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Thursday, October 9, 2014

'जो खुली नजरों से ओझल है': अरुंधति रॉय से एक बातचीत

                                                       - हशियाँ ब्लॉग से साभार 

जुलाई में जानीमानी कार्यकर्ता और लेखिका अरुंधति रॉय की इस बात पर कई हलकों में गुस्से की लहर दौड़ गई थी कि गांधी की आम तौर पर स्वीकृत छवि एक झूठ है. तिरुअनंतपुरम स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ केरल में अय्यनकली मेमोरियल व्याख्यान देते हुए अरुंधति ने यह भी कहा था कि गांधी के नाम पर बने संस्थानों का नाम बदल दिया जाना चाहिए. केरल में उठे इस विवाद से, जिसमें जुलूस, गिरफ्तारी की धमकी और गुस्से से भरे बयानों का सिलसिला चला, हिंदी की वह वैचारिक दुनिया लगभग अनजान रही, जिसने इससे महज दो-तीन महीने पहले ही डॉ. बी.आर. आंबेडकर की किताब एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट की अरुंधति द्वारा लिखी प्रस्तावना पर एक लंबा विवाद देखा था. मार्च-अप्रैल के दौरान किताब की प्रस्तावना पर और फिर केरल में व्याख्यान पर हुए विवाद के दौरान जो मुद्दे उभरे, उनपर अरुंधति ने इस बातचीत में चर्चा की है. मलयाला मनोरमा ऑनलाइन के लिए लीना चंद्रन द्वारा हाल में की गई इस लंबी बातचीत को दो किस्तों में हाशिया पर पोस्ट किया जाएगा. आज पहली पहली किस्त. अनुवाद: रेयाज उल हक



मुझे लगता है कि गांधी वाला विवाद थोड़ी देर से उठा. अगर लोगों ने डॉ. बी. आर. आंबेडकर की किताब एन्नाइहिलेशन ऑफ द कास्ट के लिए आपकी लिखी गई प्रस्तावना, द डॉक्टर एंड द सेंट को गहराई से पढ़ा होता तो इस साल की शुरुआत में इसके प्रकाशन के फौरन बाद ही यह विवाद पैदा होना चाहिए था. असल में, आपने द डॉक्टर एंड द सेंट में जो विचार जाहिर किए हैं, उनकी तुलना में आपने तिरुअनंतपुरम स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ केरल के इतिहास विभाग में अय्यनकाली मेमोरियल लेक्चर में जो कुछ कहा, वह उतना भड़काऊ भी नहीं था...

मैं यह नहीं कहूंगी कि द डॉक्टर एंड द सेंट भड़काऊ है, हालांकि बेशक इस पर अनेक हलकों से अच्छी-खासी मात्रा में विवाद पैदा हुआ है. उन हलकों से भी, जिनसे इसकी उम्मीद नहीं थी. लेकिन यह सब अपेक्षित ही था, क्योंकि यह एक विवादास्पद मुद्दा है. तब भी, उसमें सोचने के पारंपरिक तरीकों पर सवाल किए गए थे, और ऐसा करने के लिए ज्यादातर गांधी के कम जाने गए लेखों का हवाला दिया गया था. यह आंबेडकर के एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट की प्रस्तावना के रूप में लिखा गया था. आंबेडकर का नजरिया स्थापित व्यवस्था को बहुत मजबूती से और गहराई में जाकर चुनौती देता है. गांधी का नस्ल और जाति को लेकर जो नजरिया था, उस पर विवाद मेरे द डॉक्टर एंड द सेंट लिखने से बहुत पहले शुरू हो गया था. आप कह सकते हैं कि यह आंबेडकर-गांधी बहस के साथ ही शुरू हो गया था. दलित राजनीति की दुनिया में बरसों से यह बहस चली आ रही है – लेकिन इसे बहुत सावधानी से और बड़ी कामयाबी के साथ सत्ता प्रतिष्ठान के विमर्शों से बाहर रखा गया. अय्यनकली मेमोरियल लेक्चर के बाद केरल के मीडिया में मची खलबली उन लोगों द्वारा किया गया शोर-शराबा है, जिन्होंने कभी आंबेडकर की एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट, या द डॉक्टर एंड द सेंट या ऐसी ही कोई चीज पढ़ने की जहमत नहीं उठाई. यहां तक कि उन्होंने गांधी का लेखन भी नहीं पढ़ा है, जिसका बचाव करने को वे इतने उत्सुक हैं. इस बहस में अनेक निहित स्वार्थ काम कर रहे हैं. उनसे बदलने की उम्मीद रखना शायद कुछ ज्यादा ही होगा. लेकिन नौजवान लोग अपना नजरिया बदलेंगे. यह तय है.


आपके ज्यादातर आलोचक कहते हैं, ‘अरुंधति हमारे गांधी के बारे में क्या जानती हैं? उन्हें क्या अधिकार है?’ माना, आप जोरदार तरीके से गांधी के लेखन में से हवाला देती हैं, लेकिन आपने इस इंसान के पूरे लेखन का कितने विस्तार से और कितनी गहराई से पड़ताल की है? आपने किस तरह का शोध किया है? क्या आप इसके बारे में थोड़े विस्तार से बताएंगी कि आपने आंबेडकर को सीखने और गांधी को भुलाने की शुरुआत कैसे की?

