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Thursday, June 25, 2020

छात्राओं की समस्याएं : कौन सुनेगा?



June 25, 2020

                                  (१)
'यह भी रोज की तरह एक सामान्य सा दिन था। मैं इंस्टाग्राम चला रही थी। अचानक मैंने देखा कैंपस के ही एक छात्र के मैसेज पड़े हुए थे और उसे मैं अच्छी तरह जानती थी। हालांकि कभी बातचीत तो नहीं हुई थी। खैर जो भी हो उसे मैं जानती थी और मैंने यह जानने के लिए मैसेज बॉक्स खोला कि उसने क्या मैसेज किया है? लेकिन मैसेज बॉक्स खोलने के बाद जब मैंने उस मैसेज को पढ़ा...मैं हतप्रभ रह गयी। मैं ऊपर से लेकर नीचे तक सिहर गयी। मेरी रूह तक काँप चुकी थी। ह्रदय की धड़कन इतनी जोर हो चली थी कि लग रहा था ह्रदय बाहर निकल पड़ेगा। मैंने मैसेज जो पढ़ा था उसे हूबहू आज भी दुहरा नहीं सकती लेकिन मैसेज का सीधा अर्थ यह था कि 'क्या तुम मुझसे यौन सम्बन्ध बनाओगी?' ' [इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एक छात्रा रुपाली(परिवर्तित नाम) के अपने अनुभवों पर आधारित जो कि उन्होंने हमसे साझा किए थे। उन्होंने यह भी बताया कि वह अकेली लड़की नहीं हैं जिनके साथ ऐसे हुआ है बल्कि कुछ और भी छात्राएं हैं, जिन्हें वह जानती हैं।]


रुपाली ने हमसे यह भी बताया कि इतना ही नहीं बल्कि वह उस मैसेज को पूरे कैंपस में लेकर टहलता रहा और लड़कों को दिखाता। वह बड़ा खुश होता और जिन-जिन लड़कों से वह शेयर करता वो बजाय उसे टोकने के खूब हँसते और उसकी पीठ थपथपाते। और जहाँ कहीं वो सब रुपाली को देखते उसके ऊपर अश्लील और भद्दे कमेंट्स करते। लेकिन रुपाली चुप रही और कुछ न कर सकी। क्योंकि उसे डर था कि अगर वो उनके खिलाफ कुछ करेगी तो उसके घरवाले उसकी पढ़ाई छुड़वा देंगे। इतना ही नहीं उसमें और भी कई किस्म के डर भी घर कर गए थे कि प्रशासनिक कार्यवाही से उग्र होकर वह छात्र कहीं उसके साथ और भी अभद्र व्यवहार न कर बैठें। रुपाली इलाहाबाद में रूम लेकर ही रहती है इस कारण वह खुद को मजबूत स्थिति में नहीं पा रही थी।


लेकिन रुपाली ही विश्वविद्यालय में ऐसी लड़की नहीं है जिसे सोशल साइट्स और कैंपस में इस प्रकार की छेड़छाड़ का सामना करना पड़ता हो। रुपाली से ही हमे पता चला कि कुछ और भी लड़कियां हैं जिन्हें इस तरह की दिक्कतें पेश आती हैं। आये दिन कुछ अराजकतावादी छात्र और बाहरी अराजकतत्वों द्वारा कैंपस के अंदर ही छात्राओं के साथ छेड़खानी होती है। हमने जिन-जिन लड़कियों से बातें की उन सभी के अनुभव बेहद बुरे थे। कुछ छात्राएं ऐसी भी मिलीं, जिन्हें हम पर भरोसा नहीं था। इसका मतलब यही था कि उनके अनुभव इतने बुरे थे कि उन्हें विश्वविद्यालय के किसी भी लड़के पर भरोसा नहीं था या उन्हें सब एक से लगने लगे थे।


इसी वर्ष जनवरी में हमने भारत में बढ़ती हुई यौन हिंसा और छेड़छाड़ की घटनाओं में आती हुई बाढ़ सा देखकर तय किया कि 'यौन उत्पीड़न' पर एक कार्यक्रम होना चाहिए। ताकि कैंपस की छात्राओं और छात्रों से 'यौन उत्पीड़न और उसकी जड़ें कहाँ तक हैं'? जैसे तमाम मुद्दों पर परिचर्चा की जा सके, और इतना ही नहीं बल्कि हमने सामन्तवाद, पितृसत्तात्मक व्यवस्था को भी कटघरे में खड़ा करने को तय किया। कार्यक्रम की तिथि निश्चित हो गयी और हमने पर्चे छपवा लिए ताकि अधिक से अधिक छात्र एवं छात्राओं को जोड़ा जा सके। हमने पर्चे बाँटने शुरू कर दिए जिसमें कार्यक्रम की तिथि और बातचीत के लिए निर्धारित टॉपिक का नाम भी दिया हुआ था-'यौन उत्पीड़न और उसकी जड़ें.....'।


पर्चे बाँटते समय ही हमें कई छात्राओं के भीतर भरा गुस्सा जाहिर होने लगा था। क्योंकि हाल ही में प्रियंका रेड्डी रेप एंड मर्डर कांड हुआ था जिसमें पीड़िता के साथ रेप करके उसके शरीर को जला दिया गया था। ज़ाहिर है कि लोगों में उबाल था और हमने कैंपस में कई छात्राओं के बीच पर्चे बाँटे तो उनमें कइयों के सवाल एक से थे जिसमें गुस्सा और उनका दुःख जो उस गुस्से में शामिल था व्यक्त होता था, वे यही कहतीं-'.....इससे क्या होगा? इस परिचर्चा से क्या यह देश सुधर जाएगा? क्या आप लोग नहीं जानते कैंपस में हम लोगों के साथ रोज छेड़छाड़ नहीं होती'? जाहिर ये प्रश्न भले गुस्से भरे थे लेकिन साथ ही साथ उस विडम्बना और दुःख की अभिव्यक्ति भी थे जिसका सामना आमतौर पर हर एक लड़कियों को करना पड़ता है।


हम लोगों की परिचर्चा निर्धारित समय पर इरोम लॉन में सम्पन्न हुई। परिचर्चा का सकारात्मक रुख यह था कि पहली बार छात्राओं की अच्छी खासी सहभागिता थी। उन्होंने बेधड़क अपनी बातें रखी। इसके पूर्व की किसी भी परिचर्चा में छात्राएं इतनी संख्या में नहीं थीं। लेकिन हम आपको बता दें कि यह संख्या अन्य संगठनों के तुलना में ही अधिक थी और लगभग पन्द्रह बीस की संख्या में ही छात्राएं सम्मिलित हुईं थीं। जबकि कैंपस में छात्राओं की संख्या हजारों में है और इस प्रकार के महत्वपूर्ण मुद्दों पर इतनी कम संख्या! यह सोचने वाली बात थी क्योंकि पर्चे बाँटते समय जिन छात्राओं में आक्रोश या उबाल दिखा था, उनमें से परिचर्चा में एक भी नहीं थीं। हमने इस पर गहन विचार किया और जिससे कई पहलू निकले:


(क) कैंपस की छात्राओं को यह लगता होगा कि संगठन का उद्देश इन मुद्दों के बहाने महज अपनी राजनीति साधनी है। इसके अलावा कुछ भी नहीं।


(ख) उन्हें लगता होगा इस प्रकार के मुद्दों पर हमेशा चर्चा होती है मगर परिणाम क्या निकलता है?


(ग) वह यह भी सोचती होंगी कि उन्हें इससे क्या? वे तो महज पढ़ने आईं हैं न कि कोई आंदोलन खड़ा करने। उन्हें इन सब चीज़ों से दूर रहना चाहिए।


(घ) उन्हें लगता होगा कि सारे लड़के अविश्वासी हैं और इसी प्रकार सारे संगठन भी। क्योंकि सम्भव है कुछ घटनाओं के आधार पर उन्होंने यह गलत निष्कर्ष लिया हो।


(क) और (ख) सम्भावना का उत्तर एक सा ही है। क्योंकि देश और विश्वविद्यालयों में होने वाली अवसरवादी राजनीति ने बंटाधार कर रखा है। सम्भव है इससे पूर्व किसी अवसरवादी संगठन ने ऐसे ही ढकोसले दिए हों और अपनी राजनीति चमकाकर छात्राओं के मुद्दों पर चुप्पी साध ली हो। इतना भर नहीं बल्कि प्रशासन की लापरवाही ने भी छात्राओं के मन में एक नकारात्मकता भर दी हो कि आप कितना भी अपने हित की माँग करो लेकिन हम अजगर की तरह सोते रहेंगे या हमारे कानों में जूँ नहीं रेंगने वाली। तीसरी बात (ग) भी सम्भावित है लेकिन हमें लगता है ऐसी धारणा प्रायः सभी छात्राओं में नहीं होती है और इस धारणा का जवाब यह है कि हमारे अंदर राजनीतिक चेतना शून्य होती है। हालांकि भगत सिंह ने इस प्रकार की धरणाओं का उत्तर अपने लेख 'छात्र जीवन और राजनीति' में सुंदर तरीके से दिया है। अगर हम अब अंतिम और (घ) सम्भावना पर विचार करें तो यह ऐसी सम्भावना है जिसके पीछे तथ्य नहीं होते हैं यहाँ हम पहले से ही किसी बात को सच मान लेते हैं फिर उसे ही सत्य सिद्ध कर देते हैं जैसे-गरीब वो होते हैं जो निठल्ले और कामचोर होते हैं। ठीक उसी तरह उनके दिमाग में यह धारणा बन जाती है कि जो लड़के हैं, वो लड़कियों के प्रति सही मानसिकता नहीं रखते हैं। 


