कोरोना महामारी के कारण हुए लॉक-डाउन में छात्र-मशाल का (अप्रैल-मई )अंक ऑनलाइन उपलब्ध है।
लेख संख्या - 1
भारत के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा और आनंद तेलतुंबड़े ने 14 अप्रैल मंगलवार दोपहर को एनआईए के सामने सरेंडर कर दिया था लेकिन अभी उनकी कस्टडी 25 अप्रैल तक बढ़ा दी गई है। वही गौतम नवलखा की कस्टडी जारी है।
जाहिर है देश की वर्तमान सरकार को किसी भी अपराधी से कोई खतरा या परेशानी नहीं है। लेकिन पढ़े लिखे बुद्धिजीवी जो सरकार की गलत नीतियों की आलोचना करते हैं व सरकार की जनविरोधी नीतियों की का पर्दाफाश करते हैं,उनसे सरकार को भारी खतरा और डर लगता है। देश और समाज को गति देने वाले ऐसे बुद्धिजीवियों को सरकार जेलो में डाल रही है। क्योंकि एक फासीवादी सरकार जनता को अशिक्षित रख कर ही शासन कर सकती है। लेकिन अगर जनता शिक्षित हो जाय तो ऐसे फासीवादी सरकार को अपने जनविरोधी नीतियों को लागू करने में विरोध का सामान करना पड़ता है। जाहिर है सरकार डरती है कि देश में इस लूट और शोषणकारी व्यवस्था के खिलाफ के खिलाफ कोई जन आंदोलन न खड़ा हो जाय। इसलिए वो चुन-चुन कर ऐसे नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर रही है, जो जनता को शिक्षित, जागरूक व संगठित करने का काम करते हैं।
भीमा कोरेगांव हिंसा के नाम पर इसी तरह कई मानवाधिकार से लेकर सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को फ़र्ज़ी तरीके गिरफ्तार किया जा चुका है ।जिनमें सुधा भारद्वाज,सुधीर धवले,सोमा सेन,सुरेंद्र गडलिंग,वर वरा राव,महेश राउत(TISS),वर्नन गोंजालवेस,रोना विल्सन आदि हैं। इसमे सबसे बड़ी बिडम्बना यह है कि भीमाकोरे गाँव हिंसा दलितों के ऊपर हुई थी। जिसे हिंदूवादी संगठनों ने दलितों के ऊपर किया था । इस हिंसा को हवा देने के पीछे सम्भाजी भिड़े और मिलिंद एकबोटे है जिनके ऊपर कई FIR दर्ज है लेकिन काफ़ी दवाब के बाद इनको गिरफ्तार तो किया गया लेकिन फिर जल्द ही रिहा भी कर दिया गया। ज्ञात हो की इन दोनों को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपना गुरु बात चुके हैं।आज जो जेलों में बंद है,सिर्फ सुधीर धवले को छोड़कर उनका न तो प्रत्यक्ष तौर पर न ही अप्रत्यक्ष तौर पर इस कार्यक्रम से लेना देना था। लेकिन इस फासीवादी सरकार ने देश की जनता के बीच इनकी गिरफ्तारी को जायज ठहराने के लिए इनका माओवादी से संबंध बताया। इतने भी बात न बनी तो जबरन एक कथित चिट्ठी का स्वांग रचा गया जिसमें यह दिखाया गया की ये सभी देश के प्रधानमंत्री की हत्या की साजिश रच रहे थे। ताकि सिर्फ भावनाओं के आधार पर देश की जनता से मौन सहमति ले ली जाए। सोचने वाली बात है कि गिरफ्तारी हुई भीमा कोरे गाँव हिंसा का बहाना बनाकर,सरकार जब सबूत नहीं दिखा पाई तो माओवादी और फिर फ़र्ज़ी चिट्टी से तार जोड़ दिया गया। यह एक साधारण इंसान भी समझ सकता है कि ये सारे जनता के बुद्धिजीवी और कार्यकर्ताओ को इसलिए जेलों में रख कर उत्पीड़ित किया जा रहा क्योंकि इनके विचार सत्ता और सरकार से नहीं मिलते हैं। एक लोकतांत्रिक देश में सत्ता से भिन्न या विपरीत विचार रखना जुर्म है। तो फिर हमें देश की लोकतांत्रिक मशीनरियों पर सवाल उठाना लाज़िम है। देश के सुप्रीम कोर्ट को भी ये सभी इतने बड़े अपराधी लगते हैं कि इनको जमानत तक नहीं दिया जा रहा है। जबकि बड़े बड़े अपराधी जमानत पर बाहर है चुनाव लड़ रहे हैं और संसद की कुर्सियों पर बैठ कर देश के लिए कानून बना रहे है। आज इनके केस को राज्य सरकार के लेकर NIA(नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी) को दे दिया गया है।ताकि राज्य सरकार द्वारा इन्हें रिहा न किया जा सके। केंद्र की बीजेपी सरकार द्वारा यह कृत सीधा-सीधा बदले की करवाई नजर आता है। जो पूरे देश के किये शर्म का विषय है।
