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Friday, May 7, 2021

पुस्तक समीक्षा : व्हाय आए एम नॉट आ हिन्दू वीमेन


 

वाम-उदारवादी विचारक प्रायः हिंदुत्व और हिंदू धर्म मे भेद करते हुए जहां हिंदुत्व की आलोचना करते हैं वहीं हिन्दू धर्म को व्यक्ति के निजी जीवन का अंग मानकर उसकी निर्मम आलोचना से बचते रहते हैं।हिंदुत्व बुरा है लेक़िन हिंदूइस्म निर्दोष,यह मान्यता प्रभुत्वशाली रही है। इस विश्वास को बौद्धिक चुनौती देती है वंदना सोनालकर की नई पुस्तक "व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू वीमेन"। वंदना सोनालकर भारत की चिर परिचित विदुषी और सामाजिक कार्यकर्ता है। कैम्ब्रिज-विश्विद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त प्रो. सोनालकर टाटा सामजिक विज्ञान संस्थान के स्त्री अध्ययन विभाग से सेवानिवृत्त हुई है। आप एक बेहतरीन अनुवादक और माफुआ (मार्क्स-फुले-अम्बेडकर) की सहयात्री और कार्यकर्ता है।आपके अनुवाद कर्म जैसे -" वी आल्सो मेड हिस्ट्री और "मेमोयर्स ऑफ ए दलित कम्युनिस्ट:-द मैनी वर्ल्डस ऑफ आर. बी.मोरे" पूरी दुनिया मे प्रसिद्ध है। मैं हिन्दू स्त्री क्यों नहीं हूं" यह संभवतः किसी उच्च जातीय स्त्री की प्रथम कृति है जो हिन्दू -धर्म का प्रत्याख्यान करती है।हिन्दू धर्म के इस साहसिक अस्वीकार की पृष्टभूमि में निहित है ब्राह्मणवादी-फ़ासीवाद का उभार। मुसलमानों, दलितों और स्त्रियों पर बढ़ते दमन और उत्पीड़न के कारणों की व्याख्या पारंपरिक राजनीतिक-अर्थशास्त्र के माध्यम से न करके इसे वो हिन्दू धर्म की सामाजिक संस्कृतिक अभिव्यक्ति के रूप में देखती है। पुस्तक की प्रस्तावना में वे स्वंय की आत्म परिभाषा एक ऐसी मार्क्सवादी के रूप में करती है जो जाति की परिघटना को समझने और उसके अंत हेतु प्रतिबद्धता है। अपनी किताब की प्रस्तावना में वो ये अस्पष्ट करती है कि हिंदुत्व या राजनीतिक हिन्दू-धर्म सारतः स्त्रीद्वेषी,जाति वादी और गैरबराबरी पर आधारित है। डॉ सोनालकर का हिन्दू-धर्म का अस्वीकार मात्र विवेकवादी नहीं है।इस पुस्तक में सोनालकर अपने भोगे हुए यथार्थ व आत्म-कथात्मक संस्मरणों के माध्यम से हिन्दू धर्म की आलोचना के तर्क गढ़ती है। उनके अनुसार जाति और पितृसत्ता हिन्दू धर्म की धुरियाँ है जिसके परितः शोषण के अन्यरूप परिक्रमा करते है।हिन्दू धर्म की प्रदूषण-शुद्धता की अवधारणा औरत को तात्कालिक अछूत और दलित को अस्थायी अछूत मानती है।

सोनालकर हिन्दू धर्म की समादृत संस्था हिन्दू परिवार की आलोचना के माध्यम से हिन्दू धर्म की स्त्री विरोधी विचारधारा व व्यवहार को उदघाटित करती है। उनके मतानुसार हिन्दू-धर्म सारतः ब्राह्मणवादी-पितृसत्ता पर आधारित है और इस ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की केन्द्रीय संस्था परिवार है। हिन्दू-धर्म जिस सुखी परिवार का महिमामंडन करता है वह दरअसल उच्च जातीय सवर्ण परिवार है जिसमें महिला का कर्तव्य अपने पति और परिवार की सेवा करना है। इस आदर्शकृत सुखी हिन्दू परिवार की संकल्पना को ध्वस्त करते हुए सोनालकर अपने पिता की विवाहेतर सम्बंध के फलस्वरूप अपनी मां को जो दुःख और अलगाव भोगना पड़ा उसका वर्णन पूरी तरह तटस्थता और वस्तुपरकता के साथ करती है। पितृ सत्ता परिवार में पिता के विचलन को चुनौती देने वाली किसी एजेंसी की अनुपस्थिति और उसका वैधिकृत करना हिन्दू धर्म को स्वभवतः स्त्रिद्वेषी सिद्ध करता है।  पुरुष प्रायः अपने धर्म की आलोचना इस आधार पर करते है कि धर्म तर्क और नैतिकता के विरुद्ध है। वे बहुधा धर्म और लिंगभाव(जेंडर) के अंतः सबंध की उपेक्ष करते हैं।डॉ सोनालकर के अनुसार हिन्दू धर्म का उनका अस्वीकार पुरूषों की धर्म आलोचना से अधिक निजी है क्योंकि इसका मुख्यआधार उज़के उच्च जातीय हिन्दू परिवार में प्राप्त अनुभवों में निहित है।

