- हाशिया से साभार
लाल्टू
नई सरकार बनने के बाद उदारवादी माने जाने वाले बुद्धिजीवियों में बदले हालात में खुद को ढालने की कोशिशें दिखने लगी हैं। ऐसी ही एक कोशिश हाल में अंगरेजी के ‘द हिंदू’ अखबार में छपे शिव विश्वनाथन के आलेख में दिखती है। नरेंद्र मोदी द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर में पूजा और फिर उसके बाद गंगा आरती से बात शुरू होती है। टीवी पर यह दृश्य आने पर संदेश आने लगे कि बिना कमेंट्री के पूरी अर्चना दिखाई जाए। कइयों का कहना था कि इस तरह पूरी पूजा की रस्म को पहली बार टीवी पर दिखाया गया। इसमें कोई शक नहीं कि मोदी की गंगा आरती पहली बार दिखाई गई। पर धार्मिक रस्म हमेशा टीवी पर दिखाई जाती रही हैं। राष्ट्रीय नेता सार्वजनिक रूप से धार्मिक रस्मों में शामिल होते रहे हैं, यह हर कोई जानता है। तो एक अध्येता को यह बड़ी बात क्यों लगी? शिव बताते हैं कि मोदीजी के होने से यह संदेश मिला कि हमें अपने धर्म से शर्माने की जरूरत नहीं है। यह पहले नहीं हो सकता था।
कौन-सा धर्म? कैसी शर्म? क्या मोदी महज एक धार्मिक रस्म निभा रहे थे? अगर ऐसा है तो इसके पहले कितनी बार उन्होंने यह आरती की?
सच में वह कोई धार्मिक काम नहीं था। वह आरती किसी भी धार्मिकता से बिल्कुल अलग, एक विशुद्ध राजनीतिक कदम थी। उसमें से उभरता संदेश यही था कि राजा आ रहा है।
तकरीबन डेढ़ महीने पहले एक और आलेख में बनारस में केजरीवाल और मोदी की भिड़ंत पर शिव ने लिखा था, ‘मोदी जिस भारत-इंडिया, हिंदू-मुसलिम फर्क को थोपना चाहते हैं, बनारस उसे खारिज करता है।’ अब मोदी के जीतने पर उनका सुर बदल गया है।
आगे वे किसी दोस्त को उद्धृत कर बिल्कुल निशाने पर मार करते हैं, अंगरेजी बोलने वाले सेक्यूलरिस्ट लोगों ने बहुसंख्यकों को अपना स्वाभाविक जीवन जीने में परेशान कर दिया। इंग्लिश वालों की दयनीय स्थिति पर मैं पहले लिख चुका हूं, पर स्वाभाविक क्या है, इस पर मेरी और शिव की समझ में फर्क है। आगे वे लिखते हैं कि वामपंथी घबरा गए हैं कि अब धर-पकड़ शुरू होगी। वैसे सही है कि इकतीस फीसद मतदाताओं ने ही भाजपा को बहुमत दिलाया है। ऐसा नहीं कि सारा मुल्क तानाशाह के साथ है। अगर मतदान में शामिल न हुए लोगों को गिनें, तो जनसंख्या का पांचवां हिस्सा भी भाजपा के साथ नहीं होगा।
घबराने की कोई बात सचमुच नहीं है। पर क्या हम भूल जाएं कि पिछली बार के भाजपा शासन के दौरान किताबें कैसे लिखी गर्इं। आज हम सब वामपंथी दिखते हैं, पर डेढ़ महीने पहले यह डर उन्हें भी था कि मोदी हिंदू-मुसलिम फर्क को थोपना चाहते हैं। एनसीइआरटी की एक किताब में भारत विभाजन पर अनिल सेठी का लिखा एक अद्भुत अध्याय है, जिसमें दोनों ओर आम नागरिकों को विभाजन से एक जैसा पीड़ित दिखाया गया है। यह वाजिब चिंता है कि इस अध्याय को अब हटा दिया जा सकता है। यह सब जानते हैं कि दक्षिणपंथियों के आने से इतिहास की नई व्याख्या की जाएगी।
शिव का मानना है कि उदारवादी इस बात को नहीं समझ पाए कि मध्यवर्ग के लोग तनाव-ग्रस्त हैं और मोदी ने इसे गहराई से समझा। पहले इन तनावों की वाम की समझ के साथ शिव सहमत थे, पर अब उन्हें वाम एक गिरोह दिखता है, जिसने धर्म को जीने का सूत्र नहीं, बल्कि एक अंधविश्वास ही माना। यह पचास साल पुरानी बहस है कि मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा या कि उसे उत्पीड़ितों की आह माना। आगे वे वाम को एक शैतान की तरह दिखाते हैं, जिसने संविधान में वैज्ञानिक चेतना की धारणा डाली ताकि धर्म की कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुक्ति मिले। रोचक बात यह है कि अंत में वे दलाई लामा को अपना प्रिय वैज्ञानिक कहते हैं। तो क्या वैज्ञानिक में ‘वैज्ञानिक चेतना’ की भ्रष्ट धारणा नहीं होती!
