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Sunday, May 30, 2021

'मैल्कम एक्स' कौन थे?




दुनिया जितना 'मार्टिन लूथर किंग' को जानती है, उतना उन्हीं के समकालीन ब्लैक लीडर 'मैल्कम एक्स' को नहीं जानती। जबकि आज उनके विचार कहीं ज्यादा प्रासंगिक और महत्वपूर्ण हैं।

 1966 में शुरु हुआ ब्लैक पैंथर आन्दोलन सीधे सीधे  ‘मैल्कम एक्स’ के विचारों और उनके व्यक्तित्व से प्रभावित रहा है। ब्लैक पैंथर की स्थापना के ठीक एक साल पहले 21 फरवरी 1965 को मैल्कम एक्स को उस समय 15 गोलियां मारी गयी, जब वे ‘हरलेम’ में एक लेक्चर देने जा रहे थे।

मैल्कम एक्स के बारे में जानना इसलिए भी जरुरी है कि मैल्कम एक्स का पूरा जीवन व उनके विचार काले लोगो के दूसरे महान नेता ‘मार्टिन लूथर किंग’ का एक तरह से ‘एण्टी थीसिस’ रचता है। दोनों के विचारों व व्यक्तित्व की छाया थोड़ा बदले रुप में हमारे यहां के दलित आन्दोलन में भी दिखाई पड़ती है। इसलिए मैल्कम एक्स को समझने का प्रयास कहीं ना कहीं अपने देश के दलित आन्दोलन को भी समझने का प्रयास है।

मैल्कम एक्स का जन्म 19 मई 1925 को अमेरिका के ‘ओमाहा’ में एक गरीब परिवार में हुआ था। इनके पिता एक राजनीतिक व्यक्ति थे और काले लोगों के आन्दोलन में सक्रिय हिस्सेदार थे। इसके अलावा प्रसिद्ध ब्लैक लीडर और ‘ब्लैक इज ब्यूटीफुल’ अभियान के जनक ‘मारकस गारवे'[ Marcus Garvey] के समर्थक थे। इसी कारण से वे गोरों के प्रतिक्रियावादी गुप्त संगठन ‘कू क्लक्स क्लान’ [Ku Klux Klan] के निशाने पर थे। अन्ततः जब मैल्कम एक्स महज 6 साल के थे तो 1931 में उनके पिता की हत्या इसी संगठन के कुछ लोगो ने कर दी। इस घटना ने मैल्कम को बुरी तरह झकझोर कर रख दिया और गोरों के प्रति नफरत के बीज बो दिये। इसके अलावा एक अन्य घटना ने मैल्कम को बुरी तरह हिला दिया था। एक बार उनके घर में आग लग गयी। फायर ब्रिगेड को बुलाया गया। फायर ब्रिगेड वालों ने जब देखा कि आग एक काले के घर में लगी है तो बिना आग बुझाये ही वापस लौट गये। बाद में अमरीकी लोकतंत्र के प्रति उनके जो विध्वंसक विचार बने, उनमें इन घटनाओं की महत्वपूर्ण भूमिका थी। जब वह किशोरावस्था में थे तो उन्हे किसी छोटे अपराध के लिए 6 साल जेल की सजा काटनी पड़ी। अपनी आत्मकथा में उन्होने लिखा है कि मैंने अपने जीवन की अधिकांश पढ़ाई इसी दौरान की। जेल से निकलने के बाद उनकी राजनीतिक यात्रा शुरु होती है। सबसे पहले उन्होेंने ईसाई धर्म छोड़कर मुस्लिम धर्म ग्रहण कर लिया और काले मुस्लिम लोगो के संगठन ‘नेशन आॅफ इस्लाम’ के सदस्य हो गये। उस दौरान ईसाई धर्म को गोरों के साथ जोड़ कर देखा जाता था। इसी कारण इस दौरान बहुत से काले लोगों ने सामूहिक तौर पर प्रतिक्रियास्वरुप ईसाई धर्म छोड़कर इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया। यहीं से मैल्कम एक्स के समाजवाद के प्रति झुकाव की भी शुरुआत होती है। गोरों की राष्ट्रीयता के विरुद्ध ‘नेशन आॅफ इस्लाम’, ‘ब्लैक नेशनलिज्म’ की बात करता था। इसलिए नौजवानों के बीच यह बेहद लोकप्रिय था।

नेशन आॅफ इस्लाम के लीडर ‘इलीजाह मुहम्मद’ की कथनी और करनी में अन्तर देखने और खुद समाजवाद की तरफ झुकने के कारण दोनो में काफी तनाव आ गया और अन्ततः मैल्कम एक्स ने नेशन आॅफ इस्लाम छोड़कर ‘मुस्लिम मास्क’ की स्थापना की और अन्ततः सेक्यूलर विचारधारा तक पहुचते हुए अपनी मृत्यु के कुछ ही समय पहले ‘आर्गनाइजेशन आॅफ अफ्रो-अमरीकन यूनिटी’ की स्थापना की।

इसी समय मार्टिन लूथर किंग जूनियर भी सक्रिय थे। उनका ‘सिविल राइट्स मूवमेन्ट’ अपने उभार पर था। कालों के मताधिकार को व्यवहार में हासिल करने के लिए प्रसिद्ध ‘सेल्मा मार्च’ 1964 में ही हुआ था। इस घटना के 50 साल होने पर ‘सेल्मा’ नाम से एक फिल्म भी रिलीज हुई थी जो काफी चर्चित हुई थी।

बहरहाल ‘मैल्कम एक्स’ और ‘मार्टिन लूथर’ दोनो ही समस्या और समाधान को दो विपरीत नजरिये से देख रहे थे।

मार्टिन लूथर किंग को अमेरिकी लोकतंत्र के मूल्यों में काफी विश्वास था और वे इन मूल्यों और अमरीकी राजनीति के बीच एक अन्तरविरोध व तनाव देख रहे थे। सरल शब्दों में कहें तो वे इसी व्यवस्था में अमरीकी लोकतंत्र के ‘मूल्यों’ को जमीन पर उतारते हुए काले लोगोें के अधिकारों की गारंटी चाहते थे। जबकि मैल्कम ऐसे किसी अमरीकी मूल्य के अस्तित्व से ही इंकार करते थे। बल्कि अमरीकी लोकतंत्र को ‘मैल्कम एक्स’ एक साम्राज्य के रुप में देखते थे। और इसके विध्वंस में ही काले लोगों की मुक्ति देखते थे। बाद में समाजवाद की ओर झुकने के बाद उन्होने काले लोगों की मुक्ति को गोरे उत्पीडि़त मजदूरों व अन्य शोषित समुदायों के साथ जोड़कर देखना शुरु किया।

मैल्कम एक्स का कहना था कि अमरीका विदेशो में ही नही बल्कि देश के अन्दर भी एक उपनिवेश बनाये हुए है जिसमें मुख्यतः काले लोग और यहां के मूल निवासी ‘रेड इंडियन्स’ हैं। मैल्कम एक्स का यह कथन सत्य के काफी करीब है। कोलम्बस के आने के समय आज के अमरीका में वहां के मूल निवासियों की संख्या करीब 1करोड़ 50 लाख थी। 1890 तक आते आते यह महज 2लाख 50 हजार तक रह गयी। यानी 98 प्रतिशत लोग यूरोपियन लोगो की क्रूरता के शिकार हो गये। इस पर एक बहुत ही प्रामाणिक डाकूमेन्ट्री ‘दी कैनरी इफेक्ट’ है। ‘हावर्ड जिन’ ने अपनी किताब A People’s History of the United States में साफ बताया है कि अमेरिकी लोकतंत्र वहां के मूल निवासियों के जनसंहार और काले लोगों की गुलामी पर खड़ा है। मैल्कम एक्स इसी अर्थ में ‘भीतरी उपनिवेश’ की बात कर रहे थे। ऐसा ही भीतरी उपनिवेश आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड में भी है। आस्ट्रेलिया के इस भीतरी उपनिवेश पर ‘जाॅन पिल्जर’ ने बहुत ही बेहतरीन फिल्म ‘यूटोपिया’ बनायी है।

इसी संदर्भ में मैल्कम एक्स ने अल्जीरिया के क्रान्तिकारी ‘फ्रेन्ज फेनन’ की बहुचर्चित किताब The Wretched of the Earth का कई बार जिक्र किया है।

इसी अर्थ में एक जगह मैल्कम एक्स ने लिखा है-‘‘ यदि गोरों की वर्तमान पीढ़ी को उनका सच्चा इतिहास पढ़ाया जाय तो वे खुद ‘गोरे-विरोधी’ हो जायेंगे।’’ इस कथन के बहुत ही गहन मायने है। हम भी भारत के संदर्भ में कह सकते हैं कि यदि ब्राहमणों और ऊंची जाति की वर्तमान पीढ़ी को उसका सच्चा इतिहास पढ़ाया जाय तो वे भी ‘ब्राहमणवाद विरोधी’ हो जायेंगी।

मार्टिन लूथर किंग जहां काले लोगों के गोरों के साथ एकीकरण के हिमायती थे वहीं मैल्कम इसके खिलाफ थे। और वर्तमान व्यवस्था में इसे असंभव मानते थे। इसलिए वे हर क्षेत्र में कालों की ‘अलग पहचान’ के हिमायती थे। काले लोगों में पैदा हुए मध्य वर्ग के वे मुखर आलोचक थे। उनके अनुसार यही वर्ग गोरे लोगों के साथ एकीकरण के लिए लालायित रहता है। भले ही इसके लिए उसे अपनी आत्मा ही क्यो ना बेचनी पड़े। पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की तरफ से देखे तो यह एकीकरण काले लोगों के एक हिस्से को राजनीतिक रुप से नपुंसक बनाने की साजिश है। इस सन्दर्भ में मैल्कम एक्स ने एक बहुत ही अच्छा रुपक दिया है। उन्होंने कहा कि जब आप मछली पकड़ने के लिए चारा डालते है तो मछलियों को लग सकता है कि आप उनके दोस्त है और उनके लिए चारा डाल रहे हैं, लेकिन उन्हे नहीं पता होता कि चारे की ऊपर एक हुक भी लगा है जो उन्हे अपने समुदाय से अलग करके उनकी जान ले लेगा। मैल्कम एक्स के इस कथन को हम अपने देश में भी लागू करके इसकी सच्चाई को परख सकते हैं।

हिंसा-अहिंसा के सवाल पर भी इन दोनों के रास्ते अलग थे। मार्टिन लूथर जहां अहिंसा के पुजारी थे। और साधन को साध्य से ज्यादा पवित्र मानते थे वहीं मैल्कम एक्स इस जड़ता से मुक्त थे। और इस संदर्भ में उनका रुख काफी लचीला था। उनका कहना था कि स्वतंत्रता के लिए ‘हिंसा सहित जो भी जरुरी साधन हो’ उसका प्रयोग किया जाना चाहिए। ‘स्व रक्षा’ के लिए हथियार बन्द होने का भी नारा मैल्कम एक्स ने दिया। ब्लैक पैंथर पार्टी पर इसका काफी असर हुआ। विशेषकर ब्लैक पैंथर पार्टी के संस्थापक ‘बाबी सील’ पर इसका काफी असर हुआ। ब्लैक पैंथर पार्टी का पहला ही प्रदर्शन सशस्त्र था जिस पर इन्हे गिरफ्तार कर लिया गया था।

मैल्कम एक्स अपने अन्तिम समय में काले लोगों की मुक्ति को दुनिया के तमाम शोषितों के साथ जोड़ कर देख सके। पूंजीवाद और साम्राज्यवाद की उनकी समझ लगभग वही थी जो उस समय के तमाम कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की थी। इसीलिए वे कालों व अन्य शोषित लोगों की मुक्ति को इस व्यवस्था में असंभव मानते थे। इस पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था के ध्वंस पर ही शोषितों की असली स्वतंत्रता कायम होनी है। इसी संदर्भ में अपनी मृत्यु के कुछ ही समय पहले ही मैल्कम एक्स ने कहा था कि स्वतंत्रता की कीमत मृत्यु है।

मैल्कम एक्स ने अपनी जीवनी ‘रूट्स’ नामक मशहूर किताब के लेखक ‘एलेक्स हेली’ को बोलकर लिखवायी जो काफी चर्चित हुई।

आज हम जिन समस्याओं से रूबरू हैं, उसमे मैल्कम एक्स का जीवन और उनके विचार पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो गए हैं।

# मनीष आज़ाद

Saturday, May 29, 2021

दलित पैंथर का घोषणापत्र

 


आज दलित पैंथर का स्थापना दिवस (29 मई 1972) है। यह भारत में नक्सलवादी आंदोलन से तो बाहर अमेरिका में ब्लैक पैंथर आंदोलन से प्रेरणा लेता है। स्थापना के एक साल बाद इसने अपना घोषणापत्र जारी किया। इस घोषणापत्र की खास बात यह है कि यह अपने शिल्प में दलितों का घोषणापत्र होते हुए भी अपनी अंतर्वस्तु में समस्त शोषित जनता का घोषणापत्र है, जो आज की तारीख़ में कहीं ज्यादा प्रासंगिक है-------


दलित पैंथर का घोषणापत्र


आज के दिन हम ‘दलित पैन्थर्स’ अपना एक वर्ष पूरा कर रहे हैं। चौतरफा प्रबल विरोध के बावजूद हम पैन्थरों की ताकत बढ़ रही है क्योंकि हमारे पास स्पष्ट क्रान्तिकारी दृष्टि है। हमारी ताकत बढ़नी ही है क्योंकि हमने उस जनता के क्रान्तिकारी स्वभाव और उसकी आकाक्षाओं को पहचान लिया है, जिस जनता की हंसी और जिसके आंसुओं के साथ हम अपने जन्म के दिन से ही जुड़े रहे हैं। पिछले एक वर्ष के दौरान, खास तौर पर महाराष्ट्र के सुदूर कोनों में हमारे सदस्यों एवं हमारी गतिविधियों के बारे में गलतफहमियाँ पैदा करने के सचेत प्रयास किये गये हैं। ‘पैन्थर्स के उद्देश्यों, व्यापक क्रान्तिकारी तथा जनवादी संघर्षों के प्रति हमारी प्रतिबद्धता और हमारी नीतियों के बारे में भ्रम फैलाये जा रहे हैं। इसलिए यह जरूरी हो गया है कि हम अपने दृष्टिकोण को साफ-साफ सामने रख दें। क्योंकि, ‘पैन्थर्स’ अब दलितों के भावनात्मक उद्गार मात्र का प्रतीक नहीं रह गया है। बल्कि, इसका चरित्र एक राजनीतिक संगठन जैसा हो गया है। डाॅ० बाबासाहब अम्बेडकर ने अपने अनुयायियों को हमेशा सिखाया कि जिन राजनीतिक परिस्थितियों में आप संघर्ष कर रहे हैं, उनके गम्भीर अध्ययन के आधार पर ही अपनी राजनीतिक रणनीतियां तय करनी चाहिए। इस आदर्श को हमेशा अपने सामने रखना हमारे लिए आवश्यक ही नहीं बल्कि अपरिहार्य है। अन्यथा हम कछुए की पीठ को चट्टान समझ बैठेंगे और उसका सहारा लेने के चक्कर में डूब जायेंगे।

वर्तमान कांग्रेस शासन के रूप में वही पुराना हिन्दू सामन्तवाद जारी है जिसने हजारों वर्षों से दलितों को सत्ता, सम्पत्ति तथा सम्मान से वंचित रखा। इसलिए यह कांग्रेस शासन कोई सामाजिक परिवर्तन नहीं ला सकता। जनता के दबाव में इसने कई तरह के कानून भले बना लिये हों लेकिन उनको अमल में यह नहीं ला सकता। क्योंकि, सम्पूर्ण राज्यतंत्र पर उन्हीं सामन्ती स्वार्थों का प्रभुत्व है जिन्होंने हजारों वर्षाें से धार्मिक विधि-निषेधों के जरिए सारी सम्पदा एवं सत्ता पर नियंत्रण बनाए रखा और आज भी वे अधिकांश कृषि-योग्य भूमि, उद्योग, आर्थिक संसाधनों तथा सत्ता के अन्य सभी उपकरणों के मालिक बने हुए हैं।

इसीलिए, स्वतंत्रता-प्राप्ति और लोकतांत्रिक प्रतीत होने वाले ताम-झामों के बावजूद दलितों की समस्याएँ जस की तस बनी हुई हंै। छुआ-छूत ज्यों का त्यों बना हुआ है। क्योंकि सरकार ने इसके उन्मूलन के लिए कुछ नहीं किया, सिवाय इसके खिलाफ खोखले कानून पारित करते जाने के। छुआ-छूत को उखाड़ फेंकने के लिए सारी जमीनों को फिर से बाँटना होगा। सदियों पुराने रिवाजों और शास्त्रों को नष्ट कर देना होगा और नए विचारों को रोपना होगा। ग्राम संगठन, समाज संगठन और जनता की चेतना, इन सभी चीजों को सच्चे जनवादी लक्ष्यों के अनुरूप ढालना होगा। हमें सत्ता के उस वस्तुगत ढांचे की ओर ध्यान देना होगा जो दलितों को गुलाम बनाता है और जो उन्हें अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी चलाने को मजबूर करने में कामयाब रहा है।

हिन्दू सामन्ती शासन दलितों का शोषण करने में मुस्लिम काल या ब्रिटिश काल की तुलना में आज सौ गुना ज्यादा सक्षम है। क्योंकि, इस हिन्दू सामन्ती शासन के कब्जे में उत्पादन के सारे साधन, नौकरशाही, न्यायपालिका, सेना और पुलिस बल है जो सामन्तों, जमींदारों, पूंजीपतियों और धार्मिक नेताओं के रूप में मूर्तिमान हैं और ये सारे लोग पर्दे के पीछे से इन उपकरणों को संचालित कर रहे हैं। अतः दलितों के प्रति छुआ-छूत की समस्या केवल मानसिक गुलामी की समस्या नहीं रह गई है।

