कोबाड गांधी की जेल डायरी पढ़ते हुए लगातार यह अहसास बना हुआ था कि अगर इस डायरी को कोबाड गांधी की पार्टनर अनुराधा गांधी पढ़ती, तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होती. क्या वह इस बात से सहमत होती कि बिहार-झारखंड का नक्सल आन्दोलन आज एक माफिया आन्दोलन में बदल गया है, [12 अप्रैल 2008 को ब्रेन मलेरिया से मृत्यु के पहले वे झारखण्ड के आदिवासी नक्सलियों की एक क्लास चला कर ही आ रही थी.] बस्तर के नक्सल-माओवादी आन्दोलन के लिए अब आगे का रास्ता बंद है, क्रांति अब अपरिहार्य नहीं है, क्रांति और सशस्त्र संघर्ष सिर्फ विश्व युद्धों के दौरान ही सफ़ल होते हैं, चुनाव बहिष्कार से हमेशा प्रतिक्रियावादियों को फायदा होता है, इसलिए ये रणनीति बेकार हो चुकी है, वाम विचारधारा के अन्दर किसी तरह की रचनात्मकता की गुंजाइश नहीं है, भारत का पूरा वाम-नक्सल आन्दोलन संकीर्णता का शिकार रहा है,और है.
क्या अनुराधा गांधी उनके इस समाधान से सहमत होती कि हमें अपना लक्ष्य आर्थिक बराबरी से हटाकर 'सार्वजनिक ख़ुशी' [universal happiness] को बना लेना चाहिए. पिछले 100 सालों में साम्यवाद के पतन का एकमात्र कारण यह है कि नेतृत्वकारी कामरेडों ने कैडरों के अंदर अच्छे मूल्य नहीं भरे. क्या इस अति सरलीकरण से अनुराधा गांधी सहमत होती?
यहाँ अनुराधा का जिक्र इसलिए जरूरी है कि कोबाड बुद्ध की तरह अपने 'राज प्रसाद' से निकलते समय अपनी 'यशोधरा' यानी अनुराधा को सोते छोड़कर नहीं निकले थे. बल्कि उथल पुथल भरे 70 के दशक में 'सत्य की तलाश' में दोनों विद्रोही एक दूसरे का हाथ गहकर साथ निकले थे. जिंदगी के रास्ते मे जिस सत्य का साक्षात्कार हुआ, वह दोनों का साझा सत्य था. मूल कहानी में बुद्ध वापस नहीं लौटे. अनुराधा-कोबाड की कहानी में अनुराधा वापस नहीं लौटी. वह अपने खोजे और अपने बनाये सत्य में विलीन हो गयी. लेकिन कोबाड वापस लौटे. और उन्हें इस बात का दुःख भी है कि अपनी 'वामपंथी संकीर्णता' के कारण वे पहले अपनी 'सोसायटी' के लोगों का महत्व नही समझ पाए. खैर, जिस 'सत्य' के साथ वह लौटे वह उनका साझा सत्य नहीं था. बल्कि अकेले कोबाड का सत्य था, उनके 'fractured freedom' की तरह उनका 'fractured truth.'
दरअसल वास्तव में यह महज एक जेल डायरी नहीं है. बल्कि उन्हीं के शब्दों में उनके पूरे जीवन पर एक प्रतिक्रिया [reflection] है. इसी प्रक्रिया में 10 साल का उनका यातनादायी जेल जीवन भी है. अपने जेल जीवन पर उनकी टिप्पणी बहुत सटीक है. वे कहते है- 'फली नारीमन ,कोलिन गोंजाल्विस, रेबिका जान, के डी राव जैसे बड़े वकीलों और तमाम प्रभावशाली मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ के बावजूद अगर मुझे बिना किसी सज़ा के विचाराधीन कैदी के रूप में देश की विभिन्न 7 जेलों में अपने बहुमूल्य 10 साल बर्बाद करने पड़े तो इससे समझा जा सकता है कि इस देश में आम आदमी या आम कैदी की स्थिति कैसी होगी.'
मैंने भी अपने जेल प्रवास के दौरान इसे शिद्दत से महसूस किया है. ऐसे आम कैदी जेल में महज एक साए की तरह रहते है, मानो उनका जीवन किसी ने चूस लिया हो. इसे ही 'चार्ल्स डिकेन्स' तत्कालीन अमेरिकी जेलों के संदर्भ में 'शरीर बचाते हुए आत्मा को मारने' की संज्ञा देते हैं.
जेल के जिन साथी कैदियों के बारे में कोबाड लिखते हैं, उनमे अफ़ज़ल गुरु का जिक्र बहुत मार्मिक है. कितने दिनों तक यह व्यवस्था अफ़ज़ल गुरु जैसे निर्दोष और शानदार इंसान के खून का भार उठा पाएगी, ये देखना है. आने वाले दिनों में जिसे भी अफ़ज़ल गुरु से मिलना होगा तो उसके लिए इस किताब के ये चंद पन्ने एक बेहतरीन खिड़की का काम करेंगे.
