Powered By Blogger

Sunday, September 2, 2018

गाँव चलो अभियान रिपोर्ट - 2018

   

भूमिका:

"यह हम मानते है कि विद्यार्थियों का मुख्य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नही? यदि नही तो हम उस शिक्षा को निकम्मी समझते है...।”
     शहीद भगत सिंह ‘ विद्यार्थी और राजनीति’ लेख से  
     
       हमारे देश का मेहनतकश वर्ग यानी मजदूर और किसान अपने श्रम से पूरी दुनिया के लिए जरूरत की चीजों का निर्माण करता है। हम जैसे विद्यार्थियों के लिए कॉपी-कलम से  लेकर हमारे विश्वविद्यालय तक सब उनकी ही बदौलत है। परंतु न तो उनके बच्चे ऐसे विश्वविद्यालय तक पहुँच पाते हैं और न ही उनकी बनाई बड़ी-बड़ी इमारतों में उनके परिवार रह पाते हैं।
 हम छात्र-छात्राएं अलग-अलग  घरों, परिस्थितियों में रहकर ऐसे विश्वविद्यालयों में आते हैं। हममें से कई विद्यार्थी मज़दूरों-किसानों से जुड़ी इन बातों को समझ कर सहानुभूति तो रखते हैं पर चूंकि उन्होंने कभी उनके हालातों को न ही अपने आंखों से देखा होता है और न ही कभी जिया होता है, इसलिए वे उन पर हो रहे उत्पीड़न को साफ देख और समझ पाने में थोड़े असमर्थ हो जाते हैं।
ऐसे हालातों में हम जमीनी शिक्षा के महत्व को समझते हुए गाँव चलो अभियान के माध्यम से विश्वविद्यालयों से जुड़े छात्रों, नौजवानों तथा बुद्धिजीवियों को मज़दूरों-किसानों के संघर्षों एवं परिस्थितियों के साथ जुड़ने और गांवो में जाने के लिए एकजुट करते हैं।
यह एक सुखद संयोग है कि इस बार जब हमने अपना GVC(Go to Village Campaign) आयोजित किया तो इसी समय पूरी दुनिया भर में मार्क्स की 200 वीं जयंती भी मनायी जा रही थी।
आज जब पूरे देश में छात्रों, नौजवानों तथा बुद्धिजीवियों के बीच सामंती, साम्राज्यवादी संस्कृति व उत्तर आधुनिकता का प्रभाव सचेतन साम्राज्यवाद द्वारा बढ़ाया जा रहा है। इसी उत्तर आधुनिकता की वजह से छात्रों, नौजवानों, बुद्धिजीवियों के बीच मजदूरों, किसानों, दलितों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों तथा महिलाओं आदि के संघर्षों को अलग - अलग कर के देखने की प्रवृति बढ़ती जा रही है।
साथ ही आज भी यह बहस चल रही है कि भारत पूंजीवादी है या अर्ध सामंती अर्ध औपनिवेशिक। तब ऐसे में हमारे द्वारा लिया गया यह गाँव चलो अभियान इन सभी सवालों का सटीक जवाब बन कर सामने आता है।

गाँव चलो अभियान की तैयारी और गाँव में हमारा कार्यक्रम:

     इस बार का गाँव चलो अभियान चार संगठनों का संयुक्त अभियान रहा। जिसमें बनारस से दो संगठन भगत सिंह छात्र मोर्चा (BCM) और स्टूडेंट्स फ़ॉर चेंज (SFC) IIT-BHU तथा इलाहाबाद से इंक़लाबी छात्र मोर्चा (ICM) और जाति उन्मूलन मोर्चा (CAF) शामिल थे।
"जनता से लो और जनता को दो" के सिद्धान्त को अपने व्यवहार से जोड़ने के मकसद से हम छात्र-छात्राएं 10 जून से 19 जून तक अपना गाँव चलो अभियान लेकर चंदौली जिले के 8 गाँवों में गए। हमारे इस बार के गाँव चलो अभियान में करीब 40 लोगों ने हिस्सा लिया। जिसमें 25 लोग नियमित 10 दिनों तक गाँवों में रुके।
हर बार की तरह इस बार भी हमने अपना GVC गर्मी की छुट्टियों में लिया। गर्मी के छुट्टियों के दौरान शिक्षण संस्थान भी बंद रहते हैं तथा किसान भी खेती-बाड़ी के काम से खाली हो जाते हैं।
हमने GVC से पहले एक 5 सदस्यीय गाँव चलो अभियान संयोजन समिति का निर्माण किया जिसने पूरे 20 दिनों तक, अभ्यास व GVC को संचालित किया। इस समिति के तरफ से GVC से संबंधित एक नियमावली (सर्कुलर) जारी किया गया था जिसमें गाँव में छात्र- छात्राओं के व्यवहार और रहन- सहन से जुड़े कुछ निर्देश व नियम मौजूद थे एवं जिसका पालन सभी को करना था। GVC में दिखाए जाने वाले नाटक को बनाने और गीतों के अभ्यास के लिए हमने गांव जाने के 10 दिन पहले से तैयारियां शुरू कर दी थी। हम लोग रोज़ सुबह और शाम पूर्व निर्धारित समय पर मिलते थे और रिहर्सल करते थे।
हमलोग GVC के दौरान पहले के 6 गाँवों में एक- एक दिन और आखिर के 2 गाँवों में दो-दो दिन रहे। ये दोनों गाँव पुराने गाँवों में से थे जिनमें हम पिछले GVC में रह चुके थे।
हर गाँव का सर्वे सुबह 7 बजे से 11 बजे दोपहर तक किया जाता था। सर्वे के लिए हर रोज 5 टीमें बनाई जाती थी। संयोजन समिति द्वारा तैयार किया गया एक चार्ट पेपर जिसमें कई तरह के प्रश्न होते थे जिन्हें हर घर मे पूछा जाना होता था और साथ ही एक सामान्य प्रश्नावली का पेपर जिसमें जमीनों को लेकर कुछ प्रश्न होते थे, को हर टीम को सर्वे के लिए दिया जाता था। ये सारे प्रश्न आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक सभी स्तरों के होते थे।
इसके बाद दोपहर में हम सभी अलग-अलग घरों में खाना खाने तथा थोड़े आराम के बाद हर दिन के कार्यवाही से संबंधित सकारात्मक तथा नकारात्मक समीक्षा मीटिंग होती थी। समीक्षा के दौरान निकलने वाली कमियों को जो हमारे व्यवहार, सर्वे, नाटक आदि से संबंधित होती थी, उन्हें ठीक करने का सभी साथी प्रयास करते थे और अगली बार उसी गलती को न दोहराने की कोशिश करते थे।
    शाम 4 बजे से सारे सदस्य दो टीमों में बंट कर नारे लगाते तथा डफ़ली बजाते हुए पूरे गाँव में नाटक का स्थान, समय और नाटक के बारे में सूचना देते थे। इसके बाद शाम साढ़े पांच बजे से सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू किया जाता था जिसमे सामाजिक गीत-गाने तथा नाटक दिखाया जाता था। नाटक तथा गाने समाज के विभिन्न समस्याओं पर केंद्रित होते थे। हमारा इस बार का नाटक ज़मीनों (ग्राम सभा, बंजर, सीलिंग,नादिवास आदि) के असमान वितरण, शिक्षा के निजीकरण , एन्टी भू-माफिया एक्ट के नाम पर उजाड़े जा रहे गरीबों दलितों की समस्याएं गाँव में नशाखोरी तथा इससे जुड़ी महिलाओं की समस्याएं मजदूरों की स्थिति और साथ ही आदिवासियों पर हो रहे राजकीय दमन आदि सामाजिक एवं राजनैतिक मुद्दों पर केंद्रित था।
       नाटक से पहले हमलोगों के बीच से कोई एक साथी परिचयात्मक तथा मजदूरों-किसानों के जीवन से जुड़ी समस्याओं पर भाषण देता था। उसके बाद क्रांतिकारी गीतों के साथ नाटक की शुरुआत की जाती थी। नाटक के बाद हम सभी गाँव वालों के बीच जा कर उनसे नाटक को लेकर बात करते और उनसे जुड़ने की कोशिश करते। हम में से कोई एक साथी नाटक के बाद रात के भोजन के लिए जनता से अपील करता कि हम में से एक व्यक्ति एक घर में खाना खायेगा और संभव हो तो रात को वही सोयेगा। ताकि जनता से ज्यादा से ज्यादा बातचीत हो सके।
GVC के दौरान कई तरह के खर्चे भी आते हैं जैसे पर्चे, आने जाने  और  खाने पीने में, इत्यादि। यह खर्च हमने BHU तथा IIT BHU के छात्रों, बुद्धिजीवियों, प्रोफेसरों  के आर्थिक  सहयोग से चलाया। इसके आय-व्यय का पूरा लिखित ब्यौरा संचालन समिति की तरफ से रिव्यु मीटिंग में रखा गया।