अभी हम इन बिंदुओं पर बाद में चर्चा करेंगे और अब पुनः रुपाली वाले मामले की तरफ वापस चलते हैं। हमने ऊपर जैसा कि, बताया है, और भी बहुत सी छात्राएं हैं जिनके अनुभव रुपाली के अनुभव जैसे या उससे भी बुरे हैं। हमें यह लेख लिखने से पहले रुपाली जैसे एक और मामले की जानकारी हुई। 'नगमा(परिवर्तित नाम) कला संकाय की ही छात्रा है जिससे सोशल मीडिया पर एक विश्वविद्यालय के ही छात्र ने छेड़छाड़ की। छात्र ने पूरी तरह असभ्य होकर पूछा था कि क्या वह(नगमा) उससे सेक्स चैट करेगी'?


लेकिन उपरोक्त दोनों मामलों में हमारा उन छात्राओं से यही कहना था कि वे उनके विरुद्ध कानूनी कार्यवाही करें। किन्तु हमें हैरानी हुई जब पढ़ी-लिखी होकर उन दोनों छात्राओं ने ऐसे कदम उठाने के बजाय चुप होकर सबकुछ सहना ही ठीक समझा। रुपाली के कार्यवाही न करने के तर्क को हमने स्वीकार तो कर लिया लेकिन फिर भी हम मामले की और तह तक जाना चाहते थे, और हम इसमें काफी हद तक सफल रहे। उन छात्राओं से पता चला कि मुख्य समस्या यह है कि वो उनके विरुद्ध कार्यवाही करें भी तो कैसे करें? क्योंकि उन दोनों के घरवालों को यह जानकारी नहीं थी कि दोनों छात्राओं ने सोशल मीडिया पर अपने एकाउंट्स बना रखे हैं।


पितृसत्तात्मक व्यवस्था और सामंती प्रभाव के चलते छात्राओं को घरवालों से काफी मुश्किलों का सामना का करना पड़ता है। वह उन्हें सोशल एकाउंट्स पर किसी कीमत पर नहीं देखना चाहते लेकिन इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिले के बाद प्रायः उन छात्राओं को कुछ हद तक एक खुला माहौल मिलता है जो कि उनके छोटे शहर या गाँव की तुलना में अधिक विकसित होता है। ऐसे में छात्राओं को लगता है कि उन्हें भी खुद का विकास करना चाहिए और इसी क्रम में एक नए संसार से परिचित होने और घुलने-मिलने के लिए सोशल साइट्स से खुद को जोड़ती हैं लेकिन वहाँ उन्हें वही अभद्र संसार मिलता है जिनसे उनका सामना हमेशा होता आया है।

यदि छात्राएं सोशल साइट्स पर होने वाली इस किस्म की शिकायत भी करना चाहें तो घरवाले उन्हें ही दोष देंगे कि उन्होंने सोशल मीडिया पर एकाउंट ही क्यों बना रखा है और उन्हें चुप रहने की तथाकथित नेक सलाह देते हैं।


हमने गौर किया कि विश्वविद्यालय ने छात्राओं के लिए क्या किया है? लेकिन हमने यह पाया कि विश्वविद्यालय के बीमार प्रशासन ने छात्राओं के हित में कुछ करने के बजाय सायं 6 बजे के बाद विश्वविद्यालय में उनका प्रवेश निषिद्ध कर दिया ताकि छेड़छाड़ की घटनाएं न हों। लेकिन कुल मिलाकर विश्वविद्यालय और छात्राओं के परिवार वालों का फैसला अजीबोगरीब और एक सा रहता है जिसमें से हमे पितृसत्ता और सामंती सोच की बू आती है। यह फैसले कुछ इस किस्म के होते हैं कि-रेगिस्तान में शिकारी को देखकर शुतुरमुर्ग की तरह अपनी गर्दन ही रेत में धँसा ली जाए। यानी अगर लड़के छात्राओं के कपड़े पर अश्लील टिप्पणी करेंगे तो शायद प्रशासन उन्हें बुर्का पहनने की अपनी नेक सलाह देगा। यानी नकेल अपराधियों पर नहीं पीड़ितों पर कसी जाएगी।


इतना ही नहीं बल्कि कुछ ऐसे प्राध्यापक भी हैं जो छात्राओं को छात्रों से दूर रहने और न बोलने की सलाह देते हैं और छात्र-छात्राओं को एक ही क्लास में अलग-अलग हिस्से में बैठाकर एक बॉर्डर का निर्माण करते हैं जिसे न छात्र क्रॉस करेंगे न ही छात्राएं। ज़ाहिर है कि यह उनकी सामंती नैतिकता है जिसके मुताबिक दोनों एक भिन्न प्रकार के जीव हैं अगर छात्र छात्राओं के बीच कोई सम्बन्ध हो भी सकता है तो सिर्फ भाई-बहन का। छेड़छाड़ करने वालों छात्रों के हिसाब से छात्राओं और उनके बीच सेक्स के अलावा दूसरा कोई सम्बन्ध नहीं है और दर्जे में वो छात्राओं से ऊपर हैं।


                                  (२)


शिक्षण सस्थाओं और परिवार वालों की इस प्रकार की सोच कोई नयी बात नहीं है और ना ही वह केवल इलाहाबाद विश्वविद्यालय की समस्या है। अमूमन देश के तमाम संस्थाओं की यही समस्या है कार्यस्थल पर सेक्सुअल ह्रासमेंट की समस्या तो पूरे विश्व मे एक समान ही है। बालीवुड में चले मी टू कार्यक्रम ने तो बड़े बड़े हस्तियों की कलई खोल कर रख दिया। समाचार पत्रों मे बहुत जोर शोर के साथ सुर्ख़ियों में रहा और नित्य नये मुखौटे उजागर हो रहे थे। वह व्यवस्था के अंतर व्याप्त विक्षिप्त मानसिकता और वीभत्सता को उजागर कर रहे थे ..लेकिन यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि यह मामला केवल पेपर की सुर्खियां बन पाया और धरातल से इसके पैर गायब थे। समस्याओं की जड़ों पर कोई चर्चा नहीं थी। आम लोगों ने तो इसको एक समस्या के रूप मे तो लिया ही नहीं ,उन्होंने बालीवुड जैसी इतनी बड़ी इंटस्ट्री का यही चरित्र बताया। ऐसे मसलों पर वह केवल एक ही राय रखते हैं कि सिनेमा की दुनिया रोमांस की दुनिया है, इसमें यह घटना सामान्य बात है। सिनेमा में विभिन्न प्रकार के अभिनय किये जाते हैं जिसमें रोमांटिसिज्म का अपना एक स्थान है लेकिन अभिनय और रोमांटिसिज्म को यौन उत्पीड़न की सामग्री बताना भद्र पुरुषों की यह बात हमें कभी समझ नहीं आई । कुल मिलाकर इस मी टू आंदोलन का ठीक वही परिणाम भी निकला जो इस तरह की यौन हिंसा से संबंधित हर मसले का निकला है। एक तो सभी लोग खुलकर सामने नहीं आएं और जो सामने आये तो उन्हें ही कटघरे में खड़ा किया गया और तरह-तरह के आरोप उन्हीं पर मढ़े जाने लगे कि पहले तो उन्होंने कैरियर बनाने के लिए विरोध तो नहीं किया और अब बेवजह शरीफों के दामन को दागदार कर रहे हैं।


