मैं इन्साफ़पसन्द लोगों से मुख़ातिब हूँ। जो लोग न्याय और अन्याय के बीच की लड़ाई में ताक़त के हिसाब से या समाज और मीडिया में प्रचलित धारणाओं के अुनसार अपना पक्ष चुनते हैं वो इस पोस्ट को न पढ़ें। आज जब दुनियाभर में लोग कोरोना महामारी से जूझ रहे हैं और हमारे देश में हुक्मरानों के निकम्मेपन की वजह से हम अपने देश के भीतर एक नरसंहार के गवाह बन रहे हैं, वहीं इस महामारी के बीच हज़ारों मील दूर ग़ाज़ा में ज़ायनवादी इज़रायल एक बार फिर मानवता के इतिहास के सबसे बर्बर क़िस्म के नरसंहार को अंजाम दे रहा है। इस वीभत्स नरसंहार पर ख़ामोश रहकर या दोनो पक्षों को बराबर का ज़िम्मेदार ठहराकर हम इसे बढ़ावा देने का काम करेंगे।
जो लोग इज़रायल और फ़िलिस्तीन के विवाद के इतिहास को ढंग से नहीं जानते वही लोग दोनो पक्षों को बराबर का ज़िम्मेदार ठहराकर दोनों से हिंसा छोड़ने का आग्रह करते हैं। अगर वो संज़ीदगी से इतिहास पढ़ते तो पाते कि 1948 में इज़रायल नामक राष्ट्र का जन्म ही फ़िलिस्तीनियों की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करके, उनको उनकी ही ज़मीन से बेदख़ल करके और बड़े पैमान पर क़त्लेआम को अंजाम देकर हुआ था। उसके बाद से क़ब्ज़े, बेदख़ली और क़त्लेआम का यह सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है। आज फ़िलिस्तीन के लोग वेस्ट बैंक और ग़ाज़ा के दो छोटे-से हिस्सों में समेट दिये गये हैं और इज़रायल वहाँ भी उन्हें अमन और आज़ादी से नहीं रहने देता है। तमाम अन्तरराष्ट्रीय क़ानूनों को धता बताकर इज़रायल वेस्ट बैंक में यहूदियों की अवैध बस्तियाँ बसा रहा है। वहाँ चप्पे-चप्पे पर फ़ौजी चेकपोस्ट मौजूद हैं जहाँ इज़रायली फ़ौजी फ़िलिस्तीन के लोगों को उनके अपने ही देश में अपराधियों जैसा सलूक़ करती है। वेस्ट बैंक में ही इज़रायल ने एक नस्लभेदी दीवार बनायी है जो फ़िलिस्तीन के खेतों से होकर गुज़रती है और जिसकी वजह से लोगों का जीवनयापन और एक जगह से दूसरी जगह आनाजाना दुश्वार हो गया है। ग़ाज़ा तो आज दुनिया के सबसे बड़ी और सबसे घुटनभरी जेल से कम नहीं है। उसे ज़मीन और समुद्र सभी ओरों से इज़रायल ने घेरेबन्दी कर रखी है और खाने-पीने व दवा जैसी अत्यावश्यक चीज़ों की भारी किल्लत है। वहाँ उपलब्ध 95 फ़ीसदी पानी पीने योग्य नहीं रह गया है।
ऐसे मानवीय संकट के बीच कोरोना महामारी ने फ़िलिस्तीन के लोगों की मुश्किलों को पहले से भी बढ़ा दिया था। वेस्ट बैंक व ग़ाज़ा में पहले से लचर चिकित्सा व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा चुकी है और आर्थिक संकट की वजह से लोगों के काम-धन्धे चौपट हो गये हैं। साम्राज्यवादी मीडिया में इज़रायल द्वारा अपने सभी नागरिकों को वैक्सीन देकर सुरक्षित करने की ख़ूब वाहवाही हुई, लेकिन इस मानवद्रोही हरकत की ख़बर नहीं आयी कि ज़रूरत से ज़्यादा वैक्सीन उत्पादन के बावजूद इज़रायल ने फ़िलिस्तीनी लोगों को वैक्सीन देने की बजाय अन्य देशों को निर्यात किया। इस संकटकालीन स्थिति में इज़रायल ने ग़ाज़ा पर बमबारी करके अपने ख़ूँखार मानवद्रोही चरित्र को एकबार फिर उजागर किया है।
