7 अक्टूबर 2020 को दक्षिण दिल्ली में कुत्तों के लिए बने एक शमशान घाट का उद्घाटन करते हुए वहाँ की भाजपा मेयर अनामिका मिथिलेश ने कहा कि अब कुत्तों को भी सम्मान के साथ दफनाया जा सकेगा। इसके महज 6 माह बाद ऑक्सीजन न मिलने से कोविड-19 मरीजों की भयावह मौतों के कारण जब दिल्ली के सभी शमशानों में जगह कम पड़ने लगी तो इन्ही मेयर साहिबा ने कुत्तों के लिए बने इस शमशान घाट को मनुष्यों के लिए खोल दिया।निश्चय ही कुत्तों का सम्मान अब और भी बढ़ गया होगा।
बहरहाल इस खबर ने मुझे एक अजीब सी सुररियलिस्ट (surrealist) मनःस्थिति में धकेल दिया। स्मृतियां वाचाल होने लगी और मुझे याद आया कि पिछले साल ही जुलाई में आगरा के एक गांव में उस गांव के 'उच्च जाति' के लोगों ने एक दलित महिला की आधी से अधिक जल चुकी चिता को जबरन शमशान घाट से बाहर फिकवा दिया था, क्योंकि उनके अनुसार वह शमशान घाट 'उच्च जाति' के लोगों के लिए आरक्षित था।
इसके बाद मेरी स्मृतियां उन अबोध 60 बच्चों से टकरा गई जो बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर में ऑक्सीजन न मिलने से जीवन देखने से पहले ही मौत के आगोश में समा गए । मध्य वर्ग को इस सूचना से दुःख तो जरूर हुआ लेकिन वह डरा नहीं। अखबार पलटते हुए उसने अपने दिमाग से यह डर भी झटक दिया कि कभी उसके साथ भी ऐसा हो सकता है, क्योंकि मरने वाले सभी बच्चे तो दलित और बेहद गरीब वर्ग से थे।
अल्बेयर कामू ने अपने मशहूर उपन्यास 'प्लेग' (मौजूदा वक़्त में यह उपन्यास 'बेस्ट सेलर' है। निश्चित ही यह तथ्य अल्बेयर कामू को उनकी कब्र में परेशान कर रहा होगा ) में लिखा है कि इस तरह की भयावह महामारी हमारी नियति को आपस मे बांध देती है। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसी महामारियां हमें 'जेनेरिक' में बदल देती है। कोविड-19 से पहले हम अपने अपने 'ब्रांड' को लेकर चाहे जितना इठलाते हों, लेकिन यह सच है कि आज हम सब एक साथ कोविड-19 और उससे उपजी अथाह परेशानियों के निशाने पर हैं। उपरोक्त 'प्लेग' उपन्यास में प्लेग को एक मूसल के रूप में दिखाया गया है, जो हम सब के ऊपर मंडरा रहा है। वह कब किसको कुचलेगा, यह महज संयोग की बात है। भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अस्पताल में बेड के लिए गिड़गिड़ाने पर जवाब मिलता है कि कोई मरेगा तभी बेड मिलेगा।
लेकिन असल सवाल तो यह है कि आज हम जिस हालात में है, क्या वह हमारी नियति थी?