खैर यहाँ हमारा ध्येय मी टू कार्यक्रम की सफलता या असफलता को निर्धारित करना बिल्कुल नहीं है। हम अभी इस पहलू पर भी गौर नहीं करेंगे कि समाज के एक बड़े हिस्से द्वारा मी टू कार्यक्रम का विरोध करना गलत था। हम इस मसले को विश्वविद्यालय के संदर्भ में देखना चाहते हैं। क्यों यहाँ पर मी टू जैसा बड़ा कैंपेन विश्वविद्यालय के स्तर पर ही सही, क्यों नहीं खड़ा हो सका? क्या रुपाली और नगमा के साथ हुई घटना यौन हिंसा से इतर कुछ और थी? क्या यहाँ की छात्राएं शिक्षित नहीं हैं? ज़ाहिर है, ऐसा नही है। यह एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है जो कि यूजी से नीचे कोई कोर्स नहीं कराता। तो साफ है कि छात्राओं में यौन हिंसा के प्रति एक कम पढ़ी लिखी लड़की या महिला से अधिक जागरूकता है। लेकिन शायद यहाँ की छात्राओं के बीच उस चेतना का अभाव है जिसके चलते मी टू जैसे कैंपेन खड़े हो सके। मी टू कितना सफल रहा या नहीं लेकिन कम से कम उस कैंपेन ने कार्यस्थलों पर हो रही महिलाओं के हिंसा को तो उजागर किया। मी टू कैंपेन से यह भी पता चला कि कैंपेन करने वाली नारियों में चेतना आ चुकी है और भविष्य में वे सतर्क रहेगीं।


हम इस चीज को समझने में सफल रहे हैं कि पढ़े-लिखे होने के बावजूद यहाँ की छात्राओं में अपने अधिकारों के प्रति अनिभिज्ञता है। उनके सामने आधुनिक होने के पैमाने लगभग वहीं हैं जो कि सामन्तवाद-आधुनिकता के खिचड़ी से तैयार होता है। हमने कई ऐसी छात्राओं को भी देखा है जिनके लिए आधुनिकता का मायने यही है कि अवधी-भोजपुरी-हिंदी में चलने वाली गालियों को अंग्रेजी में बको और पुरुषवादी धारणा जैसी श्रेष्ठता की सोच रखो। उनका यह भी मानना है कि लड़के तो होते ही ऐसे हैं! यह भी ठेठ पुरुषवादी धारणा है। उनका ध्यान कभी इस तरफ नहीं जाता है कि सारी गालियाँ होती नारीविरोधी ही हैं। कुछ छात्राएं तो सामन्तवादी और पुरानी धारणाओं के प्रति इतनी कटिबद्ध होती हैं कि उनका यही मानना है कि छात्राओं को छात्रों से बात नहीं करनी चाहिए और सोशल साइट्स का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। इस अजीबोगरीब तर्क का इस्तेमाल पितृसत्तात्मक परिवारों में कैसे होता है, इसका उल्लेख हम पहले कर आये हैं।


हाल में इसी लेख को लिखते समय हमने कई छात्राओं से सम्पर्क किया ताकि वे अपने अनुभवों को बता सकें। हमारा सम्पर्क इसी दौरान ऐसी छात्रा से हुआ जिसने अजीबोगरीब चौकाने वाली बात खोली। हम सुनने के बाद अचंभित थे। हमे अब तक यही लगता था कि छात्राओं के छेड़छाड़ के मसले को रखकर हम इतिश्री कर लेंगे। लेकिन उसने हमसे इस बात का खुलासा किया कि विश्वविद्यालय में जातिगत उत्पीड़न की भी समस्या है। ऐसा नहीं है कि हम जातिवाद से अपरिचित हैं। हम बखूबी उसके स्वरुप और ढाँचे को समझते हैं। विश्वविद्यालय में बरकार सामन्तवाद ने जातिवाद की जड़ों को इतनी गहराई में उतार दिया है कि उनको समझने में हमे उसकी तह तक जाना पड़ेगा। जातिवाद का यह ढाँचा विश्वविद्यालयों में किस प्रकार काम करता है, इसके लिए हम एक स्वत्रंत अध्याय में चर्चा करेंगे।


जातिवाद ने भी नारीविरोधी मानसकिता को पनपने में भरपूर खाद परोसी है, क्योंकि इस ढाँचे के सबसे निचले पायदान पर स्त्रियां हीं होती हैं। विश्वविद्यालयों में गुरुकुल की यह व्यवस्था आरक्षण के विरुद्ध कोरे कुतर्कों का निर्माण करती है और जिससे प्रतिगामी सोच के छात्रों का जन्म होता है जो दलित छात्र-छात्राओं को हेय दृष्टिकोण से देखते हैं। उनका दृष्टिकोण अल्पसंख्यक समुदाय के समुदाय के साथ भी इसी किस्म का होता है, क्योंकि वो म्लेच्छ होते हैं! स्वर्ण छात्राओं के प्रति भी वह कोई पवित्र और पावन दृष्टिकोण नहीं अपनाते हैं।


छात्राओं को छात्रों के तुलना में सामन्तवाद-जातिवाद का शिकार अधिक होना पड़ा है। इसका स्पष्ट कारण है कि दोनों व्यवस्थाओं ने उनका स्थान पाताललोक में नियत कर दिया है और छात्राओं के मस्तिष्क में इन किस्म की धारणाएं बद्ध कर दी गयी हैं कि उनका स्थान इन सोपानों में सबसे निकृष्ट ईश्वर ने बनाया है।


लेख लिखने से पूर्व हमारी यही धारणा थी कि हम विषय 'छात्राओं की समस्या' तक केंद्रित रखेंगे। लेकिन अब ऐसा जान पड़ता है कि और भी कई समस्याएं हैं जिनका सम्बन्ध प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इस विषय से है। इस लेख में बहुत सी बातों के छूट जाने की सम्भावना है। अभी भी हमें कुछ छात्राओं के सुझाव आ रहे हैं लेकिन हम यहाँ उनका विस्तार नहीं करेंगे। हमने तय किया है कि हम सिर्फ इलाहाबाद विश्वविद्यालय ही नहीं बल्कि अन्य विश्वविद्यालयों के छात्र एवं छात्राओं के एक सी समस्याओं को विषयवार तरीके से लिखेंगे ताकि यह एक पुस्तक का रूप ले सके।


इस प्रक्रिया में हमने कई विषयों का चुनाव किया है जैसे-'छात्रायें और राजनीति', 'जाति-प्रथा की जकड़नों में हमारे विश्वविद्यालय', 'छात्रसंघ की जरूरतें'.....इत्यादि-इत्यादि।



-मोहम्मद उमर, सोनू निश्चय
(इंक़लाबी छात्र मोर्चा, इलाहाबाद)



'उन समस्त छात्राओं को धन्यवाद जिन्होंने हमारा सहयोग किया।'

Thursday, June 18, 2020

"ब्लैक लाइक मी" किताब को याद करते हुए।



आज पूरी दुनिया में 'black lives matter'  के शानदार आन्दोलनों के दृश्यों से गुजरते हुए बहुत साल पहले पढ़ी एक किताब शिद्दत से याद आ रही ब्लैक लाइक मी। 1961 में प्रकाशित इस किताब का नाम है- 'ब्लैक लाइक मी'। इसके लेखक हैं ‘जान हावर्ड ग्रीफिन’। ब्लैक्स के साथ सहानुभूति रखने वाले ग्रीफिन उनके बीच रहकर उनकी वास्तविक स्थिति जानना चाहते थे। लेकिन उनकी गोरी चमड़ी इसमें बाधक थी। इस बाधा को दूर करने के लिए उन्होने नायाब लेकिन जोखिम भरा रास्ता निकाला। यह रास्ता था – मेडिकल साइन्स के सहयोग से अपनी चमड़ी का रंग काला कर लेना और फिर कुछ समय के लिए उनके बीच बस जाना। उनके दोस्त मित्रों ने उन्हे इसके सामाजिक और शारीरिक खतरों से आगाह कराया। लेकिन वे अपनी जिद पर अड़े रहे। अंततः उन्होने कालों के बीच कालों की तरह रहकर उस जलालत और अपमान को सीधे महसूस किया जो काले लोग सदियों से सहते आ रहे थे। इसके बाद अपने इसी अनुभव के आधार पर उन्होने बहुत ही मर्मस्पर्शी किताब लिखी- ‘ब्लैक लाइक मी’।
इस किताब के माध्यम से दुनिया को जब लेखक के इस ‘प्रोजेक्ट’ के बारे में पता चला तो गोरे लोगों और काले लोगों के बीच उनके समान रुप से दुश्मन पैदा हो गये। गोरो को लगा कि कालो के बीच काले के रुप में रहकर ग्रीफिन ने सभी गोरों का अपमान किया है। दूसरी ओर कुछ काले लोगो को लगा कि ग्रीफिन ने अपना रंग छुपा कर उन्हे धोखा दिया है और उन्हे अपमानित किया है।
इसी किताब पर आधारित इसी नाम से फिल्म भी बनी है। इस फिल्म के अंतिम दृश्य में इस बहस के दौरान लेखक कहता है कि उसने यह ‘प्रोजक्ट’ सिर्फ अपने लिए किया है। उसे हक है यह जानने का कि देश की इतनी बड़ी आबादी आखिर किन स्थितियों में अपना जीवन गुजारती है।
भारत में जाति समस्या की तुलना अक्सर अमरीका के इस नस्लवाद से की जाती है। वहां के ‘ब्लैक पैंथर’ की तर्ज पर यहां ‘दलित पैंथर’ भी बन चुका है। लेकिन उपरोक्त घटना के संदर्भ में मै सोच रहा था कि क्या यहां कोई यह प्रयोग कर सकता है। यहां तो आपकी पहचान आपकी जाति से है। चमड़ी का रंग तो बदला जा सकता है लेकिन जाति कैसे बदली जायेगी। यहां तक कि धर्म परिवर्तन के बाद भी जाति का साथ नही छूटता। यानी जाति तो आप इस जनम में तो क्या सात जनम में भी नही बदल सकते। इस सन्दर्भ में एक रोचक प्रसंग संजीव के उपन्यास ‘सूत्रधार’ में आया है। भिखारी ठाकुर सपना देखते हैं कि अगले जन्म में वे ब्राहमण हो गये है और उनका खूब आदर सत्कार हो रहा है। एक जजमान के यहां से जब वे दान दक्षिणा लेकर निकल रहे थे, तभी दरवाजे तक छोड़ने आये जजमान ने भिखारी ठाकुर के कान में कुछ कहा और उस वाक्य को सुनते ही भिखारी ठाकुर की नींद खुल गयी। जजमान ने उनके कान में कहा था – ‘का हो पिछले जनम में त तू नाई रहलअ न!’