‘हमारे गांधी?’ और यह अरुंधति कौन है? क्या इस धरती से बाहर का कोई जीव, जिसके पास वैसे अधिकार नहीं हैं, जैसे गांधी पर ‘मिल्कियत’ जतानेवालों के पास हैंॽ क्या यही लोग, ठीक यही लोग ‘हमारे आंबेडकर’ कह सकते हैं? बल्कि इसके उलट, मुझे कहने दीजिए: द डॉक्टर एंड द सेंट न तो समग्र गांधी और न ही समग्र आंबेडकर के बारे में. यह आंबेडकर और गांधी के बीच चली बहस के बारे में है. मैंने इसे लिखने से पहले आंबेडकर और गांधी के लेखन पर महीनों तक शोध और अध्ययन किया. मैंने शुरुआत गांधी द्वारा 1936 में एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट को खारिज किए जाने से की. और फिर मैं जाति और नस्ल की उनकी हिमायत का सिरा पकड़ कर आगे बढ़ी, जो दक्षिण अफ्रीका तक जाता था. (मैंने दक्षिण अफ्रीका में कुछ समय बिताया) मैं जो पढ़ रही थी, उससे मुझे बहुत धक्का लगा था और मुझे इससे भी ज्यादा धक्का इस बात से लगा कि किस कामयाबी के साथ गांधी के ये बेहद परेशान कर देने वाले पहलू सार्वजनिक और ‘सत्ता प्रतिष्ठान’ के बुद्धिजीवियों की खोजी निगाहों से अनदेखे गुजर गए. मैंने यह महसूस किया कि मैं जो करना चाहती थी, उसे करने का अकेला उपाय यही था कि जितना ज्यादा मुमकिन हो सके, खुद गांधी के शब्दों का ही उपयोग किया जाए – अपनी टिप्पणियों और विश्लेषण को कम से कम रखा जाए. बेशक इसका नतीजा यह हुआ कि यह एक लंबी, करीब-करीब किताब जैसी एक प्रस्तावना बन गई. इसमें जो कुछ भी है, वह बेहद संवेदनशील मुद्दा रहा है. इसलिए हर तरह की प्रतिक्रियाएं आईं- खुले दिल से अपनाने और बेहद प्यार दिखाने से लेकर, गुस्से से भरी हुई प्रतिक्रियाएं, जो अंदाजे से परे थीं. कुछ ने इस बात के लिए आलोचना की कि मैंने आंबेडकर से ज्यादा गांधी के बारे में लिखा है. यह एक जायज मुद्दा है, लेकिन इसको लेकर मेरी दलील यह है कि जब तक हम उस पर्दे को तार-तार नहीं कर देंगे, जो आंबेडकर की स्पष्टता को धुंधला बनाने के लिए गांधी ने तान रखा था, तब तक हम अंधेरे में ही टटोलते रहेंगे. यही आंबेडकर की दलील भी थी, जब उन्होंने एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट के बारे में आई सारी प्रतिक्रियाओं में से गांधी की प्रतिक्रिया को जवाब देने के लिए चुना. किताब के बारे में जो भी विवाद पैदा हुए – जिनसे बचा नहीं जा सकता था – उनमें से कुछ मेरे बारे में हैं, मेरे अपने बारे में, मेरी मंशा, मेरी प्रेरणा और राजनीतिक हमदर्दी, मेरी जाति, मेरे घर के पते के बारे में – न कि उस पर जो मैंने लिखा है. यह दुर्भाग्यपूर्ण है, हालांकि इसकी पूरी संभावना थी और मैं अब ऐसी चीजों की आदी हो गई हूं. मैं एक आसान निशाना हूं – मशहूर होना दोनों पक्षों पर असर डालता है. यह मुझे और मेरे आलोचकों दोनों को ही ताकत देता है. मेरी किताबों की रॉयल्टी मुझे धनी और आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाती है – इसलिए गैरबराबरी के बारे में लिखने की मैं जुर्रत कैसे करती हूं? मैं एक ‘अच्छी औरत’ नहीं हूं, मुझे देख कर नहीं लगता कि मैंने अच्छे से दुख झेला है. मैंने पहले से चली आ रही तयशुदा तरीके की जिंदगी को अपनी मर्जी से कबूल नहीं किया है – इसलिए मुझे उन चीजों पर लिखने का क्या हक है, जिन पर मैं लिखती हूं? किस्मत से, मुझे किसी से भी कोई नैतिक चरित्र प्रमाण पत्र नहीं चाहिए. बुनियादी बात यह है कि मैंने जो लिखा है, पाठक उसे पढ़ने और उसके साथ बौद्धिक रूप से जुड़ने का विकल्प चुन सकते हैं या उसे छोड़ सकते हैं. बाकी सब बेवजह का शोर-शराबा है. 


नवयान द्वारा प्रकाशित आंबेडकर के एन्नाइहिलेशन ऑफ कास्ट के संपादक एस. आनंद ने दस साल पहले आपसे एक प्रस्तावना का अनुरोध किया था. आप राजी हो गई थीं और आपने शोध और अध्ययन शुरू कर दिया था. क्या तब आपने महात्मा के योगदान पर पुनर्विचार शुरू किया?

आंबेडकर ने बहुत मजबूत और गंभीर तरीके से मेरी समझदारी को और गहरा बनाया और मेरी सोच को समृद्ध किया. उन्होंने हमें वे औजार दिए हैं, जिनसे हम उस समाज को समझ सकते हैं और उसका विश्लेषण कर सकते हैं, जिसमें हम रहते हैं. वे एक रेडिकल चिंतक थे, और वे निडर थे. गांधी की शोहरत और भारी प्रभुत्व के दिनों में उन्होंने जिस तरह गांधी को आड़े हाथों लिया, वह एक परिघटना थी. उन्होंने गांधी और कांग्रेस के बारे में बहुत लिखा क्योंकि इन दोनों ने चालाक और जटिल तरीके से आंबेडकर की राह रोकने की कोशिश की थी. आंबेडकर को पढ़ते हुए मैं गांधी के बारे में उन बनी बनाई धारणाओं से आजाद हुई, जिनके साथ हममें से अनके लोग बड़े होते हैं. हालांकि अभी आंबेडकर की विरासत भारी खतरे में है. एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट, हिंदूवाद (हिंदुइज्म) का विद्वत्तापूर्वक खंडन करता है. आंबेडकर चाहते थे कि उनके लोग हिंदूवाद को नकारें. लेकिन आज, बड़ी तेजी से दलितों का ‘हिंदूकरण’ और ‘संस्कृतीकरण’ किया जा रहा है. यह नई सरकार आंबेडकर का दुस्वप्न रही होती. ‘अशुद्धों’ को हिंदू घेरे में लाने के लिए एक नए शुद्धि आंदोलन का ऐलान किया गया है. आरएसएस प्रमुख ने घोषणा की है कि सारे भारतीय हिंदू हैं. यह बहुत परेशान करने वाला है.


क्या गांधी पर ‘पुनर्विचार’ करने में आपकी मूर्तिभंजक मां मेरी रॉय का कोई असर रहा है? मैं यह बात खास तौर से पूछ रही हूं, क्योंकि हम जिन बातों को सीखते हुए बड़े होते हैं, उनको बदलना हमेशा ही खासा मुश्किल होता है.

मेरी मूर्तिभंजक मां हमेशा से ही गांधी की बड़ी प्रशंसक रही हैं. इसलिए द डॉक्टर एंड द सेंट लिखने में उनकी कोई भूमिका नहीं है. मैं अपनी कहूं तो अभी मैंने जो कुछ पढ़ा, उसके पहले मैं सोचती थी कि गांधी एक चालाक, लेकिन मंजे हुए और कल्पनाशील राजनेता थे. उनके बारे में दो बातों ने मुझे हमेशा गहराई से परेशान किया – उनमें से एक बात थी, औरतों और सेक्स को लेकर उनका रवैया, जिस पर अलग से एक पूरी किताब लिखी जाने लायक है और दूसरी बात थी दलितों को ‘हरिजन’ कहना, जो मुझे घिनौनी और सरपरस्ती से भरी बात लगती थी.


लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि गांधी ने आपको पूरी तरह निराश किया? क्या गांधी में ऐसी एक भी खूबी नहीं है जिसकी आप तारीफ करती हों?

गांधी एक आकर्षक किरदार थे, जिन्होंने अपने जीवनकाल में लोगों की कल्पना को अपने वश में कर लिया था और अभी भी जनता को सम्मोहित करते हुए लगते हैं. मैं नहीं सोचती कि जिन्होंने द डॉक्टर एंड द सेंट पढ़ा है वे यह नतीजा निकालेंगे कि यह आंबेडकर के बारे में एक गैर आलोचनात्मक और भक्ति-भाव से लिखी गई कोई जीवनी है और गांधी की कठोर आलोचना है. हैरानी की बात यह है कि कुछ हलकों में, गांधी की तारीफ करने के लिए मेरी आलोचना की गई – हालांकि ऐसा लगता है कि उन्होंने भी किताब नहीं पढ़ी है. वे कहते हैं कि मैंने गांधी को संत कहा है, वे इसमें छुपी हुई विडंबना को पकड़ नहीं पाए, जिसे इस बात के जरिए जाहिर करने की मेरी मंशा थी. उनसे यह बात भी पकड़ में नहीं आई कि आंबेडकर अक्सर गांधी को व्यंग्य से संत कहते थे. फिर कुछ ऐसे लोग भी हैं – और गौर कीजिए कि सिर्फ दलित ही नहीं, कुछ ब्राह्मण भी – जो यह मानते हैं कि आंबेडकर की किसी रचना की प्रस्तावना लिखने का अधिकार किसी भी गैर-दलित को नहीं है. वे इसे प्रभुत्वशाली जाति से आने वाले किसी इंसान द्वारा आंबेडकर को ‘हड़पे जाने’ के रूप में देखते हैं. लेकिन अगर व्यापक रूप से देखा जाए तो कुल मिलाकर, तो यह सारी बहस, सारे इल्जाम और इशारों-इशारों में कही गई बातें, यहां तक कि केरल में फूट पड़ा गुस्सा, गिरफ्तारी की धमकियां, जुलूस, यह आखिरकार एक अच्छी चीज है – हालांकि कभी कभी इससे दुख होता है. हम सभी में हजारों बरसों के संस्थागत पूर्वाग्रह भरे हुए हैं. उन्हें बाहर निकालना ही होगा, और यह प्रक्रिया खूबसूरत नहीं होगी. हममें से कोई भी शुद्ध नहीं है, हममें से कोई परिपूर्ण नहीं है, कोई भी पाठ (रचना) पूरी तरह सही या आलोचना से परे नहीं है. हमारे पास विकल्प यह है कि हम एक अपूर्ण राजनीतिक एकजुटता के लिए एक दूसरे के साथ मिलकर खड़े हों या फिर अपने को अपनी अपनी खंदकों में बंद करते हुए एक दूसरे से अलग-थलग कर लें, और खुद के श्रेष्ठ और सही होने की अपनी ही रची हुई धारणा में सिमट कर जाएं.


इस पर गौर करना दिलचस्प है कि आपने स्वामी विवेकानंद को भी नहीं छोड़ा. द डॉक्टर एंड द सेंट में आपने खुद उनकी बात का हवाला दिया है, जिसमें उन्होंने अछूतों के धर्मांतरण को हतोत्साहित किया था. लेकिन क्या यह हवाला संदर्भ से बाहर जाकर नहीं दिया गया थाॽ

नहीं. ऐसा नहीं था. स्वामी विवेकानद ने जो कहा था, वह आबादी की बनावट के बारे में प्रभुत्वशाली जाति की बेचैनी की राजनीति का हिस्सा था, जो तब बदलनी शुरू हुई थी. यह उस बात की पैदाइश थी, जिसे आज हम हिंदुत्व की शक्ल में जानते हैं.


लेकिन गांधी और केरल में अछूतों के नेता अय्यनकली के बीच उनके योगदानों के आधार पर तुलना कितनी व्यावहारिक हैॽ अय्यनकली का काम और उनका प्रभाव एक क्षेत्रीय परिघटना थी.

उनकी तुलना क्यों नहीं की जाएॽ यह इतना अपवित्र क्यों हैॽ अय्यनकली ने 1904 में पुलय बच्चों के स्कूल में पढ़ने के अधिकार की लड़ाई लड़ी थी. उन्होंने पहली खेतिहर हड़ताल की थी और वह कामयाब रही थी – यह बात रूसी क्रांति से भी पहले की बात है. उन्हीं दिनों गांधी दक्षिण अफ्रीका में काले अफ्रीकियों और दबा कर रखी गई जातियों के भारतीय मजदूरों के बारे में सबसे आपराधिक बयान दे रहे थे. त्रिवेंद्रम में मैंने यह कहा कि कैसे गांधी जाति व्यवस्था में यकीन रखते थे. मैंने 1936 के उनके एक असाधारण निबंध ‘द आयडियल भंगी’ में से हवाला दिया, जिसमें वे खानदानी और परंपरागत काम-धंधों की खूबी के बारे में अपने नजरिए पर रोशनी डालते हैं. निजी तौर पर, मैं सोचती हूं कि यह गंभीर किस्म की हिंसा है. मैंने इसके बारे में कहा कि हमें इस पर सोचना चाहिए कि हमें इन दो तरह के लोगों में से किसके नाम पर विश्वविद्यालयों के नाम रखने चाहिए. क्या यह गलत हैॽ


‘यथास्थिति का संत’, ‘सबसे मशहूर भारतीय’, ‘अब तक आधुनिक दुनिया द्वारा जाना गया सबसे मंजा हुआ राजनेता’...आपने महात्मापन पर सवाल खड़े किए. लेकिन अगर हम यह बारीकी से देखें कि कैसे कई दशकों के दौरान गांधी का विकास हुआ, तो क्या उनमें सुधार की प्रक्रिया नहीं दिखतीॽ क्या आप ये कहना चाहती हैं कि वह सब एक भव्य छलावा थाॽ आपके आलोचकों ने इस तरफ ध्यान दिलाया है कि गांधी की शुरुआती जिंदगी में कही गई बातों का हवाला देना एक भारी नाइंसाफी है, जब महात्मा कम महात्मा थे.

