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Thursday, August 19, 2021

तालिबान-अमेरिका विमर्श में 'काबुलीवाला' कहाँ है?


 

हम अपने बचपन में अफ़गानिस्तान को रवीद्रनाथ टैगोर की कहानी और बलराज साहनी की फिल्म 'काबुलीवाला' से ही पहचानते थे. छोटे छोटे बच्चों को किशमिश बादाम बांटता और झोले में रखी जादू की छड़ी से उन्हें परी बनाता 'काबुलीवाला'.


लेकिन पिछले करीब 40 सालों में अमेरिका और रूस ने अफ़गानिस्तान के सीने पर जो गन्दा युद्ध थोपा है, उसके गु़बार में यह काबुलीवाला कहीं खो गया. हालाँकि आप यह भी कह सकते हैं कि इसी दौरान वह तालिबानी हो गया होगा. लेकिन मुझे यह स्वीकार करने में दिक्कत है. एक हिन्दू बंगाली लड़की मिनी में अपनी बेटी की तस्वीर देखने वाला रहमत यानी 'काबुलीवाला' तालिबानी तो नहीं ही हो सकता.


'काबुलीवाला' और उसकी बेटियों को आज अफ़गानिस्तान में खोजने के लिए, थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी. भारत के 'मुख्यधारा' की मीडिया और स्टूडियो में उछलते-कूदते एंकरों द्वारा उठाये गए गर्दो-गुबार से बाहर निकल कर देखना होगा.


आइये मैं, आपको इस 'काबुलीवाला' की एक 'बेटी' से मिलवाता हूँ और उससे पूछता हूँ कि अमेरिका और तालिबान में किसे चुनना ठीक रहेगा.


अफ़गानिस्तान में महिलाओं का एक भूमिगत संगठन है- 'रावा' (Revolutionary Association of the Women of Afghanistan) इसकी एक कार्यकर्त्ता सामिया वालिद [Samia Walid] 2019 में दिए एक इंटरव्यू में कहती है-''अमेरिका ने 'महिला अधिकारों' के बहाने अफ़गानिस्तान पर हमला किया. लेकिन पिछले 18 सालों में हमने क्या पाया? सिर्फ हिंसा, हत्या, यौनिक हिंसा, आत्महत्या और दूसरी विपत्तियां. अमेरिका ने अफ़गान महिलाओं के सबसे घृणित दुश्मन इस्लामिक कट्टरपंथियों को सत्ता में बैठाया. पिछले 4 दशकों से यही साम्राज्यवादियों की रणनीति है. जिहादी, तालिबान, और आईएसआईएस [ISIS] जैसे इस्लामिक कट्टरपंथियों को बढ़ावा देकर, जो न सिर्फ हत्यारे अपराधी हैं, बल्कि कट्टर नारी विरोधी हैं, वास्तव में अमेरिका ने ही हम औरतों का दमन किया है.


हम अफ़गान औरतों की मुक्ति को साम्राज्यवादी औपनिवेशीकरण, इस्लामिक कट्टरपंथ और कठपुतली सरकार से मुक्ति में देखते हैं.


अमेरिका ने पढ़ी लिखी औरतों को सीमित मात्रा में सरकार, और दूसरी सस्थाओं. एनजीओ, नागरिक समाज, में सजावटी गुड़िया की तरह रखा हुआ है. इसका दोहरा उदेश्य है- एक, अमेरिका इन महिलाओं का इस्तेमाल अफ़गान औरतों की वास्तविक स्थिति को दुनिया से छुपाने के लिए करता है. और इसे अपने थकाऊ युद्ध को जायज़ ठहराने के लिए इस्तेमाल करता है. दूसरा, ऐसी पढ़ी लिखी औरतों को अपने साथ रखकर वे यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि महिलायें क्रांतिकारी संघर्षो में भागीदारी न करे.''


यानी जनवादी-समाजवादी अफगानिस्तान की लड़ाई में लगी इन महिलाओं की यह मजबूरी नहीं है कि वे तालिबान और अमेरिका में से एक को चुने. चुनाव जीवन और मृत्यु के बीच होता है. मौत और मौत के बीच कैसा चुनाव? काबुलीवाले की बेटियां हमें यही बताती हैं.


आइये अब मै आपको 'काबुलीवाला' के बेटों से मिलवाता हूँ. और देखता हूँ कि उनकी इस मसले पर क्या राय है.