 #मनीष आज़ाद

Amita Sheereen के फेसबुक वॉल से

आकांक्षा कौशिक की कविता: विद्रोह



विद्रोह ही है आखिरी रास्ता,
उस फुलिया के लिए
जिसके साथ बलात्कार करके
उसके गुप्तांगो में पत्थर
भर दिया गया,

विद्रोह ही है आखिरी रास्ता,
उस रामलाल के लिए
जिसने नहीं खाया
पिछले कई दिनों से
एक वक्त का भी खाना,

विद्रोह ही है आखिरी रास्ता,
उस ममता के लिए,
जिसकी नन्ही बच्ची ने,
भात - भात करते दम तोड़ दिया,

विद्रोह ही है आखिरी रास्ता,
उस जनता के लिए,
जिसके जल,जंगल और जमीन को
हड़पने के लिए साम्राज्यवादियों द्वारा
प्रतिदिन नए हथकंडे अपनाए जा रहे हैं,

विद्रोह ही है आखिरी रास्ता,
उस हरखू के लिए,
जिसकी आठ साल की बेटी,
पिछले कई दिनों से लापता है,

विद्रोह ही है आखिरी रास्ता,
उन आदिवासियों और वंचितों के लिए,
जिनकी अपने ही जंगल से लकड़ी
काटने पर सत्ता द्वारा बर्बरतापूर्ण
 हत्या करा दी जाती है

विद्रोह ही है आखिरी रास्ता,
ऐसी राजसत्ता के खिलाफ,
 जिसमें  मेहनतकश वर्ग,
की कोई गिनती नही है।

© आकांक्षा कौशिक

Sunday, June 7, 2020

कविता:- मत छुओ मुझे


मत छुओ मुझे,
क्योंकि नफरत है मुझे तुम्हारे "पुरूषत्व" से,
वो पुरूषत्व जो तुम्हें हर बार इंसान बनने से रोक देता है,
और जिसने तुम्हारी बुद्धि पर भी अपना आधिपत्य पा लिया है,

मत छुओ मुझे,
क्योंकि गंदी है तुम्हारी आत्मा और अपवित्र है तुम्हारा देह,
वही देह जिसकी लालसा के लिए हर रोज़ न जाने कितनी औरतों का गला घोंट देते हो,

मत छुओ मुझे,
क्योंकि जब भी मैं तुम्हारी आँखों में देखती हूँ तो हर वो स्त्री का चेहरा नज़र आता है,
जिसे हर रोज न जाने तुम जैसे कितनो का सामना करना पड़ता है,

मत छुओ मुझे,
क्योंकि खोट सिर्फ तुम्हारी निगाहों में ही नहीं बल्कि तुम्हारी जुबान में भी है,
वही जुबान जिसने न किसी नवजात बच्ची को छोड़ा और न ही किसी बूढ़ी औरत को,

मत छुओ मुझे,
क्योंकि नहीं रही मैं तुम्हारी पत्नी,न बहन,न माँ और न ही कोई प्रेमिका,
तोड़ दिया है मैने वो तमाम बन्धन जिसकी नसीहत देकर तुम मुझे हर बार बांध देते थे मोह,मर्यादा तथा रिश्तों के जाल में,
अब मैं आज़ाद हूँ,
हाँ मैं आज़ाद हूँ।



- आकांक्षा कौशिक
  (बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं और सामाजिक- राजनीतिक कार्यकर्ता हैं)

Saturday, June 6, 2020

पुस्तक परिचय : एक था डॉक्टर एक था संत


यह लेख इस पुस्तक की संक्षिप्त समीक्षा है, जो बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के शोध-छात्र विनय संघर्ष द्वारा लिखी गई है। जिसमे अरुंधति ने कुछ ज्यादा लिखा नहीं है बल्कि एक एंकर की भूमिका के तौर पर गांधी और अम्बेडकर के विचारों और कामों को आमने सामने रखती है।

