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Thursday, May 13, 2021

भारत की दिवालिया और हत्यारी 'वैक्सीन डिप्लोमेसी'


 


भारत ने 16 जनवरी को अपना 'वैक्सीनेशन ड्राइव' शुरू किया। 17 मार्च तक इसने 3.5 करोड़ लोगों को वैक्सीन की पहली खुराक लगा दी थी।  इसी दौरान भारत ने 6 करोड़ 60 लाख वैक्सीन निर्यात की। और इसके बाद ही अप्रैल में भारत में 'ऑक्सीजन अकाल' के साथ साथ 'वैक्सीन अकाल' भी शुरू हो गया। 

इस वैक्सीन निर्यात पर सवाल उठाने पर भांड़ मीडिया और भक्त पत्रकारों ने चीखना शुरू कर दिया कि जो लोग इस पर सवाल उठा रहे हैं वे स्वार्थी है। उन्हें नहीं पता कि परमार्थ क्या होता है। यदि हम दुनिया की सहायता नहीं करते तो आज दुनिया हमारी सहायता कैसे करती।

क्या मामला इतना सरल और मासूम है। रोहिंग्या शरणार्थियों के साथ इतना क्रूर व्यवहार करने वाली सरकार अचानक इतनी परमार्थी कैसे हो गयी कि अपने देश के लोगों की जान की कीमत पर भी दूसरों का मदद करने निकल पड़ी।

भारत ने जिन देशों को वैक्सीन सप्लाई की है, उनमें एक प्रमुख नाम पराग्वे (Paraguay) का है। यह लैटिन अमेरिका का एकमात्र ऐसा देश है जिसने अभी तक ताइवान के साथ राजनयिक संबंध बनाया हुआ है। और यह बात दुनिया को पता है कि चीन ताइवान को अपना हिस्सा मानता है। लेकिन अमेरिका ने ताइवान को अलग देश की मान्यता दे रखी है। पराग्वे को उसी दिन (22 अप्रैल) वैक्सीन की सप्लाई भेजी गई, जिस दिन नए संक्रमण के मामले में भारत ने विश्व रिकार्ड तोड़ा था।

इसी सूची में दूसरा नाम ब्राज़ील का है, जिसे करीब 2 करोड़ वैक्सीन की सप्लाई भारत से हो रही है। लैटिन अमेरिका में अमेरिका का प्रमुख पिट्ठू देश ब्राजील ने अमेरिका की शह पर चीन की वैक्सीन पर प्रतिबंध लगाया हुआ है। लिहाजा उसे भारत से वैक्सीन सप्लाई हो रही है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत करीब 93 देशों को वैक्सीन सप्लाई करने का ठेका लिया है। इसमें से करीब  60 देश ऐसे है जो कोविड से बहुत कम प्रभावित हैं। दूसरी ओर भारत इस वक़्त कोविड से शिकार होने वाले देशों में नम्बर 1 पर है।

 चीन को घेरने की अमरीकी रणनीति में भारत अमेरिका का प्रमुख पिट्ठू है। और इसी रणनीति के तहत पूरे विश्व मे चीन के प्रभाव को कम करने के लिए भारत अपने नागरिकों की जान की कीमत पर पूरी दुनिया को वैक्सीन सप्लाई कर रहा है। 

लेकिन अमेरिका और दूसरे योरोपीय देश क्या कर रहे है? वे वैक्सीन का निर्यात नहीं कर रहे हैं, बल्कि वैक्सीन की जमाखोरी कर रहे हैं, ताकि पहले उनके देश के नागरिकों को वैक्सीन मिल सके। यही कारण है कि ब्रिटेन अपनी जनसंख्या के 50 प्रतिशत लोगो को और अमेरिका 30 प्रतिशत लोगों को अब तक टीका लगा चुका है। जबकि अप्रैल अंत मे भारत में यह आंकड़ा महज 1.8 प्रतिशत (दोनों डोज मिलाकर) था।

यदि भारत सच में परमार्थ  करना चाहता है तो उसे सबसे पहले क्रूर अमेरिकी प्रतिबंध झेल रहे ईरान, वेनेजुएला और उत्तर कोरिया की मदद करनी चाहिए। क्या 56 इंच वाले प्रधानमंत्री मे इतनी हिम्मत है कि वह अमेरिकी प्रतिबंधों को नजरअंदाज करके इन देशों में वैक्सीन की सप्लाई कर सकें ?