2001 में अफ़गानिस्तान पर अमेरिका के आक्रमण के ठीक 3 साल बाद अफ़गानिस्तान की 5 कम्युनिस्ट पार्टियों ने मिलकर 'अफ़गानिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी [माओवादी]' का गठन किया. तभी से यह इस्लामिक कट्टरपंथ और अमेरिकी साम्राज्यवाद, दोनों से लड़ रहा है। 

इसके एक संस्थापक सदस्य [जिनकी 2019 में मृत्यु हो गयी] कामरेड जिया ने एक पत्रिका 'इटरनल फ्लेम' [Eternal Flame] में 2011 में एक लेख लिखा- 'तालिबान लड़ेगा या साम्राज्यवादियों-कठपुतली सरकार के साथ समझौते में जायेगा?' [आपको याद होगा कि 2011 में ही अमेरिका ने एलान कर दिया था कि 2014 तक वे अफगानिस्तान से निकल जायेंगे. लेकिन भिन्न-भिन्न कारणों से यह टलता रहा.] 2011 में लिखी यह पंक्तियाँ एक तरह से भविष्यवाणी साबित हुई. और तालिबान अमेरिका के साथ समझौते में जाकर 'शांतिपूर्ण' तरीके से सत्ता पर काबिज़ हो गया.


हालाँकि यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि अमेरिका को अपने देश से भगाने की भावना के साथ आम जनता का एक हिस्सा भी तालिबान के साथ था, लेकिन किसी संगठन का चरित्र निर्धारण तो उसके नेतृत्व से ही होता है, जो निसंदेह अफ़गानिस्तान की घोर प्रतिक्रियावादी सामंती ताकते हैं.


तालिबान और अमेरिका के बीच समझौते के बाद अफ़गानिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी [माओवादी] ने एक वक्तव्य जारी किया और उसमे साफ़ साफ़ कहा- 'समझौते के बाद तालिबान अमेरिकी साम्राज्यवाद का ही हिस्सा है'


अमेरिका की अफ़गानिस्तान में हार सिर्फ इस अर्थ में हुई है कि वह वहां एक स्थाई दलाल सरकार का गठन करने में कामयाब नहीं हो पाई. लाख प्रयास के बावजूद अमेरिकी कठपुतली सरकारें काबुल से आगे नहीं बढ़ पायी. 2011-12 में ही अमेरिका ने तालिबान को सत्ता में लाने के विकल्प पर सोचना शुरू कर दिया था. और बंद दरवाजे के भीतर बातचीत भी शुरू हो गयी थे. लेकिन तमाम अंदरूनी और बाहरी समीकरणों के कारण यह प्रक्रिया बहुत धीमे-धीमे चली. अंततः फरवरी 2020 में दोहा में तालिबान ने अमेरिका की सारी शर्तें मान ली और सत्ता हस्तांतरण आसान हो गया. यहाँ तक रिपोर्ट है कि इस दौरान कई जगहों पर तालिबान ने अमेरिकी सेना को दूसरे मिलिटेंट ग्रुप के हमलों से बचाया भी है.


बदली विश्व परिस्थिति में [आर्थिक मंदी और चीन का उभार] अमेरिका के लिए अब यह मुश्किल होता जा रहा है कि वह ज़्यादा देशों में अपने सैन्य अड्डे रख सके. इसलिए अब उसे कुछ ख़ास जगहों पर केन्द्रित करना है. इस समय उसकी पहली प्राथमिकता चीन को घेरने की है. और उसकी दूसरी प्राथमिकता मध्य पूर्व में अपनी स्थिति को मजबूत करने की है. इसे देखते हुए अफ़गानिस्तान उसके लिए बोझ साबित हो रहा था. जहाँ वह अब तक 2 ट्रिलियन डालर निवेश कर चुका है. फिर भी कोई स्थाई तंत्र खड़ा नहीं कर सका.


तालिबान की ग्रामीण इलाकों में पकड़ और विगत की कठपुतली सरकारों से अपेक्षाकृत ज़्यादा जन समर्थन से आज अमेरिका को यह लगता है की तालिबान के रूप में उसे अपेक्षाकृत ज़्यादा स्थाई दलाल मिलेगा. ठीक वैसे ही जैसे पिछले 70 सालों से सऊदी अरब अमेरिका का विश्वस्त पिट्ठू बना हुआ है.


आश्चर्य है कि तालिबान की बर्बरता पर अगिया बैताल होने वाला भारतीय मीडिया कभी सऊदी अरब की बर्बरता की बात नहीं करता जो इस वक़्त धरती पर शायद सबसे ज्यादा क्रूर सरकार है. महिलाओं के सन्दर्भ में तो निश्चित ही. 

पत्रकार खगोशी की तुर्की स्थिति दूतावास में जिस तरह से बोटी बोटी काटकर हत्या की गई, उस बर्बरता पर कितने लोगों ने सवाल उठाया. 

शरिया कानून से चलने वाले सऊदी अरब ने जब मोदी को अपना सबसे बड़ा पुरस्कार दिया तो किसी भी मोदी भक्त ने आवाज़ नहीं उठाई. क्या सिर्फ इसलिए कि उसे अमेरिका का समर्थन हासिल है?