जो लोग इस हमले के लिए हमास को द्वारा दागे गये रॉकेट को ज़िम्मेदार मान रहे हैं उन्हें पता होना चाहिए कि फ़िलिस्तीन के लोगों के पास कोई फ़ौज, नौसेना या वायुसेना नहीं है। ऐसे में उनके पास जो कुछ है उसी से लड़ रहे हैं। अपनी क़ौम को नेस्तनाबूद होने से बचाने की इस लड़ाई में फ़िलिस्तीनियों का बच्चा-बच्चा शामिल हे। वो पत्थर से लड़ रहे हैं, गुलेल से लड़ रहे हैं, कविता कैमरे से लड़ रहे हैं और रॉकेट से भी लड़ रहे हैं। डेविड और गोलियथ के बीच जारी इस जंग में वे दुनियाभर के इन्साफ़पसन्द लोगों का आह्वान भी कर रहे हैं कि वे ताक़तवर का नहीं बल्कि इंसाफ़ का पक्ष चुनें। हमास की विचारधारा से इत्तेफ़ाक़ न रहते हुए भी अपनी क़ौम पर हो रहे बर्बर हमले की जवाबी कार्रवाई करने के उनके हक़ की मुख़ालफ़त आप भला क्यों करेंगे? अगर किसी की ज़मीन पर कोई बाहर से आकर क़ब्ज़ा कर ले और मारकाट मचाये तो क्या आप उस व्यक्ति को यह नैतिक उपदेश देंगे कि वह चुपचाप शान्तिपूर्वक सबकुछ सह ले?
बहुत से लोग इस समस्या को मज़हब के चश्मे से देखते हुए इस्लाम बनाम यहूदी समस्या के रूप में प्रस्तुत करते हैं और उसके आधार पर इज़रायल या फ़िलिस्तीन का पक्ष चुनते हैं। ऐसे लोग अगर फ़िलिस्तीन का समर्थन भी करते हैं तो वह वस्तुत: उनकी लड़ाई को कमज़ोर करने का ही काम करते हैं। अगर वाक़ई यह मज़हबों की जंग होती तो अरब जगत के इस्लामी देशों के हुक्मरान भला फ़िलिस्तीन के साथ क्यों नहीं आते? सऊदी अरब, जहाँ इस्लाम की पुण्यभूमि मक्का स्थित है, इज़रायल और अमेरिका का सबसे दुलारा दोस्त क्यों है? अगर आप थोड़ी देर के लिए मज़हब का चश्मा उतारकर इस समस्या को समझने की कोशिश करेंगे तो पाएंगे कि इस समस्या के तार मध्यपूर्व में अमेरिकी साम्राज्यवादी दख़ल से जुड़े हैं। तेल व गैस जैसे अमूल्य संसाधनों वाले इस भूराजनीतिक रूप से अहम इस इलाक़े में इज़रायल अमेरिकी साम्राज्यवाद के हितों को साधने का काम करता आया है। यही वजह है कि रिपब्लिकन और डेमोक्रैट दोनों पार्टियों के नेता इज़रायल का खुलकर समर्थन करते हैं और उसकी फ़ौजी ताक़त बढ़ाने के लिए हर साल अरबों डॉलर का सहयोग भेजते हैं।
हम भारत के लोगों ने उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई लड़कर विदेशी ग़ुलामी से अपनी आज़ादी पायी। ऐसे में हम आज इतिहास के सबसे बर्बर फ़ौजी और सेटलर उपनिवेशी ताक़त द्वारा ढाये जा रहे अकथनीय ज़ुल्म पर भला ख़ामोश कैसे रह सकते हैं? हमारे हुक्मरानों ने तो फ़िलिस्तीनियों के जायज़ संघर्ष से मुँह मोड़कर इज़रायल के साथ गलबहियाँ करने का फैसला किया है। उनका तो समझा जा सकता है क्योंकि उनका ज़ायनवाद से (और मज़े की बात है कि हिटलरी फ़ासीवाद से भी) बिरादाराना नाता है। हत्यारों-नरसंहारकों के बीच की एकता तो सहज समझ में आती है। लेकिन भारत के आम लोगों को तो फ़िलिस्तीनियों के पक्ष में आवाज़ उठानी ही चाहिए और इज़रायलियों द्वारा मानवता के ख़िलाफ़ किये जा रहे अपराध का पर्दाफ़ाश करना ही चाहिए। इंसानियत और इंसाफ़ का तकाज़ा तो यही है।
Image credit: Carlos Latuff
-आंनद सिंह ( BHU IIT)
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