उनके मुताबिक यह धारणा एक शून्य पैदा करती और धर्मनिरपेक्षता बढ़ाती है, जिससे ऐसा दमन का माहौल बनता है, जहां आम धार्मिक लोगों को नीची नजर से देखा जाता है। बेशक, विज्ञान को सामाजिक मूल्यों और सत्ता-समीकरणों से अलग नहीं कर सकते, पर यह मानना कि जाति, लिंगभेद आदि संस्थाएं, जिन्हें धार्मिक आस्था से अलग करना आसान नहीं, विज्ञान उनसे भी अधिक दमनकारी है, गलत है। शिव धर्मनिरपेक्षता को विक्षोभ पैदा करने वाला औजार मानते हैं। उनके अनुसार पिछली सरकार ने चुनावों के मद्देनजर लघुसंख्यकों की तुष्टि की और इससे बहुसंख्यकों को लगा कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। तो वह तुष्टि क्या है?
शाहबानो का मामला, पर्सनल लॉ, कश्मीर के लिए धारा 370, कांग्रेस या दूसरे दलों के चुनावी मुद्दे तो ये नहीं हैं, हालांकि संघ परिवार के लिए ये संघर्ष के मुद्दे हैं। चुनाव के मुद्दों में आरक्षण भी है। पैसा, शराब, मादक पदार्थ, हिंसा, क्या नहीं चलता। जातिवाद और सांप्रदायिकता भी।
सवाल है कि कहां तक गिरना ठीक है। संघ ने खासतौर पर उत्तर भारत में पिछड़े वर्गों और दलितों में झूठी बहुसंख्यक अस्मिता का अहसास पैदा किया और फिर उनमें गुस्सा पैदा किया कि तुम्हारे साथ अन्याय हो रहा है। दूसरी ओर अगर लघुसंख्यकों को कुछ सुविधाएं दी जाएं तो क्या वह हमारे पारंपरिक मूल्यों के खिलाफ है? अगर नहीं तो सच्चर समिति की रिपोर्ट जैसे दस्तावेजों से उजागर लघुसंख्यकों के बुरे हालात के मद्देनजर अगर उनकी तरफ अधिक ध्यान दिया गया तो इससे एक बुद्धिजीवी को क्या तकलीफ?