आखिर बर्बरता की हमारी परिभाषा क्या है? राउल पेक अपनी प्रसिद्ध फिल्म 'एक्सटर्मिनेट आल द ब्रूटस' [Exterminate All the Brutes] में कहते हैं कि योरोपियन-अमेरिकन लोगों के पास दूसरी सभ्यताओं के मुकाबले सिर्फ एक एडवांटेज था. वह था दूर से हत्या करने का कौशल. कालांतर में दूर से हत्या करने को सभ्य और नज़दीक से हत्या करने को बर्बर मान लिया गया. तालिबान जब किसी को नजदीक से गोली मारता है, या गला रेत कर मारता है तो वह हमें बर्बर लगता है, लेकिन अमेरिका जब ड्रोन से या हवाई हमले से किसी शादी पर हमला करके बच्चों, महिलाओं की हत्या करता है तो वह हमें उतना बर्बर नहीं लगता. 2001 में शुरूआती लड़ाई में अमेरिका समर्थित 'उत्तरी अलायंस' ने अफ़गानी जनता विशेषकर अफ़गानी महिलाओं के साथ किस तरह की जघन्य बर्बरता की थी, उसे हम भूल गये. क्योंकि मीडिया में अब उसका ज़िक्र नहीं है.


न्यूज़क्लिक की एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका पूरी पृथ्वी पर प्रति 12 मिनट पर एक बम, 121 बम प्रतिदिन यानी 44,096 बम प्रतिवर्ष बरसाता है. यानि अमेरिका लगातार प्रयास कर रहा है कि दुनिया पाषाण काल की ओर लौट जाए. फिर भी अमेरिका सभ्य देश है? 2001 के बाद से पिछले 20 सालों में अमेरिकी हमलों में करीब 50 हज़ार अफ़ग़ान नागरिक मारे गये. यमन में 2014 के बाद से वहां के गृहयुद्ध में 2 लाख 33 हजार यमनी नागरिक मारे गए हैं. इसकी एकमात्र जिम्मेदारी अमेरिका समर्थित सऊदी अरब सरकार की ही है.


इतिहास के विद्यार्थी यह जानते होंगे कि एक समय था जब अफ़गानिस्तान सहित अधिकांश मुस्लिम देशों में कम्युनिस्ट पार्टियाँ या तो सत्ता में थी या फिर सशक्त विपक्षी पार्टियाँ थी. आज हम जिसे मुस्लिम कट्टरपंथ के रूप में पहचानते हैं, वो सिर्फ सऊदी अरब में कहीं दुबका बैठा था. तारिक अली ने अपनी मशहूर किताब 'बुश इन बेबीलोन' में इसे विस्तार से लिखा है.


समाजवादी रूस और अन्य समाजवादी देशों ने जब से समाजवाद का रास्ता छोड़ा तो मानो अमेरिका और रूस में दुनिया भर के प्रतिक्रियावादियों को कोने अतरों से ढूंढ़ ढूंढकर कर उन्हें खिला पिला कर एक दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल करने की होड़़ लग गयी. अफ़गानिस्तान इसी होड़ का अड्डा बन गया.


सच तो यह है कि साम्राज्यवाद और प्रतिक्रियावादी सामंतवाद एक दूसरे के बगैर जीवित ही नहीं रह सकते.  परिणामतः 4 करोड़ की जनसँख्या वाले देश में पिछले 40 सालों में करीब 22 लाख अफ़गान नागरिक मारे गए है.


कहने का मतलब यह है कि तालिबान इस ख़तरनाक खेल का बहुत छोटा खिलाड़ी है.


हमारा अफ़गानों के साथ क्या सम्बन्ध है, इसे 1930 में चन्द्रसिंह गढ़वाली ने शानदार तरीके से लिख दिया था, जब उन्होंने पेशावर में अफ़गान जनता पर गोली चलाने से इनकार कर दिया और इस कारण 11 साल जेल में रहे. लेकिन भारत सरकार ने अफ़गानिस्तान में सोवियत आक्रमण और 2001 में अमेरिकी आक्रमण का निर्लज्ज समर्थन करके हमारी दोस्ती की उस परंपरा से विश्वासघात किया.


मानवता का भविष्य 'काबुलीवाला' और 'चन्द्रसिंह गढ़वाली' में हैं. जो हर देश में मौजूद है और अपनी तरह से लड़ रहे हैं. हमें अपनी उम्मीद इन्हीं पर टिकानी है. यह ज़रूर है कि आज ये संख्या में बहुत कम है और दृश्यमान नहीं हैं. लेकिन रात में सूरज भी तो दृश्यमान नहीं रहता. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सूरज निकलेगा ही नहीं, और दुनिया को अपनी रोशनी से नहालायेगा ही नहीं.

#मनीष आज़ाद

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