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Thursday, October 22, 2015

इण्डोनेशिया में 10 लाख कम्युनिस्टों के क़त्लेआम के पचास वर्ष

आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व 8 अक्टूबर 1965 को इण्डोनेशिया में वहाँ की सेना द्वारा पीकेआई (इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी) के विरुद्ध की गयी सैन्य कार्रवाई में 10 लाख से अधिक कम्युनिस्टों और उनके समर्थकों को क़त्ल कर दिया गया था और 7 लाख से अधिक को जेलों में ठूस दिया गया था। इस नरसंहार को अंजाम देने वाले सैन्य जनरल सुहार्तो ने मार्च 1966 में राष्ट्रपति सुकर्ण का तख़्तापलट किया और सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले ली।
इण्डोनेशिया में हुए 20वीं सदी के इस जघन्यतम नरसंहार पर कॉरपोरेट मीडिया और विश्व के तमाम पूँजीवादी देशों द्वारा अपनायी गयी चुप्पी पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ऐसे दस्तावेज़ हैं जिनसे पता चलता है कि यह सब कुछ इण्डोनेशियाई सेना और अमेरिकी साम्राज्यवाद की मिलीभगत से हुआ था।
पीकेआई (इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी) की स्थापना 1920 में हुई थी और जल्द ही यह विश्व की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियों की क़तारों में शामिल हो गयी। इण्डोनेशिया के मज़दूरों-किसानों में इसका व्यापक असर था और साम्राज्यवाद के विरुद्ध यह पार्टी सशस्त्र संघर्ष की अगुआई कर चुकी थी। वर्ष 1965 तक इसके 35 लाख सदस्य थे और अगर इसमें मज़दूरों, किसानों, छात्रों-युवाओं, महिलाओं आदि के सम्बद्ध संगठनों की सदस्य संख्या भी जोड़ दी जाये तो यह 3 करोड़ तक पहुँचती थी, उस समय इण्डोनेशिया की कुल आबादी 11 करोड़ थी।

इण्डोनेशिया में उभर रही कम्युनिस्ट ताक़त से अमेरिका काफ़ी बेचैन था। वह पहले ही लाओस, कम्बोडिया और वियतनाम युद्ध में बुरी तरह फँसा हुआ था और वियतनाम के कम्युनिस्ट प्रतिरोध के सामने ख़ुद को विवश महसूस कर रहा था। उधर चीन में कम्युनिस्ट सत्ता मज़बूत हो रही थी और उत्तर कोरिया में भी कम्युनिस्ट सत्ता में आ चुके थे। अमेरिकी खुफ़िया एजेंसी का 1965 में यह मूल्यांकन बन चुका था कि यदि कुछ न किया गया तो दो से तीन वर्षों के भीतर इण्डोनेशिया की सरकार कम्युनिस्टों के हाथों में आ जायेगी। इधर इण्डोनेशिया के भीतर भी वर्ग संघर्ष तीखा हो रहा था। राष्ट्रपति सुकर्ण भूमि सुधारों को ज़मीनी स्तर पर लागू करने में टालमटोल का रवैया अपना रहे थे। कम्युनिस्टों ने 1959 के बटाईदार क़ानून और 1960 के मूल कृषि क़ानून के आधार पर किसानों से अपील की कि वे स्वयं ही क़ानून लागू करने के लिए आगे आयें। इसके परिणामस्वरूप ग्रामीण इलाक़ों में किसानों ने भूमि अधिकार को लेकर लामबन्दियाँ शुरू कर दी।
ग़ौरतलब तथ्य यह है कि सेना के अधिकांश जनरल सामन्ती पृष्ठभूमि से आते थे और कम्युनिस्टों से बेहद घृणा करते थे। वर्ष 1965 में इन जनरलों ने ‘काउंसिल ऑफ़ जनरल्स’ नाम से एक कार्यसमूह का गठन किया और जनरल यानी की अध्यक्षता में हुई बैठक में देश की राजनीतिक स्थिति पर चिन्ता ज़ाहिर की। इन उच्च सैन्य जनरलों को अमेरिका की सरपरस्ती हासिल थी। वे सुकर्ण को अपदस्थ करने और कम्युनिस्टों को ख़त्म करने की योजना बना चुके थे और अब उन्हें केवल सही मौक़े का इन्तज़ार था। जल्द ही इण्डोनेशिया में सरकार का तख़्तापलट किये जाने की अफ़वाहें फैलने लगीं। सेना के निचली पाँतों के अफ़सर जो सुहार्तो के प्रति वफ़ादारी रखते थे भड़कावे की इस कार्रवाई  की चपेट में आ गये और उन्होंने 30 सितम्बर 1965 को कुछ शीर्ष जनरलों को गिरफ्तार कर लिया। इस दौरान हुई मुठभेड़ में एक जनरल मारा गया। सेना जिस मौक़े का इन्तज़ार कर रही थी, उसे वह मौक़ा मिल गया। तख़्तापलट की इस कोशिश का सारा दोष पीकेआई के मत्थे मढ़ दिया गया और जल्द ही पूरे देश में कम्युनिस्टों और उनके समर्थकों के सफाये का भयानक ख़ूनी अभियान शुरू कर दिया गया।
महीनों तक पूरे इण्डोनेशिया में सेना के दस्ते, अपराधियों के गिरोह और जुनूनी प्रचार से भड़काये गये मुस्लिम कट्टरपंथियों के झुण्ड कम्युनिस्टों और उनसे किसी भी तरह की सहानुभूति रखने वालों का बर्बरता से क़त्लेआम करते रहे। औरतों, बच्चों, बूढ़ों किसी को नहीं बख्शा गया। प्रगतिशील विचार रखने वाले शिक्षकों, लेखकों, कलाकारों तक को मौत के घाट उतार दिया गया। लोगों के सिर धड़ से अलग करके बांस पर टाँगकर घुमाये गये। रेडक्रॉस इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार लाशों के कारण महीनों तक कई इलाकों में नदियों का पानी लाल रहा और महामारी फैलने का ख़तरा मंडराता रहा। अब ऐसे दस्तावेज़ सामने आ चुके हैं जिनसे साफ है कि सीआईए ने कम्युनिस्टों और उनके हमदर्दों की सूचियाँ मुहैया करायी थीं। लेकिन इस आधी सदी के दौरान इतिहास के इस बर्बरतम जनसंहार पर पर्दा डालकर रखा गया है।
डिस्कवरी और हिस्ट्री चैनल जैसे साम्राज्यवादी भोंपू जो आये दिन स्तालिन और माओ को हत्यारा और तानाशाह घोषित करते रहते हैं वे कभी इस भयानक घटना का ज़िक्र भी नहीं करते। इण्डोनेशिया की साम्राज्यवाद परस्त हुकूमतों ने आधी सदी तक इस घटना का उल्लेख करने तक को अपराध बना दिया था। इसके बारे में न किसी अखबार में लिखा जा सकता था और न ही इसकी जाँच की माँग की जा सकती थी। लेकिन लाखों कम्युनिस्टों का ख़ून धरती में जज़्ब नहीं रह सकता। इण्डोनेशिया में इतिहास के इस ख़ूनी दौर से पर्दा उठने लगा है, ख़ामोशी टूटने लगी है।