बिना विस्तार में गए सिर्फ इस अहसास को बढ़ाना कि लघुसंख्यकों का तुष्टीकरण होता है, एक गैर-जिम्मेदाराना रवैया है। होना यह चाहिए कि हम सोचें कि देश में लघुसंख्यकों का
हाल इतना बुरा क्यों है कि उनका चुनावों के दौरान फायदा उठाना संभव होता है। उनकी माली और तालीमी हालत इतनी बुरी क्यों है कि उनके बीच से उठने वाली तरक्की-पसंद आवाजें दब जाती हैं।
यह एक नजरिया हो सकता है कि बहुसंख्यक धर्मनिरपेक्षता को खोखला दमनकारी विचार मानते हैं। पर यह भी देखना चाहिए कि गरीबी और रोजाना मुसीबतों से परेशान लोग बहुसंख्यक अस्मिता से जुड़े राष्ट्र की संकीर्ण धारणा के शिकार हो जाते हैं, यह ऐसा विचार है, जिसके मुताबिक अपने ही अंदर दुश्मन ढूंढ़ा जाता है, जैसे जर्मनी में यहूदी, पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू और भारत में मुसलमान। इसी असुरक्षा को मोदी और संघ ने पकड़ा। इसके साथ रोजाना जिंदगी में धर्म और अध्यात्म का संबंध ढूंढ़ना गलत होगा। धर्मनिरपेक्षता बहुसंख्यकों पर कोई कहर नहीं ढाती। इसके विपरीत होता यह है कि संघ परिवार जैसी ताकतों के भेदभाव वाले प्रचार से इंसान की बुनियादी प्रेम और भलमनसाहत की प्रवृत्तियां दब जाती हैं।
शिव बताते हैं कि हमारे धर्मों में हमेशा ही संवाद की परंपरा रही है। पर इतना कहना काफी नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज में धर्म की भूमिका बड़े तबकों को क्रूरता से मनुष्येतर रखने की रही। हमारे चिकित्सा-विज्ञान की परंपरा में बहुत-सी अच्छी बातें हैं, वहीं लाशों के साथ काम करने वालों को अस्पृश्य मानना भी इसी परंपरा का हिस्सा है। एक ओर यह सही है कि हमारे लोगों के लिए धर्म पश्चिम की तरह महज रस्मी बात नहीं, वहीं यह भी सही है कि हर धार्मिक रस्म आध्यात्मिक उत्थान से नहीं जुड़ी है। इस देश के किसी भी हिस्से में सुबह उठते हुए इस बात को समझा जा सकता है, जब मंदिर-मस्जिद-गुरद्वारों से सुबह की कुदरती शांति को चीरती लाउडस्पीकरों की कानफाड़ू आवाजें सुनाई पड़ती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हमारे जीवन में धर्म का हस्तक्षेप अधिकतर बड़ा दुखदायी होता है।
निजी आस्था और सार्वजनिक जीवन में फर्क करने वाली धर्मनिरपेक्षता का सेहरा वाम को चढ़ाना भी गलत होगा। ऐसी खबरों की संख्या कम नहीं, जब वाम नेता पूजा मंडपों का उद्घाटन करते देखे गए थे। जिस वाम को लेकर जैसी बहस शिव या दीगर बुद्धिजीवी कर रहे हैं, वह सिर्फ अकादमिक संस्थानों के घेरे में है।
आज ऐसी बहस को पढ़ कर लगता है मानो नई सरकार क्या बनी, भारत से स्टालिन का शासन खत्म हुआ!
धर्मनिरपेक्षता की बात करते हुए ईसाई धर्म और विज्ञान की लड़ाई को ले आना शायद यह बताता है कि धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी धारणा है। पर क्या आधुनिक राज्य-सत्ता की धारणा भारतीय है? सरसंघ चालकों का प्रेरक हिटलर क्या भारतीय था?
इसमें कोई शक नहीं कि कई लोग इस बात से सही कारणों से परेशान होते हैं कि पेशेदार वैज्ञानिक अपनी धार्मिक आस्थाओं और विज्ञान-कर्म को अक्सर अलग नहीं कर पाते। पर इसका व्यापक समाज में चल रही प्रक्रियाओं पर कोई असर नहीं पड़ता। वैसे ही हमारे वैज्ञानिकों में नास्तिकों की संख्या बड़ी कम है। और अधिकतर व्यवस्था-परस्त हैं। किसी भी राष्ट्रीय सम्मेलन में चले जाएं तो पाएंगे कि अधिकतर वैज्ञानिक इसी चर्चा में मशगूल हैं कि गुजरात में क्या गजब का विकास हुआ है।