मेरे आलोचकों ने जो सवाल मेरे सामने रखे हैं, लिखने से पहले मैंने अपने सामने उन सवालों रखा था. क्या गांधी बदलेॽ क्या उनमें कोई विकास हुआॽ क्या उन्होंने जाति पर अपने नजरिए और अपने कामों को छोड़ाॽ इस मुद्दे के साथ इंसाफ करने के लिए ही मैंने उनकी पूरी वयस्क जिंदगी में शुरू से लेकर अंत तक के लेखों और भाषणों का हवाला दिया– 1890 के दशक की शुरुआत में दक्षिण अफ्रीका पहुंचने से लेकर 1946 तक जब वे एक बुजुर्ग इंसान थे. केरल यूनिवर्सिटी की अपनी बातचीत तक में मैंने 1894 में कही गई उनकी बात और फिर 40 साल के बाद 1936 में कही गई उनकी बात का हवाला दिया, जब उन्होंने ‘द आयडियल भंगी’ लिखी थी – तब वे करीब 70 साल के थे.

अगला इल्जाम ये है कि गलत संदर्भ में हवाले दिए गए हैं. मैं यह जानना चाहूंगी कि किस संदर्भ में काले अफ्रीकियों को गंदे ‘जंगली’ कहना और दबा कर रखी गई जातियों के भारतीय मजदूरों को, जिनका ‘नैतिक स्वभाव नष्ट हो गया है,’ जन्मजात झूठा कहना कबूल किए जाने लायक हैॽ किस संदर्भ में यह कहना कबूल किया जा सकता है कि मैला साफ करने वालों की आने वाली पीढ़ियों को भी मैला साफ करते रहना चाहिएॽ आप पूछती हैं कि क्या गांधी एक भव्य छलावा हैंॽ गांधी का सारा लेखन सार्वजनिक रूप से संकलित और उपलब्ध है. उनको संपादित नहीं किया गया या उनसे छेड़छाड़ नहीं की गई है. इसलिए उस मोर्चे पर कोई छलावा नहीं है. लेकिन हां, जिस तरह गांधी की विरासत को सार्वजनिक खपत के लिए तैयार करके परोसा गया है, उसमें भारी बेईमानी की गई है. जिन चीजों को निखार कर पेश किया गया है और जो चीजें छुपा दी गई हैं, वे विचलित करने वाली हैं और यह सोची-समझी बेईमानी भरी राजनीति है.

गांधी के बचाव में तीसरी बात यह कही जा रही है कि वे ‘अपने समय के इंसान’ थे और हम राजनीति और सामाजिक न्याय की अपनी समकालीन समझ को एक ऐसे इंसान पर नहीं थोप सकते जो एक सदी से भी ज्यादा पहले हुआ हो. मैंने द डॉक्टर एंड द सेंट में इसका भी जवाब दिया है और मैंने पाठकों का ध्यान पंडिता रमाबाई, जोतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले जैसे लोगों के कामों की तरफ दिलाया है, जो गांधी से भी पहले हुए थे. फिर पेरियार, अय्यनकली, श्री नारायण गुरु और दूसरे देशों में उनके समकालीनों का कहना ही क्या.

'जो खुली नजरों से ओझल है': अरुंधति से बातचीत की दूसरी किस्त








आपने लीना चंद्रन के साथ मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय की लंबी बातचीत की पहली किस्त पढ़ी. पेश है बातचीत का दूसरा और बाकी का पूरा हिस्सा. अनुवाद: रेयाज उल हक.
गांधी ने पुलय राजा के नाम से मशहूर पुलय अछूतों के नेता अय्यनकली से मिलने के लिए 14 जनवरी 1937 को तिरुअनंतपुरम के वेंगनुर का दौरा किया था. उन्होंने अछूत नौजवानों के साथ थोड़ी देर बातचीत भी की थी. उनमें से एक के. आर. वेलायुधन भी थे, जो भारत के पूर्व राष्ट्रपति के. आर. नारायणन के बड़े भाई थे. वेलायुधन ने गांधी से पूछा था कि स्वराज में वे पुलयों को क्या ओहदा देंगे. गांधी ने जवाब दिया कि वे एक हरिजन को भारत के पहले राष्ट्रपति के रूप में नियुक्त करेंगे. 


गांधी हमेशा बड़े मजे से ‘हरिजनों’ की सरपरस्ती करते और उन्हें मुफ्त की सलाह देते थे. रेवरेंड जॉन मॉट के साथ 1936 में एक मशहूर बातचीत में, जिसमें उन्होंने ‘हरिजनों’ के बीच रेवरेंड के मिशनरी काम पर आपत्ति जताई थी, गांधी ने कहा, ‘डॉ. मॉट क्या आप शुभ संदेश को एक गाय को सुनाना पसंद करेंगेॽ खैर, समझदारी के मामले में इन अछूतों में से कुछ तो गायों से भी बदतर हैं. मेरा मतलब है कि वे इस्लाम, हिंदूवाद और ईसाइयत में उससे ज्यादा फर्क नहीं कर सकते, जितनी एक गाय कर सकती है.’

यहां तक कि आज भी लोग अय्यनकली को गांधी द्वारा ‘पुलय राजा’ कहे जाने को बड़े आराम से कबूल कर लेते हैं. इसी तरह डॉ. आंबेडकर को अक्सर ‘अछूतों का नेता’ कहा जाता है, लेकिन तब क्या हो अगर अय्यनकली या आंबेडकर या कोई भी दूसरा व्यक्ति गांधी को आज एक बनिया महात्मा कहेॽ जुलूस निकलेंगे, पुलिस में मुकदमे किए जाएंगे. दलितों को महज प्रतीकात्मक राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने के बजाए दलितों द्वारा खुद अपना प्रतिनिधि चुनने के सवाल पर गांधी के असली नजरिए और कामों की कहानी जानने के लिए एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट पढ़िए. और साथ में दूसरे गोलमेज सम्मेलन के दौरान गांधी और आंबेडकर के बीच आमने-सामने हुई पहली बहस को भी पढ़िए.


जब भारत के पहले दलित राष्ट्रपति के. आर. नारायणन 25 साल के थे और द टाइम्स ऑफ इंडिया के संवाददाता हुआ करते थे, वे गांधी से बंबई में मिले थे. उनके पास गांधी के लिए एक सवाल था: ‘जब इंग्लैंड में मुझसे भारत में अस्पृश्यता के मुद्दे के बारे में पूछा जाए तो क्या मुझे एक हरिजन के बतौर जवाब देना चाहिए या एक भारतीय के रूप में जवाब देना चाहिएॽ’ और गांधी ने फौरन जवाब दिया: ‘जब आप विदेश में हों तो आप कहेंगे कि यह हमारा आंतरिक मामला है, जिसे एक बार ब्रिटिश भारत को छोड़ दें तो हम सुलझा लेंगे.’

