-रूपेश कुमार
(मैं छात्र जीवन में आइसा से जुड़ा। भागलपुर में छात्र आंदोलन में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने के बाद इंकलाबी नौजवान सभा का अध्यक्ष बना। इसके बाद मैंने पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनने का निर्णय लिया। भाकपा, माले-लिबरेषन में 2006-2012 तक जिला कमेटी सदस्य रहा और नौगछिया प्रखंड में पार्टी प्रभारी के तौर पर काम किया। सांगठनिक और राजनीतिक मतभेद के चलते मैं वहां से अलग हो गया। इस दौरान के हासिल अनुभव मेरी समझदारी बनाने में सहयोगी बन गये। इसी अनुभव और उसकी चुनौतियों को एक रिपोर्ट के माध्यम से आप सभी के सामने रख रहा हूं।)
बिहार में भूमि आन्दोलन का इतिहास बहुत ही पुराना रहा है। झारखंड को अलग करके भी इस इतिहास को लिखा जाय तब भी यह पौराणिक अख्यानों से जाकर मिलता है। असुर लोगों का प्रतिरोध संघर्ष से लेकर अंग्रेजों की सत्ता के साथ सीधी भीड़ंत करने का सिलसिला कभी खत्म नहीं हुआ। इसका एक बड़ा कारण नदी की बहुलता और जमीन का उपजाऊपन के साथ साथ खनिज और वन संपदा की प्रचुरता भी रही है। आज का भूमि आंदोलन जिस विरासत को लिए हुए हमारे तक आया है वह 1930 के दषक में स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में बना। यह आंदोलन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ जुड़ गया और इसके साथ साथ राहुल सांस्कृत्यायन, रामवृक्ष बेनीपुरी आदि का नाम भी जुड़ जाता है। किसान सभा के साथ बड़ी संख्या में किसान जुड़े और जमींदारों के खिलाफ इज्जत, मजदूरी से लेकर भूमि दखल का आंदोलन चलाया। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस के साथ साथ चलने की नीति के चलते जमीन बचाने की गरज से जमींदार भी इसके सदस्य बनने लगे। यहां याद करना जरूरी है कि गांधी की नीति संश्रय यानी मजदूर-किसान-जमींदार और मजदूर-पूंजीपति के बीच दोस्ताना संबंध बनाये रखने की थी। इसका असर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी पर भी था। यह संबंध 1942 के बाद और गाढ़ा हो गया। 1947-54 के बीच जरूर एक तनातनी का माहौल था और तेलगांना के असर में देष का ग्रामीण हिस्सा ऊबाल लेने के लिए बेचैन बना रहा। लेकिन नेतृत्व की अवसरवादी और समर्पणवादी राजनीति ने इसे दबा दिया और आगे पूरी पार्टी को संसदीय दलदल में फंसाने की ओर ले गया। नेतृत्व का मार्क्सवाद से यह विचलन पार्टी में घुस आये निम्नपूंजीपतियों के साथ साथ जमींदारों की वजह से भी हुआ। नेतृत्व के स्तर पर 1962-64 में टूट करने वाले सीपीएम ने उपरोक्त वर्गीय संरचना को बनाए रखा और नीचे अपनी जमीन तैयार करने के लिए जमीन-कब्जा का कथित आंदोलन चलाने का नारा दिया। इस पार्टी का कार्यक्रम लगभग वही रहा जो सीपीआई का था। दरअसल, टूट का कारण भी अमृत पाद डांगे की अंग्रेजों के जमाने में जारी की चिट्ठी थी जिसके बारे में लंबे समय तक विवाद बना रहा। लाल झंडा के इन नये झंडाबरदारों की चिंता चुनाव में जीतकर सत्ता में आने की थी। पार्टी के किसान कार्यकर्ता जमीन के सवाल पर एकजुट होने के लिए तैयार बैठे थे। इस पूरे परिदृष्य में जमीन का सवाल गौण था जिसका एक ही नतीजा हो सकता था, जोर जोर का नारा और सिर्फ नारा। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी के नेतृत्व में जमीन का सवाल बेहद नियंत्रित तरीके से चलाया गया जिससे पार्टी में सदस्य जमींदारों की जमीन बची रहे और पार्टी से जुड़े कुछ प्रभावी लोगों को जमीन हासिल हो सके। इसका परिणाम पं बंगाल में हम देख सकते हैं जहां पार्टी के भीतर ही न केवल नये भू-स्वामियों की कतार खड़ी हो गई बल्कि खुद पार्टी ही एक विशाल कारपोरेट में बदलती गई और किसानों-आदिवासीयों की जमीन कब्जाने के खूनी अभियान में शामिल हो गई। उस दौर में बिहार में छिटपुट जमीन कब्जाने का अभियान चला। यह मुख्यतः स्थानीय प्रयासों का ही परिणाम था। षायद यही कारण है जिसकी वजह से बिहार में सीपीआई और सीपीएम का प्रभाव उतना ही दूर तक बना रहा जितना पहले तक था। नेतृत्व के स्तर पर वैचारिक संघर्ष और जमीन काम को संगठित करने की चिंता और प्रयास कभी भी खत्म नहीं हुआ। यह पक्ष 1964 के बाद के दौर में ताकतवर बनकर सामने आ गया। इसका एक कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘महान बहस’ भी था जिसकी अनुगूंज ‘चीन का रास्ता हमारा रास्ता’ के सूत्रीकरण में सामने आया। नक्सलबाड़ी ने भूमि और किसान मुक्ति के सवाल को भारतीय क्रांति का केंद्रीय सवाल बना दिया। वामपंथ की बनी चली आ रही किलेबंद स्वर्ग पर यह एक धावा था जिसका नेतृत्व आदिवासी, दलित, भूमिहीन, किसान, मजूदर, महिला और छात्र कर रहे थे। यह भाकपा, माकपा का वर्गीय चिंतन ही था जिसने इन आंदोलन को ‘लंपट, अराजक और हिंसक’ की उपाधि दिया। यही वह चिंतन था जिस पर सवार होकर भाकपा और माकपा कांग्रेस से लेकर संघ तक के बगलगीर हुए और जमींदारों और कारपोरेट घरानों के लिए जन आंदोलन पर गोली चलाने से भी नहीं हिचके। 1967 के नक्सलबाड़ी की धारा के प्रवाह में जितनी तेजी थी उतना ही फैलाव भी था। बिहार में यह मुजफ्फरपुर के मुसहरी और भोजपुर में इज्जत, मजदूरी और जमीन के नारे के साथ उपस्थित हुआ और यह पूरे बिहार का कंेद्रीय सवाल बन गया जिसे सुलझाने का सिलसिला आज भी जारी है। इस सुलझाने के क्रम और दृष्टिकोण के फर्क ने बड़े पैमाने पर टूट-फूट और विलगाव को जन्म दिया और साथ साथ ही साथ एकता और संघर्ष संगठित करने का एक मजबूत जमीन भी तैयार किया।
मैं भागलपुर के जिन इलाकों गंगानगर कदवा, नवगछिया के खैरपुर कदवा और कदवा दियारा पंचायत के गांवों की बात करने जा रहा हूं, वे उपरोक्त इतिहास का हिस्सा हैं और आज आंदोलन के ठहराव और उसे तोड़कर आगे बढ़ने की चुनौती से जूझ रहे हैं। भागलपुर जिला मुख्यालय से गंगा और फिर कोसी को पार करने के बाद नवगछिया का ये इलाका आता है। कहते हैं कि वहां कोसी का कहर और जमींदारों का कहर एक जैसा ही कदमताल करते हैं। गंगानगर और नवगछिया दोनों ही पंचायत की जमीनों पर तेतरी और पकरा के भूमिहार जमींदार, पूनामा के राजपूत जमींदार और खरीक प्रखंड के कवरैत मंडल यानी पिछड़ी जाति के जमींदारों का कब्जा था। इन इलाके की जमीन पर खेती करने के लिए जमींदारों ने बाहर से बड़े पैमाने पर भूमिहीन किसानों का लाकर बसाया। इन बसवाट से कई गांव अस्तित्व में आए। ये भूमिहीन किसान अतिपिछड़ा, पिछड़ा और दलित समुदाय से आते हैं। 