‘स्वास्थ्य हमारा अधिकार है, कोई भीख नहीं'
वर्तमान में हमारे देश में स्वास्थ्य सेवांए बहुत बुरे दौर से गुजर रही हैं. पूरे देश में हालत यह हैं कि मरीज़ एक अदद बेड, जीवनरक्षक उपकरण, दवा और सही ईलाज मिल जाने की आस में अस्पताल दर अस्पताल भटक रहे हैं. सरकार के गैर ज़िम्मेदाराना व्यवहार और समय पर इलाज ना मिलने के कारण कितने लोगों की अकाल मौत हो रही है. ऐसे समय में मुझे ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ का अभियान चलाने वाले ‘श्रमिक स्वास्थ्य उद्योग’ का वह माडल याद आ रहा है, जिसमें कि स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का जोर सभी के लिए सस्ता और अच्छा स्वास्थ्य पर भी केन्द्रित होता है। इस विकसित और जनपक्षधर चिकित्सा व्यवस्था में चिकित्सक सिर्फ़ रोगी की देखभाल करने तक सीमित नहीं होता, वरन वह सम्पूर्ण स्वास्थ्य का रखवाला होता है।
वर्ष 2015 में, मैं एक स्वास्थ्य कर्मी के बतौर प्रशिक्षिण लेने के लिए के लिए श्रमजीवी स्वास्थ्य उद्योग संगठन (जो मानते हैं कि स्वास्थ्य का सार्वजनीकरण होना चाहिए। डाक्टरी पेशा मुनाफा कमाने के लिए नहीं बल्कि लोगों की सेवा के लिए अपनाया जाना चाहिए) कलकत्ता गयी। इस संस्थान में कोई भी वह राजनितिक/सामाजिक कार्यकर्ता प्रशिक्षण ले सकता है, जो अपने क्षेत्र में स्वास्थ्य की बुनियादी समस्याओं के अवरोधों को समझता हो और किसी भी रोगी को प्राथमिक सेवा दे सकने के प्रति संवेदनशील हो। यह प्रशिक्षण कम से कम दो माह का होता है। संस्थान का उददेश्य स्वास्थ्य कर्मियो को सामान्य स्वास्थ्य समस्याओं (डायरीया, संक्रामक बीमारियों, दर्द, बुखार आदि) के विषय में वैज्ञानिक जानकारी देना और उसको नियन्त्रित करने तथा समय रहते हायर सेंटर भेजने के लिए प्रशिक्षित करना है। फर्स्ट एड (प्राथमिक चिकित्सा) के साथ ही मरीज को, रोगों के विषय में काउन्सिलिंग के लिए और चिकित्सा शिक्षा आदि के लिए भी प्रशिक्षित किया जाता है। प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की सफलता और असफलता उनके अपने संगठनों की स्थितियों और मेडिकल दिशा और अन्य दवाओं की उपलब्धता पर भी निर्भर करती है। इस प्रशिक्षण स्थल/अस्पताल में जाकर जो महत्वपूर्ण बात समझ आयी, वह यह कि स्वास्थ्य सेवाओं को यदि ईमानदारी से लागू किया जाय तो प्रत्येक व्यक्ति को अच्छा और सस्ता स्वास्थ्य मिल सकता है।
पश्चिम बंगाल का यह संस्थान डा. पुण्यव्रत गुण जैसे बहुत से जनपक्षधर चिकित्सकों ने शंकर गुहा नियोगी के प्रयासों से संचालित शहीद अस्पताल दल्ली रजहरा, छतीसगढ़ के माडल से प्रभावित होकर स्थापित किया है। कलकत्ता से 25 कि.मी. दूर हावड़ा जिले की उलबेरिया तहसील चेंगाइल, बेलतारा में पोल्ट्री फार्म के एक टीन के भीतर 20मार्च 1995 को एक क्लिनिक के रूप में शुरू हुआ ‘श्रमिक कृषक मैत्री स्वास्थ्य केंद्र’. बाद में गाँव वालों के ज़मीन देने तथा मित्रों के सहयोग से धीरे-धीरे यह अस्पताल आज तीन मंजिला बिल्डिंग में चलाया जा रहा है। आरम्भ में यहां पर एक डाक्टर और सात स्वास्थ्य कर्मी थे। इसके बाद छात्र आन्दोलन से जुडे़ हुए जूनियर डाक्टर भी इस सेवा का हिस्सा बनते चले गये। डॉ.पुण्यव्रत गुन, डॉ.सुमित दास और डॉ.