रंजीत वर्मा के इस आलेख में अशोक वाजपेयी और केदारनाथ सिंह के नए कविता संग्रहों की विवेचना की गई है. समयांतर से साभार .
हिंदी कविता की जो वरिष्ठतम पीढ़ी आज हमारे बीच सृजनरत हैं केदारनाथ सिंह और अशोक वाजपेयी वहीं से आते हैं। सृष्टि पर पहरा (केदारनाथ सिंह) और कहीं कोई दरवाजा (अशोक वाजपेयी) ये दोनों कविता संग्रह इस बात के उदाहरण हैं जो 2014 और 2013 में क्रमश: छप कर आए हैं। दोनों के पास कविता लिखने का लगभग पचास साल या उससे ज्यादा समय का अनुभव है। भाषा पर इन दोनों का समान रूप से अधिकार है और ये चाहें तो सिर्फ अभ्यास से भी कविता लिख सकते हैं और लोग कह सकते हैं कि कविता अच्छी बन पड़ी है। लेकिन कविता बन पढ़ने की चीज नहीं है बल्कि रची जाती है और इसका रचा जाना एक खास मनःस्थिति में ही संभव हो पाता है। दोनों इस बात से न सिर्फ अच्छी तरह वाकिफ होंगे बल्कि इसका अनुसरण भी करते होंगे फिर भी कोई बात है जो इन दोनों को एक दूसरे से अलग करती है। हम देखते हैं कि जहां एक ओर केदारनाथ सिंह का कविता-संसार व्यापक होता जाता है वहीं दूसरी ओर अशोक वाजपेयी का दायरा सिकुड़ता जाता है यद्यपि भौगोलिक रूप से देखें तो अशोक वाजपेयी की कविता देश की सीमा से बाहर निकल कर दूर तक फैलती दिखती है जबकि केदारनाथ सिंह की कविता महानगर से निकल कर कहीं पीछे छूट गए जनपदों में भटकते लोगों की गठरी और पोटली जैसी लगभग नगण्य चीजों की ओर जाती है। कोई कह सकता है कि आखिर इसमें ऐसा क्या है कि दूर तक फैलती कविता को सिकुड़ती जाती कविता और छोटी-छोटी चीजें को समेटती चलती कविता को व्यापक होती कविता कहा जा रहा है। वैसे भी यह तो कवि के स्वभाव और पहुंच से जुड़ा मसला भर है इसलिए इस आधार पर कुछ तय नहीं किया जा सकता। लेकिन बात सच में इतनी भर नहीं है बल्कि कहीं गहरे वहां तक जाती है जहां दो कविताएं एक दूसरे से अलग अपनी पहचान बनाने लगती हैं। यहीं इस बात के भी भेद छिपे हैं कि क्यो एक को सिकुड़ती जाती कविता और दूसरे को व्यापक होती कविता यहां कहा जा रहा है।
इसके पहले कि हम कविता में जाएं और इसकी वजहों की पड़ताल करें कुछ सूत्र जो हमारे हाथ लगे हैं उनका उल्लेख यहां करना अप्रासंगिक नहीं होगा। केदारनाथ सिंह ने अपना कविता-संग्रह अपने गांव के लोगों को समर्पित किया है जिनके बारे में उनका मानना है कि उन तक यह किताब कभी नहीं पहुंचेगी। जाहिर है कि इन पंक्तियों में कविता को लेकर कोई निराशा नहीं है बल्कि उस बाजार पर सवाल है जो लोगों तक कविता को पहुंचने नहीं देता। यानी कि जिस तरह से कविता बाजार के विरुद्ध खड़ी है उसी तरह से बाजार भी कविता के खिलाफ खड़ा है। इन पंक्तियों में वे इसी ओर इशारा कर रहे है। साथ ही वे यह भी कह रहे हैं कि उनकी कविता दूर जनपदों में उपेक्षित पड़ी जिंदगियों की कविता है इसलिए यहां एक सच्चे कवि की चिंता भी है जो सिर्फ लिख देने तक ही अपना दायित्व नहीं समझता बल्कि जिसके लिए लिखी गई है कविता वहां तक पहुंचे इसे भी वह अपने काम का हिस्सा मानता है। जबकि दूसरी ओर हम देखते हैं कि अशोक वाजपेयी में कविता को लेकर एक प्रकार की निराशा है जो शायद कविता को लेकर निरर्थकता बोध से पैदा हुई है जिसने इस चौदहवें संग्रह के बाद उनके कविता लिखने की रफ्तार को थाम लिया है। अपने संग्रह की भूमिका के पहले पैराग्राफ में उन्होंने लिखा है:
अच्छी-बुरी कविता लिखते एक अधसदी से अधिक का समय हो गया है। पहला कविता-संग्रह 1966 में प्रकाशित हुआ था और यह चौदहवां 2013 में आ रहा है। हालांकि कविता को लेकर उत्साह और उम्मीद में कोई कमी नहीं हुई है, कविता लिखने की रफ्तार जरूर धीमी पड़ गई है जो ठीक ही है।
इन पंक्तियों से पता चलता है कि वे उत्साह और उम्मीद में कविता लिखते हैं लेकिन यह उत्साह क्यों है और उम्मीद किस बात को लेकर वे पाले हुए थे या हैं इसका जिक्र अपनी भूमिका में उन्होंने करने की जरूरत नहीं समझी और न इसका पता उनकी कविताओं को पढ़ने से चल पाता है। आखिर वह कैसी उम्मीद थी जो बकौल उनके अब भी बनी हुई है लेकिन कविता लिखने की रफ्तार धीमी पड़ गयी है जिसे वे अच्छा बता रहे हैं। वे यहां फिर यह बताने की जरूरत नहीं समझते कि यह अच्छा कैसे है क्योंकि इस पंक्ति में यह आशय भी छिपा हुआ है कि पहले जरूर कुछ था जो बुरा था। अगर बुरा था तो क्या और क्यों इस पर भी उन्हें रोशनी डालनी चाहिए थी लेकिन वे ऐसा कुछ नहीं करते। कविता लिखने के लिए जिस आंतरिक मनःस्थिति की जरूरत पड़ती है क्या उस मनःस्थिति में कविता नहीं लिखा जाना भी संभव है जो अब वे कम लिख रहे हैं या पहले वे अभ्यासवश भी कविता लिख जाते थे जैसा करने का उन्हें अब कोई प्रयोजन नजर नहीं आ रहा है। क्या हम यह न मान लें कि जिसे वे उत्साह या उम्मीद कह रहे हैं दरअसल वह इच्छाएं थीं लेकिन कोई प्रयोजन-चाहे वह जो भी हो-सिद्ध ना होता देख कर जन्मी हताशा ने कविता लिखने की रफ्तार को थाम लिया है। भला सोचिए कविता लिखने की भी कहीं कोई रफ्तार होती है जिसका वो जिक्र कर रहे हैं। यहां तो गहरे उतर जाने वाली बात होती है।
ऐसा क्यों होता है कि एक ही समय में लिखते हुए भी दो कवियों का विकास भिन्न तरीके से होता है। हम देखते हैं कि जो कवि कविता की चिंता करता है वह सिमटता जाता है फिर भी वह ऐसा करता है और वह भी उसी समय में जिसमें दूसरा कवि दुनिया की चिंताओं से कविता का जोड़ता चलता है और व्यापक होता जाता है। क्यों एक को चिंता नहीं होती कि वह सिमटता जा रहा है और वह भी इस हद तक कि कविता का कोई मकसद भी होता है उसे यह दिखना बंद हो जाता है जबकि दूसरा दुनिया भर के दुख और संघर्ष से जुड़ने की हर संभव कोशिश में लगा रहता है। जाहिर तौर पर विचारधारा होना और विचारधारा नहीं होना यह अंतर पैदा करता है। वही विचारधारा जिसे इन दिनों अप्रासंगिक करार देने की मुहिम सी कुछ लोगों ने साहित्य में चला रखी है। यहां तक कि उसे मृत तक घोषित किया