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Sunday, July 19, 2020

भारतीय न्यायपालिका का पितृसत्तात्मक व महिला-विरोधी चेहरा!


-आकांक्षा आज़ाद

               भारतीय समाज मूलतः एक सामंती समाज है जिसकी एक मजबूत नींव पितृसत्ता है। पितृसत्ता अर्थात पिता की सत्ता वाला समाज, जहां पिता ही घर का मुखिया हो। हमारे परिवार से लेकर राज्य भी इसी नींव पर टिका है। कानून बनाने वाली विधायिका (संसद और विधानसभा) और कानून लागू करने वाली कार्यपालिका (सरकार) के पितृसत्तात्मक चरित्र से तो फिर भी लोग रूबरू है लेकिन विशेष बात तब आती है जब न्याय दिलाकर संविधान और नागरिकों (विशेष तौर पे महिलाओं) के अधिकार की रक्षा की जिम्मेदारी वाली संस्था में भी पितृसत्ता की जड़ें गहरी हो। सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों के बारे में सामान्यजन में यही धारणा है कि यह स्वतंत्रत, निरपेक्ष, और कभी गलत गलत न होने वाली संस्था है। हाल ही में कर्नाटक हाई कोर्ट और गुवाहाटी हाई कोर्ट ने जो फैसले सुनाए है उसने कोर्ट के प्रति इस धारणा एक धक्का जरूर दिया है।
                    एक नज़र अपने समाज पर डाले तो हम पाते हैं कि महिला और पुरुष दोनों को ही समाज अलग-अलग ढांचे में रखना चाहता है। समाज में 'आदर्श भारतीय महिला' के कई 'गुण' माने गए हैं जैसे एक 'आदर्श भारतीय महिला' को एक अच्छी गृहणी होना चाहिए, पति को स्वामी मानकर दिन रात उसकी सेवा करनी चाहिए, पति अगर मारपीट भी करे तो चुपचाप सहते रहना चाहिए आदि आदि। इन्ही 'गुणों' में कर्नाटक हाई कोर्ट ने एक और 'गुण' जोड़ा है। कर्नाटक हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस कृष्णा एस. दीक्षित ने बताया है कि बलात्कार के बाद आदर्श भारतीय महिला को कैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए। 

शादी का झांसा देकर बलात्कार के एक मामले में चीफ जस्टिस आरोपी को बेल देते हुए महिला पर टिप्पणी की और कहा कि- 'महिला का कहना है कि वह अपराध के बाद थकी हुई थी और सो गई थी, एक भारतीय महिला के लिए अशोभनीय है, हमारी महिलाएं बलात्कार के बाद ऐसे व्यवहार नहीं करती हैं।' 

चीफ जस्टिस दीक्षित उसी बीमार मानसिकता के शिकार है जहां लड़कियों के देर रात तक बाहर आने-जाने और शराब पीने से 'स्त्रीधर्म' भ्रष्ट हो जाता है। इसलिए शिकायतकर्ता महिला को ही उन्होंने भरोसे लायक नहीं माना। उनका कहना है कि 'शिकायतकर्ता ने यह नहीं बताया कि वो रात 11 बजे उनके (आरोपी) के दफ़्तर क्यों गई थीं। उन्होंने आरोपी के साथ अल्कोहल लेने से भी एतराज नहीं जताया और  सुबह तक उन्हें अपने साथ रहने दिया।' 'उन्होंने यह भी नहीं बताया की उन्होंने शुरुआत से ही अदालत से सम्पर्क क्यों नहीं किया जब आरोपी ने कथित तौर पर उनपर यौन संबंध के लिए दबाव बनाया था।' भारत में छेड़खानी से लेकर सामूहिक बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों की संख्या लाखों में है। हर घण्टे न जाने कितनी महिलाओं के साथ बलात्कार हो रहे। इनमें से कुछ मामले दर्ज होते हैं और कोर्ट तक पहुँचते है। ज्यादातर दर्ज होकर भी पुलिस स्टेशन के फाइलों में धूल फांकते है। भारत में इन आरोपियों को सजा मिलने की दर सिर्फ 18% है जिसका मतलब है कि 100 में से 72 आरोपियों को कभी उनके अपराध की सज़ा नहीं मिलती। जिस तरह के सवाल चीफ जस्टिस दीक्षित ने शिकायतकर्ता से की क्या बिल्कुल उसी तरह के सवाल एक बलात्कार की सर्वाइवर से उसका घर, परिवार, समाज नहीं पूछता?