छुआ-छूत धरती पर शोषण का सर्वाधिक हिंसक रूप है जो सत्ता संरचना के नित-परिवर्तनशील रूपों के साथ-साथ खुद को कायम रखे हुए है। आज जरूरत है इसकी असली जमीन, इसके मूल कारणों को तलाशने की। यदि हमने उन्हें तलाश लिया तो हम निश्चित ही इस शोषण की जड़ पर वार कर सकेंगे। हमारे दो महान नेताओं-ज्योतिबा फुले और बाबासाहब अम्बेडकर-के जीवन संघर्ष एवं प्रयासों के बावजूद दलितों का उत्पीड़न खत्म नहीं हुआ। यह उत्पीड़न न केवल जारी है बल्कि और तीव्रतर हो गया है। अतः अछूतों के पददलित जीवन में निहित क्रान्तिकारी अन्तरवस्तु को यदि हम नहीं समझेंगे और उसे सही दिशा नहीं देंगे तो सामाजिक क्रान्ति की चाह रखने वाले एक भी व्यक्ति का भारत में जीना दूभर हो जाएगा।

वास्तव में, दलितों अथवा अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों का सवाल एक व्यापक सवाल बन गया है। अब दलित का तात्पर्य ग्रामीण समाज और शास्त्रों से बहिष्कृत अछूत मात्र से नहीं है। वह अछूत और दलित होने के साथ-साथ मेहनतकश है, भूमिहीन श्रमिक है, सर्वहारा है। और यदि हमने इन सभी के बीच बढ़ती जाती क्रान्तिकारी एकता को एड़ी-चोटी का जोर लगाकर और मजबूत न किया तो हमारा नामोनिशां मिट जाएगा। इसलिए दलितों को अपने मुक्ति-आंदोलन में जनता के अन्यान्य हिस्सों को, अन्यान्य क्रान्तिकारी शक्तियों को सहभागी बनाना होगा। तभी जाकर वह अपने दुश्मनों से कारगर ढंग से निपट सकते हैं। यदि ऐसा न हो सका तो हम गुलामी से बदतर अवस्था में पहुंच जायेंगे। हमें हर साल, हर महीने, हर दिन, हर घण्टे और हर घड़ी इस चेतना को विकसित करना और दृढ़ बनाना होगा। केवल तभी हम मनुष्य कहलाने के अधिकारी होंगे।

इसी बात के लिए डाॅ० अम्बेडकर ने हमें हमारी पशुओं की-सी शोषित अवस्था में भी अपनी मनुष्यता का एहसास कराया। यदि हमें सफल होना है तो शांतचित्त होकर केवल गम्भीर अध्ययन के बाद ही किसी चीज को अपनाना चाहिए। हमें जुमलेबाजी और भावोद्रेक का शिकार नहीं हो जाना चाहिए, हमें उस वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था को उखाड़ फेंकना होगा जिसने अपने जाल में फांसकर हमें अपना गुलाम बना रखा है। हमें उस जमीन को बंजर बना देना होगा जिसमें यह विषवृक्ष पनपता और बढ़ता है। हमें यह समझना होगा कि दलित शब्द का जातीय चरित्र अब समाप्त हो रहा है।

सरकार ने दलितों के लिए क्या किया है?

सन् 1947 में जब भारत को आजादी मिली, शासक-वर्ग का महज नकाब बदल गया। (ब्रिटिश) राजशाही के प्रधानमंत्री की जगह ‘जनता का प्रतिनिधि’ आ गया। वेदों, उपनिषदों, मनुस्मृति और गीता की जगह संविधान आ गया। जो कागज आज तक कोरा था उस पर स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे जैसे लफ्जों की भरमार हो गई। सन् 1947 से 1974 तक एक दीर्घ समयावधि है। स्वतंत्रता संघर्ष की विरासत को अपनी जागीर समझते हुए इन 27 वर्षों तक कांग्रेस सरकार एकछत्र शासन करती आयी है। इस स्वातंत्र्योत्तर ‘स्वशासन’ के दौरान चार पंचवर्षीय योजनाएं, पांच आम चुनाव और तीन युद्ध देखने को मिले लेकिन दलितों के, बल्कि सारी की सारी जनता के सवालों और उनकी जरूरतों को सरकार द्वारा कहीं दूूर अनन्त में धकेल दिया गया है।

राजसत्ता पर अपना कब्जा बनाए रखने के अलावा सरकार ने और कुछ नहीं किया। उल्टे, ’जनता का राज’, समाजवाद, गरीबी हटाओ और हरित-क्रान्ति जैसे जुमले उछाल-उछाल कर उसने दलितों, भूमिहीनों, निर्धन किसानों और मेहनतकशों को अपने पैरों तले रौंदा। उनके बीच से कुछ मुट्ठी भर लोगों को लोभ-लालच देकर, व्यापक जनता की जिन्दगी से खिलवाड़ करते हुए, सरकार ने उसके अस्तित्व को ही खतरे में डाल देने की भरसक कोशिश की। विभाजनकारी नीतियों के द्वारा जनता को धर्म, जाति और दूसरी अनेक चीजों के नाम पर बांट कर उसने लोकतंत्र की प्रतिष्ठा ही दांव पर लगा दी।

एक ऐसा लोकतंत्र जिसमें लोगों को स्वाभिमान से वंचित कर दिया गया हो, जहां लोग अपना भला-बुरा न तय कर सकें और जहां लोगों की जिन्दगी का कोई महŸव न हो, जहां लोग अपने व्यक्तित्व का और अपने समाज का विकास न कर सकें, जहां देश की धरती के कण-कण को अपने खून से सींचने वालों को भूखा मरना पड़ता हो, जहां लोगों की जमीनंे छिनती जा रही हों, सर छुपाने के लिए छत छिनती जा रही हो, जहां ईमानदार को दुःख और पराजय का सामना करना पड़ता हो, जहां लोगों की आँखों के सामने उनकी मांओं और बहनों का बलात्कार होता हो, ऐसे लोकतंत्र में, आजादी सच्चे अर्थों में आजादी नहीं कही जा सकती।

स्वतंत्रता-संघर्ष राष्ट्रीय पूँजीपतियों, जमींदारों व सामन्तों के नेतृत्व में उनके अपने हितों के लिए चलाया गया था। इस संघर्ष का नेतृत्व जनता ने या दलितों ने नहीं किया था। जबकि, डाॅ0 अम्बेडकर हमेशा कहते थे कि इस संघर्ष का नेतृत्व जनता के हाथों में होना चाहिए। वह गाँधी जिसके हाथों में स्वतंत्रता संघर्ष की बागडोर थी, धोखेबाज, धूर्त और रूढ़ जातिवादी था और उसने उन लोगों को शह दी जो वर्गीय प्रभुत्व को बचाये रखना चाहते थे। स्वतंत्रता संघर्ष की एकता को बचाये रखने के नाम पर वह दलितों के सवालों, छुआछूत के सवालों और जनता के सवालों के साथ खेलता रहा और यही वजह थी कि बाबासाहब (अम्बेडकर) अक्सर उसे देश का दुश्मन, राष्ट्र का खलनायक कहते थे। बाबासाहब कहा करते थे कि, गांधीवाद का मतलब है धार्मिक प्राधिकार को बनाये रखना, गांधीवाद का मतलब है लकीर के फकीर बने रहना, गांधीवाद यानी जातिवाद, गांधीवाद यानी परम्परागत श्रम-विभाजन, गांधीवाद यानी अवतारवाद, गांधीवाद यानी गौ माता, गांधीवाद यानी मूर्तिपूजा, गांधीवाद यानी अवैज्ञानिक दृष्टिकोण।

अंग्रेजों को अपना शासन छोड़ना पड़ा नाविकों के विद्रोह के कारण, आजाद हिन्द फौज के कारण, किसानों के संघर्षां के कारण। इन्हीं वजहों से अंग्रेजों की सत्ता का बने रहना असंभव हो गया। अंग्रेजों ने गांधी और गांधीवादियों को आजादी इसलिए सौंपी, क्योंकि वे चाहते थे कि उनके जाने के बाद भी भारत में उनके हितों की रक्षा होती रहे। जो आजादी हमने पायी वह एक तरह से भीख में मिली आजादी थी। सच्ची स्वतंत्रता तो वह होती है जो शत्रु के हाथों से बलपूर्वक छीन ली जाये। एक लाचार भिखमंगे के आगे फंेक दिये गये रोटी के टुकड़ों-सी आजादी, आजादी नहीं। हर घर में और हर मन में सच्ची स्वतंत्रता की अग्नि प्रज्वलित करनी होगी। यह आज तक नहीं हो सका। इसी कारण दलितों, मजदूरों, भूमिहीनों और गरीब किसानों को स्वतंत्रता नहीं मिली। तालाब की तली में कीचड़ जस का तस सड़ता रहा और यथास्थिति बनाये रखने वाली सरकार दलितों से झूठ पर झूठ बोलती गयी।

दूसरी पार्टियों ने दलितों के लिए क्या किया ?

वामपंथी पार्टियाँ पाँच बार चुनाव लड़ने के बाद भ्रष्ट हो चुकी हैं। उनकी दिलचस्पी अब सिर्फ चुनाव लड़ने में रह गयी है। सन् 1967 में वामपंथी पार्टियाँ कांग्रेस के खिलाफ एकजुट हुईं। इस संयुक्त मोर्चे में अवसरवाद का आलम यह था कि कम्युनिस्ट कहलाने वाली पार्टियों ने जनसंघ और मुस्लिम लीग जैसी साम्प्रदायिक पार्टियों से हाथ मिलाया। कुछ राज्यों में वामदलों का संयुक्त मोर्चा सत्ता में आया। लेकिन किसी स्पष्ट कार्यक्रम के अभाव में यह कांग्रेस-विरोधी रुख किसी काम नहीं आया। जनता के सामने कोई विकल्प रखने, दलितों की समस्याओं को हल करने या गरीबों का शासन स्थापित करने में सभी वामपंथी पार्टियां निकम्मी साबित हुईं। परिणामतः जनता के क्रान्तिकारी धड़ों का चुनावी जनतंत्र से विश्वास उठ गया। नक्सलबाड़ी जैसे विद्रोह होने लगे और उनकी चिंगारी सारे देश में फैल गयी।

सन् 1972 के आम चुनाव के बाद हम वहीं पहुंच गये जहाँ से चले थे। कांग्रेस पुनः सत्ता में आकर दलितों, आमजनों पर शासन करने लगी; सूखे की मार पड़ी, करोड़ों लोगों की जीविकाएँ ही उजड़ गयीं, पशु नष्ट हो गये, फैक्ट्रियां बंद हो गयीं, मजदूर बेरोजगार हो गये, बढ़ती महंगाई ने हर इंसान को पस्त कर दिया।

देश के जीवन पर से कांग्रेस शासन का ग्रहण अभी समाप्त नहीं हुआ है। लेकिन, संसदीय राजनीति का खेल खेलती हमारी वामपंथी पार्टियां कांग्रेस के पिछलगुआपन में वक्त जाया कर रही हैं। किसी ने भी क्रान्तिकारी रुख अख्तियार करके जनता के सवालों को उठाने का साहस नहीं किया है। राजनीतिक सत्ता से विहीन उन सभी वाम दलों ने सामाजिक क्रान्ति के सवालों से मुंह मोड़ लिया है। उन्होंने वर्ग-संघर्ष को छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष से नहीं जोड़ा, आर्थिक शोषण के खिलाफ आवाज उठाने के साथ-साथ उन्होंने सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभुत्व के खिलाफ आवाज नहीं उठायी।

छुआछूत शोषण का सबसे भयंकर रूप है। इस शोषण-व्यवस्था को हिन्दू सामन्तवाद ने जन्म दिया और इसी के हितों की रक्षा में यह व्यवस्था लगी हुई है। सेना, जेलों, कानून व्यवस्था तथा नौकरशाही की सहायता से इस छुआछूत का दायरा और अधिक विस्तृत हो रहा है। ऊंची-उड़ान भरने वाले दार्शनिक सिद्धांतों और आत्मा की मुक्ति (मोक्ष, निर्वाण) की आड़ में दलितों को दुनियावी सुख-सुविधाओं से वंचित रखा गया और जो कुछ उनके पास था, वह सब लूट लिया गया।

औद्योगिक विकास के साथ मशीनों का प्रयोग होने लगा। दलितों को इन मशीनों में जोत दिया गया। लेकिन ऊंची जातियों के मन में सामन्तवाद जीवित बचा हुआ था। क्योंकि मशीनों के मालिक मुनाफा तभी कमा सकते थे जबकि सामाजिक संरचना के साथ किसी प्रकार की छेड़-छाड़ न की जाये। कोई राजनीतिक क्रान्ति तभी सम्भव है, जबकि दलितों को सामाजिक क्रान्ति का महत्व समझ में आ जाये। यदि ऐसा हो जाता है तो उच्च वर्ण तथा उच्च वर्ग के हाथों से सत्ता निकल जायेगी। वामपंथी पार्टियों ने जैसा रुख अपना रखा था उसके चलते जनता में क्रान्तिकारी विचारधारा का प्रसार होने में अड़चन आ रही थी। चूंकि दलितों के हित में वास्तविक तथा सच्चे संघर्ष छेड़े नहीं गये, इसलिए उनकी हालत बदतर हो गयी है। उन्हें अनगिनत अत्याचार झेलने पड़े हैं।

आज दलितों के सामने जो समस्याएं हैं, वे चाहे सामाजिक समस्याएं हो या राजनीतिक या नैतिक, उन्हें धर्म-सुधार तथा ’जाति का उत्थान’ जैसे उपायों से नहीं हल किया जा सकता। सन् 1952 के आम चुनावों में अपनी पराजय के बाद जाकर डाॅ0 अम्बेडकर ने इस बात को समझा। केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण, वर्ग-चेतना और पूरी तरह से अनीश्वरवादी रवैया एवं मानव मात्र की खातिर लड़ाई की भावना ही दलितों के संघर्षों को धार दे सकती है। इसी उद्देश्य से डाॅ0 अम्बेडकर उस वक्त के ’अनुसूचित जातियों का महासंघ’ (ैब्थ्द्ध को विस्तृत जनाधार वाली एक पार्टी में तब्दील कर देना चाहते थे। लेकिन यह काम उनके जीवन काल में न हो सका। उनकी मृत्यु के बाद उनके ’अनुयायियों’ ने ’अनुसूचित जातियों का महासंघ’ (ैब्थ्द्ध का केवल नाम बदलकर रिपब्लिकन पार्टी रख दिया और जातिवादी राजनीति करने लगे। उन्होंने सारे दलितों और सारे उत्पीडि़तों को कभी एकता के सूत्र में नहीं बांधा। बहुत करके, उन्होंने क्रान्तिकारी दलित समुदाय की राजनीति को कानूनी तौर-तरीकांे से चलाया। रिपब्लिकन पार्टी वोटों, सौदेबाजियों, मुट्ठीभर दलितों के लिए विशेष पदों के जुगाड़ और थोड़ी-बहुत रियायत हासिल कर लेने के लोभ-पाश में फंस कर रह गयी। अतः देश भर में यहां-वहां असंख्य गांवों में बिखरी हुई दलित आबादी की राजनीतिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। रिपब्लिकन पार्टी का नेतृत्व दलितों में ही उभरते मध्यवर्ग के हाथों में चला गया। षडयन्त्र, स्वार्थ और आपसी फूट का बोलबाला हो गया।

डाॅ0 अम्बेडकर की क्रान्तिकारी आवाज को दबाते हुए ये घृणित नेता उनका नाम भुनाने लगे और अपने-अपने स्वार्थों की झोलियां फैलाने लगे। यह डाॅ0 अम्बेडकर की पार्टी है। यह डाॅ0 अम्बेडकर का झण्डा है। यह दुहाई देकर वे अपनी तिजोरियां भरने लगे और इस तरह, दादासाहब गायकवाड़ के नेतृत्व में चले भूमिहीनों के सत्याग्रह के अलावा, रिपब्लिकन पार्टी ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जो उसकी गरिमा के अनुकूल हो। दलितों पर जुल्म रोज-रोज की बात हो गयी। डेढ़ वर्षों के अन्तराल में 1,117 दलितों की हत्या हुई। सिंचाई की कोई व्यवस्था न होने से जमीनें बंजर होती गयीं। लोगों के सम्मान के साथ खिलवाड ़ किया गया, घरों में मातम छाया रहा, लोग मारे जाते रहे। रोजी-रोटी के अभाव के साथ-साथ शारीरिक प्रताड़ना की घटनाएं बढ़ती गयीं। रिपब्लिकन पार्टी ने क्या किया? यशवंत राव चैहाण जैसे शासक वर्ग के धूर्त नेताओं के फेंके गये जाल में पार्टी फंस गयी। उसकी जीवटता को घुन लग गया। पार्टी में एकता नहीं रह गयी और उसमें निकम्मे लोगों की भरमार हो गयी। यदि हम अपना भविष्य ऐसे कायर नेताओं के हाथों में सौंप देंगे तो हम अपने जीवन से ही हाथ धो बैठेंगे और इसीलिए आज अत्यन्त दुःख के साथ हमें घोषित करना पड़ रहा है कि रिपब्लिकन पार्टी से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं।

विश्व के दलित और पैन्थर्स

अमरीकी साम्राज्यवाद की घृणित चालों के कारण तीसरी दुनिया-’दलित दुनिया’-यानी दमित राष्ट्रों के लोग और दलित जनता कष्ट भोग रही है। यहां तक कि अमेरिका में भी कुछ मुट्ठी भर श्वेत प्रतिक्रियावादी अश्वेतों का शोषण कर रहे हैं। इस प्रतिक्रियावादी शक्ति का मुकाबला करने और इस शोषण का अन्त करने के लिए ’ब्लैक पैन्थर’ आंदोलन का उदय हुआ। ’ब्लैक पैन्थर्स’ से ’अश्वेत शक्ति’ का उभार हुआ। इस संघर्ष की ज्वाला ने सारे देश पर अपना असर छोड़ा। हम जोर देकर कहते हैं कि इस संघर्ष से हमारा गहरा नाता है। हमारे सामने वियतनाम, कम्बोडिया, अफ्रीका और ऐसे ही कई अन्य देशों का आदर्श है।

दलित कौन है ?

अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोग, नव-बौद्ध, मेहनतकश जनता, भूमिहीन और गरीब किसान, स्त्रियां और वे सब लोग जिनका राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक शोषण किया जा रहा है।

हमारे मित्र कौन है ?

1. वे क्रान्तिकारी पार्टियां जिनका मकसद है जाति व्यवस्था और वर्गीय शासन का विध्वंस करना। वे वामपंथी पार्टियां भी जो सच्चे अर्थों में वामपंथी हों।

2. समाज के वे सभी तबके जो आर्थिक और राजनीतिक दमन के चलते कष्ट भोग रहे हैं।

हमारे शत्रु कौन हैं ?

1. सत्ता और दौलत पर कब्जा किये हुए लोग, महंगाई।

2. जमींदार, पूंजीपति, सूदखोर और उनके दुमछल्ले।

3. वे पार्टियां जो धार्मिक और जातिवादी राजनीति करती हैं और वह सरकार जो धार्मिक और जातिवादी राजनीति के सहारे टिकी रहती हैं।

दलितों के सामने आज के ज्वलन्त प्रश्न

1. रोटी, कपड़ा, और मकान।

2. रोजगार, जमीन, छुआछूत।

3. सामाजिक अन्याय और शारीरिक प्रताड़ना।

दलितों के मुक्ति-संघर्ष के लिए समग्र क्रान्ति की जरूरत है। छोटे-मोटे बदलावों से कुछ नहीं होगा। हमें छिटपुट बदलाव चाहिए भी नहीं। हमें समग्रतः तथा पूर्णतः क्रान्तिकारी परिवर्तन की जरूरत है। यदि हम केवल सामाजिक अधःपतन की इस वर्तमान दशा से ही निकलना चाहें, तो भी हमें आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक सभी मोर्चों पर अपनी ताकत लगा देनी होगी। अब हमें आसानी से बहलाया नहीं जा सकता। हम ब्राह्मणों के टुकड़ों पर नहीं पलना चाहते। हम सारे देश पर हक चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि राजा या सरकार बदले, हम चाहते हैं यह व्यवस्था ही बदले। हृदय-परितर्वन, उदार शिक्षा, इत्यादि उपायों से हमारी शोषित अवस्था का अंत नहीं होने वाला। जब हम क्रान्तिकारी जनता को संगठित करेंगे, जनता को जगायेंगे, तभी इस विशाल जनता के संघर्ष से क्रान्ति का ज्वार उठेगा। कानूनी अपीलों, प्रार्थनाओं, याचनाओं, चुनावों, सत्याग्रहों-इन उपायों से समाज कभी नहीं बदलेगा। सामाजिक क्रान्ति और बगावत की हमारी विचारधारा का महावृक्ष, विरोध के इन बनावटी कागजी गमलों में नहीं उग सकता। यह महावृक्ष वास्तविकता की जमीन से फूटेगा, हमारे मानस में महकेगा और फिर फौलादी इरादों से प्रेरित होकर पूरी शक्ति के साथ प्रकट हो जायेगा।


दलित पैन्थर महज एक जुमला नहीं

अपने सवालों के प्रति हमारा रुख ही उन्हें हल करने की ओर पहला कदम है। छुआछूत, जातिवाद और आर्थिक शोषण पर पैन्थरों का प्रहार अंतिम सिद्ध होगा। इस समाज-व्यवस्था और राज्यसŸाा ने हमें गुलाम बनाने के लिए हजारों क्रूर तौर-तरीके अपनाये हैं। सुदूर अतीत में इन्होंने हमें ’शूद्र’ बनाया। मानसिक दासत्व की बेडि़यां वर्तमान में उसी गुलामी का आधुनिक रूप हैं। हम उन बेडि़यों को तोड़ डालेंगे। हमारे इस संघर्ष में ही हमारी मुक्ति है।

हमारे कार्यक्रम

1. भारत की 80 प्रतिशत से ज्यादा आबादी गांवों में रहती है। उनमें 35 प्रतिशत लोग भूमिहीन किसान हैं; और भूमिहीन कृषि-मजदूरों की कुल आबादी में से 33 प्रतिशत लोग अनुसूचित जाति से आते हैं। जिन दलित निर्धन कृषकों के पास थोड़ी-सी जमीन है भी, तो वह नाम भर की है। दलित कृषकों की भूमिहीनता को समाप्त करना ही होगा।

2. लैंड सीलिंग एक्ट के तहत तुरन्त अतिरिक्त जमीनंे भूमिहीन कृषकों को मिलनी चाहिए। परती भूमि और जंगल कीे भी जमीनों को इसी तरह बांटना होगा।

3. गांवों में अब भी सामन्ती अवशेष बचे हुए हैं। इस कारण दलितों का निर्दयतापूर्वक दमन और शोषण हो रहा है। जमींदार और धनी किसान धन-दौलत से समृद्ध तो हैं ही, उन्हें सामाजिक प्रतिष्ठा भी हासिल है। इस कारण दलितों पर अत्याचारों की बाढ़-सी आयी हुई है। इस व्यवस्था ने दलितों को इस कदर जकड़ रखा है कि रोजी-रोटी से लेकर व्यापक आर्थिक सवालों तक, उनके जीवन के हर पहलू को वह प्रभावित कर रही है। इस व्यवस्था का अन्त करना ही होगा।

4. भूमिहीन मजदूरों की मजदूरी में वृद्धि करनी होगी।

5. दलितों को सार्वजनिक कुंओं के इस्तेमाल की अनुमति होनी चाहिए।

6. दलितों को गांव से बाहर अलग बस्तियों में नहीं, बल्कि गांव के अंदर ही बसाना होगा।

7. उत्पादन के सारे साधनों पर दलितों का अधिकार होना चाहिए।

8. निजी पूंजी द्वारा शोषण बंद होना चाहिए।

9. सामाजिक सांस्कृतिक एवं आर्थिक शोषण का अंत होना चाहिए और भारत में समाजवाद की स्थापना होनी चाहिए। राष्ट्रीयकरण के भ्रामक रास्ते को छोड़कर सच्चे समाजवाद के रास्ते पर बढ़ना चाहिए।

10. सभी दलितों को दैनिक मजदूरी सुनिश्चित की जानी चाहिए।

11. बेरोजगार दलितों को बेरोजगारी भŸो इत्यादि मिलने चाहिए।

12. सभी दलितों को निःशुल्क शिक्षा मिलनी चाहिए, चिकित्सकीय सुविधाएं, मकान और उच्च गुणवŸाा के अनाज सस्ती दरों पर मिलने चाहिए।

13. शिक्षण संस्थाओं में रोजगार देते समय अपनी जाति तथा धर्म का उल्लेख करने की बाध्यता तुरन्त खत्म की जानी चाहिए।

14. सरकार धार्मिक संस्थाओं को अनुदान देना तुरन्त बंद करे और धार्मिक संस्थाओं की धन-दौलत को दलितों के हित में लगाये।

15. धार्मिक और जातिवादी साहित्य को प्रतिबन्धित करना होगा।

16. सेना में जाति के आधार पर श्रम-विभाजन का अंत करना होगा।

17. कालाबाजारी करने वालों, जमाखोरों, सूदखोरों और उन सब लोगों को खत्म करना होगा जो जनता का आर्थिक शोषण करते हैं।

18. आवश्यक वस्तुओं को निःशुल्क उपलब्ध कराना होगा।

हम मजदूरों, दलितों, भूमिहीनों, गरीब किसानों को, सभी शहरी फैक्ट्रियों और सभी गांवों में जा-जाकर संगठित करेंगे। हम दलितों पर हो रहे हर प्रकार के अन्याय का जवाब देंगे। हम उस जाति-व्यवस्था और वर्ण-व्यवस्था को पूरी तरह से और हमेशा के लिए मिटा देंगे, जो जनता के दुःखों पर फलती-फूलती है, जनता का शोषण करती है और इस प्रकार हम दलितों को मुक्ति दिलायेंगे। वर्तमान कानून व्यवस्था एवं राज्यसŸाा ने हमारे सारे सपनों को तबाह कर दिया है। अपने साथ होने वाले समस्त अन्याय के खात्मे के लिए दलितों को स्वयं शासक बनना होगा। यही सच्चा जनवाद है। दलित पैन्थर्स के समर्थकांे और सदस्यों, दलितों के निर्णायक संघर्ष के लिए तैयार हो जाओ !

Sunday, May 16, 2021

एक ऐसा अस्पताल जहां मरीज को कमाई का जरिया नहीं बल्कि एक जरूरतमंद इंसान समझा जाता है।

स्वास्थ्य हमारा अधिकार है, कोई भीख नहीं'

           
                              वर्तमान में हमारे देश में स्वास्थ्य सेवांए बहुत बुरे दौर से गुजर रही हैं. पूरे देश में हालत यह हैं कि मरीज़ एक अदद बेड, जीवनरक्षक उपकरण, दवा और सही ईलाज मिल जाने की आस में अस्पताल दर अस्पताल भटक रहे हैं. सरकार के गैर ज़िम्मेदाराना व्यवहार और समय पर इलाज ना मिलने के कारण कितने लोगों की अकाल मौत हो रही है. ऐसे समय में मुझे ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ का अभियान चलाने वाले ‘श्रमिक स्वास्थ्य उद्योग’ का वह माडल याद आ रहा है, जिसमें कि स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का जोर सभी के लिए सस्ता और अच्छा स्वास्थ्य पर भी केन्द्रित होता है। इस विकसित और जनपक्षधर चिकित्सा व्यवस्था में चिकित्सक सिर्फ़ रोगी की देखभाल करने तक सीमित नहीं होता, वरन वह सम्पूर्ण स्वास्थ्य का रखवाला होता है। 

 वर्ष 2015 में, मैं एक स्वास्थ्य कर्मी के बतौर प्रशिक्षिण लेने के लिए के लिए श्रमजीवी स्वास्थ्य उद्योग संगठन (जो मानते हैं कि स्वास्थ्य का सार्वजनीकरण होना चाहिए। डाक्टरी पेशा मुनाफा कमाने के लिए नहीं बल्कि लोगों की सेवा के लिए अपनाया जाना चाहिए) कलकत्ता गयी। इस संस्थान में कोई भी वह राजनितिक/सामाजिक कार्यकर्ता प्रशिक्षण ले सकता है, जो अपने क्षेत्र में स्वास्थ्य की बुनियादी समस्याओं के अवरोधों को समझता हो और किसी भी रोगी को प्राथमिक सेवा दे सकने के प्रति संवेदनशील हो। यह प्रशिक्षण कम से कम दो माह का होता है। संस्थान का उददेश्य स्वास्थ्य कर्मियो को सामान्य स्वास्थ्य समस्याओं (डायरीया, संक्रामक बीमारियों, दर्द, बुखार आदि) के विषय में वैज्ञानिक जानकारी देना और उसको नियन्त्रित करने तथा समय रहते हायर सेंटर भेजने के लिए प्रशिक्षित करना है। फर्स्ट एड (प्राथमिक चिकित्सा) के साथ ही मरीज को, रोगों के विषय में काउन्सिलिंग के लिए और चिकित्सा शिक्षा आदि के लिए भी प्रशिक्षित किया जाता है। प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं की सफलता और असफलता उनके अपने संगठनों की स्थितियों और मेडिकल दिशा और अन्य दवाओं की उपलब्धता पर भी निर्भर करती है। इस प्रशिक्षण स्थल/अस्पताल में जाकर जो महत्वपूर्ण बात समझ आयी, वह यह कि स्वास्थ्य सेवाओं को यदि ईमानदारी से लागू किया जाय तो प्रत्येक व्यक्ति को अच्छा और सस्ता स्वास्थ्य मिल सकता है।

पश्चिम बंगाल का यह संस्थान डा. पुण्यव्रत गुण जैसे बहुत से जनपक्षधर चिकित्सकों ने शंकर गुहा नियोगी के प्रयासों से संचालित शहीद अस्पताल दल्ली रजहरा, छतीसगढ़ के माडल से प्रभावित होकर स्थापित किया है। कलकत्ता से 25 कि.मी. दूर हावड़ा जिले की उलबेरिया तहसील चेंगाइल, बेलतारा में पोल्ट्री फार्म के एक टीन के भीतर 20मार्च 1995 को एक क्लिनिक के रूप में शुरू हुआ ‘श्रमिक कृषक मैत्री स्वास्थ्य केंद्र’. बाद में गाँव वालों के ज़मीन देने तथा मित्रों के सहयोग से धीरे-धीरे यह अस्पताल आज तीन मंजिला बिल्डिंग में चलाया जा रहा है। आरम्भ में यहां पर एक डाक्टर और सात स्वास्थ्य कर्मी थे। इसके बाद छात्र आन्दोलन से जुडे़ हुए जूनियर डाक्टर भी इस सेवा का हिस्सा बनते चले गये। डॉ.पुण्यव्रत गुन, डॉ.सुमित दास और डॉ.अमिताभ चक्रवर्ती तथा चिकित्सा क्षेत्र में कार्य कर रहे डॉ. भास्कर राव आदि ने कनोड़िया जूट मिल की यूनियन के लोगों के सहयोग से इस अस्पताल का आरम्भ किया। इसी तरह के अस्पताल पश्चिम बंगाल के बैलूर में, विलासपुर के गनेरिया में, धनबाद और भोपाल आदि में स्वास्थ्य सेवाएँ और प्रशिक्षण देने का काम कर रहे हैं. इन संस्थानों में बहुत से सामाजिक सरोकारों से जुड़े हुए चिकित्सक यह सिद्ध कर रहे हैं की डाक्टरी पेशा मुनाफे के लिए नहीं सेवा के लिए अपनाया जाना चाहिए. ये संस्थान तार्किक व वैज्ञानिक जनपक्षधर स्वास्थ्य सेवाओं को वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति को स्थापित करने का प्रयास भी करते हैं।
 आज हमारे देश में स्वास्थ्य को जिस तरह से निजी हाथों में फेंक दिया गया है, मरीज के स्वास्थ्य से अधिक उसकी जेब का महत्व हो गया है और मरीजों को अपने खर्च का अधिकांश डाक्टर को देना पड़ जाता है। ऐसे समय में इस प्रकार के संस्थानों की चिकित्सा पद्धति का महत्व बढ़ जाता है. श्रमिक किसान मैत्री स्वास्थ्य उद्योग के डॉ.पुण्यव्रत गुन कहते हैं “हम यह सिद्ध कर सकते हैं कि यदि योजनाएं सही तरीके से लागू करने का काम किया जाय तो यह सम्भव है कि जनता को बहुत कम खर्च में स्वास्थ्य सेवाएं दी जा सकती हैं। श्रमिक स्वास्थ्य केन्द्र ने यह करके दिखाया कि किसी भी मरीज के खर्च पर उसको बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ देता है. स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का जोर बीमारी की देखभाल पर होने के बजाय सबके लिए स्वास्थ्य पर केन्द्रित होना चाहिए। अधिक विकसित व्यवस्था में चिकित्सक सिर्फ़ रोग होने पर देखभाल करने तक सीमित नहीं होता, वह स्वास्थ्य का रखवाला भी होता है।” 

चेंगाइल रेलवे स्टेशन से महज दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, श्रमिक कृषक मैत्री केंद्र. पेड़ों और तालाब से घिरा बेलतारा का यह केंद्र सुबह छह बजे खुल जाता है. मरीजों के बैठने के लिए फूस के दो शेड हैं. रजिस्ट्रेशन खिड़की के सामने एक तार में पर्ची के नम्बर टंगे होते हैं, जो पहले आये उस हिसाब से नम्बर दिया जाता है। अस्पताल के एक कमरे में छोटी सी कैन्टीन है जिसमें कि बहुत कम दाम में नाश्ता मिल जाता है। आरम्भ में अस्पताल में एक रुपया फीस रखी गयी थी जो अब 20 रुपये हो गई है। आठ बजे अस्पताल में डाक्टर देखना शुरू कर देते हैं और लगभग तीन बजे तक देखते हैं. मंगलवार और गुरुवार को विशेषज्ञों के आने पर पांच भी बज जाता है. इस तीन मंजिला अस्पताल के बेस मैन्ट में आफिस और रेडियोलाजी विभाग,  दवा केन्द्र और आफिस है। लाबी में कईं मेंजें लगी हैं, जिन पर चार या पांच स्वाथ्यकर्मी बैठती हैं। 20 रुपये का पर्चा लेकर मरीज इन मेजों पर पहुचते हैं जहां कि उनके जीवन का पूरा इतिहास लिया जाता है। पहली मंजिल पर डाक्टरों के कमरे तथा पैथालाजी लैब है। दूसरी मंजिल में प्रशिक्षुओं और दूर से आये मरीजों के रहने के कमरे और एक लाईब्रेरी है,  जहां कि कक्षाएं चलती हैं और संस्थान की पत्रिकाओं तथा अन्य सामग्री के पढ़ने की व्यवस्था है। सीढियों में कई ऐसे डाक्टरों की फोटो लगी हैं जो जनपक्षधर रहे हैं. तीसरी मंजिल में सामूहिक रसोई और खाने का कमरा है जहाँ कि दोपहर का खाना डाक्टर तथा सभी कर्मी एक साथ बैठकर अपनी सुविधानुसार दो बजे तक खा लेते हैं। यहां पर आकर मुझे वास्तव में समझ आया कि जनतान्त्रिक मूल्यों को व्यवहार में किस प्रकार उतारा जा सकता है। डाक्टर, सफाईकर्मी या फिर अन्य स्टाफ सभी खाना खाकर अपना बरतन साफ करके रखते हैं। इस रसोई में एक बार में 10 लोग खाना खा सकते हैं। यह रसोई अस्पताल से होने वाली आमदनी से ही चलाई जाती है। 

