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Thursday, July 13, 2017

UGC-नेट की परीक्षा साल में दो बार से एक बार करने व सीटों को 15% से घटाकर 6% करने के खिलाफ प्रतिरोध मार्च और सभा।


        आज भगत सिंह छात्र मोर्चा के बैनर तले,बनारस और बी.एच.यू के छात्र-छात्राओ ने Ugc द्वारा जारी किये गये नये नियम और जुलाई की परीक्षा न कराये जाने के खिलाफ सड़क पर उतर कर अपनी प्रतिरोध की आवाज़ बुलन्द की।
मालुम हो की हाल ही में UGC द्वारा जारी नए नियम के अनुसार अब NET की परीक्षा जो साल में  दो बार होती थी अब एक बार होगी और सीटो की संख्या भी 15%+15% से घटा कर 6% होगी।
इस तरह के नए नियम पूरी तरह छात्र विरोधी,शिक्षा विरोधी है। इस नये नियम से यह साफ पता चलता है की सरकार की मनसा छात्रों को पढने देने की है ही नहीं।
पहले भी (एम.फिल) की सीटो में कटौती हो चुकी है। पिछले साल सरकार ने नॉन-नेट फ़ेलोशिप भी बंद करने की कोशिश भी की थी पर छात्र आन्दोलन के दवाब में उसे वापस लेना पड़ा।
हमे पता होना चाहिए की 2015 के दिसम्बर में इस मौजूदा सरकार ने भारत की उच्च शिक्षा को WTO-GATTS के हाथो बेच कर इसे एक कमोडिटी बनाने की कोशिश की है।
ताकि शिक्षा एक खरीद-बिक्री की वस्तु  बन कर रह जाय और यह समाज के पिछड़े,दलित,महिला,शोषितो के पहुच से बाहर हो जाय।
हाल ही में केंद्र सरकार शिक्षा बजट में 55% तक की कटौती कर चुका है। मौजूदा सरकार की ये सब नीतियों से ये साफ़ पता चलता है की सरकार की मनसा शिक्षा अनिवार्यता न होकर कुछ और ही है। आज देश में हर साल 2 करोड़ बेरोजगार पैदा हो रहे है।इस साल की रिपोर्ट से पता चलता है की IT-सेक्टर में भी पिछले साल की तुलना में इस साल नौकरियां कम पैदा हुई है ऊपर से हर रोज़ कई लोगो को अपने नौकरियों से हाथ धोना पड़ रहा है।देश का युवा जो किसी भी राष्ट्र का भविष्य होता है वो आज मारा-मारा फिर रहा है।
अब अगर हम समय रहते इस परिस्थियों को न समझे और इसके खिलाफ एक होकर संघर्ष न करे तो। 

आगे आने वाली हमारी पीढ़िया शिक्षा से वंचित हो जायेगी और देश की हालत और भी ख़राब हो जाएगी।

आज हुई सभा में ये सारी बात रखी गई,जिसमे भगत सिंह छात्र मोर्चा से ज्ञान,मृतुन्जय,विनोद,सिद्धांत,आरती शर्मा, ने 
स्टूडेंट्स फॉर चेंज,IIT से हेमंत ने,
भगत सिंह-आंबेडकर विचार मंच से सुनील यादव ने,यूथ फॉर स्वराज से दिवाक सिंह और कई बी.एच.यू के छात्रों ने अपनी बात रखी।
सभा का संचालन बी सी एम के  विनोद शंकर ने किया।
सभी ने UGC-MHRD द्वारा जारी छात्र विरोधी फैसले को वापस लेने की मांग की। और न वापस लेने पर इस आन्दोलन को तेज और व्यापक करने की बात भी कही। अंत में bcm के सचिव विनोद ने बी.एच.यू,बनारस के सभी छात्र,छात्राओं,बुद्धिजीवियों को इस मानव और शिक्षा विरोधी फैसले के खिलाफ एक साथ आने की अपील की।