'एक था डॉक्टर एक था संत' चर्चित लेखिका अरुंधति राय की पुस्तक "The Doctor and the Saint" का हिंदी अनुवाद है। इसका अनुवाद अनिल यादव 'जयहिंद' व रतनलाल ने किया है। यह पुस्तक मूलतः दलित समस्या को लेकर उनके द्वारा किये गए प्रयास व आपसी संवाद को केंद्र में रखकर लिखी गई है। इसके अतिरिक्त सरकारी व निजी संस्थाओं पर ऊँची जाति के वर्चस्व,स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान लगभग सभी शीर्ष नेताओं द्वारा आदिवासियों के मुद्दे को सही संदर्भो में समझ न पाना,जैसे बिन्दुओं को भी पूरी तथ्यात्मकता व प्रमाणिकता के साथ बताती है।एक-एक करके गाँधी के विषय में उन सभी भ्रमों को अरुंधति तोड़ती हैं जो कि उन्हें दलितों,स्त्रियों का उद्धारक व आज़ादी का सबसे बड़ा सिपाही बताती है।
      गाँधी के बारे में सबसे बड़ा भ्रम यह है कि वह दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों के लिए रंगभेद-नस्लभेद के खिलाफ एक लम्बी लड़ाई लड़े। वास्तविकता यह है कि गाँधी अश्वेत अफ्रीकियों को छोड़ वहाँ के "पैसेंजर इंडियन्स (भारतीय व्यापारी वर्ग) के लिए लड़े। यहाँ तक की गाँधी ने वहां के ' इंडियंस इनदैचर्ड '(भारतीय बंधुआ मजदूर) को भी पैसेंजर इंडियनस से अलग मानते हुए इन भारतीय बंधुआ मजदूरों को अशिक्षित व नैतिक रूप से पतित माना। एंग्लो बोअर युद्ध में लाखों शोषित जन प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्तियों के द्वारा मारे गए। इस युद्ध में गाँधी ने पैसेंजर इंडियंस का नेतृत्व करते हुए स्थानीय लोगों के खिलाफ अंग्रेजों का साथ दिया। इसके पीछे गाँधी का तर्क था कि हम ब्रिटिश उपनिवेश के अंग हैं। इसलिए हमारा नैतिक कर्त्तव्य है कि हम अंग्रेजो का साथ दें।
भारत आने पर गांधी दलितों के स्वयंभू उद्धारक बनने की कोशिश करते हैं और इसी विषय पर आंबेडकर से उनका टकराव होता है। गाँधी जाति की समस्या को हल करते हुए उसकी पूरी सामाजिक संरचना(वर्णव्यवस्था) को बनाये रखना चाहते हैं वहीं अंबेडकर अंतरजातीय विवाह की बात कर सर्वप्रथम इस संरचना को तोड़ने पर बल देते हैं। गाँधी एक ही समय में तीन पत्रिकाएँ निकालते थे। जिसमें हिंदी में हरिजन,गुजराती में नवजीवन और अंग्रेजी में यंग इंडिया थी। अपने गुजराती पत्रिका में वो सबसे ज्यादा रूढ़ थे वही "यंग इंडिया" में सबसे ज्यादा प्रगतिशील दिखने की कोशिश करते थें। ऐसा गाँधी इसलिए करते थे क्योंकि यंग इंडिया से उनकी वैश्विक छवि बनती थी। आंबेडकर गाँधी के इन विरोधाभासों को सूक्ष्मता के साथ अवलोकन कर रहे थे और इसे गाँधी द्वारा दलित समुदाय से किया गया अपराध व धोखा बताते हैं।
          जाति की समस्या को वर्ग विश्लेषण द्वारा हल करने वाले मार्क्सवादी विचारकों को भी अरुंधति कटघरे में खड़ा करती हैं और इस विश्लेषण के पीछे विशेषाधिकार प्राप्त उच्च जातियों का सुनियोजित षड्यन्त्र बताती हैं। आखिर वे कौन से कारण हैं कि पश्चिमी आधुनिकता व पूंजीवाद के खतरे को भापते हुए भी गाँधी बिडला जैसे पूंजीपतियों के साथ खड़े होते हैं ? गीता को जहां गाँधी ने अपना आध्यात्मिक शब्दकोष माना हैं वही अंबेडकर ने गीता को हत्यारों का ग्रंथ बताया है- ' हत्या के पक्ष का ऐसा बचाव किया गया है जो कभी देखा न सुना '।
          1931 में लंदन में आयोजित दूसरे गोलमेज़ सम्मलेन में गाँधी आम्बेडकर के सामने हुए तो उन्होंने आंबेडकर के दलित प्रतिनिधित्व को अस्वीकार किया वहीं पूना पैक्ट समझौते में वे आंबेडकर के दलित प्रतिनिधित्व को स्वीकार कर उनसे हस्ताक्षर करवाने के लिए मजबूर होते हैं।
       गाँधी का सत्याग्रह,आत्मयाचना,आत्मपीडा और शुद्धि के आहार विधान के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। अपने इस सत्याग्रह के प्रयोग में वह दूसरे को शारीरिक व मानसिक कष्ट देने भी नहीं हिचकते हैं। गांधी से स्वतंत्रता आन्दोलन से महिलाओ को जोड़ा तो जरूर पर उनके लिए एक सीमा भी निर्धारित की कि वह स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान पितृसत्ता के सुदृढ़ किले को कभी कोई ठेस न पहुँचाने पाए। सन् 1915 में जब गाँधी भारत लौटते हैं तो जी.डी.बिडला ने अपने स्वार्थसिद्ध के लिए कलकत्ता में गाँधी के भव्य स्वागत समारोह का आयोजन किया और भारत में गाँधी का मुख्य संरक्षक व प्रायोजक बन गया। यह गठजोड़ वर्तमान के कोर्पोरेट प्रायोजित स्वयंसेवी संगठनों की अग्रदूत थी। सन् 1921 में जब मजदूरों और किसानों ने भारतीय जमीदारों के खिलाफ विद्रोह किया तो गाँधी जमीदारों के साथ खड़े होते हैं। गाँधी ने वाल्मीकि समाज को भी दिक्भ्रमित करने की भी कोशिश की और पखाना साफ़ करने को आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति बताया। गाँधी वाल्मीकि समाज के साथ भोजन करने से भी कतराते थें। गाँधी के इस छल-छद्म को समझकर वाल्मीकि समाज भी आम्बेडकरवाद की शरण में चले गए जो गाँधी से इन मुद्दों पर सदैव संघर्ष करते हैं।
      आदिवासियों के पृथक निर्वाचन मंडल को लेकर आम्बेडकर से जो गलती या भूल हुई उसकी चर्चा करते हुए अरुंधति कहती हैं कि आदिवासियों के प्रति अंबेडकर के इन विचारों के कारण ही सन् 1950 में भारतीय संविधान में राज्य को आदिवासियों की जमीनों का संरक्षक बना दिया गया और इस तरह आदिवासी अपने ही देश में गुलाम हो गये। उनके सभी संसाधनों पर  राज्य का कब्ज़ा हो गया। इस पूरे घटनाक्रम ने आदिवासियों की आजीविका व गरिमा उनसे छीन ली।
    साम्प्रदायिकता की खाई को पाटने में गाँधी का बहुत बड़ा योगदान है इससे इनकार नहीं किया जा सकता है पर गाँधी ने करोड़ो लोगों की कल्पनाशक्ति को नियंत्रित कर उनकी चेतना को कुंद कर दिया। वहीं आम्बेडकर करोड़ो लोगों को ब्राह्मणवादी गुलामी से मुक्ति दिलाने में सफल रहे और आजादी को उसके सहीं संदर्भों में समझने की कोशिश की। तथ्यों की प्रमाणिकता से यह किताब बहुत ही महत्वपूर्ण है। गाँधी और आंबेडकर पर शोध कर रहे छात्र-छात्राओं के लिए यह एक महत्वपूर्ण किताब है।इस पुस्तक ने गाँधी और आंबेडकर को लेकर बौद्धिक जगत में एक नई बहस छेड़ी है। इस बहस में हर उस व्यक्ति को शामिल होना चाहिए जो आजादी के इतने वर्षों के बाद भी  ब्राह्मणवादी तंत्र से उत्पन्न शोषण, अन्याय व अत्याचार के कारणों को उसके सहीं संदर्भों में समझना चाहता है। 

-विनय संघर्ष
शोध छात्र,बीएचयू।

Friday, June 5, 2020

The Gendered Aspects of the Covid-19 Lockdown





- Written by Radhika 
(Post Graduate student at
Banaras Hindu University)


 The recent Covid-19 pandemic has not only brought the whole world at a standstill, but it has also clearly exposed the loopholes, and the exploitative and inept nature of the modern ‘capitalist democracies’. In India, the government has failed to provide adequate food, shelter, transportation etc for the poor, needy, and the daily wage workers during this lockdown which has robbed them of livelihood, and in many cases, of life too. Even on the medical front, they have failed to stop the initial spread of the virus due to shockingly low testing rates, along with shortages in personal protective equipments for medical professionals. 

Another major aspect of the lockdown that has been ignored and brushed under the carpet by families, communities, media and the governments is that of the gendered aspects of the lockdown.
Gender discrimination, violence and control are a reality of our far from perfect society. People from all genders can be a victim of these. But, it is important to understand that gender related discrimination, violence etc are all gender asymmetrical issues, i.e. some genders have it much worse than the others when the overall population and trends are taken into account. In the aforementioned aspect, women and non-binary genders, in general, suffer significantly more than men. It is majorly due to the prevalence of patriarchal ideas that exist in the society, which put men on a supposed pedestal and keep the remaining genders subordinate to men. 

It is not like prior to the lockdown these issues were not rampantly heard of, or were under control, but this lockdown has only uncovered the undeniable realities of our predominantly male-dominated society even more vividly. Due to the lockdown, women across the country are facing the ‘not so serious’ problems of increasing domestic work load with unfair or no distribution of the chores amongst the family members; the women who are employed and can work from home are struggling to maintain the balance between the household work and their jobs, again because of unfair distribution of household duties. The lockdown will only increase the burden on women, since they already do three times as much unpaid care work for the family than men. In India, it is 9.8 times more in regular times (findings by NITI Aayog, 2017), only to increase during this crisis when the whole family will be under the same roof all day long for days to come.


The plight of migrant workers only worsened due to the poorly planned and executed lockdown, which forced them to return to their native places on foot since all means of transportation such as buses and trains were stopped after the lockdown began. Thousands and lakhs of workers were stranded in different parts of India. Several of them began the journeys to reach home on foot, with their scarce belongings, some with their families and children, some with unborn children. While men suffered too, women had it worse with many pregnant and menstruating women left with no option but to walk hundreds of kilometres in scorching summer heat, with limited food and water. Some women had to give birth to their new born on the roadside, and again continue walking without any post natal care. Their horrifying ordeals couldn't open the eyes of the privileged Indian citizens and the apathetic government. The countless injustice faced by workers due to this lockdown is unimaginable. A poor attempt to cover up the mess by the government by extending 'help' to them in terms of food and shelter, only seems to be a hollow attempt to appease the media and their supporters. There have been several report and even more unreported deaths of workers due to the consequences of the chaotic lockdown.

The unprecedented nationwide lockdown has also led to significant rise in poor mental health of people, with women and the non-binary genders being affected more. While the stress of losing jobs, and uncertain future is bothering people from almost all walks of life, women are having it way worse not just because of the wage gap or losing more jobs than men, but also because of increasing work load at home, facing persistent discrimination at the hands of family members or intimate partners. With women having to share their space with others 24*7, a lot of them are also being subjected to domestic violence, marital rape, mental abuse etc. Imagine living around your perpetrator continuously, for days, with no way to escape or even lessen the hours spent around the perpetrator! Reports from all across the country have clearly shown a spike in the number of cases of domestic violence that have been reported, let alone the cases that have not reached the police (which make the majority of the cases). The Queer community, for the longest time, has been stigmatised and ostracised. A lot of them depend on support systems that lie beyond the boundaries of their homes and families, since families aren't a safe space for them for the same reasons. The lockdown has resulted in severing these support systems, while they remain stuck with, or are forced to return to judgemental and oppressive families or neighbourhoods. This has led to mental breakdowns, depression and loneliness in a lot of members of the community.