इसीलिए गांधी आंबेडकर के इतने खिलाफ थे- क्योंकि उन्होंने आजादी हासिल होने तक जाति के सवाल पर चुप रहने से इन्कार कर दिया था. गोलमेज सम्मेलन में उनके बीच में इसी को लेकर टकराव हुआ था. यह बात है कि जब सत्ताधारी या ताकतवर लोग जैसे ही कहें कि ‘यह एक आंतरिक मामला है’ तो हमें इसको एक अपशगुन के रूप में लेना चाहिए. इसका अगला कदम होता है ‘बाहरी’ लोगों को सारी राजनीतिक अशांति का दोषी बताया जाना. इसके बाद वे हमें बताते हैं कि कौन ‘बाहरी’ है और कौन ‘भीतरी’, कौन ‘असली’ भारतीय है और कौन नहीं, कौन ‘असली’ हिंदू और कौन नहीं, कौन ‘असली’ मुसलमान है और कौन नहीं और आपके पता लगने से पहले ही धार्मिक और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तथा हर तरह की हठधर्मिता, झगड़ते हुए प्रेतों की तरह, आपके दरवाजे पर बैठी भीतर आने देने की गुहार कर रही होगी.


आशीष नंदी की किताब इंटिमेट एनेमी: लॉस एंड रिकवरी ऑफ सेल्फ अंडर कोलोनियलिज्म आपकी द डॉक्टर एंड द सेंट के संदर्भ ग्रंथों की सूची में शामिल है. हाल में एक मलयाली साप्ताहिक में दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने गांधी पर आपकी राय से अपनी असहमति जताई है. उन्होंने कहा: ‘अरुंधति मेरी दोस्त हैं. वे एक अच्छी लेखक हैं. लेकिन मैं उनकी टिप्पणियों को गंभीरता से नहीं लेता. एक बार उन्होंने नक्सलवादियों को बंदूकधारी गांधीवादी बताया था. देखते हैं कि वे गांधी पर अपनी राय को बदलती हैं या नहीं. गांधी ने जाति व्यवस्था को काम और कर्तव्य पर आधारित व्यवस्था बनाने की कोशिश की. अस्पृश्यता जैसे व्यवहारों के बारे में उनका एक यथार्थवादी रवैया था. गांधी को ढेर सारी आलोचनाएं हासिल हुई हैं. लेकिन यह कहना बकवास है कि उनका काम साजिश का हिस्सा था.’

मुझे उम्मीद है कि आप उन्हें सही सही उद्धृत कर रही हैं. मेरे लिए इस पर यकीन करना मुश्किल है कि उन्होंने यह सब कहा है, हालांकि उन्होंने जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में दलितों के लिए जो कुछ कहा था उस पर यकीन करना भी मुश्किल था. आशीष नंदी एक वरिष्ठ प्रोफेसर और एक हैसियत रखने वाले सार्वजनिक बुद्धिजीवी हैं. इसलिए मैं इस पर बाल की खाल नहीं निकालूंगी कि उनका लहजा सरपरस्ती भरा है या मैंने जो लिखा है, उसे पढ़े बिना ही उन्होंने बिना किसी संकोच के उस पर टिप्पणी की है (उन्होंने नयनतारा सहगल पर, उनकी नई किताब के हाल में ही हुए विमोचन के मौके पर ऐसी ही मेहरबानी की है). मैं मान लेती हूं कि उन्होंने यह सब कुछ कहा है, और तब आइए हम बस कुछ तथ्यों पर नजर डालते हैं.

पहला: मैंने कभी भी नक्सलवादियों को ‘बंदूकधारी गांधीवादी’ नहीं कहा है. मैं उतनी बेवकूफ नहीं हूं. यह आउटलुक के कॉपी एडिटर द्वारा लगाया गया फोटो कैप्शन था. मैं इस विद्वान प्रोफेसर से यह उम्मीद करूंगी कि लापरवाही में ऐसे ही टिप्पणी करने से पहले वे मेरे लिखे को – इस मामले में मेरे निबंध ‘वॉकिंग विद द कॉमरेड्स’ को – सावधानी के साथ पढ़ने की मेहरबानी करें.

दूसरा: गांधी ने ‘जाति व्यवस्था को काम और कर्तव्य पर आधारित व्यवस्था बनाने की कोशिश’ नहीं की. गांधी से कुछ हजार साल पहले से जो जाति व्यवस्था चली आ रही थी, वह काम और कर्तव्य पर आधारित व्यवस्था थी. इसमें लोगों को परंपरागत और खानदानी पेशे सौंपे गए थे और उन्हें कर्तव्यों और हकदारियों के एक दर्जावार खांचे में बंद कर दिया गया था. जाति के खिलाफ पूरा संघर्ष इसी के बारे में है!

तीसरा: मुझे यह पक्का पता नहीं कि ‘अस्पृश्यता जैसे व्यवहारों के बारे में एक यथार्थवादी रवैए’ का क्या मतलब है. सच में, इसका क्या मतलब हैॽ

चौथा: मैंने कभी नहीं कहा कि गांधी का काम किसी साजिश का हिस्सा था.

पांचवा: मैं गांधी के बारे में अपनी राय नहीं बदलूंगी.

वैसे लोग यह क्यों कहते हैं कि ‘वह एक महान लेखिका है॒ और फिर मेरे नाम के साथ ऐसी बेवकूफी भरी बातें जोड़ देते हैं, जो मैंने कभी नहीं कहींॽ मैं कभी कभी सोचती हूं कि क्या यह कोई मर्दानगी का मामला हैॽ सबसे पहले तो इस मामले में यह बात कोई मायने नहीं रखती कि मैं एक महान लेखिका हूं या एक महान बेवकूफ. क्यों नहीं सिर्फ उस पर बात की जाए, जो मैंने लिखा हैॽ या अगर इसमें बड़ी मेहनत लगनी है, तो क्यों नहीं सिर्फ उन बातों पर बात की जाए जो गांधी ने कही थींॽ उन्हें खारिज कीजिए, उनका खंडन कीजिए, उनसे बहस कीजिए. कहिए कि मैंने उन्हें अपने से गढ़ा है. कहिए कि कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा (गांधी वांग्मय) फर्जी है. किसी के बचाव का यह कैसा तरीका हैॽ


