- हाशिया से साभार
आनंद तेलतुंबड़े का यह लेख दलितों
की जिंदगी के एक ऐसे सफर पर ले चलता है, जहां हिंसक उत्पीड़नों, हत्याओं और
बलात्कारों को उनकी रोजमर्रा की जिंदगी बना दिया गया है. अनुवाद रेयाज उल हक.
एक तरफ जब मीडिया में लोकतंत्र के महापर्व की चकाचौंध तेज हो रही थी, वहीं दूसरी तरफ देश के 20.1 करोड़ दलितों को अपने अस्तित्व के एक और रसातल से गुजरने का अनुभव हुआ. उन्होंने शैतानों और गुंडों की सल्तनत का महापर्व देखा. बहरहाल, उनके लिए लोकतंत्र बहुत दूर की बात रही है. इस अजनबी तमाशे में वे यह सोचते रहे कि क्या उन्हें इस देश को अब भी अपना देश कहना चाहिएॽ
‘हरेक घंटे दो दलितों पर हमले होते हैं, हरेक दिन तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, दो दलितों की हत्या होती है, दो दलितों के घर जलाए जाते हैं,’ यह बात तब से लोगों का तकिया कलाम बन गई है जब 11 साल पहले हिलेरी माएल ने पहली बार नेशनल ज्योग्राफिक में इसे लिखा था. अब इन आंकड़ों में सुधार किए जाने की जरूरत है, मिसाल के लिए दलित महिलाओं के बलात्कार की दर हिलेरी के 3 से बढ़कर 4.3 हो गई है, यानी इसमें 43 फीसदी की भारी बढ़ोतरी हुई है. ऐसे में जो बात परेशान करती है वह देश की समझदार आबादी का दोमुहांपन है. यह वो तबका है जिसने डेढ़ साल पहले नोएडा की एक लड़की के क्रूर बलात्कार पर तूफान मचा दिया था, और इसकी तारीफ की जानी चाहिए, लेकिन उसने हरियाणा के जाटलैंड में चार नाबालिग दलित लड़कियों के बलात्कार पर या फिर ‘फुले-आंबेडकर’ के महाराष्ट्र में एक दलित स्कूली छात्र की इज्जत के नाम पर हत्या पर चुप्पी साध रखी है. इस चुप्पी की अकेली वजह जाति है, इसके अलावा इसे किसी और तरह से नहीं समझा जा सकता. अगर देश के उस छोटे से तबके की यह हालत है, जिसे संवेदनशील कहा जा सकता है, तब दलित जनता बेवकूफी और उन्माद के उस समुद्र से क्या उम्मीद कर सकती है, जिसमें जाति और संप्रदाय का जहर घुला हुआ हैॽ
भगाना की असली निर्भयाएं
भगाना हरियाणा में हिसार से महज 13 किमी दूर
एक गांव है जो राष्ट्रीय राजधानी से मुश्किल से तीन घंटे की दूरी पर है. 23
मार्च को यह गांव उन बदनाम जगहों की लंबी फेहरिश्त में शामिल हो गया, जहां
दलितों पर भयानक उत्पीड़न हुए हैं. उस दिन शाम को जब चार दलित स्कूली
छात्राएं – मंजू (13), रीमा (17), आशा (17) और रजनी (18) – अपने घरों के
पास खेत में पेशाब करने गई थीं तो प्रभुत्वशाली जाट जाति के पांच लोगों ने
उन्हें पकड़ लिया. उन्होंने उन लड़कियों को नशीली दवा खिला कर खेतों में
उनके साथ बलात्कार किया और फिर उन्हें कार में उठा कर ले गए. शायद उनके साथ
रात भर बलात्कार हुआ और फिर उन्हें सीमा पार पंजाब के भटिंडा रेलवे स्टेशन
के बाहर झाड़ियों में छोड़ दिया गया. जब उनके परिजनों ने गांव के सरपंच
राकेश कुमार पंगल से संपर्क किया, जो अपराधियों का रिश्तेदार भी है, तो वह
उन्हें बता सकता था कि लड़कियां भटिंडा में हैं और उन्हें अगले दिन ले आया
जा सकता था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. भारी नशीली दवाओं के असर में और गहरी
वेदना के साथ लड़कियां अगली सुबह झाड़ियों में जगीं और मदद के लिए स्टेशन
तक गईं, लेकिन उन्हें दोपहर बाद 2.30 बजे तक इसके लिए इंतजार करना पड़ा जब
राकेश और उसके चाचा वीरेंदर लड़कियों के परिजनों के साथ वहां पहुंचे. लौटते
वक्त परिजनों को ट्रेन से भेज दिया गया और लड़कियों को कार में बिठा कर
भगाना तक लाया गया. रास्ते में राकेश ने उनके साथ गाली-गलौज और बदसलूकी की,
उन्हें पीटा और धमकाते हुए मुंह बंद रखने को कहा. जब वे गांव पहुंचे तो
दलित लड़को ने कार को घेर लिया और लड़कियों को सरपंच के चंगुल से निकाला.