1960 के दषक में जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भूमि पर कब्जा करने का नारा दिया और यहां भी गोलबंदी तेज हुई तब बहुत से जमींदार अपनी जमीन को कम दाम पर बेचना शुरू कर दिया। इसकी वजह से बहुत से बटाईदारों को जमीन हासिल हो गया। इससे भाकपा को एक चुनावी वोट का आधार बना। इस इलाके से भाकपा के उम्मीदार को जीत मिलनी षुरू हो गई। माकपा के दौर में कुछ और बटाईदारों को फायदा मिला और बदले में उन्हंे चुनावी फायदा पहुंचा। नक्सलबाड़ी ने नियंत्रित जमीन कब्जेदारी और चंद लोगों को फायदा देने की राजनीति पर ही हमला किया जिसकी वजह भूमि आंदोलन एक व्यापक आंदोलन में बदल गया। इस आंदोलन के प्रथम षहीद महेंद्र पंडित थे जिन्होंने जमींदारों के खिलाफ लड़ते हुए नक्सलबाड़ी की धारा को अमिट बना दिया।
नवगछिया, भागलपुर में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, माले-लिबरेशन यानी जिसे संक्षेप में लिबरेशन के नाम से जाना जाता है, ने 1980 के दषक में कार्य करना प्रारंभ किया। उस समय तक नवगछिया प्रखंड कदवा दियारा इलाके में जमींदारों का एक हिस्सा जमीन बेचकर वहां से निकल चुका था। बटाईदारों के एक हिस्से के पास कुछ जमीन आ चुकी थी। एक बड़े हिस्से में जमींदार और बटाईदारों के बीच आपसी सहमति बनाकर खेती का काम चल रहा था। लिबरेशन ने बटाईदारों को जमीन मुक्ति के लिए संगठित करना षुरू कर दिया। खरीक प्रखंड के लोकमानपुर गांव में सरोज मंडल और सत्यनारायन मंडल के पास क्रमषः 70 बीघा और 100 बीघा जमीन थी। बटाईदार इन जमींदारों के दबाव को मानने से इन्कार कर रहे थे। गुरुथान कदवा में किसानों ने इनकी जमीन एक बड़े हिस्से पर कब्जा कर फसल का हिस्सा जमींदार को देने से मना कर दिया और खुद को भाकपा, माले-लिबरेशन में संगठित कर लिया। 1982 में जमींदारों ने अपराधियों के साथ सांठ-गांठ कर बटाईदारों की जमीन पर कब्जा करने लिए हमला किया। इस हमले में प्रषासन ने भी उनका खुलकर साथ दिया। इस हमले में नन्दग्राम कदवा के लिबरेशन से जुड़े कार्यकर्ता गंगा मंडल शहीद हो गये। किसानों के सहयोग से भाकपा,माले-लिबरेषन जमीन पर कब्जा बनाए रखा लेकिन इस मामले को वह कोर्ट में भी ले जाया गया। कानूनी लड़ाई के दौरान जमीन पर वास्तविक कब्जा किसानों के हाथ से निकलकर पार्टी के पास आ गई। इस हालात का फायदा उठाने के लिए जमींदार ने इस जमीन को बेचने का प्रयास किया। इस जमीन को बचाने के लिए भाकपा, माले-लिबरेशन ने अंततः 1990 में अपने कार्यकर्ताओं के बीच वितरित कर वहां एक गांव बसाने का फैसला लिया। इस जमीन मुक्ति आंदोलन में शहीद हुए साथी गंगा मंडल के नाम पर ही इस गांव का नाम गंगा नगर रखा गया।
इस गांव की जमीन का वितरण निम्न प्रकार हुआ: पार्टी से जुड़े नेता/कार्यकर्ता को तीन कट्ठा, आम भूमिहीन इस संघर्ष में सक्रिय किसानों को डेढ़ कट्ठा। आम भूमिहीन किसानों को इसके बदले प्रति एक हजार रूपये पार्टी को देना अनिवार्य था। पार्टी कार्यकर्ता व नेता इस अनिवार्यता से मुक्त थे। जिन बटाईदारों ने जमीन मुक्ति के संघर्ष को षुरू किया और उसे अंत तक ले जाने में आगे डटे रहे, उन्हंे भी डेढ़ कट्ठा जमीन एक हजार रूपये के बदले दिया गया। यहां बसे लोगों में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की थी जिनके पास दूसरे गांव में भी जमीन थी। मध्य बिहार के अपने प्रयोगों को लिबरेशन ने यहां नहीं दुहराया जिसके तहत वह जमीन को सीधा अपने कब्जे में रखती है और किसानों से बटाईदारी कराते हुए उनसे 50 प्रतिशत यानी अधिया ले लेती है। यहां जमीन वितरण मुख्यतः पार्टी कार्यकर्ता और नेता के बीच किया गया जिसके बदले में वे पार्टी से