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Saturday, June 6, 2020

पुस्तक परिचय : एक था डॉक्टर एक था संत


यह लेख इस पुस्तक की संक्षिप्त समीक्षा है, जो बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के शोध-छात्र विनय संघर्ष द्वारा लिखी गई है। जिसमे अरुंधति ने कुछ ज्यादा लिखा नहीं है बल्कि एक एंकर की भूमिका के तौर पर गांधी और अम्बेडकर के विचारों और कामों को आमने सामने रखती है।

'एक था डॉक्टर एक था संत' चर्चित लेखिका अरुंधति राय की पुस्तक "The Doctor and the Saint" का हिंदी अनुवाद है। इसका अनुवाद अनिल यादव 'जयहिंद' व रतनलाल ने किया है। यह पुस्तक मूलतः दलित समस्या को लेकर उनके द्वारा किये गए प्रयास व आपसी संवाद को केंद्र में रखकर लिखी गई है। इसके अतिरिक्त सरकारी व निजी संस्थाओं पर ऊँची जाति के वर्चस्व,स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान लगभग सभी शीर्ष नेताओं द्वारा आदिवासियों के मुद्दे को सही संदर्भो में समझ न पाना,जैसे बिन्दुओं को भी पूरी तथ्यात्मकता व प्रमाणिकता के साथ बताती है।एक-एक करके गाँधी के विषय में उन सभी भ्रमों को अरुंधति तोड़ती हैं जो कि उन्हें दलितों,स्त्रियों का उद्धारक व आज़ादी का सबसे बड़ा सिपाही बताती है।
      गाँधी के बारे में सबसे बड़ा भ्रम यह है कि वह दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों के लिए रंगभेद-नस्लभेद के खिलाफ एक लम्बी लड़ाई लड़े। वास्तविकता यह है कि गाँधी अश्वेत अफ्रीकियों को छोड़ वहाँ के "पैसेंजर इंडियन्स (भारतीय व्यापारी वर्ग) के लिए लड़े। यहाँ तक की गाँधी ने वहां के ' इंडियंस इनदैचर्ड '(भारतीय बंधुआ मजदूर) को भी पैसेंजर इंडियनस से अलग मानते हुए इन भारतीय बंधुआ मजदूरों को अशिक्षित व नैतिक रूप से पतित माना। एंग्लो बोअर युद्ध में लाखों शोषित जन प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्तियों के द्वारा मारे गए। इस युद्ध में गाँधी ने पैसेंजर इंडियंस का नेतृत्व करते हुए स्थानीय लोगों के खिलाफ अंग्रेजों का साथ दिया। इसके पीछे गाँधी का तर्क था कि हम ब्रिटिश उपनिवेश के अंग हैं। इसलिए हमारा नैतिक कर्त्तव्य है कि हम अंग्रेजो का साथ दें।
भारत आने पर गांधी दलितों के स्वयंभू उद्धारक बनने की कोशिश करते हैं और इसी विषय पर आंबेडकर से उनका टकराव होता है। गाँधी जाति की समस्या को हल करते हुए उसकी पूरी सामाजिक संरचना(वर्णव्यवस्था) को बनाये रखना चाहते हैं वहीं अंबेडकर अंतरजातीय विवाह की बात कर सर्वप्रथम इस संरचना को तोड़ने पर बल देते हैं। गाँधी एक ही समय में तीन पत्रिकाएँ निकालते थे। जिसमें हिंदी में हरिजन,गुजराती में नवजीवन और अंग्रेजी में यंग इंडिया थी। अपने गुजराती पत्रिका में वो सबसे ज्यादा रूढ़ थे वही "यंग इंडिया" में सबसे ज्यादा प्रगतिशील दिखने की कोशिश करते थें। ऐसा गाँधी इसलिए करते थे क्योंकि यंग इंडिया से उनकी वैश्विक छवि बनती थी। आंबेडकर गाँधी के इन विरोधाभासों को सूक्ष्मता के साथ अवलोकन कर रहे थे और इसे गाँधी द्वारा दलित समुदाय से किया गया अपराध व धोखा बताते हैं।
          जाति की समस्या को वर्ग विश्लेषण द्वारा हल करने वाले मार्क्सवादी विचारकों को भी अरुंधति कटघरे में खड़ा करती हैं और इस विश्लेषण के पीछे विशेषाधिकार प्राप्त उच्च जातियों का सुनियोजित षड्यन्त्र बताती हैं। आखिर वे कौन से कारण हैं कि पश्चिमी आधुनिकता व पूंजीवाद के खतरे को भापते हुए भी गाँधी बिडला जैसे पूंजीपतियों के साथ खड़े होते हैं ? गीता को जहां गाँधी ने अपना आध्यात्मिक शब्दकोष माना हैं वही अंबेडकर ने गीता को हत्यारों का ग्रंथ बताया है- ' हत्या के पक्ष का ऐसा बचाव किया गया है जो कभी देखा न सुना '।