जाने लगा है जबकि आज के विषमता भरे समय में कविता के लिए यह प्राणवायु की तरह है। यह धारणा केदारनाथ सिंह और अशोक वाजपेयी की कविता को पढ़ते हुए और भी पुरजोर तरीके से पुष्ट होती है कि कैसे इसका होना या नहीं होना काम करता है। कैसे यह प्राणवायु केदारनाथ सिंह की कविता को समय के एक जीवंत दस्तावेज में बदल देती है जबकि इसके बिना अशोक वाजपेयी की कविता निरुद्देश्य भटकती हुई प्रतीत होती है। और इस भटकाव में भी कोई आवारगी नही है दीवानापन नहीं है बल्कि हड़बड़ी है। ’तेजी से क्यों?’ कविता में वे खुद कबूलते हैं ’हमारी मुश्किल है हमारी हड़बड़ी’। आखिर यह हड़बड़ी क्यों है? इसी कविता में वे एक जगह लिखते हैं:
जिस अनन्त वर्तमान में रहने को अब हम विवश हैं
उसमें स्मृति की जगह नहीं बची है
याद करना अपने को गुनाह में शामिल करना है।
यहां ’अनन्त वतर्मान’ शब्दावली ध्यान देने योग्य है। साफ है कि वे यह मान कर चल रहे हैं कि यह पूरा समय एक अनन्त वर्तमान की तरह है, इतिहास का अंत हो चुका है और इस पर अब बहस करने के लिए भी कुछ नहीं बचा है। अगली पक्तियों में वे ऐसा ही कुछ कह भी रहे हैं। बात सिर्फ इतनी ही भर नहीं है कि कविता इतिहासविहीन है बल्कि यह भविष्योन्मुखी भी नहीं है क्योंकि भविष्य के सपने इतिहास के गर्भ में पलते हैं और विचारधारा उसे निश्चित आकार देती है। अशोक वाजपेयी इन दोनों का निषेध करते हैं अतः वे ’अनन्त वर्तमान’ में रहने को अभिशप्त हैं। वे इस बात को समझते भी हैं लेकिन इस स्थिति से उबरने का कोई संघर्ष उनकी कविता या कविता की चेतना में दिखाई नहीं देता है। बल्कि इसके उलट एक प्रकार की स्वीकारोक्ति है। कोई दुख या क्षोभ भी नहीं है बल्कि एक तरह का सहज भाव है जो कविता को लम्पटता की हद तक ले जाता है। उपरोक्त कविता में एक जगह ये पंक्तियां आती हैं:
दूर से दुख, भले वह करोड़ों का रहा हो
जिनका संहार हुआ और जिन्हें उसका कारण
या अपना दोष तक पता नहीं चला
रंगीन-सा लगता है।
एक दूसरी कविता ’अपने शब्द वापस’ की इन पंक्तियों को देखिये:
शब्दों का इतिहास होता है
पर मेरे शब्द उसमें होंगे
ऐसी दुराशा करने का कोई आधार नहीं।
इसी कविता के अंत में जैसे हाथ खड़े करते हुए वे कह उठते हैं:
सचाई, शब्दों से, कम से कम मेरे शब्दों से
दूर जा चुकी है
और अब तो यह मानना तक मुश्किल है
कि वह कभी इन शब्दों में थी।
सवाल है कि अगर शब्दों में सचाई या कहना चाहिए कि अर्थ नहीं है तो क्यों नहीं है। जाहिर है कि शब्दों में सचाई या अर्थ जीवन से आते हैं। जीवन जितना अर्थपूर्ण और समर्पित होता है शब्द भी उतने ही अर्थपूर्ण और सच के रूप में सामने आते हैं और कई बार तो जीवन का नया आयाम खोलते हुए एक बिल्कुल नया अर्थ प्रकट कर जाते हैं। आप जिसके लिए जी रहे हैं आपकी कविता भी उसी के लिए होगी। इस भ्रम में रहने की कोई जरूरत नहीं कि आपकी कविता सब के लिए होगी। ठीक वैसे ही जैसे कि आप सबके लिए जी नहीं