                  अस्पताल संचालित करने में लगभग 25 डाक्टरों का सहयोग मिला हुआ है। डा. पुण्यव्रत गुन के साथ छः नियमित फीजिशियन, जिनमें कुछ मेडिकल कालेज के छात्र भी हैं, मरीजों को देखते हैं. कुछ विशेषज्ञ डाक्टर भी अपना समय निकालकर यहां आते हैं. अस्पताल में अधिकतर 2 मनोचिकित्सक,  एक विशेष शिक्षक, एक नेत्र विशेषज्ञ, 1 काउन्सलर, 1 दन्त चिकित्सक, 1 प्रसूतिरोग विशेषज्ञ, 29 स्वास्थ्यकर्मी एवं अन्य स्टाफ अपनी ज़िमेदारियाँ निभाते हैं. बहुत कम संसाधनों से यह मल्टीस्पेशियलटी अस्पताल संचालित किया जाता है। डाक्टर और मरीज के बीच का रिश्ते को यदि सही से पहचान लिया जाय तो सही स्वास्थ्य सेवा देने की दिशा में ऐसे प्रयोग एक कदम होते हैं यह यहाँ पर आकर समझा जा सकता है।




                   एक स्वास्थ्य कर्मी के बतौर मैंने जब मरीजों के इतिहास लेने वाली मेज पर बैठना शुरू किया तब मैंने जाना कि रोग के निदान में रोगी के इतिहास को समझाना कितना ज़रूरी होता है. कुछ दिन तो बंगाली भाषा समझने में दिक्कत आयी। किन्तु यहां मौजूद सहकर्मियों के आत्मीय और सहयोगपूर्ण व्यवहार से यह जल्दी ही आसान हो गया। इतिहास लिए जाने वाले फार्म को जब मैंने समझ लिया, तब बहुत कम शब्दों से भी मरीज मेरे प्रश्नों के उत्तर देने लगे थे. इस फार्म में मरीज के जीवन व शरीर का सम्पूर्ण इतिहास दर्ज किया जाता है। क्योंकि हम यह मानते हैं कि रोगी के जीवन की भौतिक स्थितियां, आमदनी ओर् उसके आय के स्रोतों की जानकारी रोगों को समझने में कारगर होती है। मरीज की बीमारी और उसकी जीवन स्थितियों का घनिष्ठ जुड़ाव होता है। इस इतिहास के आधार पर ही यदि मरीज का ईलाज किया जाय तो मरीज के रोग के निदान की सम्भवाना बढ़ जाती है और कई प्रकार के टैस्ट करवाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इतिहास में मरीज की पल्स, बीपी, सांस, वजन, बुखार आदि के साथ ही पारिवार के सदस्यों की संख्या, रोजगार, परिवार की आय दर्ज की जाती है. इसके साथ ही मरीज के पूर्व व वर्तमान में होने वाली स्वास्थ्य समास्याएं आदि का विवरण भी दर्ज किया जाता है। फार्म स्थानीय भाषा बंगाली में होता है ताकि मरीज को भी समझने में असानी हो कि क्या लिखा व पूछा जा रहा है। मरीज की सम्पूर्ण जानकारी फार्म में दर्ज करने के बाद मरीज को सर्वप्रथम फिजीशियन के पास भेजा जाता है। यहां पर कईं डाक्टर बैठते हैं,  जो मरीज का इतिहास पढ़ने के बाद और कुछ जरूरी प्रश्न पूछते हैं। यदि कुछ विशिष्ट रोग के लक्षण नज़र आते तब तक फिजीशियन तात्कालिक दवा देकर, रोग विशेष के मरीजों को उस दिन का समय दे देते हैं. जिस दिन विशेषज्ञ डाक्टर का समय तय होता है. नियमित रोगियों का एक कार्ड बना दिया जाता है। उसके बाद भी हर बार मरीज को स्वास्थ्य कर्मियों के प्रश्नों से गुजरकर ही डाक्टरों के पास जाना होता है। इस तरह से कम समय में अधिक मरीजों को देखने में डाक्टर को अधिक समय नहीं लगता है और ईलाज भी सही तरीके से हो पाता है। कई बार यहां पर मरीजों की भारी संख्या आने से दबाव तो होता है। उन दिनों में यह संख्या बढ़ जाती जिन दिन में विशेषज्ञ डाक्टर आते हैं. रोगी को विशेषज्ञ डाक्टर की मेज पर एक डिब्बा होता है जिसमें 10 रुपया डालना होता है. रजिस्ट्रेशन, डाक्टरों की फीस,  जांचें,  दवा बहुत कम दाम में देने के बाद भी सभी कर्मियों का वेतन संस्थान से ही निकल जाता है। यहां पर आमतौर पर निम्न आय और मध्यम आय वर्ग के लोगों की संख्या अधिक आती है। ज्यादातर यंहा वह गरीब मरीज़ दिखते हैं जिनको अन्य जगह पर अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पाती हैं।

                    आज जब देश में स्वास्थ्य प्राथमिक जरूरत बना चुका है तब मुझे यह माडल इसलिए भी महत्वपूर्ण लग रहा है कि आमतौर पर डाक्टरों द्वारा एक मर्ज के लिए इतने अधिक टैस्ट करवा लिए जाते हैं कि सरकारी अस्पताल का खर्च भी कई बार आम इन्सान पर भारी पड़ जाता है। सरकारी अस्पाताल हों या कि प्राईवेट इन जगहों पर मरीज की जीवन स्थितियों के अनुरूप इलाज़ करने का दृष्टिकोण स्थापित ही नहीं है. फिर मरेज्जों की भीड़ में डाक्टर के पास रोगी के जीवन स्थितियों को जानने का समय भी नहीं होता है.  कुछ सतही प्रश्नों को पूछने के बाद अनुमान के आधार पर रोगी का ईलाज शुरू कर दिया जाता है. बहुत बार किसी बीमारी के लिए डाक्टरों द्वारा अनेक महंगी और अनावश्यक दवाएं दे दी जाती हैं। कई अस्पतालों में डाक्टर फीस नहीं लेते हैं लेकिन बहुत ज्याद टैस्ट और दवाईयां लिख कर मरीज का खर्च बढ़ा देते हें, बिना मरीज के रोग का इतिहास जाने। खून, पेशाब, एक्सरे आदि टेस्ट हमेशा आवश्यक नहीं होते हैं। कई बार तो डाक्टर सिर्फ कमीशन के लिए मरीज के टेस्ट करवाते हैं जो  अतार्किक है। अधिक टेस्ट करवाने से कुछ न कुछ रोग समाने आ ही जाता है। भारत की व्यापक आबादी इन दवाओं और टेस्ट का भार उठाने में असमर्थ है,  इसलिए बेहतर स्वास्थ्य से भी वंचित रह जाती है। रोगी के व्यक्तिगत जीवन, शारीरिक लक्षण, मानसिक स्वास्थ्य, पूर्व में लिया गया उपचार, पारिवारिक स्थिति और सामाजिक आर्थिक स्थितियों को जानकर निदान करना ही सही चिकित्सा की बुनियाद हो सकती है, ताकि रोग का पूरी तरह समाधान किया जा सके।



                                    इस अस्पताल में हावड़ा के बाहर से भी बहुत मरीज आते हैं। कई बार मुझे डाक्टरों के कमरे में बैठने का अवसर मिला ताकि मैं उस प्रक्रिया को समझूं और रोगों की समझ विकसित कर सकूं। अन्य विशेषताओं के अलावा जिस बात ने सबसे अधिक प्रभावित किया वह यह कि डा. पुण्यव्रत गुण जब अपने मरीज का हाथ आत्मीयता पकड़कर उसके रोग के बारे में समझाते हैं, तो मरीज़ का चेहरा खिल जाता है. डाक्टर की मरीज़ के प्रति आत्मीयता भरोसा पैदा करती है और कई बार रोगी मानसिक रूप से ही स्वस्थ महसूस करने लगते हैं। एक नर्स मरीज की सुगर के कारण गल गई पैरों उंगुलियों की ड्रेसिंग करते हुए जितना प्रतिबद्ध थी, अपने पूरे जीवन में मैंने इतना आत्मीय व्यवहार मरीज़ के प्रति किसी का नहीं देखा था। मानसिक रोग विशेषज्ञ डा.सुमित दास अपने मरीजों के साथ उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में बातें करके समझ लेते कि उनके मानसिक तनाव का क्या कारण हैं। महिलाएं बहुत ही सहजता से अपने पारिवारिक जीवन की परेशानियों को डाक्टर से साझा करती हैं। प्रसूति रोग विशेषज्ञ सामान्य बोलचाल में ही युवा महिलाओं की समस्याओं को समझकर उनके निवारण के लिए शिक्षित करती हैं। 

             श्रमिक केन्द्र में मिलने वाली ज़रूरी दवाएं उपयोगी और जैनरिक होती हैं जो कि बहुत कम दाम पर मरीजों को उपलब्ध करवाई जाती हैं। जो भी दवाएं यहां पर मरीजों को दी जाती हैं वे (ईएमल) एसन्शियल मेडिसन लिस्ट से टैस्ट होती हैं। मेडिसन विभाग में बैठकर ही मैं बाज़ार के गणित को समझ पाई. कि जेनरिक दवाएं बहुत कम दम में मिल सकती हैं और उपयोगी होती है. बहुत कम दाम की दवाईयों से भी यहाँ पर रोज़ करीब 25 से 30 हजार तक की आमदनी हो जाती है. तब बाजार में अनेक ब्रांड की कम्पनियों की मंहगी दवाओं से मेडिकल स्टोर कितनी कमाई करते होंगे? और अधिकाँश डाक्टर विशेष ब्रान्ड की ही दवा लिखते हैं और इसमें उनका क्या हित होता है? 

डा. गुन और उनके साथी गरीब मजदूर और किसानों को सस्ता व अच्छा स्वास्थ्य देने का जो अथक प्रयास कर रहे हैं स्वास्थ्य को मुनाफा का उद्योग बनाने वालों के बरक्स ‘जन स्वास्थ्य पर सबका अधिकार, के नारे के साथ एक वैकल्पिक हैल्थ सिस्टम का ढांचा स्थापित करने में यह समूह व्यापक लोगों को भागीदारी बढ़ाना चाहता है। यहां पर स्वास्थ्य कर्मियो के सहयोग से ही अस्पताल का संचालन किया जाता है। संस्थान में लिए जाने वाले निर्णयों में सामूहिकता मौजूद है। स्वास्थ्य जागरूकता के लिए कई प्रकार की पत्रिकाओं का संचालन भी यहां से किया जाता है, जो बांग्ला और अंग्रेजी भाषा में हैं। उदाहरण के लिए अशुक/बुशक बंगाली भाषा का हैल्थ बुलैटिन है। 

 आज पहले से ज्यादा इस बात की आवश्यकता बढ़ गयी है कि लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक किया जाय। और यह बताया जाय कि रोगों का जन्म सीधे तौर पर हमारी सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों से जुड़ा होता है। स्वास्थ्य का मुद्दा, रोटी, कपड़ा, निवास, शिक्षा, संस्कृति आदि से प्रभावित होता है। मैं बतौर स्वास्थ्य कर्मी के अपने अल्प अनुभव के आधार पर और एक सामाजिक कार्यकर्ता के बतौर यह समझती हूँ कि प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मी बड़े पैमाने पर सामान्य रोगों की पहचान कर सकते हैं और प्राथमिक ईलाज कर सकते हैं। समय पर किसी मरीज को हायर सैन्टर भेजने में भी इनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। इसलिए गांव-कस्बों में प्रतिबद्ध सामाज सेवियों को स्वास्थ्यकर्मी का प्रशिक्षण लेना चाहिए तथा जनपक्षधर डाक्टरों के साथ मिलकर स्वास्थ्य सेवाएं प्रत्येक इन्सान को मिले इसका प्रयास करना चाहिए।
आज जब पूरा देश कोरोन वाईरस की इस महामारी के समय में जी रहा है तब यह सच तेजी से सबके समाने आ रहा है कि शहरों की विशालकाय आधुनिक अस्पतालों के लाखों के पैकेज के भीतर कितना खोखलापन है। जहां कि महज आक्सीजन और वेंटिलेटर की कमी से मरीजों को नहीं बचाया जा पा रहा है और अन्ततः ये मुनाफाखोर बिल्डिंगों के मालिक सरकारी मदद, पर ही निर्भर हो रहे है। या परिजनों के ऊपर ही प्लाजमा; आक्सीजन; रेमेडसवियर इन्जेक्शन आदि की व्यवस्था का भार थोप दे रहे हैं। इस समय में यह भी स्पष्ट हो गया है कि जब नेता, मंत्री, अफसर, उच्च मध्यम वर्ग के लोगों तक को भी एक बेड हासिल करने के लिए एड़ी-चोटी का दम लगाना पड़ रहा है। कितने ही लोग ईलाज और जरूरी सुविधाओं के अभाव में मर जा रहे हैं, ऐसे में गरीब आबादी की मुश्किलों की तो महज कल्पना ही की जा सकती है। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट हो रहा है कि वाइरस के संक्रमण लोगों की मौतें उतनी नहीं हो रही हैं जितनी कि समय पर सही ईलाज न मिलने से हो रही हैं। आज हर किसी को यह समझना होगा कि हमारी सरकारों के स्वास्थ्य के प्रति बेरूखी का परिणाम हैं ये लाखों मौंतें। 

आज इस नारे को स्थापित करने की जरूरत आ पड़ी है, ‘स्वास्थ्य कोई भीख नहीं, स्वास्थ्य हमारा अधिकार है’ सबके लिए स्वास्थ्य हो सकता है। ऐसा नहीं है कि अमीर देश ही अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की रक्षा करते हैं बल्कि गरीब देश भी यह कर सकते हैं। विश्व बैंक के मानदण्डों के अनुरूप थाईलेन्ड मध्यम आय वाला देश है श्रीलंका कम आय वाला देश है। इन देशों में सबके लिए स्वास्थ्य संभव हुआ है. हमें आज पहले से ज्यादा मुखर होकर इस तथ्य को चिन्हित करना होगा कि हमारी सरकार की पक्षधरता किसके पक्ष में है। सरकारी इच्छा हो तो प्रत्येक नागरिक के स्वास्थ्य रक्षा करने की जिम्मेदारी सरकार ले सकती है। हमारे देश का औषधि उद्योग प्रतिष्ठित माना जाता है, इसको कुछ निजी हाथों में देने के बजाय सार्वजनिक उद्योग बनाया जा सकता है। 

             जब तक हमारे देश में स्वास्थ्य को सही अर्थों में जीने के अधिकार के साथ जोड़कर नहीं देखा जायेगा, डाक्टर बिना मुनाफे के मरीजों का ईलाज शुरू नहीं कर देते है, जनता को तार्किक, अच्छा व सस्ता स्वास्थ्य प्रदान करने के लिए सरकारी अस्पतालों पर ध्यान दिया नहीं दिया जाता है तब तक स्वास्थ्य सेवाओं को ध्वस्त होने नहीं रोका जा सकता है। आज आवश्यकता तो यह है कि चिकित्सा कर्मियों को आम आदमी तक पहुंच बनानी चाहिए और उनको जागरूक करना चाहिए। जिस तरह आज लोग ईलाज, दवा या अन्य सुविधाओं के अभाव में अन्ततः मौत के बाद भी सम्मानजनक अंतिम यात्रा से वंचित किये जा रहे हैं। उस पर चिकित्सा के इतिहास के लेखक डा. दया राम वर्मा की यह बात याद आती है “मरीजों की सेवा के हर अवसर से चिकित्सक 
भौतिक लाभ हासिल कर लेते हैं। वे सेवा अच्छी करें या बुरी, पैसा जरूर कमा लेते हैं मरीजों को बाद में ही पता चल पाता है कि उसका इलाज सही हुआ या ग़लत। यही वजह है कि चिकित्सा में भ्रम और यर्थाथ, तार्किकता और अतार्किकता, विज्ञान और आध्यात्मिकता का जितना घालमेल होता है, दोनों में से हर पहलू खुद को दूसरे से जितना ज्यादा श्रेष्ठ दिखाता है उतना दूसरे किसी भी क्षेत्र में नहीं होता है।” इस समय में वैकल्पिक जनपक्षधर स्वास्थ्य व्यवस्था को समझकर स्थापित करने की जरूरत है। चिकित्सकों और स्वास्थ्य कर्मियों को तार्किक व वैज्ञानिक विचारों के अनुरूप ईलाज देने तथा मुनाफे के लिए नहीं बल्कि जनता की सेवा के लिए चिकित्सक के पेशे को अपनाना चाहिए।

फोटो श्रमजीवी स्वास्थ्य उद्योग के फ़ेसबुक पेज से साभार


:--चन्द्रकला

अमित शीरीं

Thursday, May 13, 2021

भारत की दिवालिया और हत्यारी 'वैक्सीन डिप्लोमेसी'


 


भारत ने 16 जनवरी को अपना 'वैक्सीनेशन ड्राइव' शुरू किया। 17 मार्च तक इसने 3.5 करोड़ लोगों को वैक्सीन की पहली खुराक लगा दी थी।  इसी दौरान भारत ने 6 करोड़ 60 लाख वैक्सीन निर्यात की। और इसके बाद ही अप्रैल में भारत में 'ऑक्सीजन अकाल' के साथ साथ 'वैक्सीन अकाल' भी शुरू हो गया। 

इस वैक्सीन निर्यात पर सवाल उठाने पर भांड़ मीडिया और भक्त पत्रकारों ने चीखना शुरू कर दिया कि जो लोग इस पर सवाल उठा रहे हैं वे स्वार्थी है। उन्हें नहीं पता कि परमार्थ क्या होता है। यदि हम दुनिया की सहायता नहीं करते तो आज दुनिया हमारी सहायता कैसे करती।

क्या मामला इतना सरल और मासूम है। रोहिंग्या शरणार्थियों के साथ इतना क्रूर व्यवहार करने वाली सरकार अचानक इतनी परमार्थी कैसे हो गयी कि अपने देश के लोगों की जान की कीमत पर भी दूसरों का मदद करने निकल पड़ी।