जनसमर्थन और सांगठनिक विस्तार के नज़रिये से देखा जाये तो इण्डोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी बेहद मज़बूत पार्टी थी लेकिन विचारधारात्मक तौर पर वह पहले ही ख़ुद को नख-दन्तविहीन बना चुकी थी। असल में 1950 के दशक में ही उसने समाजवादी लक्ष्य हासिल करने का शान्तिपूर्ण रास्ता चुना। वर्ष 1965 तक उसने न सिर्फ़ अपने सशस्त्र दस्तों को निशस्त्र किया बल्कि अपना भूमिगत ढाँचा भी समाप्त कर दिया। विचारधारा के स्तर पर वह पूरी तरह सोवियत संशोधनवाद के साथ जाकर खड़ी हो गयी। उसने इण्डोनेशियाई राज्यसत्ता की संशोधनवादी व्याख्या प्रस्तुत की और दावा किया कि यहाँ के राज्य के दो पहलू हैं – एक प्रतिक्रियावादी और दूसरा प्रगतिशील। उन्होंने यहाँ तक कहा कि इण्डोनेशियाई राज्य का प्रगतिशील पहलू ही प्रधान पहलू है। यह बात पूरी तरह ग़लत है और अब तक के क्रान्तिकारी इतिहास के सबक़ों के खि़लाफ़ है। राज्य हमेशा से ही जनता के ऊपर बल प्रयोग का साधन रहा है। शोषकों के हाथों में यह एक ऐसा उपकरण है जिसके ज़रिये वह शोषणकारी व्यवस्थाओं का बचाव करते हैं। पूँजीवाद के अन्तर्गत प्रगतिशील पहलू वाले राज्य की बात करना क्रान्ति के रास्ते को छोड़ने के बराबर है। यह राजनीतिक लाइन पहले भी इतिहास में असफल रही है और एक बार फिर उसे ग़लत साबित होना ही था। लेकिन इस ग़लत राजनीतिक लाइन की क़ीमत थी 10 लाख कम्युनिस्टों की मौत और लाखों को काल कोठरी।
सीपीएम जैसे दोगले कम्युनिस्ट तो इस घटना को भूलकर उसी इंडोनेशियाई कम्पनी के साथ मिलकर पश्चिम बंगाल में पूँजी निवेश करा रहे थे जिसने इस जनसंहार में मदद की थी। लेकिन सच्चे कम्युनिस्टों को अपने लाखों कम्युनिस्ट भाई-बहनों के क़त्लेआम को कभी भूलना नहीं चाहिए। पूँजीवाद और साम्राज्यवाद को बहे हुए ख़ून के एक-एक क़तरे का हिसाब चुकाना ही होगा।

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