सनातन हिन्दू संस्कृति हमेशा से ही औरत विरोधी रही है, इसमें कोई शक नहीं है. लेकिन जब कोई लेख प्रमाण सहित उन तथ्यों को सजा कर सामने रख देता है तो खून और भी खौलने लगता है. ऐसी ही एक किताब पढ़ी - आ. ह. सालुंखे की मराठी में लिखी और किशोर दिवसे द्वारा हिन्दी में अनूदित किताब ' हिन्दू संस्कृति और स्त्री '. संवाद प्रकाशन से छपी, मूल्य 300/.
हिन्दू संस्कृति किसी एक ईश्वर, एक धर्म ग्रंथ को मानने वाली कोई अविकल संस्कृति नहीं है. इसके नियमों के तार वेद पुराणों से शुरू हो कर मनुस्मृति और तमाम टीकाओं टिप्पणियों, रामायण, महाभारत व अन्य ग्रंथों में बिखरे हुए हैं. इन सबमें औरतों के प्रति अन्याय का विधान अपमानजनक रूप से किया गया है. भारतीय संस्कृति में ये सारे विधान जन्म से पूर्व से ही शुरू हो जाते हैं.
भारत की प्राचीन संस्कृति की पूंछ पकड़ कर जो लोग दावा करते हैं कि वैदिक समाज में औरतों की दशा बेहतर थी. वेद काल के कथित उदार ऋषियों ने अपनी एक भी रिचा में पुत्री प्राप्ति की कामना नहीं की है. इसके विपरीत पुत्र प्राप्ति की इच्छा अनेकों बार दर्शायी गई है.
तमाम सारे ग्रंथों में पुत्र प्राप्ति के उपायों का वर्णन है :
"युगमासु पुत्रा जायंते स्त्रियोs युग्मासु रात्रिषु "- मनुस्मृति
पुत्र होने की खुशी से हिन्दू धर्मग्रंथ बजबजा रहे हैैं. वहीं पुत्री का जन्म एक दम अस्तित्वहीन है.
हिन्दू संस्कृति की वर्ण व्यवस्था से सभी परिचित है. हिन्दू शास्त्रों में औरतों को बाकायदा शूद्र के समकक्ष रखा गया है.
स्त्री शुद्रश्च साधर्माण: - निर्णयसिंधु
दोनों को ही उपनयन संस्कार से वंचित रखा गया है, जो शिक्षार्जन से पहले किया जाता है. यानी औरतों और शूद्रों को शिक्षा की कोई ज़रूरत नहीं है. शिक्षित स्त्री आज़ादी की कामना करने लगती है, जो उसे देय नहीं है
मनुस्मृति के अनुसार जिस कन्या का भाई ना हो उससे अपने पुत्र का विवाह ना करें.-
यस्या: तु न भवेत् भ्राता...न उप यच्छेत मां प्राज्ञ:....
सुश्रुत को छोड़ कर लगभग सारे हिन्दू धर्मग्रंथों में कन्या का विवाह रजस्वला होने से पूर्व करने की वकालत की है :
द्वादषवर्षा स्त्री प्राप्त व्यव्हारा भवति.... कौटिल्य
मनुस्मृति के अनुसार जो पिता बालपन में अपनी पुत्री का विवाह नहीं करता उसका अधिकार अपनी पुत्री पर से ख़तम हो जाता है.
तमाम सारे हिन्दू धर्म ग्रंथों में विवाह को लेकर अनगिनत नियम कानून बनाए गए हैं. इन सबमें औरतों की अपनी इच्छा की कोई जगह नहीं है. हिन्दू धर्मशास्त्रों का यह हुक्मनामा रहा है कि पति अयोग्य हो तो भी पति को देवता मान कर पत्नी उसकी सेवा करे:
विशील: कामवृत्तो वा धनैर्वा परीवर्जितः। उपचर्य: स्त्रिया साधव्या सततम देववत् पतिः। - मनुस्मृति
इसी आशय के उद्धरण महाभारत, बाल्मीकि रामायण, स्मृतियों आदि तमाम धर्मग्रंथों में कहे गए हैं.
महाभारत के अनुसार विवाहित स्त्री दासी की तरह तकलीफें बर्दाश्त करें. नारदस्मृति के अनुसार उसे पति के खाने के बाद ही भोजन करना चाहिए!
मनुस्मृति, याग्यवल्क्य स्मृति के अनुसार स्त्रियां आज़ादी की पात्र नहीं होती हैं. याद करिए मनुस्मृति का वह कुख्यात श्लोक:
......न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हति!
इसी तरह रजस्वला होने से लेकर गर्भवती, बांझ, परित्यक्ता, विधवा तलाक इन सारे मुद्दों पर हिन्दू धर्म ग्रंथों ने औरतों के लिए अपमानजनक व्यवस्थाएं दी है.