एक मशहूर इतिहासकार एम.जी.एस. नारायण ने आपके नजरिए की आलोचना करते हुए एक लेख लिखा है: ‘एक अच्छे उपन्यासकार के बतौर अरुंधति की हैसियत उन्हें इसके लायक नहीं बनाती कि वे इतिहास और राजनीति पर टिप्पणियां करें...उन्हें डॉ. बी.आर. आंबेडकर, अय्यनकली और मार्क्सवादियों को खुश करने के लिए हमारे राष्ट्रपिता का अपमान करने के बजाए कोई दूसरा उपाय खोजना चाहिए था...’
मुझे यह बात अच्छी लगी कि वे ऐसा सोचते हैं कि मैं लोगों को खुश करने की कोशिश कर रही हूं – यह तो मेरी कायापलट ही है! लेकिन इतिहास की अपनी समझ से एम.जी.एस. नारायण को यह पता होना चाहिए था कि आंबेडकरियों और मार्क्सवादियों को एक ही साथ खुश करना असल में नामुमकिन है. जो भी हो, यहां भी हमें फिर से वही बात मिलती है - ‘एक अच्छे उपन्यासकार के बतौर अरुंधति की हैसियत उन्हें इसका अधिकार नहीं देती...’ ! अरुंधति रॉय के अधिकारों और कर्तव्यों का वही मुद्दा. वही मर्दानगीॽ या फिर यह जाति का वही धोखेबाज चेहरा हैॽ एक अच्छा (अच्छी) उपन्यासकार किन किन विषयों पर टिप्पणी कर सकती हैॽ इतिहास नहीं, राजनीति नहीं, तो फिर क्याॽ बेबी फैशनॽ चमड़ी की देखभालॽ क्या कोई सूची बनाई गई हैॽ क्या अच्छे (अच्छी) उपन्यासकारों को कम से कम, राष्ट्रपिता को उद्धृत करने की इजाजत हैॽ या फिर हमें इसके लिए तीन प्रतियों में अपनी अर्जी पेश करनी होगीॽ क्या हमें सिर्फ जाने-माने इतिहासकारों द्वारा प्रमाणित चुने हुए उद्धरणों का ही इस्तेमाल करना होगाॽ


गांधी को उद्धृत करने के सवाल पर तिरुअनंतपुरम में एक यूथ कॉन्ग्रेस सेमिनार में बोलते हुए शशि थरूर ने इसकी तरफ ध्यान दिलाया कि गांधी ने जिन शब्दों का इस्तेमाल किया था, वे इतिहास के उस खास दौर से ताल्लुक रखते थे और उनके आधार पर कोई उनकी आलोचना नहीं कर सकती. उन्होंने यह भी कहा कि गांधी का नजरिया 21वीं सदी के भी अनुकूल है और उनके संदेश पूरी तरह ट्वीट करने लायक हैं. उन्होंने यह भी कहा कि गांधी-विरोधी विवादास्पद टिप्पणियां उस महापुरुष के बारे में आपकी गलत समझ का नतीजा हैं.


आह, मैं बेचारी-भ्रमित, चीजों को समझने में नाकाबिल, मैंने सबकुछ गलत समझा-शायद मुझे कोचिंग क्लासेज की जरूरत है. देखिए, मैंने गांधी विरोधी विवादास्पद टिप्पणियां नहीं की हैं. मैंने गांधी द्वारा कही गईं कुछ बेहद विवादास्पद बातों को उद्धृत किया है. अगर एक सांसद और जानेमाने लेखक शशि थरूर मानते हैं कि गांधी का काम और उनका बयान – काले अफ्रीकियों को ‘काफिर’ और ‘जंगली’ कहना, दक्षिण अफ्रीका में औपनिवेशिक युद्ध में ब्रिटिशों का साझीदार बनना और यह कहना कि ‘अछूत’ गायों से कम समझदार हैं – गांधी के दिनों में कबूल करने लायक थे और 21वीं सदी के लिए भी जायज हैं, तब यह बात थरूर के बारे में काफी कुछ बता देती है. यह बताती है कि जाति और नस्ल के बारे में उनका क्या नजरिया है, इतिहास की उनकी क्या जानकारी है – गांधी के पैदा होने के भी काफी पहले से भारत में दूसरे लोग जो कर रहे थे, कह रहे थे और लिख रहे थे इसके बारे में उनकी क्या जानकारी है.


बुजुर्ग मलयाली कवि और कार्यकर्ता सुगताकुमारी ने भी आपकी इस टिप्पणी पर आपकी खिंचाई की है कि गांधी की आम तौर पर स्वीकृत सार्वजनिक छवि पूरी तरह झूठ थी. उन्होंने आप पर गांधी के प्रति और महात्मा शब्द के प्रति नफरत से भरे होने का आरोप लगाया है.
जहां तक सुगताकुमारी के गुस्से की बात है – मुझे यह कहने दीजिए कि झूठ सिर्फ वही नहीं होता, जो आप किसी को बताते हैं, बल्कि झूठ वह भी होता है जिसे बिना कहे छोड़ दिया जाता है. मैंने यह जो बात कही कि पाठ्यपुस्तकों में जिस गांधी को परोसा गया है वह झूठ है, उसके पीछे की वजह यह है कि उनके जीवन और समय और लेखन के बारे में बहुत ही परेशान कर देने वाली बातें छोड़ दी गई हैं. जो चीज छोड़ दी गई है और जो चीज रखी गई है, इस चुनाव के पीछे एक पैटर्न है और राजनीति है जो चीजों को गंभीर तरीके से झूठ बनाती है.

गांधी के इन पहलुओं से निबटने की तो छोड़ ही दीजिए, उनका सामना करने की नाकाबिलियत उनका बचाव करने वालों की छवि को धूमिल कर रही है. मुझे ऐसा लगता है कि वे मुझ पर गांधी को न पढ़े होने का जो इल्जाम लगा रहे हैं, वे खुद इसके दोषी है. और अगर सचमुच उन्होंने गांधी को पढ़ रखा है, तब तो मैं चीजों तो जितना सोच रही हूं, वे उससे भी खतरनाक हैं. आप गांधी को उन पूर्वाग्रहों से - जिन्हें गांधी खुद सार्वजनिक रूप से खुशी खुशी कबूल करते थे - दोषमुक्त दिखाने के लिए द आयडियल भंगी की व्याख्या कितनी भी घुमा फिरा कर करें, यह रचना आधी सदी में पसरे एक राजनीतिक सफरनामे की सिर्फ एक कृति है. जाति के सवाल पर गांधी का नजरिया और उनका काम एक ही जैसे बने रहे. मैं इन नजरियों के प्रति नफरत से नहीं भरी हूं, नहीं. मैं उनके बारे में जो महसूस करती हूं, उसे बताने के लिए ‘नफरत’ एक बहुत ही हल्का और अधूरा शब्द है.