          1931 में लंदन में आयोजित दूसरे गोलमेज़ सम्मलेन में गाँधी आम्बेडकर के सामने हुए तो उन्होंने आंबेडकर के दलित प्रतिनिधित्व को अस्वीकार किया वहीं पूना पैक्ट समझौते में वे आंबेडकर के दलित प्रतिनिधित्व को स्वीकार कर उनसे हस्ताक्षर करवाने के लिए मजबूर होते हैं।
       गाँधी का सत्याग्रह,आत्मयाचना,आत्मपीडा और शुद्धि के आहार विधान के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। अपने इस सत्याग्रह के प्रयोग में वह दूसरे को शारीरिक व मानसिक कष्ट देने भी नहीं हिचकते हैं। गांधी से स्वतंत्रता आन्दोलन से महिलाओ को जोड़ा तो जरूर पर उनके लिए एक सीमा भी निर्धारित की कि वह स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान पितृसत्ता के सुदृढ़ किले को कभी कोई ठेस न पहुँचाने पाए। सन् 1915 में जब गाँधी भारत लौटते हैं तो जी.डी.बिडला ने अपने स्वार्थसिद्ध के लिए कलकत्ता में गाँधी के भव्य स्वागत समारोह का आयोजन किया और भारत में गाँधी का मुख्य संरक्षक व प्रायोजक बन गया। यह गठजोड़ वर्तमान के कोर्पोरेट प्रायोजित स्वयंसेवी संगठनों की अग्रदूत थी। सन् 1921 में जब मजदूरों और किसानों ने भारतीय जमीदारों के खिलाफ विद्रोह किया तो गाँधी जमीदारों के साथ खड़े होते हैं। गाँधी ने वाल्मीकि समाज को भी दिक्भ्रमित करने की भी कोशिश की और पखाना साफ़ करने को आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति बताया। गाँधी वाल्मीकि समाज के साथ भोजन करने से भी कतराते थें। गाँधी के इस छल-छद्म को समझकर वाल्मीकि समाज भी आम्बेडकरवाद की शरण में चले गए जो गाँधी से इन मुद्दों पर सदैव संघर्ष करते हैं।
      आदिवासियों के पृथक निर्वाचन मंडल को लेकर आम्बेडकर से जो गलती या भूल हुई उसकी चर्चा करते हुए अरुंधति कहती हैं कि आदिवासियों के प्रति अंबेडकर के इन विचारों के कारण ही सन् 1950 में भारतीय संविधान में राज्य को आदिवासियों की जमीनों का संरक्षक बना दिया गया और इस तरह आदिवासी अपने ही देश में गुलाम हो गये। उनके सभी संसाधनों पर  राज्य का कब्ज़ा हो गया। इस पूरे घटनाक्रम ने आदिवासियों की आजीविका व गरिमा उनसे छीन ली।
    साम्प्रदायिकता की खाई को पाटने में गाँधी का बहुत बड़ा योगदान है इससे इनकार नहीं किया जा सकता है पर गाँधी ने करोड़ो लोगों की कल्पनाशक्ति को नियंत्रित कर उनकी चेतना को कुंद कर दिया। वहीं आम्बेडकर करोड़ो लोगों को ब्राह्मणवादी गुलामी से मुक्ति दिलाने में सफल रहे और आजादी को उसके सहीं संदर्भों में समझने की कोशिश की। तथ्यों की प्रमाणिकता से यह किताब बहुत ही महत्वपूर्ण है। गाँधी और आंबेडकर पर शोध कर रहे छात्र-छात्राओं के लिए यह एक महत्वपूर्ण किताब है।इस पुस्तक ने गाँधी और आंबेडकर को लेकर बौद्धिक जगत में एक नई बहस छेड़ी है। इस बहस में हर उस व्यक्ति को शामिल होना चाहिए जो आजादी के इतने वर्षों के बाद भी  ब्राह्मणवादी तंत्र से उत्पन्न शोषण, अन्याय व अत्याचार के कारणों को उसके सहीं संदर्भों में समझना चाहता है। 

-विनय संघर्ष
शोध छात्र,बीएचयू।

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