औरतों के लिए सती का विधान बनाने वाली यह हिन्दू संस्कृति कितनी क्रूर है, इसे बताने की जरूरत नहीं है. औरतों को किसी भी किस्म की आज़ादी नहीं देने वाली इस संस्कृति के समर्थक कुछ लोग सती के नाम पर औरतों की आज़ादी की वकालत करते हैं.
हिन्दू संस्कृति प्राचीन काल से ही औरतों को पुत्र प्रजनन की मशीन ही मानती आयी है:
'पुत्रार्थः हि स्त्रिय:' - अर्थशास्त्र, कौटिल्य
शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि ' कौवा, कुत्ता, स्त्री और शूद्र झूठे होते हैं '
इसके अलावा हिन्दू संस्कृति के धर्मग्रंथों में अनेकों जगह औरतों की तुलना जानवरों से की है. इसी परंपरा का निर्वाह तुलसीदास करते हैं जब वह अपना कुत्सित ख्याल रखते हैं - ढोर गंवार......
हिन्दू संस्कृति में औरत अपने पति की संपत्ति होती है. इस आशय से हिन्दू धर्म ग्रंथ भरे पड़े हैं. युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी को जुए में दांव पर लगा देना इसका प्रातिनिधिक
उदाहरण है. मनुस्मृति के अनुसार बेच देने के बाद भी पति का पत्नी पर अधिकार ख़तम नहीं हो जाता.
जैमिनीय सूत्र के अनुसार स्त्रियां संपत्ति के समकक्ष होती हैं. स्वयं स्त्री का संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता.
'भार्या, पुत्रश्च दसाश्च त्रया एवधना: स्मृतः।
यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम्।। '- मनुस्मृति
स्त्रियों का स्वभाव मूलतः पापी और अनेक दुर्गुणों से युक्त होता है, इसको दिखाने के लिए हिन्दू धर्म ग्रंथ भरे पड़े हैं. महाभारत के अनुशासन पर्व में कहा गया है -
'क्षुरधारा विषं सर्पो वन्हि: इति एकत: स्त्रिय: '
धर्मग्रंथों में बार बार यह दोहराया गया है कि औरतें अविश्वसनीय होती हैं.
'विश्वासं स्त्रीषु वर्जयेत्'
इसलिए हिन्दू धर्म ग्रंथों में औरतों की गवाही मान्य नहीं है. इस तरह हिन्दू संस्कृति के वाहक तमाम सारे ग्रंथ औरतों को नीचा दिखाने वाली युक्तियां से भरे पड़े हैं.
हिन्दू संस्कृति के अलंबरदार बार बार मनुस्मृति की इस एकमात्र उक्ति को दोहरा कर सिद्ध करते हैं कि हिन्दू संस्कृति में औरतों का मान सम्मान कितना अधिक है:
' यत्र नार्यस्तु पूज्यंते.....
दरअसल धर्मशास्त्रों में यज्ञादि विधि विधान में औरतों को शामिल करने का महज इतना ही उद्देश्य है कि औरतों के बिना दुनिया चल नहीं सकती. वारिस की कामना पूरी नहीं हो सकती. घर संसार चलाने के लिए एक अदद दासी की ज़रूरत पूरी होती है. वरना मनुस्मृति में औरतों का जितना अपमान किया गया है उसकी तुलना किसी भी चीज़ से नहीं की जा सकती.
महाभारत में कहा गया है कि इस दुनिया में स्त्रियों से अधिक पापी और कोई नहीं.....
'परबुद्धिर्विनाशाय, स्त्रीबुद्धि: प्रलयावहा'
मनुस्मृति के अनुसार पुरुषों को भ्रष्ट करना स्त्रियों का मूल स्वभाव है.
हिन्दू धर्म के दो मानक ग्रंथ महाभारत और रामायण ने क्रमशः द्रौपदी और सीता के साथ किस तरह का सुलूक किया इसके लिए किसी व्याख्या की ज़रूरत नहीं.
हालांकि तांत्रिक ग्रंथों, चार्वाक, वाराह मिहिर आदि चंद दार्शनिक औरतों के पक्ष में भी थे लेकिन उन्हें हिन्दू संस्कृति की परंपरा का वाहक नहीं मान सकते.
उपरोक्त कथन हिन्दू संस्कृति के औरतों के बारे में क्या विचार हैं, के बहुत आमफहम उदाहरण हैं जिनकी धारावाहिकता आज तक चली आ रही है. ये मूल्य भारतीय मानस में बहुत गहरे धंसे हुए हैं.
ये परिचायक हैं कि हिन्दू संस्कृति औरतों के लिए किस क़दर ज़हर से भरी हुई है, औरतें जितनी जल्दी इसका परित्याग कर दें उसी में उनकी भलाई है....
Amita Sheereen
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