आज से लगभग 100 साल पहले जब 1918-19 में 'स्पेनिश फ्लू' ने दुनिया पर कहर बरपाया था तो प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका के कारण समाज जर्जर हो चुका था। युद्ध की थकान सिर्फ मोर्चे से लौटे सिपाहियों में ही नहीं पूरे समाज मे थी। हेल्थ सेक्टर न के बराबर था। दवाइयों-टीको की बस शुरुआत ही हो रही थी। फलतः इसने 15 से 20 करोड़ लोगों को लील लिया था। हमारे देश मे ही करीब 2 करोड़ लोग इसके शिकार हुए थे। मशहूर हिंदी साहित्यकार निराला के परिवार के कई सदस्य इस महामारी में मारे गए थे।
पिछले साल के शुरू में जब कोविड -19 ने दस्तक दी तो स्थितियां 1918 से एकदम अलग थी। विश्व अर्थव्यवस्था 90 ट्रिलियन डॉलर को छू रही थी (1918 में यह 6-7 ट्रिलियन डॉलर के आसपास थी)। दवाओं और टीकों से बाज़ार भरे हुए थे। सुपर स्पेशिएलिटी अस्पताल हर बड़े शहर में मौत को चुनौती देते लगते थे। जीन थेरेपी वहाँ तक जा पहुँची थी कि 'हेल्थ जार' बिल गेट्स जैसे लोग जीवन के सॉफ्टवेयर को हैक करने की संभावना तलाशने लगे थे। ड्राईवर-विहीन कार सड़कों पर उतर चुकी थी। दूसरे ग्रहों पर बस्तियां बसाना अब कल्पना की बात नहीं थी। इस पर काम शुरू हो चुका था। एलन मास्क ने तो अंतरिक्ष सैर की बुकिंग भी शुरू कर दी थी। इसका किराया 1 मिलियन डॉलर था। अमेरिका पृथ्वी पर युद्व से अब बोर हो चुका था, उसने 'स्टार वॉर' की तैयारी शुरू कर दी थी। उसका मिलिट्री बजट 700 बिलियन डॉलर पहुँच चुका था। भारत भी बहुत पीछे नहीं था और उसने रूस को पीछे छोड़ते हुए मिलिट्री बजट के मामले में अमेरिका चीन के बाद तीसरा स्थान हासिल कर लिया था। अमेरिका अंतरिक्ष गुरु तो भारत विश्व गुरू बनने का एलान कर चुके थे।
इस 'शानदार' परिस्थिति के बावजूद अमेरिका में मामूली वेंटिलेटर के बिना और भारत में मामूली ऑक्सीजन और मामूली चिकित्सा-सुविधा के बिना लाखों लोगों की जान क्यों गयी? और आज भी लगातार जा रही है।
कोविड से पहले क्या हम किसी स्वप्न लोक में विचरण कर रहे थे? और कोविड ने हमे झकझोर कर जगा दिया? या आज हम किसी दुःस्वप्न में जी रहे हैं?और हमारा जागना अभी बाकी है?
दरअसल न तो वह स्वप्न था, न ही यह दुःस्वप्न है। सच तो यह है कि उस चकाचौंध और 'विकास' के तेज शोर के बीच एक हिंस्र वर्ग-युद्ध जारी था। यह अलग बात है कि इस देश के अधिकांश मध्य वर्ग ने और 'उदारवादी' बुद्धिजीवियों ने जाने-अनजाने इसकी तरफ से आँखे मूंद रखी थी।
1990-91 में साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के बाद यह वर्ग-युद्ध और तेज हो गया। एक तथ्य से यह बात स्पष्ट हो जाएगी। भारत स्वास्थ्य पर खर्च के मामले में विश्व का 155 वां देश है। भारत स्वास्थ्य पर अपनी GDP का महज 0.36 प्रतिशत खर्च करता है। हर साल करीब 6 करोड़ लोग बीमारियों के इलाज पर खर्च के कारण गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। सिर्फ टीबी से 5 लाख लोग इस देश में हर साल मरते है। 1990 के बाद इस वर्ग युद्ध के तेज होने से अब तक कुल 4 लाख किसान 'आत्महत्या' कर चुके हैं। नागरिक स्वतंत्रता के मामले में भारत विश्व का 142 वां देश है। सैनिक शासन वाला म्यांमार भी भारत से दो पायदान नीचे है, यानी 140 वें नम्बर पर है।