जुड़े रहें और नियमित फंड व पार्टी कार्यक्रमों में हिस्सेदारी करते रहें। लेकिन इस प्रयोग में दिक्कतें आईं। जैसे जैसे जमीन पर मालिकाना पुख्ता हुआ वैसे वैसे पार्टी से दूरी का निर्माण भी होता गया। गांव जातिगत स्तर पर गंगोता मंडल और कुशवाहा जाति के गुट बनने षुरू हो गये। इस गुटबंदी ने ‘अपराधियों’ गठजोड़ किया जिससे उनका दबदबा बना रहे। इस गांव में अपराधियों का जमावड़ा तेजी से बढ़ा। लिबरेशन के एक नेता द्वारा यौन उत्पीड़न का मामला भी सामने आया। 2012 में इस गांव को सरकारी कागजात में दर्ज कर दिया गया। प्रखंड कार्यालय के कर्मचारियों के साथ भाकपा, माले-लिबरेशन के नेता ताल-मेल कर किसानों से घूस खाने से लेकर गांव की जमीन पर कब्जा करने तक के काम में मषगूल रहे। इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि 2006 में 80 परिवार से बसे गांव में लिबरेशन के कुल 11 परिवार थे जो 2012 में 30 हो गये। गांव में चल रही राजनीति और जमीन और पैसे की लूट का मसला पार्टी के भीतर विवाद को जन्म दिया लेकिन मसला हल होने की बजाय बिगड़ता गया। इसके चलते यहां से लिबरेषन के पक्ष में पड़ने वाले वोटों की संख्या भी गिरती गई। पंचायती चुनाव में इस गांव का लिबरेषन के पक्ष में पूरे के पूरे वोट पड़ते थे अब बमुष्किल कभी 10 और कभी 50 वोट पड़ते हैं।
भाकपा, माले-लिबरेशन द्वारा बसाये गये इस गांव की कहानी इसी गांव तक सीमित रहती, तब यह एक आम अवधारणा बनाने का विषय वस्तु नहीं बन सकता था। यह एक अपवाद रहता। लेकिन यह स्थिति आम है। बिहार विधान सभा के 1990 से 2010 के बीच कुल पांच चुनाव में क्रमश: 7,6,5,5,0 सीटें रहीं। इस हालात को कैसे समझा जाय और इसे किस तरह विष्लेशित किया जाय! यदि जमीन का मसला सीधा वोट से जुड़ा होता तो जनता दल या समता दल या भाजपा, कांग्रेस जैसी पार्टियों को एक भी सीट न निकलता। ये पार्टियां स्थानीय और देष स्तर पर बड़ी पूंजी और जमींदारों के साथ जुड़ी हुई हैं। इन्हें विष्व बैंक से लेकर अमेरीका तक से सीधा सहयोग प्राप्त है। विधायिका की पूरी व्यवस्था ही ऐसे बनायी गई है जिसमें ‘जनाधार’ मुख्य मसला ही नहीं रहता। यहां मुख्य मसला जनता को ओपीनियन बनाने के द्वारा वोट कैसे लिया जाय, मुख्य रहता है। लिबरेशन जैसी पार्टी के लिए मुख्य मसला ‘जनाधार’ का होता है क्योंकि चुनाव ‘क्रांति की एक कार्यनीति’ है और इसके द्वारा विधान सभा या संसद मंे पहुंच कर जोरशोर से जनता की आवाज को बुलंद करना होता है और ‘बुर्जुआ व्यवस्था’ का पोल खोल देना होता है। दोनों ही जगहों पर सीट हासिल होने पर न तो जनता की आवाज बुलंद हुई और न ही पोल-खोल संपन्न हुआ।
जमीन मुक्ति की लड़ाई का एक अहम हिस्सा जनता को जन-सत्ता से मजबूत करना रहा है। जन-सत्ता निर्माण के लिए जन मिलिशिया और जनसेना की जरूरत होती है। जमीन मुक्ति की लड़ाई कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चलती है जो जनसंगठन और संयुक्त मोर्चा के द्वारा अपनी ताकत का विस्तार करते हुए जनक्रांति को आगे ले जाती है। यह पूरी प्रक्रिया पार्टी, जनसेना, संयुक्तमोर्चा के तत्वाधान में चलता है। इस निर्माण की प्रक्रिया में कई सारे चरण होते हैं। जहां पार्टी नेतृत्व नहीं होता है वहां किसान/आदिवासी लगभग यही प्रक्रिया दोहराते हैं। वे भी मिलिषिया, नेतृत्वकारी कमेटी, ग्राम समाज आदि का निर्माण करते हुए संघर्ष को आगे ले जाते हैं। देश के बहुत से हिस्सों वर्तमान में भी इस तरह के प्रयोगों को देखा जा सकता है। ऐसे आंदोलनों में एनजीओ और संसदीय पार्टियां घुसपैठ कर सबसे पहले ग्राम समाज या ऐसी ही कमेटियों में घुसैपठ करते हैं, फिर अहिंसा का पाठ पढ़ाते हैं और अंत में उन्हें कानूनी दायरे में लाकर अपना मोहताज बना देते हैं। ऐसे प्रयोग को भी हम देख सकते हैं।