गाँव चलो अभियान से प्राप्त आंकङों तथा अध्ययन के बाद इन गाँवों का आर्थिक विश्लेषण:-

      इन गाँवों की स्थिति विभिन्न सरकारों द्वारा पिछले 70 वर्षों मे किए गए तथाकथित विकास की पोल खोल कर रख देता है। भारत में जहां साढ़े छः लाख से अधिक गाँव हैं तथा आज भी गाँव की लगभग 80 फ़ीसद आबादी खेती तथा खेतिहर मजदूरी में लगी हुई है,ऐसे में जमीन का सवाल सबसे महत्वपूर्ण सवाल बन जाता है। अपने जांच-पड़ताल एवं अध्ययन के दौरान हमने यह पाया कि हरेक गाँव में लगभग 60-80 फीसद परिवार भूमिहीन हैं। यहां ज्यादातर जमीनें जमींदारों के पास ही है और परिवार बढने की वजह से उनके बीच आपस में ही बँटी है। चूँकि यह इलाका बिहार से सटा रहा है इसलिए इन गाँवों पर नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह का भी प्रभाव रहा है तथा उससे प्रेरित जनसंघर्षों से 80 के दशक में गरीबो - दलितों के बीच कुछ जमीनों का बंटवारा हुआ है। चकबंदी,हदबंदी,सीलिंग एक्ट को आज भी गांवों में सही तरीके से लागू नहीं किया गया है। तमाम संघर्षों के बावजूद आज भी आपको इस इलाके में 200-250 बीघा(125-156  एकड़) वाले जमींदार मिल जाएंगे।       
 इन गाँवों में जहां खेती- बाड़ी ही उत्पादन तथा रोजगार का मुख्य साधन है, अतः जिनके पास खेत है उन्हीं के पास रोजगार है। बाकी सभी लोग जमींदारों के यहाँ अधिया,बटाईदारी यहां तक की चरवाही(बंधुआ मजदूरी) करने को भी विवश है। इन इलाकों में पटवन अथवा कूत पर भी खेत दिया जाता है, जिसकी दर 14000 -16000 रूपए प्रति बीघा सालाना है। अपने आकलन के आधार पर हम देखें तो एक बीघा जमीन में अगर फसल अच्छी भी हुई हो तो किसानों का लागत मूल्य निकालकर 25-30 हजार की ही आमदनी होती है। इस हिसाब से देखें तो आधे से ज्यादा हिस्सा उसे जमीन के किराए के रूप में ही देना पड़ता है और साल भर पूरे परिवार के साथ मिलकर मेहनत करके भी वह बहुत थोड़ा ही प्राप्त कर पाता है। यह दर्शाता है कि आज भी सामंती प्रथा थोड़े बहुत बदलावों के साथ कमोबेश उसी रूप में विद्यमान है। अगर कहीं फसल खराब हो जाती है तो ये खेतिहर मजदूर भारी कर्ज में डूब जाते हैं। ये लोग पटवन अथवा कूत पर खेत लेने के लिए ग्रामीण साहूकारों(जो इन्हीं जैसे जमींदार अथवा धनिक होते हैं) से 10% तक के मासिक ब्याज पर कर्ज लेते हैं। फसल खराब होने की स्थिति मे ये निरंतर कर्ज के बोझ तले दबते चले जाते हैं।
        जांच पड़ताल से यह पता चला कि लगभग 95% दलित परिवार भूमिहीन हैं। वहीं लगभग 60-70 फीसदी पिछड़ी जाति के लोग या तो भूमिहीन हैं या उनके पास बस नाममात्र की ही जमीनें हैं। पिछड़ी जातियों में भी ज्यादातर जमीनों के मालिक कुछ प्रभावशाली जातियों(जैसे यादव,मौर्या,कुर्मी) के चंद परिवार ही हैं। चूँकि इस बार हमने गाँव चलो अभियान के लिए ज्यादातर ऐसे गाँवों को चुना था जो या तो दलित बाहुल्य है या पिछड़ी जाति बाहुल्य इसलिए इन गाँवों में पिछड़ी जाति के पास भी बड़ी जोतें देखने को मिली। इन गाँवों मे सवर्ण जातियों के घर बहुत कम थें, कुछ गाँवों में तो सवर्णों के एक भी घर नही थें। इन गाँवों मे ज्यादातर जमीनों के मालिक या तो सवर्ण थे या फिर पिछड़ी जाति के लोग। आंकड़ों के रूप में हम यहाँ कुछ गाँवों के जमींदारों तथा बड़े किसानों की जमीनों का विवरण रख रहे हैं।