यह लिखते हुए मुझे भुवनेश्वर की बहुचर्चित कहानी 'भेड़िये' याद आ रही है। जैसे हिंसक भेड़ियों के झुंड से अपनी जान बचाने के लिए बैलगाड़ी पर भागते दोनों बाप-बेटे साथ की लड़कियों को एक एक कर भेड़ियों के सामने फेकते जाते हैं, ठीक उसी तरह हमारा समाज भी पिछले 30 सालों से इन भेड़ियों के सामने अपनी एक एक बहुमूल्य चीज फेंकता जा रहा है- शिक्षा, स्वास्थ्य, पब्लिक सेक्टर, खेती, जल-जंगल-जमीन, पर्यावरण, श्रम अधिकार, नागरिक अधिकार ..... लेकिन न इन भेड़ियों की रफ्तार कम हो रही है और न इनकी हिंसक भूख। भारत में 2014 के बाद तो इन भूखे भेड़ियों की रफ्तार और तेज हो गयी है। इनके खून सने दांत अब और साफ नजर आ रहे हैं। इस दौरान भाजपा की हिंदुत्व-फासीवाद की आक्रामक राजनीति के कारण जनता की 'प्रतिरोधक क्षमता' तात्कालिक तौर पर कुछ कमजोर भी हुई है।
खून और नफ़रत से लथपथ ऐसे ही समय पर कोविड ने दस्तक दी है। इस पृष्ठभूमि में देखे तो समाज का 80 प्रतिशत हिस्सा आज लगभग उसी स्थिति में है जिस स्थिति में विश्व स्पेनिश फ्लू के समय था। अपने ऊपर थोपे गए वर्ग युद्ध से लहूलुहान। लेकिन अंतर इतना ही है कि आज कोविड ने गरीबों को अपनी गिरफ्त में लेते हुए उच्च मध्य वर्ग, मध्य वर्ग में भी जबरदस्त छलाँग लगा दी। इस कारण उनके लिए 'आरक्षित' अस्पतालों में भी बेड, ऑक्सीजन, आईसीयू के लिए उन्ही के बीच मारा-मारी शुरू हो गयी। तीन देशों के राजदूत रह चुके अशोक अमरोही 5 घंटे तक बेड का इंतजार करते हुए मेदांता की कार-पार्किंग में मर गए। पत्रकार बरखा दत्त अपने पिता को आईसीयू नही दिला सकी। पिता का अंतिम संस्कार करने के लिए उन्हें शमशान घाट में भी संघर्ष करना पड़ा। तब जाकर इस देश के मध्य वर्ग को अहसास हुआ कि सिस्टम फेल हो गया है। इस देश के गरीब-दलित-मुस्लिम-आदिवासी के लिए तो कभी सिस्टम था ही नहीं। वह तो अपने ऊपर थोपे गए वर्ग-युद्ध को लड़ते हुए महज जिंदा रहने की जद्दोजहद ही कर रहा था।
मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा और हमारा 'उदारवादी' बुद्धिजीवी जब भी इस फेल हो चुके सिस्टम से थोड़ा नाराज़ होता है तो वह लोहिया के इस सूत्र की शरण मे जाता है कि रोटी और सत्ता को बदलते रहना चाहिए। और वो सत्ता बदलने के नाम पर सरकार बदलने निकल पड़ता है। यहां मुझे गार्सिया मार्खेज की एक कहानी याद आ रही है। इस कहानी में जनता एक आतताई राजा को मारकर दफना देती है। लेकिन वह हर बार कब्र से निकलकर तख्त पर बैठ जाता है। जनता परेशान है कि क्या करे? जादुई यथार्थ की इस कहानी की तरह ही हमारा चुनावी लोकतंत्र भी जादुई हो चुका है। इसके माध्यम से आप 'गुएरनिका' बन चुके हमारे इस प्यारे देश को नहीं बचा सकते।
इसी देश में इस वर्ग युद्ध के बीच कुछ आदिवासी इलाकों में एक सुंदर स्वप्न रचा जा रहा है। क्या हम उस स्वप्न को जानने का प्रयास करेंगे और आगे बढ़कर उस स्वप्न में अपनी भागीदरी करेंगे? ऐसा हम तभी कर सकते हैं जब रोटी और सत्ता ( सरकार ) पलटने की राजनीति से परे जाकर कुछ सोचें।
कोविड के समय हुए चुनाव ने इस अहसास को और गहरा किया है। यूपी के पंचायत चुनाव में ड्यूटी के दौरान कोविड का शिकार होने से 740 शिक्षकों की मौत हुई है। इसके बाद चुनावी लोकतंत्र का जश्न मनाना क्या मौत का जश्न मनाना नहीं है? कोविड ने हमें एक और मौका दिया है कि हम संसदीय लोकतंत्र की परिधि से बाहर निकल कर सोचें। नहीं तो हम उपरोक्त कहानी की तरह ही आतताई राजा को 'मारते' रहेंगे और राजा जीवित होकर तख़्तनशीं होता रहेगा।
गार्सिया मार्खेज ने कहीं कहा है कि विवेक तो महत्वपूर्ण है ही, लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वह सही वक्त पर आए।
आज जब कोविड ने हमारी नियति को पहले से कहीं ज्यादा आपस में गूंथ दिया है तो इससे ज्यादा सही वक्त और क्या हो सकता है....
#मनीष आज़ाद
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