भाकपा, माले-लिबरेशन जमीन मुक्ति की लड़ाई को जमीन कब्जेदारी की लड़ाई तक सीमित रखा। इसके चलते जमीन मुख्यतः या तो पार्टी के सीधे नियंत्रण में रही या पार्टी कार्यकर्ता/नेतृत्व के हाथ में रहा। इसके चलते पार्टी के भीतर ही जमीन से जुड़े स्वार्थ बनने लगे और गुटबंदी, जोड़तोड़े से लेकर भ्रष्टाचार तक के मामले सामने आने लगे। जमीन के मसले पर कानूनी लड़ाई और इस दौरान उस पर कब्जा बनाये रखने के लिए जनता पर भरोसा न कर दबंग लोगों का आसरा लेने के चलते पार्टी के भीतर अवसरवादी और आपराधिक किस्म के लोगों की भी भर्ती हो गई। पार्टी के खर्च के लिए मुख्यतः ऐसी जमीनों के वितरण, ऐसे गांव के किसानों से लेवी वसूली आदि पर निर्भरता की बढ़ने से जमीन मुक्ति का सवाल पीछे रह गया। इस जन-सत्ता, जन-सेना, जन-संगठन और पार्टी और संयुक्त मोर्चा 1985 तक आते आते विनोद मिश्र के ‘मिश्रित समाजवाद’ में फंस गया और क्रांति का कंेद्रीय सवाल चुनाव में विधायिका और पंचायतों की सीट हासिल करने में बदल गया। हालात इस कदर बुरे हो चुके हैं कि न तो पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व यानी सीसी का नियंत्रण नीचली कमेटियों पर है और न निचल कमेटियों और पार्टी विचारधारा का सीसी और महासचिव पर नियंत्रण है। संयुक्त मोर्चा का अर्थ संसदीय पार्टियों के साथ गठजोड़ करना ही रह गया है। अभी हाल ही यूपीए की सरकार द्वारा जनता पर चलाए जा रहे युद्ध में एक पुलिसकर्मी की मौत को षहीद का दर्जा घोषित करने, उसके नाम पर स्टेडियम व रेलवे स्टेशन बनाने की मांग भाकपा, माले-लिबरेशन के महासचिव दीपांकर ने रखा। क्या इस पार्टी की आधिकारिक पोजीशन है? वह यूपीए द्वारा अपनी ही जनता के खिलाफ लाखों फौज, हेलीकाप्टर और विदेशी सहयोग से छेड़े जाने वाले युद्ध को शहीदाना नजरीये से देखता है! गृहयुद्ध तक ले जाने की चिदम्बरम की मंशा का वह समर्थन करता है? तब क्या यह माना जाय कि वह जनता के प्रतिरोध, नक्सलबाड़ी की धारा से खुद को अलग कर लिया है? जाहिर सी बात है कि लिबरेशन के भीतर ऐसा नहीं मानने वालों की संख्या काफी अधिक है लेकिन यह भी सच् है कि दीपांकर जैसा सोचने वालों की संख्या अधिक ही नहीं बल्कि प्रभावी नियंत्रण में भी हैं। यह सिर्फ चुनाव के दबाव की वजह से ही नहीं है। 1980 से 2010 तक के बीच भाकपा, माले-लिबरेशन की पार्टी संरचना, जनाधार, कार्यक्रम और कार्यनीति, विचारधारा और नेतृत्व में वर्गीय स्तर पर बदलाव आया है। लिबरेशन और उनके नेताओं की कारगुजारियों को इस नजरीये से देखने पर हम क्रांतिकारी राजनीति के सामने खड़ी चुनौतियों को भी हम साफ साफ देख सकते हैं और अपनी रणनीति भी तय कर सकते हैं। माओ के शब्दों गाड़ी तो पलट चुकी है, मसला है इससे सबक सीखने का। लिबरेशन से सबक सीखना जरूरी है। जनता की मुक्ति के लिए यह सबक हमें जरूर साथ रखकर चलना होगा।
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