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Saturday, January 5, 2019

दर्सगाहों पर हमलें- गौहर रज़ा की कविता

दर्सगाहों पर हमलें

दर्सगाहों पे हमले नए तो नहीं
इन किताबों पे हमले नए तो नहीं
इन सवालों पे हमले नए तो नहीं
इन ख्यालों पे हमले नए तो नहीं

गर, नया है कहीं कुछ, तो इतना हीं हैं
तुम नए भेस में लौट कर आए हो
तुम मेरे देश मे लौट कर आए हो

पर है सूरत वही, और सीरत वही
सारी वहशत वही, सारी नफरत वही
किस तरह छुपाओगे, पहचान को गेरुए रंग में,
छुप नही पाओगे
दर्सगाहों पर हमले नए तो नहीं
हम को तारीख का हर सफ़ा याद है

हम को तारीख का हर सफ़ा याद है
तक्षशिला हो कर नालंदा तुम ही तो थे
मिश्र में तुम ही थे, तुम ही यूनान में
रोम में, चीन में, तुम ही ग़जना में थे

अलबामा पर हमलें हमें याद है
बेल्जियम में तुम ही, तुम ही पोलैंड में
दर्सगाहों को मिस्मार करते रहे

जर्मनी में तुम्हारे क़दम जब पड़े
तब किताबों की होली जलाई गई
वो चिली में कयामत के दिन याद हैं
दर्सगाहों पर तीरों की बौछार थी

तुम ही हो तालिबान, तुम ही बोकोहराम
तुम ने रौंदा है सदियों से इल्म-ओ-हुनर
हम को तारीख का हर सफ़ा याद है

तुम तो अक्सर ही मज़हब के जामे में थे
फिर ये क्यों है गुमाँ, आज के दिन तुम्हे
धर्म की आड़ में, छुप के रह पाओगे
रौंद पाओगे सदियों की तहज़ीब को
हम को तारीख़ का हर सफ़ा याद है

दर्सगाहों पर हमले है, जब- जब हुए
फिर से उठ्ठी हैं  ये राख के ढ़ेर से
जब जलायी हैं तुम ने किताबें कहीं
हर कलम बन गया, परचम-ए-इंकलाब

आज की नस्ल उठ्ठी है परचम लिए
है वाकिफ़ तुम्हारे हर एक रूप से
तुमको पहचानती है हर एक रंग में
इस नई नस्ल को सारे खंजर परखने की तौफ़ीक है

इस नई नस्ल को दस्त-ए-कातिल झटकने तौफ़ीक है
इस नई नस्ल को दस्त-ए-कातिल झटकने तौफ़ीक है।
                -गौहर रजा

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