Tuesday, July 4, 2017

अंकित साहिर की कविताएं

आलोचनाएं आमंत्रित है।

 अँधेरे के दौर में

 अँधेरे के दौर में जब सारी मशालें बुझ जाएँगी
और जब नहीं होगा कोई भी नामो-निशाँ,
उजाले का,
मैं तब भी मिलूंगा तुम्हे इसी तरह लड़ते हुए
उजाले के लिए अँधेरे के खिलाफ
हाँ अँधेरा घना तो होगा मगर
इतना भी नहीं की बुझा दे उम्मीदों को
हाँ तूफान तेज़ तो होगा मगर
 इतना भी नहीं की उड़ा दे हौसलों को
 तुम साथ आओ न आओ मैं परचम उठाऊंगा
 तुम साथ गाओ न गाओ मैं बरबत पर गाऊंगा
और जब दौर होगा सबसे गहरे अँधेरे का
नज़र नहीं आएगा कुछ भी
सिवाय अँधेरे के
सुनाई नहीं देगी कोई आवाज़
सिवाय ख़ामोशी के
 मैं तब भी मिलूंगा तुम्हे
इसी तरह अपने गीत गाकर।

 जीतेगी ये जिंदगी

जीतेगी ये ज़िन्दगी
जीतेंगे ये जंग हम
 न होंगी कोई बंदिशें
होंगें सब विषम ये सम
दिलो में जो धधक रही
वो आज़ादी की आग है
 मशाल है, चिराग है
वही तो अपना ख्वाब है
 कीमत होगी आंसुओ की
 गम भी तब ये होंगें कम
जीतेगी ये ज़िन्दगी
 जीतेंगे ये जंग हम
न होंगी कोई बंदिशें
होंगे सब विषम ये सम...

आप मरे नहीं हैं

आप मरे नहीं है
मगर इसका मतलब ये नहीं
की आप ज़िंदा है
अगर आपको नंगा नहीं करता
किसानों का नंगापन
अगर नहीं जगता आपका ज़मीर
नरमुंडों की माला पहनें,
किसानों को देखकर
अगर नहीं विचलित होता, आपका मन
 मुहँ में चूहे दबाएं,
दारूण चेहरों को देखकर
अगर नहीं चीत्कार करता, आपका ह्रदय
गले में फंदा डालें ज़िंदा लाश बनते लोगो को देखकर,
अगर आप सब कुछ सह लेते है,
ऐसे ही चुपचाप,
अगर नहीं सुलगती आपमें,
विद्रोह की एक चिंगारी भी,
तो तय है कि आप मरे नहीं है
मगर इसका मतलब ये नहीं
कि आप ज़िंदा है...

वख्त आ चुका है

वख्त आ चुका है
अब उन्हें बता दिया जाना चाहिए
की हम एकलव्य नही
 की कोई द्रोणाचार्य हमारा अंगूठा काट ले
हम शम्बूक नही
की कोई राम हमारी गर्दन काट दे
उन्हें पता होना चाहिए
की अब छाती उनकी होगी
और पैर हमारे होंगे
अब गर्दन उनकी होगी
और हाथ हमारे होंगे
वख्त आ चुका है
अब उन्हें बता दिया जाना चाहिये।

 इंकार

लो इनकार करती हूँ मैं
 तुम्हे सर्वशक्तिमान मानने से
तुम्हारी सत्ता के अनुष्ठान से
तुम्हारी आत्मवंचना के अमुमोदन से
 पर तुम पर टूट पड़कर नहीं,
बल्कि खुद को मुक्त करके
तुम्हारी अपेक्षाओं को पूरा करने की अभिलाषा से
और यकीन मानो
ये बस मेरी मुक्ति नहीं होगी
मेरे साथ आज़ाद होगे तुम भी...
(बीएचयू में महिला महाविद्यालय की छात्राओं के आंदोलन के समर्थन में।)