लेकिन जेल की इसी खिड़की से कोबाड झारखंड बिहार व उड़ीसा के माओवादी आंदोलन को भी देखते हैं और निष्कर्ष निकालते हैं कि ये आंदोलन जनता से कटकर अब गैंग में बदल चुका है. इसके लिए वे विशेषकर झारखंड की जेलों में बंद माओवादियों या माओवाद छोड़ चुके कैदियों द्वारा बताई गई कहानियों व उनके आचरण से ये निष्कर्ष निकालते है.
2013 में नक्सल पृष्ठभूमि पर सुधीर मिश्रा की एक फ़िल्म आयी थी 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी'. इस फ़िल्म की समीक्षा करते हुए आलोचक विष्णु खरे एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं. वह कहते हैं कि सुधीर मिश्रा आग पर पकाई जा रही चाशनी और चाशनी के ऊपर तैर रही गन्दगी में फर्क नहीं कर पाते. वे यह नहीं देख पाते कि हलवाई लगातार इस मैल को निकालता रहता है. चाशनी बनाने की यह अनिवार्य प्रक्रिया है. लेनिन इसे सूत्र में यो बयां करते हैं-'कोई भी शक्तिशाली क्रांति शक्तिशाली प्रतिक्रांति को भी जन्म देती है.' और यह सिर्फ बाहर से ही नही अंदर से भी आता है. यह बहुत दुःख की बात है कि देश दुनिया के तमाम क्रांतिकारी आन्दोलनों से अच्छी तरह वाकिफ कोबाड यहां चाशनी और मैल का अंतर नही देख पाते. अनुराधा गांधी के लेखों के संग्रह 'scripting the change' में 2001 में पारू मोहिला को दिए एक साक्षात्कार में इस 'चाशनी बनने की प्रक्रिया' को आदिवासी महिलाओं के संदर्भ में बहुत अच्छी तरह से बयां करती हैं.
बिहार-झारखंड के आंदोलन पर टिप्पणी करते हुए वे इसके किसी भी योगदान से इंकार करते है. आश्चर्य है कि कोबाड जैसे सामाजिक वैज्ञानिक भी इतनी बड़ी सच्चाई नहीं देख पाए कि बिहार-झारखंड से 'सन लाइट', 'मूनलाइट' जैसी सवर्ण प्रतिक्रियावादी सेनाओं के सफाये का श्रेय वहां के नक्सलियों-माओवादियों को ही है. पत्रकार रूपेश कुमार सिंह (Rupesh Kumar Singh) ने अपनी जेल डायरी 'कैदखाने का आईना' में इस महत्वपूर्ण तथ्य को सामने रखा है. और वह भी झारखंड की जेल में बंद लोगो के माध्यम से ही.
कोबाड के मार्क्सवादी 'ज्ञान' पर कोई उंगली नही उठाई जा सकती. उन्होंने अपने लंदन प्रवास के दौरान ब्रिटिश म्यूज़ियम में वहीं पर मार्क्सवाद का अध्ययन किया है, जहाँ खुद मार्क्स ने 'पूंजी' लिखने के लिए तमाम नोट्स लिए थे. लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि स्वतंत्रता जैसे मूल्य की बात करते हुए कोबाड सूफी संत रूमी सहित भक्ति आंदोलन के तमाम कवियों के साथ अस्तित्ववादी अल्बेयर कामू तक को उद्धृत करते है, लेकिन स्वतंत्रता की सही मार्क्सवादी परिभाषा को एक बार भी उद्धृत नहीं करते. जैसा कि एंगेल्स ने लिखा है-'स्वतंत्रता आवश्यकता की पहचान है.' बाद में माओ ने इस परिभाषा को पूर्ण किया कि स्वतंत्रता सिर्फ आवश्यकता की पहचान भर नहीं है, बल्कि उसमे परिवर्तन की प्रक्रिया है. स्वतंत्रता की यह परिभाषा स्वतंत्रता को क्रांतिकारी आंदोलन से अनिवार्य रूप से जोड़ देता है. जबकि किताब में कोबाड ने जिस स्वतंत्रता के मूल्य का जिक्र किया है, उसे महज गुलदस्ते में सजाया ही जा सकता है.
विश्व के पूरे साम्यवादी आंदोलन के पराभव को जिस तरह से उन्होंने कुछ मूल्यों की कमी (जिसे वे 'अनुराधा मॉडल' कहते हैं) में जाकर समेट दिया है, वह उसी तरह की बौद्धिक कसरत है जो फ्रैंकफर्ट स्कूल के अडोर्नो और होकेहाइमर ने 1948 में की थी. जब उन्होने अपनी एक किताब 'डायलेक्टिक्स ऑफ इनलाइटमेन्ट' में स्थापित किया कि फासीवाद और सोवियत सर्वसत्तावाद की जड़ योरोप के 'इनलाइटमेन्ट' में है, जहाँ 'तर्क की सत्ता' जबरदस्ती स्थापित की गई थी.
