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Monday, September 6, 2021

'जसवंत सिंह खालरा': लावारिस लाशों दा वारिस



 एक 'शव' पोस्टमार्टम के लिए लाया जाता है। डॉक्टर ने देखा कि सिर में गोली लगने के बावजूद उसकी सांस अभी चल रही थी। जब डॉक्टर ने पुलिस अफसर का ध्यान इस ओर दिलाया, तो वह पुलिस अफसर उस जीवित 'शव' को लेकर वापस चला गया और कुछ देर बाद मृत शव के साथ वापस लौटा और शव का पोस्टमार्टम करने के लिए डॉक्टर को सुपुर्द कर दिया।

यह किसी फिल्म का दृश्य नहीं, बल्कि पंजाब के किसी शहर में घटी घटना है। दिन था - 30 अक्टूबर 1993

मशहूर खोजी पत्रकार जोसी जोसेफ (Josy Joseph) ने हालिया प्रकाशित अपनी महत्वपूर्ण किताब 'The Silent Coup' में इस घटना का जिक्र किया है।

यह कोई अलग-थलग घटना नहीं थी। बल्कि पंजाब में 'मिलिटेंसी' के दौरान (1985 से 95) करीब 25 हजार नौजवान सिखों को वहां की पुलिस ने 'गायब' कर दिया था।

इन 'गायब' लोगों को जिसने खोज निकाला, उसका नाम था- 'जसवंत सिंह खालरा'। 'खालरा' उस वक़्त अकाली दल की मानवाधिकार इकाई के जनरल सेक्रेटरी थे। 

लेकिन इस खोज की बड़ी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी। 

आज ही के दिन यानी 6 सितंबर (1995) को घर से दिनदहाड़े पंजाब पुलिस ने उनका अपहरण किया और उन्हें भी 25 हजार लोगों की तरह 'गायब' कर दिया। 

सालों बाद स्पेशल पुलिस अफसर कुलदीप सिंह ने CBI को दिए अपने बयान में बताया कि पुलिस हिरासत में तमाम यातनाएं देकर 24 अक्टूबर 1995 को उनकी हत्या कर दी गयी थी और लाश के कई टुकड़े करके सतलज नदी में फेंक दिया गया था। 

बताने की जरूरत नहीं कि यह 'के.पी. एस. गिल' का काल था, जो समाज के एक छोटे हिस्से और मीडिया के लिए हीरो था, तो समाज के निचले बड़े हिस्से के लिए कसाई।

जसवंत सिंह खालरा ने इन 'गायब' लोगों का पता लगाने के लिए श्मशान घाट का रुख किया। पंजाब में लावारिस लाशों को जलाने के लिए लकड़ियों का खर्च म्युनिसिपलिटी से आता है। खालरा ने बहुत धैर्य और मेहनत से म्युनिसिपलिटी से यह आंकड़ा निकलवाया कि प्रतिदिन कितने कुंतल लकड़ी इशू हुई है। एक लाश को जलाने के लिए करीब 3 कुंतल लकड़ी लगती है। इसके आधार पर गणना करके एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में खालरा ने यह सनसनीखेज रहस्योद्घाटन किया कि 1984 से 94 के बीच सिर्फ तीन शमशान में क्रमशः 400, 700 और 2000 लावारिस लाशों को जलाया गया है। मांग की गई कि ये लोग कौन हैं, इनकी सूचना उपलब्ध कराई जाय और इसकी जांच कराई जाए। हालांकि यह आंकड़ा भी वास्तविक आंकड़े से बहुत कम था, क्योंकि पुलिस आमतौर पर एक ही चिता पर 3-4 लाश एक साथ जलाती थी। इसलिए वास्तविक आंकड़ा 3 से 4 गुना ज्यादा हो सकता है।

इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के जवाब में 'के.पी. एस. गिल' ने भी एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की और बेहयाई से सभी आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि जिन्हें गायब बताया जा रहा है, वे वास्तव में अमेरिका कनाडा में कमाई कर रहे हैं। और यहां मानवाधिकार संगठन पुलिस को बदनाम करने पर तुले हुए हैं।