सभ्यताओं को पूरब, पश्चिम में बांट कर देखना कितना सही है, यह अपने आप में बड़ा सवाल है। पिछली सदी की मान्यताओं के विपरीत अब यह जानकारी आम है कि पिछले दो हजार सालों में पर्यटकों और ज्ञानान्वेषियों के जरिए धरती के एक से दूसरी ओर ज्ञान का प्रवाह व्यापक स्तर पर होता रहा है।
यह सरासर गलत है कि हिंदुत्व को बुरा मानते हुए भी धर्मनिरपेक्ष लोग दूसरे धर्मों में मूलवाद को नर्मदिली से देखते रहे। ऐसा कहना न केवल झूठ है, बल्कि इससे कहने वाले के निहित स्वार्थों पर सवाल उठते हैं। धर्मनिरपेक्षता में वह शैतान मत ढूंढ़िए, जिसे मध्यवर्ग के लोगों ने उखाड़ फेंका हो। सच यह है कि हममें से हरेक में एक नरेंद्र मोदी बैठा है। हमारे सांप्रदायिक सोच का फायदा उठाया जा सकता है। इकतीस फीसद मतदाताओं के अधिकतर के साथ को मोदी और संघ परिवार यही करने में सफल हुआ है। बाकी काम दस हजार करोड़ रुपयों से हुआ, जिसमें मीडिया के अधिकतर को खरीदा जाना भी शामिल है। यह तो होना ही है कि जब ‘हिंदू’ नाम का राजनीतिक समूह विशाल बहुसंख्या में मौजूद है, तो हिंदुत्व पर नजर ज्यादा पड़ेगी, जैसे पाकिस्तान और बांग्लादेश में उदारवादी इस्लामी मूलवाद पर ज्यादा गौर करेंगे।
यह सचमुच तकलीफदेह है कि मोदी के विरोध को शिव जैसे बुद्धिजीवी विज्ञान और आधुनिकता से जोड़ रहे हैं। वैसे यह एक तरह से विज्ञान के पक्ष में ही जाता है। आखिर 2002 से पहले मोदी के बयानों को कौन भूल सकता है। मुसलमानों के लिए उनके बयान असभ्य और अक्सर आक्रामक होते थे। ‘हम पांच हमारे पचीस’ उनका तकियाकलाम था। मुख्यमंत्री बनने के बाद वे सावधान हो गए, फिर भी कभी-कभार जबान चल ही पड़ती है। यह सबको पता है। अगर विज्ञान हमें इस मानव-विरोधी कट्टरता से टक्कर लेने की ताकत देता है, तो जय विज्ञान।
(24 मई के जनसत्ता में प्रकाशित)
लाल्टू
नई सरकार बनने के बाद उदारवादी माने जाने वाले बुद्धिजीवियों में बदले हालात में खुद को ढालने की कोशिशें दिखने लगी हैं। ऐसी ही एक कोशिश हाल में अंगरेजी के ‘द हिंदू’ अखबार में छपे शिव विश्वनाथन के आलेख में दिखती है। नरेंद्र मोदी द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर में पूजा और फिर उसके बाद गंगा आरती से बात शुरू होती है। टीवी पर यह दृश्य आने पर संदेश आने लगे कि बिना कमेंट्री के पूरी अर्चना दिखाई जाए। कइयों का कहना था कि इस तरह पूरी पूजा की रस्म को पहली बार टीवी पर दिखाया गया। इसमें कोई शक नहीं कि मोदी की गंगा आरती पहली बार दिखाई गई। पर धार्मिक रस्म हमेशा टीवी पर दिखाई जाती रही हैं। राष्ट्रीय नेता सार्वजनिक रूप से धार्मिक रस्मों में शामिल होते रहे हैं, यह हर कोई जानता है। तो एक अध्येता को यह बड़ी बात क्यों लगी? शिव बताते हैं कि मोदीजी के होने से यह संदेश मिला कि हमें अपने धर्म से शर्माने की जरूरत नहीं है। यह पहले नहीं हो सकता था।
कौन-सा धर्म? कैसी शर्म? क्या मोदी महज एक धार्मिक रस्म निभा रहे थे? अगर ऐसा है तो इसके पहले कितनी बार उन्होंने यह आरती की?