अमिताभ चक्रवर्ती तथा चिकित्सा क्षेत्र में कार्य कर रहे डॉ. भास्कर राव आदि ने कनोड़िया जूट मिल की यूनियन के लोगों के सहयोग से इस अस्पताल का आरम्भ किया। इसी तरह के अस्पताल पश्चिम बंगाल के बैलूर में, विलासपुर के गनेरिया में, धनबाद और भोपाल आदि में स्वास्थ्य सेवाएँ और प्रशिक्षण देने का काम कर रहे हैं. इन संस्थानों में बहुत से सामाजिक सरोकारों से जुड़े हुए चिकित्सक यह सिद्ध कर रहे हैं की डाक्टरी पेशा मुनाफे के लिए नहीं सेवा के लिए अपनाया जाना चाहिए. ये संस्थान तार्किक व वैज्ञानिक जनपक्षधर स्वास्थ्य सेवाओं को वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति को स्थापित करने का प्रयास भी करते हैं।
आज हमारे देश में स्वास्थ्य को जिस तरह से निजी हाथों में फेंक दिया गया है, मरीज के स्वास्थ्य से अधिक उसकी जेब का महत्व हो गया है और मरीजों को अपने खर्च का अधिकांश डाक्टर को देना पड़ जाता है। ऐसे समय में इस प्रकार के संस्थानों की चिकित्सा पद्धति का महत्व बढ़ जाता है. श्रमिक किसान मैत्री स्वास्थ्य उद्योग के डॉ.पुण्यव्रत गुन कहते हैं “हम यह सिद्ध कर सकते हैं कि यदि योजनाएं सही तरीके से लागू करने का काम किया जाय तो यह सम्भव है कि जनता को बहुत कम खर्च में स्वास्थ्य सेवाएं दी जा सकती हैं। श्रमिक स्वास्थ्य केन्द्र ने यह करके दिखाया कि किसी भी मरीज के खर्च पर उसको बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ देता है. स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का जोर बीमारी की देखभाल पर होने के बजाय सबके लिए स्वास्थ्य पर केन्द्रित होना चाहिए। अधिक विकसित व्यवस्था में चिकित्सक सिर्फ़ रोग होने पर देखभाल करने तक सीमित नहीं होता, वह स्वास्थ्य का रखवाला भी होता है।”
चेंगाइल रेलवे स्टेशन से महज दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, श्रमिक कृषक मैत्री केंद्र. पेड़ों और तालाब से घिरा बेलतारा का यह केंद्र सुबह छह बजे खुल जाता है. मरीजों के बैठने के लिए फूस के दो शेड हैं. रजिस्ट्रेशन खिड़की के सामने एक तार में पर्ची के नम्बर टंगे होते हैं, जो पहले आये उस हिसाब से नम्बर दिया जाता है। अस्पताल के एक कमरे में छोटी सी कैन्टीन है जिसमें कि बहुत कम दाम में नाश्ता मिल जाता है। आरम्भ में अस्पताल में एक रुपया फीस रखी गयी थी जो अब 20 रुपये हो गई है। आठ बजे अस्पताल में डाक्टर देखना शुरू कर देते हैं और लगभग तीन बजे तक देखते हैं. मंगलवार और गुरुवार को विशेषज्ञों के आने पर पांच भी बज जाता है. इस तीन मंजिला अस्पताल के बेस मैन्ट में आफिस और रेडियोलाजी विभाग, दवा केन्द्र और आफिस है। लाबी में कईं मेंजें लगी हैं, जिन पर चार या पांच स्वाथ्यकर्मी बैठती हैं। 20 रुपये का पर्चा लेकर मरीज इन मेजों पर पहुचते हैं जहां कि उनके जीवन का पूरा इतिहास लिया जाता है। पहली मंजिल पर डाक्टरों के कमरे तथा पैथालाजी लैब है। दूसरी मंजिल में प्रशिक्षुओं और दूर से आये मरीजों के रहने के कमरे और एक लाईब्रेरी है, जहां कि कक्षाएं चलती हैं और संस्थान की पत्रिकाओं तथा अन्य सामग्री के पढ़ने की व्यवस्था है। सीढियों में कई ऐसे डाक्टरों की फोटो लगी हैं जो जनपक्षधर रहे हैं. तीसरी मंजिल में सामूहिक रसोई और खाने का कमरा है जहाँ कि दोपहर का खाना डाक्टर तथा सभी कर्मी एक साथ बैठकर अपनी सुविधानुसार दो बजे तक खा लेते हैं। यहां पर आकर मुझे वास्तव में समझ आया कि जनतान्त्रिक मूल्यों को व्यवहार में किस प्रकार उतारा जा सकता है। डाक्टर, सफाईकर्मी या फिर अन्य स्टाफ सभी खाना खाकर अपना बरतन साफ करके रखते हैं। इस रसोई में एक बार में 10 लोग खाना खा सकते हैं। यह रसोई अस्पताल से होने वाली आमदनी से ही चलाई जाती है।