भारत ने जिन देशों को वैक्सीन सप्लाई की है, उनमें एक प्रमुख नाम पराग्वे (Paraguay) का है। यह लैटिन अमेरिका का एकमात्र ऐसा देश है जिसने अभी तक ताइवान के साथ राजनयिक संबंध बनाया हुआ है। और यह बात दुनिया को पता है कि चीन ताइवान को अपना हिस्सा मानता है। लेकिन अमेरिका ने ताइवान को अलग देश की मान्यता दे रखी है। पराग्वे को उसी दिन (22 अप्रैल) वैक्सीन की सप्लाई भेजी गई, जिस दिन नए संक्रमण के मामले में भारत ने विश्व रिकार्ड तोड़ा था।

इसी सूची में दूसरा नाम ब्राज़ील का है, जिसे करीब 2 करोड़ वैक्सीन की सप्लाई भारत से हो रही है। लैटिन अमेरिका में अमेरिका का प्रमुख पिट्ठू देश ब्राजील ने अमेरिका की शह पर चीन की वैक्सीन पर प्रतिबंध लगाया हुआ है। लिहाजा उसे भारत से वैक्सीन सप्लाई हो रही है।

सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत करीब 93 देशों को वैक्सीन सप्लाई करने का ठेका लिया है। इसमें से करीब  60 देश ऐसे है जो कोविड से बहुत कम प्रभावित हैं। दूसरी ओर भारत इस वक़्त कोविड से शिकार होने वाले देशों में नम्बर 1 पर है।

 चीन को घेरने की अमरीकी रणनीति में भारत अमेरिका का प्रमुख पिट्ठू है। और इसी रणनीति के तहत पूरे विश्व मे चीन के प्रभाव को कम करने के लिए भारत अपने नागरिकों की जान की कीमत पर पूरी दुनिया को वैक्सीन सप्लाई कर रहा है। 

लेकिन अमेरिका और दूसरे योरोपीय देश क्या कर रहे है? वे वैक्सीन का निर्यात नहीं कर रहे हैं, बल्कि वैक्सीन की जमाखोरी कर रहे हैं, ताकि पहले उनके देश के नागरिकों को वैक्सीन मिल सके। यही कारण है कि ब्रिटेन अपनी जनसंख्या के 50 प्रतिशत लोगो को और अमेरिका 30 प्रतिशत लोगों को अब तक टीका लगा चुका है। जबकि अप्रैल अंत मे भारत में यह आंकड़ा महज 1.8 प्रतिशत (दोनों डोज मिलाकर) था।

यदि भारत सच में परमार्थ  करना चाहता है तो उसे सबसे पहले क्रूर अमेरिकी प्रतिबंध झेल रहे ईरान, वेनेजुएला और उत्तर कोरिया की मदद करनी चाहिए। क्या 56 इंच वाले प्रधानमंत्री मे इतनी हिम्मत है कि वह अमेरिकी प्रतिबंधों को नजरअंदाज करके इन देशों में वैक्सीन की सप्लाई कर सकें ?

यह है भारत की दिवालिया, दलाल और हत्यारी 'वैक्सीन डिप्लोमेसी'। 

सरकार और गोदी मीडिया का यह तर्क भी वाहियात है कि हमने वैक्सीन का निर्यात किया, इसीलिए आज संकट में दुनिया हमें मदद कर रही है। पहली बात तो यह है कि ज्यादातर मेडिकल मदद यूरोपियन देशों से आ रही है जो वैक्सीन के लिए भारत पर निर्भर नहीं हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत से उठती चिताओं की ऊंची लपटे आज पूरा विश्व देख रहा है। यह विश्व जनमत का दबाव है कि ये यूरोपीय देश भारत की मदद के लिए आगे बढ़े हैं। दूसरे यह डर भी है कि भारत में संक्रमण की रफ्तार को नहीं रोका गया तो यह योरोप और पूरी दुनिया के लिए खतरा बन सकता है।

अब कुछ बातें वैक्सीन से पेटेंट हटाने के बारे में- यह सच है कि यदि वैक्सीन से कुछ समय के लिए ही सही पेटेंट हटा लिया जाय तो पूरे विश्व की आबादी को जल्दी से जल्दी वैक्सीन लगाई जा सकेगी। इस मांग में भारत सरकार भी शामिल है।  तमाम बुद्धिजीवी व गोदी मीडिया इसके लिए भारत सरकार की भूरि -भूरि तारीफ कर रहे हैं। लेकिन आश्चर्य की बात  है कि कोई यह नहीं पूछ रहा कि भारत अपनी स्वदेशी वैक्सीन (भारत बायोटेक की 'कोवैक्सीन') का फार्मूला क्यों नहीं सार्वजनिक करता, ताकि भारत की दूसरी दवा कंपनियां भी इस टीके का उत्पादन कर सकें और भारत की 1 अरब 30 करोड़ की आबादी को जल्दी से जल्दी टीका लगाया जा सके। पुरानी कहावत है कि परमार्थ अपने घर से शुरू होता है। 

यह भारत का पाखंड नहीं तो और क्या है?

जिस तरह से 'स्काई न्यूज़' को दिए अपने इंटरव्यू में बिल गेट्स ने पेटेंट कानून को हटाने का पुरजोर विरोध किया, उससे बिल गेट्स की तथाकथित चैरिटी का नकाब भी उतर गया। इनको अपने मुनाफे और मोनोपोली के आगे कुछ नहीं दिखता।

हालांकि हमें यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिए कि सिर्फ पेटेंट हटाने से कोई खास फायदा नहीं होने वाला। यह महज पहला कदम है। वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया बहुत जटिल होती है। इसलिए इसका जेनेरिक वर्ज़न बनाने के लिए पेटेंट हटाने के अलावा संबंधित कंपनी को अपना 'ट्रेड सीक्रेट' और तकनीक भी साझा करनी होगी। मोडर्ना (Moderna) ने तो अपना पेटेंट पिछले साल अक्टूबर में ही हटा लिया था। लेकिन 'ट्रेड सीक्रेट' और तकनीक न मिलने के कारण आज तक कोई मोडर्ना (Moderna) की वैक्सीन को कॉपी नहीं कर पाया। इसलिए यदि अमेरिका या ये कंपनियां 'मानवता के हित' मे अपना पेटेंट कानून कुछ समय के लिए हटाने को तैयार हो जाती हैं, लेकिन अपना 'ट्रेड सीक्रेट' और तकनीक साझा नहीं करती तो यह अमेरिका और इन कंपनियों का पाखंड ही कहा जायेगा। और कुछ नहीं।

'ट्रेड सीक्रेट' साझा न करने का एक बड़ा कारण यह भी है कि इन कंपनियों ने अपने अपने देशों की सरकारों की मिलीभगत से मुनाफे की हवस में जितनी जल्दी अपनी वैक्सीन को बाजार में उतारा है, उसके कारण इनको बनाने की प्रक्रिया बहुत पारदर्शी नही रही है। भारत में स्वदेशी 'कोवेक्सीन' तो ट्रायल के दूसरे चरण में ही बाजार में उतार दी गयी थी। इससे लोगों के मन मे इन वैक्सीन के प्रति एक डर बैठ गया है कि पता नहीं आगे चलकर इसका क्या साइडइफेक्ट हो। 'ट्रेड सीक्रेट' साझा करने से उनके मुनाफे पर असर पड़ने के अलावा इन सबके भी उजागर होने का खतरा है।

आज कोविड वैक्सीन बनाने वाली सभी कंपनियों ने मुख्यतः सरकारी यानी जनता के पैसे से वैक्सीन पर रिसर्च किया और अब पेटेंट करा कर उसे जनता तक पहुँचने में बाधा बनकर खड़ी हैं। 

सोचिए, अगर आग का अविष्कार करने वालों ने उसे पेटेंट करा लिया होता तो आज हम कहाँ होते।

#मनीष आज़ाद

Wednesday, May 12, 2021

इन्‍साफ़पसन्‍द लोगों को इज़रायल का विरोध और फ़िलिस्‍तीन का समर्थन क्‍यों करना चाहिए?



मैं इन्‍साफ़पसन्‍द लोगों से मुख़ातिब हूँ। जो लोग न्‍याय और अन्‍याय के बीच की लड़ाई में ताक़त के हिसाब से या समाज और मीडिया में प्रचलित धारणाओं के अुनसार अपना पक्ष चुनते हैं वो इस पोस्‍ट को न पढ़ें। आज जब दुनियाभर में लोग कोरोना महामारी से जूझ रहे हैं और हमारे देश में हुक्‍मरानों के निकम्‍मेपन की वजह से हम अपने देश के भीतर एक नरसंहार के गवाह बन रहे हैं, वहीं इस महामारी के बीच हज़ारों मील दूर ग़ाज़ा में ज़ायनवादी इज़रायल एक बार फिर मानवता के इतिहास के सबसे बर्बर क़िस्‍म के नरसंहार को अंजाम दे रहा है। इस वीभत्‍स नरसंहार पर ख़ामोश रहकर या दोनो पक्षों को बराबर का ज़िम्‍मेदार ठहराकर हम इसे बढ़ावा देने का काम करेंगे। 

जो लोग इज़रायल और फ़िलिस्‍तीन के विवाद के इतिहास को ढंग से नहीं जानते वही लोग दोनो पक्षों को बराबर का ज़िम्‍मेदार ठहराकर दोनों से हिंसा छोड़ने का आग्रह करते हैं। अगर वो संज़ीदगी से इतिहास पढ़ते तो पाते कि 1948 में इज़रायल नामक राष्‍ट्र का जन्‍म ही फ़िलिस्‍तीनियों की ज़मीन पर क़ब्‍ज़ा करके, उनको उनकी ही ज़मीन से बेदख़ल करके और बड़े पैमान पर क़त्‍लेआम को अंजाम देकर हुआ था। उसके बाद से क़ब्‍ज़े, बेदख़ली और क़त्‍लेआम का यह सिलसिला आज तक बदस्‍तूर जारी है। आज फ़िलिस्‍तीन के लोग वेस्‍ट बैंक और ग़ाज़ा के दो छोटे-से हिस्‍सों में समेट दिये गये हैं और इज़रायल वहाँ भी उन्‍हें अमन और आज़ादी से नहीं रहने देता है। तमाम अन्‍तरराष्‍ट्रीय क़ानूनों को धता बताकर इज़रायल वेस्‍ट बैंक में यहूदियों की अवैध बस्तियाँ बसा रहा है। वहाँ चप्‍पे-चप्‍पे पर फ़ौजी चेकपोस्‍ट मौजूद हैं जहाँ इज़रायली फ़ौजी फ़िलिस्‍तीन के लोगों को उनके अपने ही देश में अपराधियों जैसा सलूक़ करती है। वेस्‍ट बैंक में ही इज़रायल ने एक नस्‍लभेदी दीवार बनायी है जो फ़िलिस्‍तीन के खेतों से होकर गुज़रती है और जिसकी वजह से लोगों का जीवनयापन और एक जगह से दूसरी जगह आनाजाना दुश्‍वार हो गया है। ग़ाज़ा तो आज दुनिया के सबसे बड़ी और सबसे घुटनभरी जेल से कम नहीं है। उसे ज़मीन और समुद्र सभी ओरों से इज़रायल ने घेरेबन्‍दी कर रखी है और खाने-पीने व दवा जैसी अत्‍यावश्‍यक चीज़ों की भारी किल्‍लत है। वहाँ उपलब्‍ध 95 फ़ीसदी पानी पीने योग्‍य नहीं रह गया है। 

ऐसे मानवीय संकट के बीच कोरोना महामारी ने फ़िलिस्‍तीन के लोगों की मुश्किलों को पहले से भी बढ़ा दिया था। वेस्‍ट बैंक व ग़ाज़ा में पहले से लचर चिकित्‍सा व्‍यवस्‍था पूरी तरह से चरमरा चुकी है और आर्थिक संकट की वजह से लोगों के काम-धन्‍धे चौपट हो गये हैं। साम्राज्‍यवादी मीडिया में इज़रायल द्वारा अपने सभी नागरिकों को वैक्‍सीन देकर सुरक्षित करने की ख़ूब वाहवाही हुई, लेकिन इस मानवद्रोही हरकत की ख़बर नहीं आयी कि ज़रूरत से ज्‍़यादा वैक्‍सीन उत्‍पादन के बावजूद इज़रायल ने फ़िलिस्‍तीनी लोगों को वैक्‍सीन देने की बजाय अन्‍य देशों को निर्यात किया। इस संकटकालीन स्थिति में इज़रायल ने ग़ाज़ा पर बमबारी करके अपने ख़ूँखार मानवद्रोही चरित्र को एकबार फिर उजागर किया है।      

जो लोग इस हमले के लिए हमास को द्वारा दागे गये रॉकेट को ज़िम्‍मेदार मान रहे हैं उन्‍हें पता होना चाहिए कि फ़िलिस्‍तीन के लोगों के पास कोई फ़ौज, नौसेना या वायुसेना नहीं है। ऐसे में उनके पास जो कुछ है उसी से लड़ रहे हैं। अपनी क़ौम को नेस्‍तनाबूद होने से बचाने की इस लड़ाई में फ़िलिस्‍तीनियों का बच्‍चा-बच्‍चा शामिल हे। वो पत्‍थर से लड़ रहे हैं, गुलेल से लड़ रहे हैं, कविता कैमरे से लड़ रहे हैं और रॉकेट से भी लड़ रहे हैं। डेविड और गोलियथ के बीच जारी इस जंग में वे दुनियाभर के इन्‍साफ़पसन्‍द लोगों का आह्वान भी कर रहे हैं कि वे ताक़तवर का नहीं बल्कि इंसाफ़ का पक्ष चुनें। हमास की विचारधारा से इत्‍तेफ़ाक़ न रहते हुए भी अपनी क़ौम पर हो रहे बर्बर हमले की जवाबी कार्रवाई करने के उनके हक़ की मुख़ालफ़त आप भला क्‍यों करेंगे? अगर किसी की ज़मीन पर कोई बाहर से आकर क़ब्‍ज़ा कर ले और मारकाट मचाये तो क्‍या आप उस व्‍यक्ति को यह नैतिक उपदेश देंगे कि वह चुपचाप शान्तिपूर्वक सबकुछ सह ले?

बहुत से लोग इस समस्‍या को मज़हब के चश्‍मे से देखते हुए इस्‍लाम बनाम यहूदी समस्‍या के रूप में प्रस्‍तुत करते हैं और उसके आधार पर इज़रायल या फ़‍िलिस्‍तीन का पक्ष चुनते हैं। ऐसे लोग अगर फ़‍िलिस्‍तीन का समर्थन भी करते हैं तो वह वस्‍तुत: उनकी लड़ाई को कमज़ोर करने का ही काम करते हैं। अगर वाक़ई यह मज़हबों की जंग होती तो अरब जगत के इस्‍लामी देशों के हुक्‍मरान भला फ़िलिस्‍तीन के साथ क्‍यों नहीं आते? सऊदी अरब, जहाँ इस्‍लाम की पुण्‍यभूमि मक्‍का स्थित है, इज़रायल और अमेरिका का सबसे दुलारा दोस्‍त क्‍यों है? अगर आप थोड़ी देर के लिए मज़हब का चश्‍मा उतारकर इस समस्‍या को समझने की कोशिश करेंगे तो पाएंगे कि इस समस्‍या के तार मध्‍यपूर्व में अमेरिकी साम्राज्‍यवादी दख़ल से जुड़े हैं। तेल व गैस जैसे अमूल्‍य संसाधनों वाले इस भूराजनीतिक रूप से अहम इस इलाक़े में इज़रायल अमेरिकी साम्राज्‍यवाद के हितों को साधने का काम करता आया है। यही वजह है कि रिपब्लिकन और डेमोक्रैट दोनों पार्टियों के नेता इज़रायल का खुलकर समर्थन करते हैं और उसकी फ़ौजी ताक़त बढ़ाने के लिए हर साल अरबों डॉलर का सहयोग भेजते हैं। 

हम भारत के लोगों ने उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई लड़कर विदेशी ग़ुलामी से अपनी आज़ादी पायी। ऐसे में हम आज इतिहास के सबसे बर्बर फ़ौजी और सेटलर उपनिवेशी ताक़त द्वारा ढाये जा रहे अकथनीय ज़ुल्‍म पर भला ख़ामोश कैसे रह सकते हैं? हमारे हुक्‍मरानों ने तो फ़िलिस्‍तीनियों के जायज़ संघर्ष से मुँह मोड़कर इज़रायल के साथ गलबहियाँ करने का फैसला किया है। उनका तो समझा जा सकता है क्‍योंकि उनका ज़ायनवाद से (और मज़े की बात है कि हिटलरी फ़ासीवाद से भी) बिरादाराना नाता है। हत्‍यारों-नरसंहारकों के बीच की एकता तो सहज समझ में आती है। लेकिन भारत के आम लोगों को तो फ़िलिस्‍तीनियों के पक्ष में आवाज़ उठानी ही चाहिए और इज़रायलियों द्वारा मानवता के ख़ि‍लाफ़ किये जा रहे अपराध का पर्दाफ़ाश करना ही चाहिए। इंसानियत और इंसाफ़ का तकाज़ा तो यही है।

Image credit: Carlos Latuff

-आंनद सिंह ( BHU IIT)

Tuesday, May 11, 2021

दम घुटते मेरे देश के पक्ष में एक गवाही


 

7 अक्टूबर 2020 को दक्षिण दिल्ली में कुत्तों के लिए बने एक शमशान घाट का उद्घाटन करते हुए वहाँ की भाजपा मेयर अनामिका मिथिलेश ने कहा कि अब कुत्तों को भी सम्मान के साथ दफनाया जा सकेगा। इसके महज 6 माह बाद ऑक्सीजन न मिलने से कोविड-19 मरीजों की भयावह मौतों के कारण जब दिल्ली के सभी शमशानों में जगह कम पड़ने लगी तो इन्ही मेयर साहिबा ने कुत्तों के लिए बने इस शमशान घाट को मनुष्यों के लिए खोल दिया।निश्चय ही कुत्तों का सम्मान अब और भी बढ़ गया होगा। 

