मनीष आज़ाद ने कोबाड गांधी की किताब "फेक्चर्ड फ्रीडम" की जो आलोचना लिखी थी, अच्छी बात थी कि वह उन तक भी पहुंची। उन्होंने उसका जवाब भी लिखा, जो कि मैं कॉमेंट बॉक्स में दे रही हूं। कोबाड गांधी के सवालनुमा कई जवाबों पर मनीष आज़ाद ने फिर से उत्तर दिया है, जो नीचे दिया गया है।
कोबाड गाँधी के जवाब पर कुछ बातें.........
यह मेरे लिए बहुत ख़ुशी की बात है कि कोबाड गाँधी ने उनकी जेल डायरी पर मेरी प्रतिक्रिया को पढ़ा और उसका जवाब दिया. उनकी इस बात से भी मेरी पूरी सहमति है कि इससे आन्दोलन के कुछ बुनियादी मुद्दों पर अच्छी बहस हो सकेगी.
बहरहाल इस टिप्पणी में मै उनके द्वारा उठाये गए कुछ सवालों पर अपनी प्रतिक्रिया देने का प्रयास करूंगा.
कोबाड गांधी ने कहा है कि झारखंड आन्दोलन के सवाल पर मैंने उन्हें गलत तरीके से उद्धृत [misquote] किया है. दरअसल इस सवाल पर मैंने उन्हें उद्धृत [quote] ही नहीं किया था तो फिर गलत तरीके से उद्धृत [misquote] करने का सवाल ही कहाँ पैदा होता है. डायरी के आधार पर मेरी जो राय बनी थी, मैंने वही रखा था. लेकिन अब उनकी दूसरी बातों का जवाब देने से पहले मै इस सन्दर्भ में उन्हें हूबहू उद्धृत कर रहा हूँ, ताकि पाठक खुद फैसला ले सकें की कोबाड गाँधी कहना क्या चाहते है. हालाँकि मुकम्मल राय तो डायरी पढ़ कर ही बनाई जा सकती है. तो पहले कोबाड की किताब से ही कुछ उद्धरण -
'जब मुझे हजारीबाग सेंट्रल जेल शिफ्ट किया गया तो मैंने पाया की यहाँ के ज्यादातर माफिया खुद नक्सली कैदी थे. हां जब मै आया तो वो लोग सीधे मेरे पास आये पर उनका सिर्फ एक ही उद्देश्य था,पैसा. जेल का परिदृश्य ही कुछ ऐसा था की आन्दोलन के सभी नेताओ [ यहाँ तक की निचली कतारों के नेता भी] की यह पहचान थी की वे धन कुबेर है. जब उन्होंने देखा की मेरे पास बिलकुल भी पैसा नहीं है, और वास्तव में मुझे उनकी मदद की जरूरत है तो वे गायब हो गए.' [पेज-168]
'झारखण्ड जेल पूरी तरह कैश पर चलता है. जेल के अधिकाँश 'माओवादी' इस माफिया कण्ट्रोल को तोड़ने की बजाय इसका हिस्सा बन जाते थे और कभी कभी इसका नेतृत्व भी करते हैं '. [129]
'.......ऐसा लगता है कि एक बार जब वे सैन्य संगठन में आ जाते है, तो स्थानीय लोगो से उनका बहुत कम संपर्क रह जाता है. उनका मुख्य आकर्षण जिंदगी का एडवेंचर, ताकत [power] और अपेक्षाकृत अच्छी जिंदगी ही हो जाती है.' [128]
'झारखण्ड जेल में लोगो की टिप्पणी थी कि मै दूसरे नक्सल 'नेताओ'से अलग हूँ, जो बहुत साधारण तरीके से रहता है. दूसरों के पास तो खूब सारे पैसे होते है और इसी कारण नीचे के नक्सल कार्यकर्ताओ सहित आम लोग उनके इर्द गिर्द घूमते रहते है'.[130-131]
'दमन के कारण जन आन्दोलन के पतन के बाद या तो पूरा काम खत्म हो जाता है या फिर स्कवाड/पार्टी जनता से अलगाव में पड़ जाती है, या फिर घुमंतू विद्रोही में बदल जाती है, अपने खाने और अपने अस्तित्व के लिए ठेकेदारों से पैसे जुटाते हुए'. [166-167]