भुङकुङा और बटऊवा ग्राम पंचायत भुङकुङा के एवं घोङसारी और अमीलिया ग्राम पंचायत घोङसारी के गाँव हैं।

ये आंकड़े हमें यह दर्शाते हैं कि हर गाँव की आधी से ज्यादा जमीनें चंद परिवारों के पास ही है तथा उनमे से ज्यादातर लोग कुछ खास जातियों से ही आते हैं। सैकड़ों एकड़ ग्राम सभा(GS),बंजर,नदिवास की जमीनें आज भी कुछ जमींदार अथवा बड़े किसान(उच्च जाति के) दबंगई से जोत रहें हैं तथा आज तक किसी सरकार ने इन पर कोई कार्यवाही नहीं की क्योंकि यही लोग संसद तथा विधानसभाओं में भी बैठे हैं।
     खेती के अलावा इन गाँवों में मजदूरी ही रोजगार का प्रमुख साधन है। गाँव के ज्यादातर दलित तथा पिछड़ी जाति के लोग या तो खेतिहर मजदूरी मे लगे हुए है अथवा आसपास के बाजारों(चंदौली,बनारस) में दिहाड़ी मजदूरी में। दिनभर हाड़-तोड़ मेहनत करने के बावजूद मजदूरी के रूप मे उन्हें या तो 200-250 रूपए मिलते हैं या बहुत थोड़ा अनाज। महिलाओं को समान श्रम करने के बावजूद इससे भी कम मजदूरी मिलती है। इलाके में रोजगार के साधन के रूप में ईंट-भट्ठे हैं, परन्तु इनमें बहुत कम मजदूरी मिलने तथा बहुत अधिक शोषण होने के कारण गाँव के लोग यहाँ काम नहीं करते। यहाँ ज्यादातर बिहार झारखण्ड से पलायन कर रोजगार के खोज में आये मजदूर ही काम करते हैं और ये भी इन ईंट भट्ठों में हो रहे शोषण का शिकार होते हैं। ये भट्ठे गाँव के ही उच्च जातीय दबंगों के होते हैं।इन गाँवों के ज्यादातर युवा पलायन करके दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद जैसे शहरों मे जाने को विवश हैं। प्रायः इनको शहरों मे भी मूलभूत सुविधाओं का अभाव, कम मजदूरी, दुर्गम एवं दम घुटने वाले हालातों में काम करना, सुरक्षा तथा स्वास्थ्य मानकों का उल्लंघन, काम के घंटे अधिक होना इत्यादि अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। कम मजदूरी मिलने तथा साल भर काम न मिलने के कारण ये बहुत थोड़ा पैसा ही बचा पाते है तथा खेती-बाड़ी के मौसम में गाँव वापस लौटकर रोपनी, सोहनी, मनरेगा इत्यादि के कामों में लगकर 4-5 महीने गाँव में ही रोजगार प्राप्त करते हैं।शहरों में काम करने के बावजूद ये लोग खेती से जुड़े रहते हैं और दोनों जगह अपने श्रम को बेचने के लिए विवश हैं। अतः हमारे यहाँ के खेतिहर मजदूर ही शहरों के कारखानों तथा दिहाड़ी के काम में लगे  मजदूर के रूप में मौजूद हैं। खिंलची गाँव के संजीवन राम बताते हैं कि "मनरेगा के तहत साल मे 10-15 दिन ही काम मिलता है और मजदूरी 175 रूपए, जबकि आस-पास के बाजारों मे दिहाड़ी करने पर उन्हें 200-250 रूपए तक मिलते हैं।" जाँच-पड़ताल में हमने पाया कि हरेक गाँव से आबादी के लगभग 10-20% लोग रोजगार हेतु पलायित हैं। इन मजदूरों का जीवन घोर अनिश्चितता से भरा है, अगर उन्हें 2-3 दिन लगातार काम नही मिलता तो इनके घर चुल्हा जलना भी मुश्किल हो जाता है। इस तरह से हम देखते हैं कि भारत का मजदूर वर्ग आज भी गाँवों पर निर्भर है।
        मंझोले किसानों की स्थिति भी बिल्कुल दयनीय है मगर भूमिहीनों के मुकाबले वो ठीक-ठाक हालातों में गुजर बसर कर रहे हैं। मंझोले किसान ज्यादातर पिछड़ी जातियों के ही लोग हैं तथा ब्राह्मणवादी व्यवस्था यहां की हवाओं में घुले  होने के कारण ये अपने आप को भूमिहीनों,दलितों के बजाय बड़े किसानों अथवा सामंतों के ज्यादा करीब समझते हैं। ये खेती- बाड़ी से उत्पन्न अनाजों से पहले तो अपना भरण-पोषण कर लेते थे परंतु बदलते परिदृश्य में इनकी हालत और भी बुरी होती जा रही है। आज देश भर में किसान लगातार स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने हेतु आंदोलनरत हैं क्योकिं इन्हें इनके उगाए गए फसलों का लागत मूल्य तक नहीं निकल पा रहा इसलिए अब ये अपने श्रम का एक हिस्सा फैक्टरियों और कल-कारखानों में भी बेचने को मजबूर हैं। अतः वर्तमान परिदृश्य में खेती इनके लिए बिल्कुल लाभकारी नहीं रह गई है। एक ओर तो उन्हें गाँव के ही जमींदारों तथा बड़े किसानों के शोषण का सामना करना पड़ता है क्योंकि सिंचाई के साधन, मशीनी उपकरण इत्यादि ज्यादातर इन्हीं के पास है तथा दूसरी ओर उन्हें उनके फसलों का भी उचित दाम नहीं मिलता।         
खेती से मुनाफा आज के दौर में केवल जमींदार ही उठा रहे हैं। एक ओर तो वो अधिया, पटवन पर खेत देकर धन वसूलते हैं वहीं दूसरी ओर खेतिहर मजदूरों के श्रम का भी शोषण करते हैं। इन गाँवों मे सिंचाई के समय खेत में पानी पहुंचवाने की दर 150 रूपए प्रति घन्टा है कि चूँकि पम्पिंग सेट, मोटर इत्यादि भी इन्हीं ज़मींदारों और बड़े किसानों के ही पास है इसलिए इससे धन भी यही कमाते हैं। कटाई, बुवाई के समय भी ये अपने ट्रैक्टरों तथा हार्वेस्टरों के माध्यम से अच्छी कमाई कर लेते हैं। यही लोग सबसे अधिक जमीनों के मालिक भी हैं। गाँवों का मुख्य शोषक वर्ग यही है। अपना ही परिवार बँटने की वजह से इनके पास जमीनें पहले की अपेक्षा कम हो गई है तथा खाद बीज के दाम बढ़ने एवं फसल की कीमतों के कम मिलने के कारण इनकी भी स्थिति पहले की तुलना में गिरी है। फिर भी यह गाँव का घनघोर प्रतिक्रियावादी तबका है तथा दलाल पूंजीपति वर्ग के साथ मिलकर वर्तमान व्यवस्था को बनाए रखने का पक्षधर है।
            गाँव चलो अभियान के दौरान हम रामपुर गाँव में भी गए। इस छोटे से गाँव में सिर्फ चमार जाति के ही लोग बसे थें। इस गाँव के लगभग सभी परिवारों के पास 5-10 बिस्से से लेकर 2-3 बीघे तक जमीनें थी, इस कारण यहाँ के दलित शिक्षित थे और ठीक-ठाक स्थिति मे गुजर-बसर कर रहे थे। यह दर्शाता है कि भारत में जातीय उत्पीड़न आर्थिक शोषण को बरकरार रखने का ही औजार है। जांच-पड़ताल के दौरान पाए गए उपरोक्त तथ्यों से हम समझ सकते हैं कि भारत किस तरह से एक अर्ध सामंती तथा अर्ध औपनिवेशिक देश है।

सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक स्थिति:

   समाज में उत्पादन प्रणाली में जैसा आर्थिक सम्बन्ध होता है उसी के अनुरूप सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक सम्बन्ध भी होते हैं। यही हमने सर्वे के दौरान गाँव में भी देखा।
    चूंकि जिन गाँवों में हमने GVC लिया उसमें ज्यादातर गाँवों में पिछड़ी जातियां, उसमें भी मुख्य रूप से यादव (अहीर), कुर्मी, मौर्या, ही आर्थिक रूप से आगे हैं और धनी किसान हैं।अतः ये जातियां गांवों में एक हद तक सामंती भूमिका भी निभाती हैं और विशेषकर भूमिहीन मजदूरों का शोषण भी करती हैं । हालाँकि ये उच्च जातियों के सामंतों जैसे शोषणकारी, दमनकारी और वर्चस्वशाली नहीं हैं। क्योंकि पिछड़ी जातियां भी उच्च जाति के सामंतों से शोषित रही हैं और आज भी हैं।
      जांच-पड़ताल में हमने देखा की जिन गाँवों में उच्च जातियां हैं वहाँ आर्थिक असमानता और जातिय भेदभाव काफी ज्यादा है।
      आज भी गाँव पूरी तरह से जातियों में बँटे हुए हैं। दलितों की बस्तियाँ आज भी गाँव की दक्षिण दिशा में बसी हुई है। हर जाति अपने से तथाकथित छोटी जाति से घृणा करती है। दलितों व पिछड़ी जातियों में भी ये जातिगत भेदभावपूर्ण व्यवहार देखने को मिला। बल्कि दलितों में भी आपसी जातिगत ऊँच-नीच की भावना मौजूद है। छुआछूत आज भी एक सच्चाई बना हुआ है। चौका-चौकी का भेद आज भी जारी है। लोगों ने बताया कि केवल चुनाव के दौरान ही कभी कभी सवर्ण जाति के लोग दलितों के यहाँ पानी पी लेते हैं, नहीं तो आज भी न तो कोई सवर्ण दलित की थाली में खाना खाता है न ही किसी दलित को सवर्ण अपनी थाली में खिलाते हैं।
    अंतरजातीय विवाह यानी रोटी-बेटी का सम्बन्ध, जिसकी वकालत डॉ. भीमराव आंबेडकर करते हैं, इसकी बानगी तो शायद ही किसी गाँव में देखने को मिली हो। जाति व्यवस्था की मजबूत जड़ो का ही उदाहरण है कि यहाँ अंतरजातीय विवाह का कोई भी मामला देखने को नहीं मिला। साथ ही  पितृसत्तात्मक और सामंती मानसिकता की झलक इस बात से साफ़ दिखी कि गाँवों में लड़के लड़कियों के बीच कोई संवाद तक नहीं है दोस्ती तो इनके लिए दूर की बात है।
आज दलित तथा पिछड़ी जातियों का सांस्कृतिकरण (ब्राह्मणीकरण) बहुत तेज़ी से हो रहा है। वे पूजा-पाठ, शादी-विवाह, पाखंड आदि सभी कर्मकांडो में अपने से ऊंची जातियों की नक़ल कर रहे हैं। सामंती व पूंजीवादी ताकतों द्वारा सांस्कृतिकरण को नए-नए रूपों में ग्लैमराइज़ करके बढ़ावा दिया जा रहा है। आज भी झाड़-फूंक, जादू-टोना और अन्धविश्वास में लोग बुरी तरह उलझे हुए हैं।
            हमने यहां पाया कि पिछले 30-50 सालों में हुए जन विद्रोहों व संघर्षों की वजह से राजनैतिक संबंधों में काफी तेज़ी से बदलाव आए हैं। जिसके बाद से सत्ता पक्ष ने इस शोषणकारी व्यवस्था को बनाए रखने तथा और भी मज़बूत करने के लिए गाँव-गाँव तक अपने दलाल व मुखबीर पैदा किया है। दलितों तथा पिछड़ों में जिन लोगों की आर्थिक स्थिति थोड़ी मज़बूत हुई है, उनकी वर्गीय चेतना में भी बदलाव आया है। उनमें से अधिकांशतः ज़मींदारों, धनी किसानों, सवर्णों तथा विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की दलाली, मुखबीरी व चाटुकारिता में लगे हैं। आमतौर पर पाया कि अगर दलाल दलित जाति का है तो बसपा और पिछड़ी जाति का है तो भाजपा या सपा की दलाली करता है। यह चाटुकार शासक वर्ग(ज़मींदारों, विभिन्न राजनैतिक पार्टियों) के लिए आज सचेतन दलाली का काम कर रहा है। आज गाँव में  सवर्ण जातियों की उनकी जातीय एकजुटता की प्रतिक्रिया में हर जाति के अपने-अपने संगठन जैसे निषादों की पार्टी, प्रजापति समाज इत्यादि है, जिससे जाति व्यवस्था व जातीय बंटवारा और मज़बूत हो रहा है। इन सबकी वजह से आज गाँवों में मज़दूर-किसान को एकजुट होकर अपने शोषण के खिलाफ संघर्ष करने में दिक्कत आ रही है।
         गाँवों में सरकारी योजनाओं का हाल बहुत बुरा है। हर 5 साल पर सरकारें तो बदलती है पर योजनाएं जनता तक बिलकुल नहीं पहुँचती बस कुछ चुनुंदा लोगो तक सीमित रह जाती है। और तो और लोगों को प्रधान व सेक्रेटरी के पास बार-बार दौड़ना पड़ता है और घुस भी खिलाना पड़ता है ताकि उनका नाम सरकारी सुविधाओं की सूची में आ सके। हाल के कुछ सालों में जो कुछ छोटी-मोटी सुविधाएं जैसे ग़रीबों के पेंशन, वृद्धा, विधवा पेंशन आदि आ रही थी वो भी बिल्कुल बंद हो गयी है। मनरेगा में जहाँ एक साल में 100 दिनों का काम और काम ना मिलने की स्थिति में बेरोजगारी भत्ता मिलना चाहिए, वहाँ हाल ये है कि पुरे साल में किसी-किसी को ही 10-15 दिनों तक का काम मिल पाता है। बेरोजगारी भत्ते की बात तो दूर है जो काम करते हैं उनको पूरी मजदूरी भी नहीं मिलती। प्रधान-ठेकेदार मिलकर उनकी मजदूरी गबन कर जाते हैं। ये प्रधान आमतौर से उच्च जाति के सामंत ही होते हैं, जो दलितों को उनके अधिकारों से वंचित ही रखते हैं। जिन गांवों में दलित प्रधान हैं वहाँ भी दलितों की स्थिति व सरकारी योजनाओं की स्थिति में कोई अंतर नही है।
       हाल में सरकार ये दलील देकर एंटी भू-माफिया एक्ट लेकर आयी की जो लोग गाँव में सरकार व ग्राम समाजी भूमि पर कब्ज़ा बनाए हुए हैं उससे ज़मीन वापस ली जाएगी, पर सर्वे में ये बिलकुल उल्टा दिखा। सरकार भू-माफिया के नाम भूमिहीन-दलितों को उनके बसे हुए बस्ती से यह कहकर उजाड़ने पर तुली है कि यह तालाब की ज़मीन है। जबकि असल में हमने पाया कि भू-माफिया वे उच्च जाति के लोग हैं जिन्होंने गाँवों के GS, बंजर, नादिवास, खलिहाल आदि की जमीनों पर कब्ज़ा बनाए हैं। यहां तक की चकबंदी, हदबंदी, सीलिंग एक्ट से जो थोड़ी बहुत ज़मीन दलितों में एक समय में संघर्ष की वजह से बंटी थी उस पर भी ये उच्च जाति के दबंगों ने कब्ज़ा कर रखा है। सरकार उन्हें कुछ नहीं करती बल्कि उल्टा उनको शह देती है। सर्वे में एक महिला उच्च जातियों के दबंगई का जिक्र करते हुए बताती है कि उच्च जाति के दबंगों ने उसके बेटे को मारते-मारते पैर तक तोड़ दिया क्योंकि उसके बेटे ने सामंतों के खेत से चना तोड़ लिया था। FIR के बावजूद उनके ऊपर कोई कार्यवाही नहीं हुई।
      हमने गाँवों में शोषण व गुलामी के उस विभत्स रूप को देखा जिसे चारवाही (बंधुआ मजदूरी) कहते हैं। इन बंधुआ मज़दूरों की स्थिति ये है की उनको अपने मालिक के यहाँ 24 घण्टे रहकर घर से लेकर खेती बाड़ी, गाय-भैंस की देखरेख तक का सारा काम करना पड़ता है। एक साल तक के बंधुआ मजदूरी के लिए इस मज़दूर को बदले में 1 साल के लिए बस दो बीघा ज़मीन खेती के लिए मिलती है। बंधुआ मज़दूरों की हालत ये है कि वो अपने घर भी नहीं जा सकते।अगर घर में कोई बीमार या कुछ ऐसा ज़रूरी काम पड़ जाय तो कुछ घंटों के लिए घर जाते हैं और जल्द से जल्द मालिक के यहाँ लौटने की कोशिश करते हैं। एक बंधुआ मजदूर के घर में बातचीत से हमें यह पता चला की अगर उनके घर कोई मर भी जाय तो उसके पास खबर पहुँचने तक में समय लग जाता है।
सर्वे के दौरान लोगों ने हमें बताया कि इन इलाकों में जन संघर्षों व नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव के कारण सामंती/ जाति उत्पीड़न पहले की अपेक्षा कुछ हद तक कम हुआ है पर ये लोग अभी भी जन संघर्षों व आंदोलनों की ज़रुरत को महसूस करते हैं और अपने आत्मसम्मान की लड़ाई के लिए वो ज़ज़्बा भी इनमें दिखता है।