सकते। अगर आप यह भ्रम पैदा करने में सफल हो भी जाते हैं तो कविता सब कुछ उजागर कर देती है। संग्रह की अंतिम कविता ’कहां से उठाऊं शब्द’ बता देती है कि कवि तय नहीं कर पाया है कि वह किस ओर है। एक उहापोह की स्थिति है। और वह भी ऐसी कि वह चीजों को जोड़ कर नहीं देख पा रहा है। टुकड़े-टुकड़े में देख रहा है। अगर ऐसा है तो फिर जुड़ाव कहां से हो, कोई भी पक्ष कैसे सामने आए, जुझारूपन तो दूर की बात है। ’ऐसा क्यों हुआ’ कविता में वे कहते हैं:
हमें भ्रम है कि हम साहसी थे
जब साहस की सबसे ज्यादा दरकार थी
हम आगे की कतार में नहीं थे।
यहां वे ’हम’ शब्द का इस्तेमाल पता नहीं किन लोगों के लिए कर रहे हैं। वह हर जगह एक अकेले व्यक्ति की तरह दिखते हैं किसी संगठन या आंदोलन में शरीक कार्यकर्ता की तरह नहीं। फिर इस ’हम’ का क्या मतलब है। अगर यहां ’हम’ की जगह ’मैं’ होता तो मैं यह मान लेता कि वह जो कुछ कह रहे हैं वह उनकी ईमानदार स्वीकारोक्ति है लेकिन ’हम’ कह कर उन्होंने जो धुंधलका खड़ा करने की कोषिष की है वह उनकी ईमानदारी पर सवाल खड़े कर जाती है। यह मैं यूं ही नहीं कह रहा हूं बल्कि देखने में यह आता है कि अनेक दूसरी कविताओं में उन्होंने ’हम’ नहीं बल्कि ’मैं’ का इस्तेमाल किया है जैसे कि ’फिर भी आवाज सुनाई देती है’, ’भले’, ’अब सब कुछ को’ , ’अपने शब्द वापस’, ’तीन कविताएं’, ’विनय गीत’, ’मैंने’ आदि बहुतेरी कविताओं में देखा जा सकता है।
दूसरी ओर हम देखते हैं कि केदारनाथ सिंह की कविता का स्वर अशोक वाजपेयी की कविता के मुकाबले कहीं ज्यादा समकालीन है। आसपास की आवाजें, बदलते रुख को यहां सुना और देखा जा सकता है। कई नाम मिलेंगे, कई जगहें मिलेंगी, कई घटनाएं मिलेंगी जो अपने जीवन में घटती रहती हैं, कई दृश्य आते हैं जो आपकी अपनी आंखों से देखी हुइ्र होती हैं और यह सब मिल कर कविता जो संसार रच जाती है वहां आपके जीवन के कई सारे अर्थ खुलने लगते हैं। संग्रह के नाम ’सृष्टि पर पहरा’ के नाम से संग्रह में एक छोटी कविता भी है जिसमें वे लिखते हैं:
कितना भव्य था
एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर
महज तीन-चार पत्तों का हिलना
उस विकट सुखाड़ में
सृष्टि पर पहरा दे रहे थे
तीन-चार पत्ते।
सूखता हुआ वृक्ष दुख का वह पहाड़ है जिसे वे पत्ते अपने अंदर समेटे हुए ऊपर निकल आए हैं। वे तीन चार पत्ते कविता हैं जो दुख के पहाड़ से निकले हैं शायद इसीलिए वह सही मायने में कविता की भूमिका अदा कर पाते हैं। ये कविताएं जूझते या लड़ते आदमी के हाथ में पतवार या तलवार की तरह होती हैं या नहीं तो कम से कम उसे यह अहसास जरूर करा जाती हैं कि वह कोई महती काम में शरीक है, उसका जीवन-संघर्ष निरर्थक या नगण्य नहीं है बल्कि वह जीवन-समर में जरूरी हस्तक्षेप कर रहा है। असफलताओं की मार से इस तरह ये कविताएं उसे बचाती हैं हालांकि मैं तुलनात्मक अध्ययन नहीं करना चाह रहा लेकिन मुझे जरूरी लग रहा है कि यहीं पर अशोक वाजपेयी की ’इतनी भर’ कविता पर भी बात कर ली जाए नहीं तो हो सकता है आगे मौका न मिले क्योंकि उनकी कविताओं को लेकर जो कुछ कहा जाना था कहा जा चुका है। ’इतनी भर’ में वे लिखते हैं:
दुनिया इतनी भर बची है
जितनी एक कविता में आ जाए
दुनिया इतनी भर है अब
जितनी एक उपन्यास में समा जाए
दुनिया इतनी भर बाकी है
जितनी एक बच्चे की किलकारी में बस सके।
यानी कि दुनिया को वे उतनी ही भर मान रहे हैं जो किसी बच्चे की किलकारी सी निष्छलता, मासूमियत और पवित्रता को बिना नष्ट किये उसमें आ सके। यही शर्त कविता के साथ भी दुनिया को लेकर लागू है जैसा कि प्रारम्भिक पंक्तियों में वे कहते हैं। यानी कि कविता से वे एक ही झटके में जिंदगी के उन तमाम पहलुओं को बाहर निकाल फेंकते हैं जो धूसर है, जिसे व्यवस्था की चालाकी, मक्कारी और बेईमानी ने पस्त होती या फिर लहूलुहान होती जिंदगी की ओर धकेल दिया है, जहां संघर्ष है, हताशा है फिर संघर्ष है और फिर फिर संघर्ष है। जबकि केदारनाथ सिंह की कविता इसी मिट्टी से तप कर निकली है। कविताओं में एक मद्धम राजनीतिक स्वर भी है जो रह रह कर सुनाई देता रहता है। कई बार यह स्वर अबूझमाड़ के जंगलों से भी उठता सुनाई देता है और अचानक सुनने वाला चौंक पड़ता है।
केदारनाथ सिंह हिंदी के संभवतः पहले बड़े कवि हैं जिनकी कविता में माओवादी राजनीति की धमक सुनाई पड़ती है। यह बेहद महत्वपूर्ण है इस अर्थ में कि कवि जो महसूस करता है उसे वह बिना इस बात की चिंता किये कि यह अभिव्यक्ति उसका नुकसान भी कर सकती है वह उसे कविता में उसके पूरे अधिकार और सम्मान के साथ रखता है। एक ऐसे समय में जब लोग ईमानदारी को ताख पर रखकर अपने नफे-नुकसान के गणित में इस कदर मशगूल हैं कि उनकी सवेदना को ऐसी बातें छू भी नहीं पातीं वहीं केदारनाथ सिंह इस जोखिम को उठाते नजर आते हैं। इस पहल को सभी नोटिस में लें यह जरूरी है क्योंकि तभी यह संग्रह एक अर्थ में हिंदी कविता का टर्निंग प्वायंट हो सकता है। यह हिंदी कविता के अराजनीतिकरण के छद्म को तोड़ता है। इस संग्रह का महत्व क्यों और कैसे है यह समझने के लिए जरूरी है कि साहित्य और राजनीति के वर्तमान परिदृश्य को समझ लिया जाए। दरअसल पिछले दिनों हुआ यह कि व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई से खुद को अलगाने की कोशिश में कविता या तो ’निरुद्देश्य भटकती’ कविता होकर रह गयी या फिर सामाजिक रूढि़यों से लड़ती पहचान की राजनीति करती हुई स्त्री विमर्ष या दलित विमर्ष की राजनीति में सिमट गई जो कहीं न कहीं से इसी व्यवस्था को मजबूत बनाये रखने का काम करती है। इसका नतीजा यह हुआ कि कविता भाषा, विचार और सत्ता के स्तर पर जकड़ गई। ऐसे समय में सबसे बड़ी चुनौती साहित्य को उसके इस जकड़न से निकालने की है। यह कहना अभी मुश्किल है कि माओवाद की लड़ाई को इस तरह की कविता से ताकत मिलेगी या नहीं लेकिन यह तय है कि माओवाद की लड़ाई की जो ताकत है वह कविता को उसके जकड़न से जरूर मुक्त कर सकती है और उसे जनता के बीच पुनः प्रतिष्ठित कर सकती है। केदारनाथ सिंह ने इस संग्रह के जरिये यही काम किया है। संग्रह में एक कविता है ’कविता’ शीर्षक से जिसमें वे यह बताते हैं कि वास्तविक कविता कहां है। उनका साफ मानना है वह वहां नहीं है जहां मंच है, पुरस्कार है प्रतिष्ठान है और उसका संरक्षण है। वे कहते हैं