कोबाड साफ साफ लिखते हैं कि 'स्वतंत्रता-खुशी-अच्छे मूल्य' को मार्क्स ने शुरू में थोड़ा महत्व जरूर दिया, लेकिन बाद के व्यवहारिक आंदोलन में यह कहीं खो गया. आज फिर से इसे वापस लाने की जरूरत है. इस वक्तव्य में कोबाड ने पेरिस कम्यून-सोवियत क्रांति-चीनी सांस्कृतिक क्रांति सब पर एक साथ पाटा चला दिया है. यह कौन सी ऐतिहासिक दृष्टि है जो सर्वहारा के इन तीन शानदार बड़े आन्दोलनों से 'स्वतंत्रता-खुशी-अच्छे मूल्य' को अलग कर देती है.
दरअसल 'मूल्यों' को जिस एकाकी तरीके से उनके संदर्भो से काटकर समस्या के समाधान के रूप में यहाँ पेश किया गया है, उससे चीन में 1939 में प्रकाशित एक किताब 'अच्छे कम्युनिस्ट कैसे बने' की याद ताजा हो जाती है. 'ल्यु शाओ ची' द्वारा लिखी इस किताब की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान काफी आलोचना हुई थी. इस किताब में भी 'सेल्फ कल्टीवेशन' पर बहुत जोर दिया गया था.
दरअसल एक खूबसूरत गुलाब बहुत सारे लगभग उसी जैसे खूबसूरत गुलाब की संगत में ही पैदा होता है. जिस तरह से माली कई खूबसूरत गुलाब में से एक को अपने लिए 'चुन' लेता है, ठीक उसी तरह इतिहास भी कई अनुराधा में से एक को 'चुन' लेता है. जैसे कई लेनिन में से एक को इतिहास ने 'चुन' लिया, और वही लेनिन सोवियत क्रांति का प्रमुख रणनीतिकार बना. लेकिन अफसोस कि 'अनुराधा मॉडल' की बात करते हुए कोबाड इस ऐतिहासिक प्रक्रिया की तरफ आंख मूंद लेते हैं और न चाहते हुए भी अनुराधा गांधी को एक 'इलीट मॉडल' में बदल देते हैं. जैसे वो किसी निर्वात से पैदा हुई हों।
खैर, यह अच्छी बात है कि कोबाड ने मानव की बेहतरी और उसके भविष्य में विश्वास नहीं खोया है. एक यूटोपिया की बात वो पूरी पुस्तक में करते हैं, जिसे लागू किया जाना है. लेकिन यहां भी अफसोस की बात यह है कि कोबाड का यह यूटोपिया मार्क्स से पहले के काल्पनिक समाजवादियों जैसे फुरिये-साइमन-ओवेन का यूटोपिया है. एंगेल्स का 'वैज्ञानिक समाजवाद' नहीं.
40-50 साल बाद अपनी सोसाइटी में वापस लौटने को सेलेब्रेट करते हुए कोबाड कहते हैं -'इन मुलाक़ातों में मैंने महसूस किया है कि मेरा दायरा बहुत सीमित हो चुका था. नए और ताजे विचारों के साथ मेरा संपर्क टूट गया था. सीमित ठहराव ग्रस्त वाम घेरे में रहने के कारण मैं कड़वाहट, क्षुद्रता और रचनात्मकता की कमी का शिकार हो गया था. इससे गैर महत्व की चीजों में ऊर्जा व्यर्थ होती है, तनाव बढ़ता है और आदमी की रचनात्मक योग्यता क्षरित होती है. अब मैं नए और विपरीत विचारों के लिए तैयार हूँ जो मेरे चिंतन को गति देगा और इससे नए विचारों के विकास में मदद मिलेगी.' यदि नए विचार इसी तरह से आते हैं तो कोबाड को उनके नए विचार मुबारक। लेकिन इसमें नया क्या है, यह समझने के लिए किसी को भी शीर्षासन करना पड़ सकता है.
कभी कभी लगता है कि लौटे हुए बुद्ध को अपना सत्य अपने तक ही रखना चाहिए. उसे सार्वजनिक नहीं करना चाहिए. क्योंकि उसका 'अंतिम सत्य' उसके पहले के 'गतिशील सत्य' पर भारी पड़ जाता है और सत्य की तलाश एक तरह से रुक जाती है. उसका रास्ता बंद हो जाता है. फिर स्वतंत्रता, खुशी और अच्छे मूल्य भी नज़र नही आते।
#मनीष आज़ाद
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