अस्पताल संचालित करने में लगभग 25 डाक्टरों का सहयोग मिला हुआ है। डा. पुण्यव्रत गुन के साथ छः नियमित फीजिशियन, जिनमें कुछ मेडिकल कालेज के छात्र भी हैं, मरीजों को देखते हैं. कुछ विशेषज्ञ डाक्टर भी अपना समय निकालकर यहां आते हैं. अस्पताल में अधिकतर 2 मनोचिकित्सक, एक विशेष शिक्षक, एक नेत्र विशेषज्ञ, 1 काउन्सलर, 1 दन्त चिकित्सक, 1 प्रसूतिरोग विशेषज्ञ, 29 स्वास्थ्यकर्मी एवं अन्य स्टाफ अपनी ज़िमेदारियाँ निभाते हैं. बहुत कम संसाधनों से यह मल्टीस्पेशियलटी अस्पताल संचालित किया जाता है। डाक्टर और मरीज के बीच का रिश्ते को यदि सही से पहचान लिया जाय तो सही स्वास्थ्य सेवा देने की दिशा में ऐसे प्रयोग एक कदम होते हैं यह यहाँ पर आकर समझा जा सकता है।
एक स्वास्थ्य कर्मी के बतौर मैंने जब मरीजों के इतिहास लेने वाली मेज पर बैठना शुरू किया तब मैंने जाना कि रोग के निदान में रोगी के इतिहास को समझाना कितना ज़रूरी होता है. कुछ दिन तो बंगाली भाषा समझने में दिक्कत आयी। किन्तु यहां मौजूद सहकर्मियों के आत्मीय और सहयोगपूर्ण व्यवहार से यह जल्दी ही आसान हो गया। इतिहास लिए जाने वाले फार्म को जब मैंने समझ लिया, तब बहुत कम शब्दों से भी मरीज मेरे प्रश्नों के उत्तर देने लगे थे. इस फार्म में मरीज के जीवन व शरीर का सम्पूर्ण इतिहास दर्ज किया जाता है। क्योंकि हम यह मानते हैं कि रोगी के जीवन की भौतिक स्थितियां, आमदनी ओर् उसके आय के स्रोतों की जानकारी रोगों को समझने में कारगर होती है। मरीज की बीमारी और उसकी जीवन स्थितियों का घनिष्ठ जुड़ाव होता है। इस इतिहास के आधार पर ही यदि मरीज का ईलाज किया जाय तो मरीज के रोग के निदान की सम्भवाना बढ़ जाती है और कई प्रकार के टैस्ट करवाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इतिहास में मरीज की पल्स, बीपी, सांस, वजन, बुखार आदि के साथ ही पारिवार के सदस्यों की संख्या, रोजगार, परिवार की आय दर्ज की जाती है. इसके साथ ही मरीज के पूर्व व वर्तमान में होने वाली स्वास्थ्य समास्याएं आदि का विवरण भी दर्ज किया जाता है। फार्म स्थानीय भाषा बंगाली में होता है ताकि मरीज को भी समझने में असानी हो कि क्या लिखा व पूछा जा रहा है। मरीज की सम्पूर्ण जानकारी फार्म में दर्ज करने के बाद मरीज को सर्वप्रथम फिजीशियन के पास भेजा जाता है। यहां पर कईं डाक्टर बैठते हैं, जो मरीज का इतिहास पढ़ने के बाद और कुछ जरूरी प्रश्न पूछते हैं। यदि कुछ विशिष्ट रोग के लक्षण नज़र आते तब तक फिजीशियन तात्कालिक दवा देकर, रोग विशेष के मरीजों को उस दिन का समय दे देते हैं. जिस दिन विशेषज्ञ डाक्टर का समय तय होता है. नियमित रोगियों का एक कार्ड बना दिया जाता है। उसके बाद भी हर बार मरीज को स्वास्थ्य कर्मियों के प्रश्नों से गुजरकर ही डाक्टरों के पास जाना होता है। इस तरह से कम