्यकर्ता क्या ऐसे ही सोचते हैं जैसा
अपूर्वानंद ने लिखा है? क्या उनके संगठन की चिंतन प्रक्रिया भी ऐसी ही है
जिसके तहत यह तर्क गढ़ा गया है? या यह विनायक सेन की रिहाई के लिए
अपूर्वानंद के किए गए उन प्रयासों से निकाले गए नतीजे हैं जिनमें ‘राव और
उनके सहयोगियों’ के लिए कोई जगह नहीं थी? यहां इस बात की याद दिलाना जरूरी
है कि उपरोक्त जितने भी नाम हैं वे विभिन्न संगठनों से जुड़े हुए लोग हैं
और मानवाधिकारों के लिए संघर्ष उन संगठनों की वैचारिक अवस्थिति से
निर्धारित होती है। ठीक वैसे ही जैसे अपूर्वानंद की वैचारिक अवस्थिति
निर्धारित होती है। ‘मैं और मेरे सहयोगी’ इस सांगठनिक और वैचारिक अवस्थिति
से बाहर नहीं हैं। ‘राव और उनके सहयोगी’ कौन हैं? अपूर्वानंद के शब्दों में
‘स्वतःसिद्ध ब्रम्हांड’ हैं! सरकार की नजरों में ‘देश की सुरक्षा के लिए
सबसे बड़ा खतरा हैं’। कारपोरेट सेक्टर की नजर में उनकी लूट और कब्जा के
रास्ते में ‘सबसे बड़ी बाधा’ हैं। मीडिया की नजर में ‘राव और उनके सहयोगी’
गुड़गांव के मजदूरों से लेकर छत्तीसगढ़ के आदिवासी लोगों तक में ‘घुसे’ हुए
हैं। मैं और मेरे सहयोगी का अधिकार और ‘उदार लोकतंत्र’ के अधिकार की यह
खींची गई विभाजक रेखा सिर्फ बिम्ब का गढ़न नहीं है। यह कारपोरेट सेक्टर और
फासीस्ट ताकतों द्वारा अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए ‘उदार लोकतंत्र’
की सड़क को हाइवे बना देने के विचार का आरम्भिक तर्क है। ‘धर्मनिरपेक्षता’
मंे कितना धर्म छुपा हुआ है और ‘उदार लोकतंत्र’ कितना कारपोरेट सेक्टर,
कितना साम्राज्यवाद समर्थित एनजीओ और कितना सत्ता के दलाल इसकी पड़ताल किए
बिना एक गोल गोल घूमने वाले दुष्चक्र में फंसे रहेंगे।
साहित्य का इतिहास और उसकी परंपरा इस गोल गोल घूमने वाले दुष्चक्र से निकल
कर आगे जाने का रहा है। प्रेमचंद ने इसी जिम्मेदारी को मशाल की तरह आगे
चलने के बिम्ब की तरह ग्रहण किया और इस बात को जोरदार ढंग से कहा। श्री
श्री ने इसी जिम्मेदारी को उठाने के लिए सक्रिय भागीदार होने का आह्वान
किया। मैं ऐसी ही सीधी भागीदारी का तरफदार हूं। मुझे खुशी है ऐसी सीधी
भागीदारी के तरफदारों, खासकर युवा पीढ़ी की काफी संख्या है जो आज के हालात
में खड़े होने, बोलने और सक्रिय होने का साहस रखते हैं। ऐसे हमसफर साथियों
को क्रांतिकारी अभिवादन के साथ,
वरवर राव
हैदराबाद,
5 अगस्त 2013
-: दखल की दुनिया से ..................
-: दखल की दुनिया से ..................
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