 तुम्हारा डर

अरे तुम तो डर रहे हो,
ठीक वैसे ही , जैसे डरे थे कल,
तुम, शम्बूक से या एकलव्य से
 या फिर रोहित से,
 देख रहा हूँ, मैं फिर वही डर
आज तुम्हार आँखों में,
 बड़ी-बड़ी फौजे,
दौलत असबाब सब कुछ ही तो है
तुम्हारे पास
फिर क्यों इतना खौफ मुझसे,
इसलिए की, कहीं इक दिन मै ,
 तुम्हारे बराबर न पहुँच जाऊं
या आगे न निकल जाऊं तुमसे,
 तुम्हे पीछे छोड़कर,
उन तमाम वंचनाओं के बावजूद,
जो दी है तुमने, मुझे,
मेरे जन्म के साथ
 उन तमाम अपात्रताओ के बावजूद,
जो थोपे तुमने मुझपर,
मुझे रोकने के लिए,
 मुझे घृणित बनाये रखने के लिए,
तुम्हे डर है ना की कहीं विध्वंस न कर दूँ,
 मैं तुम्हारे महलो का ,
जिसे रंगा है तुमने, शम्बूको के खून से
जिसकी नींव डाली, एकलव्यों के अंगूठो पर
जिसकी दीवारे सजाई, रोहितो की लाशो से
बाहर आकर देखो अपने महलो से,
कैसे शम्बूको के कटे सिरों से रिसता खून
दौड़ा चला आ रहा है, ज्वार की शक्ल में,
तुम्हारे महलो की ओर,
 कैसे एकलव्यो के अंगूठे खोद रहे है,
 तुम्हारे महलो की नीवों को,
कैसे रोहितो के चीत्कार, बेध रहे है,
 तुम्हारे महलो की दीवारों को,
 बुलाओ अपनी सारी फौजे
और रोको इन्हें
देखो इन्होंने डरना बंद कर दिया है,
 देखो मैंने डरना बंद कर दिया है
इसी बात का डर है ना तुम्हे,
तो ठीक है, तुम्हे डरना चाहिए...

 माँ कामरेड

माँ तुम भी तो कामरेड हो
तो आओ ना लड़ते हैं
तुम्हारी आज़ादी के लिए
तुम्हारी गुलामी के ख़िलाफ़,
 नहीं, ये जंग नहीं हैं पापा के ख़िलाफ़
 या घर के और मर्दों के ख़िलाफ़
ये जंग तो है, पितृसत्ता से
हमें तो लड़ना है,
मर्दवादी सोच के खिलाफ
तुम्हारी आज़ादी के लिए
 तुम्हारी गुलामी के खिलाफ
तो आओ ना कामरेड लड़ते हैं...

आवाम और अंजाम

अब तुम और दबा नहीं सकते
इंक़लाब के नारों को
अपने बूट के खौफ से
अपनी सारी फौजों से
सारे बंदूकों और तोंपो से
सबसे बड़े साम्राज्य भी
एक दिन ज़मींदोज़ हो गए
हमने उन्हें भी नेस्तनाबूद होते देखा
जिनका दावा था
अपने सूरज के कभी न डूबने का
हमने उनका भी अंजाम देखा
जिनका दावा था
 अपने खुद के आइन होने का
और मैं देख रहा हूँ
वही डर आज तुम्हारी आँखों में
तुम डर रहे हो
अपने तख्त और ताज़ के धराशायी होने से
अपने ऊँचे ऊँचे महलो के ढहा दिए जाने से
तुम हमेशा से डरते रहे हो गरीबों से,
मज़्लूमो से मेहनतकश आवाम से
और यक़ीन मानों
 तुम्हारा डर एक दिन सच साबित होगा
और नेस्तनाबूद हो जायेगा
 तुम्हारा भी इक़बाल
ज़मींदोज़ हो जायेगी
तुम्हारी भी मसनद
क्योंकि फ़ौजें ख़त्म हो जाती हैं
मगर आवाम कभी ख़त्म नहीं होती...