इसके बाद खालरा ने अपने इन दस्तावेजों के साथ पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट का रुख किया। लेकिन आश्चर्य कि हाईकोर्ट ने खालरा का केस सुनने लायक ही नहीं माना और खारिज कर दिया।

उसके बाद खालरा ने कनाडा और अमेरिका का रुख किया ताकी विश्व जनमत को प्रभावित करके भारत पर दबाव डाला जा सके। इसी प्रक्रिया में जसवंत सिंह खालरा ने कनाडा की संसद में अपना प्रसिद्ध भाषण दिया, जो उनका आखिरी भाषण साबित हुआ। क्योकि वहां से लौटते ही उनका अपहरण कर लिया गया और हत्या कर दी गयी। 

कनाडा की संसद में उन्होंने भरे गले से कहा कि हम कुछ ज़्यादा नहीं मांग रहे। हम सरकार से बस 'डेथ सर्टिफिकेट' मांग रहे हैं।

भगतसिंह की तरह ही जसवंत सिंह खालरा भी एक क्रांतिकारी परिवार से आते हैं। उनके दादा हरनाम सिंह 'गदर आंदोलन' के संस्थापको में से थे। 'कोमागाटू मारु' घटना में भी वे शामिल थे।

लेकिन विडंबना देखिये कि अमृतसर में खालरा के निवास स्थान से महज कुछ दूरी पर स्थित 'गुरु नानक देव विश्वविद्यालय' के 'मानवाधिकार कोर्स' में जसवंत सिंह खालरा का जिक्र तक नहीं है। सच तो यह है कि भारत के किसी भी सरकारी मानवाधिकार कोर्स में खालरा का जिक्र नहीं है, जबकि कनाडा में 3 और अमेरिका में 1 सड़क का नाम जसवंत सिंह खालरा के नाम पर है। 

लेकिन दुःख इस बात का है कि भारत के मानवाधिकार संगठन भी उन्हें उतनी तवज्जो नहीं देते, जिसके वे हकदार हैं।

लगभग ऐसी ही कहानी कश्मीर के मानवाधिकार कार्यकर्ता जलील अंद्राबी (Jalil Andrabi) की थी। वे भी कश्मीर में लावारिस कब्रों का पता लगा रहे थे और उन्हें डॉक्यूमेंट कर रहे थे।

8 मार्च 1996 को उनका भी खालरा की तरह ही अपहरण कर लिया गया और 27 मार्च को सुबह झेलम में उनकी लाश तैरती पायी गयी। उनके अपहरण और हत्या के पीछे सेना के मेजर अवतार सिंह का हाथ था, जिसे अरुंधति राय ने अपनी मशहूर किताब 'अपार खुशियों का घराना' में एक पात्र बनाया है। बाद में देश से भागकर अवतार सिंह ने अपने परिवार के सदस्यों को गोली मारकर आत्महत्या कर ली थी।

सत्ताएं रात के अंधेरे में जिनका कत्ल करती हैं, दिन में उसी के भूत से डरती भी हैं। खालरा जैसे मानवाधिकार योद्धाओं का कत्ल भी इसी डर के कारण होता है। 

कनाडा की संसद में दिए अपने अंतिम भाषण में जसवंत सिंह खालरा ने एक लोक कथा सुनाई थी कि कैसे अंधेरे के साम्राज्य को छोटे छोटे दिए चुनौती देते है।

आज यह लोककथा खुद 'खालरा' या 'अंद्राबी' जैसे लोगों पर सटीक बैठती है, जो भले ही अंधेरे के साम्राज्य को समूल नष्ट न पाएं, लेकिन अंधेरे के साम्राज्य में सेंध लगाने में जरूर कामयाब हो जाते हैं।

महादेवी वर्मा के शब्दों में कहें तो एक दीपक भले ही दुनिया के तमाम अंधेरे को दूर नहीं कर सकता, लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि दुनिया का सम्पूर्ण अंधकार मिलकर भी एक दीपक से उसकी रोशनी नहीं छीन सकता।

*शीर्षक, 'इंडियन एक्सप्रेस' में पिछले साल इसी दिन छपे एक लेख से साभार।

#मनीष आज़ाद

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