यह है भारत की दिवालिया, दलाल और हत्यारी 'वैक्सीन डिप्लोमेसी'। 

सरकार और गोदी मीडिया का यह तर्क भी वाहियात है कि हमने वैक्सीन का निर्यात किया, इसीलिए आज संकट में दुनिया हमें मदद कर रही है। पहली बात तो यह है कि ज्यादातर मेडिकल मदद यूरोपियन देशों से आ रही है जो वैक्सीन के लिए भारत पर निर्भर नहीं हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत से उठती चिताओं की ऊंची लपटे आज पूरा विश्व देख रहा है। यह विश्व जनमत का दबाव है कि ये यूरोपीय देश भारत की मदद के लिए आगे बढ़े हैं। दूसरे यह डर भी है कि भारत में संक्रमण की रफ्तार को नहीं रोका गया तो यह योरोप और पूरी दुनिया के लिए खतरा बन सकता है।

अब कुछ बातें वैक्सीन से पेटेंट हटाने के बारे में- यह सच है कि यदि वैक्सीन से कुछ समय के लिए ही सही पेटेंट हटा लिया जाय तो पूरे विश्व की आबादी को जल्दी से जल्दी वैक्सीन लगाई जा सकेगी। इस मांग में भारत सरकार भी शामिल है।  तमाम बुद्धिजीवी व गोदी मीडिया इसके लिए भारत सरकार की भूरि -भूरि तारीफ कर रहे हैं। लेकिन आश्चर्य की बात  है कि कोई यह नहीं पूछ रहा कि भारत अपनी स्वदेशी वैक्सीन (भारत बायोटेक की 'कोवैक्सीन') का फार्मूला क्यों नहीं सार्वजनिक करता, ताकि भारत की दूसरी दवा कंपनियां भी इस टीके का उत्पादन कर सकें और भारत की 1 अरब 30 करोड़ की आबादी को जल्दी से जल्दी टीका लगाया जा सके। पुरानी कहावत है कि परमार्थ अपने घर से शुरू होता है। 

यह भारत का पाखंड नहीं तो और क्या है?

जिस तरह से 'स्काई न्यूज़' को दिए अपने इंटरव्यू में बिल गेट्स ने पेटेंट कानून को हटाने का पुरजोर विरोध किया, उससे बिल गेट्स की तथाकथित चैरिटी का नकाब भी उतर गया। इनको अपने मुनाफे और मोनोपोली के आगे कुछ नहीं दिखता।

हालांकि हमें यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि सिर्फ पेटेंट हटाने से कोई खास फायदा नहीं होने वाला। यह महज पहला कदम है। वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया बहुत जटिल होती है। इसलिए इसका जेनेरिक वर्ज़न बनाने के लिए पेटेंट हटाने के अलावा संबंधित कंपनी को अपना 'ट्रेड सीक्रेट' और तकनीक भी साझा करनी होगी। मोडर्ना (Moderna) ने तो अपना पेटेंट पिछले साल अक्टूबर में ही हटा लिया था। लेकिन 'ट्रेड सीक्रेट' और तकनीक न मिलने के कारण आज तक कोई मोडर्ना (Moderna) की वैक्सीन को कॉपी नहीं कर पाया। इसलिए यदि अमेरिका या ये कंपनियां 'मानवता के हित' मे अपना पेटेंट कानून कुछ समय के लिए हटाने को तैयार हो जाती हैं, लेकिन अपना 'ट्रेड सीक्रेट' और तकनीक साझा नहीं करती तो यह अमेरिका और इन कंपनियों का पाखंड ही कहा जायेगा। और कुछ नहीं।

'ट्रेड सीक्रेट' साझा न करने का एक बड़ा कारण यह भी है कि इन कंपनियों ने अपने अपने देशों की सरकारों की मिलीभगत से मुनाफे की हवस में जितनी जल्दी अपनी वैक्सीन को बाजार में उतारा है, उसके कारण इनको बनाने की प्रक्रिया बहुत पारदर्शी नही रही है। भारत में स्वदेशी 'कोवेक्सीन' तो ट्रायल के दूसरे चरण में ही बाजार में उतार दी गयी थी। इससे लोगों के मन मे इन वैक्सीन के प्रति एक डर बैठ गया है कि पता नहीं आगे चलकर इसका क्या साइडइफेक्ट हो। 'ट्रेड सीक्रेट' साझा करने से उनके मुनाफे पर असर पड़ने के अलावा इन सबके भी उजागर होने का खतरा है।

आज कोविड वैक्सीन बनाने वाली सभी कंपनियों ने मुख्यतः सरकारी यानी जनता के पैसे से वैक्सीन पर रिसर्च किया और अब पेटेंट करा कर उसे जनता तक पहुँचने में बाधा बनकर खड़ी हैं। 

सोचिए, अगर आग का अविष्कार करने वालों ने उसे पेटेंट करा लिया होता तो आज हम कहाँ होते।

#मनीष आज़ाद

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