सच में वह कोई धार्मिक काम नहीं था। वह आरती किसी भी धार्मिकता से बिल्कुल अलग, एक विशुद्ध राजनीतिक कदम थी। उसमें से उभरता संदेश यही था कि राजा आ रहा है।
तकरीबन डेढ़ महीने पहले एक और आलेख में बनारस में केजरीवाल और मोदी की भिड़ंत पर शिव ने लिखा था, ‘मोदी जिस भारत-इंडिया, हिंदू-मुसलिम फर्क को थोपना चाहते हैं, बनारस उसे खारिज करता है।’ अब मोदी के जीतने पर उनका सुर बदल गया है।
आगे वे किसी दोस्त को उद्धृत कर बिल्कुल निशाने पर मार करते हैं, अंगरेजी बोलने वाले सेक्यूलरिस्ट लोगों ने बहुसंख्यकों को अपना स्वाभाविक जीवन जीने में परेशान कर दिया। इंग्लिश वालों की दयनीय स्थिति पर मैं पहले लिख चुका हूं, पर स्वाभाविक क्या है, इस पर मेरी और शिव की समझ में फर्क है। आगे वे लिखते हैं कि वामपंथी घबरा गए हैं कि अब धर-पकड़ शुरू होगी। वैसे सही है कि इकतीस फीसद मतदाताओं ने ही भाजपा को बहुमत दिलाया है। ऐसा नहीं कि सारा मुल्क तानाशाह के साथ है। अगर मतदान में शामिल न हुए लोगों को गिनें, तो जनसंख्या का पांचवां हिस्सा भी भाजपा के साथ नहीं होगा।
घबराने की कोई बात सचमुच नहीं है। पर क्या हम भूल जाएं कि पिछली बार के भाजपा शासन के दौरान किताबें कैसे लिखी गर्इं। आज हम सब वामपंथी दिखते हैं, पर डेढ़ महीने पहले यह डर उन्हें भी था कि मोदी हिंदू-मुसलिम फर्क को थोपना चाहते हैं। एनसीइआरटी की एक किताब में भारत विभाजन पर अनिल सेठी का लिखा एक अद्भुत अध्याय है, जिसमें दोनों ओर आम नागरिकों को विभाजन से एक जैसा पीड़ित दिखाया गया है। यह वाजिब चिंता है कि इस अध्याय को अब हटा दिया जा सकता है। यह सब जानते हैं कि दक्षिणपंथियों के आने से इतिहास की नई व्याख्या की जाएगी।
शिव का मानना है कि उदारवादी इस बात को नहीं समझ पाए कि मध्यवर्ग के लोग तनाव-ग्रस्त हैं और मोदी ने इसे गहराई से समझा। पहले इन तनावों की वाम की समझ के साथ शिव सहमत थे, पर अब उन्हें वाम एक गिरोह दिखता है, जिसने धर्म को जीने का सूत्र नहीं, बल्कि एक अंधविश्वास ही माना। यह पचास साल पुरानी बहस है कि मार्क्स ने धर्म को अफीम कहा या कि उसे उत्पीड़ितों की आह माना। आगे वे वाम को एक शैतान की तरह दिखाते हैं, जिसने संविधान में वैज्ञानिक चेतना की धारणा डाली ताकि धर्म की कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुक्ति मिले। रोचक बात यह है कि अंत में वे दलाई लामा को अपना प्रिय वैज्ञानिक कहते हैं। तो क्या वैज्ञानिक में ‘वैज्ञानिक चेतना’ की भ्रष्ट धारणा नहीं होती!
उनके मुताबिक यह धारणा एक शून्य पैदा करती और धर्मनिरपेक्षता बढ़ाती है, जिससे ऐसा दमन का माहौल बनता है, जहां आम धार्मिक लोगों को नीची नजर से देखा जाता है। बेशक, विज्ञान को सामाजिक मूल्यों और सत्ता-समीकरणों से अलग नहीं कर सकते, पर यह मानना कि जाति, लिंगभेद आदि संस्थाएं, जिन्हें धार्मिक आस्था से अलग करना आसान नहीं, विज्ञान उनसे भी अधिक दमनकारी है, गलत है। शिव धर्मनिरपेक्षता को विक्षोभ पैदा करने वाला औजार मानते हैं। उनके अनुसार पिछली सरकार ने चुनावों के मद्देनजर लघुसंख्यकों की तुष्टि की और इससे बहुसंख्यकों को लगा कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। तो वह तुष्टि क्या है?