As mentioned above, domestic violence against women is on an all time rise. This is not just India’s story. This pandemic has resulted in the ‘pandemic’ of gender based violence. A lot of people argue that the increase in domestic violence is because of the mounting pressure on men to feed their families and pay rents in these times of job losses, no way to vent out the frustration, for many, no access to alcohol and cigarettes, no change of the physical environment with limited access to means of recreation. However, are these factors the real reasons behind men turning violent? While these factors often act as triggers, the real reason behind the problem is the idea that a man can, and often, should hit women; the idea that women are subordinate, and need to be controlled, even if it mean using violent measures. The real reason is P-A-T-R-I-A-R-C-H-Y, Patriarchy.  Data from the National Family Health Survey (2018) reveals that 42% of men agree with the idea of violence against spouse. The data is sufficient to suggest that a lot of women are victimised within the boundaries of their homes. This data does not encompass sexual violence and marital rape inside homes. In fact, marital rape isn’t even a crime in India, giving men a free pass, legally and socially speaking, to have sex with their partners regardless of consent. The lockdown has only made things worse for most women. They have limited options to even report these crimes, because of which they are majorly unreported.

The Lockdown and the resulting social distancing measures have crippled the economy.  Companies and organisations are firing people. Workers in the unorganised sector are not getting work to do and therefore, no salaries either. The vulnerable sections of the society are again suffering more, economically. Women are often employed in low paying, part-time, feminised jobs, more so in the informal sector even though the problems of wage gap and preference for male employee over female exist in the formal sector as well. Women, in most of the sectors, are more likely to lose their jobs as compared to men, during this lockdown. The reasons are many, including the sectors that have been affected the most (education, hospitality, travel, etc, as well as low paying jobs of the unorganised sector such as that of household help, which are mostly feminised jobs with women out numbering men) and preference for retaining male employees over female employees (mainly due to gender related prejudices and stereotypes). Despite the fact that the loss of livelihood is stressful for everyone, financial independence often means a lot more to women than just being able to feed themselves and their families. Being financially independent, to an extent, loosens the shackle of patriarchal controls they are bound by. It opens the doors for them to lead an independent life, if they choose to, away from incompatible or abusive partners. In many cases, financial independence leads them to escape the torment of their perpetrators, or even seek legal justice for the wrongs done to them. Losing jobs during this lockdown closes this scope for women who have been left unemployed, may be temporarily and some, permanently.

A very possible aftermath of the lockdown can be young girls dropping out of schools, majorly in the poorer sections of the society which will be left with even scarce monetary resources by the end of the lockdown. This may result in families deciding to educate only their sons, since sons are traditionally considered to be the future bread-winners for families.

Problems are many, and most of them don’t really have immediate or easy solutions. It takes years to unlearn notions that have existed for centuries, and uproot the entire problematic system. The lockdown greatly reduces the chances of bringing about solution oriented changes, as it cuts down on setting up discourses on these issues. However, we would still like to make the most out of this situation, and suggest little solutions for the short and the long term that can bring some difference.

For mental distress and other mental health issues, try consulting a psychologist. There are several online platforms, some paid and some unpaid, that can help with getting psychological help. Try meditating to break the chain of suffocating and negative thoughts. In cases of gendered conflicts at home where there is a risk of the other person turning violent, try not to engage much with the person. Avoid talking much and if conditions allow, maintain ‘social distance’ from the perpetrator within the household for as long as possible. It is best to report incidents of domestic violence, and to try to seek help from close friends and family who are trustworthy, although this is often not a practical solution for a lot of women and non-binary genders due to the fear of further physical and mental harm and losing the little financial support they have. In such cases cutting down interaction as much as possible can help in survival till situations conducive for seeking help and justice don’t arrive. There are some organisations that extend protection and provide shelter homes to the victims of domestic violence. If the situations of a household are not verbally and physically abusive, it is vital for women to take a stand, tell the family about their problems, try and distribute household chores to other family members to remove the burden off their shoulders. These are all short term solutions that might or might not be affective in the longer run. These solutions are mostly possible only for people who have some previledges like adequate finances, proper shelter with enough space, access to other resources like mobile, internet etc. Basically, only people who are in the middle class or above can afford trying these solutions. 


The underprivileged people, the have nots, the lower classes will actually never be able to come out of their disadvantaged lives because of the exploitative social, political and economic system. Only uprooting the existing system  and replacing it with a just and egalitarian system will result in the desired equal and equitable society. To bring about a revolutionary change, it is important that the masses and the oppressed become aware of the problems and their consequences, and desire change. This  requires  long term solutions including systematic gender sensitisation in every possible way, be it through educational institutions, media platforms, activism, campaigns, organisations and individual interactions. It is essential to keep the discourse alive, to keep talking to about patriarchy, gender discrimination, misogyny, transphobia, etc, and the ill effects they have on women and the non-binary genders who too are humans.

Thursday, June 4, 2020

पर्यावरण बचाने की लड़ाई,जल-जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई के बिना अधूरी है!






आज विश्व पर्यावरण दिवस है।

भारत मे पर्यावरण को बचाने की वास्तविक लड़ाई 
यहां के आदिवासी लड़ रहें हैं।

भारत में जल-जंगल-जमीन को बचाने की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लड़ाई लड़ने वाले सभी साथियों को हूल जोहर!
इंक़लाबी सलाम!

दूसरी तरफ भारतीये राज्य लगातार जल-जंगल-जमीन का दोहन कर रही है।

देश दुनिया की नज़र भारत के जंगलों में दबे हुए अकूत संसाधन पर लगी है। जिसको बड़े से बड़े साम्राज्यवादी देश उसको किसी भी कीमत पर लूटना चाहते हैं।

भारतीये सरकार देशी विदेशी कंपनियों को आमंत्रित कर मध्य भारत के गर्भ में जो संसाधनों उसको औने पौने दामों में बेच रही है।

संसाधनों की लूट अनवरत जारी रखने के लिए मध्य भारत मे सेना और अर्धसैनिक बल तक को लगा दिया गया है।

जो सेनाएं देश के बॉर्डर पर होनी चाहिए थी आज उनको अपने ही नागरिकों के खिलाफ़ खड़ा कर दिया गया है।

भारतीये सरकार देश के आदिवासियों के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए है और देश की जनता से इसको छिपा भी रही है।
क्योंकि इसका सीधा फ़ायदा और मुनाफा सरकार और बड़ी बड़ी कंपनियों को जाता है।

आज जो मध्यभारत में संसाधन है उसको आदिवासियों ने हज़ारो सालों से सहेज कर रखा हुआ है। जहां उसके पूर्वज बाहरी लुटेरों से हमेशा इसकी रक्षा करते आये हैं और आज भी कर रहे हैं।

जिसमे बिरसा मुंडा,सिद्धू-कानू, गुंडाधुर, तिलका मांझी आदि का नाम सर्वोपरि है।

पर्यावरण बचाने की लड़ाई बिना जल-जंगल-जमीन को को बचाने की लड़ाई लड़े बिना मुक़म्मल नहीं हो सकती है।

और इस लड़ाई को सबसे बड़े स्तर पर लड़ने वाले मध्य भारत के आदिवासी ही हैं।


इसलिए इन पर्यवरण से अथाह प्रेम करने वाले आदिवासियों के लिए आवाज़ उठाने वाले और उनके अधिकारों के लिए लड़ने वालों बुद्धिजीवियो और कार्यकर्ताओं को जेलों में डाला जा रहा है ताकि कोई भी आदिवासियों की लड़ाई को समर्थन न करे और संसाधनों की लूट जारी रहे।

इसलिए आज हम सभी जो सच्चे अर्थों में पर्यवारण से प्रेम करते और इस धरती को हरा-भरा देखना चाहते हैं। उनको चाहिए कि वो इन जल-जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई के साथ खड़े हों।

हूल जोहर!!
जल-जंगल- जमीन कि लड़ाई ज़िन्दाबाद!!



Tuesday, June 2, 2020

भगत सिंह छात्र मोर्चा का बयान पिंजरातोड़ के साथियों के गिरफ्तारी के सम्बंध में!



