आज 20 अगस्त को हिंदी के बड़े व प्रगतिशील कवि ‘त्रिलोचन शास्त्री’ का जन्म दिन है। आज ही के दिन 1917 में वे उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में पैदा हुए थे। उनसे जुड़ा एक किस्सा आज मुझे याद आ गया, जो खुद त्रिलोचन जी ने ही सुनाया था।
त्रिलोचन की गांव के ही एक दलित नौजवान से गहरी दोस्ती थी। एक दिन दोनो ने मस्ती में ही यह तय किया कि इस गांव से दिल्ली की यात्रा पैदल ही की जाय। लेकिन शर्त यह थी कि कोई भी अपनी जेब में एक पैसा भी नहीं रखेगा। और यात्रा अलग अलग करेंगे। 1 माह बाद दिल्ली के लाल किले के सामने तय समय पर मिलने का तय कर लिया गया, जहां दोनो अपना अनुभव एक दूसरे को बतायेंगे। दोनो ने सुल्तानपुर से दिल्ली जाने वाली रेलगाड़ी की पटरी को पकड़ कर अलग अलग समय पर अपनी यात्रा शुरू कर दी।
एक माह बाद तय समय व स्थान पर त्रिलोचन और उनके दलित दोस्त मिले। त्रिलोचन ने तपाक से पूछा कि कैसे इतनी लंबी यात्रा बिना पैसे के की। उनके दलित दोस्त ने उनसे कहा कि पहले आप अपना अनुभव बताएं। त्रिलोचन ने बड़े सहज भाव से जवाब दिया कि चलते चलते जब मैं थक जाता था तो बगल के गांव में चला जाता था वहां कहीं स्थान देख कर भजन कीर्तन-प्रवचन शुरू कर देता था। गांव वाले मुझे भोजन, पैसे और सोने का अच्छा जुगाड़ कर देते थे। फिर मैं अगले दिन वहां से निकल जाता था। ऐसे ही मैं दिल्ली पहुंच गया। कोई दिक्कत नहीं हुई। अब उस दलित दोस्त की बारी थी। उसने बहुत संक्षिप्त सा उत्तर दिया। मैं गांव दर गांव मजदूरी करता, फिर आगे बढ़ जाता। इस तरह मैं दिल्ली पहुंच गया।
यह कहानी सुनाने के बाद त्रिलोचन ने कहा कि दलित दोस्त के इस अति संक्षिप्त उत्तर में हमारी जाति व्यवस्था की विराटता का दर्शन उसी तरह होता हैं जैसे अर्जुन को कृष्ण के मुख में पूरे ब्रहमाण्ड के दर्शन हुए थे।
मनीष आज़ाद
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