शिक्षा की स्थिति:

        गाँव में सर्वे के दौरान हमने देश की बदहाल शिक्षा व्यवस्था के निम्नतम स्तर के शिक्षा व्यवस्था को देखा।
     हमने पाया कि ज्यादातर गांवों में प्राथमिक विद्यालय तो हैं पर उसमें 2-3 ही शिक्षक हैं। वो भी विद्यालयों में पढ़ाने से ज्यादा चुनावी ड्यूटी, जनगणना आदि में उलझे रहते हैं और शिक्षा के नाम पर बच्चों को खिचड़ी खिलाई जाती है। मिडिल स्कूल की बात करें तो एक मिडिल स्कूल पर 6-7 गाँवों का बोझ है। ये मिडिल स्कूल भी शिक्षकों की भारी कमी और भ्रष्टाचार से जूझ रहे हैं। 10वीं व 12वीं तक शिक्षा के लिए स्कूल कुछ कस्बों तक ही सीमित है। गाँवों के बच्चों को पढ़ने के लिए 15-20 km तक दुरी तय करके जाना पड़ता है। विद्यालयों में बच्चों के लिए सुविधा के नाम पर सिर्फ कक्षा के लिए कमरे ही हैं। न सही-साफ़-सुथरे शौचालय, न साफ़ पीने का पानी, न पढ़ने लिखने की कॉपी किताब, न प्रयोगशाला, न कोई उपकरण, न ही खेल-कूद की कोई सुविधा है। पिछले कुछ सालों में तो गांवों के कई सरकारी विद्यालय बंद हो गए हैं।
     अपने बदहाल आर्थिक स्थिति और देश की इस निम्नतम स्तर की शिक्षा की वजह से ज्यादार बच्चे या तो अपनी पढ़ाई शुरू भी नहीं कर पाते या कुछ थोड़ा पढ़ने के बाद ही छोड़ने को मज़बूर हो जाते हैं। इन सभी सरकारी विद्यालयों में ग़रीबों, दलितों, मज़दूरों, किसानों के ही बच्चे आते हैं।
     दूसरी तरफ शिक्षा के निजीकरण के कारण निजी स्कूलों की बाढ़ सी आ गई है, जिसकी फीसें इतनी ज्यादा है कि गाँव के गरीब-मज़दूर-किसान के बच्चों का पढ़ना बहुत दूर की बात हो जाती है। इन निजी स्कूलों में सिर्फ सामंतों और छोटे-मध्यम किसान के ही बच्चे पढ़ते हैं।
      उच्च शिक्षा में प्रतियोगिता का स्तर सरकारी स्कूलों से पास हुए बच्चों के अनुरूप न होने से ये बच्चे उच्च शिक्षण संस्थानों तक पहुँच ही नहीं पाते। इस दोहरी शिक्षा नीति की वजह से 100 में से 70 बच्चे 8वीं या 10वीं तक की शिक्षा भी नहीं ले पाते और बीच में छोड़कर गाँव में या शहर में जाकर मज़दूरी करने को बेबस हैं।
     शिक्षा एक मूलभूत अधिकार है जो देश के हर बच्चे को एक समान रूप से मिलना चाहिए पर सरकार की नीतियों और सर्वे में ज़मीनी सच्चाई देखकर ये साफ़ तौर पर पता चलता है कि सरकार/सत्ता वर्ग दलित-गरीब-मज़दूर-किसान को सिर्फ मज़दूर ही बनाए रखना चाहती है और जो लोग कुछ पढ़ भी लेते हैं वो इस मनु-मैकाले शिक्षा पद्धति में क्लर्क मात्र ही बनते हैं।
      सरकार के नई शिक्षा नीति के द्वारा शिक्षा के निजीकरण से विद्यालयों के फण्ड काफी कम हो गए हैं जिसके दुष्परिणाम से शिक्षा महज़ एक वस्तु बनकर रह गयी है। जिसके पास पैसा है वो खरीदे और पढ़े, जिसके पास नहीं है वो नहीं पढ़ सकता।
   सरकारें दावा करती हैं कि इस लोकतंत्र में सबके लिए शिक्षा उपलब्ध है। पर इस गैर बराबरी वाले समाज में बच्चों, जिन्हें देश का भविष्य माना जाता है, को उनके बेहद ज़रूरी और मूलभूत अधिकार से ही महरूम रखा गया है और एक बराबरी की समाज और बेहतर भविष्य की कोरी व झूठी कल्पना की जाती है।

स्वास्थ्य की स्थिति:

        अपने 10 दिनों के गाँव चलो अभियान के सर्वे के दौरान हमने यह पाया कि यहाँ भी स्वास्थ्य की स्थिति देश के बाकी हिस्सों से अलग नहीं है, अपितु पिछड़ा इलाका होने के कारण और भी बदतर स्थिति में है। स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यकता इन इलाकों में बहुत ही दयनीय हालत में है। इन गाँवों के लोगों को गंभीर बीमारियों के इलाज के लिए प्रायः चंदौली अथवा बनारस ही जाना पड़ता है। नजदीकी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र इलिया तथा शहाबगंज में है, जिसकी दूरी इन गाँवों से 8 से 15 किलोमीटर तक की है। कलपुरवाँ माफी गाँव की रामसोगतिया देवी बताती हैं कि “सरकारी अस्पताल में डॉक्टर ठीक तरह से परेशानी ही नहीं सुनते, आधी बात सुनकर ही दवा लिख देते हैं।ठीक से बताते भी नहीं है कि दवा कब और कितनी बार खानी है। ज्यादातर दवाइयाँ अस्पताल से मिलती ही नहीं है, उन्हें जाकर प्राइवेट दवा दुकानों से भारी रकम खर्च करके खरीदना पड़ता है।” ऐसी ही कहानी हमें कमोबेश हरेक गाँव में सुनने को मिली।
     इन गाँवों में हमें टी बी, खून की कमी, पैरालाइसिस, कोढ़, डायबिटीज, कैंसर इत्यादि गंभीर बीमारियों से पीड़ित मरीज भी मिलें, जो उन्हीं सरकारी अस्पतालों में अपना इलाज करवाने को मजबूर है जहाँ न पर्याप्त डॉक्टर मयस्सर हैं और न ही पर्याप्त दवाइयाँ। ग्रामीण स्वास्थ्य आंकड़ों के मुताबिक मात्र 11% स्वास्थ्य उपकेंद्र ही भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य मानकों पर खरे उतरे हैं, इससे भी सरकार का ग्रामीण क्षेत्रों की स्वास्थ्य सुविधाओं के प्रति गम्भीरता का पता चलता है।
       इन गाँवों की महिलाओं से बातचीत में हमने पाया कि ये ज्यादातर महिलाएँ एनीमिया(खून की कमी) और सिरदर्द व कमर दर्द जैसी बीमारियों से जूझ रही हैं। गाँव में दलितों, मजदूरों, पिछड़ों के आधे से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं। तंगहाली के हालत होने के कारण वे न तो बेहतर खा पी सकते हैं और न ही बेहतर इलाज करवा सकते हैं। ये इलाका करैल माटी (काली मिट्टी) का होने के कारण यहां बिच्छू काटने की घटनाएं भी प्रायः घटित होते रहती है। स्वास्थ्य केंद्र दूर होने तथा इन केन्द्रों में बिच्छू के डंक का समुचित इलाज न होने के कारण वे प्रायः या तो गाँव के ही झोलाछाप डॉक्टरों के फेर में फंस जाते हैं अथवा झाड़-फूंक,ओझागिरी में। इस कारण उनका उचित इलाज नहीं हो पाता तथा वह कई तरह के संक्रमणों से पीड़ित हो जाते हैं। गंभीर बीमारियां होने पर भी इनमें से ज्यादातर लोग प्राइवेट अस्पतालों में नहीं जा पाते हैं क्योंकि उसका खर्च ये वहन करने की स्थिति में नहीं होते। बेहद गरीबी के हालातों में जब लोगों को कोई गंभीर बीमारी जकड़ लेती है तो उन्हें इलाज के लिए हजारों का कर्ज लेना पड़ता है। ऐसे में ज़्यादा ब्याज दर और न चुका पाने की स्थिति में ये उन पर एक बड़ा बोझ बन जाता है।
      भारत अपने नागरिकों की सेहत पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों में से है। इस बार भी सरकार ने सकल घरेलू उत्पाद(GDP) का महज 1.3% ही स्वास्थ्य सुविधाओं की ओर खर्च किया है, जबकि वैश्विक औसत जीडीपी का 6% है। सरकारें आज भी बुनियादी सुविधाओं को ठीक करने की जगह बीमा का झुनझुना पकड़ा दे रही है। इन गाँवों के सर्वें में हमने देखा कि सरकारों ने किस तरह लगातार ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं के साथ खिलवाड़ किया है तथा कल्याणकारी राज्य होने का जो भ्रम था उसे भी समाप्त कर दिया।

महिलाओं के बारे में:

     आज भी गाँव में महिलाओं की स्थिति में कोई ख़ास गुणात्मक बदलाव नहीं आया है। गाँव में पहली चीज़ जो हमने महिलाओं के बारे में पायी वह यह थी कि बहुत ही कम उम्र से उन्हें घर के कामों में झोंक दिया जाता है। गाँवों में लडकियां घर का काम कर के ही स्कूल जा सकती हैं। लड़का- लड़की में कई तरह के भेदभाव वहाँ देखने को मिले। लड़कियों को जल्द ही घर कि चारदीवारी में कैद कर दिया जाता है। बहुत कम लड़कियां ही 8वीं के बाद स्कूल जा पाती हैं। 16 वर्ष से ज़्यादा की लड़कियां न के बराबर देखने को मिली क्योंकि इस उम्र तक आते-आते उनकी शादी करके उनके माँ बाप इस ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं। महिलाएं परिवार और ग्रामीण समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई होने के बाद भी दोहरे शोषण का शिकार हैं। पहला, समाज में मौजूद वर्ग संघर्ष में एक सर्वहारा होने के कारण शोषण। दूसरा, पितृसत्ता के द्वारा शोषण, जिसे वे घर से लेकर बाहर तक झेलती और लड़ती हुई अपनी ज़िंदगी काटती हैं। हमने GVC में देखा कि ग्रामीण उत्पादन सम्बन्ध में उनके श्रम का योगदान पुरुषों से ज़्यादा है। महिलाएं घर में काम करने के साथ-साथ खेतों में भी काम करती हैं। फिर भी कहीं भी उनके श्रम का सम्मान नहीं होता है। सदियों से आज तक महिलाओं को जातिगत भेदभाव के साथ लिंगगत भेदभाव का भी सामना करना पड़ रहा है।
   हमारे पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं कि स्थिति न ही उनके पढ़े लिखे होने से तय होती है और न ही उनके ज़्यादा गुणवान होने से; यह बात बस इस चीज़ से तय होती है कि उसका पति कैसा है या उसके ससुराल के लोग कैसे हैं। ये बात गाँव में हमें और साफ़ तरीके से समझ आयी। उन्हें देखकर ऐसा लगा कि वे एक निर्वासित जीवन जी रही हैं जिसमें कहने को तो सब उनका ही है पर हक जताने को कुछ भी नहीं।
     हमने जिन गाँवों का सर्वे किया, वहाँ की महिलाओं को दो भागों में बाँटकर उनकी स्थिति को समझा जा सकता है। एक ओर उच्च जाति और उच्च वर्ग की महिलाएं हैं, जो लगातार घरों में ही रहती हैं और आज भी सामंती परम्पराओं में जकड़ी हुई हैं। जो आज भी पितृसत्ता की चारदीवारी में कैद हैं और किसी भी तरह के फैसले लेने के लिए स्वतन्त्र नहीं हैं। चाहे वो उनके व्यक्तिगत जीवन से जुड़ा हो, या पारिवारिक या सामाजिक, वे अपने घर के पुरुषों का ही निर्णय मानने के लिए बाध्य हैं। भले ही इनका जीवन स्तर दलित महिलाओं से बहुत अच्छा और आरामदायक है, लेकिन इसके बदले जो इनसे छीन लिया गया है उसके प्रति ये बिलकुल सचेत नहीं हैं। और अस्तित्वविहीन होकर सामंती पुरुषों की तरह ही मानसिकता रखती हैं। वे अपने आप को दलित और श्रमिक महिलाओं से अलग तथा श्रेष्ठ मानती हैं। विचारों में ये उतने ही प्रतिक्रियावादी हैं जितने की ब्राह्मणवादी पुरुष। दूसरी ओर नीची जाति और निचले वर्ग की महिलाएं हैं, जिन्हें आर्थिक कारणों से घर से बाहर भी श्रम करना मजबूरी बन जाता हैI ये महिलाएं अपने परिवार को भूख की तड़प से बचाने के लिए जी तोड़ मेहनत करती हैं और सीधे समाज की अर्थव्यवस्था से जुड़ी रहती हैं। यही कारण है कि ये महिलाएं पहले श्रेणी कि महिलाओं कि तुलना में कुछ स्वतंत्र होती हैं। फिर भी पितृसत्ता इन महिलाओं का पीछा नही छोड़ती। गैर-बराबर आय, छेड़छाड़ जैसी तमाम पितृसत्तात्मक मूल्यों का सामना इन्हें करना पड़ता है। पुरुषों के जितना ही मेहनत करने के बाद भी उन्हें कम मजदूरी दी जाती है। सर्वे के दौरान कुछ महिलाओं ने बताया कि रोपनी-सोहनी में बराबर घंटे काम करने पर जहाँ एक दिन में महिलाओ को 50 रुपये दिए जाते हैं वहीं पुरुषों को 70 रुपये दिए जाते हैं।
       गांवों में महिलाओं की इन स्थितियों को देखकर यह पूर्ण विश्वास हो जाता है कि भारत के गाँव सामंतवाद के गढ़ हैं। हमने यह भी पाया कि महिलाएं पितृसत्ता को लेकर तो नहीं लेकिन उच्च जाति की सत्ता व उनके द्वारा किए जा रहे शोषण के खिलाफ सचेत दिखीं।
     संघर्ष के प्रति महिलाओं में पुरुषों के मुकाबले ज्यादा जुझारूपन देखने को मिला। अन्तिम जिन दो गाँवों में हम दो दिन रुके और लोगों के साथ मीटिंगें की उसमें महिलाओं की संख्या या तो पुरुषों के बराबर थी या उनसे ज्यादा। मीटिंग में महिलाएं सबके सामने बात रखने से झिझकती जरूर थी जो कि पितृसत्तात्मक ढांचे की देन थी पर जो महिलाएं बात रखने को राज़ी हो जाती वो बहुत ही बढ़िया बातचीत रखती और साथ ही सबसे संगठन बनाने की अपील करती। इन मीटिंगों में मुख्यतः नीची जाति की महिलाएं ही आती थी जबकि हम पूरे गाँव के लोगो को बुलाते थे। एक महिला ने हमें समझाते हुए कहा "बिटिया, हम गरीबों के पास संगठन के सिवा कोनो और ताकत नही है, कोई सरकार हमारे लिए नही आएगी ये हम बहुत पहले ही समझ गए हैं।" महिलाओ में लड़ने की यह चेतना हमें हर गाँव में देखने को मिली।

