जुलाई 2015 में प्रधानमंत्री ‘मोदी’ ने अपने आधिकारिक आवास ‘रेसकोर्स रोड’ पर 150 सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने वाले अपने समर्थकों की मीटिंग की थी। इस मीटिंग में सोशल मीडिया (विशेषकर ट्विटर पर) पर सक्रिय रहने वाले वे ‘ट्रोल’ (troll-जिसका हिन्दी में साधारण अनुवाद होगा ‘साइबर गुण्डा’) भी शामिल थे, जो साइबर जगत में औरतों, अल्पसंख्यकों और पत्रकारों के खिलाफ गन्दी, भड़काऊ और हिंसक भाषा का इस्तेमाल करने के लिए कुख्यात हैं। इनमें से कुछ के खिलाफ तो ‘एफआइआर’ तक दर्ज है। उस वक्त इस मीटिंग की काफी आलोचना भी हुई थी। इनमें से 22 ऐसे ट्रोल है जिसे खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘फालो’ करते हैं। इनमें अनुराग कश्यप को ट्रोल करने वाला @bhak_sala और @HDL_Global [Hindu Defence League] जैसे कुख्यात ट्रोल भी शामिल हैं।
इसी विषय पर अपनी तरह की अकेली और महत्वपूर्ण किताब I am a troll: Inside the secret world of BJP’s digital army में इस किताब की लेखिका पत्रकार ‘स्वाती चतुर्वेदी’ ने अपने खोजपूर्ण अध्ययन से यह साबित किया है कि ‘आरएसएस’ की तरह ही साइबर जगत में भी बीजेपी की डिजीटल आर्मी बहुत सुनियोजित तरीके से ‘आरएसएस’ के ही एजेण्डा को आगे बढ़ा रही है। लेखिका के अनुसार इस डिजिटल आर्मी का नाम है-‘नेशनल डिजिटल आपरेशन्स सेन्टर’ (NDOC) जिसके मुखिया बीएचयू आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई किये हुए ‘अरविन्द गुप्ता’ है, जो सीधे ‘नरेन्द्र मोदी’ और ‘अमित शाह’ से निर्देश लेते है। इस डिजिटल आर्मी का मुख्यालय दिल्ली में ‘11 अशोक रोड’ पर है, जहां करीब 200 लोग काम करते हैं। इनमें से कुछ ‘स्वयंसेवक’ हैं और कुछ ‘पेड’ है। इन्हीं में से कुछ ‘ट्रोल’ के साक्षात्कार के बहाने लेखिका इनके काम करने का तरीका और और इनकी बीमार मानसिकता का पूरा चिट्ठा सामने रखती हैं। इनमें से ज्यादातर ऊंची जाति के वे नौजवान हैं जो ‘नवउदारवादी नीतियों’ की शुरुआत और ‘बाबरी मस्जिद’ के विघ्वंस के दौरान पैदा हुए है और मूलतः मुस्लिम विरोधी-दलित विरोधी-महिला विरोधी है। इन नौजवानों का दिमाग पढ़कर आप 1991 के बाद की आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक नीतियों की असफलता का अन्दाजा लगा सकते हैं। ‘स्क्रीन शाट्स’ के माध्यम से बीजेपी डिजिटल आर्मी के इन ‘सैनिकों’ के जो ‘ट्विट्स’ किताब में दिये गये है वे बेहद आक्रामक और इतने अश्लील है कि उनमें से किसी को भी उद्घृत करना यहां सम्भव नहीं है। तमाम महिला पत्रकारों की तरह ही स्वाती खुद ऐसे हमलों का शिकार हुई हैं और उन्हें इसके खिलाफ ‘एफआइआर’ तक दर्ज कराना पड़ा है।
किताब मुख्यतः आधारित है, ‘साध्वी खोसला’ के साक्षात्कार पर। खोसला 2013 से बीजेपी की डिजीटल आर्मी का महत्वपूर्ण हिस्सा थी, लेकिन 2015 की शुरुआत में उनका मोहभंग हो गया और उन्होंने बीजेपी छोड़ दी। यह साक्षात्कार बहुत दिलचस्प है और बीजेपी की भीतरी पर्ते बखूबी खोलता है। खोसला को डिजिटल आर्मी में काम करने के लिए खुद मोदी ने आमंत्रित किया था। खोसला बताती हैं कि लगभग रोज ही चुने हुए लोगो की अरविन्द गुप्ता के साथ बैठक होती थी जहां टारगेट तय किये जाते थे कि किसकी ट्रोलिंग करनी है। यहां तक कि कभी कभी मैसेज भी पहले से तय होते थे और यह निर्देश दिये जाते थे कि इनमें ही थोड़ा हेर फेर करके इसे ही पोस्ट किया जाना है। लेखिका ने कुछ ‘स्क्रीन शाट्स’ के माध्यम से दिखाया है कि एकदम अलग अलग एकाउन्ट से पोस्ट हुए मैसेज हूबहू एक से है। यहां तक कि कामा-फुलस्टाप भी समान है। जिससे उपरोक्त बात की पुष्टि होती है। इस डिजिटल आर्मी ने सोशल मीडिया पर बहुत से फर्जी अकाउन्ट बना रखे हैं। जिसका इस्तेमाल करके मुद्दे विशेष को ‘ट्रेन्ड’ कराया जाता है और इसे अभियान की शक्ल दी जाती है। वर्तमान किसान आंदोलन के संदर्भ में भी आज हम इसकी पड़ताल कर सकते हैं।‘