सरकारें परेशान
कि क्या करें-क्या करें इस कविता का
कि हवा दो
पानी दो
टैक्स में दे दो चाहे जितनी छूट
पर वोट मांगने जाओ
तो कभी अपने पते पर मिलती ही नहीं
जाने कैसी बनैली प्रजाति की लतर है
किसी राष्ट्रीय उद्यान में
खिलती ही नहीं।
फिर कहां है कविता। इसी कविता में पूरे आत्मविश्वास से वे बताते हैं कि वह कहां है:
पता लगा लो-जो मारे जाते हैं जंगलों में
उन युवा होंठों पर
अक्सर होती है कोई न कोई कविता।
मरते वक्त भी जिसके होंठों पर कविता होगी कोई शक नहीं कि कविता भी उसी की होगी, उसी के गीत गाएगी।
एक छोटी कविता है ‘बाजार में आदिवासी’ जिसे यहां पूरा का पूरा रखा जाना जरूरी है:
भरे बाजार में
वह तीर की तरह आया
और सारी चीजों पर
एक तेज हिकारत की नजर फेंकता हुआ
बिक्री और खरीद के बीच के
पतले सुराख से
गेहुंअन की तरह अदृश्य हो गया
एक सुच्चा
खरा
ठनकता हुआ जिस्म
कहते हैं वह ठनक अबूझमाड़ में
रात बिरात
अक्सर सुनाई पड़ती है
मिला कोई गायक
तो एक दिन पूछूंगा
संगीत की भाषा में
क्या कहते हैं इस ठनक को?
सात सुरों से सजे शास्त्रीय गायकों के लिए इसका जवाब ढूंढ पाना सरल नहीं होगा कि आखिर महज तीन सुरों में गाने वाले इन आदिवासियों ने यह कैसी ठनक पैदा कर दी है जिसका जवाब खंगालने से भी नहीं मिल रहा है। समझा जा सकता है कि कविता और संगीत की धुन पर जिस आंदोलन के कदम उठ रहे हों उसे बमों और गोलियों की बौछारों से ध्वस्त नहीं किया जा सकता। भला ध्वस्त किया भी कैसे जा सकता है जहां सिर्फ कान ही नहीं पांव भी सुनते हैं। ’पांव’ कविता में वे कहते हैं:
कभी चलते हुए अचानक
अगर तेज-तेज चलने लगे तुम्हारे पांव
समझना उन्होंने सुन ली है
किन्हीं जंजीरों की झन-झन
’जहां से अनहद शुरू होता है’ की पंक्तियां हैं:
कोहरे में ये घंटियों की आवाज
कहां से आ रही है सुबह-सुबह
क्या आज फिर कोई मीटिंग है
झरही किनारे
या बेलवा जंगल में
संग्रह में एक गजल है जिसका एक शेर इस प्रकार है:
इक शख्स वहां जेल में है सबकी ओर से
हंसना भी यहां जुर्म है क्या पूछ लीजिए
दरअसल देखा जाए तो इस तरह की पंक्तियां बिखरी पड़ी हैं संग्रह में। ’गुमशुदा कवि’ में वे लिखते हैं:
हर चेहरा लगता है
एक लपट के जैसा
या ’चुप्पियां’ में कहते हैं:
चुप्पियां बढ़ती जा रही हैं
उन सारी जगहों पर
जहां बोलना जरूरी था
आप कह सकते हैं कि इसी चुप्पी को तोड़ने की कोशिश है यह संग्रह। इस बेहद नाजुक दौर में यह संग्रह एक जरूरी हस्तक्षेप की तरह है।
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