निष्कर्ष:

        गाँव में ज़मीन के सवाल को हमने मुख्य अंतर्विरोध के रूप में पाया। ज़मीन की लड़ाई के बिना जनवाद की कोई लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। आज भी ज्यादातर ज़मीने उच्च जातियों तक ही सीमित है। नीचे जाति जैसे चमार, डोम, दुसाद इत्यादि अधिकांशतः भूमिहीन हैं तथा इनमें से कुछ परिवारों के पास न के बराबर ज़मीनें (2-5 बिस्सा) ही है। आर्थिक गैरबराबरी का प्रभाव सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक स्तरों पर भी साफ़ दिखा। जो उच्च जाति के लोग जमींदार व सामंत हैं, गाँव में उन्ही की दबंगई चलती है। जिन दलित व पिछड़ी जाति के कुछ लोगों के पास थोड़ी बहुत ज़मीने है उनमें थोड़ा आत्मनिर्भरता दिखी। इस आत्मनिर्भरता की कमी स्पष्ट रूप से भूमिहीनों में दिखी जिसमें ज्यादातर दलित व पिछड़ी जाति के ही लोग थे। जनवाद की लड़ाई में भूमिहीनों के आत्मनिर्भरता के लिए उन्हें ज़मीनों के अपने अधिकार को पाना होगा। "ज़मीन जोतने वालों की" नारे के साथ उन्हें संघर्ष को बढ़ाना होगा।
हमारे इस अभियान के दौरान गाँवों में हमने एक क्षण के लिए भी नहीं देखा की लोग हमसे उबते या घृणा करते हो। लोगों ने अपने बच्चों की तरह हमारा ख्याल रखा और अपने घरों में जगह दी। खास तौर पर दलित, गरीब, शोषित, उत्पीड़ित जनता की बात हम यहाँ कर रहे हैं। हमने यह भी देखा कि जनता मूर्ख नहीं है; लोग दोस्त और दुश्मन पहचानते हैं। इसका पता नाटक के अंत में जनता का हमारे साथ व्यवहार देख कर चलता है।
    जनता के पास जीवन तथा राजनीति से संबंधित ज्ञान है, लेकिन ये ज्ञान उलझा हुआ है, साफ व्यवस्थित नहीं है। उसकी वजह है कि उनके पास संघर्ष की सही दिशा नहीं है। ताकि लोग अपने ज़मीन और रोज़गार के अधिकार के लिए तथा शोषण के खिलाफ संगठीत हो सके।
 लोग यह जानते हैं कि बिना संगठित हुए कोई लड़ाई जीती नहीं जा सकती। बस जरूरत है तो एक विकल्प की। हम छात्र- छात्राएं आप सभी छात्रों, नौजवानों, बुद्धजीवियों तथा शोषण के खिलाफ खड़े हर व्यक्ति से यह अपील करते हैं कि जनता के साथ एक राजनीतिक विकल्प की लड़ाई में साथ आएं ताकि हम देश में ज़मीन और रोज़गार के सवालों तथा जाति व्यवस्था और महिला उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने के लिए जारी जनता के संघर्षों के हिस्सेदार बन सकें और शोषण व गैरबराबरी मुक्त नवजनवादी समाज का निर्माण कर सकें।


संपर्क:+918004246042

No comments: