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Friday, August 5, 2016

हम तो कलम के सिपाही हैं - वरवर राव

  प्रस्तुत है पहला भाग........
(वरवर राव के साथ बातचीत)
भाग-1

नाटककार रामू रामनाथन को दो भागों में दिये गये अपने साक्षात्कार के पहले भाग में ’विरसम’ के संस्थापक सदस्य, माओवादी विचारक एवं तेलुगु कवि वरवर राव ने एक बुद्धिजीवी की भूमिका को महŸवपूर्ण माना है। इस साक्षात्कार में उन्होंने भारतीय राज्यसŸाा द्वारा दमन के इतिहास पर और राज्य का दर्जा प्राप्त कर चुके तेलंगाना से जुड़े मुद्दों पर बात की है।



रामू रामनाथन: वर्तमान हैदराबाद और वर्तमान तेलंगाना के बारे में आपके क्या खयाल हैं?
वरवर राव: तेलंगाना सरकार चंन्द्रशेखर बाप-बेटे की सरकार है। बाप एक ओर विकास के पुराने माॅडल के अनुरूप खेती और सिंचाई की बातें करता है और ’बंगार तेलंगाना’ (स्वर्णिम तेलंगाना) बनाने के वादे करता है। किसान आत्महत्या करते जा रहे हैं और वह लफ्फाजी में लगे हैं। दूसरी ओर बेटा औद्योगिकीकरण की बातें करता है। टाटा तेलंगाना का ब्रांड एंबेसडर बन गया है। हैदराबाद के पास की पाँच हजार एकड़ जमींनें विमानन उद्योग को दे दी गयी हैं।
रामू रामनाथन: चन्द्रबाबू नायडू भी तो हैं?
वरवर राव: चन्द्रबाबू ने तो आंध्र प्रदेश में और ज्यादा उद्योगों को न्यौता देने का प्रयास किया है। लेकिन ध्यान रखिए, माओवादी एक बार फिर तेलंगाना में प्रवेश करने की तैयारी कर रहे हैं क्योंकि हमारा शीर्ष नेतृत्व अभी भी सुरक्षित और मजबूत है।
रामू रामनाथन: पिछले साल (2014 में) तेलंगाना की राज्य सरकार ने एक कान्फ्रेंस का आयोजन रुकवा दिया था। क्या यही असली चेहरा है नयी सरकार का?
वरवर राव: हाँ! जिस तरीके से 21 सितम्बर 2014 की हमारी मीटिंग रोकी गयी वह इसका सबसे बड़ा सबूत है। डाॅ0 रमानाथम की हत्या के बाद भी ऐसा ही हुआ था। हैदराबाद में सारस्वत परिषद् में एक सभा हुई थी। वक्ताओं को बोलने की अनुमति तो गयी लेकिन श्रोताओं को भीतर नहीं जाने दिया गया। बाहर अर्द्धसैन्य बलों को तैनात किया गया था और वे श्रोताओं को सभागार में घुसने नहीं दे रहे थे। इसी तरह, 21 सितम्बर 2014 को सुन्दरय्या विज्ञान भवन मंे, जो कि किसी ट्रस्टी द्वारा संचालित एक निजी सभागार है, होने वाली हमारी मीटिंग को सरकार ने रोक दिया था। सात सौ लोगों को गिफ्तार किया। उसके बाद, तेलंगाना विद्यार्थी वेदिका के छात्रों की सभा तक को अनुमति नहीं दी गयी। दूसरी तरफ विवेक, सूर्यम् जैसे लोगों की और आदिवासी लड़कियों की हत्याएँ हो रही हैं।
रामू रामनाथन: सात सौ लोग गिरफ्तार हुए...
वरवर राव: सरकार कहती है कि ये लोग औद्योगिक नीतियों में बाधा डाल रहे हैं और इन लोगों को मीटिंग करने दी गयी तो इससे कारपोरेट निवेशकों का भरोसा कम हो जायेगा। सुन्दरय्या विज्ञान भवन जैसे स्थान पर मीटिंग रुकवाना और उसके सामने के पार्क को जेल बना डालना तो और ज्यादा घटिया काम है।
रामू रामनाथन: तो 43 लोगों को थाने में कैद कर लिया गया।
वरवर राव: जी हाँ, युगप्रवर्तक कवि श्रीश्री को भी 1975 में यहीं बंद किया गया था। हमारी गिरफ्तारी के दूसरे दिन, हमारी सचिव लक्ष्मी ने एक तेलुगु दैनिक पत्र में लेख लिखा ’’कौन कहता है कि मीटिंग नहीं हुई ?’’
रामू रामनाथन: क्यों, क्या हुआ ? कैसे हुई मीटिंग ?
वरवर राव (हँसते हुए): जेल में हम सभी लोग थे ही। हमने तो बल्कि चैन से बिना किसी विघ्न के अपनी मीटिंग कर ली।
रामू रामनाथन: ज्ैत् (तेलंगाना राष्ट्र समिति) के ’हरित हरम’ कार्यक्रम पर क्या कहना चाहेंगे ?
वरवर राव: सरकार ने ’हरित हरम’ कार्यक्रम आदिवासियों की जमीनें हड़पने के लिए बनाया है। के. चन्द्रशेखर राव अकेले ही वे सब काम कर रहे हैं जो चन्द्रबाबू नायडु और वाई. एस. राजशेखर रेड्डी मिलकर भी नहीं कर पाये। वे विश्व बैंक के सबसे उम्दा पिट्ठू हैं। अंतर केवल इतना है कि वे बहुत शातिर आदमी हैं। इस बात को समझिए कि पन्द्रह वर्षों के लम्बे आंदोलन के दौरान वे तैयार हुए हैं। वह आदमी जनता की नब्ज पहचानाता है और उसे कैसे चुप कराना है, वह जानता है।
रामू रामनाथन: 1970 में स्थापित हुए विरसम (विप्लव रचयिताला संघम्, रिवोल्यूशनरी राइटर्स एसोशिएशन) जैसे संगठनों की आज क्या स्थिति है?
वरवर राव: ’विरसम’ अपने 45 वर्ष पूरे कर चुका है। श्री श्री, कुटुम्बा राव, रचाकोण्डा विश्वनाथ शास्त्री, के. वी. रमण्णा रेड्डी, ज्वालामुखी, निखिलेश्वर, चेराबण्डा राजू, चलासानी प्रसाद, कृष्णा बाई और मैंने विरसम की स्थापना की थी। नयी पीढ़ी, खासतौर से दलित पृष्ठभूमि से आने वाले छात्र, पिछले दशक में विरसम से जुड़ते रहे हैं।
रामू रामनाथन: दलितों के विरसम से जुड़ने के क्या कारण हैं?
वरवर राव: इसके पीछे दो कारण हैं। एक तो जो दलित आंदोलन करमचेदू नरसंहार के बाद लड़ाकू ढंग से शुरू हुआ था, वह चुन्दूर नरसंहार के समय, सन् 1992 से, कमजोर पड़ने लगा। इसके कमजोर पड़ने की मुख्य वजह यह थी कि इसके नेतृत्व को लगता था कि यह सिर्फ आत्म-सम्मान का आंदोलन है। जमीन के सवाल से उन्होंने इस आंदोलन को जोड़ा ही नहीं। आज वे केवल वोट के सहारे अपने अधिकार पा लेना चाहते हैं। इसलिए करमचेदू की घटना के बाद से जो दलित युवा वर्ग आंदोलन से जुड़ा, उसका मोहभंग होने लगा सन् 1992 तक। और भूमण्डलीकरण की घातक शक्तियाँ भी धीरे-धीरे क्रांतिकारी आंदोलन में प्रवेश करके उसे कमजोर कर रही थीं।
रामू रामनाथन: कैसे ?
वरवर राव: सन् 1992 में , जब आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री नेदुरुमिल्ली जनार्दन रेड्डी थे, तब यही दलित आंदोलन अलग रूप ले चुका था। मुख्यमंत्री ने ऐलान किया कि चुन्दुर नरसंहार के जो-जो आरोपी रेड्डी जमींदार लोग आत्मसमर्पण नहीं करेंगे उनकी जमीनें जब्त कर ली जायेंगी। यह अच्छा मौका था, क्रांतिकारी आंदोलन के साथ मिलकर विरसम ने गेेंद मुख्यमंत्री के पाले में उछालते हुए माँग उठायी कि इस भले काम की शुरूआत जब्त की गयी जमीनों को पीड़ितों में बाँटकर की जाये। हमने इसके लिए एक कमीटी बनायी। पी. जी. वर्धन राव इस कमीटी के समन्वयक थे और तारकम थे अध्यक्ष। तब राज्य विधानसभा के स्पीकर ने पी. जी. वर्धन राव को, जो चुन्दूर के पास तेनाली में रहते थे, जान से मारने के लिए एक माफिया को भेजा। ताकि वे डर जायें।
रामू रामनाथन: आज स्वच्छंद किस्म के दलित आंदोलनों और अस्मिता (पहचान) वाले आंदोलनों की सबसे बड़ी अड़चन ये है कि वे स्टेट के चरित्र को समझते ही नहीं। क्या आपको लगता है ’विरसम’ अकेला संगठन है जिसने कदम-कदम पर स्टेट के चरित्र उद्घटित किया है ...
वरवर राव: हाँ। स्टेट कोई अमूर्त चीज तो है नहीं। यह शासक वर्ग के चरित्र को और उत्पादन शक्तियों के संघर्ष को दर्शाता है। जब हम समाज को अर्द्धसामंती, अर्द्ध औपनिवेशिक और दलाल कहते हैं तो इसका मतलब यही होता है कि इन्हीं ताकतों का स्टेट पर कब्जा है। इसलिए यह व्यवस्था दूसरे वर्गों का दमन और उत्पीड़न करती है। नक्सलबाड़ी के बाद, किसान और मजदूर वर्ग की अगुवाई में इन सभी वर्गों ने इस व्यवस्था के खिलाफ जनयुद्ध छेड़ दिया है। इसलिए, भूमि और मुक्ति के लिए जनता के संघर्ष का मकसद है स्टेट से ताकत छीन लेना। जिन लेखकों के पास दुनिया को देखने का माक्र्सवादी नजरिया है, केवल वे ही स्टेट के चरित्र से जनता को रूबरू करा सकते हैं ताकि जनता क्रांतिकारी विचारधारा से खुद को लैस कर सके। ’विरसम’ का अपना घोषणापत्र है, माक्र्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद (मालेमा) हमारी विश्वदृष्टि है और इस मुद्दे पर, हमारा नजरिया एकदम स्पष्ट है।
रामू रामनाथन: आज के हालात के हिसाब से हम क्यों कहते हैं कि 1991-1992 ने मूवमेंट को काफी दूर तक प्रभावित किया है।
वरवर राव: तीन बातें हुईं। 1991 के बाद से नव-उदारवादी शक्तियों और हिन्दुत्व की शक्तियों का गठजोड़ कायम हुआ, साथ ही भारत में जनतांत्रिक मूल्यों में लगातार गिरावट आती गयी। 1991 पहला जाहिर हमला था वैश्वीकरण की शक्तियों का और 1992 में बाबरी मस्जिद ढहाई गयी। इन सब के शुरूआती लक्षण तो अस्सी के दशक में ही मिलने लगे थे जब 1984 में सिखों का कत्लेआम किया गया, भोपाल गैस त्रासदी हुई और देश को 21वीं सदी में ले जाने जैसी बातें करने वाले राजीव गांधी का कांग्रेस में बड़े नाटकीय अंदाज मंे प्रवेश हुआ। तीसरी घटना थी पीपुल्स वार पार्टी पर आधिकारिक तौर से प्रतिबन्ध लगाया जाना और साथ ही रेडिकल स्टूडेण्ट यूनियन, रेडिकल यूथ लीग, आॅल इण्डिया रिवोल्यूशनरी स्टूडेण्ट फेडरेशन, रैयतु कुली संघम्, सिंगरेनी कार्मिक सामाख्या और दण्डकारण्य आदिवासी किसान मजदूर संगठन जैसे क्रांतिकारी जन-संगठनों पर भी प्रतिबन्ध लगाया जाना।
रामू रामनाथन: मतलब आप यह कहना चाहते हैं कि शासक वर्ग की ये 21वीं सदी में ले चलने वाली बातें आज की सरकार भी कर रही है?
वरवर राव: ’विरसम’ आधुनिक भारत के इतिहास की पूरी राजनीतिक पृष्ठभूमि की व्याख्या कर सकता है। 2002 के गुजरात दंगे, डाॅ0 मनमोहन सिंह द्वारा अंधाधुन्ध वैश्वीकरण और राज्य सरकारों द्वारा साम्राज्यवाद की चाकरी, वो चाहे रमण सिंह हो, नवीन पटनायक हो या पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव हांे- इन सब में एक पैटर्न है।
रामू रामनाथन: यानी इसमें कांग्रेस, भाजपा, बीजू जनता दल और सी.पी.एम. सब के सब शामिल हैं...
वरवर राव: अपनी सभाओं में और अपने गीतों के माध्यम से हम इस पैटर्न को, इस पृष्ठभूमि को, उजागर करते हैं। क्यांेकि इसका दुष्प्रभाव तीन प्रमुख सामाजिक तबकों, खासकर पूर्वी और मध्य भारत के आदिवासियों और पूरे देश में मुसलमानों और दलितों पर पड़ रहा है। मैदानी क्षेत्रों में जोतने वालों को जमीन दिलाना है और फैक्ट्रियों में मजदूरों को उत्पादन पर मालिकाना हक दिलाना है। जंगली इलाकों में आदिवासियों को जल, जंगल, जमीन, इज्जत दिलानी है, उनका स्वशासन लाना है। बाजार इन्हीं सामाजिक तबकों के सस्ते श्रम पर आँख गड़ाये हुए है और प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की फिराक में है।
रामू रामनाथन: और महिलाएँ ? उनका तो जैसे अस्तित्व ही नहीं है।
वरवर राव: मैं जिन तीन प्रमुख सामाजिक तबकों को दमन का शिकार बता रहा हूँ उनमें आधे से ज्यादा संख्या महिलाओं की ही तो है। वैश्वीकरण की नीतियों से सबसे ज्यादा पीड़ित महिलाएँ ही हंै। जैसा कि माओ ने कहा है, गुलामी का जो चैथा जुआ है पितृसŸाा का, उसे महिलाएँ ही ढोती हैं। आज देखिए, इस अर्द्ध-सामंती, अर्द्ध-औपनिवेशिक, दलाल तंत्र में, ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व और पितृसŸाा स्टेट के मौसरे भाई की तरह हंै और स्टेट खुद साम्राज्यवादी वैश्वीकरण का एजेंट बना हुआ है। इसलिए सामान्य दृष्टि से सारी महिलाएँ और विशिष्ट दृष्टि से मेहनतकश महिलाँं सब की सब उत्पीडित हैं। शराबबंदी के संदर्भ में स्टेट की नीति को देख लीजिए, एक गृहस्थ पुरुष भी मालिक और गुलाम की दोहरी भूमिका में होता हंै जब वह घर में हिंसा करता है। उसने अपने घर की औरत को इस हद तक गुलाम बना डाला है कि विद्रोह के सिवा औरत के पास कोई चारा ही नहीं है।
रामू रामनाथन: विरसम इन सब मुद्दों पर कैसे काम करता है ?
वरवर राव: हम इन सब समस्याओं की जड़ स्टेट को समझते हैं और कहानियों, कविताओं, नाटकों और निबन्धों के जरिए हम इसे तफ्सील से समझाते हैं। 2009 के महाराष्ट्र के चुनाव के बाद सरकार ने आपरेशन ग्रीन हण्ट शुरू किया। तभी से हम आपरेशन ग्रीन हण्ट का विरोध कर रहे हैं और विकास के इस एकआयामी माॅडल (जिसमें केवल एक वर्ग के हितों की चिन्ता है, दूसरे वर्गों की या प्रकृति की बिल्कुल चिन्ता नहीं) का विकल्प सुझा रहे हैं। आपात्काल के दौरान मैंने ’फानशेन’ का संक्षिप्त अनुवाद पढ़ा जो तेलुगु में ’विमुक्ति’ शीर्षक से छपा था। उसी समय मैंने नक्सलबाड़ी संघर्ष द्वारा अपनायी गयी नीतियों का महत्व समझा। विरसम नक्सबाड़ी और श्रीकाकुलम् के संघर्षों से ही प्रेरणा प्राप्त करके संगठित हुआ था।
रामू रामनाथन: कैसे ?
वरवर राव: नक्सलबाड़ी ने कई लेखकों को पैदा किया। आंदोलन से जुड़े रहे श्री श्री, कुटुम्बा राव, रमन्ना रेड्डी, रावी शास्त्री जैसे लेखकों का 1964 में कम्युनिस्टों की राजनीति से मोहभंग हो चुका था। हजारों लोगो की तरह इन लेखकों ने सोचा था कि वर्ग-संघर्ष का जो रास्ता 1951 में छोड़ दिया गया था उसे पुनः अपनाने के लिए ही सी.पी.आई. में विभाजन हुआ है। लेकिन जब इन सारे लोगों का मोहभंग हुआ तो देश के अलग-अलग हिस्सों में विद्रोहियों के अनेक संगठन आकार लेने लगे। तेलुगु में ’दिगम्बर कवुलु’ हो या समर सेन के नेतृत्व में ’भूखी पीढ़ी’’। ये कुछ ऐसे ही साहित्यिक आंदोलन थे।
रामू रामनाथन: क्या यही वह समय था जब वारंगल के कवियों को अपनी रचनात्मकता का आधार मिला ? और रेडिकल आंदोलन अपने स्वर्णिम दौर में पहँुचा?
वरवर राव: हाँ, तेलुगु समाज और साहित्य पर दिगम्बर आंदोलन का गहरा प्रभाव पड़ा। उन कवियों को और वारंगल के कवियों केा तिरुगुबाडु (विद्रोह के कवि) बोला जाता था। इस तरह के लेखक और कवि साथ आये और ’विरसम’ की स्थापना हुई। सुब्बाराव पाणिग्रही हमारे प्रेरणास्रोत थे। नक्सलबाड़ी द्वारा दिखाये गये रास्ते और श्रीकाकुलम के संघर्षों की पे्ररणा के परिणामस्वरूप ’विरसम’ का गठन हुआ।
रामू रामनाथन: श्रीकाकुलम के आदिवासी व किसान संघर्षों के ठण्डे पड़ जाने केा आप कैसे देखते हैं ?
वरवर राव: हालांकि हम चीन की तर्ज पर दीर्घकालिक सशस्त्र संघर्ष द्वारा नवजनवाद लाने की बातें करते थे, लेकिन यह आंदोलन असफल हो गया। इसलिए असफल हुआ क्यांेकि हम जनता केा विश्वास में न ले सके। इस आत्मालोचना के साथ पार्टी ने खुद को पुनर्संगठित किया। कई तरह के जनसंगठन बनाये गये। जनता को विश्वास में लेने का काम जोर शोर से किया गया जिसका परिणाम 1978 मंे जगित्याल जैत्रायात्रा के रूप में सामने आया। जन संगठनों द्वारा लिये गये गाँव चलो अभियानों से और 1980 ब्च्प् ;डस्द्ध पीपुल्स वार की स्थापना से नवजनवादी क्रांति के कार्यक्रम को एक दिशा मिली। अन्ततः 2006 में दण्डकारण्य योजना के आधार पर जनताना सरकार की अगुवाई में जनता के लिए विकास का एक वैकल्पिक माॅडल सामने आया।
रामू रामनाथन: तेलंगाना में जमीनी हालात क्या हैं, आप क्या महसूस करते हैं इस बारे में ? क्या अब भी ’वे’ और ’हम’ का अंतर बना हुआ है।
वरवर राव: जब भी कोई अस्मितवादी (पहचान आधारित) आंदोलन खड़ा होता है, हमें मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। अगर ’वे’ से आपका अभिप्राय डेल्टा के उच्च वर्गीय एवं उच्च वर्णीय लोगों से है, तो हाँ वह अन्तर बना हुआ है। ’हम’ से मेरा अभिप्राय तेलंगाना की उस आम जनता से है जिसके प्रति रायलसीमा और आन्ध्रप्रदेश की भी उत्पीड़ित जनता सहानुभूति रखती है। पृथक तेलंगाना आंदोलन में हमने जिस भावना के साथ भाग लिया, वह आन्ध्र की जनता के खिलाफ कभी नहीं थी।
रामू रामनाथन: ऐसा भी दावा किया जाता है कि बिना खून बहाये तेलंगाना को राज्य का दर्जा मिल गया ?
वरवर राव: ये सब बेसिर पैर की बातें हैं। एक हजार से ज्यादा आत्महत्याएँं हुई हैं। सभी विश्वविद्यालयों के परिसर आॅपरेशन ग्रीन हण्ट का शिकार हुए थे। सभी में बी. एस. एफ. तैनात थी। 29 नवम्बर से 9 दिसम्बर के बीच तो पूरी उस्मानिया यूनिवर्सिटी पैरामिलिट्री का बेस कैम्प बनी हुई थी।
रामू रामनाथन: अभी हाल में जब तेलंगाना प्रजा फ्रण्ट ने मंचिरयाल में कक्षाएंँ आयोजित करायी थीं, तब पुलिस ने कक्षाएँं बाधित की थीं।
वरवर राव: जी हाँ, एकदम! 2004 से ही के. चन्द्रशेखर राव बोल रहे हैं कि तेलंगाना प्रजा फ्रण्ट इन कक्षाओं के जरिए अपने एजेण्डे के मुताबिक माओवादियों की भर्ती करना चाहता है। इसलिए वे हमारा दमन कर रहे हैं और जनता को डराना चाह रहे हैं।
रामू रामनाथन: जनता क्या सोचती है ?