'इतनी देर रात अकेली क्यों बाहर गई थी?', 'ये कैसे कपड़े पहन रखें है तुमने? ऐसे कपड़ो के कारण ही ब्लात्कार होते हैं।', 'ताली एक हाथ से नहीं बजती जरूर तुमने ही शह दी होगी।', 'तुम्हे देखकर तो नहीं लगता कि तुम्हारे साथ रेप हुआ है। तुम खुश कैसे रह सकती हो?' और अगर रेप हुआ तो भी तुम पहले क्यों नहीं बताया?...आदि आदि। और इन्ही सब सवालों के माध्यम से जिस तरह से सर्वाइर को ही दोषी ठहराया जाता है उसी का नतीजा है कि लड़कियां और महिलाएं इन सब गम्भीर मामलों पर चुप्पी साध लेती हैं। 

दूसरा मामला गुवाहाटी हाई कोर्ट का है। जहाँ 21वीं सदी में भी चीफ जस्टिस अजय लाम्बा और न्यायाधीश सौमित्रा सैकिया का कहना है कि 'अगर एक महिला हिन्दू रीति-रिवाजों के अनुसार शादी करती है और सिंदूर और शाखा (शंख से बनी चूड़ियां) पहनने से मना करती है तो इसका मतलब है कि वह महिला इस शादी को अस्वीकार कर रही'। इस तरह के महिला विरोधी बयान देकर कोर्ट महिलाओं की स्वतंत्रता खुद ही छीन रही। ऐसी हज़ारों हिन्दू महिलाएं है जो शादी को मानते हुए भी सिंदूर और शाखा पहनना नहीं पसन्द करती हैं। क्या कोर्ट के बयान के अनुसार यह सभी महिलाएं अपनी शादियों को अस्वीकार कर रहीं? 

https://www.google.com/amp/s/www.prabhatkhabar.com/amp/story/national%252Fgauhati-high-court-says-refusal-to-wear-sakha-sindoor-signals-womans-unwillingness-to-accept-marriage