सोनालकर, सामाज और सत्ता द्वारा दलितों,महिलाओं व मुसलमानों के खिलाफ़ निरंतर बढ़ती हिंसा से चिंतित है तथा इसके सांस्कृतिक मनोवैज्ञानिक स्रोतों का अन्वेषण करने का प्रयास करती है।उनके अनुसार हिन्दू धर्म ऐसे धर्म है जो हिंसा का दार्शनिक स्तर पर समर्थन करता है।भगवदगीता में कृष्ण युद्ध और हिंसा का दार्शनिक-न्यायीकरण करते है। गीता में कृष्ण का तर्क है कि आत्मा अनवश्वर व शाश्वत है इसलिए शरीर की हत्या से आत्मा नहीं मरती । यह आश्चर्यजनक नहीं है कि गीता हिन्दू राष्ट्रवादियों का सबसे प्रिय ग्रन्थ रहा है। गीता का संदेश है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने पूर्व निर्धारित वर्ण/जाति के कर्तव्यों का निःशप्रश्न ढंग करना चाहिए। लेखिका हिंदूइस्म और अन्य धर्मों की तुलना करते हुए लिखती है जहां दूसरे धर्म सभी मनुष्यों को ईश्वर की कृति मानने के कारण एक प्रकार समता के मूल्यों को स्वीकार करते हैं वहीं हिन्दू धर्म सारतः विषमता पर आधारित धर्म है क्योंकि मनुष्यों की श्रेणीबद्ध असमानता को हिन्दू धर्म का आधिकारिक सिद्धांत है। अन्य धर्मों में प्राप्य धार्मिक - सामाजिक समता के आधार पर व्यक्ति अपने लिए निजी नैतिकता निगमित कर सकता है लेक़िन हिन्दू धर्म मे ऐसा नहीं है।यहाँ आपकी जाति अवस्थिति आपकी नैतिकता को निर्धारित करती है।सोनालकर ने इस किताब में अपनी बौद्धिक यात्रा का भी उल्लेख किया है। एक कैम्ब्रिज विश्विद्यालय में शिक्षित उच्ची जाति की पारंपरिक मार्क्सवादी महिला किस प्रकार जाति के सवाल से जूझती है और किस तरह स्वंय को जाति विनाश के लिए प्रतिबद्ध करती है। इसका वर्णन यह आत्मकथात्मक ग्रन्थ की खूबसूरती से करता है।

  हिन्दू धर्म और हिंसा के अंतः संबंधों की पड़ताल करते हुए वो लिखती है कि हिंदुओं का महाकाव्य रामायण शूर्पनखा के विकृतिकरण को न्यायोचित ठहराता है। स्त्रियों के नाक कान काटने की घटनाओं को वे रामायण एवं अन्य हिन्दू। धर्मग्रंथों द्वारा स्त्री व शूद्रों के विरुद्ध हिंसा के समर्थन से जोड़ती है। हिन्दू धर्म और उस पर आधारित हिन्दू राष्ट्रवाद दलितों तथा मुसलमानों को बाहरी "अन्य"के रूप में देखती है,वहीं दलितों आंतरिक "अन्य" मानती है। डॉ सोनालकर का यह प्रेक्षण अत्यंत अतः दृष्टिपूर्ण है कि हिंदुराष्ट्र दलितों पर होने वाले हिंसा का अदृश्यकरण करता है और मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का वैधीकरण करता है। प्रो सोनालकर का विश्वास है कि दलितों,मुसलमानों, स्त्रियों एवम अन्य उत्पीड़ित समुदायों पर बढ़ती हिंसा की व्यख्या केवल हिंदुत्व की राजनीति को उत्तरदायी ठहराकर नहीं कि जा सकती क्योंकि हिंदुत्व की राजनीति जाति-पितृसत्ता ,हिन्दू धर्म पर आधारित हिन्दू धर्म की संस्कृति और दर्शन से प्रेरणा ग्रहण करती है।

  लेखिका का हिन्दूधर्म यह प्रत्याख्यान इस बात को प्रमुखता से रेखांकित करता है कि प्रदूषण -शुद्धता की संकल्पना हिन्दू धर्म का सार है। हिंदुत्व की राजनीति इस प्रदूषण-शुद्धता की बाइनरी का प्रयोग करते हुए स्त्री दलित व मुसलमानों को अशुद्ध मानकर उनका अस्पृथयिकरण करती है।

  इस प्रकार प्रो सोनालकर हिन्दू फ़ासीवाद से लड़ने के लिए हिन्दू धर्म कि आमूल सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचना को परम आवश्यक मानती है। यह मुखलसर सी किताब अपने अंग्रेजी गद्य के सौंदर्य के लिए भी जानी जायेगी। 


प्रमोद कुमार बागड़े

एसोसिएट प्रोफेसर

दर्शन एवं धर्म विभाग

काशी हिंदू विश्वविद्यालय

वाराणसी।

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