दिल्ली में नारीवादी संगठन पिंजरातोड़ के साथियों की गिरफ्तारी जिस तरह से फर्जी आरोप लगाकर की गयी है वह कोई नहीं बात नही है। एक तरफ दिल्ली में साम्प्रदायिक दंगे भड़काने वाले अनुराग ठाकुर और कपिल मिश्रा खूलेआम घूम रहे हैं, उनके ऊपर आजतक कोई कार्यवाही नहीं हुई है, वहीं महिलाओं, अल्पसंख्यकों, दलितों, मजदूरों आदि के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए काम करने वाले लोगों को फर्जी आरोप में फंसा कर जेल भेजा जा रहा है।
          उधर लॉकडाउन में गरीब मजदूर महिलायें-बच्चे हजारों किलोमीटर भूखे प्यासे पैदल चल रहे हैं। उनके ऊपर जहरीला केमिकल छिड़का जा रहा हैं, पुलिस लाठियां मार रही है,
सैकड़ो मजदूर रास्ते में दम तोड़ दे रहे हैं।
इन परिस्थितियों में फासीवादी भाजपा सरकार व भारत की व्यवस्था का अमानवीय और क्रूर चेहरा बेनकाब हो गया है। जो स्पष्ट रूप से गरीब, मजदूर, दलित, महिला और छात्र विरोधी है! 
इसी लॉकडाउन में श्रम कानूनों को खत्म कर दिया गया है ताकि पुंजीपतियों को मजदूरों का खून चूसकर देश के संसाधनों को लूटने की खुली छूट दिया जा सके। जनता को कोरोना से बचाने के नाम पे उनके हक-अधिकार छीने जा रहे। 

भगत सिंह छात्र मोर्चा पिंजरा तोड़ की सदस्य व नारीवादी कार्यकर्ता देवांगना और नताशा सहित सभी राजनीतिक कार्यकर्ताओं के गिरफ्तारी का विरोध करता है तथा उनकी अविलंब रिहाई की मांग करता है। हम इन सभी साथियों के साथ अपनी एकजुटता रखते हैं।

BCM  सभी छात्र-छात्राओं,नौजवानों- युवाओं से आह्वान करता है कि एकजुट होकर इस दमनकारी  सरकार व व्यवस्था के खिलाफ क्रान्तिकारी संघर्ष के लिए आगे आयें। संगठित होकर मजदूरों, गरीबों, अल्पसंख्यकों, दलितों के ऊपर हो रहे सरकारी दमन के खिलाफ संघर्ष में शामिल हों।

इंकलाब जिंदाबाद!!


24 मई 2020

कविता ; तुम हमारे कवि हो!




वरवर राव
तुम हमारे कवि हो
जनता के कवि हो
और हमें तुमको बचाना है।

क्योंकि तुमको बचाना
सभ्यता को बचाना है
तुमको बचाना
संस्कृति को बचाना है
तुमको बचाना
इंसानियत को बचाना है
तुमको बचाना
दुनिया को बचाना है।

 सवाल उठता है कि
साहित्यिक अकादमियों के कवि
क्यों नहीं लिखते हैं
तुम्हें बचाने के लिए,

क्यों नहीं आवाज़ उठाते हैं
तुम्हारी रिहाई के लिए,

क्यों नहीं सड़क पर आते हैं
तुम्हारी आज़ादी के लिए

क्योंकि इनमें और तुममें
ज़मीन-आसमान का फर्क है

तुम लिखते हो
दुनिया को सुंदर बनाने के लिए,
वो लिखते हैं
अपनी दुनिया को सुंदर बनाने के लिए

तुम लिखते हो
शोषण के खिलाफ संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए,
वो लिखते हैं
खुद की पहचान बनाने के लिए

तुम लिखते हो,
क्योंकि तुम्हारा लिखना संघर्षो को लिखना है,
वो लिखते हैं,
क्योंकि उनका लिखना
पुरस्कार पाने के लिए है,

वरवर राव,
तुम्हारी रिहाई के लिए
हम लिखेंगे
जो जानते हैं तुम्हारे लिखने के महत्व को

हम लिखेंगे कि
तुम आज शरीर से इतने बुजुर्ग हो गये हो
फिर भी सत्ता तुमसे काँपती है
वो डरती है तुम्हारी कलम से
वो डरती है तुम्हारी मुस्कान से
वो डरती है तुम्हारी मेधा से

लेकिन एक तुम हो
जो नहीं डरते हो
इन जेलों से
फ़र्ज़ी मुकदमों से
यातनाओं से।

क्योंकि तुमने जान लिया है
दुनिया के सबसे सुंदर लक्ष्य को
जिसका नाम है
 इंक़लाब !

हाँ वही इंक़लाब,
जहां बिना जेलों की सरकार चलाई जाएगी
जहाँ न जुर्म होगा
न होगा
मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषण।


इसलिए हमें तुमको बचाना है
जनता के कवि को बचाना है
जनता को तुम्हारी जरूरत है।

:- अनुपम
2 जून 2020

सीएए-विरोधी कार्यकर्त्ताओं की जनतांत्रिक आवाजों पर दमन के ख़िलाफ़ देशव्यापी प्रदर्शन

सब याद रखा जाएगा: सीएए-विरोधी कार्यकर्त्ता व प्रतिवाद की जनतांत्रिक आवाजों पर दमन के ख़िलाफ़ देशव्यापी प्रदर्शन*

_*3 जून, 2020, दोपहर 12 बजे*_




पिछले दो महीनों में दिल्ली पुलिस ने जामिया के छात्र सफूरा जरगर, मीरान हैदर, आसिफ इकबाल तन्हा, जेएनयू की छात्राएं नताशा नरवाल और देवांगना कलिता व इशरत जहां, खालिद सैफ़ी, गुलफिषा फातिमा, शर्जील इमाम,शिफा उर रहमान जैसे कार्यकर्त्ता और अन्य सैकड़ों मुस्लिम युवाओं को गिरफ्तार कर लिया है। इनमें से कुछ पर संशोधित यूएपीए के तहत कार्यवाही चलाई जा रही है। यह दमन पिछले साल दिसंबर में देश भर में सीएए-एनआरसी के खिलाफ उभरे व्यापक विरोध प्रदर्शनों को दंडित करने के उद्देश्य से किया जा रहा है। हाल ही में एएमयू के छात्र फरहान जुबैरी और रवीश अली खान को यूपी पुलिस ने सीएए के विरोध प्रदर्शनों में भाग लेने के लिए गिरफ्तार किया है। यह स्पष्ट है कि अभी गिरफ्तारियों का सिलसिला खत्म नहीं हुआ है और इस लंबी सूची में अन्य कई लोकतांत्रिक कार्यकर्ताओं के नाम जोड़े जाने की संभावना है। इस बीच शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के खिलाफ खुलेआम हिंसा भड़काने वाले कपिल मिश्रा, परवेश वर्मा और अनुराग ठाकुर जैसे लोग बिना किसी कार्यवाही निर्भीक घूम रहे हैं। 

यह स्पष्ट है कि सत्तारूढ़ ताकतें, किसी भी सामाजिक आंदोलनों के साथ बातचीत करने से इनकार करते हुए, सभी प्रतिवाद की आवाज़ों को बर्बर राज्य दमन और काले कानूनों के उपयोग से चुप करना चाहती है। इससे पहले, सरकार ने भीमा कोरेगांव मामले के बहाने कई लोकतांत्रिक-अधिकार कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों को अपनी गिरफ्त में लिया है और उनके खिलाफ कार्यवाही चला रही है। इसी तरह असम में सीएए-विरोधी कार्यकर्ता अखिल गोगोई को यूएपीए के तहत आरोपित किया गया है, और बिट्टू सोनोवाल, मानस कुंअर, धज्जो कुंअर और कई अन्य आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर प्रताड़ित किया जा रहा है। ऐसे समय में जब सरकार की ऊर्जा और संसाधन हज़ारों लोगों की जानें लेने वाले और लाखों आजीविकाओं को नष्ट करने वाले विशाल स्वास्थ्य संकट और विनाशकारी पैमाने की आर्थिक मंदी से लड़ने में लगाई जानी चाहिए, तब सरकार द्वारा अपने सारे प्रयास प्रतिवाद की आवाजों को दबाने और छात्रों और जनतांत्रिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने में लगाना राज्यसत्ता के गलत इस्तेमाल का शर्मनाक प्रदर्शन है।

मुसलमानों, दलितों, आदिवासियों, श्रमिकों, महिलाओं और सभी हाशिए के समुदायों की नागरिकता पर हमले के खिलाफ लोकतांत्रिक संघर्ष में भाग लेने वाले सीएए-विरोधी कार्यकर्ताओं पर चलाया जा रहा हमला पूरे सीए-एनआरसी-एनपीआर आंदोलन को ध्वस्त करने का व्यवस्थित प्रयास है। यह सरकार की सांप्रदायिक और जनविरोधी नीतियों की मिसाल है, जो अपने नागरिकों के लिए उपलब्ध सभी संवैधानिक सुरक्षाओं को ख़तम करने में लगी हुई है। ऐसे दमन के ज़रिए यह सरकार प्रतिवाद करने वालों का उदाहरण बना कर दूसरों को भी चुप कराना चाहती है। आज श्रम कानून ध्वस्त किए जा रहे हैं, शैक्षणिक संस्थान दुर्गम बन रहे हैं, बेरोज़गारी समाज में अभूतपूर्व स्तर तक पहुँच रही है और श्रमिकों, अल्पसंख्यक और हाशिए पर रहने वाले समुदायों, महिलाओं और छात्रों के खिलाफ हिंसा लगातार बढ़ रही है। ऐसे में इस देश के लोगों को इस दमनकारी शासन को एक आवाज़ में चुनौती देनी होगी!