'.....उसने 2008 में आन्दोलन को त्याग दिया और अपना एक अलग गैंग बना लिया.माओवादियों को छोड़ते समय उसकी ढेर सारी शिकायतों में से एक थी कि नेतृत्व बहुत नौकरशाहाना और असहिष्णु हो गया है. और अंतिम जिस बात ने उसकी प्रतिबद्धता को तोड़ दिया, वह था कि उन्होंने बोरो में भरकर खुद पैसे इकठ्ठा किया और बिना एक पैसा छुए उन्हें नेताओं को सौप दिया. यह पैसा गाव के किसी विकास में नहीं लगाया गया. सबसे ख़राब बात यह थी कि जब उन्हें [अथवा उनके परिवार को] जरूरत थी तो उन्हें कुछ भी नहीं दिया गया. तब भी जबकि उन्हें वो झोपड़ियाँ बनवानी थी, जिन्हें पुलिस ने तोड़ दिया था.उसने खुद भी अपनी बहन की शादी के लिए कुछ पैसे मांगे थे जिसे इनकार कर दिया गया था.............वास्तव में उसका एक दोस्त राजन जो खुद एक समय माओवादी था, उसने भी बालू माफिया के साथ मिलकर करोड़ो कमाए थे. इसी पैसे में से कुछ का इस्तेमाल करते हुए वह जेल से बाहर आया'. [174]
'सारतः कहे तो ताकत [power] और पैसा भ्रष्टाचार की तरफ ले जाता है'.[178]
'वस्तुतः मार्क्सवादी दायरे में नए विचारों को आमतौर पर खतरे के रूप में देखा जाता है और नए विचारों को लाने वाले व्यक्ति पर या तो कोई लेबल चस्पा कर दिया जाता है या उसे टारगेट किया जाता है या उसे अलग थलग कर दिया जाता है'.[236]
अब आप खुद ही तय कर लीजिये की कोबाड गांधी क्या कहना चाहते है.और इससे भी महत्वपूर्ण बात कि क्यों कहना चाहते हैं. इसी सन्दर्भ में मैंने चाशनी और उसके ऊपर तैर रहे मैल की बात की थी. क्या कोबाड गाँधी इन दोनों में फर्क करते हैं?
गोलपोस्ट बदलने वाले मामले पर भी कोबाड गाँधी कहते है कि मैंने उन्हें गलत उद्धृत किया. तो वास्तविक उद्धरण ये है-'शुरुआत करने के लिए हमे गोलपोस्ट को बदलना होगा असमानता के खिलाफ लड़ने से सबके लिए खुशियों की ओर. हालांकि निःसंदेह इसके तुरंत बाद उन्होंने लिखा है की एक भूखा आदमी खुश नहीं रह सकता'.[233]
मार्क्सवादी दर्शन में यह स्थापित बात है की क्रांति आवश्यकता के क्षेत्र [Realm of Necessity] से स्वतंत्रता के क्षेत्र [Realm of Freedom] में एक छलांग है. तो फिर गोलपोस्ट बदलने का सवाल कहाँ से आ गया.
अब आगे उनके दूसरे सवालों के बारे में-
कोबाड गाँधी ने मेरे ऊपर ही सवाल उठाया है कि यदि मैं उनकी बातों से सहमत नहीं हूँ तो मैं यह बताऊ कि 1.पूरे विश्व और भारत के समाजवादी/क्रांतिकारी आन्दोलन के पराभव का क्या कारण है? 2. माओ की मृत्यु के तुरंत बाद चीन की सर्वहारा क्रांति क्यों असफ़ल हो गयी. 3.अगर क्रांति अपरिहार्य है तो मेरा ग्रुप या पार्टी इसे कब तक हासिल कर लेगा? 4.कौन सी क्रांति शान्ति काल में सफ़ल हुई है. आदि आदि.....
यहाँ मैं इन सवालों का जवाब नहीं दे रहा हूँ. इन सवालों का 'जवाब' जैसी कोई चीज है भी नहीं. दुनिया के तमाम कम्युनिस्ट इन सवालों से अपने व्यवहार व सिद्धांत में जूझ रहे है.
