१.शीर्षक-चुप्पी
बोलता हुआ आदमी
चुप हो जाये तो
समझ लेना चाहिए
कि दुनियाँ का अस्तित्व
पानी पर फूटते फव्वारे
की तरह उछल रहा है
न जाने कब उसकी
आखिरी हिचकी उसे
लाश में परिवर्तित कर दे !
२.
तुम अपनी आवाज़ को दबाये
जी नहीं सकते हो
अगर तुम ये सोचते हो
बोलना एक गुनाह है
वो भी अपने हक के लिए
तो तुम एक भूल करने जा रहे हो
इतिहास की नजर जब तुम्हारी तरफ़ होगी
झुक जायेंगे तुम्हारे सर
झुक जायेगी तुम्हारी निगाह
इसलिए आकार दो अपने साहस को
और बोलो ' चीख कर बोलो
खुद से घुटकर मर जाना
आत्महत्या के दायरे से बाहर है
और इस बुरे समय में तो
हत्या और आत्महत्या का मतलब
एक है "
३.
कविता ?
आत्मचेतस की आवाजों में
विचारों का ज्वार उठ रहा है
और
शब्दों की चीत्कारें
आने वाले समय में पुर्नविचार करते हुए लोगों से पूछ रहीं हैं
किताबों में लिखे हुए नारों को
सड़को पर चिल्लाने की जरूरत है
जब तुम्हारी यादें अाती हैं
मेरे सपनों का दायरा आक्रोशित होकर
फैल जाने के लिए व्याकुल हो जाता है
जब दुनियां में संस्क्रिति के नाम पर
जहर का कमोवेश विस्तार किया जा रहा है
ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में
कविता के कर्म की परिभाषा बदल जाती है
और कविता में शब्दों के बजाय
आ जाते हैं भाले 'बरछे और गोलियां
क्योंकि जिनको इतिहास के कोरे पन्नों में
लिखना होता है स्वर्णिम अतीत
वे कलाकार भाषा को
ज़हर होने से बचाते हैं
जब दुनियां के तिकोने जगह पर
मुल्क मेरी ओर देख रहा है
तो मेरा फ़र्ज है
मैं उसकी बागडोर को सभालूं
मैं विचारों को पुर्नजीवित कर दूंगा
जिनके बलबूते पर गिराये
जा सकते हैं दुनियां के विशाल गुम्बद
मैं उन व्रिछों को उखाड़ कर फेंक दूंगा
जिनकी टहनियों पर
अब फूल के बजाय उगते हैं
खतरनाक हथियार
मेरे सभी साथी गुजरते हैं
मेरे भीतर
अठखेलियां खेलती हुई
मेरी उंगलियां पहुच जाती हैं
बगल में रखे हुए किताबों पर
जहां मानवता की पीड़ा का
एक दहकता हुआ
इतिहास लिखा है
मैं जब ये बातें कह रहा हूं
तो ये समझ रहा हूं कि
चिड़ियों को घोसलों में रहने के बजाय अवतरित होना चाहिए
युद्ध के मैदान में
क्योकि भागने से कोई बच नहीं पाता
आदमी जब भी बचा है
अपनी भुजाओं के बलबूते
क्योंकि आदमी की फ़ितरत में है
लड़ना ' लड़ना और लड़ना
इसलिए इस समय मैं अघोषित युद्धकाल में
नजर गड़ाये हुए देख रहा हूं
उस बड़ी विशाल प्राचीर को
जिसमें गिरे हुए रक्त से भींग जायेगीं
ईटें
और मैं कभी ऐसा होने नहीं दूंगा
४.
मैं बिस्तर पर सोये हुए
अकुलाहट का दु:खस्वपन लिए
अपनी आत्मा को मसोस रहा था
मेरे शब्द मेरी जुबान में फंस रहे थे
और सांसो का अनवरत सिलसिला लिए
मैं बेबस' लाचार उच्चश्र्िखलों की तरह
अपने शरीर के साथ तड़फड़ा रहा था
कि मेरी जुबान से निकला हर -एक हर्फ
दो कदम ही पहुंचकर कुलबुला रहा था
मेरे मित्र मेरी आत्मा की दकियानूसी
समझकर अपने खयालों में जी रहे थे
मेरे रोम -रोम में पैदा होने वाले प्रत्येक शब्द
मुझे धाराशायी कर रहे थे
मेरे सूखे हुए होंठ शब्दों की दीर्घा में
बैठकर अपने पर्यायवाची ढूढ़ रहे थे
मैं अपने संघर्षों से खुद की शरीर में
बेमियादी हमले कर रहा था
मैं खुद आत्मालोचन से अकस्मात्
एक शोरगुल वाली भीड़ में पाता हूं
स्वप्न की आत्मा का हाथ पकड़े
मैं स्वप्न की दुनियां से बाहर निकलकर
सच के सामने अडिग खड़ा हूं
मैं सच जीता हूं
मैं सच मरता हूं
मैं सच में रोता हूं
मैं सच में हंसता हूं
मेरे सामने खड़े महोदय कब समझेगें
तिरंगा'देश 'काश्मीर 'राष्ट्रीयतायें
उनकी भाषा में एक केन्द्रीयता है
जिस पर वे अनगिनत लहूं बहा देगें
और आपका कोई भी तर्क नहीं मानेगें
मैं बीमार बिस्तर में दुबककर
बिखरे बालों 'उड़े के चेहरे के साथ
आत्मा की हर भभकती आवाज
तन को गर्मी दे रही थी
मेरे सपने मुझे बिस्तर से
बेदखल करने की कोशिश में थे
मेरे विचारों का आत्मसंघर्ष
मुझे जीने नहीं दे रहा था
क्योंकि युद्ध में मारे गये मेरे पूर्वज
मुझे अकस्मात् याद आ र हे थे
उनके चेहरे की उदासी मुझ पर व्यंग्य थी
एेसा कुछ भी नहीं कि मैं स्वप्न में हूं|
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