*लोकतांत्रिक आवाजों पर राजकीय दमन के विरोध में शामिल हों!*

*हम सभी से अपील करते हैं कि वे अपने संबंधित परिसरों या क्षेत्रों में शारीरिक दूरी के मानदंडों को बनाए रखते हुए विरोध प्रदर्शन आयोजित करें।*

*सीएए- विरोधी आंदोलन के सभी कार्यकर्ताओं को रिहा करो!*

*प्रतिवाद की लोकतांत्रिक आवाजों पर दमन के बजाय प्रवासी श्रमिकों और मेहनतकश जनता की दुर्दशा पर तत्काल ध्यान दो!*

*दिल्ली हिंसा के असली अपराधियों को गिरफ्तार करो!*

*सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करो!*

*CAA-NRC-NPR को रद्द करो! यूएपीए को रद्द करो!*

*सीएए-विरोधी कार्यकर्ताओं के दमन के ख़िलाफ़ 

आवामी एकता*




*Signatory organizations of the Nationwide Protest call*

Ahmedabad against CAA-NRC-NPR
All India Central Council of Trade Unions (AICCTU)
All India Democratic Student Organisation (AIDSO)
All India Democratic Youth Organisation (AIDYO)
All India Forum for Right to Education
All India Mahila Sanskritik Sangathan (AIMSS), Gujarat
All India Peoples' Forum, (AIPF) Bangalore
All India Progressive Women’s Association
All India Queer Association  
All India Revolutionary Student Organisation 
All India Student Association (AISA)
All India Student Federation (AISF) 
Ambedkar Periyar Phule Study Circle, IIT Bombay
Ambedkar University Delhi Students' Council
Anhad, Delhi
अनुदानित शिक्षा बचाव समिती
Anweshan
Asansol Civil Rights Association 
Association For Democratic Rights, Punjab
AUD Queer Collective
Automobile Industry Contract Worker Union, Haryana
Bandi Mukti Committee, West Bengal 
Bebaak Collective 
Bebaak collective, Uttarakhand
Bengaluru Collective
Bahujan Samajwadi Manch
Bhagat Singh Ambedkar Student Organisation (BASO), JNU
Bhagat Singh Chhatra Ekta Manch, (BSCEM) DU 
Bhagat Singh Chhatra Morcha, (BCM) UP 
Bharat Bachao Andolan, Maharashtra
Bharatiya Muslim Mahila Andolan
Bhim Army Students’ Federation, (BASF)
Campus Front of India (CFI)
Celluloid - The film society, Azim Premji University
Chaitanya Mahila Sangam, Telangana 
Chhatra Ekta Manch, Haryana
Chhatisgarh Mukti Morcha - Mazdoor Karykarta Samiti, Chhatishgarh
Chhatisgarh Mahila Adhikar Manch
COLLECTIVE, Delhi 
CONFLUENCE, IISER Mohali
Dakha, Punjab
Dayar i Shauq Students Charter (DiSSC), JMI 
Dalit Human Rights Defenders Network, Gujarat
Dalit Lekhak Sang
Democracy Collective, Haryana
Democratic Teachers Front
Democratic Students Association (DSA), Kerala
Democratic Students Federation (DSF), JNU
Democratic Students Organization (DSO), Punjab
Democratic Students Union (DSU), DU
Democratic Students Union (DSU), Telangana
Disha Student Organisation 
Faculty Feminist Collective, Delhi
Feminists in Resistance, Kolkata
Forum Against Oppression of Women (FAOW), Maharashtra
Fraternity Movement of India
Free Speech Collective
Friends foundation
Grameen Mazdoor Union, Bihar
Gujarat Federation of Trade Unions
Gujarat Mazdoor Sabha
Hasratein: A Queer Collective, JNU
Humanist Rationalist Organisation, Odisha
Hum Bharat Ke Log, Bombay
Human Rights Law Network (HRLN)
Hundred Flowers Group, JNU
Indian Federation of Trade Unions (IFTU)
Indian Federation of Trade Unions (IFTU) Sarwahara
Indian Federation of Trade Union, Odisha
Indian Social Action Forum, (INSAF) Gujarat
Inquilabi Chhatra Morcha, Allahabad
Inquilabi Kender, Haryana 
Inqlabi Kendra, Punjab
Inquilabi Mazdoor Kendra (IMK)
Jamia Coordination Committee 
Janaadhikaara Sangharsha Parishath 
Jana Hastakshep, Delhi
Jagori, Dharamshala
Jan Jagran Shakti Sangathan, Bihar
Jan Sanskritik Manch
Jan Sangharsh Manch Haryana
Jan Sangharsh Manch, Gujarat
Janwadi Mahila Samiti (AIDWA, Delhi)
Jharkhand Nagrik Prayas
Jawaharlal Nehru University Students Union (JNUSU)
Karnataka Jana Shakthi
Karnataka Vidhyarthi Sangathan (KVS)
Kisan Adivasi Sanghatan
Kisan Sangharsh Samiti
Karnataka Shramika Shakthi
Krantikari Naujawan Sabha (KNS)
Krantikari Yuva Sanghatan (KYS) 
Laali Guraas Collective, Darjeeling (WB)
LABIA - A Queer Feminist LBT Collective, Maharashtra
Lawyers Against Atrocities 
Lok Kala Manch, Mullanpur 
Lok Shikshak Manch
Madhya Pradesh Mahila Manch
Mahila Mukti Morcha, Chhatisgarh
Mazdoor Samanvay Kendra
Mazdoor Sahyog Kendra
Minority Coordination Committee, Gujarat
Mazdoor Kranti Parishad (MKP), WB
Marxist Student Federation, Jharkhand
Muktiwadi, Maharashtra
Muslim Students Federation (MSF)
Muslim Youth League
Naavu Bhratheeyaru, Bangalore
National Alliance of People's Movements (NAPM)
National Federation of Indian Women (NFIW)
Nagrika Sammukhya, Odisha
National Hawker Federation
National Peace Group, Gujarat
Naujavan Bharat Sabha
New Socialist Alternative, Maharashtra
New Socialist Initiative, (NSI)
New Trade Union Initiative (NTUI)
North East Students Forum, JNU
Parivartankami Chhatra Sanghatan (Pachhas)
People’s Union For Civil Liberties (PUCL)
Pinjra Tod, Delhi
Pragatisheel Lekhak Sangh
Pragatisheel Mahila Ekta Kendra 
Pragatisheel Mahila Sangathan
Prantojon
Progressive and Democratic Students Community, AUD
Progressive Democratic Students Federation (PDSF)
Progressive Democratic Students Federation (PDSF), WB
Progressive Democratic Students Union  (PDSU)
Progressive Democratic Students Union  (PDSU), AP, Telangana
Progressive Democratic Youth Federation (PDYF)
Progressive Organisation For Women (POW), Telangana
Progressive Student Front, Haryana
Punjab Student’s Union (PSU)
Radical Study Circle, TISS Mumbai
Rajiv Gandhi University Research Scholars’ Forum
Rashtriya Dalit Adhikar Manch
Rashtriya Manavadhikar Mahasabha
Refraction, WB
Revolutionary Students' Front, WB
Revolutionary Workers Party of India
Rihai Manch, UP
Saheli, Delhi
Sangwari
Samajwadi Jan Parishad
Samajwadi Samagam
Samta Kala Manch, Maharashtra
Samtamulak Mahila Sangatan, Haryana
Samata Vidyarthi Aghadi, Maharashtra
Satya Shodhak Sangh, Delhi/UP
SAU Progressive Students, Delhi 
Shramajibi Nari Mancha, WB
Shramik Sangram Committee (SSC) 
Shrijan, Siliguri, WB
Sikh Muslim Dalit Christian Sanjha Front, Punjab.
Student Organization for Socialist Democracy, Haryana
Socialist Workers Centre
Socialist Workers Center, TN
Solidarity Youth Movement 
Stree Mukti Sangathan
Stri Jagriti Manch
Struggling Workers Coordination Committee, (SWCC) WB
Student Federation of India (SFI)
Students of Aalim Muhammad Salegh college
Students For Society, (SFS) Punjab
Students Islamic Organization (SIO)
South India Federation of Trade Unions 
Swaraj Abhiyan
Tamil Nadu Student Movement (TSM)
Telangana Vidyarthi Sangam (TVS)
Telangana Vidyarthi Vedika (TVV)
The Feminist Collective, Haryana
The Students' Outpost, Bangalore
Trade Union Center of India (TUCI)
Trans Rights Now
United Against Hate
United OBC Forum
Uttarakhand Mahila Manch
Utthan, Gujarat
Vidrohi Sanskrutik Chalwal, Maharashtra 
Vimukta - Stree Mukti Sangathan
We The People of India (Hum Bharat Ke Log)
We The People Of India, Bengaluru
Women Against Sexual Violence and State Repression (WSS)
Young Tamilnadu Movement
Youth Alliance For Peace
Yuvak Kranti Dal, Maharashtra