शाहबानो का मामला, पर्सनल लॉ, कश्मीर के लिए धारा 370, कांग्रेस या दूसरे दलों के चुनावी मुद्दे तो ये नहीं हैं, हालांकि संघ परिवार के लिए ये संघर्ष के मुद्दे हैं। चुनाव के मुद्दों में आरक्षण भी है। पैसा, शराब, मादक पदार्थ, हिंसा, क्या नहीं चलता। जातिवाद और सांप्रदायिकता भी।
सवाल है कि कहां तक गिरना ठीक है। संघ ने खासतौर पर उत्तर भारत में पिछड़े वर्गों और दलितों में झूठी बहुसंख्यक अस्मिता का अहसास पैदा किया और फिर उनमें गुस्सा पैदा किया कि तुम्हारे साथ अन्याय हो रहा है। दूसरी ओर अगर लघुसंख्यकों को कुछ सुविधाएं दी जाएं तो क्या वह हमारे पारंपरिक मूल्यों के खिलाफ है? अगर नहीं तो सच्चर समिति की रिपोर्ट जैसे दस्तावेजों से उजागर लघुसंख्यकों के बुरे हालात के मद्देनजर अगर उनकी तरफ अधिक ध्यान दिया गया तो इससे एक बुद्धिजीवी को क्या तकलीफ?
बिना विस्तार में गए सिर्फ इस अहसास को बढ़ाना कि लघुसंख्यकों का तुष्टीकरण होता है, एक गैर-जिम्मेदाराना रवैया है। होना यह चाहिए कि हम सोचें कि देश में लघुसंख्यकों का
हाल इतना बुरा क्यों है कि उनका चुनावों के दौरान फायदा उठाना संभव होता है। उनकी माली और तालीमी हालत इतनी बुरी क्यों है कि उनके बीच से उठने वाली तरक्की-पसंद आवाजें दब जाती हैं।
यह एक नजरिया हो सकता है कि बहुसंख्यक धर्मनिरपेक्षता को खोखला दमनकारी विचार मानते हैं। पर यह भी देखना चाहिए कि गरीबी और रोजाना मुसीबतों से परेशान लोग बहुसंख्यक अस्मिता से जुड़े राष्ट्र की संकीर्ण धारणा के शिकार हो जाते हैं, यह ऐसा विचार है, जिसके मुताबिक अपने ही अंदर दुश्मन ढूंढ़ा जाता है, जैसे जर्मनी में यहूदी, पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू और भारत में मुसलमान। इसी असुरक्षा को मोदी और संघ ने पकड़ा। इसके साथ रोजाना जिंदगी में धर्म और अध्यात्म का संबंध ढूंढ़ना गलत होगा। धर्मनिरपेक्षता बहुसंख्यकों पर कोई कहर नहीं ढाती। इसके विपरीत होता यह है कि संघ परिवार जैसी ताकतों के भेदभाव वाले प्रचार से इंसान की बुनियादी प्रेम और भलमनसाहत की प्रवृत्तियां दब जाती हैं।
शिव बताते हैं कि हमारे धर्मों में हमेशा ही संवाद की परंपरा रही है। पर इतना कहना काफी नहीं है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज में धर्म की भूमिका बड़े तबकों को क्रूरता से मनुष्येतर रखने की रही। हमारे चिकित्सा-विज्ञान की परंपरा में बहुत-सी अच्छी बातें हैं, वहीं लाशों के साथ काम करने वालों को अस्पृश्य मानना भी इसी परंपरा का हिस्सा है। एक ओर यह सही है कि हमारे लोगों के लिए धर्म पश्चिम की तरह महज रस्मी बात नहीं, वहीं यह भी सही है कि हर धार्मिक रस्म आध्यात्मिक उत्थान से नहीं जुड़ी है। इस देश के किसी भी हिस्से में सुबह उठते हुए इस बात को समझा जा सकता है, जब मंदिर-मस्जिद-गुरद्वारों से सुबह की कुदरती शांति को चीरती लाउडस्पीकरों की कानफाड़ू आवाजें सुनाई पड़ती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हमारे जीवन में धर्म का हस्तक्षेप अधिकतर बड़ा दुखदायी होता है।
निजी आस्था और सार्वजनिक जीवन में फर्क करने वाली धर्मनिरपेक्षता का सेहरा वाम को चढ़ाना भी गलत होगा। ऐसी खबरों की संख्या कम नहीं, जब वाम नेता पूजा मंडपों का उद्घाटन करते देखे गए थे। जिस वाम को लेकर जैसी बहस शिव या दीगर बुद्धिजीवी कर रहे हैं, वह सिर्फ अकादमिक संस्थानों के घेरे में है।
आज ऐसी बहस को पढ़ कर लगता है मानो नई सरकार क्या बनी, भारत से स्टालिन का शासन खत्म हुआ!