साहित्यिक आलोचक और कालीकट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रहे एम.एन. कारासरी ने एक लेख में आपकी हिमायत करते हुए कुछ दिलचस्प बातें कही हैं: ‘इन पागलपन भरे विवादों के बीच, यह बात बार बार स्थापित की जा रही है कि गांधी पवित्र हैं. लेकिन राजनीतिक नेताओं को इस पर गौर करना चाहिए कि इस जमीन पर पवित्र कही जाने वाली कोई चीज नहीं है. उसे होना भी नहीं चाहिए. यहां हर चीज धर्मनिरपेक्ष है. अगर कुछ ‘पवित्र’ है तो वह कहने की आजादी की राह में रोड़ा है और हमारे संविधान के खिलाफ है.’
ऐसी समझदारी और साफगोई के लिए बहुत आभार महसूस होता है. लेकिन इस देश के बारे में यही बात शानदार है. पागलपन भरी हठधर्मी और पूर्वाग्रहों के बावजूद, कुछ लोग हमेशा ऐसे होते हैं जो उसके सामने उठ खड़े होते हैं. केरल में अनेक लोग हैं, केरल विश्वविद्यालय का इतिहास विभाग भी इसमें शामिल है, जिसने मुझे बुलाया था.


जब मार्क्सवादी सिद्धांतकार और केरल के पूर्व मुख्यमंत्री ई.एम.एस. नंबूदिरीपाद ने धार्मिक कट्टरपंथ के लिए गांधी की आलोचना की थी, तो मशहूर लेखक और राजनीतिक कार्टूनिस्ट ओ.वी. विजयन ने जवाब में लिखा था कि गांधी लिबरेशन थियोलॉजिस्ट थे.
गांधी किसी भी तरह से लिबरेशन थियोलॉजिस्ट नहीं थे. किसी भी तरह से नहीं.


हालांकि काले अफ्रीकी लोगों के बीच गांधी की हैरान कर देने वाली प्रतिष्ठा है. क्या आपकी गांधी-विरोधी टिप्पणियों पर कोई अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया आई हैॽ
यह एक रहस्य ही है कि गांधी की प्रशंसा वही लोग करें, जिनका उन्होंने अक्सर इतने दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से वर्णन किया है. ‘द डॉक्टर एंड द सेंट’ अभी भारत के बाहर प्रकाशित नहीं हुई है. 


‘द डॉक्टर एंड द सेंट’ में आपने इसका जिक्र किया है कि गांधी ने जॉर्ज जोसेफ को वायकोम सत्याग्रह के दौरान हिंदुओं के ‘आंतरिक मामले’ में दखल देने से रोक दिया था. उन्हें भूख हड़ताल पर जाने की इजाजत नहीं दी गई. इस पर अपने दादा के बारे में खूब लिखने वाले, गांधी के पोते तथा देवदास और लक्ष्मी गांधी के बेटे गोपालकृष्ण गांधी की टिप्पणी दिलचस्प है: ‘लेकिन वायकोम में वे विरोध के तरीके के बतौर जोसेफ या किसी और के भूख हड़ताल करने के पक्ष में नहीं थे. क्योंॽ मुझे लगता है कि भोजन को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के बारे में उनके इस विरोधाभास की वजह भूख हड़ताल और उपवास के बीच फर्क में निहित है, और इस कार्यवाही से जुड़ी संभावित धमकी में निहित है. एक भूख हड़ताल दबाव डालने की सीधी-सरल तरकीब है, यह उपवास से नैतिक रूप से कमतर है. और अगर इसमें बल है भी, तब भी इसमें सम्मान नहीं है. जबकि उपवास में प्रायश्चित, आत्म-शुद्धि और विचारों, शब्दों और कार्यों की संपूर्ण अहिंसा है और इन सबके साथ यह अपनी बात मनवाने का ऐसा तरीका है, जिसको सिर्फ एक माहिर व्यक्ति ही कर सकता है और इसलिए इसका इस्तेमाल केवल सत्ता पर ही नहीं, बल्कि समान रूप से समाज पर भी होता है. गांधी इसी तरह आगे चल कर केलप्पन को भी रोकने वाले थे.’ (केरला एंड गांधी, इंडियन लिटरेचर, जुलाई/अगस्त 2012.) 


येरवदा जेल में गांधी को जबरदस्ती करने और हर मुमकिन अनुचित तरीके से दबाव डालने की तरकीब के रूप में भूख हड़ताल/आमरण अनशन का – आप इसे जो भी कहें – इस्तेमाल करने में तो कोई हिचक नहीं हुई. तब आंबेडकर को सार्वजनिक दबाव के कारण और इस डर से पूना समझौते पर दस्तखत करना पड़ा कि अगर वे नहीं झुके तो अछूत समुदाय को भारी हिंसा का सामना करना पड़ेगा और उसे गांधी की मौत जिम्मेदार ठहराया जाएगा. रैम्से मैक्डोनॉल्ड का कम्युनल अवार्ड रद्द कर दिया गया, जो दलितों को अपना खुद का निर्वाचन मंडल बनाने का अधिकार देता था और आंबेडकर बरसों से इसके लिए लड़ते आए थे. आंबेडकर ने बाद में आमरण अनशन को ‘एक बेईमान और गलीज कार्रवाई’ कहा था. इन सबके विस्तार में जाने की यह जगह नहीं है – लेकिन दलित अब भी पूना समझौते के बुरे असर को झेल रहे हैं. चाहे तो इसके बारे में मायावती से पूछ लीजिए.


प्रधानमंत्री 8 सितंबर को नई दिल्ली में अय्यनकली जयंती समारोह का उद्घाटन करेंगे. मैं बस सोच रही हूं कि क्या वे तिरुअनंतपुरम में आपके विवादास्पद भाषण पर टिप्पणी करेंगेॽ
मैं नहीं कह सकती कि मैं इस बारे में सोच सोच कर अपनी रातों की नींद हराम कर रही हूं.


ऐसा क्यों होता है कि जब आप दलितों के बारे में बात करती हैं तो लोग पागल हो जाते हैं. मुझे याद है कि दिल्ली गैंग रेप के बाद आपकी टिप्पणियों पर भी इसी तरह की आलोचनाएं हुई थीं. आप उन घिनौने, गुमनाम अपराधों की तरफ ध्यान खींच रही थीं, जो दलित औरतों के खिलाफ किए जाते हैं.
यह बात आपको उन्हीं से पूछनी पड़ेगी [जो आलोचना करते हैं]. लेकिन एक बात है: दिल्ली गैंग रेप (किसी वजह से ज्यादातर लोग इसका जिक्र करना भूल गए कि उस लड़की की हत्या भी की गई थी, मानो यह कोई छोटी-सी बात हो) वाले साल 2012 में, एनसीआरबी के मुताबिक 1500 दलित औरतों का ‘छूत मर्दों’ द्वारा बलात्कार किया गया था. ऐसा नहीं है कि वे विरोध प्रदर्शन महत्वपूर्ण नहीं थे, उनकी वजह से हमें बलात्कार के खिलाफ एक ज्यादा कठोर कानून हासिल हुआ. लेकिन हमें एक ठोस नजरिए की जरूरत है, नहींॽ 2002 में गुजरात में सैकड़ों मुसलमान औरतों का बलात्कार हुआ, लेकिन हमसे उम्मीद की जाती है कि हम उससे ‘आगे बढ़’ जाएं, नहींॽ अगर आप उनके बारे में या कुनन पोशपुरा में फौज द्वारा कश्मीरी औरतों के सामूहिक बलात्कार की बात करें तो लोग चिल्ला कर आपकी जुबान बंद कर देंगे.