 सब बदल जायेगा

सब कुछ बदल जायेगा उस दिन
जब तोड़ दोगी तुम
अपने हाथों की चूड़ियाँ
 जब निकाल फेकोगी तुम
अपने पैरों के पायल,
 बिछिये जब उतार फेकोगी तुम
अपने गले में पड़ा मंगलसूत्र
जब इंकार कर दोगी तुम
अपनी मांग में कोई भी सिंदूर भरने से
और ऊंची आवाज़ में एलान करोगी
की तुम भी इंसान हो,
उसी बराबरी के साथ
जैसे इंसान है सारे मर्द
बिना चूड़ियां पहने बिना पायल
 और बिछिया पहनें बिना डाले मंगलसूत्र गले में
और बिना लगाये कोई सिंदूर मांग में
सब कुछ बदल जायेगा उस दिन
जब नकार दोगी तुम उन सारे धर्मों को
उन सारे ईश्वरों को
जिन्होंने कभी कुछ नही दिया तुम्हे
 सिवाय गुलामी के,
दोयम दर्जे की ज़िन्दगी के
जब बारूदी सवाल होंगे तुम्हारे लबो पर
जो ध्वस्त कर देंगे
पितृसत्ता के किलों को
जब गगनभेदी नारे लगाओगी तुम
 बराबरी और न्याय ज़िंदाबाद के
 जब मांगोगी तुम अपना हक
और अपनी आज तक की गयी मेहनत का हिसाब
 जब ऐलान कर दोगी तुम
अपने आज़ाद वजूद का
और कह दोगी,
की तुम किसी की मिलकियत नहीं
सब कुछ बदल जायेगा उस दिन...

 कवियों का हिसाब

इतिहास जब कवियों से हिसाब मांगेगा
तो उनसे ये नहीं पूछा जायेगा
के तुम्हारे गीतों ने
कितने जवां दिलों में मोहब्बत का एहसास जगाया
या कितनी जादूगरी से ज़िक्र किया
तुमने अपनी महबूब की खूबसुरती का
उनसे पूछा जायेगा की
की क्यों तुम तब भी मोहब्बत का बयान लिख रहे थे
 जब तुम्हारे सामने क़त्ले आम जारी था।
जब तुम्हारे सामने हड्डिया निकले
पिचके गाल वाले लोग मर रहे थे भूख से
 तब तुम्हें कैसे नज़र आ रही थी
अपने महबूब की ख़ूबसूरती
उनसे पूछा जायेगा
के तुम्हारे गीतों ने कितने
बुझते हुए आँखों में उम्मीद की आग जलाई
के तुम्हारे गीत सुनकर कितने शोले भड़के
कितने हाथ उठे हथियारों के साथ
उनसे पूछा जायेगा
के क्या तुम तब भी गा रहे थे
आज़ादी के गीत
जब बरसाए गये थे कोड़े
 तुम्हारे पीठ पर सरे आम किसी भीड़ भरे चौराहे पर
क्या खामोश तो नहीं हो गए थे तुम
फौजी बूटों की आवाज़ सुनकर
या तुम तब भी सीना ताने खड़े थे ऐसे ही
अपने सामने तनी हुई बंदूकों के खिलाफ
उनसे पूछा जायेगा की
जब जकड़ दिया गया था तुम्हें जंजीरों में
किसी अँधेरी काल कोठरी में
क्या तब भी तुम्हारें लबों पर इंक़लाब के नारे थे
क्या तुमनें बनाया था अपने गीतों का मशाल
और भड़कायी थी आग
अँधेरे के ज़मींदोज़ होने तक
इतिहास जब कवियों से हिसाब माँगेगा ।

यलगार

तुम ज़ारी रखों ज़ुल्मों-सितम
हम यलगार ज़ारी रखते है,
तुम ज़ारी रखना दौर-ए-वहम
हम ललकार ज़ारी रखते है,
तुम सब ओर अंगारे बिखराओ
 हम बरसात जारी रखते है,
तुम ज़ारी रखो जुल्मो-सितम
 हम यलगार ज़ारी रखते है...