समय में अधिक मरीजों को देखने में डाक्टर को अधिक समय नहीं लगता है और ईलाज भी सही तरीके से हो पाता है। कई बार यहां पर मरीजों की भारी संख्या आने से दबाव तो होता है। उन दिनों में यह संख्या बढ़ जाती जिन दिन में विशेषज्ञ डाक्टर आते हैं. रोगी को विशेषज्ञ डाक्टर की मेज पर एक डिब्बा होता है जिसमें 10 रुपया डालना होता है. रजिस्ट्रेशन, डाक्टरों की फीस, जांचें, दवा बहुत कम दाम में देने के बाद भी सभी कर्मियों का वेतन संस्थान से ही निकल जाता है। यहां पर आमतौर पर निम्न आय और मध्यम आय वर्ग के लोगों की संख्या अधिक आती है। ज्यादातर यंहा वह गरीब मरीज़ दिखते हैं जिनको अन्य जगह पर अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पाती हैं।
आज जब देश में स्वास्थ्य प्राथमिक जरूरत बना चुका है तब मुझे यह माडल इसलिए भी महत्वपूर्ण लग रहा है कि आमतौर पर डाक्टरों द्वारा एक मर्ज के लिए इतने अधिक टैस्ट करवा लिए जाते हैं कि सरकारी अस्पताल का खर्च भी कई बार आम इन्सान पर भारी पड़ जाता है। सरकारी अस्पाताल हों या कि प्राईवेट इन जगहों पर मरीज की जीवन स्थितियों के अनुरूप इलाज़ करने का दृष्टिकोण स्थापित ही नहीं है. फिर मरेज्जों की भीड़ में डाक्टर के पास रोगी के जीवन स्थितियों को जानने का समय भी नहीं होता है. कुछ सतही प्रश्नों को पूछने के बाद अनुमान के आधार पर रोगी का ईलाज शुरू कर दिया जाता है. बहुत बार किसी बीमारी के लिए डाक्टरों द्वारा अनेक महंगी और अनावश्यक दवाएं दे दी जाती हैं। कई अस्पतालों में डाक्टर फीस नहीं लेते हैं लेकिन बहुत ज्याद टैस्ट और दवाईयां लिख कर मरीज का खर्च बढ़ा देते हें, बिना मरीज के रोग का इतिहास जाने। खून, पेशाब, एक्सरे आदि टेस्ट हमेशा आवश्यक नहीं होते हैं। कई बार तो डाक्टर सिर्फ कमीशन के लिए मरीज के टेस्ट करवाते हैं जो अतार्किक है। अधिक टेस्ट करवाने से कुछ न कुछ रोग समाने आ ही जाता है। भारत की व्यापक आबादी इन दवाओं और टेस्ट का भार उठाने में असमर्थ है, इसलिए बेहतर स्वास्थ्य से भी वंचित रह जाती है। रोगी के व्यक्तिगत जीवन, शारीरिक लक्षण, मानसिक स्वास्थ्य, पूर्व में लिया गया उपचार, पारिवारिक स्थिति और सामाजिक आर्थिक स्थितियों को जानकर निदान करना ही सही चिकित्सा की बुनियाद हो सकती है, ताकि रोग का पूरी तरह समाधान किया जा सके।
इस अस्पताल में हावड़ा के बाहर से भी बहुत मरीज आते हैं। कई बार मुझे डाक्टरों के कमरे में बैठने का अवसर मिला ताकि मैं उस प्रक्रिया को समझूं और रोगों की समझ विकसित कर सकूं। अन्य विशेषताओं के अलावा जिस बात ने सबसे अधिक प्रभावित किया वह यह कि डा. पुण्यव्रत गुण जब अपने मरीज का हाथ आत्मीयता पकड़कर उसके रोग के बारे में समझाते हैं, तो मरीज़ का चेहरा खिल जाता है. डाक्टर की मरीज़ के प्रति आत्मीयता भरोसा पैदा करती है और कई बार रोगी मानसिक रूप से ही स्वस्थ महसूस करने लगते हैं। एक नर्स मरीज की सुगर के कारण गल गई पैरों उंगुलियों की ड्रेसिंग करते हुए जितना प्रतिबद्ध थी, अपने पूरे जीवन में मैंने इतना आत्मीय व्यवहार मरीज़ के प्रति किसी का नहीं देखा था। मानसिक रोग विशेषज्ञ डा.सुमित दास अपने मरीजों के साथ उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में बातें करके समझ लेते कि उनके मानसिक तनाव का क्या कारण हैं। महिलाएं बहुत ही सहजता से अपने पारिवारिक जीवन की परेशानियों को डाक्टर से साझा करती हैं। प्रसूति रोग विशेषज्ञ सामान्य बोलचाल में ही युवा महिलाओं की समस्याओं को समझकर उनके निवारण के लिए शिक्षित करती हैं।