लेकिन यहाँ मै जिस चीज पर सवाल उठाना चाहता हूँ, वह कोबाड गाँधी की प्रणाली [Methodology] पर है.
क्या उपरोक्त सवालों पर अब तक का कम्युनिस्ट आन्दोलन कोरी स्लेट है? क्या इन सवालों से पहली बार कोबाड गाँधी ही जूझ रहे है.
कुछ ही दशक पहले सक्रिय RIM -CCOMPOSA -WPRM जैसे कम्युनिस्ट संगठनों में क्या इन सवालों पर कोई चर्चा नहीं हुई? नेपाल की माओवादी पार्टी ने 2005 में अपनी दूसरी कांफ्रेंस में '21वी सदी में जनवाद'/'एक नए तरह का राज्य बनाने के बारे में' [The Question of Building a New Type of State ] जो डाकुमेंट रखा था, उस पर भारत सहित दुनियां की तमाम वाम पार्टियों ने अपना पक्ष रखा था और बहस में हिस्सेदारी भी की थी. इतने महत्वपूर्ण सवालों पर विचार करते हुए कोबाड गाँधी कहीं भी इनका जिक्र नहीं करते. 'चार्ल्स बेथेलहम', 'रेमंड लोट्टा','पाल एम् स्वीजी' जैसे अनेक मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों ने क्रांति के बाद के सोवियत और चीनी समाज पर और उनकी कमजोरियों पर विस्तार से लिखा है. खुद माओ ने सोवियत व्यवस्था और स्टालिन की महत्वपूर्ण आलोचना प्रस्तुत की है.
कम्युनिस्ट आन्दोलन के पराभव पर अपनी राय और अपने तीन 'जादुई हथियार' स्वतंत्रता-ख़ुशी-अच्छे मूल्य [freedom-happiness-good value] को समाधान के रूप में रखते हुए कोबाड गांधी ने कहीं भी इन बहसों-स्थापनाओं का जिक्र तक नहीं किया है.कोबाड गांधी ने यह सवाल पूछा है कि चीनी सांस्कृतिक क्रांति माओ के मरने के तुरंत बाद ही असफ़ल क्यों हो गयी? उससे भी बड़ा सवाल तो यह है कि यह क्रांति चीन में इतनी देर से क्यों शुरू हुई. क्योंकि 1966 तक चीन का पूर्ण 'रूसीकरण' हो चुका था. बिना इन सवालों और बहसों से टकराये महज स्वतंत्रता-ख़ुशी-अच्छे मूल्य [democracy-happiness-good value] में अमूर्त तरीके से समाधान खोजना अंधेरे में तीर चलाना नहीं तो फिर क्या है. चीन की सांस्कृतिक क्रांति में जब 'पार्टी कमेटियों' को भंग करके 'क्रांतिकारी कमेटियां' बनाई जा रही थी तो कोबाड गाँधी के 'डेमोक्रेसी'[democracy] के सवाल को ही हल करने का प्रयास किया जा रहा था. लेकिन ठोस रूप से 'डेमोक्रेसी' को एक नया ढाँचा [structure] देकर. कोबाड गाँधी की तरह अमूर्त तरीके से नहीं. कोबाड गांधी ने अपनी किताब में इस सवाल को छुआ भी नहीं कि स्वतंत्रता-ख़ुशी-अच्छे मूल्य जैसे खूबसूरत फूल किस गुलदस्ते में लगेंगे यानी उनका ढांचा [structure]क्या होगा.
हो सकता है कि इस बार भी मेरी उपरोक्त बाते कोबाड गाँधी को मेरा जड़सूत्रवाद ही लगे.लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि यदि किसी को गुरुत्वाकर्षण के बारे में कुछ नया कहना है, कोई नई अवधारणा या सूत्र देना है तो क्या वह बिना न्यूटन,आइन्स्टाइन व इस क्षेत्र के आज के वैज्ञानिको से टकराये बिना कोई नई अवधारणा या फार्मूला दे सकता है? जो बात भौतिक विज्ञान के लिए सही है,वो सामाजिक विज्ञानं के लिए भी सही है.
कोबाड ने मेरे उपर व्यंग्य करते हुए कहा है कि यदि क्रांति अपरिहार्य है तो वे या उनकी पार्टी/ग्रुप समय बताये कि कब तक वे क्रांति कर लेंगे. मैं इसका जवाब व्यंग्य में देने की बजाय उन्हें एक घटना सुनाना चाहता हूँ. अपने निर्वासित जीवन में लेनिन एक बार 1915/16 में मजदूरों की एक क्लास चला रहे थे. किसी सवाल के जवाब में लेनिन ने कहा कि मै शायद अपने जीवन में क्रांति न देख पाऊ, लेकिन आप लोग अभी युवा है, आप जरूर अपने जीवन में क्रांति देखेंगे. और 2 साल बाद लेनिन क्रांति के बीच थे. इस क्रांतिकारी आशा के अलावा आज मानवता के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है. एक कवि के शब्द में कहें तो हम आशावान होने के लिए अभिशप्त है.
इसी तरह कोबाड ने यह सवाल भी उछाला है कि कौन सी क्रांति शान्ति काल में हुई है. यह हद दर्जे का नियतिवाद है कि जो अब तक नहीं हुआ वो आगे भी नहीं होगा. हालाँकि शान्ति काल से उनका मतलब क्या है, पता नहीं. क्योंकि क्रांतियाँ तो शान्ति को भंग करती है. शायद उनका आशय विश्वयुद्ध की अनुपस्थिति से है. तो यदि सिर्फ जवाब देने के लिए ही जवाब दिया जाय तो क्यूबा की क्रांति कब हुई. कम्बोडिया-वियतनाम की क्रांतियाँ कब हुई. अफ्रीका के कई देशों में राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध कब हुए. बुर्कीनो फासो के तोमास संकारा [Thomas Sankara] के बारे में क्या कहेंगे.वेनेजुएला के शावेज के बारे में क्या कहेंगे. शास्त्रीय अर्थो में भले ही इनमें से कुछ क्रांति की कैटेगरी में न आती हो, लेकिन विश्व शक्ति सन्तुलन को प्रगतिशील ताकतों के पक्ष में थोड़ा झुकाने में इनकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता.
कुछ बाते 'ताकत भ्रष्ट करता है' [Power tends to corrupt, and absolute power corrupts absolutely] के बारे में- इस मुहावरे का इस्तेमाल कोबाड गाँधी ने कई बार किया है. यह मुहावरा जहाँ से लिया गया है,उसकी अगली पंक्ति यह है-'महान व्यक्ति आमतौर हमेशा बुरे व्यक्ति होते है. इस मुहावरे का इस्तेमाल आम तौर पर सत्ता के लिए लड़ रही जनता को नैतिक रूप से डराने के लिए किया जाता है. ताकि मुख्य सत्ता पर कोई आंच न आये. यह बात हमे समझना होगा कि किसी भी क्रांति का बुनियादी सवाल ताकत यानी सत्ता का ही सवाल है. जिस बात से डरकर कोबाड गाँधी ताकत यानी 'पावर'से पीछा छुड़ाना चाहते है, वह समस्या का समाधान नहीं है. समस्या का समाधान इस 'पावर' को विकेन्द्रित करने और इसे जनवाद पर आधारित करने में है. सांस्कृतिक क्रांति में इसे ही करने का प्रयास किया गया था. यानी यहाँ भी कोबाड गांधी पावर के सवाल को आदर्शवादी तरीके से ही हल करना चाहते है.
मार्क्सवादी साहित्य से उद्धरण पर कोबाड गाँधी की चिढ़ को ध्यान में रखते हुए मै अमेरिका के ब्लैक बुद्धिजीवी-एक्टिविस्ट जेम्स वाल्देन [James Baldwin] के उद्धरण से अपनी बात समाप्त करूंगा-'मनुष्य इतिहास में है और इतिहास मनुष्य में है.[People are trapped in history and history is trapped in them.]
बिना इस 'ट्रैप' से टकराये क्या हम अतीत-वर्तमान-भविष्य की बात कर सकते है? असल सवाल यह है.
#मनीष आज़ाद
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