लाल सलाम

लडेंगे हम मिलकर के साथी
नया इतिहास बनाने को
लड़ेंगे हम मिलकर के साथी
ज़ुल्मो-सितम मिटाने को
तुम ललकार लगाना साथी
मैं परचम फहराऊँगा
तुम भी आग लगाना साथी
मैं मशाल बन जाऊँगा
और फिर मिलकर के
गीत हम आज़ादी के गाएंगे
और लाल सलाम
और लाल सलाम
और लाल सलाम दोहरायेंगे...


Sunday, July 2, 2017

साथी परविंदर की कुछ कविताएं।

*आलोचनाएं आमंत्रित है।

१.शीर्षक-चुप्पी 
बोलता हुआ आदमी 
चुप हो जाये तो 
समझ लेना चाहिए 
कि दुनियाँ का अस्तित्व 
पानी पर फूटते फव्वारे 
की तरह उछल रहा है 
न जाने कब उसकी 
आखिरी हिचकी उसे 
लाश में परिवर्तित कर दे !

२. 
तुम अपनी आवाज़ को दबाये 
जी नहीं सकते हो 
अगर तुम ये सोचते हो 
बोलना एक गुनाह है 
वो भी अपने हक के लिए 
तो तुम एक भूल करने जा रहे हो 
इतिहास की नजर जब तुम्हारी तरफ़ होगी 
झुक जायेंगे तुम्हारे सर 
झुक जायेगी तुम्हारी निगाह 
इसलिए आकार दो अपने साहस को 
और बोलो ' चीख कर बोलो 
खुद से घुटकर मर जाना 
आत्महत्या के दायरे से बाहर है
और इस बुरे समय में तो 
हत्या और आत्महत्या का मतलब 
एक है "