वरवर राव: सरकार की इन कार्यवाहियों को लेकर उस जनता में असंतोष पैदा होने लगा है जिसने यह सरकार चुनी थी। जहाँ तक ’विरसम’ की बात है, हम तो बिना लगा लपेट के बोलते हैं कि हम माओवादी आंदोलन का, नक्सलबाड़ी के पदचिन्हों का, एक वैकल्पिक रास्ते का समर्थन करते हैं। जैसा कि माओ ने, जरा हल्के अंदाज में ही सही, कहा है कि क्रांति हर रोज अपना चेहरा धोने, घर साफ करने की तरह प्रतिदिन का संघर्ष है। इस राजनीति को जन-जन तक पहुँचाने के लिए जरूरी है कि पहले हम इस राजनीति को जानें। हम इसे अपने विवेक से चुनें। इस काम के लिए हमें अपने कलात्मक साधनों को और उन्नत करना होगा। साहित्य से ज्यादा से ज्यादा सीखना होगा। सबसे जरूरी है जनता से, जनता के तौर-तरीकों से सीखना। दृश्य काव्य रूपों और उससे भी ज्यादा वाचिक कला-रूपों को अपनाना, ताकि जन-जन तक यह राजनीति, यह संदेश पहुंचे। इसी उद्देश्य के लिए ’बासागुडा’ नाटक लिखा गया था।
रामू रामनाथन: आपका अन्तिम लक्ष्य क्या है ?
वरवर राव: हमारा मकसद है- एक वैकल्पिक राजनीति, वैकल्पिक संस्कृति और साथ ही वैकल्पिक मूल्यबोध द्वारा विकास के वर्तमान माॅडल को टक्कर देना।
दमन की दास्तान
रामू रामनाथन: आपने महाराष्ट्र के बुद्धिजीवी वर्ग के बारे में बताया। तेलंगाना राज्य बन जाने के बाद तेलंगाना के बुद्धिजीवियों की क्या स्थिति है?
वरवर राव: तेलंगाना में भी वही स्थिति है। ज्यादातर बुद्धिजीवियों और लेखकों को सरकार ने या तो को आॅप्ट कर लिया है या उन्हें चुप करा दिया है। जो ’विरसम’ के साथ हंै या क्रांतिकारी आंदोलन के साथ हंै, उन्हें अलग-थलग कर दिया गया है। दमन अलग से। अभी हाल में आम जन सभाओं पर कितना दमन हुआ है। आम सभाएंँ या रैलियाँ करने की हैदराबाद में इजाजत ही नहीं दी जा रही है। इस तरह के दमन की शुरूआत 1984 में हुई थी। मैंने कहा था न कि आज जो कुछ हम देख रहे हैं वह सब 1984 में शुरू हुआ था जब इन्दिरा गांधी ने स्वर्णमन्दिर में सेना भेजी। इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद तीन हजार सिखों की हत्या हुई। राजीव गांधी ’’हिन्द करेगा हिन्दू राज’’ के नारे के साथ सŸाा में आये। 1984 में ही भोपाल गैस त्रासदी घटी। इसी दौरान 1985 में बाम्बे में, उसी बाम्बे में जहाँ के मिल मजदूर उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों के कर्णधार रह चुके थे, राजीव गांधी ने यह जुमला उछाला कि मैं देश को 21वीं सदी में ले जाऊँगा। यही वह दौर था जब एन. टी. रामाराव आन्ध्र प्रदेश में टाडा लेकर आये। उन्होंने धमकाया कि आटा, माटा, पाटा, बंद। उनका मतलब था कि किसी तरह के प्रदर्शन की, खासतौर से जन नाट््य मण्डली के सांस्कृतिक कार्यक्रमों को, इजाजत नहीं दी जायेगी।
उन्होंने ने यह भी कहा कि 1985 से 1989 तक मैं किसी आम जनसभा या भाषण की इजाजत नहीं दूँगा। आन्ध्र प्रदेश में, विशेषतः तेलंगाना, यह वह दौर था कि जिसमें हो रहे दमन की तुलना लैटिन अमेरिका से की जा सकती है। कम से कम 75 लोग गुमशुदा हो गये। यानी इनका न तो एंकाउंटर हुआ न गिरफ्तारी दर्ज की गयी। कितने ही एन्काउंटर हुए। 16000 टाडा केस दर्ज किये गये। ऐसा पहली बार हुआ कि पीपुल्स वार ग्रुप के हाथों मारे गये पुलिस अफसरों या जमींदारों की मौत का बदला लेने के लिए ।च्ब्स्ब् (आंध्र प्रदेश सिविल लिबर्टीज कमीटी) के या दूसरे राजनीतिक जन संगठनों के नेताओं की हत्या की गयी। 18 जनवरी 1985 को जागित्याल में त्ैै (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के गुण्डों द्वारा गोपू राजन्ना की हत्या के साथ यह सब शुरू हुआ। बाद में यादगिरि रेड्डी की हत्या के बाद बगैर वर्दी के पुलिस ने डाॅ0 रमानाथम की उनकी क्लिनिक में हत्या की। इसी तरह लक्ष्मारेड्डी की हत्या की गयी। सिविल लिबर्टिज कमीटी के नेताओं नरा प्रभाकर रेड्डी, पुरुषोŸाम, आजम अली की हत्या की गयी। इन्हें भी पुलिस और जमींदारों के खिलाफ पीपुल्स वार की कार्यवाही के जवाब में मारा गया था।
रामू रामनाथन: 1990 के दशक में वारंगल की कांफ्रेंस के साथ ही एन. टी. रामाराव का दौर खत्म हो गया। 14 लाख से भी ज्यादा लोग आये इसमें ...........
वरवर राव: दमन के इन पाँच वर्षों के बाद वारंगल में ’रैय्यतु कूली संघम का सम्मेलन हुआ। कुल 14 लाख लोग इसमें शामिल हुए और जमीनें बाँटने का निर्णय लिया गया। जागित्याला के बाद यह भूमि पुनर्वितरण का दूसरा कदम था। इसमें तय किया गया कि भूस्वामी परिवारों के पास कोई दूसरे स्रोत न रहें (यानि जिनके पास कोई आय स्रोत न हो उन्हें जमींने दिलवाई जायें)। पार्टी की यही नीति थी भूमि हदबंदी को लेकर। लेकिन तुरन्त ही दमन शुरू हो गया। 1992 में पार्टी बैन कर दी गयी। यहीं पर नयी आर्थिक नीति की शुरूआत होती है, हिन्दुत्व और वैश्वीकरण का आपसी खेल शुरू होता है और बाबरी मस्जिद ढहाई जाती है। वैश्वीकरण की नीति लागू करने के लिए सन् 1995 में एन.टी. रामाराव और इनसे जुड़े शासक वर्ग की जगह चन्द्रबाबू नायडु का आगमन होता है। सब्सिडी को खत्म कराने के लिए नायडु ने पीपुल्स वार पार्टी को बैन किया, शराब से बैन हटा लिया और ऐसे कितने ही कदम उठाये गये। एन. टी. रामाराव की तरफ से किये गये सभी चुनावी वादों से चन्द्रबाबू नायडू पलट गये। 1995 से 2004 के बीच तकरीबन साढ़े नौ साल तक आंध्र प्रदेश में (और विशेषतः तेलंगाना में) बहुत खून बहा। एन्काउण्टर में हत्याएँ होती रहीं, गुमशुदगी के कितने ही केस हुए। इसके अलावा चन्द्रबाबू ने डी.आई.जी. के अधीन आत्मसमर्पण कर चुके नक्सलियों और माफियाओं को संगठित करना शुरू किया ताकि जनान्दोलनों के नेताओं को गुप्त रूप से या टाइगर, कोबरा या कुछ और नाम धारण करके खुलेआम मारा जा सके।
रामू रामनाथन: सन् 2001 में के0 चन्द्रशेखर राव ने एक नयी पार्टी बनायी जिसका मकसद था संसदीय रास्ते से तेलंगाना को राज्य का दर्जा दिलाना। क्या इसने मूवमेंट को नुकसान पहुँचाया ?
वरवर राव: इस दौरान जंगलों की हजारों-लाखों एकड़ जमीनों पर पीपुल्स वार के नेतृत्व में जनता का कब्जा कायम रहा। लेकिन पुलिस कैम्पों के बनाये जाने की वजह से, दमन की कार्यवाही की वजह से, ये सारी जमीनें बेकार पड़ी रहीं। तो जनता के, समाज के, हितों को ध्यान में रखते हुए, राज्य के सच्चे विकास के लिए चिन्तित कुछ भले लोगों ने कन्सन्र्ड सिटीजन्स कमिटी (ब्ब्ब्) बनायी जिसके संयोजक शंकरन थे। उन्होंने मांग रखी कि सरकार और क्रांतिकारी पार्टियों, खासतौर से ब्च्प् ;डस्द्ध पीपुल्स वार एवं अन्य माक्र्सवादी-लेनिनवादी पार्टियों के बीच वार्ता होनी चाहिए। 2004 के समय नक्सल मूवमेंट के साथ वार्ता एक चुनावी एजेण्डा बन चुका था। तो एक चन्द्रबाबू नायडू को छोड़कर बाकी सभी पार्टियों ने, कांग्रेस, बीजेपी, सी.पी.आई., सी.पी.एम., सब ने बोला कि अगर चन्द्रबाबू नायडू हारते है और कांग्रेस सŸाा में आती है तो वाई एस. राजशेखर रेड्डी बिना शर्त क्रांतिकारी दलों से वार्ता करेंगे। जैसा कि चन्द्रबाबू नायडू ने खुद बोला था कि तीन मुद्दों के इस रिफरेण्डम ने, यानी कि नक्सलाइटों के साथ वार्ता, विश्व बैंक प्रोग्राम और तेलंगाना के मुद्दों ने, मुझे चुनाव हरवा दिया। तो राजशेखर रेड्डी सŸाा में आये और चूंकि यह उनका चुनावी वादा था इसलिए अक्टूबर मंे वार्ता आयोजित करायी गयी। मांग रखी गयी कि जमीनें बांटी जायें, लोकतान्त्रिक अधिकारों को बहाल किया जाये और तीसरा मुद्दा आत्म-निर्भरता का था जिस पर कोई बात नहीं की गयी। खैर, लोकतांत्रिक अधिकारों पर और भूमि सुधारों पर गहन बातचीत हुई। उस वक्त पीपुल्स वार और एम. सी. सी. (माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर) का आपस में विलय हो चुका था और पार्टी, वार्ता के लिए, माओवादी पार्टी के रूप में सामने आयी थी। पार्टी ने कहा कि राज्य में कुल एक करोड़ बीस लाख एकड़ सरप्लस जमीनें हैं और इन्हें बांटना होगा। लेकिन असलियत में सरकार अपने वादों को लेकर गम्भीर नहीं थी। जनवरी 2005 आते-आते माओवादी पार्टी के साथ बातचीत के स्थान पर उसका दमन किया जाने लगा और एन्काउण्टर शुरू हो गये। राजशेखर रेड्डी के शासन में भी वैसा ही दमन हमने झेला जैसा चन्द्रबाबू नायडू के शासन में झेला था। चन्द्रबाबू के समय पूरा माफिया ’टाइगर्स’ नाम धारण करके सक्रिय था। राजेश्वर रेड्डी के समय वही माफिया ’कोबरा’ नाम से काम करने लगा।
रामू रामनाथन: एक हेलीकाॅप्टर दुर्घटना में वाई. एस. राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद अलग तेलंगाना राज्य के लिए चल रहे आंदोलन में तेजी आई। तेलंगाना के लिए साठ साल तक चले इस न्यायसंगत लोकतांत्रिक संघर्ष के बाद जाकर 2 जून 2014 को तेलंगाना को राज्य का दर्जा मिला। तेलंगाना का यह एक वर्ष कैसा रहा?
वरवर राव: जो तेलंगाना हमने प्राप्त किया वह लोकतांत्रिक तेलंगाना नहीं है। इसकी सŸाा एक बूज्र्वा सरकार के हाथ में है। के. चन्द्रशेखर राव ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद हम माओवादी एजेण्डे को लागू करेंगे, लेकिन बदले में उन्होंने दमन चक्रम चलाया। उन्होंने माओवादी पार्टी से बैन भी नहीं हटाया। इतना ही नहीं, उन्होंने रिवोल्यूशनरी डेमाॅक्रेटिक फ्रण्ट पर से भी बैन नहीं हटाया जबकि उस पर यह बैन आंध्र प्रदेश राज्य के अधीन लगाया गया था। तो जब मैं मुम्बई और वर्धा में बुद्धिजीवियों पर बात कर रहा था तो तेलंगाना और आन्ध्र प्रदेश में आज के हालात पर भी बात कर रहा था। मैंने बोला था कि इन दोनों राज्यों में बुद्धिजीवी और लेखक लोग वैसी भूमिका नहीं निभा रहे जैसी उन्होंने तेलंगाना आंदोलन और श्रीकाकुलम् संघर्ष के दौरान निभायी थी।
रामू रामनाथन: अरुण फरेरा की किताब ’कलर्स आॅफ दि केज: ए प्रिजन मेमाॅयर’’ के लोकार्पण के मौके पर आपने एक्टिविस्टों को हिरासत के दौरान टाॅर्चर (यातना देने) और तन्हाई में कैद करने के बारे में बताया था और बताया था कि इस हद का टार्चर तो आन्ध्र प्रदेश में भी नहीं होता...
वरवर राव: फरेरा की किताब पढ़ने के बाद जिस बात से मैं व्यथित हुआ वह यह है कि अब लोकतांत्रिक संघर्षों को भी टाॅर्चर से रोका जा रहा है, खासतौर से फरेरा जैसे व्यक्ति को महीनों तक टार्चर किया गया, न सिर्फ मानसिक रूप से बल्कि शारीरिक रूप से भी। अरूण फरेरा और अशोक रेड्डी का नारकोटिक टेस्ट भी किया गया। इस बात मुझे हिलाकर कर रख दिया। ऐसा नहीं कि आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में इस तरह का टाॅर्चर नहीं होता। लेकिन यह सब ज्यादातर अंडरग्राउण्ड एक्टिविस्टों के साथ होता है, भले वे बुद्धिजीवी हों। इसी तरह एक महेश थे जिन्हें वारंगल जेल में काफी टार्चर किया और सिंगल (एकाकी) सेल में रखा गया।
तेलंगाना के सशस्त्र संघर्ष के दौरान पार्टी के एक लीडर थे चेरावू लक्ष्मी नरसैय्या। उन्हें बरसों तक वारंगल जेल में बाँंध कर रखा गया। उनके बारे में तो मुझे बहुत बाद में पता चला जब वे खम्मम जिले में म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन हो गये और बाद में राज्य के जाने माने लीडर हो गये। तो ऐसा नहीं है कि यातनाओं के ऐसे उदाहरण वहाँं नहीं है, लेकिन यह बस आन्ध्र प्रदेश में लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए चल रहे संघर्षों के (विशेषतः सिविल लिबर्टीज कमीटी की अगुवाई में चल रहे संघर्षों के) प्रभाव से हो रहा है।
रामू रामनाथन: न्।च्। (अनलाॅफुल एक्टिविटीज प्रिवेन्शन एक्ट) जैसे भयानक कानून के बारे में क्या कहेंगे?
वरवर राव: महाराष्ट्र, केरल और बिहार की जेलों से ज्यादा भयानक कुछ भी नहीं। हालांकि सिविल लिबर्टिज कमीटी के आदिवासी नेता सुगुनाथम, जिन्हें न्।च्। में गिरफ्तार किया गया था, केवल एक हफ्ते में जेल से बाहर आ गये। मैंने पहले ही बताया था कि एन टी. रामाराव के समय 16000 टाडा केस हुए थे। पर फिर भी टाडा केस में ही गिरफ्तार 900 लोगों को हमारे सिविल लिबर्टिज के एक लीडर नराप्रभाकार रेड्डी ने डिस्ट्रिक्ट कोर्ट से ही जमानत दिलवा दी थी। इसी तरह बालगोपाल ने 90 आदिवासी लोगों को आदिलाबाद कोर्ट से जमानत दिला दी थी। लेकिन दूसरी ओर गणेश जैसे व्यक्ति 20 साल से जेल में पड़े हैं। फिर भी, महाराष्ट्र ओडिशा और अन्य राज्यों की बनिस्बत तेलंगाना में डेमोक्रेटिक मूवमेंट की स्थिति कुछ बेहतर है (टार्चर इत्यादि के मामले में)। हमारे एक दोस्त सी. वी. सुब्बाराव बोलते थे कि अगर आप अंग्रेजी बोल लेते हैं तो, कम से कम, मरने से बच जाओेगे।
रामू रामनाथन: लेकिन मुख्यधारा का मध्यवर्गीय समाज यह सोचता है कि आखिर क्यों इतने सारे माओवादी जेलों में बंद हैं ?
वरवर राव: उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है, जेलों में ठूँसा जा रहा है क्योंकि वे मूवमेंट केा लीड कर रहे हैं। आप देख लीजिए, माओवादी पार्टी की सेण्ट्रल कमीटी के लगभग 20 आदमी बरसों से जेल में पड़े हैं। यह बात समझनी होगी कि सेन्ट्रल कमीटी के ये 20 सदस्य जेलों में इसलिए सड़ाये जा रहे हैं क्योंकि ये लोग पूर्वी, मध्य और दक्षिणी भारत के आदिवासियों और लाखों-करोड़ों जनता के अधिकारों की लड़ाई का नेतृत्व कर रहे थे। और यह मत समझिए कि ये सिर्फ माओवादी पार्टी को डिफेंड करने के लिए कहा जा रहा है। जंगलों में जो आदिवासियों का सच्चा और खरा मूवमेण्ट हैं और जंगलों से बाहर किसानों और मेहनतकश वर्ग का जो मूवमेण्ट है, यह उसको भी डिफेंड करने की बात है। ये तो हुई एक बात। मोटा-मोटी तीन तरह के मूवमेंट आज चल रहे हंै। पहला है कश्मीर और पूर्वोत्तर का राष्ट्रीयता का, राष्ट्रीय मुक्ति का, आत्म-निर्णय के अधिकार का मूवमेंट। इन क्षेत्रों में आफ्स्पा (।थ्ैच्।) लगाया गया है और असलियत यह है कि कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्य आज सैन्य शासन के बल पर चल रहे हैं। इसलिए दसियों बरस से वहाँ ।थ्ैच्। को हटाने के लिए आंदोलन चल रहा है, इसे और आगे बढ़ाना होगा। दूसरा है माओवादिओं के नेतृत्व में चल रहा क्रांतिकारी आंदोलन। आदिवासियों और किसानों का संघर्ष इसी मूवमेंट का हिस्सा है। तीसरा डेमोक्रेटिक मूवमेंट है। नर्मदा बचाओ आंदोलन इस तरह का मूवमेंट था।
रामू रामनाथन: तो क्या इसीलिए राजनीतिक बन्दियों की रिहाई के लिए वह कमीटी (कमीटी फाॅर रिलीज आॅफ पाॅलीटिकल प्रिजनर्स) यानि कि ब्त्च्च् बनायी गयी थी, ताकि ऐसे आन्दोलनों में लगे लोगों को बचाया जा सके?
वरवर राव: हाँ, इन आंदोलनों में लगे सभी लोगों को राजनीतिक बंदी का दर्जा मिलना चाहिए। क्योंकि ये सब राजनीतिक मांगे हैं जिनके लिए ये लड़ रहे हैं, चाहे वे डेमोक्रेटिक मूवमेंट की मांगे हों या राष्ट्रीयताओं की मुक्ति की या रिवोल्यूशनरी मूवमंेट की। इन सभी आंदोलनों को पाॅलीटिकल मूवमेंट के रूप में परिभााित किया जा सकता है क्योंकि इनका लक्ष्य राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन है। यही वजह है कि ये लोग (चाहे वे मुस्लिम हों जिन्हें इस देश में, खासतौर से हिन्दुत्व के ताण्डव के चलते, दूसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता है) जेलों में बंद हैं। विशेषतया सारे निवारक निरोध अधिनियम (प्रिवेंटिव डिटेंशन) जैसे कि न्।च्।, छै। (राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम) और ब्त्च्ब् के 120 से 128 तक के अनु0, इनके तहत गिरफ्तार किये गये सभी लोग दरअसल राजनीतिक कैदी होते हैं। तो ऐसी एक कमीटी की जरूरत थीं जो पाॅलीटिकल प्रिजनर्स के मामलों को देखे। पूरे देश में ऐसे राजनीतिक कैदियों की रिहाई की मांग करने की जरूरत है। इसीलिए ब्त्च्च् गठित की गयी लेकिन इसे और मजबूत बनाना होगा।
रामू रामनाथन: आन्ध्र प्रदेश में जेलों की क्या स्थिति है ?
वरवर राव: आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना की जेलें इतनी शानदार भी नहीं है जितनी संसदीय समिति बोलती है। सब कुछ सापेक्षिक होता है। लेकिन इसका श्रेय सरकारी नीतियों को नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि आज सरकार में कुछ सदाशयी और सज्जन लोग घुस गये हंै। संघर्षांे का एक लम्बा इतिहास रहा है जिसके कारण ऐसा संभव हो पाया है। खासतौर से कम्युनिस्ट पार्टियों के आंदोलनों के कारण, जो तेलंगाना के सशस्त्र संघर्ष से चले आ रहे हैं, क्योंकि 1940 के दौर से ही अनगिनत कम्युनिस्ट क्रांतिकारी जेलों में बंद रहे। तो यह लगातार संघर्षों की देन है। तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष के दौरान सुन्दरय्या के नेतृत्व में जरना जेल, वारंगल जेल, हैदराबाद जेल में संघर्ष का उदाहरण है। निजाम-विरोधी, उपनिवेशवाद विरोधी संघर्षों में और बाद में नक्सलवादी मूवमेंट और पीपुल्स वार मूवमेंट के दौर में संघर्ष की मिसालें हैं। इसीलिए पिछले तीस वर्षो में तेलंगाना में, बल्कि पूरे आन्ध्र प्रदेश में, जेलों की कोठरियाँं, जेल की हालत, कुछ बेहतर हो गयी है। एक और महत्वपूर्ण संघर्ष था जिसका जिक्र होना चाहिए जो दिसम्बर 1994 से मार्च 1995 के बीच चला था। पहली बार न केवल नक्सल कैदी बल्कि सामान्य कैदी भी एक साथ आये और पटेल सुधाकर रेड्डी एवं सखामूरी अप्पाराव, ये नक्सल कैदी थे, के नेतृत्व में लड़ाई लड़ी जिसे आंध्र प्रदेश में एक ऐतिहासिक संघर्ष मानते हैं। तमाम लेखकों, बुद्धिजीवियों और मध्यवर्गीय लोगों का ध्यान इस ओर गया। तो तीन महीनों तक लगातार संघर्ष चला नक्सल कैदियों के राजनीतिक अधिकारों और समग्रतः सभी कैदियों के मौलिक अधिकारों के लिए। यहाँ तक कि मध्यवर्ग को पहली बार पता चला कि अगर कोई व्यक्ति जेल में है तो उसे केवल स्वतंत्र विचरण के अधिकार से वंचित किया जा सकता है। बाकी सभी मौलिक अधिकार उसे रहेंगे भले वह जेल में हो। पारम्परिक रूप से पहले के हैदराबाद स्टेट में किसी उम्र कैदी को उसके अच्छे आचरण को देखते हुए छह या सात साल में छोड़ दिया जाता था। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जे0 वेंगलाराव ने 1976 में इस परम्परा का उल्लंघन किया। इसी कारण से यह संघर्ष चला और सफल भी हुआ। अब चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने अपना नजरिया बदल लिया है इसलिए उम्र कैद का मतलब उम्र भर के लिए कैद हो गया है और माओवादी पार्टी पर प्रतिबंध लगने के बाद से राजनीतिक बन्दियों के साथ घटिया बर्ताव किया जा रहा है। इसलिए आंँध्र प्रदेश और तेलंगाना की जेलों में मौत की खबरेें आती हैं। कुपोषण, स्वास्थ्य सेवाओं के एकदम अभाव और घटिया भोजन के कारण वे लोग खुदकुशी कर रहे हैं।
रामू रामनाथन: तो चन्द्रबाबू नायडू से लेकर आज प्रधानमंत्री मोदी...क्या रणनीति है आप लोगों की ?
वरवर राव: माओवादी पार्टी की रणनीति तो आप जानते ही हैं। इसकी रणनीति है दीर्घकालिक सशस्त्र संघर्ष। लक्ष्य है जनता को आधार बनाकर नवजनवादी क्रांति करना। सशस्त्र संघर्ष इस संघर्ष का मुख्य रूप होगा जिसमें जनसंगठनों के नेतृत्व में विभिन्न प्रकार के जनान्दोलनों की भागीदारी होगी। बुनियादी संघर्ष जमीन के लिए है। ’जमीन जोतने वाले की’ एक आर्थिक संघर्ष है। जैसा कि चारू मजूमदार ने कहा था ’जोतने वालों को जमीनें दिलाना बुनियादी आर्थिक संघर्ष है। जमींदारों के पिट्ठुओं से और पुलिस और स्टेट से इन जमीनों की रक्षा करने के लिए हथियारबंद गुरिल्ला संघर्ष की जरूरत पड़ेगी। यह संघर्ष का सैन्य रूप होगा। और अंत में सत्ता पर कब्जा। जिस तरह सोवियत रूस मंे सारी सत्ता सोवियतों को और चीन में कम्यूनों को देकर जनता को दे दी गयी थी, उसी तरह सारी सत्ता जनता को देनी है। अगर आप दण्डकारण्य में जनताना सरकार को देखेंगे तो आपको समझ में आयेगा कि यह एक राजनीतिक संघर्ष है। चारू मजूमदार इसे बड़े अच्छे से कहते हैं ’’बुनियादी आर्थिक संघर्ष है जमीन, गुरिल्ला युद्ध इस संघर्ष का सैनिक रूप है और राजनीतिक रणनीति है सत्ता पर कब्जा। यही पार्टी रणनीति है।’’ विरसम (विप्लव रचयिताला संघम) जैसे जनसंगठन के लिए हम कोई रणनीति या कार्यनीति नहीं बनाते हंै। हमारी योजना एक ऐसा साहित्यिक-सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा करने की है जो नवजनवादी क्रांति के लिए संघर्ष में मदद करे। जैसा कि माओत्से तुंग कहते हैं, हर क्रांति के लिए दो तरह की सेनाओं की जरूरत पड़ती है, एक आधारभूत सेना जो बुनियादी संघर्ष करे और दूसरी सांस्कृतिक सेना जो इसे सहारा दे। प्रेमचन्द कहते हैं न ’’हम तो कलम के सिपाही हैं।’’ इतना ही कहूँगा मैं।
रामू रामनाथन: एक नयी बात यह देखने में आ रही है कि पारंपरिक वामपंथी और सेंट्रिस्ट पार्टियाँ एक दूसरे के करीब आ रही हैं...
