खाना एक ऐसी चीज़ है जो कि रोज़ तीन बार किया जाता है और हर अवसर का एक ज़रूरी हिस्सा होता है। चाहे घर पर हो, किसी पार्टी में, किसी दूसरे के घर पर, किसी मीटिंग में, हर जगह हमें खाना चाहिए होता है और सबको अच्छा खाना पसंद होता है, खासतौर पर कोई अवसर पर या घर से बाहर तो सभी को स्वादिष्ट खाने की उम्मीद रहती है । खाने में क्या बनेगा, खाना बनाने, दिन में कई बार बनाने और रोज़ बनाने की अनथक प्रक्रिया और इससे जुड़ी अनेकों प्रक्रियाएं होती हैं जो कि आवश्यक के साथ ही साथ महत्वपूर्ण भी हैं। इसके बावजूद ’खाना’ कभी 'limelight' में नहीं आता है। आपको भी शायद अटपटा लग रहा होगा कि मैं खाने जैसी ’मामूली’ चीज़ के बारे में यह क्या बात कर रही हूं। ऐसा ही अटपटा लगता है जब " द ग्रेट इंडियन किचन " फ़िल्म की शुरुआत होती है। शायद यह पहली ऐसी फ़िल्म होगी जो खाने से जुड़ी रोजमर्रा की प्रक्रियाओं और खाने के इर्द गिर्द घूमती महिलाओं की जिंदगियों को "limelight" में लाती है। फ़िल्म की शुरुआत से अंत तक खाना बनाने से जुड़ी कितनी ही बारीक चीजों को दिखाया गया है जो सभी महिलाएं रोज़ करती तो हैं लेकिन यह एक नीरस रोजमर्रा के काम की तरह है जिसकी कोई कीमत नहीं । जैसे एक scene में एक महिला खाना बनाते वक्त दूसरी से पूछती है कि भिंडी कितनी लंबी काटनी चाहिए। ऐसा कोई दृश्य ज्यादातर लोगों को बेफालतू लगेगा। भला दो घंटे की फ़िल्म में कुछ एक्शन, सस्पेंस, कोई सीख दिखाओ, खाने में क्या डाल रहे ये क्यों दिखाना? चाहे हमें (खासकर वे सब जो रोज़ के घरेलू काम नहीं करते) कितना भी फिजूल लगें, लेकिन हम सबको खाना खाते वक्त इससे खूब फर्क पड़ता है कि सब्ज़ी में भिंडी कितनी लंबी है और क्या क्या डाला गया है।
यह फ़िल्म "सबकी जानकारी में होते हुए उस अनजान एहसास" से परिचित कराती है कि महिलाओं का ज्यादातर वक्त किचन के अनंत और उबाऊ कामों में बीतता है।
जैसा कि आमतौर पर समझा जाता है कि खाने से संबंधित काम सिर्फ़ खाना बनाना ही होता है, यह फ़िल्म महिलाओं के काम को कमतर आंकने वाले इस पितृृसत्तात्मक मान्यता को चकनाचूर करती है । रोज़ अपने पति और ससुर की प्लेट की झूठन हाथ से साफ़ करना, उनके झूठे बर्तन मांझना, झूठन से ब्लॉक basin में गंदे पाने के अंदर हाथ डाल कर खाने का झूठा निकालना जैसी तमाम चीजें और नायिका का इन कामों के प्रति एक स्वाभाविक घिन्न का भाव दर्शकों के सामने बहुत ही सहज ढंग से महिलाओं के इन सभी "आरक्षित" कामों को खोल कर रख देते हैं। हालांकि फ़िल्म किचन पर आधारित है परंतु घर में महिलाओं के सभी अन्य काम जिनमें वे दिन भर और हर दिन खटकती रहती हैं और उनसे जुड़ी पितृसत्ता को भी उसी सहज तरीके से दिखाया गया है। इस सब के कारण ही फ़िल्म देखते वक्त मन में ख्याल आया कि क्या एक आम मिडिल क्लास पुरुष इस फ़िल्म को पचा पाएगा ?
आमतौर पर महिलाओं द्वारा घर पर किए जा रहे श्रम के बारे में लोग कहते हैं कि यह बहुत महान काम होता है। समाज को आइना दिखा कर, शोषण बरकरार रखने वाले इस कथन को भी यह फिल्म चकनाचूर कर देती है और यह सिद्ध करती है कि एक सामान्य मिडिल क्लास परिवार में औरत को घर के कामों, पति की यौनिक इच्छापूर्ति और बच्चा जनने की मशीन के अलावा और कुछ नहीं समझा जाता। जब नायिका के ससुर को उसकी तबियत से बढ़ कर धर्म के कर्मकांडो के पालन की चिंता होती है, जब पति की बात से व्यक्त होता है कि वो नायिका से शारीरिक संबंध अपनी यौनिक पूर्ति के लिए बनाता है, प्यार के कारण नहीं, जब पति की बात ना मानने पर घर छोड़ने की धमकी मिलती है इत्यादि कई ऐसी दृश्य हैं जो आपके मेरे घरों की आम कहानियां हैं।
फिल्म में पीरियड्स से जुड़े तमाम अंधविश्वासों और रिवाजों को भी दिखाया है जो हमारे "modern India" में " भारत की संस्कारी महिलाओं" को आज भी झेलने पड़ते हैं । वहीं सबरीमाला मंदिर वाले मामले से इसको जोड़कर इन रीतियों को जनवाद की तलवार से काटा भी गया है । फ़िल्म में गरीब और मिडिल क्लास महिलाओं के शोषण में फर्क, महिला के इच्छा बिना पति का यौन संबंध बनाने जैसे तमाम मुद्दों को भी दिखाया है। इस फिल्म की यही खास बात है कि इसमें हर दृश्य में कुछ ना कुछ दर्शाया है और वो भी बिलकुल सहजता से ।
अंत का दृश्य जिसमें नायिका अपने लिए मुक्ति तो पा लेती है लेकिन उसकी जगह एक दूसरी महिला दिखती है, बहुत जरूरी दृश्य है । यह दृश्य इस फ़िल्म को बाकी कई प्रोग्रेसिव फिल्मों से अलग करता है जो एक महिला के विद्रोह पर आ कर खत्म हो जाती है और दर्शकों के सामने मुक्ति का यही रास्ता पेश करती है । इस फिल्म के आखिरी दृश्य ने सच का सामना कराते हुए, दर्शकों को happy ending की राहत ना देते हुए, उनके सामने यह समस्या ज्यों के त्यों छोड़ी है और साथ ही इसका हल निकालने की ज़िम्मेदारी भी दर्शकों के कंधों पर हैं।
इस फ़िल्म की नायिका ने इन बंधनों को तोड़ अपनी प्रतिभा / passion पर काम किया परंतु यह सोचने वाली बात है कि भारत की करोड़ों महिलाओ और विश्व की भी तमाम महिलाओ की ना जाने कितनी इच्छाऐं, प्रतिभाऐं, सपने और कलाएं उनकी जिंदगी के साथ ही घर के कामों में झोंक दी जाती हैं। ये बेहिसाब है।
घर के इस पितृसत्तात्मक बंधन से मुक्ति का रास्ता चीनी क्रांति और विशेषकर चीनी सांस्कृतिक क्रांति के बदलावों में देखने को मिलता है। इच्छुक लोग इसके बारे में जरूर पढ़ें।
उम्मीद है आप लोग भी यह फिल्म देखें और अपने परिवार वालों और दोस्तों को दिखाएं । हालांकि एक बड़ी दिक्कत है कि फ़िल्म मलयाली भाषा में है और subtitles English में हैं । उम्मीद है कि अन्य भाषाओं में भी इस फिल्म की dubbing की जाए।
नोट – हमारे समाज में पुरुष और महिला के अलावा भी अनेक लैंगिकताएं हैं । ऊपर जहां कहीं भी पुरुष और महिला लिखा गया है, वहां बाकी सभी लैंगिकतायों को भी जोड़ कर देखें । भाषा की कमी / मेरी अपनी कमी के कारण ऐसा ना कर पाने का खेद है ।
- इप्शिता (शोध छात्रा, IIT कानपुर)
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