३.
कविता ? 
आत्मचेतस की आवाजों में 
विचारों का ज्वार उठ रहा है 
और 
शब्दों की चीत्कारें 
आने वाले समय में पुर्नविचार करते हुए लोगों से पूछ रहीं हैं 
किताबों में लिखे हुए नारों को 
सड़को पर चिल्लाने की जरूरत है 
जब तुम्हारी यादें अाती हैं 
मेरे सपनों का दायरा आक्रोशित होकर 
फैल जाने के लिए व्याकुल हो जाता है 
जब दुनियां में संस्क्रिति के नाम पर 
जहर का कमोवेश विस्तार किया जा रहा है 
ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में
कविता के कर्म की परिभाषा बदल जाती है 
और कविता में शब्दों के बजाय 
आ जाते हैं भाले 'बरछे और गोलियां 
क्योंकि जिनको इतिहास के कोरे पन्नों में 
लिखना होता है स्वर्णिम अतीत 
वे कलाकार भाषा को 
ज़हर होने से बचाते हैं 
जब दुनियां के तिकोने जगह पर 
मुल्क मेरी ओर देख रहा है 
तो मेरा फ़र्ज है 
मैं उसकी बागडोर को सभालूं 
मैं विचारों को पुर्नजीवित कर दूंगा 
जिनके बलबूते पर गिराये 
जा सकते हैं दुनियां के विशाल गुम्बद 
मैं उन व्रिछों को उखाड़ कर फेंक दूंगा 
जिनकी टहनियों पर
अब फूल के बजाय उगते हैं 
खतरनाक हथियार 
मेरे सभी साथी गुजरते हैं 
मेरे भीतर 
अठखेलियां खेलती हुई 
मेरी उंगलियां पहुच जाती हैं 
बगल में रखे हुए किताबों पर 
जहां मानवता की पीड़ा का 
एक दहकता हुआ 
इतिहास लिखा है 
मैं जब ये बातें कह रहा हूं 
तो ये समझ रहा हूं कि 
चिड़ियों को घोसलों में रहने के बजाय अवतरित होना चाहिए 
युद्ध के मैदान में 
क्योकि भागने से कोई बच नहीं पाता 
आदमी जब भी बचा है 
अपनी भुजाओं के बलबूते 
क्योंकि आदमी की फ़ितरत में है 
लड़ना ' लड़ना और लड़ना 
इसलिए इस समय मैं अघोषित युद्धकाल में 
नजर गड़ाये हुए देख रहा हूं 
उस बड़ी विशाल प्राचीर को 
जिसमें गिरे हुए रक्त से भींग जायेगीं 
ईटें 
और मैं कभी ऐसा होने नहीं दूंगा
४.
मैं बिस्तर पर सोये हुए 
अकुलाहट का दु:खस्वपन लिए 
अपनी आत्मा को मसोस रहा था 
मेरे शब्द मेरी जुबान में फंस रहे थे 
और सांसो का अनवरत सिलसिला लिए 
मैं बेबस' लाचार उच्चश्र्िखलों की तरह 
अपने शरीर के साथ तड़फड़ा रहा था 
कि मेरी जुबान से निकला हर -एक हर्फ 
दो कदम ही पहुंचकर कुलबुला रहा था 
मेरे मित्र मेरी आत्मा की दकियानूसी 
समझकर अपने खयालों में जी रहे थे 
मेरे रोम -रोम में पैदा होने वाले प्रत्येक शब्द 
मुझे धाराशायी कर रहे थे 
मेरे सूखे हुए होंठ शब्दों की दीर्घा में 
बैठकर अपने पर्यायवाची ढूढ़ रहे थे 
मैं अपने संघर्षों से खुद की शरीर में 
बेमियादी हमले कर रहा था 
मैं खुद आत्मालोचन से अकस्मात्
एक शोरगुल वाली भीड़ में पाता हूं 
स्वप्न की आत्मा का हाथ पकड़े 
मैं स्वप्न की दुनियां से बाहर निकलकर 
सच के सामने अडिग खड़ा हूं 
मैं सच जीता हूं 
मैं सच मरता हूं 
मैं सच में रोता हूं 
मैं सच में हंसता हूं 
मेरे सामने खड़े महोदय कब समझेगें 
तिरंगा'देश 'काश्मीर 'राष्ट्रीयतायें 
उनकी भाषा में एक केन्द्रीयता है 
जिस पर वे अनगिनत लहूं बहा देगें 
और आपका कोई भी तर्क नहीं मानेगें 
मैं बीमार बिस्तर में दुबककर 
 बिखरे बालों 'उड़े के चेहरे के साथ 
आत्मा की हर भभकती आवाज 
तन को गर्मी दे रही थी 
मेरे सपने मुझे बिस्तर से 
बेदखल करने की कोशिश में थे 
मेरे विचारों का आत्मसंघर्ष 
मुझे जीने नहीं दे रहा था 
क्योंकि युद्ध में मारे गये मेरे पूर्वज 
मुझे अकस्मात् याद आ र हे थे 
उनके चेहरे की उदासी मुझ पर व्यंग्य थी 
एेसा कुछ भी नहीं कि मैं स्वप्न में हूं|

बीसीएम के एक साथी की रचना।



हमारी उनसे बहुत आपसदारी होने लगी है।
हमको भी क्या वही बीमारी होने लगी है ।।

यहाँ घोड़ों को गाय का गोबर सुंघा कर ।
दिल्ली में गधों की सवारी होने लगी है ।। 

चौथा स्तंभ अब "चार मुंह- चार बातों" सा है।
और अब तुम्हारी जुबां सरकारी होने लगी है।।

धर्म का सुरमा लगा कर खुद ही आंखे फोड़ लो।
देखने वालों पर अब छापेमारी होने लगी है ।।

किसान की लाश पर विकास का झंडा गड़ेगा ।
बंदूक की गोली जनहित मे जारी होने लगी है।।

अब सपने ग़र देखने है, तो आंख खोलकर देखो।
अब हमारे सपनो की कालाबाजारी होने लगी है।।

                                 -वरूण लाल अहिरवार