आज देश में कोरोना का संकट छाया हुआ है। जिससे पूरा देश लॉकडाउन झेल रहा है।जिसमें खास कर मजदूरों की हालात बहुत ही दयनीय है। देश की एक बड़ी आबादी कोरोना से ज्यादा भुखमरी की चपेट में है। ऐसे में सुरक्षा की दृष्टि से कई जेलों से कैदियों को बाहर निकाला जा रहा है ताकि संक्रमण को रोका जाय। वैसे में आनंद तेलतुंबड़े और गौतम नौलखा जैसे बुद्धिजीवियों और लेखकों को जेल में क्यों डाला जा रहा है ये कोई भी इंसाफ पसंद भली-भांति समझ सकता है। आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है सरकार की जिसके चलते वो इन दोनों को जेल से बाहर देखना रास न आरहा है।
आनंद तेलतुंबड़े एक ऐसा नाम जिन्होंने वर्तमान में सबसे ज्यादा चर्चा में रहे डॉ अम्बेडकर के ऊपर कई किताबों को लिखा और संपादन किया है। जिसमे वो अम्बेडकर के रैडिकल विचारों को सामने ला रहे थे। दूसरी तरह आरएसएस अम्बेडकर को साम्प्रदयिक रंग में रंग कर उनका भगवाकरण करना चाहती है। लेकिन आनंद की किताब और लेख आरएसएस के लिए चुनौती बनकर खड़ी हो रही थी। चूंकि अम्बेडकर ने जीवन भर हिन्दू धर्म (जाति-व्यवस्था,धर्म ग्रंथ)का विरोध किया जिसका वाहक आज आरएसएस है । चूँकि आरएसएस के पास वैचारिक धरातल पर तथ्यों के साथ आंनद की लेखनी से संघर्ष करने का कोई तार्किक आधार न है। इसलिए वो सत्ता में बैठी बीजेपी में सरकार जिसका लगभग सारी सरकारी संस्थाओं पर कब्ज़ा हो चुका उसका इस्तेमाल करके उनके मनोबल को तोड़ना चाहती है।
ऐसा नहीं है की इस तरह की गिरफ्तारी सिर्फ कुछ लोगों की ही हुई बल्कि देश के अलग अलग हिस्से से सैकड़ो राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं को इसी तरह जबरन गिरफ्तार किया जा चुका है। CAA-NRC-NPR विरोधी आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले नेतृत्वकारी लोगों को खास करके इस लॉकडाउन में टारगेट किया जा रहा है। सरकार के लिए एक तरफ तो कोरोना से निपटने की चुनौती है लेकिन दूसरी तरफ वो इस लॉकडाउन को एक बेहतर अवसर के रूप उपयोग कर रही है और अपने राजनैतिक और वैचारिक प्रतिद्वंदियों को जेल भेज कर बदला ले रही है। जो एक लोकतांत्रिक देश के लिए बहुत ही निंदनीय हैं । ऐसे समय में देश की मेहनतकश जनता ही विकल्प है जो अपने बुद्धिजीवियों की रक्षा के लिए आवाज उठाये।
गौरतलब है कि तेलतुंबड़े और नवलखा ने अपने ख़िलाफ़ एफ़आईआर रद्द करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इनकार के बाद उन्होंने अग्रिम ज़मानत के लिए याचिका दायर की थी. ये याचिका भी बीते सप्ताह रद्द हो गई थी.
कौन हैं आनंद तेलतुंबड़े?
आनंद तेलतुंबड़े गोवा के एक मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट में पढ़ाते हैं. वो एक चर्चित बुद्धिजीवी और दलित अधिकार कार्यकर्ता हैं.कई नौकरियां करने के बाद उन्होंने आईआईएम अहमदाबाद से पढ़ाई की. वो भारत पेट्रोलियम कार्पोरेशन के एक्ज़ीक्यूटिव प्रेसिडेंट और पेट्रोनेट इंडिया के मैनेजिंग डायरेक्टर रह चुके हैं.वो आईआईटी खड़गपुर में पढ़ा चुके हैं और मौजूदा वक़्त में गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेज़मेंट में पढ़ा रहे हैं.अब तक 26 किताबें लिख चुके तेलतुंबड़े कई अख़बारों में कॉलम भी लिखते हैं. वो कई शोध पत्र भी लिख चुके हैं.वो सीपीडीआर (लोकतांत्रिक अधिकार रक्षा समिति) के महासचिव भी हैं.
गौतम नवलखा कौन हैं?
गौतम नवलखा एक मशहूर ऐक्टिविस्ट हैं, जिन्होंने नागरिक अधिकार, मानवाधिकार और लोकतांत्रिक अधिकार के मुद्दों पर काम किया है.वे अंग्रेज़ी पत्रिका इकोनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली (ईपीडब्ल्यू) में सलाहकार संपादक के पद पर भी रहे हैं. नवलखा लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था पीपल्स यूनियन फ़ॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) से भी जुड़े रहे हैं.
पीयूडीआर से लगभग चार दशकों से जुड़े रहे नवलखा ने मज़दूरों, दलितों आदिवासियों और सांप्रदायिक हिंसा जैसे मुद्दों पर काम किया है।
-अनुपम कुमार
(शोध छात्र, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी)
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