बहरहाल इस खबर ने मुझे एक अजीब सी सुररियलिस्ट  (surrealist) मनःस्थिति में धकेल दिया। स्मृतियां वाचाल होने लगी और  मुझे याद आया कि पिछले साल ही जुलाई में आगरा के एक गांव में उस गांव के 'उच्च जाति' के लोगों ने एक दलित महिला की आधी से अधिक जल चुकी चिता को जबरन शमशान घाट से बाहर फिकवा दिया था, क्योंकि उनके अनुसार वह शमशान घाट 'उच्च जाति' के लोगों के लिए आरक्षित था।

इसके बाद मेरी स्मृतियां उन अबोध 60 बच्चों से टकरा गई जो बीआरडी मेडिकल कालेज गोरखपुर में ऑक्सीजन न मिलने से जीवन देखने से पहले ही मौत के आगोश में समा गए । मध्य वर्ग को इस सूचना से दुःख तो जरूर हुआ लेकिन वह डरा नहीं। अखबार पलटते हुए उसने अपने दिमाग से यह डर भी झटक दिया कि कभी उसके साथ भी ऐसा हो सकता है, क्योंकि मरने वाले सभी बच्चे तो दलित और बेहद गरीब वर्ग से थे।

अल्बेयर कामू ने अपने मशहूर उपन्यास 'प्लेग' (मौजूदा वक़्त में यह उपन्यास 'बेस्ट सेलर' है। निश्चित ही यह तथ्य अल्बेयर कामू को उनकी कब्र में परेशान कर रहा होगा ) में लिखा है कि इस तरह की भयावह महामारी हमारी नियति को आपस मे बांध देती है। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसी महामारियां हमें 'जेनेरिक' में बदल देती है। कोविड-19 से पहले हम अपने अपने 'ब्रांड' को लेकर चाहे जितना इठलाते हों, लेकिन  यह सच है कि आज हम सब एक साथ कोविड-19 और उससे उपजी अथाह परेशानियों के निशाने पर हैं। उपरोक्त 'प्लेग' उपन्यास में प्लेग को एक मूसल के रूप में दिखाया गया है, जो हम सब के ऊपर मंडरा रहा है। वह कब किसको कुचलेगा, यह महज संयोग की बात है। भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अस्पताल में बेड के लिए गिड़गिड़ाने पर जवाब मिलता है कि कोई मरेगा तभी बेड मिलेगा।

लेकिन असल सवाल तो यह है कि आज हम जिस हालात में है, क्या वह हमारी नियति थी? 

आज से लगभग 100 साल पहले जब 1918-19 में 'स्पेनिश फ्लू' ने दुनिया पर कहर बरपाया था तो प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिका के कारण समाज जर्जर हो चुका था। युद्ध की थकान सिर्फ मोर्चे से लौटे सिपाहियों में ही नहीं पूरे समाज मे थी।  हेल्थ सेक्टर न के बराबर था। दवाइयों-टीको की बस शुरुआत ही हो रही थी। फलतः इसने 15  से 20 करोड़ लोगों को लील लिया था। हमारे देश मे ही करीब 2 करोड़ लोग इसके शिकार हुए थे। मशहूर हिंदी साहित्यकार निराला के परिवार के कई सदस्य इस महामारी में मारे गए थे।

पिछले साल के शुरू में जब कोविड -19 ने दस्तक दी तो स्थितियां 1918 से एकदम अलग थी। विश्व अर्थव्यवस्था 90 ट्रिलियन डॉलर को छू रही थी (1918 में यह 6-7 ट्रिलियन डॉलर के आसपास थी)। दवाओं और टीकों से बाज़ार भरे हुए थे। सुपर स्पेशिएलिटी अस्पताल हर बड़े शहर में मौत को चुनौती देते लगते थे। जीन थेरेपी वहाँ तक जा पहुँची थी कि 'हेल्थ जार' बिल गेट्स जैसे लोग जीवन के सॉफ्टवेयर को हैक करने की संभावना तलाशने लगे थे। ड्राईवर-विहीन कार सड़कों पर उतर चुकी थी। दूसरे ग्रहों पर बस्तियां बसाना अब कल्पना की बात नहीं थी। इस पर काम शुरू हो चुका था। एलन मास्क ने तो अंतरिक्ष सैर की बुकिंग भी शुरू कर दी थी। इसका किराया 1 मिलियन डॉलर था। अमेरिका पृथ्वी पर युद्व से अब बोर हो चुका था, उसने 'स्टार वॉर'  की तैयारी शुरू कर दी थी। उसका मिलिट्री बजट 700 बिलियन डॉलर पहुँच चुका था। भारत भी बहुत पीछे नहीं था और उसने रूस को पीछे छोड़ते हुए मिलिट्री बजट के मामले में अमेरिका चीन के बाद तीसरा स्थान हासिल कर लिया था। अमेरिका अंतरिक्ष गुरु तो भारत विश्व गुरू बनने का एलान कर चुके थे।

इस 'शानदार' परिस्थिति के बावजूद अमेरिका में मामूली वेंटिलेटर के बिना और भारत में मामूली ऑक्सीजन और मामूली चिकित्सा-सुविधा के बिना लाखों लोगों की जान क्यों गयी? और आज भी  लगातार जा रही है।

कोविड से पहले क्या हम किसी स्वप्न लोक में विचरण कर रहे थे? और कोविड ने हमे झकझोर कर जगा दिया? या आज हम किसी दुःस्वप्न में जी रहे हैं?और हमारा जागना अभी बाकी है?

दरअसल न तो वह स्वप्न था, न ही यह दुःस्वप्न है। सच तो यह है कि उस चकाचौंध और 'विकास' के तेज शोर के बीच एक हिंस्र वर्ग-युद्ध जारी था। यह अलग बात है कि इस देश के अधिकांश मध्य वर्ग ने और 'उदारवादी' बुद्धिजीवियों ने जाने-अनजाने इसकी तरफ से आँखे मूंद रखी थी।

1990-91 में साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के बाद यह वर्ग-युद्ध और तेज हो गया। एक तथ्य से यह बात स्पष्ट हो जाएगी। भारत स्वास्थ्य पर खर्च के मामले में विश्व का 155 वां देश है। भारत स्वास्थ्य पर अपनी GDP का महज 0.36 प्रतिशत खर्च करता है।  हर साल करीब 6 करोड़ लोग बीमारियों के इलाज पर खर्च के कारण गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं।  सिर्फ टीबी से 5 लाख लोग इस देश में हर साल मरते है। 1990 के बाद इस वर्ग युद्ध के तेज होने से अब तक कुल 4 लाख किसान 'आत्महत्या' कर चुके हैं। नागरिक स्वतंत्रता के मामले में भारत विश्व का 142 वां देश है। सैनिक शासन वाला म्यांमार भी भारत से दो पायदान नीचे है, यानी 140 वें नम्बर पर है।

यह लिखते हुए मुझे भुवनेश्वर की बहुचर्चित कहानी 'भेड़िये' याद आ रही है। जैसे हिंसक भेड़ियों के झुंड से अपनी जान बचाने के लिए बैलगाड़ी पर भागते दोनों बाप-बेटे साथ की लड़कियों को एक एक कर भेड़ियों के सामने फेकते जाते हैं, ठीक उसी तरह हमारा समाज भी पिछले 30 सालों से इन भेड़ियों के सामने अपनी एक एक बहुमूल्य चीज फेंकता जा रहा है- शिक्षा, स्वास्थ्य, पब्लिक सेक्टर, खेती, जल-जंगल-जमीन, पर्यावरण, श्रम अधिकार, नागरिक अधिकार ..... लेकिन न इन भेड़ियों की रफ्तार कम हो रही है और न इनकी हिंसक भूख। भारत में 2014 के बाद तो इन भूखे भेड़ियों की रफ्तार और तेज हो गयी है। इनके खून सने दांत अब और साफ नजर आ रहे हैं। इस दौरान भाजपा की हिंदुत्व-फासीवाद की आक्रामक राजनीति के कारण जनता की 'प्रतिरोधक क्षमता' तात्कालिक तौर पर कुछ कमजोर भी हुई है।

खून और नफ़रत से लथपथ ऐसे ही समय पर कोविड ने दस्तक दी है। इस पृष्ठभूमि में देखे तो समाज का 80 प्रतिशत हिस्सा आज लगभग उसी स्थिति में है जिस स्थिति में विश्व स्पेनिश फ्लू के समय था। अपने ऊपर थोपे गए वर्ग युद्ध से लहूलुहान। लेकिन अंतर इतना ही है कि आज कोविड ने गरीबों को अपनी गिरफ्त में लेते हुए उच्च मध्य वर्ग, मध्य वर्ग में भी जबरदस्त छलाँग लगा दी। इस कारण उनके लिए 'आरक्षित' अस्पतालों में भी बेड, ऑक्सीजन, आईसीयू के लिए उन्ही के बीच मारा-मारी शुरू हो गयी। तीन देशों के राजदूत रह चुके अशोक अमरोही 5 घंटे तक बेड का इंतजार करते हुए मेदांता की कार-पार्किंग में मर गए। पत्रकार बरखा दत्त अपने पिता को आईसीयू नही दिला सकी। पिता का अंतिम संस्कार करने के लिए उन्हें शमशान घाट में भी संघर्ष करना पड़ा। तब जाकर इस देश के मध्य वर्ग को अहसास हुआ कि सिस्टम फेल हो गया है। इस देश के गरीब-दलित-मुस्लिम-आदिवासी के लिए तो कभी सिस्टम था ही नहीं। वह तो अपने ऊपर थोपे गए वर्ग-युद्ध को लड़ते हुए महज जिंदा रहने की जद्दोजहद ही कर रहा था।

मध्य वर्ग का बड़ा हिस्सा और हमारा 'उदारवादी' बुद्धिजीवी जब भी इस फेल हो चुके सिस्टम से थोड़ा नाराज़ होता है तो वह लोहिया के इस सूत्र की शरण मे जाता है कि  रोटी और सत्ता को बदलते रहना चाहिए। और वो सत्ता बदलने के नाम पर सरकार बदलने निकल पड़ता है। यहां मुझे गार्सिया मार्खेज की एक कहानी याद आ रही है। इस कहानी में जनता एक आतताई राजा को मारकर दफना देती है। लेकिन वह हर बार कब्र से निकलकर तख्त पर बैठ जाता है। जनता परेशान है कि क्या करे? जादुई यथार्थ की इस कहानी की तरह ही हमारा चुनावी लोकतंत्र भी जादुई हो चुका है। इसके माध्यम से आप 'गुएरनिका' बन चुके हमारे इस प्यारे देश को नहीं बचा सकते।

इसी देश में इस वर्ग युद्ध के बीच कुछ आदिवासी इलाकों में एक सुंदर स्वप्न रचा जा रहा है। क्या हम उस स्वप्न को जानने का प्रयास करेंगे और आगे बढ़कर उस स्वप्न में अपनी भागीदरी करेंगे? ऐसा हम तभी कर सकते हैं जब रोटी और सत्ता ( सरकार ) पलटने की राजनीति से परे जाकर कुछ सोचें।

कोविड के समय हुए चुनाव ने इस अहसास को और गहरा किया है। यूपी के पंचायत चुनाव में ड्यूटी के दौरान कोविड का शिकार होने से 740 शिक्षकों की मौत हुई है। इसके बाद चुनावी लोकतंत्र का जश्न मनाना क्या मौत का जश्न मनाना नहीं है? कोविड ने हमें एक और मौका दिया है कि हम संसदीय लोकतंत्र की परिधि से बाहर निकल कर सोचें। नहीं तो हम उपरोक्त कहानी की तरह ही आतताई राजा को  'मारते' रहेंगे और राजा जीवित होकर तख़्तनशीं होता रहेगा।

गार्सिया मार्खेज ने कहीं कहा है कि विवेक तो महत्वपूर्ण है ही, लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि वह सही वक्त पर आए।

आज जब कोविड ने हमारी नियति को पहले से कहीं ज्यादा आपस में गूंथ दिया है तो इससे ज्यादा सही वक्त और क्या हो सकता है....


#मनीष आज़ाद

Monday, May 10, 2021

Consent (कंसेंट) एक गूढ़ शब्द है।

 Consent (कंसेंट) एक गूढ़ शब्द है।

 खासतौर पर स्त्री-पुरुष के संबंधों में इसके कई मायने हो जाते हैं। हाल में फेसबुक पर कुछ वीडियो मिले जिसमें लड़कियों को शुगर बेबी (sugar baby) नाम के प्रोफेशन को 'consent' के साथ बहुत हँसी-खुशी अपनाते हुए दिखाया गया। जहाँ तक मेरी जानकारी है आपमें से 95 प्रतिशत से भी अधिक लोग शुगर बेबी नाम के प्रोफेशन से बिल्कुल भी परिचित नहीं होंगे। 

अमेरिका, ब्रिटेन जैसे विकसित पूंजीवादी देशों में यह प्रोफेशन यूनिवर्सिटी की लड़कियों के बीच खूब प्रचलित है। खासतौर पर उन लड़कियों के बीच में जिनकी आर्थिक स्थिति खराब है और यूनिवर्सिटी का ख़र्चा उठाने के लिए उनके पास पैसे नहीं है। होता है कि dating वेबसाइट्स के जरिये अमीर पुरूष उन लड़कियों को अपनी paid प्रेमिका बनाते है, उनके साथ घूमते फिरते है, शारीरिक संबंध बनाते हैं और इनसब के बदले में उन्हें महीने की सैलरी देते हैं। इन डेटिंग वेबसाइट में लाखों की संख्या में अमीर पुरुष और लड़कियों की प्रोफाइल है जिससे इस प्रोफेशन के पॉपुलैरिटी समझी जा सकती है। अमीर पुरुष लड़कियों को आकर्षित करने के लिए अपनी सालाना कमाई भी इन वेबसाइट्स पर लिखते हैं। इंटरनेट पर इससे जुड़े कई वीडियो मौजूद हैं। उधर लड़कियां खुश हैं कि उन्हें अपनी पढ़ाई नहीं छोड़नी पड़ रही, साथ ही एक अच्छा लिविंग स्टैण्डर्ड, विदेशों में भी घूमने को मिल जाता है। 

एक पुरुष अपनी कमाई के अनुसार के दसियों शुगर बेबी रख सकता है। इन पुरूषों को शुगर डैडी कहा जाता है। कहने को तो ये रिश्ता दो एडल्ट्स के बीच पूरी तरह से कंसेंट पर आधारित है। लेकिन यहां उनकी कंसेंट क्या वास्तव में उनकी कंसेंट है? हमारे लिए इसकी पृष्ठभूमि समझना ज्यादा जरूरी है। इन देशों में अगर शिक्षा निशुल्क होती तो क्या लड़कियों को अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए एक झूठे चकाचौंध भरे इस प्रोफेशन को चुनना पड़ता?

 पूंजीवाद हर रिश्ते की आत्मीयता को खत्म करके पैसे पर आधारित रिश्ता बना देता है। क्या इस तरह के रिश्तों का आधार भी सिर्फ पैसा नहीं है?

 जिस पुरुष के पास जितने पैसे वह उतनी लड़कियों को अपनी प्रेमिका बना सकता है। क्या यह महिलाओं का वस्तुकरण नहीं है? क्या कंसेंट के नाम पर इस रिश्ते को सही ठहराया जा सकता है?