श्रमिक केन्द्र में मिलने वाली ज़रूरी दवाएं उपयोगी और जैनरिक होती हैं जो कि बहुत कम दाम पर मरीजों को उपलब्ध करवाई जाती हैं। जो भी दवाएं यहां पर मरीजों को दी जाती हैं वे (ईएमल) एसन्शियल मेडिसन लिस्ट से टैस्ट होती हैं। मेडिसन विभाग में बैठकर ही मैं बाज़ार के गणित को समझ पाई. कि जेनरिक दवाएं बहुत कम दम में मिल सकती हैं और उपयोगी होती है. बहुत कम दाम की दवाईयों से भी यहाँ पर रोज़ करीब 25 से 30 हजार तक की आमदनी हो जाती है. तब बाजार में अनेक ब्रांड की कम्पनियों की मंहगी दवाओं से मेडिकल स्टोर कितनी कमाई करते होंगे? और अधिकाँश डाक्टर विशेष ब्रान्ड की ही दवा लिखते हैं और इसमें उनका क्या हित होता है?
डा. गुन और उनके साथी गरीब मजदूर और किसानों को सस्ता व अच्छा स्वास्थ्य देने का जो अथक प्रयास कर रहे हैं स्वास्थ्य को मुनाफा का उद्योग बनाने वालों के बरक्स ‘जन स्वास्थ्य पर सबका अधिकार, के नारे के साथ एक वैकल्पिक हैल्थ सिस्टम का ढांचा स्थापित करने में यह समूह व्यापक लोगों को भागीदारी बढ़ाना चाहता है। यहां पर स्वास्थ्य कर्मियो के सहयोग से ही अस्पताल का संचालन किया जाता है। संस्थान में लिए जाने वाले निर्णयों में सामूहिकता मौजूद है। स्वास्थ्य जागरूकता के लिए कई प्रकार की पत्रिकाओं का संचालन भी यहां से किया जाता है, जो बांग्ला और अंग्रेजी भाषा में हैं। उदाहरण के लिए अशुक/बुशक बंगाली भाषा का हैल्थ बुलैटिन है।
आज पहले से ज्यादा इस बात की आवश्यकता बढ़ गयी है कि लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक किया जाय। और यह बताया जाय कि रोगों का जन्म सीधे तौर पर हमारी सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों से जुड़ा होता है। स्वास्थ्य का मुद्दा, रोटी, कपड़ा, निवास, शिक्षा, संस्कृति आदि से प्रभावित होता है। मैं बतौर स्वास्थ्य कर्मी के अपने अल्प अनुभव के आधार पर और एक सामाजिक कार्यकर्ता के बतौर यह समझती हूँ कि प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मी बड़े पैमाने पर सामान्य रोगों की पहचान कर सकते हैं और प्राथमिक ईलाज कर सकते हैं। समय पर किसी मरीज को हायर सैन्टर भेजने में भी इनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। इसलिए गांव-कस्बों में प्रतिबद्ध सामाज सेवियों को स्वास्थ्यकर्मी का प्रशिक्षण लेना चाहिए तथा जनपक्षधर डाक्टरों के साथ मिलकर स्वास्थ्य सेवाएं प्रत्येक इन्सान को मिले इसका प्रयास करना चाहिए।
आज जब पूरा देश कोरोन वाईरस की इस महामारी के समय में जी रहा है तब यह सच तेजी से सबके समाने आ रहा है कि शहरों की विशालकाय आधुनिक अस्पतालों के लाखों के पैकेज के भीतर कितना खोखलापन है। जहां कि महज आक्सीजन और वेंटिलेटर की कमी से मरीजों को नहीं बचाया जा पा रहा है और अन्ततः ये मुनाफाखोर बिल्डिंगों के मालिक सरकारी मदद, पर ही निर्भर हो रहे है। या परिजनों के ऊपर ही प्लाजमा; आक्सीजन; रेमेडसवियर इन्जेक्शन आदि की व्यवस्था का भार थोप दे रहे हैं। इस समय में यह भी स्पष्ट हो गया है कि जब नेता, मंत्री, अफसर, उच्च मध्यम वर्ग के लोगों तक को भी एक बेड हासिल करने के लिए एड़ी-चोटी का दम लगाना पड़ रहा है। कितने ही लोग ईलाज और जरूरी सुविधाओं के अभाव में मर जा रहे हैं, ऐसे में गरीब आबादी की मुश्किलों की तो महज कल्पना ही की जा सकती है। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट हो रहा है कि वाइरस के संक्रमण लोगों की मौतें उतनी नहीं हो रही हैं जितनी कि समय पर सही ईलाज न मिलने से हो रही हैं। आज हर किसी को यह समझना होगा कि हमारी सरकारों के स्वास्थ्य के प्रति बेरूखी का परिणाम हैं ये लाखों मौंतें।
आज इस नारे को स्थापित करने की जरूरत आ पड़ी है, ‘स्वास्थ्य कोई भीख नहीं, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है’ सबके लिए स्वास्थ्य हो सकता है। ऐसा नहीं है कि अमीर देश ही अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं बल्कि गरीब देश भी यह कर सकते हैं। विश्व बैंक के मानदण्डों के अनुरूप थाईलेन्ड मध्यम आय वाला देश है श्रीलंका कम आय वाला देश है। इन देशों में सबके लिए स्वास्थ्य संभव हुआ है. हमें आज पहले से ज्यादा मुखर होकर इस तथ्य को चिन्हित करना होगा कि हमारी सरकार की पक्षधरता किसके पक्ष में है। सरकारी इच्छा हो तो प्रत्येक नागरिक के स्वास्थ्य रक्षा करने की जिम्मेदारी सरकार ले सकती है। हमारे देश का औषधि उद्योग प्रतिष्ठित माना जाता है, इसको कुछ निजी हाथों में देने के बजाय सार्वजनिक उद्योग बनाया जा सकता है।
जब तक हमारे देश में स्वास्थ्य को सही अर्थों में जीने के अधिकार के साथ जोड़कर नहीं देखा जायेगा, डाक्टर बिना मुनाफे के मरीजों का ईलाज शुरू नहीं कर देते है, जनता को तार्किक, अच्छा व सस्ता स्वास्थ्य प्रदान करने के लिए सरकारी अस्पतालों पर ध्यान दिया नहीं दिया जाता है तब तक स्वास्थ्य सेवाओं को ध्वस्त होने नहीं रोका जा सकता है। आज आवश्यकता तो यह है कि चिकित्सा कर्मियों को आम आदमी तक पहुंच बनानी चाहिए और उनको जागरूक करना चाहिए। जिस तरह आज लोग ईलाज, दवा या अन्य सुविधाओं के अभाव में अन्ततः मौत के बाद भी सम्मानजनक अंतिम यात्रा से वंचित किये जा रहे हैं। उस पर चिकित्सा के इतिहास के लेखक डा. दया राम वर्मा की यह बात याद आती है “मरीजों की सेवा के हर अवसर से चिकित्सक
भौतिक लाभ हासिल कर लेते हैं। वे सेवा अच्छी करें या बुरी, पैसा जरूर कमा लेते हैं मरीजों को बाद में ही पता चल पाता है कि उसका इलाज सही हुआ या ग़लत। यही वजह है कि चिकित्सा में भ्रम और यर्थाथ, तार्किकता और अतार्किकता, विज्ञान और आध्यात्मिकता का जितना घालमेल होता है, दोनों में से हर पहलू खुद को दूसरे से जितना ज्यादा श्रेष्ठ दिखाता है उतना दूसरे किसी भी क्षेत्र में नहीं होता है।” इस समय में वैकल्पिक जनपक्षधर स्वास्थ्य व्यवस्था को समझकर स्थापित करने की जरूरत है। चिकित्सकों और स्वास्थ्य कर्मियों को तार्किक व वैज्ञानिक विचारों के अनुरूप ईलाज देने तथा मुनाफे के लिए नहीं बल्कि जनता की सेवा के लिए चिकित्सक के पेशे को अपनाना चाहिए।
फोटो श्रमजीवी स्वास्थ्य उद्योग के फ़ेसबुक पेज से साभार
:--चन्द्रकला
अमित शीरीं
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