दरअसल जिस तरह का सामंती हमारा समाज है कोर्ट की महिला विरोधी अभिव्यक्ति उसी समाज का प्रतिबिंब है। कभी यह खुले रूप में सामने आता है कभी छुपे रूप में। हमारा समाज खासतौर पर महिलाओं को उनके 'आदर्श भारतीय महिला' वाले रूप से अलग देखना नहीं चाहता है। यह तमाम कोर्ट- कचहरी, सरकारें, परिवार जैसी संस्थाएं इसी 'आदर्श रूप' को बनाये रखने के लिए ही हैं। 
               यह ऐसा पहली बार नहीं है जब हमारी न्यायव्यवस्था ने महिला विरोधी फैसले दिए हो या महिला द्वेषी टीप्पणी की हो। अगर ठीक से देखे तो इस तरह के फैसलों के अंबार लगा है। अक्टूबर 2016 में भी स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए की शिकायतकर्ता महिला का व्यवहार इस तरह का नहीं था जैसा ब्लात्कार के दौरान होना चाहिए, कोर्ट ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया था।
यह सोचना अंदर तक हिला कर रख देता है कि किस तरह यह व्यवस्था महिलाओं के प्रति इतना कठोर और असंवेदनशील हो सकता है कि वह इनसब पर भी नियंत्रण रखना चाहता है कि ब्लात्कार के दौरान या उसके उसके बाद महिलाएं किस तरह से व्यवहार करें। इस तरह के ट्रॉमा के दौरान किस व्यक्ति का शरीर और दिमाग किस तरह से रिएक्ट करेगा इसपे भी समाज ने मानक गढ़ कर रखें है। क्या इस तरह के न्यायालयों से औरतें कभी न्याय की उम्मीद लगा सकती हैं? 
इस न्याय व्यवस्था में कभी जाति के कारण, कभी हैसियत के कारण तो कभी सिर्फ महिला होने के कारण हज़ारो-लाखों महिलाएं न्याय से वंचित रह जाती है। सन 1992 के सितम्बर के भंवरी देवी केस (राजस्थान) को याद करें तो इस केस ने सरकार और कोर्ट के मिलीभगत के साथ-साथ यह भी बताया कि जब भारतीय समाज की दूसरी सबसे मजबूत नींव जाति व्यवस्था और पितृसत्ता का मेल होता है तो उसका रूप कैसा होता है। भंवरी देवी नाम की एक दलित महिला ने गांव के गुज्जर परिवार में  हो रहे बाल विवाह होने से रोका तो गुज्जर जाति के पांच लोगों लोगों ने भवंरी देवी को उसकी 'औकात' बताने के लिए सामूहिक बलात्कार किया। पुलिस से लेकर तत्कालीन सरकार के बड़े बड़े नेताओं ने मामले को दबाने की भरपूर कोशिश की। मामला जब निचली अदालत में गया तब अदालत ने सभी आरोपियों को बरी करते हुए फैसला दिया कि:-
* गांव का प्रधान कभी ब्लात्कार नहीं कर सकता।
*60 साल का बुजुर्ग व्यक्ति कभी भी किसी का ब्लात्कार नहीं कर सकता।
*आरोपियों में चाचा भतीजा भी शामिल हैं। कोई भी व्यक्ति अपने रिश्तेदार के सामने किसी महिला का ब्लात्कार नहीं कर सकता।
* ऊंची जातियों के लोग अशुद्ध नीची जाति की महिला का बलात्कार नहीं कर सकता क्योंकि इससे सभी अशुद्ध हो जाएंगे।
* कोई पति अपने पत्नी का बलात्कार होते नहीं देख सकता।
अभी मामला हाई कोर्ट में है जिसमें आजतक मात्र एक सुनवाई हुई है और इसी तरह दो दशक से भंवरी देवी न्याय का इंतज़ार कर रही है। अदालत के इस फैसले में किस हद का महिला द्वेष भरा पड़ा है ये देख पाना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है, विशेषतौर पे नीच जातियों के महिलाओं के प्रति। इसी फैसले के साथ इस अदालत ने इन सभी बलात्कारों को झूठा ठहरा दिया जो ऊंची जाति के लोगों ने नीची जाति के लोगों को उनकी औकात बताने के लिए की थीं।

https://www.google.com/amp/s/hindi.asianetnews.com/amp/national-news/27-years-of-bhanwari-devi-case-victim-waiting-for-justice-q254ya

             एक अन्य पहलू पे बात करें तो जिन न्यायाधीशों पर न्याय देने के जिम्मेदारी है उनमें कई न्यायाधीशों पर खुद ही महिलाओं के यौन शोषण का आरोप है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर उनकी एक पूर्व महिला कर्मचारी ने उनपर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। इस मामले को देखने के लिए तीन सदस्यीय कमिटी भी बनी जिन्होंने मुख्य न्यायाधीश को बेगुनाह पाया और सभी आरोपों को निराधार बता दिया। गौरतलब है इस कमिटी पर सही न्यायिक प्रकिया नहीं अपनाने के आरोप भी लगे थे। जब स्वंय मुख्य न्यायाधीश पर इस तरह के गम्भीर आरोप लग रहे तो इस न्याय व्यवस्था की सच्चाई उघड़ के सामने आ जाती है। 

       कुल मिलाकर यह कहना कि इस तंत्र के बाकी संस्थाओं की तरह ही यह न्याय व्यवस्था खुद ही पितृसत्ता से लिपटी हुई है, यह कहना जरा भी अतिश्योक्ति नहीं होगी। कभी 'आदर्श भारतीय महिला' की विशेषता बताते हुए तो कभी औरतों की सिंदूर लगाना या न लगाने की छोटी सी चॉइस को ही शादी की प्रमाण घोषित करते हुए कोर्ट की असलियत को ढकने वाला मुखौटा नीचे सरक ही जाता है और उनका भद्दा महिला विरोधी चरित्र दिखने ही लगता है।

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