-Aakanksha

त्रिलोचन शास्त्री और उनका दलित दोस्त



आज 20 अगस्त को हिंदी के बड़े व प्रगतिशील कवि ‘त्रिलोचन शास्त्री’ का जन्म दिन है। आज ही के दिन 1917 में वे उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में पैदा हुए थे। उनसे जुड़ा एक किस्सा आज मुझे याद आ गया, जो खुद त्रिलोचन जी ने ही सुनाया था।

त्रिलोचन की गांव के ही एक दलित नौजवान से गहरी दोस्ती थी। एक दिन दोनो ने मस्ती में ही यह तय किया कि इस गांव से दिल्ली की यात्रा पैदल ही की जाय। लेकिन शर्त यह थी कि कोई भी अपनी जेब में एक पैसा भी नहीं रखेगा। और यात्रा अलग अलग करेंगे। 1 माह बाद दिल्ली के लाल किले के सामने तय समय पर मिलने का तय कर लिया गया, जहां दोनो अपना अनुभव एक दूसरे को बतायेंगे। दोनो ने सुल्तानपुर से दिल्ली जाने वाली रेलगाड़ी की पटरी को पकड़ कर अलग अलग समय पर अपनी यात्रा शुरू कर दी।

एक माह बाद तय समय व स्थान पर त्रिलोचन और उनके दलित दोस्त मिले। त्रिलोचन ने तपाक से पूछा कि कैसे इतनी लंबी यात्रा बिना पैसे के की। उनके दलित दोस्त ने उनसे कहा कि पहले आप अपना अनुभव बताएं। त्रिलोचन ने बड़े सहज भाव से जवाब दिया कि चलते चलते जब मैं थक जाता था तो बगल के गांव में चला जाता था वहां कहीं स्थान देख कर भजन कीर्तन-प्रवचन शुरू कर देता था। गांव वाले मुझे भोजन, पैसे और सोने का अच्छा जुगाड़ कर देते थे। फिर मैं अगले दिन वहां से निकल जाता था। ऐसे ही मैं दिल्ली पहुंच गया। कोई दिक्कत नहीं हुई। अब उस दलित दोस्त की बारी थी। उसने बहुत संक्षिप्त सा उत्तर दिया। मैं गांव दर गांव मजदूरी करता, फिर आगे बढ़ जाता। इस तरह मैं दिल्ली पहुंच गया।

यह कहानी सुनाने के बाद त्रिलोचन ने कहा कि दलित दोस्त के इस अति संक्षिप्त उत्तर में हमारी जाति व्यवस्था की विराटता का दर्शन उसी तरह होता हैं जैसे अर्जुन को कृष्ण के मुख में पूरे ब्रहमाण्ड के दर्शन हुए थे।


मनीष आज़ाद

"द ग्रेट इंडियन किचेन" विस्तृत फ़िल्म समीक्षा।

 

दुनियाभर में खास कर भारत में घर और रसोई महिलाओं के लिये कैदखाना से कम नहीं है,यह उन्हें ज्यादा महसूस होता है जो इन्हें लाँघ कर कुछ करना चाहती है या उनके अंदर स्वयं का बोध हो।

दरअसल, समाज में उन्हीं घिसीपिटी रुढियों और मान्यताओं का पालन पोषण होता है जिससे लोगो का चौतरफा विकास बाधित होता है। औरतों को घर के चारदीवारी के भीतर कैद रखने के लिये अनेक तरह मिथ्या प्रचारित किया जाता है। कहानियों, मान्यताओं और धर्मग्रंथों में स्त्री पात्रों को त्याग, समर्पण, सहनशीलता जैसे गुणों का धारणी के रूप में प्रस्तुत कर उन्हें घर के काम, बच्चों को पालना, घर संभालने के लिए खास महसूस कराया जाता है। देवी, सतीत्व, जैसे शब्दों की चाशनी में डुबोकर स्त्रियों के व्यक्तिगत विकास को रोकने, उनके उभरते स्वतंत्र व्यक्तित्व को बांधने की कड़वी साजिश को उनके समक्ष परोसा जाता रहा  है। इतना ही नहीं इस स्थिति को बनाए रखने के लिए सैकड़ों वर्षो से अलग-अलग उद्यापन किए गए हैं; उनमें से कुछ ऐसी कहावत को गढ़ना है जिनके अनुसार "पुरुष के दिल का रास्ता उसके पेट से होकर जाता है" ऐसी ही एक दूसरी कहावत है कि "सुखी स्त्री वही है जो मीठी बातें और स्वादिष्ट खाना बनाना बखूबी जानती हो" यह सारे उद्योग स्त्री को रसोई तक सीमित रखने के लिए किए गए हैं। इन रुढियों और मानकों को संरक्षण देने और प्रचारित करनेवाला पुरूष अपनी सहूलियत के हिसाब से उन्हें गढ़ता है और उन्हें महिलाओं पर थोप देता है, महिलाओं को उन्हें ढोने पर मजबूर करने के लिए कई स्वांग रचता है। पुरुष और स्त्री के श्रम विभाजन को सही ठहराने के लिए कई धार्मिक ग्रंथ रचे गए और उन्हें दैविय ग्रंथ घोषित किया गया। इन्हीं ग्रंथों पर आधारित रीति रिवाजों को मानने के लिये इसे गौरवान्वित किया जाता है, और जो इन्हें मानने से इनकार करते है उनको दंडित करने के लिए विधर्मी, कुल्टा, पिचाशीन आदि लेबल लगाकर उन्हें अपमानित व बहिष्कृत किया जाता है। इससे काम नहीं बनता है तो हिंसा का सहारा भी लेते है। ये कौन पुरूष है जो ये ताने बाने बुनते है? ये कोई समाज में साधारण व शक्तिहीन पुरुष नहीं होते है, बल्कि वे ताकतवर, विशेषाधिकृत, संसधानों के कब्जेदार, ऊंचा हैसियत रखने वाले, धार्मिक पंडा- पुजारी व शाषक वर्ग होता है। ये वही तय करते है और आम लोगों (स्त्री व पुरुष दोनों) के दिमाग में आरोपित करते है। इन सारी गूथियों को बेहद ही सरल ढंग से इस फ़िल्म में फिल्माया गया है। यह एक मलयाली फ़िल्म है जिसे 'जो बेबी' ने बनाया है।


भारतीय रसोई और घर का जो ताना बाना होता है, वह उनके लिए 'नरक' से कम नहीं होता है। अमिता शीरीं लिखती है कि "भारतीय रसोई में ऐसा लगता है कोई छिलनी से कलेजे को छील रहा है। एक आम औरत को भारतीय किचेन में हर रोज़ अपमानित होना पड़ता है"। भोजन मानव जीवन की आधारभूत आवश्यकता है, उसे त्यागना संभव नहीं है। इस प्रकार रसोई हमारे जीवन का अभिन्न अंग है, रसोई का होना समस्या नहीं है असल में रसोई के कामों में पुरुष की भागीदारी न होना और सिर्फ स्त्री के मत्थे मढ़ना समस्या हैं, स्त्री को रसोई तक सीमित कर देना समस्या है।


फ़िल्म के पहले दृश्य में नायिका भविष्य से अनभिज्ञ, चेहरे पर सुबह की लालिमा जैसी मुस्कान लिए नृत्य का अभ्यास कर रही होती है। वहीं दूसरी तरफ उसी लय में किचेन में कुछ छन छन पक रहा होता है। दरअसल वह हर वक्त औरतों का गुस्सा और अपमान भरा जीवन छन रहा होता है। नृत्य करती नायिका एक रोज़ ब्याह कर एक संभ्रांत परिवार की बहू बन जाती है। यहां वह अपनी सास को किचेन में खटते हुए देखती है। उसे भी वैसा ही बनना है। सुबह उठते ही फर्श सफाई करना, कमरा साफ करना, किचेन साफ करना, दीवाल से सटे तस्वीरें व अलमारी साफ करना, बर्तन धोना, अपने पति को ब्रश में पेस्ट लगाकर देना,नहाने के पानी को गर्म करके देना, खाना बनाने के लिए तरह तरह के सब्जियां काटना, फिर चाय पिलाना, खाने में तरह तरह के पकवान खिलाना, उनको खिलाने व बचा हुआ खुद खाने के बाद, फिर से खाया हुआ व बनाने वाला गांजभर बर्तन धोना, फिर  किचेन साफ करना, टिफ़िन पैक करके देना, उनका कपड़ा निकालकर देना, मर्दों को बाहर जाने से पहले उनका चप्पल निकालकर देना। दुबारा रात के खाने की तैयारी और खाने के बाद, वही काम फिर से दोहराना होता है। हर छोटा  से छोटा काम जैसे टेबल से उठाकर पानी देना, पंखा चालू- बंद करने के लिए पुरुष औरतों को पुकारते हैं। यहां तक अपना नहाया हुआ कपड़ा तक नहीं छूते है और उनका चड्ढी बनियान तक औरतों को धोने के लिए छोड़ देते है। कुल मिलाकर परिवार के पुरुषों के छोटे से छोटे और निजी से निजी कार्य के लिए सर्वथा प्रस्तुत रहना और अपने जीवन के प्रत्येक निर्णय के लिए उनके सहमति के आखिरी मुहर पर आश्रित रहना स्त्रियों के लिए अनिवार्यता बन जाता है। वास्तव में भारतीय रसोई और उसमे खटती औरत पितृसत्ता की चटोरी क्षुधा को कभी संतुष्ट नहीं कर पाती है। कभी नमक मिर्च कम या ज़्यादा होने पर थाली खिसका दी जाती है या कभी फेंक दी जाती है, कभी कभी तो औरतों के मुंह पर। अलग अलग घर के अलग कायदे कानून के नाम पर घर में पुरुष सामन्त की तरह अनेकानेक काम थमाते रहते है। पुरुष का जी तब तक नहीं भरता जबतक वे संतुष्ट ना हो या पूरा खून निचोड़ ना ले। उन्हें मिक्सी के बजाय हाथ से पीसी हुई चटनी चाहिए, कुकर और गैस के जगह तसला और चूल्हा पर पका चावल चाहिए, वाशिंग मशीन की जगह हाथ से धुला कपड़ा चाहिए आदि। पति, ससुर, पिता, भाई, बेटे की जीभ के स्वाद को पूरा करने में औरत अपना सारा जीवन खपा देती है। खास तौर से मध्य वर्गीय औरतें दिन रात किचेन व घर में खटती ही रहती हैं। औरतों के संदर्भ में जो चीज़ सबसे ज़्यादा परेशान करती है वह औरतों का अनथक श्रम तो है ही, लेकिन उससे भी ज़्यादा बेकल करता है उससे जुड़ा दृश्य अदृश्य अपमान। एकबार नायिका मजाकिया  लहजे में अपने पति को कह देती है कि तुम रेस्टोरेंट में तो बहुत टेबल मैनर दिखाते हो, घर में तो जैसे तैसे ही खाते हो और जूठा भी इधर उधर गिराते हो। तभी उसका पति भड़क जाता है। और जबाव देता है कि घर उसका है, वो जैसे चाहे वैसे रहेगा। इससे तो यहीं समझ में आता है कि वे घर का मालिक हैं और औरतें उनकी दासी। यहाँ पर फ्रेडरिक एंगेल्स का अपने पुस्तक 'परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति' का कथन प्रासंगिक लगता है, "सामाजिक उत्पादन से अलग और घरेलू कामकाज की निजी दुनिया में धकेल दी गई स्त्री अपने पति की नौकरानी बनकर रह जाती है । परिवार के भीतर संपत्ति का मालिक होने के चलते पुरुष बुर्जुआ होता है और पत्नी सर्वहारा होती है"। 


फ़िल्म का शुरुआत गाने की एक पंक्ति, 'करीब आओ मैं आपको रहस्यों का एक गुच्छा बताऊंगी' से होता है। उक्त बातों और फ़िल्म देखने के बाद स्पष्ट हो जाता है कि किस रहस्य के बारे में जिक्र है। हमलोगों का पालन पोषण इस तरह से होता है कि घर में महिलाओं की जिल्लत भरा जीवन समान्य लगता है या हम उन्हें तुच्छ या उनका कर्तव्य मानकर उसे नजरअंदाज करते है। पर जब उनके जीवन के करीब जाकर या उनकी मानसिक स्थिति की सतह पर जाकर देखते है तो यह उनके जीवन की सबसे बड़ी समस्या होती है। उसे निजात पाना तो दूर वें अपना पूरा जीवन चूल्हे में जलावन की तरह झोक देतीं हैं। 

फिल्म में नायिका को इतनी देर तक और इतने तरह का काम करते दिखाया है कि शरीर थकने लगता है। फिर भी काम से अगर पुरूष संतुष नहीं होता है तो तरह तरह से तानों की बौछार शुरू हो जाती है। कभी प्यार से तो कभी दुत्कार कर। औरतें कभी इसकी आदी हो जाती हैं तो कभी एक दिन सब्र का बांध टूट भी जाता है।

दिन भर खटने के बाद रात में बिस्तर में परफॉर्म करना होता है। पति के चेहरे का भूगोल पढ़ना पड़ता है, कहीं वह किसी बात पर नाराज़ तो नहीं? हर बार उसे ही सॉरी बोलना पड़ता है! मनाने की पहल करनी पड़ती है। एकबार नायिका अपने पति से कहती है कि सीधे संभोग से उसे सिर्फ दर्द होता है, इसलिए पहले फॉरप्ले करना चाहिए। तब पति उसे ऐसे घूरता है जैसे वह चरित्रहीन है और कहता है तुम्हें सब पता है इस बारे में? आगे कहता है कि फोरप्ले के लिए मुझे तुमसे कुछ महसूस भी होना चाहिए। एंगेल्स का कथन "मजदूर से पत्नी का अंतर यह होता है कि मजदूर अपने शरीर को टुकड़ा टुकड़ा रोज बेचते हैं जबकि पत्नी उसे एक ही बार जिंदगी भर के लिए सौंप देती है" सही जान पड़ता है। स्त्री घरेलू दासी होने के साथ साथ पुरुष की यौन दासी भी बन जाती है। पुरुष को जब मन हुआ जैसे मन हुआ एक वस्तु की तरह उसकी मर्जी के खिलाफ उसका और उसके शरीर का इस्तेमाल करता है।


दिन पर दिन उबाऊ काम किचेन को असुंदर बनाते जाते हैं और वह खीजने लगती है ; उसके चेहरे का सारा नूर निचुड़ने लगता है। साथ ही उसे हर महीने पीरियड के वक्त अपमानित होना पड़ता। पीरियड जैसे जैविक क्रिया को कलंक की तरह लिया जाता है। इस समय वह कुछ छू नहीं सकती, किसी का उसपर नजर ना पड़े, तीन चार दिन अलग कमरे में रहना पड़ता है। उस दौरान नायिका का पति जब स्कूटी से गिर जाता है तो वह चिंतित होकर उठाने की कोशिश करती है तभी वह झटककर धकेल देता है और उसे खरी खोटी सुनाता है कि उसने अपने स्पर्श से उसे अशुद्ध कर दिया। घर में अछूत सा बर्ताव होता है। उसका दम घुटने लगता है।

 इसी सब में सबरीमाला का मुद्दा बहुत ही अच्छी तरह से फिल्माया है। जब एक महिला सबरीमाला वाले मुद्दे पर अपना विचार फेसबुक पर डालती है तो उसे कमेंट में भद्दी भद्दी गालियाँ व धमकी मिलता है। यहाँ तक कि उसके घर जाकर संस्कृति के ठेकेदार तोड़ फोड़ करते है और कहते तुमने अभी असली मर्द नहीं देखा है, बाहर निकल दिखातें है। इसी तरह जब नायिका इस वीडियो को शेयर करती है तो 'सभ्रांत' और पुजारी लोग उसके पति और ससुर को इज्जत की दुहाई देते है। पति आग से बबूला होकर उसे सबक सिखाने जाता है, वह उसका प्रतिकार करती है और कहती है ये उसे सही लगता है। यह दिखाता है कि कैसे औरतों का अपना स्वतंत्र सोच व उनके हित को घर और बाहर कुचला जाता है। पुरुष हर संभव माध्यम से उन्हें नियंत्रित करने का प्रयास करता है, जरूरत पड़ने पर हिंसा का भी प्रयोग करता है। यानी औरतें किचेन में इतना सबकुछ झेलने के बाद इस समाज के सामंती पितृसत्तात्मक अंधविश्वासों को भी ढोए। धर्म और पितृसत्ता का घिनौना गठजोड़ औरतों को और भी ज़्यादा दमित करता हैं।

हद तो तब हो जाती है जब उसका पति और ससुर दोनों उसे डांस टीचर के लिए अप्लाई करने से मना कर देते हैं। ससुर उसे समझता स्त्रियों के घर संभालने से घर बना रहता है और बच्चे अच्छे मुकाम हासिल करते हैं। पहले तो पति टाल-मटोल करता था फिर उसे धमकाता है कि अगर वह घर में रहना चाहती है तो घर के कायदे कानून मानने पड़ेंगे। कायदे कानून क्या होंगे? जो घर के पुरूष तय करे वही।

अपमान इस क़दर बढ़ जाता है कि नायिका विद्रोह कर देती है। वो प्रतिकार कर घर छोड़कर मायके चली आती है। जहां नायिका की मां उसे समझाती है और उसे वापस लौटकर माफी मांगने के लिए नैतिक दबाव डालती है। पर वह अडिग होकर डांस टीचर का जॉब जॉइन कर लेती है। और लड़का दूसरा शादी कर फिर दूसरी महिला के साथ वही चीजें दोहराता है। यहाँ पितृसत्ता यथास्थिति बनाये रहता है।

इस फ़िल्म में किचेन के माध्यम से बहुत बारीकी से औरतों की घुटन को चित्रित किया है। और औरतों की दुखती रग पर हाथ रखा है। यह कोई व्यक्तिगत समस्या नहीं बल्कि कमोबेश हर घर की हकिकत है। निश्चित रूप से औरतों को इस बोझल किचेन और उससे जुड़े रोज़ रोज़ के अपमान से मुक्ति मिलनी ही चाहिए। 


"द ग्रेट इंडियन किचेन" 

2021, मलयाली भाषा में है लेकिन अंग्रेजी सबटाइटल में उपलब्ध है। निर्देशक- जो बेबी। 

यह फिल्म ढूंढ़ कर ज़रूर देखें ....