अगले दिन लड़कियों को मेडिकल जांच के लिए हिसार के सदर अस्पताल ले जाया
गया. वहां सुबह से दोपहर बाद डेढ़ बजे तक जांच चली, जो समझ में न आने वाली
बात थी. लड़कियों ने बताया कि डॉक्टरों ने कौमार्य की जांच के लिए टू फिंगर
टेस्ट जैसा अपमानजनक तरीक अपनाया जिसकी इतनी आलोचना हुई है और सरकार ने
बलात्कार के मामले में इसका इस्तेमाल करने पर प्रतिबंध लगा रखा है. 200 से
ज्यादा दलित कार्यकर्ताओं के दबाव और मेडिकल रिपोर्ट में बलात्कार की
पुष्टि होने के बाद सदर हिसार पुलिस थाना ने (एससी/एसटी) उत्पीड़न रोकथाम
अधिनियम के तहत प्राथमिकी दर्ज की. हालांकि लड़कियों द्वारा दिए गए बयान
में राकेश और वीरेंदर का नाम होने के बावजूद उनको इससे बाहर रखा.
ऐसा हिला देने वाला अपराध भी पुलिस को कार्रवाई करने के लिए कदम उठाने में नाकाम रहा. खैरलांजी की तरह, जब हिसार मिनी सेक्रेटेरिएट पर 120 से ज्यादा दलित जुटे और जनता का गुस्सा भड़क उठा तथा शिकायतकर्ता लड़कियों के साथ भगाना के 90 दलित परिवार दिल्ली में जंतर मंतर पर 16 अप्रैल से धरना पर बैठे तब हरियाणा पुलिस हरकत में आई और उसने 29 अप्रैल को पांच बलात्कारियों – ललित, सुमित, संदीप, परिमल और धरमवीर – को गिरफ्तार किया. दलित परिवार इंसाफ मांगने के मकसद से दिल्ली आए हैं, लेकिन इसके साथ साथ एक और वजह है. वे गांव नहीं लौट सकते क्योंकि उन्हें डर है कि बर्बर जाट उनकी हत्या कर देंगे. इन दलित मांगों को सुनने और न्यायिक प्रक्रिया को तेज करने के बजाए हिसार जिला अदालत अपराधियों को रिहा करने के मामले को देख रही है. हालांकि ये बहादुर लड़कियां, असली निर्भयाएं, खुद अपनी आपबीती जनता के सामने रख रही हैं, लेकिन दिलचस्प रूप से मीडिया ने बलात्कार से गुजरने वाली महिलाओं की पहचान को सार्वजनिक नहीं करने के कायदे का पालन नहीं किया, जैसा कि उसने गैर दलित ‘निर्भयाओं’ के साथ बेहद सतर्कता के साथ किया था. राजनेताओं के बकवास बयानों से तिल का ताड़ बनाने में जुटे मीडिया ने इन परिवारों द्वारा किए जा रहे विरोध की खबर को दिखाने के लायक तक नहीं समझा – एक अभियान शुरू करने की तो बात ही छोड़ दीजिए, जैसा उसने उन ज्यादातर बलात्कार मामलों में किया है, जिनमें बलात्कार की शिकार कोई गैर दलित होती है. ऐसी भाषा में बात करने से नफरत होती है, लेकिन उनका व्यवहार इसी भाषा की मांग करता है.