वरवर राव: देखिए, इस समय तथाकथित वामपंथी यानि सी.पी.आई. और सी.पी.एम. या तथाकथित वाम मोर्चा अपनी सŸाा गंवा चुका है। तो ये लोग माक्र्सवादी लेनिनवादी पार्टियों की तरफ भी दोस्ती का हाथ बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं। अभी तो स्थिति यह है कि वे नहीं कह रहे कि हम सेंट्रिस्ट पार्टियों से हाथ मिलायेंगे। और सच तो यह है कि आज कोई पार्टी सेट्रिस्ट नहीं है। आप क्षेत्रीय पार्टियों को ले लीजिए जिनको सेट्रिस्ट पार्टियाँ कहा जा सकता है, क्योंकि ये पार्टियाँ दक्षिणपंथी पार्टियों की तरह साम्प्रदायिक नहीं कही जा सकती हंै। लेकिन आज ये सभी पार्टियाँ बीजेपी के पाले में हैं। पंजाब का अकाली दल, असम में असम गण परिषद्, तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक और आन्ध्र प्रदेश में चन्द्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी सब की यही स्थिति है। ये पार्टियाँ या तो एन.डी.ए.(छक्।) में शामिल हैं या फिर उसे समर्थन दे रही हैं। यहाँ तक कि तेलंगाना राष्ट्र समिति ने भी, जो कि एनडीए का हिस्सा नहीं है, लोक सभा में जमीन हड़पने वाले विधेयक का समर्थन किया था। वे लोग भले ही उसे भूमि अधिग्रहण विधेयक बोलते हों, लेकिन मैं उसे जमीन हड़पने का विधेयक बोलता हूँ। तो इस सबका मतलब यह है कि कोई पार्टी सेंिट्रस्ट नहीं है। आज भले ही सी.पी.आई., सी.पी.एम. और अन्य वामपंथी पार्टियाँ कह रही हों कि हम वल्र्ड बैंक प्रोग्राम के या वैश्वीकरण के खिलाफ हैं। लेकिन जब वे सत्ता में रहे, विशेषतः पं0 बंगाल और केरल में, तब उन्होंने भी वल्र्ड बैंक प्रोग्राम के हिसाब से काम किया था। मतलब यह कि कोई भी संसदीय पार्टी जब-जब सत्ता में आयी है, उसने वल्र्ड बैंक प्रोग्राम की चाकरी की है और वैश्वीकरण की नीति लागू करने की भरसक कोशिश की है। इसकी सबसे बढ़िया मिसाल, आप वाम मोर्चे के लिए सबसे घटिया मिसाल कह सकते हैं, नंदीग्राम आंदोलन, सिंगूर आंदोलन या जंगलमहाल आंदोलन के रूप में प0 बंगाल में देखने को मिली। उसके हाथ से सत्ता निकलने का तात्कालिक कारण था वैश्वीकरण की नीति लागू करना। तृणमूल कांग्रेस उस वक्त इसका विरोध कर रही थी इसलिए सत्ता उसे मिल गयी। आज सरकार में आकर तृणमूल भी वही प्रोग्राम लागू करा रही है। तो बेशक हम लोग मोदी के इस युग में साम्प्रदायिकता और हिन्दुत्व के खिलाफ साथ मिलकर कोई प्रोग्राम ले सकते हैं। गुजरात नरसंहार के दौरान हमने सी.पी.आई. और सी.पी.एम. के साहित्यिक संगठनों तथा जनसंगठनों के साथ काम किया था। आज भी, हम साथ काम कर रहे हैं। जैसे कि जमीन के सवाल पर हम साथ काम कर रहे हैं। लेकिन संसदीय तौर-तरीकों को अपनाते हुए जब वे लोग सत्ता में आयेंगे तब वे वल्र्ड बैंक के रास्ते पर नहीं चलेंगे, ये मैं विश्वास के साथ नहीं कह सकता। तो जब तक यह तथाकथित वामपंथ संसदीय रास्तों से अपने कदम नहीं हटाता, मुझे नहीं लगता कि उनसे किसी तरह की एकता कायम हो सकती है।
रामू रामनाथन: पारंपरिक वामपंथ क्यों इतना कन्फ्यूज है ?
वरवर राव: ये सवाल कन्फ्यूजन का है ही नहीं। सवाल है कि क्या आप चुनाव के रास्ते सत्ता में आना चाहते हैं ? जब तक कोई पार्टी इस फ्रेमवर्क में काम करती रहेगी तब तक ’कन्फ्यूज’ रहेगी। अगर वे समझते हैं कि असली सŸाा चुनाव से, वोटों से आती है, तो यह उनका भ्रम है। जब तक कोई पार्टी या कोई संगठन या जनांदोलन केवल चुनाव के फ्रेमवर्क में सोचेगा, तब तक यह भ्रम बना रहेगा। तो आपको जनता के संघर्षों में उतरकर साम्राज्यवाद और सामंतवाद से लड़ना है या नहीं, यह तय करना पड़ेगा। इस देश की अर्द्धसामंती, अर्द्ध औपनिवेशिक, काॅम्प्रडोर (दलाल) व्यवस्था से अगर लड़ना है तो हमें अपने मन में बिल्कुल स्पष्ट रहना होगा। और चूंकि यह व्यवस्था स्टेट मशीनरी के माध्यम से अभिव्यक्त होती है, इसलिए आपको यह तय करना पड़ेगा कि आपको इस स्टेट के खिलाफ जी जीन से लड़ना है या नहीं लड़ना है। नहीं तो तब तक जिसे आप कन्फ्यूजन कह रहे हैं, वह कन्फ्यूजन बना रहेगा।
रामू रामनाथन: महाराष्ट्र से लेकर गुजरात, उत्तर प्रदेश, केरल, मैं जहाँ भी घूमा, मैंने देखा कि स्थानीय स्तर पर त्ैै ने पिछले दो साल के भीतर पैसे के बल पर और धर्म की आड़ में हजारों शाखाएं और संगठन स्थपित कर लिये हैं। लेकिन इसके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखायी दे रही। जनांदोलन त्ैै के ऐसे तौर-तरीकों का जवाब कैसे देंगे?
वरवर राव: आपको मालूम होगा कि 2014 के आम चुनाव के समय बीजेपी की मदद के लिए RSS ने हजारों कार्यकर्ता उपलब्ध कराये थे। यानि उन्हें RSS से छुट्टी देकर बीजेपी में भेज दिया। आज देखिए राम माधव और मुरलीधर जैसे आदमी पूरी तरह से बीजेपी के बन चुके हैं। यहाँ तक कि अमित शाह को बीजेपी का अध्यक्ष बना दिया गया है। ऐसा नहीं है कि ये सब आज हो रहा है। 1940 के दौर से ही RSS इसी तरीके से काम करता आया है। RSS बहुत लचीला होकर यह काम करता है। मैंने इमरजेंसी के दौरान देखा था। आदिलाबाद का कांग्रेस पार्टी का जिलाध्यक्ष हमारे साथ जेल में बंद था। तो हमने पूछा उससे कि तुम तो कांग्रेसी हो, तुम्हें कैसे जेल हो गयी? उसने बताया कि ’मैं दरअसल त्ैै का आदमी हूँ और कांग्रेस में घुस कर RSS का ही काम कर रहा था। सरकार यह बात जान गयी। इसलिए मुझे जेल में डाल दिया।’’ तो RSS ऐसे तरीके अपनाता रहता है। जब RSS को बैन किया गया था, तो उसने अपना नाम बदलकर राम सेवक संघ रख लिया। चूंकि त्ैै के पास कोई दर्शन नहीं है सिवाय हिन्दुत्व के और हिन्दुत्व दर्शन है हिंसा का और वर्चस्ववादी विचारधारा का, इसलिए त्ैै जब मन चाहे लचीला हो सकता है। जबकि जनता का मूवमेंट, खासतौर से रिवोल्यूशनरी मूवमेंट कुछ निश्चित सिद्धांतों पर चलता है और इसलिए हम उतने लचीले नहीं हो सकते। लेकिन हमें संघर्ष के लिए कुछ नये तौर-तरीके तो ईजाद करने ही होंगे। आज हमारे पास मौका है कि सभी गैर-हिन्दुत्व शक्तियांें का एक बड़ा संयुक्त मोर्चा बनाया जाये। दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों, स्त्रियों और गैर-ब्राह्मणवादी वर्गों को संगठित करने के लिए हमें बहुत व्यवहार कुशल और कलात्मक बनना होगा। इन लोगों का एक मोर्चा बनाना होगा। ऐसा एक प्रयास मुम्बई रेजिस्टेन्स-2004 के नाम से शुरू किया गया था, जिसमें हमने 300 से 400 संगठनों को जोड़ा था। लेकिन वैसा प्रयास बाद में नहीं हो पाया।
(यह इंटरव्यू रामू रमानाथन ने लिया था जो जाने माने नाटककार और एक्टिविस्ट है। 26 सितम्बर 2014 केा प्रेस क्लब, मुम्बई में अरुण फरेरा की किताब ’कलर्स आॅफ दि केज’ के लोकार्पण के मौके पर थोड़ी-सी बातचीत के साथ यह इंटरव्यू शुरू हुआ था। उसके बाद ई-मेल पर लम्बा संवाद हुआ। अन्ततः उसी संवाद को एक तरतीब में प्रश्नोŸार के रूप में ढाला गया।)

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