- श्वेता राजेन्द्र और विश्वनाथ कुमार

Friday, May 7, 2021

पुस्तक समीक्षा : व्हाय आए एम नॉट आ हिन्दू वीमेन


 

वाम-उदारवादी विचारक प्रायः हिंदुत्व और हिंदू धर्म मे भेद करते हुए जहां हिंदुत्व की आलोचना करते हैं वहीं हिन्दू धर्म को व्यक्ति के निजी जीवन का अंग मानकर उसकी निर्मम आलोचना से बचते रहते हैं।हिंदुत्व बुरा है लेक़िन हिंदूइस्म निर्दोष,यह मान्यता प्रभुत्वशाली रही है। इस विश्वास को बौद्धिक चुनौती देती है वंदना सोनालकर की नई पुस्तक "व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू वीमेन"। वंदना सोनालकर भारत की चिर परिचित विदुषी और सामाजिक कार्यकर्ता है। कैम्ब्रिज-विश्विद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त प्रो. सोनालकर टाटा सामजिक विज्ञान संस्थान के स्त्री अध्ययन विभाग से सेवानिवृत्त हुई है। आप एक बेहतरीन अनुवादक और माफुआ (मार्क्स-फुले-अम्बेडकर) की सहयात्री और कार्यकर्ता है।आपके अनुवाद कर्म जैसे -" वी आल्सो मेड हिस्ट्री और "मेमोयर्स ऑफ ए दलित कम्युनिस्ट:-द मैनी वर्ल्डस ऑफ आर. बी.मोरे" पूरी दुनिया मे प्रसिद्ध है। मैं हिन्दू स्त्री क्यों नहीं हूं" यह संभवतः किसी उच्च जातीय स्त्री की प्रथम कृति है जो हिन्दू -धर्म का प्रत्याख्यान करती है।हिन्दू धर्म के इस साहसिक अस्वीकार की पृष्टभूमि में निहित है ब्राह्मणवादी-फ़ासीवाद का उभार। मुसलमानों, दलितों और स्त्रियों पर बढ़ते दमन और उत्पीड़न के कारणों की व्याख्या पारंपरिक राजनीतिक-अर्थशास्त्र के माध्यम से न करके इसे वो हिन्दू धर्म की सामाजिक संस्कृतिक अभिव्यक्ति के रूप में देखती है। पुस्तक की प्रस्तावना में वे स्वंय की आत्म परिभाषा एक ऐसी मार्क्सवादी के रूप में करती है जो जाति की परिघटना को समझने और उसके अंत हेतु प्रतिबद्धता है। अपनी किताब की प्रस्तावना में वो ये अस्पष्ट करती है कि हिंदुत्व या राजनीतिक हिन्दू-धर्म सारतः स्त्रीद्वेषी,जाति वादी और गैरबराबरी पर आधारित है। डॉ सोनालकर का हिन्दू-धर्म का अस्वीकार मात्र विवेकवादी नहीं है।इस पुस्तक में सोनालकर अपने भोगे हुए यथार्थ व आत्म-कथात्मक संस्मरणों के माध्यम से हिन्दू धर्म की आलोचना के तर्क गढ़ती है। उनके अनुसार जाति और पितृसत्ता हिन्दू धर्म की धुरियाँ है जिसके परितः शोषण के अन्यरूप परिक्रमा करते है।हिन्दू धर्म की प्रदूषण-शुद्धता की अवधारणा औरत को तात्कालिक अछूत और दलित को अस्थायी अछूत मानती है।

सोनालकर हिन्दू धर्म की समादृत संस्था हिन्दू परिवार की आलोचना के माध्यम से हिन्दू धर्म की स्त्री विरोधी विचारधारा व व्यवहार को उदघाटित करती है। उनके मतानुसार हिन्दू-धर्म सारतः ब्राह्मणवादी-पितृसत्ता पर आधारित है और इस ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की केन्द्रीय संस्था परिवार है। हिन्दू-धर्म जिस सुखी परिवार का महिमामंडन करता है वह दरअसल उच्च जातीय सवर्ण परिवार है जिसमें महिला का कर्तव्य अपने पति और परिवार की सेवा करना है। इस आदर्शकृत सुखी हिन्दू परिवार की संकल्पना को ध्वस्त करते हुए सोनालकर अपने पिता की विवाहेतर सम्बंध के फलस्वरूप अपनी मां को जो दुःख और अलगाव भोगना पड़ा उसका वर्णन पूरी तरह तटस्थता और वस्तुपरकता के साथ करती है। पितृ सत्ता परिवार में पिता के विचलन को चुनौती देने वाली किसी एजेंसी की अनुपस्थिति और उसका वैधिकृत करना हिन्दू धर्म को स्वभवतः स्त्रिद्वेषी सिद्ध करता है।  पुरुष प्रायः अपने धर्म की आलोचना इस आधार पर करते है कि धर्म तर्क और नैतिकता के विरुद्ध है। वे बहुधा धर्म और लिंगभाव(जेंडर) के अंतः सबंध की उपेक्ष करते हैं।डॉ सोनालकर के अनुसार हिन्दू धर्म का उनका अस्वीकार पुरूषों की धर्म आलोचना से अधिक निजी है क्योंकि इसका मुख्यआधार उज़के उच्च जातीय हिन्दू परिवार में प्राप्त अनुभवों में निहित है।

सोनालकर, सामाज और सत्ता द्वारा दलितों,महिलाओं व मुसलमानों के खिलाफ़ निरंतर बढ़ती हिंसा से चिंतित है तथा इसके सांस्कृतिक मनोवैज्ञानिक स्रोतों का अन्वेषण करने का प्रयास करती है।उनके अनुसार हिन्दू धर्म ऐसे धर्म है जो हिंसा का दार्शनिक स्तर पर समर्थन करता है।भगवदगीता में कृष्ण युद्ध और हिंसा का दार्शनिक-न्यायीकरण करते है। गीता में कृष्ण का तर्क है कि आत्मा अनवश्वर व शाश्वत है इसलिए शरीर की हत्या से आत्मा नहीं मरती । यह आश्चर्यजनक नहीं है कि गीता हिन्दू राष्ट्रवादियों का सबसे प्रिय ग्रन्थ रहा है। गीता का संदेश है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने पूर्व निर्धारित वर्ण/जाति के कर्तव्यों का निःशप्रश्न ढंग करना चाहिए। लेखिका हिंदूइस्म और अन्य धर्मों की तुलना करते हुए लिखती है जहां दूसरे धर्म सभी मनुष्यों को ईश्वर की कृति मानने के कारण एक प्रकार समता के मूल्यों को स्वीकार करते हैं वहीं हिन्दू धर्म सारतः विषमता पर आधारित धर्म है क्योंकि मनुष्यों की श्रेणीबद्ध असमानता को हिन्दू धर्म का आधिकारिक सिद्धांत है। अन्य धर्मों में प्राप्य धार्मिक - सामाजिक समता के आधार पर व्यक्ति अपने लिए निजी नैतिकता निगमित कर सकता है लेक़िन हिन्दू धर्म मे ऐसा नहीं है।यहाँ आपकी जाति अवस्थिति आपकी नैतिकता को निर्धारित करती है।सोनालकर ने इस किताब में अपनी बौद्धिक यात्रा का भी उल्लेख किया है। एक कैम्ब्रिज विश्विद्यालय में शिक्षित उच्ची जाति की पारंपरिक मार्क्सवादी महिला किस प्रकार जाति के सवाल से जूझती है और किस तरह स्वंय को जाति विनाश के लिए प्रतिबद्ध करती है। इसका वर्णन यह आत्मकथात्मक ग्रन्थ की खूबसूरती से करता है।

  हिन्दू धर्म और हिंसा के अंतः संबंधों की पड़ताल करते हुए वो लिखती है कि हिंदुओं का महाकाव्य रामायण शूर्पनखा के विकृतिकरण को न्यायोचित ठहराता है। स्त्रियों के नाक कान काटने की घटनाओं को वे रामायण एवं अन्य हिन्दू। धर्मग्रंथों द्वारा स्त्री व शूद्रों के विरुद्ध हिंसा के समर्थन से जोड़ती है। हिन्दू धर्म और उस पर आधारित हिन्दू राष्ट्रवाद दलितों तथा मुसलमानों को बाहरी "अन्य"के रूप में देखती है,वहीं दलितों आंतरिक "अन्य" मानती है। डॉ सोनालकर का यह प्रेक्षण अत्यंत अतः दृष्टिपूर्ण है कि हिंदुराष्ट्र दलितों पर होने वाले हिंसा का अदृश्यकरण करता है और मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का वैधीकरण करता है। प्रो सोनालकर का विश्वास है कि दलितों,मुसलमानों, स्त्रियों एवम अन्य उत्पीड़ित समुदायों पर बढ़ती हिंसा की व्यख्या केवल हिंदुत्व की राजनीति को उत्तरदायी ठहराकर नहीं कि जा सकती क्योंकि हिंदुत्व की राजनीति जाति-पितृसत्ता ,हिन्दू धर्म पर आधारित हिन्दू धर्म की संस्कृति और दर्शन से प्रेरणा ग्रहण करती है।

  लेखिका का हिन्दूधर्म यह प्रत्याख्यान इस बात को प्रमुखता से रेखांकित करता है कि प्रदूषण -शुद्धता की संकल्पना हिन्दू धर्म का सार है। हिंदुत्व की राजनीति इस प्रदूषण-शुद्धता की बाइनरी का प्रयोग करते हुए स्त्री दलित व मुसलमानों को अशुद्ध मानकर उनका अस्पृथयिकरण करती है।

  इस प्रकार प्रो सोनालकर हिन्दू फ़ासीवाद से लड़ने के लिए हिन्दू धर्म कि आमूल सामाजिक-सांस्कृतिक आलोचना को परम आवश्यक मानती है। यह मुखलसर सी किताब अपने अंग्रेजी गद्य के सौंदर्य के लिए भी जानी जायेगी। 


प्रमोद कुमार बागड़े

एसोसिएट प्रोफेसर

दर्शन एवं धर्म विभाग

काशी हिंदू विश्वविद्यालय

वाराणसी।

'मैं एक ट्रोल हूं' : भाजपा की 'डिजिटल आर्मी' का एक सरल परिचय




जुलाई 2015 में प्रधानमंत्री ‘मोदी’ ने अपने आधिकारिक आवास ‘रेसकोर्स रोड’ पर 150 सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने वाले अपने समर्थकों की मीटिंग की थी। इस मीटिंग में सोशल मीडिया (विशेषकर ट्विटर पर) पर सक्रिय रहने वाले वे ‘ट्रोल’ (troll-जिसका हिन्दी में साधारण अनुवाद होगा ‘साइबर गुण्डा’) भी शामिल थे, जो साइबर जगत में औरतों, अल्पसंख्यकों और पत्रकारों के खिलाफ गन्दी, भड़काऊ और हिंसक भाषा का इस्तेमाल करने के लिए कुख्यात हैं। इनमें से कुछ के खिलाफ तो ‘एफआइआर’ तक दर्ज है। उस वक्त इस मीटिंग की काफी आलोचना भी हुई थी। इनमें से 22 ऐसे ट्रोल है जिसे खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘फालो’ करते हैं। इनमें अनुराग कश्यप को ट्रोल करने वाला @bhak_sala और @HDL_Global [Hindu Defence League] जैसे कुख्यात ट्रोल भी शामिल हैं।

इसी विषय पर अपनी तरह की अकेली और महत्वपूर्ण किताब I am a troll: Inside the secret world of BJP’s digital army में इस किताब की लेखिका पत्रकार ‘स्वाती चतुर्वेदी’ ने अपने खोजपूर्ण अध्ययन से यह साबित किया है कि ‘आरएसएस’ की तरह ही साइबर जगत में भी बीजेपी की डिजीटल आर्मी बहुत सुनियोजित तरीके से ‘आरएसएस’ के ही एजेण्डा को आगे बढ़ा रही है। लेखिका के अनुसार इस डिजिटल आर्मी का नाम है-‘नेशनल डिजिटल आपरेशन्स सेन्टर’ (NDOC) जिसके मुखिया बीएचयू आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई किये हुए ‘अरविन्द गुप्ता’ है, जो सीधे ‘नरेन्द्र मोदी’ और ‘अमित शाह’ से निर्देश लेते है। इस डिजिटल आर्मी का मुख्यालय दिल्ली में ‘11 अशोक रोड’ पर है, जहां करीब 200 लोग काम करते हैं। इनमें से कुछ ‘स्वयंसेवक’ हैं और कुछ ‘पेड’ है। इन्हीं में से कुछ ‘ट्रोल’ के साक्षात्कार के बहाने लेखिका इनके काम करने का तरीका और और इनकी बीमार मानसिकता का पूरा चिट्ठा सामने रखती हैं। इनमें से ज्यादातर ऊंची जाति के वे नौजवान हैं जो ‘नवउदारवादी नीतियों’ की शुरुआत और ‘बाबरी मस्जिद’ के विघ्वंस के दौरान पैदा हुए है और मूलतः मुस्लिम विरोधी-दलित विरोधी-महिला विरोधी है। इन नौजवानों का दिमाग पढ़कर आप 1991 के बाद की आर्थिक-सामाजिक-शैक्षिक नीतियों की असफलता का अन्दाजा लगा सकते हैं। ‘स्क्रीन शाट्स’ के माध्यम से बीजेपी डिजिटल आर्मी के इन ‘सैनिकों’ के जो ‘ट्विट्स’ किताब में दिये गये है वे बेहद आक्रामक और इतने अश्लील है कि उनमें से किसी को भी उद्घृत करना यहां सम्भव नहीं है। तमाम महिला पत्रकारों की तरह ही स्वाती खुद ऐसे हमलों का शिकार हुई हैं और उन्हें इसके खिलाफ ‘एफआइआर’ तक दर्ज कराना पड़ा है। 

किताब मुख्यतः आधारित है, ‘साध्वी खोसला’ के साक्षात्कार पर। खोसला 2013 से बीजेपी की डिजीटल आर्मी का महत्वपूर्ण हिस्सा थी, लेकिन 2015 की शुरुआत में उनका मोहभंग हो गया और उन्होंने बीजेपी छोड़ दी। यह साक्षात्कार बहुत दिलचस्प है और बीजेपी की भीतरी पर्ते बखूबी खोलता है। खोसला को डिजिटल आर्मी में काम करने के लिए खुद मोदी ने आमंत्रित किया था। खोसला बताती हैं कि लगभग रोज ही चुने हुए लोगो की अरविन्द गुप्ता के साथ बैठक होती थी जहां टारगेट तय किये जाते थे कि किसकी ट्रोलिंग करनी है। यहां तक कि कभी कभी मैसेज भी पहले से तय होते थे और यह निर्देश दिये जाते थे कि इनमें ही थोड़ा हेर फेर करके इसे ही पोस्ट किया जाना है। लेखिका ने कुछ ‘स्क्रीन शाट्स’ के माध्यम से दिखाया है कि एकदम अलग अलग एकाउन्ट से पोस्ट हुए मैसेज हूबहू एक से है। यहां तक कि कामा-फुलस्टाप भी समान है। जिससे उपरोक्त बात की पुष्टि होती है। इस डिजिटल आर्मी ने सोशल मीडिया पर बहुत से फर्जी अकाउन्ट बना रखे हैं। जिसका इस्तेमाल करके मुद्दे विशेष को ‘ट्रेन्ड’ कराया जाता है और इसे अभियान की शक्ल दी जाती है। वर्तमान किसान आंदोलन के संदर्भ में भी आज हम इसकी पड़ताल कर सकते हैं।‘

‘कैराना’ से हिन्दुओं के कथित पलायन की बात भी इसी डिजिटल अभियान का हिस्सा था।

किताब का ‘अपेन्डिक्स बी’ काफी रोचक है। इसमें डाटा एनलिस्ट ‘अंकित लाल’ के एक अध्ययन का इस्तेमाल किया गया है। अंकित लाल ने ‘डाटा एनिलिटिकल टूल’ का इस्तेमाल करते हुए जब यह देखना चाहा कि मोदी भक्त आखिर किस किस जगह से मोदी-विरोधियों को गाली दे रहे हैं तो आश्चर्यजनक रुप से उसमें ‘थाईलैण्ड’ का नाम प्रमुख रुप से उभरा। मतलब साफ है- बीजेपी की डिजीटल आर्मी अपना वास्तविक ‘आईपी एड्रेस’ छुपाने के लिए ‘वीपीएन’ (virtual private network) का इस्तेमाल कर रही है, जिसका सर्वर थाइलैण्ड में है या इसने थाइलैण्ड स्थित किसी ‘आईटी फर्म’ के साथ करार किया हुआ है जो बीजेपी के निर्देशानुसार वही से सोशल मीडिया पर बीजेपी का प्रतिनिधित्व कर रही है।

किताब में यह भी महत्वपूर्ण जानकारी दी गयी है कि जेएनयू के ‘कन्हैया’ वाले केस में जिस ‘डाक्टर्ड वीडियो’ की बात सामने आती है उसे ‘शिल्पी तिवारी’ ने तैयार किया था। यह वही शिल्पी तिवारी हैं जो स्मृति ईरानी के चुनाव अभियान की महत्वपूर्ण सदस्य थी। आपको पता ही होगा कि इस फर्जी वीडियों के कारण क्या क्या हुआ।

किताब यह बात पुरजोर तरीके से बताती है कि बीजेपी ने अन्य सभी पार्टियों से पहले सोशल मीडिया की ताकत को पहचान लिया था। और उस पर विधिवत काम भी शुरु कर दिया था। आज अनेक आईटी फर्म में आरएसएस की ‘आईटी शाखा’ भी लगना शुरु हो गयी है। इसका भी जिक्र किताब में है।

बीजेपी अपनी प्रतिक्रियावादी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए अपनी डिजीटल आर्मी का तो बखूबी प्रयोग कर रही है। लेकिन अपनी इमेज को चमकाने के लिए इसने अमरीका की शक्तिशाली पीआर फर्म ‘एपीसीओ’ (APCO) के साथ करोड़ों का समझौता किया था। इस पीआर के साथ दुनिया के कई तानाशाह भी जुड़े हुए है। ‘वाइब्रेन्ट गुजरात’ कैम्पेन का ठेका इसी ‘पीआर फर्म’ को दिया गया था। जिसका मुख्य काम था- 2002 के दंगे की कालिमा से गुजरात को बाहर निकालना।

इस पहलू को बिना छुए बीजीपी की डिजिटल आर्मी की बात पूरी नही होती। लेकिन किताब में इस बात का जिक्र तक ना होना एक अधूरेपन का अहसास कराता है। इसके अलावा पूरी किताब पड़ते समय ऐसा लगता है कि किताब बहुत जल्दबाजी में लिखी गयी है। कई महत्वपूर्ण जानकारी छूटने का यह भी एक कारण है। इसे ‘श्रिया मोहन’ ने ‘कैचन्यूज डाटकाम’ में इस पुस्तक की अपनी समीक्षा में उचित ही ‘impatient journalism’ कहा है। इस कारण से इस किताब में ‘न्यूज’ ज्यादा है जो ‘व्यूज’ पर भारी पड़ते हैं।

आज सोशल मीडिया की ‘आभासी दुनिया’ और हमारी ‘वास्तविक दुनिया’ का अन्तरसम्बन्ध बहुत गहरा है। सोशल मीडिया की हिंसा को वास्तविक दुनिया की हिंसा में बदलते आज देर नहीं लगती। इसलिए सोशल मीडिया को गम्भीरता से लेने की जरुरत है। यह किताब यह बताती है कि इस आभासी दुनिया में भी प्रतिक्रियावादी ताकतें अपने आप को संगठित करती जा रही हैं। प्रगतिशील ताकतें इसका जवाब स्वतःस्फूर्तता के साथ कितना दे पायेंगी, यह सोचने की बात है।

किताब को ‘Juggernaut’ ने छापा है और इसकी कीमत 250 रुपये है।

#मनीष आज़ाद