दिसंबर 2012 में जारी की गई पीयूडीआर की जांच रिपोर्ट इसके काफी संकेत देती है कि भगाना बलात्कार महज अमानवीय यौन अपराध भर नहीं है बल्कि ये दलितों को सबक सिखाने के उपाय के बतौर इस्तेमाल किया गया है. वहां दलित परिवार जाटों द्वारा अपनी जमीन, पानी और श्मशान भूमि पर कब्जा कर लेने और अलग अलग तरीकों से उन्हें उत्पीड़ित करने के खिलाफ विरोध कर रहे थे.
महाराष्ट्र के चेहरे पर एक और दाग
हरियाणा की घिनौनी खाप पंचायतों वाले जाट
इज्जत के नाम पर हत्या के लिए बदनाम हैं, लेकिन फुले-शाहूजी-आंबेडकर की
विरासत का दावा करने वाले सुदूर महाराष्ट्र में एक गरीब दलित परिवार से आने
वाले 17 साल के स्कूली लड़के को आम चुनावों की गहमागहमी के बीच 28 अप्रैल
को एक मराठा लड़की से बाद करने के लिए दिन दहाड़े बर्बर तरीके से मार डाला
गया. यह दहला देने वाली घटना अहमदनगर जिले के खरडा गांव में हुई. फुले का
पुणे यहां से महज 200 किमी दूर है, जहां से उन्होंने ब्राह्मणवाद के खिलाफ
विद्रोह की चिन्गारी सुलगाई थी. दलित अत्याचार विरोधी क्रुति समिति
की एक जांच रिपोर्ट ने उस क्रूर तरीके के बारे में बताया है, जिससे गांव के
सिरे पर एक टिन की झोंपड़ी में रहने वाले और एक छोटे से मिल में पत्थर
तोड़ कर गुजर बसर करने वाले भूमिहीन दलित दंपती राजु और रेखा आगे से उनके
बेटे को छीन लिया गया. नितिन आगे को गांव के एक संपन्न और सियासी रसूख वाले
मराठा परिवार से आनेवाले सचिन गोलेकर (21) और उसके दोस्त और रिश्तेदर
शेषराव येवले (42) ने पीट पीट कर मार डाला. नितिन को स्कूल में पकड़ा गया,
उसके परिसर में ही उसे निर्ममता से पीटा गया, फिर उसे घसीट पर गोलेकर
परिवार के ईंट भट्ठे पर ले आया गया, जहां उनकी गोद और पैंट में अंगारे रखकर
उसे यातना दी गई और फिर उनकी हत्या कर दी गई. इसके बाद उसका गला घोंट दिया
गया, ताकि इसे आत्महत्या के मामले की तरह दिखाया जा सके. नितिन से प्यार
करने वाली गोलेकर परिवार की लड़की के बारे में खबर आई कि उसने आत्महत्या
करने की कोशिश की और ऐसी आशंका जताई जा रही है उसे भी जाति की बलिवेदी पर
नितिन के अंजाम तक पहुंचा दिया गया.
स्थानीय दलित कार्यकर्ताओं के दबाव में, अगले दिन नितिन की लाश की मेडिकल जांच के बाद पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर लिया जिसमें उसने आरोपितों पर हत्या करने, सबूत गायब करने, गैरकानूनी जमावड़े और दंगा करने का आरोप लगाया है. यह मामला भारतीय दंड विधान के तहत और उत्पीड़न रोकथाम अधिनियम की धारा 3(2)(5) और नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा 7 (1)(डी) के तहत भी दर्ज किया गया है. पुलिस ने सभी 12 व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया है, जिसमें दोनों मुख्य अपराधी और एक नाबालिग लड़का शामिल है. लेकिन दलित अब यह जानते हैं कि दलितों के खिलाफ किए गए अपराध के लिए देश में संपन्न ऊंची जाति के किसी भी व्यक्ति को अब तक दोषी नहीं ठहराया गया है. अपनी दौलत के बूते और सबसे विवेकहीन पार्टी में – जिसका नाम राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) है – अपनी पहुंच के बूते गोलेकर परिवार को शायद जेल में बहुत दिन नहीं बिताने पड़ेंगे. आखिरकार एनसीपी के दिग्गजों के रोब-दाब वाले इस अकेले जिले में ही, हाल के बरसों में हुए खून से सने जातीय उत्पीड़न के असंख्य मामलों में क्या हुआॽ नवसा तालुका के सोनाई गांव के तीन दलित नौजवानों संदीप राजु धनवार, सचिम सोमलाल धरु और राहुल राजु कंदारे के हत्यारों का क्या हुआ, जिन्होंने ‘इज्जत’ के नाम पर उनकी हत्या की थीॽ धवलगांव की जानाबाई बोरगे के हत्यारों का क्या हुआ, जिन्होंने बोरगे को 2010 में जिंदा जला दिया थाॽ उन लोगों का क्या हुआ जिन्होंने 2010 सुमन काले का बलात्कार करने के बाद उनकी हत्या कर दी थी या फिर उनका जिन्होंने वालेकर को मार कर उनकी देह के टुकड़े कर दिए थे, या 2008 में बबन मिसाल के हत्यारों का क्या हुआॽ यह अंतहीन सूची हमें बताती है कि इनमें से हरेक उत्पीड़न में असली अपराधी कोई धनी और ताकतवर इंसान था, लेकिन दोषी ठहराया जाना तो दूर, मामले में उस नामजद तक नहीं बनाया गया.