धर्मनिरपेक्षता की बात करते हुए ईसाई धर्म और विज्ञान की लड़ाई को ले आना शायद यह बताता है कि धर्मनिरपेक्षता पश्चिमी धारणा है। पर क्या आधुनिक राज्य-सत्ता की धारणा भारतीय है? सरसंघ चालकों का प्रेरक हिटलर क्या भारतीय था?
इसमें कोई शक नहीं कि कई लोग इस बात से सही कारणों से परेशान होते हैं कि पेशेदार वैज्ञानिक अपनी धार्मिक आस्थाओं और विज्ञान-कर्म को अक्सर अलग नहीं कर पाते। पर इसका व्यापक समाज में चल रही प्रक्रियाओं पर कोई असर नहीं पड़ता। वैसे ही हमारे वैज्ञानिकों में नास्तिकों की संख्या बड़ी कम है। और अधिकतर व्यवस्था-परस्त हैं। किसी भी राष्ट्रीय सम्मेलन में चले जाएं तो पाएंगे कि अधिकतर वैज्ञानिक इसी चर्चा में मशगूल हैं कि गुजरात में क्या गजब का विकास हुआ है।
सभ्यताओं को पूरब, पश्चिम में बांट कर देखना कितना सही है, यह अपने आप में बड़ा सवाल है। पिछली सदी की मान्यताओं के विपरीत अब यह जानकारी आम है कि पिछले दो हजार सालों में पर्यटकों और ज्ञानान्वेषियों के जरिए धरती के एक से दूसरी ओर ज्ञान का प्रवाह व्यापक स्तर पर होता रहा है।
यह सरासर गलत है कि हिंदुत्व को बुरा मानते हुए भी धर्मनिरपेक्ष लोग दूसरे धर्मों में मूलवाद को नर्मदिली से देखते रहे। ऐसा कहना न केवल झूठ है, बल्कि इससे कहने वाले के निहित स्वार्थों पर सवाल उठते हैं। धर्मनिरपेक्षता में वह शैतान मत ढूंढ़िए, जिसे मध्यवर्ग के लोगों ने उखाड़ फेंका हो। सच यह है कि हममें से हरेक में एक नरेंद्र मोदी बैठा है। हमारे सांप्रदायिक सोच का फायदा उठाया जा सकता है। इकतीस फीसद मतदाताओं के अधिकतर के साथ को मोदी और संघ परिवार यही करने में सफल हुआ है। बाकी काम दस हजार करोड़ रुपयों से हुआ, जिसमें मीडिया के अधिकतर को खरीदा जाना भी शामिल है। यह तो होना ही है कि जब ‘हिंदू’ नाम का राजनीतिक समूह विशाल बहुसंख्या में मौजूद है, तो हिंदुत्व पर नजर ज्यादा पड़ेगी, जैसे पाकिस्तान और बांग्लादेश में उदारवादी इस्लामी मूलवाद पर ज्यादा गौर करेंगे।
यह सचमुच तकलीफदेह है कि मोदी के विरोध को शिव जैसे बुद्धिजीवी विज्ञान और आधुनिकता से जोड़ रहे हैं। वैसे यह एक तरह से विज्ञान के पक्ष में ही जाता है। आखिर 2002 से पहले मोदी के बयानों को कौन भूल सकता है। मुसलमानों के लिए उनके बयान असभ्य और अक्सर आक्रामक होते थे। ‘हम पांच हमारे पचीस’ उनका तकियाकलाम था। मुख्यमंत्री बनने के बाद वे सावधान हो गए, फिर भी कभी-कभार जबान चल ही पड़ती है। यह सबको पता है। अगर विज्ञान हमें इस मानव-विरोधी कट्टरता से टक्कर लेने की ताकत देता है, तो जय विज्ञान।
(24 मई के जनसत्ता में प्रकाशित)
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