तथाकथित अछूतों के लिए आपकी चिंता द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स की बुनियादी पृष्ठभूमि भी है.
मैं इसे ‘तथाकथित अछूतों के लिए चिंता’ नहीं कहूंगी. उस तरह की मिशनरी भावना को हम गांधीवादियों के लिए छोड़ देंगे. बाकी बातों के साथ-साथ द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स हमारे समाज की बीमारी के बारे में है. जब जाति की बात आती है, तो हमें तथाकथित ‘ऊंची जातियों’, मम्माचियों, बेबी कोचम्माओं और कॉमरेड पिल्लइयों के बारे में चिंता करनी चाहिए. बीमार लोग वे हैं, वेलुता नहीं. उसे उनकी बीमारी का एक बड़े भयानक और त्रासदीपूर्ण तरीके से खामियाजा भुगतना पड़ता है.


एक लेखक होने के नाते, एक ऐसा इंसान होने के नाते जो धारा के साथ बह नहीं जाता, बल्कि उन मुद्दों को उठाता है जिसे बहुत कम लोग उठाने का साहस कर पाते हैं, एक ऐसी शख्सियत होने के नाते जो गर्मागर्म राजनीतिक, पर्यावरणीय मुद्दों/विवादों के केंद्र में है...आपको अपना जीवन कितना जोखिमभरा लगता है? क्या आपकी मां समेत आपके प्रियजन आपकी सुरक्षा को लेकर चिंतित नहीं होतेॽ
इस देश की जनता मुझसे कहीं ज्यादा मुश्किल लड़ाइयां लड़ रही है और उससे कहीं ज्यादा बड़े खतरे उठा रही है. हरेक 16 मिनट में एक दलित के खिलाफ एक अपराध किया जाता है. 2012 में जातीय उत्पीड़नों में 650 दलितों की हत्या कर दी गई. अभी, जिस समय हम बात कर रहे हैं, हजारों मुसलमान शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं, जबकि हत्यारे फरसे और तलवारें चमकाते हुए दसियों हजार की तादाद में महासभाएं कर रहे हैं, वे और भी अधिक हिंसा का ऐलान कर रहे हैं. मैं उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर की बात कर रही हूं. कश्मीर में, मणिपुर में लोग मारे जा रहे हैं. पूरे देश में हजारों लोग जेल में हैं, जिसमें मेरे करीबी दोस्त भी शामिल हैं. जहां तक मेरी मां के फिक्र करने की बात है, वो उस तरह की मां नहीं हैं. वे एक मजबूत दमखम वाली महिला हैं.


अंधभक्ति के अंधड़ में आपने बड़े साहस के साथ उन लोगों के लिए एक चिराग जलाया है, जो गांधी के कुछ पहलुओं से निराश हैं. आपको इससे किस तरह के नतीजे की उम्मीद हैॽ आप इस बहस से किस तरह के सकारात्मक नतीजे की उम्मीद करती हैंॽ
नतीजा सिर्फ सकारात्मक ही हो सकता है. एक छुपा कर रखी गई बात को उजागर करना – या कम से कम उन चीजों की तरफ इशारा करना, जिन्हें खुली नजरों से ओझल रखा गया है, सिर्फ एक अच्छी बात ही हो सकती है. भले ही वह शुरू में थोड़ा दुख पहुंचाए. लेकिन मुझे यह बात पूरी तरह साफ कर देने दीजिए: मैंने आग नहीं जलाई है. इसका श्रेय अनेक अनेक लोगों को जाता है. मैं उनमें से सिर्फ एक हूं.


गांधी के पड़पोते आनंद गोकनी ने टिप्पणी की है कि आप ‘बराबरी में यकीन करनेवाले गांधी के बारे में ऐसे गलत बयान देने के लिए पछताएंगी और अफसोस करेंगी’. उन्होंने जो कहा वो इस तरह है: ‘रॉय ने किसी को खुश करने के लिए चलताऊ बयान दिया है. यह गांधी के बारे में उनकी अपनी राय है और उन्हें ऐसा करने का हक है. लेकिन गांधी के बारे में लिखी गई किताबें पढ़ने वाला हर इंसान उनके बारे में सच्चाई को जानता है. वे एक लेखक और कार्यकर्ता हो सकती हैं, लेकिन उसके परे, उस गांधी के बारे में चलताऊ बयान देना अच्छी बात नहीं है-जो कि एक अंतरराष्ट्रीय हस्ती हैं. इसीलिए अनेक हलकों से उनके बयान के खिलाफ आलोचनाएं उभरीं...’


‘वो लेखिका और कार्यकर्ता हो सकती हैं लेकिन...’ लेकिन, लेकिन, लेकिन, लेकिन. मैंने भविष्य का पता लगा लिया है और मुझे दूर दूर तक इसको लेकर कोई पछतावा या अफसोस नहीं दिखता...देखिए, गांधी अपने परिवार की धरोहर भर नहीं है. वे भारत के विचार की बुनियाद में लगे मुख्य पत्थरों में से एक हैं. गांधीवाद एक उद्योग बन गया है – इसमें बहुमत का शेयर (मेजर स्टेक्स), पैसा, रियल एस्टेट और राजनीतिक तथा अकादमिक संस्थान शामिल हैं. लापरवाही से इसकी आलोचना नहीं की जा सकती है. लेकिन बिल्ली कुछ समय से थैले से बाहर आने के लिए पंजे मार रही थी – अब यह आजाद घूम रही है, गलियारों में दौड़ती फिर रही है. जाहिर है, कुछ बिलौटे भी होंगे और बिलौटों के बिलौटे भी (नाती-पोते). वे अब थैले में वापस नहीं जाएंगे. बात तो निकल पड़ी है. पुलिस किसी काम न आएगी. न ही जेलें. और न ही राजनेताओं की धमियां किसी काम आएंगी.  कुछ समय तक यह थोड़ा मुश्किल होगा, लेकिन आखिर में यह हम सबके लिए अच्छा होगा. एक लंबे दौर को अपनी निगाह में रखें तो थोड़ी ईमानदारी कभी किसी का नुकसान नहीं करती.

[अनुवादक की टिप्पणी: यह साक्षात्कार तब लिया गया था, जब किताब भारत के बाहर प्रकाशित नहीं हुई थी.]

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