‘कैराना’ से हिन्दुओं के कथित पलायन की बात भी इसी डिजिटल अभियान का हिस्सा था।
किताब का ‘अपेन्डिक्स बी’ काफी रोचक है। इसमें डाटा एनलिस्ट ‘अंकित लाल’ के एक अध्ययन का इस्तेमाल किया गया है। अंकित लाल ने ‘डाटा एनिलिटिकल टूल’ का इस्तेमाल करते हुए जब यह देखना चाहा कि मोदी भक्त आखिर किस किस जगह से मोदी-विरोधियों को गाली दे रहे हैं तो आश्चर्यजनक रुप से उसमें ‘थाईलैण्ड’ का नाम प्रमुख रुप से उभरा। मतलब साफ है- बीजेपी की डिजीटल आर्मी अपना वास्तविक ‘आईपी एड्रेस’ छुपाने के लिए ‘वीपीएन’ (virtual private network) का इस्तेमाल कर रही है, जिसका सर्वर थाइलैण्ड में है या इसने थाइलैण्ड स्थित किसी ‘आईटी फर्म’ के साथ करार किया हुआ है जो बीजेपी के निर्देशानुसार वही से सोशल मीडिया पर बीजेपी का प्रतिनिधित्व कर रही है।
किताब में यह भी महत्वपूर्ण जानकारी दी गयी है कि जेएनयू के ‘कन्हैया’ वाले केस में जिस ‘डाक्टर्ड वीडियो’ की बात सामने आती है उसे ‘शिल्पी तिवारी’ ने तैयार किया था। यह वही शिल्पी तिवारी हैं जो स्मृति ईरानी के चुनाव अभियान की महत्वपूर्ण सदस्य थी। आपको पता ही होगा कि इस फर्जी वीडियों के कारण क्या क्या हुआ।
किताब यह बात पुरजोर तरीके से बताती है कि बीजेपी ने अन्य सभी पार्टियों से पहले सोशल मीडिया की ताकत को पहचान लिया था। और उस पर विधिवत काम भी शुरु कर दिया था। आज अनेक आईटी फर्म में आरएसएस की ‘आईटी शाखा’ भी लगना शुरु हो गयी है। इसका भी जिक्र किताब में है।
बीजेपी अपनी प्रतिक्रियावादी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए अपनी डिजीटल आर्मी का तो बखूबी प्रयोग कर रही है। लेकिन अपनी इमेज को चमकाने के लिए इसने अमरीका की शक्तिशाली पीआर फर्म ‘एपीसीओ’ (APCO) के साथ करोड़ों का समझौता किया था। इस पीआर के साथ दुनिया के कई तानाशाह भी जुड़े हुए है। ‘वाइब्रेन्ट गुजरात’ कैम्पेन का ठेका इसी ‘पीआर फर्म’ को दिया गया था। जिसका मुख्य काम था- 2002 के दंगे की कालिमा से गुजरात को बाहर निकालना।
इस पहलू को बिना छुए बीजीपी की डिजिटल आर्मी की बात पूरी नही होती। लेकिन किताब में इस बात का जिक्र तक ना होना एक अधूरेपन का अहसास कराता है। इसके अलावा पूरी किताब पड़ते समय ऐसा लगता है कि किताब बहुत जल्दबाजी में लिखी गयी है। कई महत्वपूर्ण जानकारी छूटने का यह भी एक कारण है। इसे ‘श्रिया मोहन’ ने ‘कैचन्यूज डाटकाम’ में इस पुस्तक की अपनी समीक्षा में उचित ही ‘impatient journalism’ कहा है। इस कारण से इस किताब में ‘न्यूज’ ज्यादा है जो ‘व्यूज’ पर भारी पड़ते हैं।
आज सोशल मीडिया की ‘आभासी दुनिया’ और हमारी ‘वास्तविक दुनिया’ का अन्तरसम्बन्ध बहुत गहरा है। सोशल मीडिया की हिंसा को वास्तविक दुनिया की हिंसा में बदलते आज देर नहीं लगती। इसलिए सोशल मीडिया को गम्भीरता से लेने की जरुरत है। यह किताब यह बताती है कि इस आभासी दुनिया में भी प्रतिक्रियावादी ताकतें अपने आप को संगठित करती जा रही हैं। प्रगतिशील ताकतें इसका जवाब स्वतःस्फूर्तता के साथ कितना दे पायेंगी, यह सोचने की बात है।
किताब को ‘Juggernaut’ ने छापा है और इसकी कीमत 250 रुपये है।
#मनीष आज़ाद
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