जागने का वक्त
अपने अकेले बेटे को इस क्रूर तरीके से खो देने
वाले राजू और रेखा आगे की भयावह मानवीय त्रासदी ‘हत्याओं’ की संख्या में
बस एक और अंक का इजाफा करेगी और भगाना की उन लड़कियों को तोड़ कर रख देने
वाला सदमा और जिंदगियों पर हमेशा के लिए बन जाने वाला घाव का निशान
एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो) की ‘बलात्कारों’ की गिनती में जुड़ा
बस एक और अंक बन कर रह जाएगा. इन मानवीय त्रासदियों को आंकड़ों में बदलने
वाली सक्रिय सहभागिता, जिनके बगैर वे भुला दी गई होती, गुम हो गई है. ऐसी
सामाजिक प्रक्रियाओं द्वारा पैदा किए गए उत्पीड़न के आंकड़े अब भी 33,000
प्रति वर्ष के निशान के ऊपर बनी हुई हैं. इन आधिकारिक गिनतियों का इस्तेमाल
करते हुए कोई भी यह बात आसानी से देख सकता है कि हमारे संवैधानिक शासन के
छह दशकों के दौरान 80,000 दलितों की हत्या हुई है, एक लाख से ज्यादा औरतों
के बलात्कार हुए हैं और 20 लाख से ज्यादा दलित किसी न किसी तरह के जातीय
अपराधों के शिकार हुए हैं. युद्ध भी इन आंकड़ों से मुकाबला नहीं कर सकते
हैं. एक तरफ दलितों में यह आदत डाल दी गई है कि वे अपने संतापों के पीछे
ब्राह्मणों को देखें, जबकि सच्चाई ये है कि इस शासन की ठीक ठीक
धर्मनिरपेक्ष साजिशों ने ही उन शैतानों और गुंडों को जन्म दिया जो दलितों
को बेधड़क पीट पीट कर मार डालते हैं और उनका बलात्कार करते हैं.
इसने सामाजिक न्याय के नाम पर जातियों को बरकरार रखने की साजिश की है, इसने पुनर्वितरण के नाम पर भूमि सुधार का दिखावा किया जिसने असल में भारी आबादी वाली शूद्र जातियों से धनी किसानों के एक वर्ग को पैदा किया. वह सबको खाना मुहैया कराने के नाम पर हरित क्रांति लेकर आई, जिसने असल में व्यापक ग्रामीण बाजार को पूंजीपतियों के लिए खोल दिया. वह ऊपर से रिस कर नीचे आने के नाम पर ऐसे सुधार लेकर आई, जिन्होंने असल में सामाजिक डार्विनवादी मानसिकता थोप दी है. ये छह दशक जनता के खिलाफ ऐसी साजिशों और छल कपट से भरे पड़े हैं, जिनमें दलित केवल बलि का बकरा ही बने हैं. भारत कभी भी लोकतंत्र नहीं रहा है, जैसा इसे दिखाया जाता रहा है. यह हमेशा से धनिकों का राज रहा है, लेकिन दलितों के लिए तो यह और भी बदतर है. यह असल में उनके लिए शैतानों और गुंडों की सल्तनत रहा है.
दलित इन हकीकतों का मुकाबला करने के लिए कब जागेंगेॽ कब दलित उठ खड़े होंगे और कहेंगे कि बस बहुत हो चुका!
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